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वृहत् पूजा संग्रह गुण सोहता रे वाला, सुरनर जन मन मोहता ।। मोहता हां हो० भवियणने पडिवोहता रे ॥ आ० ॥ ३ ॥ पंचाचार विराजिता रे वाला, सजल जलद जिम गाजता ॥ गाजता हां हो० ॥ सूरि सकल सिर छाजता रे ॥ आ० ॥ ४ ॥ उपदेशामृत बरसता रे वाला, दुरित ताप सहु निरसता ॥ निरसता हां हो० ॥ परमातम पद फरसता रे ॥ आ० ॥ ५ ॥ धरम धुरंधरता धरा रे वाला, जगबांधव जग हितकरा ॥ हितकरा ॥ हां हो० ॥ स्वपर समय विद गणधरा रे ॥ आ० ॥ ६॥ पद श्रीजिनहरखे ग्रह्यो रे वाला, सूरीसर पद तप वह्यो। तप वडो हाँ हो । पुरुषोत्तम नृप शिव लह्यो रे ॥ आ० ॥ ७ ॥
॥काव्य ॥ कुवादि केली तरु सिंधुराणं, सूरीसराणं मुणिवन्धराणं । धीरत्तसन्तज्जिय मंदराणं णमो सया मंगलमंदिराणं ॥ १॥ ॐ हीं श्री आचार्येभ्यो नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥४॥ ॥ पंचम स्थविर पद पूजा ||
॥दोहा॥ द्विविध थिविर जिनवर कया, द्रव्य भाव परकार । लौकिक लोकोत्तर वली, सुणिये भेद विचार ॥