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वृहत् पूजा-संग्रह ॥ २ ॥ अल्प कपायी सदा सुखदायी, पर उपकारी प्रवृत्ति रही है। गुण ग्राहक वरदान रूचि शुचि, मानवता के हेतु यही है ।। अक्षत० ॥३॥ मानव में नव जीवन पावन, प्रभु गुण समता सहज रही है। कर्मों से आवृत होने से, आज जगी 'दिव्य ज्योति नहीं है । अक्षत० ॥ ४ ॥ चार गुणस्थानक नर आयुप, बन्ध स्थान की बात कही है। सत्ता उदये चौदह होते. केवल ज्ञान की खसि यही है ॥ अक्षत० ॥ ५॥ प्रभु दर्शन से दर्शन पाकर, पूर्व जो आयुष वन्ध नहीं है। मोक्ष न हो तो वैमानिक की, देवगति अति अद्भुत ही है || अक्षत० ॥ ६ ॥ प्रतिभव में एकवार ही बँधता, ऐसा कर्स तो आयुष ही है। प्रति पल बँधते कर्म सभी इन, कर्मों को शर्म जरा भी नहीं है ।। अक्षत. ॥ ७ ॥ आयुष कर्म की कैद कटे, अविनाशी शिवपुर राह यही है। हरि कवीन्द्र करो पुरूषास्थ, प्रभु पूजा सुविचार कही है ॥ अक्षत० ॥ ८॥
काव्यम् ॥ कृत्वाऽक्षतैः सुपरिणाम गुणैः प्रशस्तं० । - मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने.."आयुष्य कर्म समृलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा ।