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वृहत् पूजा संग्रह अरज करत हूँ, सब जन काज सुधारो माई ॥तु०॥३॥ मैं सेवक तुम सुत चरननको, आयो हूँ अधिकारो माई ।। इन्द्र कहे पदपंकज प्रणमु, भय सर दूर निवारो माई ।। तु० ॥ ४ ॥ पांच रूप करीप्रभुजीकु लावे, पांडुगवन सिणगारो माई || चोसठ इन्द्र महोत्सव करी है ; पूजन अष्ट प्रकारो माई ।। तु० ॥ ५ ॥
प्रभु प्रतिमा पंचतीर्थी अन्दर से लाचे सिंहासण ऊपर स्थापन करे, फिर स्नात्र पूजा करावे ।
॥दोहा॥ पंचरूप कर इन्द्र जिन, पंडुग वन ले जाय । सिंहासन उछरंग गहि, स्नात्र करे सुरराय ।।
(तर्ज-इतनो गुमान न करिये छबीली राधा हे)
जिनजी को पूजन करिये, हाँ रे हो रंगीले श्रावक हो ॥ जि० ॥ द्रव्य भाव बेहु भेदें करतां, भवसागर निस्तरिये ॥ जि० ॥१॥ गंगाजल चंदन पुष्पादिक, अडविध मंगल धरिये ॥ भाव विशुद्ध जिन गुण गावो, नाटक नवनव चरिये । जि०॥२॥ बहुविध प्रभुकी भक्ति रचावत, वर्नन कर भव तरिये। वो आनन्द देखे सोई जाने, दुःख सब दूरे हरिये ॥ जि० ॥३॥ पूजन करी प्रभुकु घर ल्यावे,