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वृहत् पूजा-संग्रह नि० ॥ १॥ न अपना या पराया था, जगत उनके लिये सारा । आत्मवत् भावना उनकी, कहो क्या दूसरा जाने ॥ नि० ॥ २ ॥ तजी निज देह की चिन्ता, रहे रत आत्म चिन्तन में । प्रभु के आत्म चिन्तन को, कहो क्या दूसरा जाने ॥ नि० ॥ ३ ॥ समिति गुप्ति अनुत्तर थी, अपूरव साधना उनकी । प्रभु की साधना विधि को, कहो स्या दूसरा जाने ॥ नि० ॥ ४ ॥ तपस्या पारणा प्रभु ने, किया धन सेठ के घरमें । सुरों ने की महा महिमा, कहो क्या दूसरा जाने ॥ नि० ॥ ५ ॥
॥दोहा॥ प्रकृति धातु उपसर्ग से, पलटे अपना रूप । प्रभ प्रकृति पलटी नहीं, सहिमा यही अनूप ॥१॥
(तर्ज-जगत में नवपद जयकारी० लावणी) विचरते पारस व्रतधारी, सदा सुख दुख में अविकारी ॥ टेर ॥ देहकी ममता थी त्यागी, सुरतियाँ आतम में लागी। मोहकी महिमा थी भागी, ज्योतियाँ जीवन में जागी । कुण्ड सरोवर तीर पर, स्वामी धरते ध्यान । वनगज निज कर 'पूज कर, पाया अमर विमान । कली कुण्ड तीरथ अवतारी, विचरते पारस व्रतधारी ॥ १ ॥ कादम्बरी