________________
यारह व्रत पूजा
२१५ ॥दोहा॥ छठी पूजन धूपको, धूपो जिनवर अंग। 'कुसुरमि करम तणी हरे, दायक शिव सुखचंग।
॥राग देशाख वा ठुमरी ॥ (तर्ज-प्यारी छवि वरणो न जाया थारे मुखडारी हो वारीराज) __ऐसी विध पूजन, भाई दिल धार, धूपधुम धनसार धार करी ॥ टेर ॥ या भव भीम वारि सागरमें, तरण तरंडक तरल विचार || ध० ॥१॥ चदन देवदारु वलि अवर, मृगमद गंधवटी धनसार ॥ धू० ॥२॥ ऐसे सुरभि द्रव्य बहु मेली, तिणमें सेल्हारस न विसार ॥धृ०॥३॥ मणियुत कचन धूपदानमें, विमलानलयो करी सुप्रचार ॥ धू० ॥४॥ कपूर करत नुतिया जिनपूजा, मविजन गणकी तारणहार ॥ धृ०॥ ५॥
॥ काव्य ॥ नानासुगन्ध वसुनिर्मितसारधूप । चाकर्पित भ्रमरपृन्तमभिहि येन ॥ श्राश्रये विधिनिरस्परिशालभक्त्या । धूपेज्जिनाधिपतिनं शिवदमुदाय ॥ १ ॥ ॐ हो श्रीपर०