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ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ३८३ जन्म जरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय दीपकं यजामहे स्वाहा।
॥ षष्ठम भक्षत पूजा ॥ क्षत विक्षत आवम हुआ, द्रव्य भाव मन योग। प्रभु अक्षत पूजा करो, हो अक्षत उपयोग ॥१॥ द्रन्य भाव मन योग को, प्रभु पद अक्षत धार । मन पर्यायी ज्ञान का, नर पावे अधिकार ॥२॥
(तर्ज-कोयल टहुक रही मधुवन मे०) तन मन अक्षत प्रभु पूजन कर, जन जीवन अक्षत गुण धर रे ॥ टेर ॥ तन आश्रित मन की गति चंचल, करता यह प्रतिपल चर भर रे । परमातम पद ध्यानालम्बन, सहज समाधि स्थिरता वर रे ॥ त०॥१॥ निज मन पर्यायों पर संयम, धर मनपर्यवज्ञानी हो नर रे। नर क्षेत्रे सर सज्ञी चिंतित, जानें रूपी द्रव्य प्रकर रे ॥ त० ॥२॥ साधारण ऋजुमती जाने, विपुलमती अति निर्मलतर रे। छ8 से वारह गुण थानक तक, इसकी रहती है खबर रे ॥ त० ॥ ३॥ मन पर्यव ज्ञानावरणी को, काटे जग जो साधु प्रपर रे। दीक्षा लेते ही मन पर्यव, ज्ञानी होते तीर्थकर रे ॥ त० ॥ ४ ॥ तीर्थंकर की