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वृहत् पूजा-संग्रह आंखों से रोता, विरोधी मन मल को धोता। चरण शरण प्रभु का लिया, मन का मिटा विरोध । भव भव का दुःख खोगया, पाया आतम वोध । अन्त वह होगा शिवचारी, विचरते पारस व्रत धारी ॥ ६ ॥ शत्रु या मित्र भले होना, सामने जन उत्तम होना । लोह भी हो जाये सोना, नीच संग खोना ही खोना । धरणेन्द्र पदमावती, करते प्रभु गुण गान । गये स्वयं निज धाम को, अहिछत्र वह धाम । हुआ तीरथ धन बलिहारी, विचरते पारस व्रत धारी ॥ ७॥
॥दोहा॥ त्यासी दिन छमस्थ में, रहते श्री भगवान । चैत वदी मिति चौथ को, पाये केवल ज्ञान ।
(तर्ज-नाचत सुर इन्द चन्द०)। धारंत प्रभ आत्म ध्यान, ज्ञान हितकारी ॥ टेर ।। अनुक्रम गुणठान चढ़े, घाति करम काट कढ़े। आतम पद पाठ पढे, बेला तप धारी ॥ धा० ॥ १॥ धातकी सुवृक्ष तले, विशाखा सुचन्द्र बले। लोकालोक सर्वकले, केवल ज्ञान धारी ॥ धा० ॥२॥ प्रातिहार्य प्रकट आठ, समवशरण पुण्य ठाठ । दुःख गये दूर नाठ, शुप्रभावकारी ॥धा० ॥३॥