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वारह व्रत पूजा म्हा. च० ॥ प्रति वासर प्रति पर्व, सजे तिम सारिये ॥ म्हा० स० ॥ १॥ पडिलेहण धुर धार, सफल किरिया करो ॥ म्हा० स०॥ परिठावण विधिपाद, दयाधर आदरो ॥ म्हा० द० ॥ पटकाया संघट्ट तजीने सचरो ॥ म्हा० त० ॥ अचपल थड पच्चसाण, विविध मन संभरो ॥ म्हा० वि० ॥ २ ॥ वलि सहु दूपण टालिने, पाप निऊदिये ॥ म्हा० पा० ॥ चौगति च्यार कपाय, करम दल छदिये ॥ म्हा० क० ॥ भवोदधि तारण तरण, सुगुरु पद दिये ॥ म्हा० सु० ॥ कुशल कला दल माल, करी चिरनंदिये ॥ म्हा० क० ॥३॥
॥दोहा॥ द्वादशमी ध्वज पूजमे, घोपण देई अमार | धरिये द्वादश भावना, तरिये भरजल पार ।।
॥राग देशास ॥
(तर्ज-कुवजाने जाद् डारा) प्रभुजीसे प्रीत लाना, करि वन पूजन विधाना हो ॥ प्र० टेर ॥ जोयण सहसमान मणि मंडित कंचन दंड रचाना हो० ॥ प्र० ॥१॥ पच वरण युत वसन पताका, अधिवासित लहकाना हो ॥ प्र० ॥२॥ ढकनाद