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प्राथमिक [प्रथम संस्करण से]
मनुष्य में जो सोचने-समझने की योग्यता है उसके फलस्वरूप उसे अपने विषय की चिन्ता ने अनादिकाल से सताया है । घर्तमान की चिन्ताओं के अतिरिक्त उसे इस बात की भी बड़ी जिज्ञासा रही है कि भविष्य में उसका क्या होने वाला है ? कल की बात आज जान लेने के लिए वह इतना आतुर हुआ है कि उसने नाना प्रकार के आधारों से भविष्य का अनुमान करने का प्रयत्न किया है। मनुष्य के रूप, रंग, शरीर व अंग-प्रत्यंग के गठन आदि पर से तो उसके भविष्य का अनुमान करना स्वाभाविक ही है । किन्तु उसकी बाहरी परिस्थितियों, यहाँ तक कि तारों और नक्षत्रों की स्थिति पर से एक-एक प्राणी के भविष्य का अनुमान लगाना भी बहुत प्राचीनकाल से प्रचलित पाया जाता है। फलित ज्योतिष में लोगों का विश्वास सभी देशों में रहा है । इसी कारण इस विषय का साहित्य बहुत विपुल पाया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान के आधार से अपनी जीविका अर्जन करने वाले लोगों की कभी किसी देश में कमी नहीं हुई।
भारतवर्ष का ज्योतिष शास्त्र भी बहुत प्राचीन है । संस्कृत और प्राकृत में इस विषय के अनेक ग्रन्थ पाये जाते हैं। ज्योतिष शास्त्र के मुख्य भेद हैं गणित
और फलित । गणित ज्योतिष विज्ञानात्मक है जिसके द्वारा ग्रहों की गति और स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर काल-गणना में उसका उपयोग किया जाता है । ग्रहों की स्थिति व गति पर से जो शुभ-अशुभ फल का निरूपण किया जाता है उसे फलित ज्योतिष कहते हैं। इसका आधार लोक श्रद्धा के सिवाय और कुछ प्रतीत नहीं होता । तथापि उसकी लोकप्रियता में कोई सन्देह नहीं । यति, मुनि, साधुसन्त व विद्वानों से बहुधा लोग आशा करते हैं कि वे उनके व उनके बाल-बच्चों के भावी जीवन व सुख-दुःख की बात बतला दें। किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि ये भविष्यवाणियाँ सदैव सत्य नहीं निकलतीं। यों 'हाँ' और 'ना' के बीच प्रत्येक पक्ष की पचास प्रतिशत सम्भावना अवश्यम्भावी है। इस प्रसंग में यूनान के इतिहास की एक बात याद आती है । उस देश में 'डेल्फी' नामक देवता के मन्दिर के.
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पुजारी का काम था कि वह लोगों को बतलाये कि वे अमुक कार्य में सफल होंगे या नहीं। एक वैज्ञानिक ने उसकी भविष्यवाणी की प्रामाणिकता में सन्देह प्रकट किया । भविष्यवक्ता ने उनका ध्यान मन्दिर की उस विपुल धनराशि की ओर आकर्षित किया जो वहाँ की सफल भविष्यवाणी के पुरस्कारों द्वारा संचित हुई थी । "यदि समुद्र-यात्रा को जाने वाले व्यापारियों को बतलाया गया शुभमुहूर्त सच न निकला होता, तो वे क्यों यह सब भेंट वहाँ लौटकर अर्पित करते !" भविष्यवक्ता के इस प्रश्न के उत्तर में वैज्ञानिक ने कहा-"यह एक पक्ष का इतिहास तो आपका ठीक है। किन्तु क्या आपके पास उन व्यापारियों का भी कोई लेखाजोखा है, जो आपके बतलाये शनिमहर्त में यात्रा को निकले, किन्तु फिर लौटकर घर न आ सके ?"
फलित ज्योतिष क मर्मस्थल पर यह वच्चाघात सहस्रों वर्ष पूर्व हो चुका है। हिन्दू, बौद्ध व जैन-शास्त्रों में भी साधुओं को ज्योतिष फल कहने का निषेध किया गया है, जो उसकी सन्देहात्मकता का ही परिचायक है । तथापि यह कला आज भी जीवित है और कुछ वर्षों में लोकप्रिय भी है।
फलित ज्योतिष का एक अंग है—'अष्टांगनिमित्त' । इसमें शरीर के तिल, मसा आदि व्यंजनों, हाथ-पैर आदि अंगों, ध्वनियों व स्वरों, भूमि के रंग रूप, वस्त्र-शस्त्रादि के छिद्रों, ग्रह नक्षत्रों के उपय-अस्त, शंख, चक्र, कलश आदि लक्षणों तथा स्वप्न में देखी गयी वस्तुओं व घटनाओं का विचार कर शुभाशुभ रूप भविष्य फल कहा जाता है । एक जैनश्रुति के अनुसार, इस निमित्तशास्त्र के महान् ज्ञाता भद्रबाहु थे । कोई इन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु ही मानता , जिन्होंने इसी ज्ञान के बल से उत्तर भारत में आने वाले द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की बात जानकर अपने संघ सहित दक्षिण की ओर गमन किया था ! कोई इन्हें प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर का समकालीन व उनका भ्राता ही कहते हैं । प्रस्तुत भद्रबाह-संहिता का विषय निमित्तशास्त्र का प्रतिपादन करना है। यह ग्रन्थ पहले भी छप चुका है, तथा इसके कर्तृत्व के सम्बन्ध में बहुत कुछ विचार भी किया जा चुका है। पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार के मत्तानुसार मह प्रन्थ भद्रबाहु श्रुतकेवली की रचना न होकर कुछ 'इधर-उधर के प्रकरणों का बेढंगा संग्रह' है और उसका रचनाकाल वि. सं. 1657 के पश्चात् का है। किन्तु मुनि जिनविजय जी को इस ग्रन्थ की एक प्रति वि. सं. 1480 के आसपास की मिली थी, जिसके आधार से उन्होंने इस ग्रन्थ को वि. सं. की ।।वीं-12वीं शताब्दी से भी प्राचीन अनुमान किया है। प्रस्तुत संस्करण के सम्पादक का मत है कि इस रचना का संकलन वि. की आठवीं, नौवीं शताब्दी में हुआ होगा।
पं. नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपने इस प्रस्तुत संस्करण में पूर्व मुद्रित अन्य के अतिरिक्त 'जन सिद्धान्त भवन आरा' की दो प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों का भी उपयोग किया है । उन्होंने मूल के संस्कृत पद्यों का पूरा अनुवाद भी किया है व
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प्रत्येक अध्याय के अन्त में 'बृहत्संहिता' आदि कोई बीस-बाईस अन्य ग्रन्थों के आधार से विषय-विवेचना भी किया है। उन्होंने अपनी बृहत् प्रस्तावना में विषय एवं ग्रन्थ की रचना आदि विषयों पर भी महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है। इस सफल प्रयास के लिए हम विद्वान् सम्पादक का अभिनन्दन करते हैं और उसके उत्तम रीति से प्रकाशन के लिए 'भारतीय ज्ञानपीठ' के संचालकों को बधाई देते हैं ।
-ही. ला. जैन -आ. ने. उपाध्ये
ग्रन्थमाला सम्पादक
(प्रथम संस्करण )
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प्रस्तावना [प्रथम संस्करण से]
अत्यन्त प्राचीन काल से ही. आकाशमण्डल मानव के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है । सूर्य और चन्द्रमा से परिचित हो जाने के पश्चात् ताराओं के सम्बन्ध में मानव को जिज्ञासा उत्पन्न हुई और उसने ग्रह एवं उपग्रहों के वास्तविक स्वरूप को अवंगत किया । जैन परम्परा बतलाती है कि आज से लाखों वर्ष पूर्व कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति के समय में, जब मनुष्यों को सर्व-प्रथम सूर्य और चन्द्रमा दिखलाई पड़े तो वे इनसे सशंकित हुए और अपनी उत्कण्ठा शान्त करने के लिए उन्त प्रतिश्रुति नामक कुलकर मनु के पास गये। उक्त मनु नेहा सौर-जा सम्बन्धी सारी जानकारी नयी और ये ही सौरजगत् को ज्ञातव्य बातें ज्योतिष शास्त्र के नाम से प्रसिद्ध हुई। आगभिक परम्परा अनवच्छिन्न रूप से अनादि होने पर भी इस युग में ज्योतिषशास्त्र की नींव का इतिहास यहीं से आरम्भ होता है । मूलभूत सौर-जगत् के सिद्धान्तों के आधार पर गणित और फलित ज्योतिष का विकास प्रतिश्रुति मनु के सहस्रों वर्ष के बाद हुआ तथा ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति के आधार पर भावी फलाफलों का निरूपण भी उसी समय से होने लगा। कतिपय भारतीय पुरातत्वविदों को यह मान्यता है कि गणित ज्योतिष की अपेक्षा फलित ज्योतिष का विकास पहले हुना है; क्योंकि आदि मानव को अपने कार्यों की सफलता के लिए समय शुद्धि की आवश्यकता होती थी। इसका सबसे बड़ा प्रभाव यही है कि ऋक, यजप और साम ज्योतिष में नक्षत्र और तिथि-शुद्धि का ही निरूपण मिलता है । ग्रह-णित की चर्चा सर्वप्रथम सूर्य सिद्धान्त और पञ्चसिद्धान्तिका में मिलती है । वेदांग ज्योतिष प्रमुख रूप से समय-शुद्धि का ही विधान करता है । ___ ज्योतिष के तीन भेद है--सिद्धान्त, सहिता और होरा । सिद्धान्त के भी तीन भेद किये गये हैं सिद्धान्त, तन्त्र और करण। जिन ग्रन्थों में सृष्ट्यादि से इप्ट दिन पर्यन्त अहगंण बनाकर ग्रह-गणित की प्रक्रिया निरूपति की गयी है, वे तन्त्र ग्रन्थ और जिनमें कल्पित इष्ट वर्ष का युग मानकर उस युग के भीतर ही किसी अभीष्ट दिन का अहर्गण लाकर ग्रहानयन की प्रक्रिया निरूपित की जाय,
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भद्रबाहुसंहिता
उन्हें करण ग्रन्थ कहते हैं। ___ संहिता ग्रन्थों में भूशोधन, दिकशोधन, शल्योद्धार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, इष्टिकाद्वार, गेहारम्भ, गृहप्रवेश, जलाशयनिर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, उल्कापात, वृष्टि, ग्रहों के उदयास्त का फल, ग्रह चार का फल, शकुनविचार, कृषि सम्बन्धी विभिन्न समस्याएं, निमित्त एवं ग्रहण फल आदि बातों का विचार किया जाता है ।
होरा का दूसरा नाम जातक भी है। इसकी उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से है । आदि शब्द 'अ' और अन्तिम शब्द 'त्र' का लोप कर देने से होरा शब्द बनता है। जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति के अनुसार व्यक्ति के लिए फलाफल का निरूपण किया जाता है । इसमें जातक की उत्पत्ति के समय के नक्षत्र, तिथि, योग, करण आदि का फल विस्तार के साथ बताया गया है । ग्रह एवं राशियों के वर्ण, स्वभाव, गुण, आकार, प्रकार आदि बातों का प्रतिपादन बड़ी सफलतापूर्वक किया गया है। जन्मकुण्डली का फलादेश कहना तो इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य है तथा इस शास्त्र में यह भी बताया गया है कि आकाशस्थ राशि और ग्रहों के बिम्बों में स्वाभाविक शुभ और अशुभपना विद्यमान है, किन्तु उनमें परस्पर साहचर्यादि तात्कालिक सम्बन्ध से फल विशेष शुभाशुभ रूप में परिणत हो जाता है, जिसका प्रभाव पृथ्वी स्थित प्राणियों पर भी पूर्ण रूप से पड़ता है। इस शास्त्र में देह, द्रव्य, पराक्रम, सुख, सुत, शत्रु, कलत्र, मृत्यु, भाग्य, राज्यपद, लाभ और व्यय इन बारह भावों का वर्णन रहता है । जन्म-नक्षत्र और जन्म-लग्न पर से फलादेश का वर्णन होरा शास्त्र में पाया जाता है।
संहिता-ग्रन्थों का विकास ___संहिता-ग्रन्थों का विकास जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में ज्योतिष विषयक तत्वों को स्थान प्रदान करने के लिए ही हुआ है । कृषि की उन्नति एवं प्रगति ही संहिता-ग्रन्थों का प्रधान प्रतिपाद्य विषय है । वेदों में भी फलित ज्योतिष के अनेक सिद्धान्त आये हैं । कृषि के सम्बन्ध में नाना प्रकार की जानकारी और विभिन्न प्रकार के निमित्तों का वर्णन अथर्ववेद में आया है । जय-पराजय विषयक निमित्त तथा विभिन्न प्रकार के शकुन भी इस ग्रन्थ में वर्णित हैं । ऋग्वेद के ऋतु, अयन, वर्ष, दिन, संवत्सर आदि भी संहिताओं के मूलभूत सिद्धान्तों में परिगणित हैं। संस्कृत साहित्य के उत्पत्तिकालीन साहित्य में भी संहिताओं के तत्त्व उपलब्ध होते हैं । यद्यपि यह सत्य है कि वराहमिहिर के पूर्ववर्ती संहिता-ग्रन्थों का अभाव है, पर इनके द्वारा उल्लिखित मय, शक्ति, जीवशर्मा, मणित्थ, विष्णुगुप्त, देवस्वामी, सिद्धसेन और सत्याचार्य जैसे अनेक ज्योतिर्विदों के ग्रन्थ वर्तमान पे, यह सहज में जाना जा सकता है । संहिता-ग्रन्थों में निमित्त, वास्तुशास्त्र, मुहूत्तं.
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प्रस्तावना
शास्त्र, अरिष्ट एवं शकुन आदि का वर्णन रहता है। जीवनोपयोगी प्राय: सभी व्यावहारिक विषय संहिता के अन्तर्गत आ जाते हैं।
व्यापक रूप से संहिताशास्त्र के बीजसूत्र अथर्ववेद के अतिरिक्त आश्वलायन गृह्यसूत्र, पारस्कर गृह्यसूत्र, हिरण्यकेशीसूत्र, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र, सांख्यायन गृह्यसूत्र, पाणिनीय व्याकरण, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, महाभारत, कौटिल्य अर्थशास्त्र, स्वप्नवासवदत्त नाटक एवं हर्षचरित प्रभृति ग्रन्थों में विद्यमान हैं। आश्वलायन गृह्यसूत्र में ---"श्रावण्यां पौर्णमास्यां भाषणकर्माणि" "सीमन्तोन्नयनं यदा पुष्यनक्षत्रण चन्द्रमा युक्तः स्यात् ।" इन वाक्यों में मुहूर्त के साथ विभिन्न संस्कारों की समय-शुद्धि एवं विविध विधानों का विवेचन किया गया है । इस नन्थ में 3,7-8 में जंगली कबूतरों का घर में घोंसला बनाना अशुभ कहा गया है । यह शकुन प्रक्रिया संहिता ग्रन्थों का प्राण है । पारस्कर गृह्यसूत्र में-.-"त्रिषु त्रिषु उत्तरादिषु स्त्राता मृगशिरास रोहिण्या'-- इत्यादि सूत्र में उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, रेवती और अश्विनी नक्षत्र को विवाह नक्षत्र कहा है। इतना ही नहीं इस सूत्रग्रन्थ में आकाश का वर्ण एवं कई ताराओं की विभिन्न आकृतियाँ और उनके फल भी लिखे गये हैं । यह प्रकार संहिता विषय से अति सम्बद्ध है। 'सांख्यायन गृह्यसूत्र' (5-10) के अनुसार, मधुमक्खी का घर में छत्ता लगाना तथा कौओं का आधी रात में बोलना अशुभ कहा है । बौधायन सूत्र में-"मीन मेषयोमषवृषभयोर्वसन्तः" इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। सूर्य संक्रान्ति के आधार पर ऋतुओं की कानाएं हो चुकी थी तथा कृषि पर इन ऋतुओं का कैसा प्रभाव पड़ता है, इसका भी विचार आरम्भ हो गया था।
निरुक्त में दिन, रात, शुक्लपक्ष, कृष्णपक्ष, उत्तरायण, दक्षिणायन आदि की व्युत्पत्ति मात्र शाब्दिक ही नहीं है, बल्कि परिभाषात्मक है । ये परिभाषाएं ही आगे संहिता-ग्रन्थों में स्पष्ट हुई हैं । पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में संवत्सर, हायन, चैत्रादिमास, दिवस, विभागात्मक मुहूर्त शब्द, पुष्य, श्रवण, विशाखा आदि की व्युत्पत्तियां दी हैं। 'वाताय कपिला विद्युत् उदाहरण द्वारा निमित्त शास्त्र के प्रधान विषय 'विद्य त् निमित्त' पर प्रकाश डाला है तथा कपिला विद्युत् को वायु चलने का सूचक कहा है । पाणिन ने 'विभाषा ग्रहः (3,1,143) में ग्रह शब्द का भी उल्लेख किया है । उत्तरकालीन पाणिनि-तन्त्र के विवेचकों ने उक्त सूत्र के ग्रह शब्द को नवग्रह का द्योतक अनुमान किया है। अष्टाध्यायी में पतिघ्नी रेखा का भी जिक्र आया है, अतः इस ग्रन्थ में संहिता-शास्त्र के अनेक बीजसूत्र विद्यमान हैं।
मनुस्मृति में सिद्धान्त ग्रन्थों के समान युग और कल्पमान का वर्णन मिलता ___ है। तीसरे अध्याय के आठवें श्लोक में आया है कि कपिल भूरे वर्णवाली, अधिक
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भद्रबाहुसंहिता
या कम अंगों वाली, अधिक रोम बाली या सर्वथा निलम कन्या के साथ विवाह नहीं करना चाहिए। इस कथन से लक्षण और व्यंजन दोनों ही निमित्तों का स्पष्ट संकेत मिलता है । इसी अध्याय के 9-10 श्लोक भी लक्षणशास्त्र पर प्रकाश डालते हैं। 'लोष्टमर्दी तृणच्छेदों ( 4,71) में शकुनों की ओर संकेत किया गया है : कालिक हुए न्यत् स्तनितवर्षेषु महोत्कानां च सम्प्लवे' (4,103). "निघते भूमिचलते ज्योतिषां चोपसर्जने (4,105), "नोहारे वाणश के" (4,113) एवं "पांसुवर्ष दिशां दाहे" (4,115) का उल्लेख किया है। ये सभी श्लोक शकुनों से सम्बन्ध रखते हैं । अतः अनध्याय प्रकरण सहिता का विकसित रूप है। "न चोत्पातनिमित्ताभ्यां न नक्षत्रांगविद्यया" (6.50 ) में उत्पात, निमित्त, नक्षत्र और अंगविद्या का वर्णन आया है । इस प्रकार मनुस्मृति में संहिताशास्त्र के बीजमूत्र प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं ।
याज्ञवल्क्य स्मृति में नवग्रहों का स्पष्ट उल्लेख वर्तमान है। क्रान्तिवृत्त के द्वादश भागों का भी निरूपण किया गया है, इस कथन से मेषादि द्वादश राशियों की सिद्धि होती है। श्राद्धकाल अध्याय में वृद्धियोग का भी कथन है, इसरो संहिताशास्त्र के 27 योगों का समर्थन होता है । याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रायश्चित्त अध्याय में "ग्रहसंयोगजैः फलैः" इत्यादि वाक्यों द्वारा ग्रहों के संयोगजन्य फलों का भी कथन किया गया है । किस नक्षत्र में किस कार्य को करना चाहिए, इसका वर्णन भी इस ग्रन्थ में विद्यमान है। आचाराध्याय का निम्न श्लोक, जिस पर से सातों वारों का अनुमान विद्वानों ने किया है, बहुत प्रसिद्ध है --
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सूर्य: सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः । शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चंते ग्रहाः स्मृताः ॥
महाभारत में संहिता-शास्त्र की अनेक बातों का वर्णन मिलता है। इसमें युग-पद्धति मनुस्मृति जैसी ही है। सत् युगादि के नाम, उनमें विधेय कृत्य कई जगह आये हैं । कल्पकाल का निरूपण शान्तिपर्व के 183वें अध्याय में विस्तार मे किया गया है। पंचवर्यात्मक युग का कथन भी उपलब्ध है। संवत्सर, परिवत्सर इदावत्सर, अनुवत्सर एवं इत्सर- इन पाँच युग सम्बन्धी पाँच वर्षों में क्रमशः पाँचों पाण्डवों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है
अनुसंवत्सरं जाता अपि ते कुरुसत्तमाः ।
पाण्डुपुत्रा व्यराजन्त पञ्च संवत्सरा इव ॥
J
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अ० ए० अ० 124-24
पाण्डवों को वनवास जाने के उपरान्त कितना समय हुआ, इसके सम्बन्ध में भीष्म दर्योधन से कहते हैं
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प्रस्तावना
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तेषां कालातिरेकेण ज्योतिषां च व्यतिक्रमात् । परचमे पञ्चमे वर्ष द्वौ मासावपजायतः ।। एषामभ्यधिका मासाः पञ्च च द्वादश क्षपाः। प्रयोदशनां वर्षाणामिति मे वर्तते मतिः ॥
–वि०प० ब० 52/3-4 इन श्लोकों में पांच वर्षों में दो अधिमास का जिक्र किया गया है । सिद्धान्त ज्योतिष के ग्रन्थों के प्रणयन के पूर्व संहिता-ग्रन्थों में अधिमारा वा निरूपण होने लगा था। गणितागत अधिमारा अधिशप और अधिशुद्धि का विचार होने के पूर्व पाँच वर्षों में दो अधिमासों की कल्पना संहिता के विषय के अन्तर्गत है ।
महाभारत के अनुशासन पर्व के 64वें अध्याय में समस्त नक्षत्रों की सूची देकर बतलाया गया है कि विस नक्षत्र में दान देने से किस प्रकार होता है । महाभारत काल में प्रत्येक मुहर्त का नामकरण भी व्यवहृत होता था तथा प्रत्येय मुहूर्त का सम्बन्ध भिन्न-भिन्न धार्मिक कार्यों से शुभाशुभ के रूप में माना जाता था । इस ग्रन्थ में 27 नक्षत्रों के देवताओं को स्वभावानुसार विधेय नक्षत्र के भावी शुभ एवं अशुभ का निर्णय किया गया है । गुभ नक्षत्रों में ही विवाह, युद्ध एवं यात्रा करने की प्रथा थी। युधिष्ठिर के जनम-समय का वर्णन करते हुए कहा गया है
ऐन्द्र चन्द्रसमारोहे महतंऽभिजिदष्टमे ।
दिको मध्यगते सूर्ये तिथी पूर्णलि पूजिते । अर्थात् आश्विन शुक्ला पंचमी के दोपहर को अप्टन अभिजित् नहर्त में, सोमवार के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में जन्म हुआ। महाभारत में कुछ ग्रह अधिव अरिष्ट कारखा बतलाये गये हैं; विशेषतः शनि और मंगल को अधिक दुष्ट कहा है । मंगल लाल रंग का समस्त प्राणियों को अशान्ति देने वाला और रथतपात करने वाला समझा जाता था। केवल गुरु ही शुभ और समस्त प्राणियों को सुखशान्ति देने वाला बताया गया है । ग्रहों ना गम नक्षत्रों के साथ योग होता प्राणियों के लिए कल्याणदायक माना गया है। उद्योग पर्व के 14वें अध्याय के अन्त में ग्रह और नक्षत्रों के अशुभ योगों का विस्तार रो वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण ने जव वार्ण से भेंट की, तब कणं दे इस प्रकार ग्रह-स्थिति का वर्णन किया--- "शनैश्च र रोहिणी नक्षत्र में मंगल को पीड़ा दे रहा है । ज्येष्ठा नक्षत्र में मंगल वक्री होकर अनुराधा नामक नक्षत्र से योग कर रहा है। महापात संज्ञक ग्रह चित्रा नक्षत्र को पीड़ा दे रहा है । चन्द्रमा के चिह्न विपरीत दिखाई पड़ते हैं और राह सूर्य को ग्रसित करना चाहता है।"
शल्यत्रध के समय प्रात:काल का वर्णन इस प्रकार किया गया है--
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भद्रबाहुसंहिता
"भृगुसूनुधरापुत्री शशिजेन समन्वितौ ॥" -श० ५० अ० 11-18 अर्थात्---शुक्र, मंगल और बुध इनका योग शनि के साथ अत्यन्त अशुभ कारक है । वर्तमान संहिता-ग्रन्थों में भी बुध और शानि का योग अत्यन्त अशुभ माना जाता है । महाभारत में 13 दिन का पक्ष अशुभ कारक कहा गया है
चतुर्दशी पञ्चदशौं भूतपूर्वा तु षोडशीम् । इमां तु नाभिजानऽहममावस्यां त्रयोदशीम् ।।
चन्द्रसूर्यावुभौ प्रस्तावकमासी प्रयोवशाम् । अर्थात्-व्यासजी अनिष्टकारी ग्रहों की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि 14, 15 एवं 16 दिनों के पक्ष होते थे; पर 13 दिनों का पक्ष इसी समय आया है तथा सबसे अधिक अनिष्टकारी तो एक ही मास में सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का होना है और यह ग्रहणयोग भी त्रयोदशी यो दिन पड़ रहा है, अतः समस्त प्राणियों के लिए भयोत्पादक है । पहाभारत से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय व्यक्ति के सुख-दुख्न, जीवन-मरण आदि सभी ग्रह-नक्षत्रों की गति स सम्बद्ध माने जाते थे।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के दशवें प्रकरण में युद्धविषयक शकुन, जय-पराजय द्योतका निमित्तों का वर्णन है। यात्रा सम्बन्धी शकुनों का सविस्तार विवेचन भी मिलता है।
हर्षचरित में बाण ने कालाशनी का आश्रय लेकर हर्ष के प्रयाण के फलस्वरूप शत्रुओं में होने वाले दुनिमित्तों की एक लम्बी मुची दी है । इस सूची से स्पष्ट है कि वाण के समय में संहिता-शास्त्र का पूर्णतया विकास हो गया था। बताया गया है
1 यमराज के दूतों की दांप की तहपाल हिरण इधर-उधर दीलने लगे। 2. आंगन में मधु-मयियों के छत्तों में उड़कर मधुमक्खियाँ भर गयौं । 3. दिम में शृगाली मुंह उठाकर रोने लगी। 4. जंगली कबूतर घरों में आने लगे। 5. उपवन वृक्षों में असमय में पुष्प-फल दिखलाई पड़ने लगे। 6. सभास्थान को खम्भों पर बनी हुई शालभंजिकाओं को आंसु बहने लगे। 7. योद्धाओं को दर्पण में अपने ही सिर धड़ से अलग होते हुए दिखलाई
पड़े। ४. राजमहिषियों की चूड़ामणि में पैरों के निशान प्रकट हो गये। 9. चेटियों के हाथ के चमर छूटकर गिर गये। 10. हाथियों के गण्डस्थल भौरों से शून्य हो गये । }1. घोड़ा ने मानो यमराज की गन्ध से हरे धान का खाना छोड़ दिया ।
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12. अन-सन कंकण पहने हुए बालिकाओं के ताल देकर नचाने पर भी
मन्दिर-मयूरों ने नाचना छोड़ दिया । 13. रात में कुते मुंह उठाकर रोने लगे। 14. रास्तों में कोटवी-मुक्तकेशी नग्न स्त्रियों घूमती हुई दिखलाई पड़ी। 15 महलों के फर्शों में घास निकल आयी। 16. योद्धाओं की स्त्रियों के मुख का जो प्रतिबिम्ब मधुपात्र में पड़ता था
उसमें विधवाओं जैसी एका वेणी दिखाई पड़ने लगी। 17. भूमि कांपने लगी। 18. शूरों के शरीर पर रक्त की बूंदें दिखाई पड़ी, जैसे बधदण्ड प्राप्त व्यक्ति
का शरीर लाल चन्दन से सजाया जाता है। 19. दिशाओं में चारों ओर उल्कापात होने लगा। 20. भयंकर झंझावात न प्रत्येक घर को झकझोर डाला।
बाण ने ! 6 महोतात, 3 निमित्त और 20 उपलिंगों का वर्णन किया है । यह वर्णन संहिता-शारत्र का विकसित विषय है।
उपर्यवत विवचन से यह स्पष्ट है कि संहिता शास्त्र के विषयों का विकास अथर्ववेद स प्रारम्भ होकर मूत्रकाल में विशए रूप स हुआ । ऐतिहासिक महाकाव्य-ग्रन्थों तथा अन्य संस्कृत साहित्य में भी इस विषय के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं । इस शास्त्र में सूर्यादि ग्रहों की चाल, उनका स्वभाव, विकार, प्रमाण, दणं, किरण, ज्योति, संस्थान, उदय, अस्त, मार्ग, वक्र, अतिव, अनवक, नक्षत्रविभाग और कूम का सब देशों में फल, अगस्त्य की चाल, मातपियों की चाल, नक्षत्रव्यूह, ग्रहण गाटक, ग्रहयुद्ध, ग्रहसमागम, पग्वेिष, परिच, उल्का, दिग्दाह, भकम्प, मन्धर्वनगर, इन्द्रधनुष, बास्तुविद्या, अंगविद्या, बायमविद्या, अन्त रचक्र, मृमचक्र, अवचक, प्रामादलक्षण, प्रतिभालक्षण, प्रतिमाप्रतिष्टा, घृतलक्षण, कम्बल-लक्षण, स्वंग लक्षण, सट्टलक्षण, कुक्कुट लक्षण; मलक्षण, गोलक्षण, अजालक्षण, अपवलक्षण, स्त्री-पुरुष लक्षण, यात्रा शकुन, रणयात्रा शकुन एवं साधारण, असाधारण सभी प्रकार के गुभाशुभा का त्रिन अन्तत होता था। स्वप्न और विभिन्न प्रकार के शकुनों को भी मंहिता-शास्त्र में स्थान दिया गया था । फलित ज्योनि का ग्रह अंग केबल पंचांग ज्ञान तक ही सीमित नहीं था, किन्तु समस्त गांस्कृतिक विषयों की आलोचना और निरूपण काल भी दम में शामिल हो गया था । संहिता-शास्त्र का मबसे पहला गन्थ सन् 505 ई. के वराहमिहिर का बृहत् संहितानामक ग्रन्ध मिलता है । इसके पश्चात् नारदसंहिता, रावण-संहिता, वसिष्ठ-संहिता, वमन्त राज-शाकुन, अद्भुतसागर आदि प्रन्थों की रचना हुई।
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प्रस्तावना
की पूर्णमासी को उस मास का प्रथम नक्षत्र कुल संज्ञक, दूसरा उपकुल संज्ञक और तीसरा कुलोमकुल संज्ञक होता है । इस वर्णन का प्रयोजन उस महीने के फलादेश से सम्बन्ध रखता है। इस ग्रन्थ में ऋतु जयन, मारा, पक्ष, नक्षत्र और तिथि सम्बन्धी चर्चाएँ भी उपलब्ध हैं ।
समवायांग में नक्षत्रों को ताराएँ, उनके दिशा आदि का है। कहा गया है "कत्तिआइया सत्त क्त्ता पुव्वदारिआ । मह् इया सत्तणक्वप्तर दाहिण दारिआ 1 अगुराहाइमा सत णवत्ता वदारिया | धनिकाइआ सत्तणवत्ता उत्तरदारिआ । "मं० अं मं० 7 तू 5
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अर्थात् कृतिका, रोहिणी, मृगनिश, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और आप ये सात नक्षत्र पूर्वद्वार; मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उच्च राफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा दक्षिणद्वार अनुराधा, ज्येष्ठा, भूल, पूर्वाषाढ़ा, उन सपादा, अभिजित् और श्रवण से बात नक्षत्र पश्चिमद्वार एवं धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अविमी और भरणी ये सात नक्षत्र, उत्तरवार वाले हैं। समवायांग 1/6, 2/4, 3/2, 4/3, 5/9 और 6/7 में आयी हुई ज्योतिष चर्चा भी महत्वपूर्ण है ।
ठाणांग में चन्द्रमा के साथ स्पयोग कही वाले नक्षत्रों का कथन किया है । बताया गया है. "कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विजाबा अनुराधा और ज्येष्ठा ये आठ नक्षत्र स्पर्श योग करने वाले है ।" इस योग का फल निधि के अनुसार बतलाया गया है। इसी प्रकार नक्षत्रों की अन्य संज्ञाएँ तथा उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूर्व दिशा की ओर से चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्रों के नाम और उनके फल विस्तारपूर्वक बताये गये | अांग निमित्नज्ञान की चर्चाएँ भी आगग ग्रन्थों में मिलती है। गणित और फलित ज्योतिष की अनेक मौलिक बातों का संग्रह आगम ग्रन्थों में है ।
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फुटकर ज्योतिष चर्चा के अलावा सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति ज्योतिपकरण्डक, अंगविज्जा, गणिविज्जा, मण्डलप्रवेश, गणितसारसंग्रह, गणितसूत्र, गणितशास्त्र, जोइसार, पंचांगनयन विधि, इष्टतिथि सारणी, लोकविजय ग्रन्थ, पंत्रांगतस्व केवलज्ञान होरा, आयज्ञानतिलक, आयसद्भाव, रिप्टसमुच्चय, अर्धकाण्ड, ज्योतिष प्रकाश, जातक तिलक, केवलज्ञानप्रश्न चूड़ामणि, नक्षत्रचूडामणि, चन्द्रोन्मीलन और मानसागरी आदि सैकड़ों ग्रन्थ उपलब्ध हैं ।
1. अवस्ता agı, (afa, fawızı,
विषय- विचार दृष्टि से जैनाचार्यों के ज्योतिष को प्रधानतः दो भागों में विभक्त किया है। एक गणित- सिद्धान्त और दूसरा फलित-सिद्धान्त गणित
गडि जोग जीएइ ४० कनिया, राहणी, पुण 21-10, 100
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भद्रबाहुसंहिता सिद्धान्त द्वारा ग्रहों की गति, स्थिति, वक्री-मार्गी, मध्यफल, मन्दफल, सुक्ष्मफल, कुज्या, त्रिज्या, वाण, चाप, व्यास, परिधि फल एवं केन्द्रफल आदि का प्रतिपादन किया गया है। आकाशमण्डल में विकीणित तारिकाओ का ग्रहों के साथ कब कैसा सम्बन्ध होता है, इसका ज्ञान भी गणित प्रक्रिया से ही संभव है । जैनाचार्यो ने भौगोलिक ग्रन्थों में 'ज्योतिर्लोकाधिकार' नामक एक पृथक अधिकार देकर ज्योतिषी देवों के रूप, रंग, आकृति, भ्रमणमार्ग आदि का विवेचन किया है। यों तो पाटीगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, गोलीय रेखागणित, चापीय एवं व क्रीय त्रिकोणमिति, प्रतिभागणित,शृगोन्नति गणित, पंचांग निर्माण गणित, जन्मपत्रनिर्माण गणित, मयुति, उदयास्त सम्बन्धी गणित का निरूपण इस विषय के अन्तर्गत किया गया है। ___ फलित सिद्धान्त में तिथि, नक्षत्र, योग, करण, वार, ग्रह्स्वरूप, ग्रहयोग जातक के जन्मकालीन ग्रहों का फल, मुहतं, समयशुद्धि, दिक्शुद्धि, देशशुद्धि आदि विषयों का परिज्ञान करने के लिए फुटकर चर्चाओं के अतिरिक्त वर्षप्रबोध, ग्रहभाव प्रकाश, बेड़ाजातक, प्रश्नशतक, प्रश्न चतुविशतिका, लग्नविचार, ज्योतिष रत्नाकर प्रभति ग्रन्थों की रचना जैनाचार्यों ने की है। फलित विषय के विस्तार में अष्टांनिमित्तज्ञान भी शामिल है और प्रधानतः यही निमित्त ज्ञान संहिता विषय के अन्तर्गत आता है । जैन दृष्टि में संहिता ग्रन्थों में अष्टांग निमित्त के साथ आयुर्वेद और क्रियाकाण्ड को भी स्थान दिया है। ऋषिपुत्र, माधनन्दी, अकलंक, भट्टवोसरि आदि के नाम संहिता अन्यों के प्रणेता के रूप से प्रसिद्ध हैं । प्रश्न शास्त्र और सामुद्रिक शास्त्र या समावेश भी संहिता शास्त्र में किया है।
अष्टांग निमित्त
जिन लक्षणों को देखकर भूत और भविष्यत् में घटित हुई और होने वाली घटनाओं का निरूपण किया जाता है, उन्हें निमित्त कहते हैं। न्यायशास्त्र में दो प्रकार के निमित्त माने गये हैं- -कारक और सूनक । कारक निमित्त वे कहलाते हैं, जो किसी वस्तु को सम्पन्न करने में सहायक होते हैं, जरी घड़े के लिए कुम्हार निमित्त है और पट के लिए जुलाहा । जुलाहे और कुम्हार की सहायता के बिना घट और पट रूप कार्यो का बनना संभव नहीं । दूसरे प्रकार के निमित्त सूचक है, इनसे किसी वस्तु धा कार्य की सूचना मिलती है, जैसे सिगनल झुक जाने से रेलगाड़ी के आने की सूचना मिलती है। ज्योतिष शास्त्र में मूचक निमित्तों की विशेषताओं पर विचार किया गया है तथा संहिता ग्रन्थों का प्रधान प्रतिपाद्य विपय सनर. निमित्त ही हैं । संहिता शास्त्र मानता है कि प्रत्येक घटना के घटित होने के पहले प्रकृति में विकार उत्पन्न होता है; इन प्राकृतिक विकारों को पहचान से व्यक्ति भावो शुभ-अशुभ घटनाओं को सरलतापूर्वक जाम सकता है ।
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ग्रह नक्षत्रादि की गतिविधि का भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन क्रियाओं के साथ कार्यकारण भाव सम्बन्ध स्थापित किया गया है। इस अव्यभिवरित कार्यकारण भाव से भूत, भविष्यत् की घटनाओं का अनुमान किया है और इस अनुमान ज्ञान को अव्यभिचारी माना है । न्यायशास्त्र भी मानता है कि सुपरीक्षित अव्यभिचारी कार्य कारण भाव से ज्ञात घटनाएँ निर्दोष होती हैं। उत्पादक सामग्री के सदोष होने से ही अनुमान सदोष होता है। अनुमान की अव्यभिचारिता सुपरीक्षित निर्दोष उत्पादक सामग्री पर निर्भर है। अतः ग्रह या अन्य प्राकृतिक कारण किसी व्यक्ति का इष्ट अनिष्ट सम्पादन नहीं करते, बल्कि इष्ट या अनिष्ट रूप में घटित होने वाली भावी घटनाओं का सूचना देते हैं । संक्षेप में ग्रह कर्मफल के अभिव्यंजक हैं | ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि आठ कर्म तथा मोहनीय के दर्शन और चरित्रमोह के भेदों के कारण कर्मों के प्रधान नी ने जैनागम में बताये गये हैं । प्रधान नी ग्रह इन्हीं कर्मों के फलों की सूचना देते है। ग्रहों के आधार पर व्यक्ति के बन्ध, उदय और सत्व की कर्मप्रवृत्तियों का विवेचन भी किया जा सकता है | किसी भी जातक की जन्मकुण्डली की ग्रहस्थिति के साथ गोचर । ग्रह् की स्थिति का समन्वय कर उक्त बातें सहज में कही जा सकती हैं । अतः ज्योतिष शास्त्र में अव्यभिचारी सूचक निमित्तों का विवेचन किया गया है। इन्हीं सूचक निमित्तों के संहिताग्रन्थों में आठ भेद किये गये है- व्यंजन, अंग, स्वर, भीम, छन्न, अन्तरिक्ष, लक्षण एवं स्वप्न ।
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व्यंजन - तिल, मस्सा, चट्टा आदि को देखकर शुभाशुभ का निरूपण करना व्यंजन निमित्तज्ञान है । साधारणतः पुरुष के शरीर में दाहिनी ओर तिल मस्सा, चट्टा शुभ समझा जाता है और नारी के शरीर में इन्हीं व्यंजनों का बायीं ओर होना शुभ है। पुरुष की हथेली में तिल होने से उसके भाग्य की वृद्धि होती है। पद तल में होने से राजा होता है, पितृरेखा पर तिल के होने से विष द्वारा कष्ट पाता है । कपाल के दक्षिण पार्श्व में तिल होने से धनवान और सम्भ्रान्त होता है । वामपार्श्व या भौंह में तिल के होने से कार्यनाश और आशा भंग होती है । दाहिनी ओर की भाँह में तिल होने से प्रथम उम्र में विवाह होता है और गुणवती पत्नी प्राप्त होती है । नेत्र के कोने में तिल होने से व्यक्ति शान्त, विनीत और अध्यव सायी होता है । गण्डस्थल या कपोल पर तिल होने से व्यक्ति मध्यम वित्त वाला होता है । परिश्रम करने पर ही जीवन में सफलता मिलती है। इस प्रकार के व्यक्ति प्रायः स्वनिर्मित्त ही होते हैं। गले में तिल का रहना दुःख सूचक है। कण्ट में तिल के होने से विवाह द्वारा भाग्योदय होता है, ससुराल से हर प्रकार की सहायता प्राप्त होती है। वक्षस्थल के दक्षिण भाग में तिल होने से कन्याएँ अधिक उत्पन्न होती हैं और व्यक्ति प्रायः यशस्वी होता है। दक्षिण पंजर में तिल के होने से व्यक्ति कायर होता है । समय पड़ने पर मित्र और हितपियों की धोखा
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देता है। उदर में तिल होने मे व्यक्ति दीर्घसूत्री और स्वार्थी होता है । नासिका के वामपाल में तिल रहने से पुरुष धनहीन, मद्यपायी और मर्च होता है। बायीं ओर के कपो र तिल हो तो अट दाम्पत्य प्रेम होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। कान में तिल होने से भाग्य और यश को बृद्धि होती है। नितम्ब में तिल होने से अधिक सन्तान प्राप्त होती है, किन्तु सभी जीवित नहीं रहतीं । दाहिनी आपका तिल धनी होने का सूचक है । वायीं जाँघ का तिल दरिद्र और रोगी होने की सूचना देता है। दाहिने पैर में तिल होने से व्यक्ति ज्ञानी होता है, आधी अवस्था के पश्चात् संन्यासी का जीवन व्यतीत करता है। दाहिनी बाहु में तिल होने से दढ़ शरीर, धैर्यशाली एवं बायीं बाह में तिल होने से व्यक्ति कठोर प्रकृति, बोधी और विश्वासघातक होता है। इस प्रकार के तिल वाले व्यक्ति प्रायः डाकू या हत्यारे होते हैं। __ यदि नारियों के वाय कान, बायें कपोल, बायें कण्ठ अथवा बायें हाथ में तिल हो तो वे प्रथम प्राव में पुत्र प्रसव करती हैं। दाहिनी भौंह में तिल रहने से गुणवान् पति-ताभ करती हैं। बायौं छाती के स्तन के नीचे तिला रहने से बुद्धिमती, प्रेमवती और सुखप्रस विनी होती हैं । हृदय में तिल होने से नारी सौभाग्यवती होती है । दक्षिण स्तन में लोहितवणं का तिल हो तो चार कन्याएं और तीन पुत्र उत्पन्न होते है । बायें स्तन में तिल या लाल कोई चिह्न हो तो वह स्त्री एक पुत्र प्रसव कर विधवा हो जाती है । बगल में सुदीर्ष तिल होने से नारी पतिप्रिया
और पौत्रवती होती है । नख में श्वेत विन्दु हो, तो उसके स्वेच्छाचारिणी तथा बुलटा होने की संभावना है । जिस स्त्री की नाक की नोक पर तिल या मस्सा हो; दन्त और जिह्वा बाली हो तो वह स्त्री विवाह के दश दिन बिधबा होती है। दक्षिण घुटन पर तिल होने से मनोहर पति-लाभ होता है। दाहिनी वाहु में हो तो पति को सौभाग्यदायिनी तथा पीठ में तिल होने से लक्षण और पतिपरायण होती है । वायी भुजा में तिल या मस्सा होने से स्त्री मुखरा, कालहकारिणी और कटुभाषिणी होती है । बायें कंधे पर तिल रहने से चंचला, व्यभिचारिणी और असत्यभाषिणी होती है। नाभि के बायें भाग में तिला रहने से चंचला और नाभि का दाहिने भाग में तिल होने से सुलक्षणा होती है। मस्सों और चट्टोंलहसुनो का शुभाशुभ फल भी तिलो के सामान ही समझना चाहिए। निमित्त शास्त्र में व्यंजना का विचार विस्तारपूर्वक किया है।
अंगनिमित्तज्ञान-हाथ, पाँव, ललाट, मस्तक और वक्षःस्थल आदि शरीर के अंगों को देखकर शुभाशुभ फल का निरूपण करन] अंगनिमित्त है। नासिका, नत्र, दन्त, ललाट, मस्तक और वक्षःस्थल ये छ: अवयव उन्नत होने से मनुष्य सुलक्षण युक्त होता है । करतल, पदतल, नयनप्रान्त, नख, तालु, अधर और जिह्वा ये सात अग लाल हों तो शुभप्रद है । जिसकी कमर विगाल हो, वह बहुत पुत्रवान्
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प्रस्तावना
होता है। जिसकी भुजाएं लम्बी होती हैं, वह व्यक्ति श्रेष्ठ होता है। जिसका हृदय विस्तीर्ण है, वह धन-धान्यणाली और जिसका मस्तक विशाल है वह मनुष्यों में पूजनीय होता है । जिस व्यक्ति का नयनप्रान्त लाल है, लक्ष्मी कभी उसका परित्याग नहीं कर सकती । जिसका शरीर तप्तकांचन के समान गौरवर्ण है, वह कभी भी निर्धन नहीं होता। जिसके दाँत बड़े होते हैं, वह कदाचित मूर्ख होता है तथा अधिक लोम वाला व्यक्ति संसार में सूखी नहीं हो गकता । जिसकी हथेली चिकनी और मुलायम हो वह ऐवयं भोग करता है। जिसके पैर का तलवा लाल होता है, वह सवारी का उपयोग सदा करता है। पैर के तलवों का चिकना और अरुणवर्ण का होना शुभ माना गया है।
तथा धने ही यह
जिस व्यक्ति के केस वर्ण वर्ष की अवस्था में पागल या उन्मत्त हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति को बालीग वर्ष की अवस्था तक अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं। जिस व्यक्ति की जिला इतनी लम्बी हो, जो नाक का अग्रभाग पर्ण कर ले, तो वह योगी या मृमृक्ष होता है | जिसके दाँत विरल अर्थात् अलग-अलग हो और हँसने पर गर्तचिह्न दिखाई दे, उस व्यक्ति को अन्य किसी का धन प्राप्त होता है और यह व्यक्ति व्यभिचारी भी होता है । जिस व्यक्ति के चिक — ठोड़ी पर बाल न हों अर्थात् जिसे दाढ़ी नहीं हो तथा जिसकी छाती पर भी बाल न हों, ऐसा व्यक्ति धूर्त, कपटी और मायाचारी होता है । यह व्यक्ति अपने स्वार्थ साधन में बढ़ प्रवीण होता है। हां बुद्धि और लक्ष्मी दोनों ही उसके पास रहती हैं ।
मस्तक पर विचार करते समय बताया गया है कि मस्तक के सम्बन्ध में चार बातें विचारणीय हैं— बनावट, नसजाल विस्तार और आभा । बनावट में विचार, विद्या और धार्मिकता के का पता चलता है । मस्तक की हड्डियां यदि दृढ़, स्निग्ध और सुडौल हैं तो उपर्युक्त गुणों की मात्रा और प्रकार में विशेषता रहती है । वेढंगी बनावट होने पर उनम गुणों का अभाव और दुर्गुणों की प्रधानता होती है ।
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नस-नाल
मस्तक के नमजाल में विद्या, विचार और प्रतिभा का परिज्ञान होता है | विचारशील व्यक्तियों के माथे पर सिकुड़न और ग्रन्थियां देखी जाती हैं। रेखाविहीन चिकना मस्तक प्रसाद, अज्ञान और लापरवाही का सूचक है। विस्तार में मस्तक की लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई और गहराई सम्मिलित हैं। मस्तक नीचे की ओर चौड़ा हो और ऊपर की ओर छोटा हो तो व्यक्ति झक्की होता है। नीचे चपटे और चौड़े माथे में विचार कार्यशक्ति और कलाना की कभी तथा उदारता का अभाव रहता है। ऐसा व्यक्ति उत्साही होता है, परन्तु उसके कार्य वे सिर-पैर के होते हैं। चौड़ा और ढालू मस्तक होने पर व्यक्ति चालाक, चतुर और पेट के प्राय: मलिन होते हैं । उन्नत और चौड़े ललाट वाले व्यक्ति
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विद्वान् होते हैं । यदि सीधे और चौकोर मस्तक के कारी भान में कोण (Angles) बन रहे हों और गोलाई लिये हो तो व्यक्ति हठीला और दृढ़ होता है। यदि गोलाई न हो और सीधा हो तो विचार और कर्म में अकर्मण्य होता है। ऊंचा, सीधा और आभापूर्ण ललाट लेखकों और कवियों और अर्थशास्त्रियों का होता है । चौड़ा मस्तक होने से व्यक्ति जीवन में दुःखी नहीं होता।
आभा--मस्तक की आभा का वही महत्त्व है, जो किसी सुन्दर बने मकान में रंगाई और पुताई का होता है । आभा रहने से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास दृष्टिगोचर होता है। जिस व्यक्ति का मस्तक आभा-रहित होता है, यह दरिद्र, दुःखी और अनेक प्रकार के रोगों में पीड़ित रहता है। ___ ओठों पर विचार करते समय कहा गया है कि मोटे ओठों वाला व्यक्ति मूर्ख, दुराग्रही और दुराचारी होता है । आर्थिक दृष्टि से भी यह व्यक्ति कष्ट उठाता है। छोटे मुंह में अधिक पतले ओठ कंजूसी, दरिद्रता और चिन्ता के सूचक हैं। सरस, सुन्दर और आभायुक्त पतले ओठ होने पर व्यक्ति विद्वान, धनी, सखी और प्रिय होता है । गोलमुख में गर्दन योल और दृष्टि निक्षेप चुभता हुआ होने पर व्यक्ति को अविचारी और स्वेच्छाचारी समझना चाहिए। ओठों में ढिलाय, लटकाव और गुड़ाब अनाचार और अबिचार के द्योतक हैं। ढोले और लटके ओठ होने से व्यक्ति का शिथिलाचारी, निर्धन और चंचल प्रकृति का होना व्यक्त होता है । सरस ओठ होने से दयालुता, परोपकार बृत्ति, सहृदयता एवं स्निग्धता व्यक्त होती है। रूक्ष ओट अजीर्ण, ज्वर, रोग एवं दारिद्रय को प्रकट करते हैं।
दांतों के सम्बन्ध में विचार करते हुए बताया गया है कि चमकीले दाँत वाला व्यक्ति कार्यशील और उत्साही होता है। छोटे होने पर भी पंक्तिबद्ध और स्वच्छ दाँत व्यक्ति यो बिचारवान और उत्साही होने की सूचना देते हैं। आर के दाँतों में बीच के दो दाँत जो अपेक्षाकृत बड़े होते हैं- अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जिस मुख में ये दाँत स्वभावतः खुले रहते हों, स्वच्छ और आभायुक्त हों एवं मुखामा मनोज्ञ हो तो उस व्यक्ति में शील, सौजन्य और नम्रता का गुण अवश्य होता है । उक्त प्रकार के दांत वाला व्यक्ति व्यापार में प्रभूत धनार्जन करता है।
गर्दन के पिछले भाग को पिछला मस्तक और अगले भाग को कण्ठ कहते हैं । पिछले मस्तक में सुन्दर भराब और गठाव हो तो व्यक्ति का स्वावलम्बन और स्वाभिमान प्रकट होता है। इस प्रकार का व्यक्ति अन्तिर जीवन में अधिक धनी बनता है और गाईस्थिका सुख का आनन्द लेता है। यदि सिर का पिछला भाग चिकना और शिखा भाग के सम स्तर पर हो, बीच में महराई न हो तो ऐसा व्यक्ति विषयी, गार्हस्थिक कार्यों में अनुरक्त एवं निर्धन होकर वृद्धावस्था में कष्ट प्राप्त करता है। गर्दन सीधी, गठी, दृढ़ और भरी होने से व्यक्ति विचारशील,
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श्रेष्ठ राजकर्मचारी एवं श्रेष्ठ न्यायाधीश होता है । इस प्रकार के व्यक्ति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिक सफल होते हैं।
स्त्रियों के अंगों का शुभाशुभत्व बतलाते हुए कहा है कि जिस स्त्री की मध्यमांगुली दूसरी अँगुलियों से मिली हो, वह सदा उत्तम भोग भोगती है, उसका एक भी दिन दुःख से नहीं बीतता । जिसका अंगुष्ठ गोल और मांसल हो तथा अग्रभाग उन्नत हो, वह अतुल सुख और सौभाग्य का सम्भोग करती है। जिसकी अंगुलियाँ लम्बी होती हैं, वह प्राय कुलटा और जिसकी अंगुलियां पतली होती हैं, वह प्रायः निर्धन होती हैं ।
जिस स्त्री के पैर के नम् स्निग्ध, समुन्नत, ताम्रवर्ण, गोलाकार और सुन्दर होते हैं तथा जिसके पैर के तलवे उन्नत होते हैं, वह राजमहिषी या गजमहिषी के तुल्य सुख भोगने वाली होती है। जिसके घुटने मांसल तथा गोल हैं, वह सोभाग्यशालिनी होती है। जिसके जानु या छूटने में मांग नहीं, वह दुश्चरित्रा और दरिद्रा होती है । जिसके हृदय में नहीं, जिसका दान, किन्तु समतल है, वह श्री ऐश्वर्यशालिनी और सौभाग्यवती होती है । जिस स्त्री के स्तन का गुल भाग मोटा है और उपरिभाग क्रमशः पतला होता है, वह बाल्यकाल में सुख भोगती है, पर अन्त में दुःखी होती है। जिस स्त्री के नीचे की पंक्ति में अधिक दाँत हों उसकी माता की मृत्यु असमय में ही हो जाती है । किसी भी स्त्री की नासिका के अग्रभाग का स्थूल होना, मध्य भाग का नीचा होना या उन्नत होना अशुभ कहा गया है। ऐसी स्त्री असमय में विधवा होती है ।
जिस स्त्री की आँखें गाय की आँखों की तरह पिंगलवर्ण की हों, वह स्त्री गवता होती है। जिसकी आंखें कबूतर की तरह हैं, वह दुक्शीला होती है और जिसकी आँखें रक्तवर्ण की हैं, वह पतिघातिनी होती है। जिस स्त्री की बायीं आँख कानी हो, वह दुश्चरित्रा और जिसकी दाहिनी आंख कानी, बहु बन्ध्या होती है । सुन्दर और सुडौल आँख वाली नारी सुखी रहती है ।
जिस स्त्री का शरीर लम्बा हो तथा उसमें लोम और शिरा-नसें दिखलाई दें, वह रोगिणी होती है । जिसके भौंह या ललाट में तिल हो, वह पूर्ण सुखी जीवन व्यतीत करती है | श्याम वर्ण की नारी के पिंगल केश अत्यन्त अशुभ माने गये हैं। ऐसी नारी पति और सन्तान दोनों के लिए कष्टदायक होती है। चौड़े वक्षस्थल वाली नारी प्राय: विधवा होती है। जिसके पैर की तर्जनी, मध्यमा अथवा अनामिका भूमि का स्पर्श नहीं करतीं, वह सुखी और गौभाग्यशालिनी होती है।
जिस नारी की ठोड़ी मोटी, लम्बी या छोटी होती है, वह नारी निर्लज्ज, तुच्छ विचार वाली भाबुक और संकीर्ण हृदय को होती है। गहरी ठोड़ी वाली नारियों में अधिक कामुकता रहती है, घर में नारियाँ मिलनगार, यशस्विनी और परिवार में सभी की प्रिय होती हैं । गठी ठोड़ी वाली नारियां कार्यकुशल, सुखी
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नाक
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अंगनिमित्त शास्त्र में शरीर के समस्त अंगों की बनावट, रूप-रंग तथा उनके स्पर्श का भी विवेचन किया गया है। बताया गया है कि जिस पुरुष या नारी के पैर भई और मोटे होते हैं, उसे मजदूरी सदा करनी पड़ती है। इस प्रकार के पैर वाला व्यक्ति मदा शासित रहता है। जिसका ललाट विस्तृत हो, पैर पतले और सुन्दर हों, हाथ की हथेली नाम हो, चेहरा गोल हो, वधस्थल चौड़ा हो और नेत्र गोल हों, वह व्यक्ति स्त्री या पुरुष हो, शासक का काम करता है। आर्थिक अभाव उसे जीवन में कभी भी कष्ट नहीं दे सकता है ।
स्वरनिमित्त- चेतन प्रणयों के ओर वस्तुओं के शब्द सुनकर शुभाशुभ का निरूपण करना स्वरनिमित्त कहलाता है । पोदकी का 'चिलिबिलि' इस प्रकार का शब्द सुनाई पड़े तो लाभ की सूचना समझनी चाहिए । 'चिकुचिकुः' इस प्रकार का शब्द सुनाई पड़े तो बुलाने के लिए सूचना समझनी चाहिए । पोकीका 'कीतुकीतु' शब्द कामनासिद्धि का सूचक, 'चिरिचिरि' शब्द कष्टसूचक और 'चच' शब्द विनाश का सूचक होता है ।
इस निमित्त में काक, उल्लू, बिल्ली, कुत्ता आदि के शब्दों का विशेष रूप से विचार किया जाता है। कौवे का कठोर शब्द कष्टदायक और मधुर वाद शुभ देने वाला होता है। दीप्त दिशा में स्थित होकर कठोर शब्द करें तो कार्य का विनाश होता है। रात्रि में दोस्त दिशा में मुख बार शान्त शब्द करें तो कार्य-सिद्धि का सूचक, सूर्यादय के समय पूर्व दिशा में सुन्दर स्थान में बैठकर काक मघ्र शब्द करे तो वैरी का नाश, चिन्तित कार्यसिद्धि एवं स्त्री-रत्नलाभ होता है । प्रभातकाल में काक अग्निकोण में सुन्दर देश में स्थित हो शब्द करता है, तो विजय, धनलाभ, स्त्री-रत्न की प्राप्तिः दक्षिण में शब्द करे तो अत्यन्त कष्ट इसी दिशा में स्थित काक कठोर शब्द करे तो रोगी की मृत्यु मधुर शब्द करें तो इष्ट जन समागम, धन प्राप्ति अनेक के सम्मान: प्रभातकाल में पश्चिम दिशा में शब्द करे तो निश्चय वर्मा, सुन्दर वस्तुओं की प्राप्ति, किसी उत्तम राजकर्मचारी का समागम, वायव्य कोण में काक बोले तो अन्न-वस्त्र की प्राप्ति, प्रियव्यक्ति का आगमन, उत्तर दिशा में शब्द करे तो अतिकष्ट, सर्पभय, दरिद्रता; ईशान दिशा
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प्रस्तावना
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में काक बोले तो व्याधि, रोगी का ब वं आपस में स्थित होकर काफ मधुर शब्द करे तो अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। पूर्व दिशा में स्थित काक प्रथम प्रहर में सुन्दर शब्द बोले तो चिन्तित कार्य की सिद्धि, प्रचुर धन-लाभ; अग्नि कोण में स्थित होकर काक बोले तो स्त्री-लाभ, मित्रता की प्राप्ति एव दक्षिण दिशा में बोले तो स्त्री-लाभ, सौख्य-प्राप्ति, नैऋत्य कोण में बोले तो मिष्टान्न प्राप्ति एवं पश्चिम दिशा में बोले तो जल की वर्षा, अतिथि आगमन एवं कार्य-सिद्धि की सूचना मिलती है। __ दूसरे प्रहर में काफ पूर्व दिशा में बोले तो पथिक-आगमन, चौरभय और आकुलता; अग्नि कोण में बोले तो निश्चय कलह, प्रिय आगमन का श्रवण, स्त्री प्राप्ति और सम्मान लाभ; नैऋत्य कोण में बोले तो प्राणभय, स्त्री-भोजन लाभ, सर्वरोग विनाश और जन-गमागम; पश्चिम में बोले तो अभ्युदय का सूचक; वायव्य कोण में बोले तो चोरी का भय; उत्तर दिशा में बोले तो धन-लाभ और इष्ट-जनसमागम; ईशान दिशा में बोले तो त्रास एवं आकाश में बोले तो गिप्टान्न-लाभ, राजानुसह-लाभ और कार्य सिद्धि होती है।
उल का दिन में बोलना अत्यन्त अशुभ गाना जाता है। रात्रि में कठोर शब्द उल्लू बारे तो 'भय-प्राप्ति, अनिष्ट सूचक, आधि-व्याधि सूचक तथा मधुर शब्द करे तो कार्य-सिद्धि, सम्मान-लाभ और एक वर्ष के भीतर धन प्राप्ति की सूचना समझनी चाहिए।
मुर्गा, हाथी, मोर और शृगाल क्रूर गाद करें तो अनेक प्रकार के भय, मधुर शब्द करने गे इष्ट-लाभ तथा अति मधुर शब्द करने से धनादि का शीघ्र लाभ होता है । गाल का दिन में बोलना अशुभ माना गया है। दिन में शृगाल कर्कश ध्वनि करे तो आधि-व्याधि की सूचना समझनी चाहिए । कबूतर और तोते का रुदन शब्द सर्वदा अशुभ कारक माना गया है । बिल्ली का पश्चिम दिशा में स्थित होकर रुदन करना अत्यन्त अशुभ समझा जाता है। पूर्व दिशा में बिल्ली का बोलना साधारणतया शुभ समझा जाता है । वास्तविक फलादेश कर्क ग, मधुर और मध्यम ध्वनि के अनुसार शुभाशुभ फल के रूप में समझना चाहिए । बिल्ली का तीन बार जोर से शेलना या रोना और चौथी बार धीरे से बोलकर या रोकर चुप हो जाना योता के अत्यधिक अनिट-गृचक है। माय, बैल, भैस, बकरी इनकी मधुर, कोमल, करंज एवं मध्यम ध्वनियों के अनुसार फलादेशों का निरूपण किया गया है । रोने की ध्वनि तथा इसमे की ध्वनि सभी पशु-पक्षियों की अशुभ मानी गयी है । गधुर जोर स द ध्वनि, जो क कटु न हो, शुभ होती है । फलों से युक्त हरे-भरे वश्च पर स्थित होकर पक्षियों का बोलना शुभ और सूखे वृक्ष या काठ के ढेर पर स्थित होकर बोलना अशुभ होता है।
भौम निमित्त भूमि के रंग, चिानाहट, रूखेपन आदि के द्वारा शुभाशुभत्व
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मद्रबाहुसंहिता
अवगत करना भौम निमित्त कहलाता है। इस निमित्त से गृह निर्माण योग्य भूमि, देवालय निर्माण योग्य भूमि, जलाशय निर्माण योग्य भूमि आदि बातों की जानकारी प्राप्त की जाती है। भूमि के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श द्वारा उसके शुभाशुभत्व 'को जाना जाता है ।
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भूमि के नीचे के जल का विचार करते समय बताया गया है कि जिस स्थान की मिट्टी पाण्डु और पीत वर्ण की हो तथा उसमें से शहद जैसी गन्ध निकलती हो तो वहाँ जल निकलता है अर्थात् सवा तीन पुरुष प्रमाण नीचे खोदने से जल का स्रोत मिल जाता है | नीलकमल के रंग की मिट्टी हो तो उसके नीने खारा जल समझना चाहिए । कपोत वर्ण के समान मृत्तिका होने से भी खारे जल का स्रोत मिलता है। पीत वर्ण की मृत्तिका से दूध के समान गन्ध निकले तो निश्चतः मीठे जल का स्रोत समझना चाहिए। परन्तु यहाँ इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक हैं कि मिट्टी चिकनी होनी चाहिए: रूक्ष वर्ण की मिट्टी होने से जल का अभाव या अल्प जल निकलता है। धूम्र वर्ण की मिट्टी रहने से भी उसके नीचे जल का स्रोत रहता है ।
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घर बनाने के लिए श्वेत रक्त पीत और कृष्ण वर्ण की भूमि, जिसमें से घी, रक्त, अन्न और मद्य के समान गन्ध निकलती हो, शुभ होती है । मधुर, कषायली, आम्ल और कटु रसवाली भूमि घर बनाने के लिए शुभ होती है। दुगंन्ध युक्त भूमि में घर बनाने से अनिष्ट होता है, शत्रुभय, धन विनाश एवं नाना प्रकार के संक्लेश होते हैं। मंजीठे के समान ख़त वर्ण की भूमि अशुभ है। मूंग के समान हरित वर्ण की भूमि में भी घर बनाना अशुभ होता है । जिस स्थान की मृत्तिका से पुरुष के समान गन्ध निकले या धूप के समान गन्ध आती हो और पवेत या पीत वर्ण की मृत्तिका हो, उस स्थान पर घर बनवाना शुभ होता है। अति के समान लाल वर्ण की भूमि में घर बनवाना निषिद्ध है। यदि इस भूमि का स्पर्श छत के समान चिकना हो और महुने के समान शन्ध निकलती हो तो यह भूमि भी घर बनाने के लिए शुभ होती है। मटन वर्ण की भूमि से यदि मुर्दे जैसी गन्ध आये तो कभी भी उस भूमि में पर नहीं बनवाना चाहिए। वर्ण की दृष्टि से श्वेत और पीत वर्ण की भूमि तथा गन्ध की दृष्टि से मधु, घृत, दुग्ध और भात की गन्ध वाली भूमि तथा घृत, दही और शहद के समान स्पर्श वाली भूमि पर बनाने के लिए शुभ मानी जाती है। किस प्रकार की भूमि के नीचे कौन-कौन पदार्थ हैं वह भी भूमि के गणित से निकाला जाता है।
किसी भी मकान में कहाँ अस्थि है और कहाँ पर धन-धान्यादि हैं, इसकी जानकारी भी भूमि गणित के अनुसार की जाती है। ज्योतिष शास्त्र के विषयों में ऐसे कई प्रकार के गणित हैं जो भूमि के नीचे की वस्तुओं पर प्रकाश डालते हैं । बताया गया है कि जिस स्थान की मिट्टी हाथी के मद के समान गन्ध वाली हो, या
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प्रस्तावना
कमल के समान गन्ध वाली हो और जहाँ प्रायः कोयल आया-जाया करती हों और गोहद ने अपना निवास बनाया हो, इस प्रकार की भूमि में नीचे स्वर्णादि द्रव्य रहते हैं। दूध के समान गन्धे बाली भूमि के नीचे रजत, मधु और पृथ्वी के समान गन्ध वाली भभि के नीचे रजत और ताम्र, कबूतर की बीट के समान गन्ध वाली भूमि के नीचे पत्थर और जल में समान गन्धवाली भूमि के नीचे अस्थियाँ निकलती हैं ! जिस भूमि का वर्ण सदा एक तरह का नहीं रहे, निरन्तर बदलता रहे और गट्ठा के समान गन्ध निकले उस भूमि के नीचे सोना या रत्न अवश्य रहते हैं। कराली पक्षकार के समान ज गन्ध निकलती हो तथा 'मधुर रस हो, उस भूमि के नीचे रजत .. चाँदी या चाँदी के सिगवे निकलते हैं।
छिन्न मिमित वस्त्र, शस्त्र, आसन और ब्यादि को हिदा हुआ देख कर शुभाशुभ फल कहना खिन्न निमित्त ज्ञान के अन्तर्गत है। बताया गया है कि नये वस्त्र, आराम, शय्या, शस्त्र, जूता आदि के नौ भाग करके विचार करना चाहिए । वस्त्र के कोणों के चार भागों में देवता, पागान्त--मल भाग पे दो भागों में मनुष्य और मध्य के तीन भागों में राक्षस बसते हैं। नया घस्या या उपर्थक्त नयी वस्तुओं में स्याही, गोबर, नीचड़ आदि लग जाय, उपर्युक्त बस्तुएं जल जायें, फट जायं, कट जायं तो अशुभ फल समझना चाहिए। कुछ पुराना वस्त्र पहनने पर जल या कट जाय तो सामान्यतया अशुभ होता है । राक्षस के भागों में वस्त्र में छेद हो जाय तो बस्त्र के स्वामी को रोग या मृत्यु होती है, मनुष्य भागों में छेद हो जाने पर पुत्र-जन्म होता है तथा बैशवशाली पदार्थों की प्राप्ति होती है। देवताओं के भागों में छेद होने पर धन, ऐश्वयं, वैभव, सम्मान एवं भोगों की प्राप्ति होती है। देवता, मनुष्य और राक्षस इन तीनों के भागों में छेद हो जाने पर अत्यन्त अनिष्ट होता है। ___ कंकपक्षी, मेढक, उल्लू, कपोत, काका, मांसभक्षी नादि, जम्बुवा, गधा, ऊँट और सर्प के आकार का छेद देवता भाग में होने पर भी वस्त्र-भोवता को मृत्यु तुल्य कष्ट भोगना पड़ता है । इस प्रकार छेद होने में धन का विनाग भी होता है । देवता भाग के अतिरिक्त अन्य भागों में छद होने पर तो २स्त्र-भोक्ता को नाना प्रकार की अधि-व्याधियाँ होने की सुचना मिलती है। अपमान और तिरस्कार भी अनेक प्रकार के सहन करने पड़ते हैं ! छत्र, ध्वज, स्वस्तिवा, विल्य फल-वेल, कलश, चामल और तोरणादि के आकार का छेद राक्षस भाग में होने से लक्ष्मी की प्राप्ति, पद-वद्धि, सम्मान और अन्य सभी प्रकार के अभीर फल प्राप्त होते हैं।
वस्त्र धारण करते समय उसका दाहिना भाग जल जाय या फट जाय तो वस्त्र'भोक्ता को एक महीने के भीतर अनेक प्रकार की बीमारियों का मामना करना पडता है। बायें कोने के जलने या कटने में बीम दिन में घर में जो.. न कोई आत्मीय
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भद्रबाहुसंहिता
व्यक्ति रोग से पीड़ित होता है तथा वस्त्र भोक्ता को अत्यधिक मानसिक ताप उठाना पड़ता है । ठीक मध्य में वस्त्र के जलने या कटने से व्यक्ति को शारीरिक कष्ट, धननाश और पद-पद पर अपमानित होना पड़ता है । वस्त्र के मूल भाग में जलना या कटना साधारणतः शुभ माना गया है। अग्रभाग में वस्त्र का छिन्न-भिन्न होता साधारणतः ठीक समझना चाहिए। वस्त्र को धारण करने के दिन से लेकर दो दिनों तक छिन्न-भिन्न होने के शुभाशुभत्व का विचार करना आवश्यक माना गया है। धारण करने के तत्क्षण ही वस्त्र जल या कट जाय तो उसका फल तत्काल और अवश्य प्राप्त होता है। धारण करने के एकाध दिन बाद यदि वस्त्र जले, कटे या फटे तो उसका फल अत्यल्प होता है । वर्ग आदि श्राचार्यों का मत है कि वस्त्र के शुभाशुभत्व का विचार वस्त्र धारण करने के एक प्रहर तक ही करना ज्यादा अच्छा होता है। एक प्रहर के पश्चात् वस्त्र पुरातन हो जाता है, अतः उसके शुभाशुभत्य का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । वस्त्र में किसी पदार्थ का दाग लगना भी अशुभ माना गया है। गोदुग्ध वा मनु के दाग को शुभ बताया है ।
नये वस्त्रों में कुर्ता, टोपी, कमीज, कोट आदि ऊपर पहने जाने वाले वस्त्रों का विचार प्रमुख रूप से करना चाहिए तथा शुभाशुभ फल ऊपरी वस्त्रों के जलनेकटने का विशेष रूप से होता है। बोलीमा, पेण्ट आदि के जलनेकटने का फल अत्यल्प होता है । सबसे अधिक निकृष्ट टोपी का जलना या फटना कहा गया है। जिस व्यक्ति की टोपी वारण करते ही फट जाय या जल जाय तो वह व्यक्ति मृत्यु तुल्य कष्ट उठाता है। टोपी के ऊपरी हिस्सा का जलना जितना अशुभ होता है, उतना नीचे के हिस्सा का जलना नहीं। रविवार, मंगल और शनिवार को नवीन वस्त्र धारण करते ही जल या कट जाय तो विशेष कष्ट होता है। सोमवार और शुक्रवार को नये वस्त्र के जलने या कटने से सामान्य कष्ट तथा गुरुवार और बुधवार को वस्त्र का जलना भी अशुभ है ।
अन्तरिक्ष-यह नक्षत्रों के उदायस्त द्वारा शुभाशुभ का निरूपण करना अन्तरिक्ष निमित्त है । शुनः बुध, मंगल, गुरु और शनि इन पांच ग्रहों के उदयास्त द्वारा ही शुभाशुभ फल का निरूपण किया जाता है । यतः सूर्य और चन्द्रमा का उदायस्त प्रतिदिन होता है। अतएव शुभाशुभ फल के लिए इन ग्रहों के उदयास्त विचार की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यद्यपि सूर्य और चन्द्रमा के उदयास्त के समय दिशाओं के रंग तथा इन दोनों यहीं के विस्व की आकृति आदि के विचार द्वारा शुभाशुभत्व का कथन किया गया है, तो भी गणित किया में इनके उदयास्त का विशेष महत्ता नहीं दी गयी है। निमित्त ज्ञानी उक्त पाँचों ग्रहों के उदयास्त से ही फलादेश का कथन करते हैं । वास्तव में इन ग्रहों का उदायस्त विचार है भी महत्त्वपूर्ण 1
शुक्र अश्विनी, मृगशिरा, रेवती, हस्त, पुण्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण और
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स्वाति नक्षत्र में उदय को प्राप्त हो तो सिन्धु, गुर्जर, आसाम, महाराष्ट्र और बंगाल में अशान्ति, महामारी एवं आपसी संघर्ष होते हैं । पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी और भरणी इन नक्षत्रों में शुक्र का उदय होने से गुजरात, पंजाब में दुभिक्ष तथा बिहार, बंगाल, असम आदि पूर्वी राज्यों में दुर्भिक्ष होता है। घी और धान्य का भाव समस्त देशों में कुछ महँगा होता है। कृत्तिका, मघा, आश्लेषा, विशाखा, शतभिषा, चित्रा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और मूल नक्षत्रों में शुक्र का उदय हो तो दक्षिण भारत में सुभिक्ष, पूर्णतया वर्षा तथा उत्तर भारत में वर्षा की कमी रहती है। फसल भी उत्तर भारत में बहुत अच्छी नहीं होती : आश्लेषा, भरणी, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तरा भाद्रपद इन नक्षत्रों में शुक्र का उदय होना समस्त भारत के लिए अशुभ कहा गया है। चीन, अमेरिका, जापान और रूस में भी अशान्ति रहती है।
मेष राशि में पनि का उदय हो तो जलवृष्टि, सुख, शान्ति, धार्मिक विचार, उत्तम फसल और परस्पर सहानुभूति की उत्पत्ति होती है । वृष राशि में शनि का उदय होने से तणकाष्ठ का अभाव, घोड़ों में रोग, साधारण वर्षा और सामान्यतः पश-रोगों की वृद्धि होती है । मिथुन राशि में शनि का उदय हो तो प्रचुर परिमाण में वर्षा, उतम फसल और सभी पदार्थ सस्त होते हैं । कर्क राशि में शनि का उदय होन म वर्षा का अभाव, रसों की उत्पत्ति में कमी, बनों का अभाव और खाद्य वस्तुओं के भाव महँग होते हैं । सिंह राशि में शनि का उदय होना अशुभकारक होता है। कन्या में शनि का उदय होन से धान्यनाश, अल्पवर्षा, व्यापार में लाभ और आभिजात्य वर्ग के व्यक्तियों को कष्ट होता है । तुला और वृश्चिक राशि में शनि का उदय हो तो महावृष्टि, धन का विनाश, बाढ़ का भय और गहूँ की फनल कम होता है । धनु राशि में शनि का उदय हो तो नाना प्रकार की बीमारियाँ देश में फैलती है। मकर में शनि का उदय हो तो प्रशासकों में संघर्ष, राजनीतिक उलट-फेर एवं लोहा महंगा होता है। कुम्भ रात्रि में शनि का उदय हो तो अच्छी वर्षा, अच्छी फमल और व्यापारियों को लाभ होता है। मीन राशि में शनि का उदय होना अल्प वर्गाकारक, नाना प्रकार के उपद्रवों का सूचक तथा फग़ल की कमी का सूचक है।
मप राशि में गुरु का उदय होने से दुभिभ, मरण, संकट और आकस्मिक दृघटनाएँ उत्पन्न होती हैं । वृप में उदय होने में सुभिक्ष होता है। मिथुन में उदय होने मे वेड्याओं को कष्ट कलाकार और व्यापारियों को भी काट होता है। नार्क में गम के उदय होन में यक्षपट वर्मा; कन्या में उदय होने से साधारण वा; तुला में गुरु के उदय होन में बिलामक पदार्थ महग; दृश्चिक में उदय होने से दुभिक्ष; धनु-मक' में उदय होन में उनम वर्मा, व्याधियों का बाहुल्य ; फुभ में उदय होने म अतिवृष्टि, अन्न का भाव महंगा और मीन में गुरु का उदय हा म अशान्ति
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मप्रवाहिशों
और संघर्ष होता है।
पौष, आषाढ़, श्रावण, वैशाख और माघ मास में बुध का उदय होना अशुभ एवं आश्विन, कार्तिक और ज्येष्ठ में बुध का उदय होने से शुभ होता है । पूर्व दिशा में बुध का उदय होना अशुभ और पश्चिम दिशा में शुभ माना जाता है। मंगल का शनि की राशि में उदय होना अशुभ माना जाता है और शुक्र, गुरु तथा अपनी राशियों में उदय होना शुभ कहा गया है। कन्या और मिथुन राशि में उदय होना साधारण है।
ग्रहों के अस्त का विचार करते हुए कहा गया है कि अश्विनी, मृगशिरा, हस्त, रेवती, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण और स्वाति नक्षत्र में शुक्र का अस्त होना इटली, रोम, जापान में भूकम्प का छोतक; वर्मा, श्याम, चीन और अमेरिका के लिए सुख-शान्ति सूचक तथा रूस और भारत के लिए साधारण शान्तिप्रद होता है । इन नक्षत्रों में शुक्रास्त होने के उपरान्त एक महीने तक अन्न महंगा बिकता है, पश्चात् कुछ सस्ता होता है । घी, तेल, जूट, आदि पदार्थ सस्ते होते हैं। कृतिका, मघा, आश्लेषा, विशाखा, शतभिषा, चित्रा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और मूल नक्षत्र में शुक्र अस्त हो तो भारत में विग्रह, मुसलिम राष्ट्रों में शान्ति, इंग्लण्ड और अमेरिका में समता, चीन में सुभिक्ष, वर्मा में उत्तम फसल और भारत में साधारण फसल होती है । पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढ़ा, रोहिणी और भरणी नक्षत्रों में शुक्र का अस्त होना पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, विन्ध्यप्रदेश के लिए सुभिक्षदायक और बंगाल, आसाम तथा बिहार के लिए साधारण सुभिक्षदायक होता है। शुक्र का मध्य रात्रि में अस्त होता तथा आश्लेषा विद्ध मधा नक्षत्र में उदय होना अत्यन्त अशुभकारक माना गया है ।
मेष में शनि अस्त हो तो धान्य भाव तेज, वर्षा साधारण, जनता में असन्तोष और आपसी झगड़े होते हैं । वृष राशि में शनि अस्त हो तो पशुओं को कष्ट, देश के पशुधन का विनाश और मनुष्यों में संक्रामक रोग उत्पन्न होते हैं । मिथुन राशि में शनि अस्त हो तो जनता को कष्ट, आपसी द्वेष और अशान्ति होती है । कर्क राशि में शनि अस्त हो तो कपास, मूत, गुड़, चाँदी, घी अत्यन्त महंगे होते हैं । कन्या राशि में शनि के अस्त होने से अच्छी वर्षा; तुला राशि में शनि अस्त हो तो अच्छी वर्षा; वृश्चिक राशि में शनि अस्त हो तो उत्तम फसल; धनु राशि में शनि के अस्त होने से स्त्री-बच्चों को कष्ट, उत्तम वर्षा और उत्तम फसल; मकर राशि में शनि के अस्त होने से सुख, प्रचण्ड पवन, अच्छी फसल, राजनीतिक स्थिति में परिवर्तन और पशु-धन की वृद्धि; कुम्भ राशि में शनि के अस्त होने से शीत-प्रकोप और पशुओं की हानि एवं मीन राशि में शनि के अस्त होने से अधर्म का प्रचार होता है । सन्ध्याकाल में भरणी नक्षत्र पर शनि का अस्त होना अत्यन्त अशुभ सूचक माना गया है।
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मेष में गुरु अस्त हो तो थोड़ी वर्षा, बिहार, बंगाल और आसाम में सुभिक्ष, राजस्थान और पंजाब में दुष्काल; वृष में अस्त हो तो दुभिक्ष, दक्षिण भारत में अच्छी फसल और उत्तर भारत में खण्डवृष्टि; मिथुन में अस्त हो तो घृत, तेल, लवण आदि पदार्थ महेंगे महामारी का प्रकोप; कर्क में अस्त हो तो सुभिक्ष, कुशल, कल्याण और समृद्धि; सिंह में अस्त हो तो युद्ध, संघर्ष, राजनीतिक उलट-फेर और धन का नाश; कन्या में अस्त हो तो क्षेम, सुभिक्ष, आरोग्य और उत्तम फसल; तुला में अस्त हो तो पीड़ा, द्विजों को विशेष कष्ट, धान्य गहेंगा; वृश्चिक में अस्त हो तो धनहानि और शस्त्र भय; धनु राशि में अस्त हो तो भय, आतंक, नाना प्रकार के रोग और साधारण फसल मकर में अस्त हो तो उड़द, तिल, मूंम आदि धान्य महंगे, कुम्भ में अस्त हो तो प्रजा को नष्ट एवं मीन राशि में गुरु अस्त हो तो सुभिक्ष, अच्छी वर्षा, धान्य भाव सस्ता और अनेक प्रकार की समृद्धि होती है। गुरु का क्रूर ग्रहों के साथ अस्त या उदय होना अशुभ है । शुभ ग्रहों के साथ अस्त या उदय होने से शंभ-ग्न साप्त होता है।
बुध का क्रूर नक्षत्रों में अस्त होना तथा क्रूर ग्रहों के साथ अस्त होना अशुभ कहा गया है । मंगल का शनि क्षेत्र की राशियों में अस्त होना अशुभसूचक है। जब मंगल अपनी राशि के दीप्तांश में अस्ता या उदय को प्राप्त करता है तो शुभफल प्राप्त होता है।
ग्रहों के अस्तोदय के समय समान मार्गी और वक्री का भी विचार करना चाहिए। इस निमित्तज्ञान में समस्त नहों के चार प्रकरण गभित है । ग्रहों की विभिन्न जातियों के अनुसार शभाषभ फल का निरूपण भी इसी निमित्त ज्ञान के अन्तर्गत किया गया है । शनि का क्रूर नक्षत्र पर वक्री होना और मृदुल नक्षत्र पर उदय हो जाना अशुभ है। बोई भी ग्रह अपनी स्वाभाविक गति से चलते समय यकायक वत्री हो जाय तो अशभ फल होता है।
लक्षणनिमित्त स्वस्तिक, कलश, शंख, चक्र आदि चिह्नों के द्वारा एवं हस्त, मस्तक और गदतलकी रेखाओं द्वारा शभाशुभ का निरूपण करना लक्षणनिमित्त है । वरलक्षण में बताया गया है कि मनुष्य लाभ-हानि, सुग्ध-दुःख, जीवनमरण, जय-पराजय एवं स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य रेखाओं के बल से प्राप्त करता है। पुरुषों के लक्षण दाहिने हाथ से और स्त्रियों के बायें हाथ की रेखाओं से अवगत करने चाहिए । यदि प्रदेशिनी और मध्यमा अंगुलियों का अन्तर सधन हो-वे एकदूसरे से मिली हो और मिलने से उनके बीच में कोई अन्त र न रहे, तो बचपन में सुख होता है । यदि मध्यमा और अनामिका का बीच सधन अन्तर हो तो जवानी में सुख होता है । लम्बी अंगलियाँ दीर्घजीवियों की, सीधी अंगुलियां सुन्दरों की, पतली बुद्धिमानों की और चपटी दूसरों की सेवा करने वालों को होती हैं । मोटी अंगुलियों वाले निर्धन और बाहर की ओर झुकी अंगुलियों वाले आत्मघाती होते
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भद्रबाहुसंहिता
हैं। कनिष्ठा और अनामिका में सघन अन्तर हो तो बुढ़ापे में सुख प्राप्त होता है। सभी अंगुलियाँ जिसकी सघन होती हैं वह धन-धान्य युक्त, सुखी और कर्तव्यशील होता है । जिनकी अंगुलियों के पर्व लम्बे होते हैं, वे सौभाग्यवान् और दीर्घजीवी होते हैं !
स्पर्श करने में उष्ण, अरुण वर्ण, पसीनारहित, सघन (छिद्र रहित) अंगुलियों वाला, चिकना, चमकदार, मांसल, छोटा, लम्बी अंगुलियों वाला, चौड़ा एवं ताम्र नखवाला हाथ प्रशंसनीय माना गया है। इस प्रकार के हाथ वाला व्यक्ति जीवन में धनी, सुखी, ज्ञानी और नाना प्रकार के सम्मानों से युक्त होता है 1 जिनके हाथ की आकृति बन्दर के हाथ की आकृति के समान कोमल, लम्बी, पतली, नुकीली हथेली वाली होती है वे धनिक होते हैं । व्याघ्र के पंज की आकृति के समान हाथ वाले मनुष्य पापी होते हैं । जिसके हाथ कुछ भी काम नहीं करते हुए भी कठोर प्रतीत हों और जिसके पाँच बहुत चलने-फिरने पर भी कोमल' दीख पड़ें, वह मनुष्य सुखी होता है तथा जीवन में सर्वदा सुख का अनुभव करता है।
हाय तीन प्रकार के बताये है---नुकीला, समकोण अर्थात् चौकोर और मोलपतली चपटी अंगुलियों के अग्न की आकृति वाला । जो देखने में नुकीला--लम्बीलम्बी नुकीली अंगुलियाँ, करतल भाग उन्नत, मांसलयुक्त, ताम्रवर्ण का हो, वह व्यक्ति के धनी, सुखी और ज्ञानी होने की सूचना देता है । नुकीला हाथ उत्तम मनुष्यों का होता है । यह सत्य है कि हस्तरेखा के विचार के पहले हाथ की आकृति का विचार अवश्य करना चाहिए । सबसे पहले हाथ की आकृति का विचार कर लेना आवश्यक है । समकोण हाथ की अंगुलियाँ साधारण लम्बी होती हैं । करतलस्थ रेखाएँ पीले रंग की चौड़ी दीख पड़ती हैं। अंगुलियों के अग्रभाग चौड़ेचौकोर होते हैं । अंगुलियाँ लम्बी करके एक-दूसरी से मिलाकर देखने से उनके बीच की सन्धि में प्रकाश दीख पड़ता है। अंगुलियों के नीचे के उच्चप्रदेश साधारण ऊँचे उठे हुए और देखने में स्पष्ट दीख पड़ते हैं । हाथ का स्पर्श करने से हाथ कठिन प्रतीत होता है ! अंगुलियाँ मोटी होती हैं, हाथ का रंग पीला दिखलाई पड़ता है। उत्तम रेखाएं उठी हुई रहती हैं। इस प्रकार के लक्षणों से युक्त हाथ वाला व्यक्ति परिश्रमी, दृढ़ अध्यबसायी, कर्मठ, निष्कपट, लोकप्रिय, परोपकारी, तर्कणाप्रधान, और शोधकार्य में भाग लेने वाला होता है । यह हाथ मध्यम दर्जे का माना जाता है। इस प्रकार के हाथ वाला व्यक्ति बहुत बड़ा धनिक नहीं हो सकता है।
गोल, पतले और चपटे ढंग का हाथ निकृष्ट माना जाता है। इस प्रकार के हाथ में करतल का मध्य भाग गहरा, रेखाएं चौड़ी और फैली हुई अंगुलियाँ छोटी या टेढ़ी, अंगूठा छोटा होता है । जिस हाथ की अंगुलियाँ मोटी, हथली का रंग काला और अल्प रेखाएं हों, वह हाथ साधारण कोटि का होता है । इस
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प्रस्तावना
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प्रकार क्रे हाथ वाले व्यक्ति परिश्रमी, अल्प सन्तोषी, मन्दबुद्धि और विशेष भोजन करने वाले होते हैं । जिस हाथ में टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं रहती हैं, देखने में बदसूरत होता है और अंगुलियाँ भद्दी होती हैं, वह हाथ अशुभ माना जाता है। इस हाथ वाला व्यक्ति सर्वदा जीवन में कष्ट उठाता है।
जिस व्यक्ति के हाथ का
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की पीठ के समान उन्नत, नसों से रहित और रोम रहित होता है, वह व्यक्ति संसार में पर्याप्त यश, विद्या, धन और भोग को प्राप्त करता है । रूक्ष, सिकुड़ा, कड़ा पृष्ठ भाग अशुभ समझा जाता है । जिस पृष्ठ भाग की नसें दिखलाई दें, केश हों वह जीवन में कष्टों की सूचना देता है । हाथ के पृष्ठ भाग में छ: बातें विचारणीय मानी गयी है - उन्नत होता, अवनत होना, नसों का दिखलाई पड़ना, नसों का नहीं दिखलाई पड़ना, विस्तीर्ण होना और संकुचित या संकीर्ण होना ।
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हथेली का विचार करते समय कहा गया है कि जिसकी हथेली स्निग्ध, उन्नत, मांसल हो, उभरी हुई नसों से युक्त न हो, वह शुभ मानी जाती है । इस प्रकार की हथेली वाला व्यक्ति जीवन में नाना प्रकार की उन्नतियों को प्राप्त करता है । जिनके हाथ का या पाँव का तलवा मृदु होता है, वे लोग स्थिर कार्य करने वाले होते हैं । कमल के गर्भ के समान सुन्दर वर्ण और अत्यन्त कोमल दोनों हाथों का होना उत्तम माना गया है। इस प्रकार के हाथ वाला मनुष्य कठोर से कठोर कार्य करने में समर्थ होता है । जिस मनुष्य के हाथ में प्राकृतिक रूप से विकृति मालूम पड़े तो वह व्यक्ति अपने पदों का अभ्युदय करता है । ऐसे लोगों को बाहन सौख्य भी मिलता है। जिसकी हथेनी पीतवर्ण की हो, वह आगमाभ्यासी, श्वेतवर्ण की हथेली वाला दरिद्री तथा काले और नीले वर्ष की हथेली वाला व्यक्ति दुराचारी होता है । जिस व्यक्ति की हथेली सिकुड़ी, पतली और सल पड़ी हुई हो तो वह व्यक्ति मानसिक दुर्बलता वाला, डरपोक, बुद्धिहीन, अन्यायाचरण करने वाला और चंचल स्वभाव वाला होता है। वड़ा और लम्बा करतल भाग महत्त्वाकांक्षी, असफल और नीरस व्यक्ति का होता है । दृढ़ करतल भाग हो तो चंचल तथा योग्य प्रकृति वाला होता है। हथेली का गहरा होना असफलताओं का सूचक है ।
जिसके नखों का वर्ण तुप - भूसे के समान हो; व पुरुषार्थहीन, विवर्णन वाले परमुखापेक्षी चपटे और फटं नखवाले धनहीन नीले रंग के नख वाले पाप कार्य में प्रवृत्त, दुराचारी; जिसके नख शिथिल हो में दरिद्री होते है। छोटी अंगुलियों वाले मनुष्य चालाक, साहसी, संकुचित स्वभाव के और मनमाने कार्य करने वाले होते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति कवि, लेखक और प्रशासक भी होत है। लम्बी अँगुलियों वाले मनुष्य दोगुनी, प्रमादी और अस्थिर विचार के होत है | लम्बी अंगुलियां यदि नुकीली हो तो व्यक्ति महत्त्वाकांक्षी परिश्रमी, यशस्वी
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और धनी होता है। लट्ठ के समान पुष्ट अंगुलियों वाले व्यक्ति ऐश-आरा भोगने वाले, दृढ़ परिश्रमी, मिलनसार और सुख प्राप्त करने की चेष्टा करने वा होते हैं । लचीली अंगुलियों वाले समझदार, अधिवा खर्च करने वाले, ऋण-ग्रस और सम्मान प्राप्त करने वाले होते है।
जिसका अंगठा हथेली की ओर झुका हुआ हो, अन्य अंगुलियाँ पशु के पंजे वे राभान हों, हथेली संकुचित और चपटी हो ऐसा मनुष्य अधिक तृष्णा वाला होत है । जिसका अंगूठा पीछे की ओर झुका हुआ हो, वह व्यक्ति कार्यकुशल होता है अंगूठे को इच्छाशयित, निग्रहशक्ति, कीति, सुख और समृद्धि का द्योतक मान। गया है । अंगूठे के निमित्त द्वारा जीवन के भावी शुभाशुभ का विचार किया जाता है।
हस्तरेखाओं का विचार करते हुए कहा गया है कि आयु या भोगरेखा, मातृरेखा, पितृ रेखा, ऊर्ध्वरेखा, भागिवन्धरेखा, शुकबन्धिनीरेखा आदि रेखाएँ प्रधान हैं । जो रेखा कनिष्ठा अंगुली से आरम्भ कर तर्जनी के मूलाभिमुख गमन करती है, उसका नाम आयुरेखा है । कुछ आचार्य इसे भोग रेखा भी कहते हैं । आयरेवा दि हिन्न भिन्न न हो, तो कस20 वर्ष तक जीवित रहता है। यदि यह रेखा कनिष्ठा अंगुली के मूल से अनाभिवा के मूल तक विस्तृत हो तो 50-60 वर्ष की आयु होती है। ग़ वायुरेखा को जितनी क्षुद्र रेवाएँ छिन्न-भिन्न करती हैं, उतनी ही आयु कम हो जाती है । इन रेग्मा के छोटी और मोटी होने पर भी व्यक्ति अल्पायु होता है। इस रेजा ने शृखलाकार होने से व्यक्ति लम्पट और उत्साह-हीन होता है । यह रेग्वा जब छोटी-छोटी रेखाओं कटी हुई हो, तो व्यक्ति प्रेम में असफल रहता है । इस रेखा के मूल में बुध स्थान में भाखा न रहने मे सन्तान नहीं होती। शनि स्थान के निम्न देश में मातृ रेखा के साथ इस रेखा के मिल जाने पर हठात् मृत्यु होती है । यदि यह रेाधलाकार होकर शनि के रथान में जाय तो व्यक्ति स्त्री-प्रेमी होता है।
आपरेका की अगल में ला इमरी रेखा तर्जनी कं निम्न मेश ! - F. उसका नाः पागलर है। यदि ला शान स्थान या शान स्थान के नीचे की हो जो अकालगन्य होनी है। जिस व्यक्ति की मातृ आर यिनृ ग्ला गिनी नहीं. "TE: विशेष विचार नहीं करना और कार्य पात्र ही प्रयत्त सा जाता है। इन TEार की गला गला कांन्त आन्माभिगानी, आभनेता और व्याख्यान झालन गं पट होता है। दो मारता रहने में भौभाग्यशाली. स्परागदाता और निक हाता है तथा इस प्रकार के व्यक्ति को पैतृक सम्पत्ति भी प्राप्त होती है । यदि यह रेखा टूट जाय तो मस्तक में चोट लगती है तथा कविता अंगहीन होता है । यह रेखा लम्बी हो और हाथ में अन्य बहुत-सी खाएँ हो तो यह व्यक्ति विपत्ति काल में आत्मदान करने वाला होता है। इस रेखा के मूल में कुछ अन्तर पर यदि
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पितृ रेखा हो तो वह मनुष्य परमुखापेक्षी और डरपोक होता है । मातृरेखा हाय में सरल भाव से न जाकर बुध के स्थानाभिमुखी हो तो वाणिज्य व्यवसाय में लाभ होता है। यदि यह रेखा कनिष्ठा और अनामिका के बीच की ओर आये तो शिल्प द्वारा उन्नति लाभ होता है। यह रेखा रवि के स्थान में जाय, तो शिल्पविद्यानुरागी और यग:प्रिय व्यक्ति होता है । यह रेखा रेग्नः को भेदार शनि स्थान में जाय तो मस्तक में चोट लगने से मृत्यु होती है । आयु रेखा के समीप इसके होने से श्वास रोग होता है। इस रेखा में सादे बिन्दु होने से व्यक्ति वैज्ञानिक आविष्कर्ता होता है । मातृ रेखा के ऊपर यवचिह्न होने से व्यक्ति वायुरोग ग्रस्त होता है । मातृ और पितृ दोनों रेखाओं के अत्यन्त छोटे होने से शीघ्र मृत्यु होती है।
जो रेखा करतल मूल के मध्यस्थल से उठकर साधारणतः मातृरेखा का ऊर्ध्वदेश स्पर्श करती है, अथवा उसके निकट पहुंचती है, उसका नाम पितृरेखा है । कुछ लोग इसे आयुरेखा भी कहते हैं । यह रेखा चौड़ी और विवणं हो, तो मनुष्य रुग्ण, नीच स्वभाव, दुर्बन और ईर्ष्याम्वित होता है । दोनों हाथ में पितरेखा के छोटी होने से व्यक्ति अल्पायु होता है । पितरेखा के खालाकृति होने से व्यक्ति रुग्ण
और दुर्बल होता है। दो पितरेखा होने से व्यक्ति दीर्घायु, बिलासी, सुखी और किसी स्त्री के धन का उत्तराधिकारी होता है । यह रेखा शाखा विशिष्ट हो तो नसें कमजोर होती है। पितरेखा से कोई शास्वा चन्द्र के स्थान में जाने से मूखंतावश अपव्यय कर व्यक्ति कष्ट में पड़ता है। यह रेखा टेढ़ी होकर चन्द्र स्थान में जाये, तो दीर्घजीवी और इस रेखा की कोई शाखा बुध के क्षेत्र में प्रविष्ट हो तो व्यवसाय में उन्नति एवं शास्त्रानुशीलन में सुभ्यातिलाभ होता है । पितृरेव! में दो रेखाएं निकलकर एक चन्द्र और दूसरी शुक के स्थान में जाये, तो बह गनुष्य स्वदेश का त्याग कर विदेश जाता है । चन्द्रस्थान से कोई रेखा आकार पितृ रेग्या को काटे, तो वह वातरोगी होता है । जिस व्यक्ति ने दोनों हाथों में मातृ, पितृ और आयु रेखाएँ मिल गई हों, वह व्यक्ति अकस्मात् दुरवस्था को प्राप्त करता है और उसकी मृत्यु भी किसी दुर्घटना से होती है । पितृ रेखा बद्धांगुलि के निकट जाये तो व्यक्ति को सन्तान नहीं होती। पितरेखा में छोटी-छोटी रेखाएं आकर चतुकोण उत्पन्न करें तो स्वजनों स विरोध होता है तथा जीवन में अनेक स्थानों पर असफलताएं मिलती हैं।
जो सीधी रेखा पितृ रेखा के मूल के सभीष आर होकर मध्य मागुलि की ओर गमन करती है, उसे ऊध्वरेखा कहते हैं। जिसकी ऊध्र्वरेखा पितरेला है उठे, वह अपनी चेष्टा से सुख और सौभाग्य लाभ करता है । ऊर्ध्वरेशा हस्तलल वीर से उठकर बुधस्थान तक जाय तो बाणिज्य व्यवसाय में, वक्तृता में या विज्ञानशास्त्र में उन्नति होती है । यह रेखा मणिबन्ध का भेदन करे तो दुःख और शोक
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उपस्थित होता है । इस रेखा के हाथ के बीच से निकलकर रवि के स्थान में जाने से साहित्य और शिल्प विद्या में उन्नति होती है। यह रेखा मध्यमा अंगुली से जितनी ऊपर उठेगी, उतना ही शुभ फल होगा । ऊर्ध्वरेखा जिस स्थान में टेढ़ी होकर जायगी, उस व्यक्ति को उसी उम्र में कष्ट होगा। इस रेखा के भग्न या छिन्न-भिन्न होने से नाना प्रकार की घटनाएँ घटित होती हैं। इस रेखा के सरल और सुन्दर होने से व्यक्ति सुखी और दीर्घजीवी जीवन व्यतीत करता है । शुक्र स्थान से कई एक छोटी रेखा निकलकर पितृ रेखा और ऊर्ध्वरेखा के काटने से स्त्री वियोग होता है ।
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जिसके हाथ में ऊ रेखा न रहे, वह व्यक्ति दुर्भाग्यशाली, उद्यम रहित और शिथिलाचारी होता है । इस रेखा के अस्पष्ट होने से उद्यम व्यर्थ होता है । इस रेखा के स्पष्ट और सरल भाव से शनि के स्थान में जाने से व्यक्ति दीर्घजीवी होता है। स्त्रियों के करतल में और पादतल में ऊर्ध्वरेखा होने से वे चिर-सधवा सौभाग्यवती और पुत्र-पौत्रवती होती हैं। जिस व्यक्ति के हाथ में यह रेखा होती है । वह ऐश्वर्यशाली और सुखी होता है। जिसकी तर्जनी से तैयार मूल तक ऊर्ध्वरेखा स्पष्ट हो, वह राजदूत होता है । मध्यमा अंगुली के मूल तक जिराकी ऊर्ध्व रेखा दिखाई दे, वह सुखी, विभवशाली और पुत्र-पौत्रादि समन्वित होता है ।
जिस व्यक्ति के मणिबन्ध में तीन सुस्पष्ट सरल रेखाएं हों वह दीर्घजीवी, सुस्थ शरीरी और सौभाग्यशाली होता है । रेखात्रय जितनी ही साफ और स्वच्छ होंगी, स्वास्थ्य उतना ही उत्तम होगा। मणिबन्ध रेखाचय के बीच में कुश ह्नि रहने से व्यक्ति कठिन परिश्रमी और सौभाग्यशाली होता है। मणिबन्ध में यदि एक तारिका चिह्न हो तो उत्तराधिकारी के रूप में धन लाभ होता है, किन्तु यदि चिह्न अस्पष्ट हो तो व्यक्ति परदाराभितापी होता है । मणिबन्ध से चन्द्रस्थान के ऊपर की ओर जाने वाली रेखा हो तो समुद्र यात्रा का योग अधिक होता है । मणिबन्ध से कोई रेखा गुरुस्थान की ओर जाय तो धन-लाभ होता है। इस रेखा के सरल होने से आयुवृद्धि होती है । पर यह रेखा इस बात की भी सूचना देती है कि व्यक्ति की मृत्यु जल में डूबने से न हो जाय । कलक्खन में मणिबन्ध रेखा के सम्बन्ध में बताया गया है कि जिसके मणिबन्ध कलाई पर तीन रेखाएं हों, उसे धान्य, सुवर्ण और रत्नों की प्राप्ति होती है। उसे नाना प्रकार के आभूषणों का उपभोग करने का अवसर प्राप्त होता है। जिस व्यक्ति की मणिबन्ध रेखाएँ मधु के समान निगल सालवर्ण की हो, तो वह गुरुप सुखी होता है। जिनका मणिबन्ध गठा हुआ और दृढ़ हो वे राजा होते हैं, ढीला होने से हाथ काटा जाता है। जिसके मणिबन्ध में जबभाला की तीन धाराएं हों वह व्यक्ति एम एल ए या मिनिस्टर होता है। प्रशासक के कार्यों में उसे पर्याप्त सफलता प्राप्त होती है। जिसके मणिमें माला की दो धाराएं प्राप्त होती हैं, वह व्यक्ति अत्यन्त धर्मात्मा,
વન્ય
चतुर
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कार्यपटु और सुखी होता है। जज या मजिस्ट्रेट का पद उसे मिलता है। जिसके मणिबन्ध में धमाला की एक ही धारा दिखाई पड़े वह पुरुष धनी होता है । सभी लोग उसकी प्रशंसा करते है । जिस व्यक्ति के हाथ को तीनों मणिबन्ध रेखाएँ स्पष्ट और सरल हों, वह व्यक्ति जगन्मान्य, पूज्य और प्रतिष्ठित होता है ।
तर्जनी और मध्यमांगुली के बीच से निकलकर अनामिका और कनिष्ठा के मध्यस्थल तक जाने वाली रेला शुक्रबन्धिनी कहलाती है । इस रेखा के भग्न या बहुशाखा विशिष्ट होने पर मुर्च्छा रोग होता है। इस रेखा के स्थान-स्थान में भग्न होने से मनुष्य लम्पट होता है। शुबन्धिनी रेखा के होने से मनुष्य कभी विषाद में मग्न रहता है और कभी आनन्द में इस रेखा के बृहस्पति स्थान से अर्द्धचन्द्रर हो सीधी से व्यक्ति ऐन्द्रजालिक होता
है और साहित्यिक भी होता है।
रेखाओं के खतवर्ण होने से मनुष्य आमोदप्रिय, उग्र स्वभाव; रक्तवर्ण में कुछ कालिमा हो अर्थात् रक्तवर्ण रखता हो तो प्रतिहिसारायण, गठ, क्रोधी होता है । जिसकी रेखा पीली होती है, वह उच्चाभिलाषी, प्रतिहिमापरायण तथा कर्मठ होता है । पाण्डुवर्ण की रेखाएँ होने से स्त्री स्वभाव का व्यक्ति होता है ।
ग्रहों के स्थानों का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि तर्जनी मूल में गुरु का स्थान, मध्यमा अंगुली के गुल में शनि का स्थान, अनामिका के मूल देश में रवि स्थान, कनिष्ठा के मूल में बुध स्थान तथा अंगूठे के मूल देश में शुक्र स्थान है । मंगल के दो स्थान हैं --- एक तर्जनी और अंगूठे के बीच में परेखा के समाप्ति स्थान के नीचे और दूसरा बुध स्थान के नीचे और चन्द्रस्थान के ऊपर ऊर्ध्व रेखा और मातृ रेखा के नीचे वाले स्थान में मंगल स्थान के नीचे से मणिबन्ध के ऊपर तक करतल के पार्श्व भाग के स्थान को चन्द्रस्थान कहते हैं ।
सूर्य के स्थान के ऊँचा होने से व्यक्ति चंचल होता है, संगीत तथा अन्यान्य कलाविशारद और नये विषयों का आविष्कारक होता है। रत्रि और बुध का स्थान उच्च होने से व्यक्ति विश, शास्त्र विशारद और सुवक्ता होता है । अत्युच्च होने से वह अपव्ययी, बिलामी, अर्थलोभी और तार्किक होता है। रवि का स्थान ऊंचा होने से व्यक्ति मध्यमाकृति, लम्बे केश, बड़े-बड़े नेत्र, किञ्चित् लम्बा गुखमण्डल, सुन्दर शरीर और अंगुलियाँ लम्बी होती हैं। रवि के स्थान में कोई रेखा न होने पर व्यक्ति को नाना दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ता है । जिसके हाथ का उच्च सूर्य क्षेत्र बुध क्षेत्र की ओर झुक रहा हो, तो उसका स्वभाव नम्र होता है । व्यापार में उन्नति करने वाला अर्थशास्त्र का अपूर्व विद्वान् एवं कलाप्रिय होता है। जिसके हाथ का उच्च सूर्यक्षेत्र शनिक्षेत्र की ओर झुका हुआ हो, वह धनाढ्य और अनेक प्रकार के भोग-विलासों में रत रहता है । सूर्यक्षेत्र यदि गुरुक्षेत्र की ओर झुका हुआ हो तो व्यक्ति दयालु, गुणी, न्यायप्रिय, सत्यवादी,
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परोपकारी, गुरुजनों का शक्त, सुन्दर आकृति वाला, बुद्धिमान, मधुरभाषी कलाकौशल में अभिरुचि रखने वाला, धार्मिक और सन्तान वाला होता है। मंगल क्षेत्र की ओर झुके रहने से व्यक्ति सदाचारी, ज्ञानी, साहित्यकार, शिल्पकला विशारद, वैज्ञानिक और कुशल डॉक्टर होता है ।
चन्द्रस्थान न होने से मनुस्य संगीत निय, कामरा, शिण और चिन्तागुक्त होता है । इस प्रकार का व्यक्ति प्रायः संसार से विरक्त होता है और संन्यासी का जीवन व्यतीत करता है ।
गित रेया के सन्निकटस्थ मंगल का स्थान उच्च हो तो वह व्यक्ति असीम साहसी, विवादप्रिय और विशिष्ट बुद्धिमान होता है । हस्त पापवस्थ मंगल स्थान उच्च होने से वह व्यक्ति अन्याय कार्य में प्रवृत्त नहीं होता तथा धीर, नम्र, धार्मिक साहसी और दृढ़प्रतिज होता है। दोनों स्थान समान उच्च होने से वह व्यक्ति उग्र स्वभाव सम्पन्न, सामातुर, निष्ठुर और अत्याचारी होता है। मंगलरशान के नीचे होने से व्यक्ति भीर, मन्दबुद्धि और पुरुषार्थहीन होता है। मंगल का स्थान कठिन होने से स्थावर सम्पत्ति की वृद्धि होती है । मंगल उच्च का सर्वांग सुन्दर रूप में हो तो व्यक्ति मिल या अन्य बड़े-बड़े उद्योग धन्धों को करता है। मंगल मनुष्य की कार्य-क्षमता की सूचना देता है।
बुध का स्थान उच्च होने से शास्त्रज्ञान में परायण, भापग में पटु, साहसी, परिश्रमी, पर्यटनशील और कम अवस्था में ही विबाह करने वाला होता है । बुध जिसका उरुन का हो और साथ ही चन्द्रमा भी उच्च का हो तो व्यक्ति लेखक, कवि या साहित्यकार बनता है । सफल नेता भी इस प्रकार की रेखा वाला व्यक्ति होता है । कन्या सन्तान इस प्रकार के व्यक्ति को अधिक उत्पन्न होती हैं । कुछ आचार्यों ना अभिमत है कि जिसके हाथ में बुध उलन का हो, वह व्यक्ति डॉक्टर या अन्य प्रकार का बैज्ञानिक होता है। ऐसे व्यक्तियों को चयी-नयी वस्तुओं के गुण-दोष आविष्कार में अधिक सफलता मिलती है । बुध का पर्वत नीचे की ओर झुका हो और मंगल का पर्वत उन्नत हो तो व्यक्ति नेता होता है।
गुरु का स्थान प्रत्युत्त होने गे व्यक्ति अधार्मिक और अहंकारी होता है। इस गप क्ति में शासन करने की अपूर्व क्षमता होती है । न्याय और यामारण शास्त्र का ज्ञाता उच्च स्थानीय व्यक्ति होता है। गुरु के पर्वत के निम्न होने में अस्ति दुराचारी, दुःची और लम्पट होता है।
___ शुक्र का स्थान अत्युच्च होने से व्यक्ति लम्पट, लज्जाहीन और व्यभिचारी होता है । उन्च होने से सौन्दर्यप्रिय, नृत्य गीतानुरक्त, कलाविज्ञ, धनी और शिल्पविद्या में पद होता है । शुक्र के स्थान के निम्न होने से व्यक्ति स्वार्थी, आलसी और रिपुदमनकारी होता है। एक गोटी रेखा शक के स्थान से निकलकर पितरेचा के ऊपर होती हुई मंगल स्थान में जाये तो व्यक्ति को दगा और खाँसी या रोग होता
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है। शुक्रस्थान से शनिस्थान तक यदि रेखा जाय तथा यह रेखा खलायुक्त हो तो व्यक्ति का विवाह बड़ी कठिनाई से होगा। शुक्र और गुरु दोनों के स्थानों के उन्नत होने से संसार में प्रसिद्धि प्राप्त करता है । ___ शनि के स्थान के उच्च होने में व्यक्ति अभापी वानापित, पातप्रिय, विचारक, दार्शनिक और भाग्यशाली होता है। शनि स्थान के नीचे होने से व्यक्ति भावुक, कमजोर और दुर्भाग्यशाली होता है। शनि और बुध दोनों स्थानों के उच्च होने से व्यरित क्रोधी, चोर और अधार्मिक होता है।
इस निमित में योगों का विचार करते हुए बताया गया है कि जिस परूप की नाभि गहरी हो, नासिका का अग्र भाग सीधा हो, वक्षःस्थल रक्त वर्ण और पैर के तलवे कोगल तथा रक्तवर्ण के हो, वह सम्राट ये मुल्य प्रभावशाली होता है। ऐसा व्यक्ति अनेक प्रकार के सुख भोगता है तथा मन्त्री, नेता या किसी संस्था का निर्देशक होता है। जिसकी हमेली ये मध्य का, अश्व, मृदंग, वृक्ष, स्तम्भ या दाड का चिहन हो तो वह व्यतित समृद्धिशाली, धनी, सुम्नी और अद्भुत प्रभावशाली होता है । जिसका ललाट चौड़ा और विशाल, नेत्र व.भलदल के समान, मस्तक मोल, और भुजाएँ जानुपर्यन्त हों, वह व्यक्ति नेता, राजमान्य, पूज्य, शक्तिशाली और सुखी होता है । जिराके हाथ में फूल की माला, घोड़ा, कमलपुष्प, धनुष, चक्र, ध्वजा, रथ और आसन का चिह्न हो वह जीवन में सदा आनन्द भोगता है, उसके घर में लक्ष्मी का निवास सदा रहता है।
जिसके हाथ की सूर्य रेन्द्रा, मस्तक रेखा से मिली हो और मस्तक रेखा से स्पष्ट, सीधी होकर ऊपर गुरु की ओर झुकने से वहाँ चतुष्कोण बन जाय वह प्रधान मन्त्री या मुग्ध्य नेता होता है । जिराय हाथ के सूर्य गुरु पर्वत उच्च हों और शनि एवं बुध रेखा पुष्ट, स्पष्ट और सीधी हो वह राज्यपाल या गवर्नर होता है । जिसके हाथ में शनि पर्वत पर त्रिशूल यिह हो, चन्द्ररेखा का भाग्यरेखा में शुद्ध सम्बन्ध हो या भाग्य रेखा हथेली के मध्य से प्रारम्र होकर उसकी एक शाखा गुरुपति पर और दूसरी सूर्य पर्वत पर जाय वह उच्च राज्याधिकारी और गुण ग्राही होता है । जिसके हाथ के गुरु और मंगल पर्वत उच्च हों तथा मस्तक रेखा में सर्प का चिह्न हो या बुधांगुली नुकीली और लम्बी हो एवं नख चायादार हों, वह राजदूत बनता है । जिगये बायें हाथ की तर्जनी और नानिमिठका की अपेक्षा दाहिने हाथ को वे ही अंगुलियाँ गोटी और बड़ी हो, मंगल पर्वत अधिक ऊँचा उठा हो
और सूर्य रेखा प्रबल हो वह जिलाधीश या कमिश्नर होता है । जिसके हाथ का गुरुह, गति, सूर्य और बुध पर्वत उच्च हों, अँगुलियाँ लम्बी हो कर उनके ऊपरी भाग मोटे हों, मूर्परेखा प्रबल हो और मध्यमगली का दूसरा पर्व लम्बा हो, वह शिक्षा विभाग का उच्च पदाधिकारी होता है। ___जिसके हाथ की हृदय रेखा और मस्तक रेखा के बीच एक चौड़ा चतुष्कोण
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हो, मातक रेखा मीधी और रवच्छ हो बधांगली ना प्रथम पर्व लाया हो. गुरु की अंगली सीधी हो तथा मुर्य पर्वत उठा हो बह दयालु न्यायाधीश होता है । जिराकी अंगुलियों लम्बी और आस-पास सटी हों, अंगूठा लम्बा और सीधा हो, मस्तक रेखा गोधी और कृति की हो तथा हथेली चपटी हो तो व्यक्ति बैरिस्टर या वकील होता है।
जिमान हाथ का गुरुपर्वत और तर्जनी लम्बी हो, चादपर्वत उच्च हो तथा बुधागदी नुकीली हो, साथ ही मरतकरेखा लम्बी और नीचे झुकी हो तो वह व्यक्ति दर्शनशास्त्र का विद्वान् होता है । जिसके शनि और गुरुक्षेत्र उच्च हों, शनिपर्वत पर त्रिकोण चिह्न हो और सूर्य रेखा शृद्ध हो वह व्यक्ति योगी या साध होकर पूर्ण गौरब गाता है। जिसका अंगठा मोटा और टेवा हो, उसकी इच्छा-शक्ति प्रवल होती है । जिमो हाथ में बड़ा चतुष्कोण या पृथ्व.रणी रेखा हो, वह सब मनुष्यों में श्रेष्ठ और सब का स्वामी होता है। हथेली के मध्य में कलश, स्वस्तिक, मग, गज, मत्स्य आदि के निरन शुभ माने जाते हैं । ___अंगूठे के मन में जितनी स्थूल रेखाएँ ही उत्तने भाई और जितनी सुक्ष्म रेखाएँ हों उतनी बहिन होती हैं । अंगठे के अधोभाग में जिसके जितभी रेखा हो, उसके उत्तरे ही पुत्र होते हैं । जितनी रेखाएं सुक्ष्म होती हैं उतनी ही कन्या होती हैं। जितनी ना किन्न-भिन्न होती हैं, उतनी सन्ताने मत और जितनी रेखाएं अखण्ड और सम्पूर्ण होती है उसने बालक जीवित रहते है। __ स्वप्न निमित. ..यान द्वारा शुभाशुभ का वर्णन करना इस निमित्त ज्ञान का विषय है। दुरट, . अनुभूत, प्रथित, कल्पित, भाविक और दोपज इन पात प्रकार के यूटना में मेमविक स्वप्न या फल यथार्थ निकलता है। स्वप्न भी वर्मफल वा गुच क है, आगामी शुभाशुभ नामफल की सूचना देता है । सूचक निमित्तों में स्थान का भी महत्वपूर्ण स्थान है। स्वप्नों का फलादेश इस ग्रन्थ के 26 वें अध्याय में लथा परिशिष्ट रूप में अंकित 30 वें अध्याय में विस्तार के साथ लिखा गया है। अतः यहां स्वप्नों का फलादेश नहीं लिखा जा रहा है ।
निमित्तज्ञान का अंगभूत प्रश्नशास्त्र प्रश्न शास्त्र निमित्तज्ञान का एक प्रधान अंग रहा है। इसमें धातु, पुल, जीव, भाट, मुष्टि, लाभ, हानि, रोग, मृत्यु, भोजन, शयन, जन्म, नम, शल्यानयन, मना गमन, नदियों की बाढ़, अष्टि, अतित्राष्टि, अनावृष्टि, फमल. जय-पराजय, लागालाभ, विद्या सिद्धि, विवाह, सन्तान लान, यमः प्राप्ति एवं जीवन के विभिन्न आवश्यक प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। जैनाचार्या ने अष्टांगनिमित पर आने इ. ग्रन्थ लिखे हैं। प्रस्तुत प्रश्नशास्त्र निमित्त नाम का यह अंग है जिसमें बिना किसी गणित क्रिया के विकास की बातें बतलायी जाती है । शानदीपिका के प्रारम्भ में कहा है.....
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भूतं भव्यं वर्तमानं शुभाशुभनिरीक्षणम् । पंचप्रकारमार्गं च चतुष्केन्द्रबलायलम् ॥ आरूढ छत्रवर्ग चाभ्युदयादि - बलायलम् । क्षेत्रं दृष्टिं नरं नारी युग्मरूपं च वर्णकम् ॥ भागादि नररूपाणि किरणान्योजनानि च।
आपरसोयाद्यञ्च परीक्ष्य कधयेद् बुधः ॥ अर्थ-भूत, भविष्य, वर्तमान, शुभाशुभ दृष्टि, पाँच मार्ग, चार केन्द्र, बलाबल, आरूढ, छत्र, वर्ण, उदयवल, अस्तवल, क्षेत्रदृष्टि, नर, नारी, नपुंसक, वर्ण, मृग तथा मनुष्यादिक के रूप, किरण, योजन, आयु, रस एवं उदय आदि की परीक्षा करके फल का निरूपण करना चाहिए। __प्रश्ननिमित्त का विचार तीन प्रकार से किया गया है –प्रश्नाक्षर-सिद्धान्त, प्रश्नलग्न-मिद्धान्त और स्वरविज्ञान-सिद्धान्त 1 प्रश्नाक्षर-सिद्धान्त का आधार मनोविज्ञान है; यतः बाह्य और आभ्यन्तरिक दोनों प्रकार की विभिन्न परिस्थितियों के अधीन मानव-मन की भीतरी तह में जैसी भावनाएं छिपी रहती हैं, वैसे ही प्रश्नाक्षर निकलते हैं । अतः साक्षरों के निमित्त को लेकर फलादेश का विचार किया गया है ।
प्रश्न करने वाला आते ही जिस वाक्य का उरुनारण करे, उसके अक्षरों का विश्लेषण कर प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम वर्ग के अक्षरों में विभक्त. कर लेना चाहिए । पश्चात् संयुक्त, असंयुक्त, अभिहित, अनभिहित, अभिघातित, आलि गित, अभिधमित और दग्ध प्रश्नाक्षरों के अनुसार उनका फलादेश समझना चाहिए । प्रयन प्रणाली के वर्गों का विवेचन करते हुए कहा है कि अ क च ट त प य श अथवा आ ए क च ट त । य श इन अक्षरों का प्रमथ वर्ग; आ ऐख छठ थ फ र ष इन अक्षरों का द्वितीय वर्ग; इ ओ गज ड द व लस इन अक्षरों का तृतीय वर्ग; ई औ घझदधभव है इन अक्षरों का चतुर्थ वर्ग और उ ऊ हुघण न म अं अः इन अक्षरों का पंचभ वर्ग बताया गया।
प्रथम और तृतीय वर्ग के संयुक्त अक्षर प्रश्न वाक्य में हो तो वह प्रश्न वाक्य संयुक्त कहलाता है। प्रश्नवों में अइ ए ओ ये स्वर हों तथा क च ट त प य श ग ज ड द ल स ये व्यंजन हों तो प्रश्न संयुक्त संज्ञक होता है । संयुक्त प्रश्न होने पर पृच्छक का कार्य सिद्ध होता है । यदि पुचटका लाग, जय, स्वास्थ्य, मुख और शान्ति के सम्बन्ध में प्रश्न पूछने आया है तो संयुक्त प्रशा झोन पर उसके सभी कार्य सिद्ध होते हैं । यदि प्रश्न वर्गों में कई वर्गों के अक्षर हैं अथवा प्रथम, तृतीय वर्ग के अक्षरों की बहुलता होने पर भी संयुक्त ही प्रश्न माना जाता है । ज स पृच्छक के मुख से प्रथम वाक्य कार्य निकला, इस प्रश्न वाक्य का विश्लेषणक्रिया से क+आ र-1-11-अ यह स्वरूप हा। इस विश्लेषण में क-1 --- अ ये अक्षर
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प्रथम वर्ग के हैं तथा आ और र द्वितीय वर्ग के हैं। यहाँ प्रथम वर्ग के तीन वर्ण और द्वितीय वर्ग के दो वर्ण हैं, अतः प्रथम और द्वितीय वर्ग का संयोग होने से यह प्रश्न संयुक्त नहीं कहलायेगा।
यदि प्रश्नवालय में संयुक्त वर्णों की अधिकता हो .. प्रथम और तृतीय वर्ग के वर्ण अधिक हों अथवा प्रश्न वाक्य का आरम्भ कि चि टि ति पि यि शि को चो टो तो यो शो ग ज ड द ब ल स गे जे डे दे से अश्रया क - ग, क : ज्, क् । ड्, क् +-द्, क - छ, के + ल, क् ! स्, च् + ज्, च-1-ड्, च् + द, च -- , च् । ल, च - स, --ग, ट्-F, टू - इ, ६, ८-५, ट् । ल, ट्। स्, त्-1- ग, तु - ज, त् । इ, त् --द्, त्-:-, त् - ल, त् ।-स्, दु । ग, द् |- ज्, द् ड् द । ब, द ल, द्- स, य-1- ग. . यू - ड्, य-+-द, य व , य- ल, य -- स, श-! ग, श+ज, +ड़, श+द, श् |-ब, श् -1-ल, श : स, ग--क, ... , म द ग त्, ग् - 'ए, ग -!- य, म् । श्, ज् | का, ज् -1 , ज-1-, ज् न , ज -!-य, ज् -- श्, ड्+क, इ. च, , -त. इ-प इ -य, इ- श. --क, द म , द- ६, द्+ , द य , द्। श्, - , ब. च्, --. -F, प, बय, ब --'गा, लालच, ल -|-टू, ल--त्, ल् - :-, ल । श, स् + क्, स-+ च्, स्-|-ट्, स-| त्, स् , स् । य, म । मे होता हो तो संयुक्त प्रश्न का फल शुभ होता है ।
प्रथम और द्वितीय वर्ग, द्वितीय और चतुर्थ वर्ग, तृतीय और चतुर्थ वर्ग एवं पंचम वर्ग के वर्गों के मिलने से असंयुक्त प्रश्न कहलाता है। प्रथम और द्वितीय वर्गाक्षरानो संयोग से ... क ख, च छ, ट छ, त थ, प फ, य र इत्यादि, तृतीय और चतुर्थ वर्णाक्षरों मंयोग से-ख घ, छ, टर, थ ध, फ 'भ, और र व इत्यादि; तृतीय और चतुर्थ वर्गारों के संयोग से-गा, जझ, उद्ध, दध वभ, इत्यादि एवं चतुर्थ और पंचम वर्णाक्षरों के संयोग से—प्रङ, झज, ढणं, धन, भम इत्यादि विकल्प बनते हैं। असंयुक्त प्रश्न होने से फल की प्राप्ति बहुत दिनों के बाद होती है । यदि प्रथम और द्वितीय वर्गों में अक्षयों के मिलने से असंयुक्त प्रश्न हो तो धन लाभ, कायं सफलता और राजसम्मान अथवा जिस गम्बन्ध में प्रश्न गूछा गया हो, उग फल की प्राप्ति तीन महीनों के पश्चात् होती है । द्वितीय, चतुर्थ वर्गाक्षगक संयोग से असंयुक्त प्रश्न हो, तो मित्र प्राप्ति, उत्सव बृद्धि, कार्य साफल्य की प्राप्ति छ: महीने में होती है। तृतीय और चतुर्थ वर्गाक्षरों के संयोग से असंयुक्त प्रश्न हो, तो अल्प लाभ, पुत्र प्राप्ति, मांगल्यवद्धि और प्रियजनों से झगड़ा एक महीने के अन्दर होता है। चतुर्थ और पंचम वर्गाक्षरों के संयोग से असंयुक्त प्रश्न हो, तो घर में विवाह आदि मांगलिक उत्सबों की वृद्धि, स्त्रजन प्रेम, यशः प्राप्ति, महान कार्यों में लाभ और वैभव की वृद्धि इत्यादि फलों की प्राप्ति गीन्न होती है।
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यदि पृच्छक रास्ते में हो, शयनागार में हो, पालकीपर सवार हो, मोटर, साइकिल, घोड़े, हाथी आदि किसी भी सवारी पर सवार हो तथा हाथ में कुछ भी चीज न लिये हो, तो असंयुक्त प्रा होत है। कि चाक छिन् निश: की ओर मुंह कर प्रश्न करे तथा प्रश्न करते समय कुर्गी, टेबुल, बेंच अथवा अन्य लकड़ी की वस्तुओं को छूता हुआ या नौनता हुआ प्रश्न करे तो उन प्रश्न को भी असंयुक्त समझना चाहिए । असंयुक्त प्रश्न का फल प्राय: अनिष्टकार ही होता है।
यदि प्रश्न वाक्य का आद्याक्षर गा, जा, हा, दा, बा, ला, गा, गं, औ, ये, है, ल, सै, धि, झि, पि, धि, भि, बि, हि, को, झो, दो, यो, हो में ग कोई हो तो असंयुक्त प्रश्न होता है । इस प्रकार के असंयुक्त प्रश्न का फल अशुभ होता है।
प्रश्नकर्ता के प्रश्नाक्षरों में कब, ग, गध. पङ, छ, जश, झन, टठ, डल, ढण, तथ, थद, दध, धन, पफ, फल, बम, भग, यर, रल, लव, वण, शप, और सह इन वर्णों के क्रमश: विपर्यय होने पर परस्पर में पूर्व और उत्न र बर्ती हो जाने पर अर्थात् खक, गव, घग, घ, हाच, झज, जश, हट, हु, पद, थत, नथ, धद, नध, फा, बफ, भव, मभ, रय, लर, बल, पण, सप, और हा होने पर अभिहित प्रश्न होता है । इस प्रकार के प्रश्नाक्षरों के होने ने कार्य सिद्धि नहीं होती। प्रश्न वाक्य के विश्लेषण करने पर पंचम वर्ग के वर्णों की संख्या अधिक हो तो 'मी अभिहित प्रशन होता है । प्रश्न वाक्य का आरम्भ उपर्युक्त अक्षरों में संयोग से निप्पन्न वर्गों में हो तो अभिहित प्रश्न होता है । इस प्रकार के प्रश्न का फन भी अशुभ है। ___ अकार स्वर सहित और अन्य वनों से रहित अ क च त प य श इजण न म ये प्रश्नाक्षर या प्रश्नवाक्य के आद्याक्षर हों तो अनभिहित प्रश्न होता है। अनभिहित प्रश्नाक्षर स्ववर्गक्षारों में हो, तो व्याधि-पीड़ा और अन्य वर्गाक्षरों में हों तो शोक, सन्ताप, दुःख भय और पीड़ा पल होता है। जैग किसी व्यक्ति का प्रश्न वाक्य 'चमेली' है। इस वाक्य में आद्याक्षर में अ स्वर और लांजन का संयोग है, द्वितीय वर्ण 'मे' में ए रबर और म व्यंजन का संयोग है तथा तृतीय वर्ण ली में ई स्वर और ल व्यंजन का संयोग है । अत: च - अ---!- ए - ल् + ई इस विश्लेषण में अनच म ये तीन वर्ण अनभिहित, ई अभिमित, ए आलिंगित
और ल अभिहत संज्ञक है। "परस्परं शोधयित्वा थोऽधिकः स एव प्रश्नः" इस नियम के अनुसार यह प्रश्न अनभित हुआ: क्योंकि सबसे अधिक वर्ण अनभिहत प्रश्न के हैं । अथवा गुविधा के लिए प्रथम वर्ण जिरा प्रश्न या जिस संज्ञक हो उस प्रश्न को उसी संज्ञक मान लेना चाहिए, किन्तु वास्तविक फल जानने के लिए प्रश्न वाक्य में सबसे अधिक प्रश्नाक्ष र जिरा संज्ञक प्रश्न के हों, उसे उसी संज्ञक प्रश्न समझना चाहिए।
प्रश्नश्रेणी के सभी वर्ण चतुर्थ वर्ग और प्रथम वर्ग के हों अथवा एञ्चम वर्ग और द्वितीत वर्ग के हों तो अभिधातित प्रान होता है । इस प्रश्न का फल अत्यन्त
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अनिष्ट कर बताया गया है । यदि पृच्छक कमर, हाथ, पैर और छाती खुजलाता हुआ प्रश्न करे तो भी अभिधातित प्रश्न होता है।
प्रश्न वाक्य के प्रारम्भ में या समस्त प्रश्न वाक्य में अधिकांश स्वर अ इ ए ओ ये चार हों तो आलिगित प्रश्न; आ ई ऐ औ ये चार हों तो अभिधूगित प्रश्न ओर उ ऊ अं अः ये चार हों तो सामान होता है। शासनीत पास होने पर कार्य सिद्धि, अभिमित होने पर धनलाभ, कार्यसिद्धि, मित्रागमन एवं यशलाभ और दग्ध प्रश्न होने पर दुःख, शोक, चिन्ता, पीड़ा एवं धनहानि होती है। जब पृच्छक दाहिने हाथ से दाहिने अंग को खुजलाते हुए प्रश्न करे तो आलिमित; दाहिने या बायें हाथ मे समस्त शरीर को ग्बु जलाते हुए प्रश्न करे तो अभिधूमित प्रश्न एवं रोते हुए नीचे की ओर दृष्टि किये हुए प्रश्न करे तो दग्ध प्रश्न होता है। प्रश्नाक्षरों के साथ-साथ उपयुवत चर्या नेष्टा का भी विचार करना अत्यावश्यक है । यदि प्रयनाक्ष र आलिगित हो और पृच्छक की चेष्टा दग्ध प्रश्न की हो ऐसी अवस्था में फल मिश्रित बाहना चाहिए । अमवाक्य या वाक्य के आद्यवर्ण का स्वर आलिगित हो और पर्या-चेष्टा अभिधूमित या बग्न प्रपन बी हो तो मिश्रित फल समझना चाहिए।
उपयुक्त बाठ नियमों द्वारा प्रश्नों का विचार करते समय उत्तरोत्तर, उत्तराधर, अधरोत्तर, अधराधर, बर्मोत्तर, बधिर, अक्षरोत्तर, स्वरोत्तर, गुणोतर और आदेशोजर इन गेदों का विचार करना चाहिए। अऔर क वर्ग उत्तरोत्तर, च वर्ग और ट वर्ग उत्त सधर, त वर्ग और य वर्ग अधरोत्तर एवं य वर्ग और श बर्ग धराधर होते हैं। प्रथम और तृतीय वर्ग वाले अक्षर वर्मोत्तर, द्वितीय और चतुर्थ वर्ग बाले अक्षर अथरोत्तर एवं पञ्चम वर्ग वाले अक्षर दोनों--- प्रथम और ततीय मिला देने से झार यः वर्गोत्तर और वर्णाधर होते हैं। क ग ङ च जभर ई ण त द ल ब ग य ल ग स वे उन्नीस वर्ण उत्तर संज्ञा, ख घ छ झ ट ढ थ ध फ भ र य प ये वर्ण अधर, संज्ञा, अ इ उ ए ओ अंगे वर्ण स्वरोत्तर समक, अ च त य उ जब ये आर वर्ण गुणलर रो और कटप श ग डन ह ये आठ वर्थ गुणाधर' संजक हैं ।
प्रश्नकर्ता के प्रथम, तृतीय और पंचम स्थान के वाश्याक्षर उत्तर एवं द्वितीय और चतुर्थ स्थान के वाश्याक्षर अधर कह सकते हैं। यदि प्रश्न में दीर्घाक्षर प्रथा, तृतीय और पंचम स्थान में हो तो लाभ करने वाले होते हैं । शेष स्थान में रहन करिब और प्लुताक्षर दर्शन करने वाले होते हैं। साधक इन प्रश्नाक्षरों पर राजीचन, मरणा, लाभ, लाभ, जय, पराजय आदि को अवगत करता है।
अग्नशास्त्र में प्रात दो प्रकार से बताये जाते है—मानसिक और धाचिक । वाचिक प्रश्न में प्रश्नकर्ता जिस बात को पूछना चाहता है, उसे ज्योतिषी के सामने प्रकट कर उसका फल ज्ञात करता है । परन्तु
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मानसिक प्रश्न में पृच्छक अपने मन की बात नहीं बतलाता है, केवल प्रतीकोंफल, पुष्प, नदी पहाड़, देव आदि के नाम द्वारा ही पृच्छक के मन की बात ज्ञात करनी पड़ती है। ___ साधारणत: तीन प्रकार के पदार्थ होते हैं--जीव, धातु और मूल । मानसिक प्रश्न भी उक्त तीन ही प्रकार के हो सकते हैं। प्रश्नशास्त्र के चिन्तकों ने इनका नाम जीवयोनि, धातुयोनि और मूलयोनि रखा है । अ आ इ ए ओ अ: ये छ: स्वर तथा क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड य श ह ये पन्द्रह व्यजन इस प्रकार कुल 21 वर्ण जीव संज्ञक, उ ऊ अं ये तीन स्वर तथा त थ द ध प फ ब भ व स ये दस व्यंजन इस प्रकार कुल 13 वर्ण धातु संशक और ई ऐ भी ये तीन स्वर तथा इत्र ण न म ल र ष ये लाठ व्यंजन इस प्रकार कुल 11 वर्ण मूलसंज्ञक है।
जीवयोनि में अ एक च ट त प म श ये अक्षर द्विपद संज्ञका, आ ऐ ख छठ थ फ र ष ये अक्षर चप्पद संज्ञक, इ ओ ग जड द ब ल स ये अक्षर अपद संज्ञक और ई और घ श द ध फ व ह ये अक्षर पाद संकुल संज्ञक होते हैं । द्विपद योनि के देव, मनुष्य, पक्षी और राक्षरा ये चार भेद हैं। अ क ख ग घ प्रश्नवणों के होने पर हेमशोभि; - कज : इ" प्राणों में होने पर मनुष्य योमि; त थ द ध न प फ ब भ म होने पर पशु योनि या पक्षियोनि और य र ल व श ष स ह प्रश्न वर्गों के होने पर राक्षस योनि होती है । देवयोनि के चार भेद होते हैं --पाल्पवासी, भवनवासी, व्यन्त र और ज्योतिषी । देवयोनि के वर्णो में आकार की मात्रा होने पर कल्पवासी, इकार मात्रा होने पर भवनवासी, एकार मात्रा होने पर व्यन्तर और ओकार मात्रा होने पर ज्योतिष्क देवयोनि होती है।
मनुष्ययोनि के द्वाक्षण, क्षत्रिय, वश्य, शुद्र और अन्यजय पांच भेद हैं। अ एक च ट त प य श ये गं नाह्मणयोनि संभा, आ ऐन्छ छठ य क र प ये वर्ण क्षत्रिय योनि संज्ञ; इ ओ भ ज ड द व ल रा ये वर्ण वैश्ययोनि संज्ञकई औ घ श द ध म य ह ये धर्ण गूदयोनि संज्ञक एवं च ऊ हु. ज न म अं अः ये वर्ण अन्त्यजयोनि संजक होते है। इन पाँचों योनियों ने वणों में यदि अ इ ए ओ ये मात्रा हों तो पुरुप और आ ई ऐ माताएँ हों तो स्त्री एवं उ ऊ अ: ये मायाएँ हों तो नपुंसक संज्ञक होते हैं। पुरुष, स्त्री और नपुंसक में भी आलिगित होने पर गौर वर्ण, अभिधूमित होने पर श्याम और दग्ध होने पर कृष्ण वर्ण होता है। आलिगित प्रान होने पर बाल्यावस्था, अभिनित होने पर युवावस्था और दम्ध प्रश्न होने पर वृद्धावस्था होती है। आलिगित प्रश्न होने पर सम -न कद अधिक बड़ा और न अधिक छोटा, अभिमित होने पर लम्बा और दग्धप्रश्न होने पर कुब्जा या बौना होता है।
त थ द ध न प्रश्नाक्षरो के होने पर जलचर पक्षी और प फ ब भ म प्रश्नाक्षरों के होने पर थलचर पक्षियों की चिन्ता रामझनी चाहिए। क्षग योनि के
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दो भेद हैं- कर्मज और योनिज भूत, प्रेतादि राक्षस कर्मज कहलाते हैं और असुरादि को योनिज कहते हैं । त थ द ध न प्रश्नाक्षरों के होने पर कर्मज और श ष स ह प्रश्नाक्षरों के होने पर योनिज राक्षसों की चिन्ता समझनी चाहिए।
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चतुष्पद योनि के खुरी, नखी, दन्ती और शृंगी ये चार भेद हैं । यदि प्रश्नाक्षरों में आ और ऐ स्वर हों तो खुरी छ और ढ प्रश्नाक्षरों में हों तो नखी, थ और फ प्रश्नाक्षरों में हों तो दन्ती एवं र और प प्रश्नाक्षरों में हों तो भृगीयोनि होती है। खुरी योनि के ग्रामचर और अरण्यचर ये दो भेद हैं । आ ऐ प्रश्नाक्षरों में हों तो ग्रामन्नर-घोड़ा, गधा, ऊँट आदि मवेशी की चिन्ता और ख प्रश्नाक्षरों में हों तो वनचारी पशु - हिरण, खरगोश आदि पशुओं की चिन्ता समझनी चाहिए ।
अपदयोनि के जलचर और थलचर ये दो भेद हैं- प्रश्नवाक्यों में इ ओ गज ड अक्षर हों तो जन्नचर- मछली, शंख, मकर आदि की चिन्ता और द ब ल स ये अक्षर हों तो सांप, मेढक आदि थलवर अपदों की चिन्ता समझनी चाहिए। पायसंकुल योनि के दो भेद है- अण्डज और स्वेदज औ ध झढ ये प्रश्नाक्षर अण्डज संज्ञक भ्रमर, पतंग इत्यादि एवं ध भ वह ये प्रश्नाक्षर स्वेदज संज्ञक - जूं खटमल आदि हैं।
धातु योनि के भी दो भेद हैं--धाम्य और अभ्राम्य । तदप व अंसन प्रश्नाक्षरों के होने पर अधाम्य धातु योनि होती है। धाम्ययोनि के आठ भेद हैंसुवर्ण, चांदी, तांबा, रांगा, कांसा, लोहा, मीमा, पित्तल । धाम्ययोनि के प्रकारान्तर से दो भेद हैं-घटित और अघटित । उत्तराक्षर प्रश्नवर्णों में रहने पर घटित और अधराक्षर रहने पर अघटित धातुयोनि होती है । घटित धातुयोनि के तीन मंद हैं- जीवाभरण आभूषण, गृहाभरण-वर्तन और नापक-सिक्के, नोट आदि। एक च ट त प य श प्रश्नाक्षर हो तो द्विपदाभरण-दो पैर वाले जीवों के आभूषण होते हैं। इसके तीन भेद हैं- देवताभूपण, पक्षि बाभूषण और मनुष्याभूषण | मनुष्याभरण के शिरयाभरण कर्षाभरण, नासिकाभरण, ग्रीवाभरण, हस्ताभरण, जंधाभरण और पादाभरण ये आठ भेद हैं। इन आभूषणों में मुकुट, खौट सीसफूल आदि शिरषाभरण; कानों में पहने जाने वाले कुण्डल, सुरिंग आदि कर्णाभरण नाक में पहनी जाने वाली लींग, बाली, 뉴 आदि नामिकाभरणः कण्ठ में पहनी जाने वाली हँसुली, हार, कण्ठी आदि ग्रीवाभरण; हाथों में पहन जान वाले कंकण, अंगूठी, सुंदरी, छल्ला, छाप आदि हस्ताभरण; जांघों में बांधे जाने वाले घुंघरू, छुद्रघण्टिका आदि जवाभरण और पैरों में पहने जाने वाले बिछुए, छल्ला, पाजेब आदि पादाभरण होते हैं । कग ङच ज टडणदन म य ल श साक्षरों के होने पर मनुष्याभरण की चिन्ता एवं ख ध छ द्वा यदध फेभर वह प्रश्नाक्षरों के होने पर स्त्रियों के
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आभूषणों को चिन्ता समझनी चाहिए ।
उत्तराक्षर वर्णों के प्रश्नाक्षर होने पर दक्षिण अंग का आभूषण और अधराक्षर प्रश्नवर्णों के होने पर वाम अंग का आभूषण समझना चाहिए। अ के खग घङ प्रश्नाक्षरों के होने पर या प्रश्नवर्णों में उक्त प्रश्नाक्षरों की बहुलता होने पर देवों के उपकरण छत्र, चमर जादि आभूषण और त थ द ध न प फ ब भ म इन प्रश्नवर्णों के होने पर पक्षियों के आभूषणों की चिन्ता समझनी चाहिए ।
यदि प्रश्नवाक्य का आद्यवर्णकगङ च ज ज ट ड ण त द न प व भय ल श स इन अक्षरों में से कोई हो तो होरा, माणिक्य, मरकत, पद्मराग और मूंगा की चिन्ता झध फभ र ब प इन अक्षरों में से कोई हो तो हरिताल, शिला पत्थर, आदि की चिन्ता एवं उ ऊ अं अः स्वरों से युक्त व्यंजन प्रश्न के आदि में हो तो शर्करा, लवण, बालू आदि की चिन्ता रामझनी चाहिए । यदि वाक्य के आदि में अइ ए ओ इन चार मामाओं में से कोई हो तो हीरा, मोती, माणिक आदि जवाहरात की चिन्ता, जाई ऐ जी इन मात्राओं में से कोई हो तो जिना, पत्थर, नीमेण्ट, चूना, संगमरमर आदि की चिन्ता एवं उ ऊ अं अ: इन मात्राओं में से कोई मात्रा हो तो चीनी, बालू आदि की चिन्ता कहनी चाहिए। गुष्टिका प्रश्न में गुट्टी के अन्दर भी इन्हीं प्रश्नविचार के अनुसार योनि का निर्णय कर वस्तु वतलानी चाहिए ।
मूलयोनि के चार भेद हैं-- वृक्ष, गुल्म, लता और वल्ली | यदि प्रश्नवाक्य के आद्यवर्ण की मात्रा आ हो तो वृक्ष, ई हो तो गुल्म, ऐ हो तो उता और ओ हो वो वल्ली समझनी चाहिए। पुनः मूलयोनि के चार भेद है बल्कल, पत्ते, पुष्प और फल । प्रश्न वाक्य के आदि में क च ट त वर्षों के होने पर फल की चिन्ता करनी चाहिए ।
जीव योनि से मानसिक चिन्ता और पुष्टिगत प्रश्नों के उत्तरी के साथ चोर की जाति, अवस्था, आकृति, रूप कन्द, स्त्री, पुरुष एवं बालक आदि का पता लगाया जा सकता है। धातु योनि मे घोरी वस्तु का स्वरूप नाम बताया जा सकता है | धातुयोतिष कहा जा सकता है कि अशुक प्रकार की वस्तु चोरी गयी है या नष्ट हुई है। इन योनियों के विचार द्वारा किसी भी व्यक्ति की मनःस्थिति का सहज में पता लगाया जा सकता है। प्रश्नमात्र का विवंचन करने वाले व्यक्ति को उपर्युक्त सभी प्रश्न संज्ञाओं का परिशाद चहना चाहिए ।
खाभालाभ सम्बन्धी सानों का विचार करते हुए कहा है कि प्रश्णाक्षरों में आलिंगित अइएको मात्राओं के होने पर शीन अधिक लाभ अभिधूमित आ ई ऐ ओ मात्राओं के होने पर अल्प लाभ एवं दग्ध उऊ अं अः मात्राओं के होने पर अलाभ एवं हानि होती है | ३ ॐ अं अः उन चार मात्राओं से संयुक्त क गङ चजट ड णदन व म य ल श स ये प्रश्नाक्षर हों तो बहुत लाभ होता
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है । आ ई ऐ ओ मात्राओं से संयुक्त क ग ङ च ज न ट ड ण त द न प ब म य ल शस इन प्रश्नाक्षरों के होने पर अल्प लाभ होता है । अ आ इ ए ओ मात्राओं से । संयुक्त उपर्युक्त प्रश्नाक्षरों के होने पर जीव लाभ और रुपया, पैसा, सोना, चांदी, मोती, माणिक्य आदि का लाभ होता है । ई ऐ ओ डब ण न मल र ष प्रश्नाक्षर हों तो लकड़ी, वृक्ष, कुर्सी, टेबुल, पलंग आदि वस्तुओं का लाभ होता है। ___शुभाशुभ प्रकरण में प्रधानतया रोगी के स्वास्थ्य लाभ एव उसकी आयु का । विचार किया जाता है । प्रश्नवाक्य में आद्य वर्ण आलिगित मात्रा से युक्त हों तो । रोगी का रोग यत्नसाध्य; अभिधूमित मात्रा से युक्त हो तो कष्टसाध्य और दग्ध , मात्रामे संयुक्त संयुक्ताक्षर हो तो मृत्यु फल समझना चाहिए । पुच्छक के प्रश्नाक्षरों । में आद्य वर्ण आ ई ऐ ओ माषाओं में युक्त संयुक्ताक्षर हो तो पृच्छक जिसके । सम्बन्ध में पूछता है उसकी नीयु होती है। भाई ओ इन मात्राओं से युक्त । क गड च ज ञ ट इण त द न पव म य ल श स वर्गों में से कोई भी वर्ण प्रश्न । वाक्य का आद्यक्षर हो तो लम्बी बीमारी भोगने के बाद रोगी स्वास्थ्य लाभ करता
पृच्छक में किसी फल का नाम पूछना तथा कोई एक अंक संख्या पूछने के । पश्चात् अंक संख्या को द्विगुणा कर फल और नाम के अक्षरों की संख्या जोड़ देनी । चाहिए । जोड़ने के पश्चात् जो योग आये, उसमें 13 जोड़कर 9 का भाग देना ।। चाहिए। 1 शेष में प्रनवद्धि. 2 में धनक्षय, 3 में आरोग्य, 4 में व्याधि, 5 में स्त्री लाभ, 6 में बन्धु नाश, 7 में कार्य सिद्धि, 8 में भरण और शेष में राज्य प्राप्ति । होती है।
कार्य सिद्धि-असिक्षि का प्रश्न होने पर पृच्छक का मुख जिस दिशा में हो उस । दिशा को अंक संख्या (पूर्व I, पश्चिन 2, उत्तर 3, दक्षिण 4), प्रहर संख्या (जिस । प्रहर में प्रश्न किया गया है, उसकी संख्या प्रातःकाल सूर्योदय से तीन घंटे तक प्रथम प्रहर, आगे तीन-तीन घण्टे पर एक-एक प्रहर की गणना करनी चाहिए), वार संख्या (रविवार 1, सोम 2, मंगल 3, बुध 4, वृहस्पति 5, शुक्र 6, शनि 7) और नक्षत्र संख्या (अश्विनी 1, भरणी 2, कृत्तिका 3 इत्यादि गणना) को जोड़ कर योगफल में आठ का भाग देना चाहिए। एक अथवा पांच शेष रहे तो घीन कार्यसिद्धि, छ: अथवा चार शेष में तीन दिन में कार्य सिद्धि, तीन अथवा सात शेष में विलम्ब से वार्यसिद्धि एवं अवशिष्ट शप में कार्य असिद्धि होती है ।
हंसते हुए प्रश्न करने ग कार्य सिद्ध होता है और उदासीन रूप से प्रश्न करने पर कार्य असिद्ध रहता है ।
पृच्छक से एक से लेकर एक सौ आठ अंक के बीच की एक अंक संख्या पूछनी चाहिए । इस अंक संख्या में 12 का भाग देने पर 1121913 शेष में विलम्ब से कार्य सिद्धि; 8141100 शेष मे कार्य नाश एवं 2011 110 शेप में शीघ्र कार्य
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प्रस्तावना
सिद्धि होती है।
पृच्छक से किसी फूल का नाम पूछकर उसकी स्वर संख्या को व्यंजन संख्या से गुणा कर दें; गुणनफल में पृच्छक के नाम के अक्षरों की संख्या जोड़कर योगफल में 9 का भाग दें। एक शेष में शीन कार्यासद्धि; 21510 में बिलम्ब से कार्यसिद्धि और 41618 शेष में कार्य नाश तथा अवशिष्ट शेष में कायं मन्द गति से होता है । पृच्छक के नाम के अक्षरों को दो से गणा कर गुणनफाल में 7 जोड़ दे । उस योग में 3 का भाग देने पर सम शेष में कार्य नाश और विषम शेष में कार्य सिद्धि फल कहना चाहिए।
पृच्छक के तिथि, वार, नक्षत्र संख्या में गभिणी के नाम अक्षरों को जोड़कर सात का भाग देने में एकाधिक शेष में रविवार आदि होते हैं। रवि, भौष और गुरुवार में पुत्र तथा सोम, बुध और शुक्रदार में कन्या उत्पन्न होती है। शनिवार उपद्रव कारवा है ।
इस प्रकार अष्टांग निमित्त का विचार हमारे देश में प्राचीन काल से होता आ रहा है। इस निमित्त ज्ञान द्वारा वर्षण-अवर्षण, सुभिक्ष-दुभिक्ष, मुग्नु दुःशु, लाभ, अलाभ, जय, पराजय आदि बातों का पहले से ही पता लगाकर व्यक्ति अपने लौकिक और पारलौकिक जीवन में सफलता प्राप्त कर लेता है।
अष्टांग निमित्त और ग्रीस तथा रोम के सिद्धान्त
जैनाचार्यों ने अष्टांग निमित्त का विकास स्वतन्त्र रूप से किया है। इनकी विचारधारा पर ग्रीस या रोम का प्रभाव नहीं है। ज्योतिषक रण्डक (ई०पू० 300-350) में लग्न का जो निरूपण किया गया है, उससे इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि जैनाचायों के ग्रीक सम्पर्क के पहले ही अष्टांप निमित्त का प्रतिपादन हुआ था । बताया गया है
सग्मं च दक्षिणाविस वेस वि अस्स उत्तरं अघणे । लग साई विसवेस पंचसू वि दक्षिणे अयणे ।।
इस पद्य में अस्म यानी अश्विनी और साई अर्थात् स्वाति ये विषुव के लग्न बताये गये हैं। ज्योतिषकर में विशेष अवस्था के नक्षत्रों को भी लग्न कहा है। यवनों के आगमन का पूर्व भारत में यही जैन लग्न प्रणाली प्रचलित थी। प्राचीन भारत में विशिष्ट अवरथा की राशि के समान विशिष्ट अवस्था के नक्षत्रों को भी लग्न कहा जाता था । ज्योतिषक रण्डक में व्यतीपात आनयन की जिस प्रक्रिया का वर्णन है वह इस बात की साक्षी है कि ग्रीक सम्पर्क से पूर्व ज्योतिष का प्रचार राशि प्रह, लग्न आदि के रूप में भारत में वर्तमान था । वहा गया है--
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भद्रबाहुसंहिता
अयणाणं संबंध रविसोमाणं तु वे हि य जुगम्मि | नं हवइ भागल वहस तत्तिया होन्ति ।। बाबतपरीयमाणं फलरासी इच्छिते जुगमें ए । इच्छिघवइवापि य इदं आऊण आणे हि ॥
इन गाथाओं की व्याख्या करते हुए मलयगिरि ने लिखा है - " इह सूर्य चन्द्रमी स्वकीयेऽयने वर्तमानी यत्र परस्परं व्यतिपततः स कालो व्यतिपातः, तत्र रविसमयोः युगे युगमध्ये यानि अयनानि तेयां परस्परं सम्बन्धे एकत्र मेलने कृते द्वाभ्यां भागो लिंग छूटे च भवति गगनब्धं तावन्तः तावत्प्रमाणाः युगे व्यतिपाता भवन्ति । "
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डब्ल्यू डब्ल्यू ० हण्टर ने लिखा है- "आठवीं शती में अरब विद्वानों ने भारत से ज्योतिषविद्या सीखी और भारतीय ज्योतिष सिद्धान्तों का 'सिद हिंद' के नाम से अरबी में अनुवाद किया ।"" अरबी भाषा में लिखी गयी "आइन - उल अंबा फितल कालुली जत्वा" नामक पुस्तक में लिखा है कि "भारतीय विद्वानों ने बरव के अन्तर्गत बगदाद की राजसभा में आकर ज्योतिष, चिकित्सा आदि शास्त्रों की शिक्षा दी थी। कके नाम के एक विद्वान् शक संवत् 694 में बादशाह अलमसूर के दरबार में ज्योतिष और चिकित्सा के ज्ञानदान के निमित्त गये थे ।
मैक्समूलर ने लिखा है कि "भारतीयों को आकाश का रहस्य जानने की भावना विदेशीय प्रगाववश उद्भूत नहीं हुई, बल्कि स्वतन्त्र रूप से उत्पन्न हुई है । अतएव स्पष्ट है कि अष्टांग निमित्त ज्ञान में फलित ज्योतिष की प्रायः सभी बातें परिगणित हैं । अष्टांग निर्मित ने फलित सिद्धान्तों को विकसित और पल्लवित किया है। भारत में इसका प्रसार ई० मन् से पूर्व की शताब्दियों में ही हो चुका था। सीसी पर्यटक फाक्वीस बनियर भी इस बात का समर्थन करता है कि भारत में इस विद्या का विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ है ।
यह सत्य है कि अष्टांगनिमित्त विद्या भारत में जन्मी विकसित हुई और समृद्धिशाली हुई पर ज्ञान की धारा सभी देशों में प्रवाहित होती है। अतः ईस्वी सन् की आरम्भिक शताब्दियों में ग्रीस और रोम में भी निमित्त का विचार क्रिया जाता था । यहाँ प्रोस और राम का निमित्त विचार तुलना के लिए उद्धृत किया
जायेगा ।
ग्रीस - इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें बताया गया है कि सुकंम्प और ग्रहण लोगोनेसियन लड़ाई के पहने हुए थे। इसके सिवा एक्स रसेस ग्रीस से
1. देखें -- ज्योनिकरण्डक पुरु 200-205 : 2 इण्टर इण्डिज टिपर इण्डिया 2173. ज्योतिष रत्नाकर, प्रथम भाव, भूमिका: 4 Vol. XIII Lecture in objections p. 130
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होकर अपनी सेना ले जा रहा था, तब उसे हार का अनागत कथन पहले से ही ज्ञात हो गया था । ग्रीक लोगों में विचित्र बातों को यथा--- घोड़ी से खरगोश का जन्म होना, स्त्री को साँप के बच्चे का जन्म देना, मुरझाये फूलों का सम्मुख आना, विभिन्न प्रकार के पक्षियों के शब्दों का सूनना तथा उनका दिशा-परिवर्तन कर दायें या वायें आना प्रभृति बातें युद्ध में पराजय की सूचक मानी जाती थीं। इस साहित्य में शकुन और अपशकुन देश में गुदा म पलिः ज्योतिष के अंग, राशि और ग्रहों के बारे में ग्रीनों ने आज से कम-स-कम दो हजार वर्ष पहले पर्याप्त विचार किया था। भारतवर्ष में जब अष्टांग निमित्त का विचार प्रारम्भ हुआ, ग्रीस में भी स्वप्न, प्रश्न, दिवाशुद्धि, काल शुद्धि और देशशुद्धि पर विचार निया जाता था । इनके साहित्य में गन्ध्या, उपा तथा आकाशमण्डल के विभिन्न परिवर्तन से घटित होने वाली घटनाओं का जिक्र किया गया है।
नीकों का प्रभाव रोमन सभ्यता पर भी पूरा पड़ा । इन्होंन भी अपने शकुन शास्त्र में ग्रीकों की तरह प्रकृति परिवर्तन, विशिष्ट-विशिष्ट शाररात्री का उदय, ताराओं का टूटना, चन्द्रमा का परिवर्तित अस्वाभाविक रूपमा दिखलाई पड़ना, ताराओं का लाल वर्ण का होकर सूर्य के चारों ओर एकत्रा हो जाना, जाग की बड़ीबड़ी चिनगारियों का आकाश में फैल जाना, इत्यादि विचित्र वालों को देश के लिए हानिकारक बतलाया है। रोग के लोगों ने जितना ग्रोस से सीखा, उससे कहीं अधिक भारतवर्ष से ।
वराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिका में शेम और पौलस्त्य नाम के सिद्धान्त आये हैं, जिनसे पता चलता है कि भारतवर्ष में भी रोम सिद्धान्त का प्रचार था। रोम के कई छात्र भारतवर्ष में आये और वर्षों यहाँ के आचार्यों में पाग रहकर निमित्त और ज्योतिया अध्ययन करते रहे 1 वराहमिहिर रामय में भारत में अष्टांगनिमित्त का अधिक प्रचार था। ज्योतिष का उद्देश्य जीवन के ग़मरत आवश्यक विषयों का विवेचन करना था। अत: अध्ययनाथं आहुए विदेशी विद्वान् छात्र टांगनिमित्त और मंहिताशास्त्र का अध्ययन करते थे। उस युग में संहिता में आयुर्वेद का भी अन्तर्भाव होता था, राजनीति के युद्धसम्बन्धी दानपेंच भी इसी शास्त्र के अन्तर्गत थे । अतः रोम में निमिता का प्रचार विपशप रूप से हुआ । गणित प्रकिया के बिना केवल प्रकृति परिवर्तन या आपरा की स्थिति के अवलोकन से ही फल निरूपण रोम में हुआ है। शकुन और अपशकुन । विषय भी इसी के अन्तर्गत आता है। गेम के इतिहास में एसी अनेक घटना का निरूपण है जिनरा सिद्ध होता है कि वहाँ शकुन और अपशकुन का फल । को भोगना पड़ा था।
इस प्रकार ग्रीस, रोम आदि देशों में भारत के समान ही निमित्ता का विचार
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होता था । इन दोनों देशों के ज्योतिष सिद्धान्त निमित्तों पर आश्रित थे। सुभिक्षदुभिक्ष, जय-पराजय एवं यात्रा के शकुनों के सम्बन्ध में वैसा ही लिखा मिलता है, जैसा हमारे यहाँ है । प्राकृतिक और शारीरिक दोनों प्रकार के अरिष्टों का विवेचन ग्रीस और रोम सिद्धान्तों में मिलता है। पंचसिद्धान्तिका में जो रोमक सिद्धान्त उपलब्ध है, उससे महगणित की मान्यताओं पर भी प्रकाश पड़ता है।
भद्रबाहु संहिता का वर्ण्य विषय
अष्टांग निमितों का इस एक ही ग्रन्थ में वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ द्वादशांग वाणी के वेत्ता श्रुतकवली भद्रबाहु के नाम पर रचित है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में बतलाया गया है कि प्राचीन काल में भगध देश में नाना प्रकार के वैभव से युक्त सजगृह नाम का सुन्दर नगर था । इस नगर में राजगुणों से परिपूर्ण नानागुणसम्पन्न संजित (प्रसेनजित सभवतः बिम्बसार का पिता) नाम का राजा राज्य करता था। इस नगर के बाहरी भाग में नाना प्रकार के वृक्षों से युक्त पाण्डुगिरि नाम का पर्वत था । इस पर्वत के वृक्ष फल-फूलों से युक्त समृद्धिशाली थे तथा इन पर पक्षिगण सबढ़ा मनोरम कलरव किया करते थे। एक समय श्रीभद्रवाह आवार्य इसी पाण्डुगिरि पर एक वृक्ष के नीचे अनेक शिष्य-शिष्यों से युक्त स्थित थे, राजा सेनजित ने मम्रीभूत होकर आचार्य से प्रश्न किया
पार्थिधानां हितार्थाय भिक्षणां हितकाम्यया । श्रावकाणी हितार्याय दिव्य ज्ञानं ब्रवीहि नः ।। शुभाशुभं समुदभूतं श्रुत्वा राजा निमित्ततः । बिजिगीषुः स्थिरमतिः सुखं याति महीं सदा ।। राजभिः पूजिताः सर्वे भिक्षवो धर्मचारिणः । विहरन्ति निरुद्विग्नास्तेन राजाभियोजिताः ।। सुखग्राहा लघुग्रंथं स्पष्टं शिष्यहितावहम् । सर्वज्ञभाषितं तथ्यं निमित्तं तु सवोहि नः ॥
इस ग्रन्थ में उल्का, परिवेष, विद्यत्, अभ्र, सन्ध्या, मेघ, बात, प्रवर्षण, गन्धर्वनगर, गर्भलक्षण, यात्रा, उत्पात, ग्रबार, ग्रहयुद्ध, स्वप्न, मुहर्त, तिथि, करण, शकुन, पाक, ज्योतिष, वास्तु, इन्द्रसम्बदा, लक्षण, व्यंजन, चिह्न, लग्न, विद्या, औषध प्रति सभी निमित्तों के बलाबल, विरोध और पराजय आदि विषयों के विरूपण करने की प्रतिमा की है। परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में जितने अध्याय प्राप्त हैं, उनमें मुहर्त तक ही वर्णन मिलता है । अवशेष विषयों का प्रतिपादन 27वें अध्याय से आगे आने वाले अध्यायों में हुआ होगा ।
श्रद्धेय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा लिखित ग्रंथपरीक्षा द्वितीय भाग
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से ज्ञात होता है कि इस मंत्र में पांच खण्ड और बारह हजार लोक हैं। बताया गया है
प्रथमो व्यवहाराख्यो ज्योतिराख्यो द्वितीयकः । तृतीयोऽपि निमित्ताख्यश्चतुर्थोऽपि शरीरजः ।। 1।। पंचमोऽपि स्वराज्यश्च पंचवण्डै रिय मता ।
द्वाहन मिटा हो जिनोदिया। व्यवहार, ज्योतिष, निमित्त, शरीर एवं स्वर ये पांच खपद 'भद्रबाहु संहिता में हैं। इस ग्रंथ में एक विलक्षण बात यह है कि पांत्र मुगलों के होने पर दूसरे खण्ड को मध्यम और तीसरे खण्ड' को उत्तर खण्ड कहा गया है।
इस संस्मरण में हम केवल 27 अध्याय ही दे रहे हैं 1 30वां अध्याय परिशिष्ट रूप से दिया जा रहा है। अत: 27 अध्यायों के वर्ण्य विषय पर विचार करता आवश्यक है। ___ प्रथम अध्याय में ग्रन्थ थे. व विषयों को नानिमा प्रस्तुत की गयी है। आरम्भ में बताया गया है कि यह देश कृषिप्रधान है. अतः मिकी जानकारी-- किस वर्ष किस प्रकार की नाभाल होगी प्राप्त करना थायक और मुनि दोनों के लिए आवश्यक था । यद्यपि मुनि कार्य जायान में रत रहना है, पर आहार आदि-क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए उन्हें श्रावकों के अधीन रहना पड़ता था, अतः सुभिक्ष-दुभिक्ष की जानकारी प्राप्त करना उनके लिए आवश्यक है। निमित्तशास्त्र का ज्ञान ऐहिक जीवन के कबहार को चलाने के लिए आवश्यक है । अतः इस अध्याय में निमित्तों के शान करने की प्रतिमा की गयी है और वऱ्या विषयों की तालिका दी. यी है। ___द्वितीय अध्याय में उल्का-निमित्त का वर्णन किया गया है । बताया गया है कि प्रकृति का अन्यथा भाव विकार कहा जाता है; इस शिकार को देवकार शुभाशुभ को सम्बन्ध में जान लेना चाहिए । रात को जो तारे टूटकर गिरते हुए जान पड़ते हैं, वे उल्काएं हैं । इस ग्रन्थ में उत्का के धिण्या, उल्का, अशनि, विद्य त् और तारा ये पाँच पद हैं। उसका फल 15 दिनों में, धिया और अशनि का 45 दिनों में एवं तारा और विश्व त् का इन दिनों में प्राप्त होता है । तारा का जितना प्रमाण है उससे लम्बाई में दूना धिया का है। विद्युत नाम बाली उल्का बड़ी कुटिल ---टेढ़ी-मेढ़ी और गीतगामिनी होती है। अनि नाम की उल्का चनाकार होती है, पौरुषी नाम की उल्का स्वभावतः लम्बी होती है तथा गिरते समय बढ़ती जाती है । ध्वज, मत्स्य, हाथी, पर्वत, वामन, चन्द्रमा, अश्व, सप्त रज और हंस के समान दिखाई पड़ने वाली उल्का शुभ मानी जाती है । श्रीवत्स, वन, शंख और स्वस्तिकरूप प्रकाशित होने वाली उल्का कल्याणकारी और सुभिक्षदायक है। जिन उल्काओं के सिर का भाग मकर के समान और पूंछ गाय के समान हो, वे उल्काएँ
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अनिष्टसूचक तथा संसार के लिए भयप्रद होती हैं। इस अध्याय में संक्षेप में उल्काओं को बनावट, रूप-रंग आदि के आधार पर फलादेश का वर्णन किया गया है ।
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तृतीय अध्याय में 69 श्लोक हैं। इसमें विस्तारपूर्वक उल्कापात का फलादेश बताया गया है। 7 से || एलोकों में उल्काओं के आकार-प्रकार का विवेचन है। 16वें श्लोक से 18 ब्लोक तक वर्ण के अनुसार उल्का का फलादेश वर्णित है । बताया गया है कि अग्नि की प्रभावाली उल्का अग्निभय, मंजिष्ठ के समान रंग वाली उल्का व्याधि और कृष्णवर्ण की उल्का दुर्भिक्ष की सूचना देती है। 19वें श्लोक से 29 वें तक दिशा के अनुसार उल्का का फलादेश बतलाया गया है । अवशेष श्लोकों में विभिन्न दृष्टिकोणों से उल्का का फलादेश वर्णित है । सुभिक्ष-दुभिक्ष, जय-पराजय, हानि-लाभ, जीवन-मरण, सुख-दुःख आदि बातों की जानकारी उत्का निमित्त से की जा सकती है। पाप रूप उलाएं और पुण्यरूप उल्काएं अपने-अपने स्वभाव - गुणानुसार इष्टानिष्ट की सूचना देती हैं। उल्काओं की विशेष पहचान भी इस अध्याय में बतलायी गयी है ।
चौथे अध्याय में परिवेष का वर्णन किया गया है। परिवेष दो प्रकार के होते हैं - प्रशस्त और अप्रशस्त । इस अध्याय में 39 श्लोक हैं । आरम्भिक श्लोकों में परिवेष होने के कारण, परिवेष का स्वरूप और आकृति का वर्णन है । वर्षा ऋतु में सूर्य या चन्द्रमा के चारों ओर एक गोलाकार अथवा अन्य किसी आकार में एक मण्डल-सा बनता है, यही परिवेष कहलाता है। चाँदी या कबूतर के रंग के समान आभा वाला चन्द्रमा का परिवेष हो तो जल-वृष्टि, इन्द्रधनुष के समान वर्णवाला परिवेष हो तो संग्राम या विग्रह की सूचना, काले और नीले वर्षका चक्र परिवेष हो तो वर्षा की सूचना, पीत वर्ण का परिवेष हो तो व्याधि की सूचना एवं भस्म के समान आकृति और रंग का चन्द्र परिवेष हो तो किसी महाभय की सूचना समझनी चाहिए। उदयकालीन चन्द्रमा के चारों ओर सुन्दर परिवेष हो तो वर्षा तथा उदयकाल में चन्द्रमा के चारों ओर रूक्ष और श्वेत वर्ण का परिवेग है। तो सोरों के उपद्रव की सूचना देता है। सूर्य का परिवेष साधारणतः अशुभ होता है और आधि-व्याधि को सूचित करता है । जो परिवेष नीलकंठ, मोर, रजत, दुग्ध और जल की आभा वाला हो, स्वकालसम्भूत हो, जिसका वृत्त स्खण्डित न हो और स्निग्ध हो, वह सुभिक्ष और मंगल करने वाला होता है । जो परिवेष रामरत आकाश में गमन करे, अनेक प्रकार की आभा वाला हो, रुधिर के रामान लाल हो, रूखा और खण्डित हो तथा धनुष और श्रृंगाटक के समान हो तो वह पापकारी, भयप्रद और रोगसूचक होता है। चन्द्रमा के परिवेष से प्रायः वर्षा, आतप का विचार किया जाता है और सूर्य के परिवेष से महत्वपूर्ण घटित
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होने वाली घटनाएँ सूचित होती है ।
पाँचवें अध्याय में विद्यत् का वर्णन किया है । इस अध्याय में 25 श्लोक हैं। आरम्भ में सौदामिनी और बिजली के स्वरूपों का कथन किया गया है। बिजली- निमित्तों का प्रधान उद्देश्य वर्षा के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना है। यह निमित्त फसल के भविष्य को अवगत करने के लिए भी उपयोगी है । बताया गया है कि जब आकाश में घने बादल छाये हो, उस समय पूर्व दिशा में बिजली कड़के और इसका रंग श्वेत या पीत हो तो निश्चयतः वर्षा होती है और यह फल दूसरे ही दिन प्राप्त होता है । ऋतु, दिशा, मास और दिन या रात में बिजली के चमकने का फलादेश इस अध्याय में बताया गया है । विद्युत् के रूप और मार्ग का विवेचन भी इस अध्याय में है तथा इसी विवेचन के आधार पर फलादेश का वर्णन किया गया है
छठे अध्याय में अलक्षण का निरूपण है। इसमें 31 वो हैं, आरम्भ में मैत्रों के स्वरूप का कथन है । इस अध्याय का प्रधान उद्देश्य भी वर्षा के सम्बन्ध में जानकारी उपस्थित करना है । आकाश में विभिन्न आकृति और विभिन्न वर्णों के मेघ छाये रहते हैं । तिथि, मास, ऋतु के अनुसार विभिन्न आकृति के मेघों का फलादेश बतलाया गया है। वर्षा की सूचना के अलावा मेघ अपनी आकृति और वर्ण के अनुसार राजा के जय पराजय, युद्ध, सन्धि विग्रह आदि की भी सूचना देते हैं । इस अध्याय में मेघों की चाल-ढाल का वर्णन है, इससे भविष्यत्काल की अनेक बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। मेघों की गर्जन-तर्जन ध्वनि के परिज्ञान से अनेक प्रकार की बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं ।
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सातवाँ अध्याय सन्ध्या लक्षण है। इसमें 26 श्लोक हैं। इस अध्याय में प्रात: और सायं सन्ध्या का लक्षण विशेष रूप से बतलाया गया है तथा उन सन्ध्याओं के रूप, आकृति और समय के अनुसार फलादेश बतलाया गया है । प्रतिदिन सूर्य के अर्धारित हो जाने के समय से जब तक आकाश में नक्षत्र भलीभाँति दिखलाई न दें तब तक सन्ध्याकाल रहता है। इसी प्रकार अर्घादित सूर्य से पहले तारा दर्शन तक उदय सन्ध्याकाल माना जाता है। सूर्योदय के समय की सन्ध्या यदि श्वेत वर्ण की हो और वह उत्तर दिशा में स्थित हो तो ब्राह्मणों को भय देने वाली होती हैं । सूर्योदय के समय लालवर्ण की सन्ध्या क्षत्रियों को पीत वर्ण की सन्ध्या वैश्यों को और कृष्ण वर्ग की गन्ध्या शूद्रों की जय देती है । सन्ध्या का फल दिशाओं के अनुसार भी कहा गया है। अकाल की सन्ध्या की अपेक्षा उदयकाल को सन्ध्या अधिक महत्त्व रखती है। उदयकाल नाना प्रकार की भावी घटनाओं की सूचना देता है । प्रस्तुत अध्याय में उदयकालीन सन्ध्या का विस्तृत फलादेश बतलाया गया है । सख्या के स्पर्श और रंग को पहचानने के लिए कुछ
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दिन अभ्यास आवश्यक है।
आठवें अध्याय में मेघों का लक्षण बतलाया गया है। इसमें 27 श्लोक हैं। इस अध्याय में मेघों की आकृति, उनका काल, वर्ण, दिशा एवं गर्जन-ध्वनि के अनुसार फलादेश का वर्णन है । बताया गया है कि शरदऋतु के मेघों से अनेक प्रकार के शुभाशुभ फल की सूचना, ग्रीष्म ऋतु के मेघों से वर्षा की सूचना एवं वर्षा ऋतु के मेघों से केवल वर्षा की सूचना मिलती है। मेघों की गर्जना को मेघों की भाषा कहा गया है। मेघों की भाषा से वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की अनेक महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात की जा सकती हैं । पशु, पक्षी और मनुष्यों की बोली के समान मेघों की भाषा---गर्जना भी अनेक प्रकार की होती है । जब मेघ सिंह के समान गर्जना करें तो राष्ट्र में विप्लव, मृग के समान गर्जना करें तो शस्त्रवृद्धि एवं हाथी के समान गर्जना करें तो राष्ट्र के सम्मान की वृद्धि होती है। जनता में भय का संचार, राष्ट्र की आर्थिक क्षति एवं राष्ट्र में नाना प्रकार की व्याधियाँ उस समय उत्पन्न होती हैं, जब मेघ बिल्ली के समान गर्जना करते हो । खरगोश, शियार और बिल्ली के समान मेधों को गर्जना अशुभ मानी गयी है। नारियों के समान कोमल और मधर गर्जना कला की उन्नति एवं देश की समृद्धि में विशेष सहायक होती है । रोते हुए मनुष्य की ध्वनि के समान जब मेघ गर्जना करता निश्चयतः महामारी को सूचना समझनी चाहिए । मधुर और कोमल गर्जना शुभ-फलदायक मानी जाती है।
नौवें अध्याय में वायु का वर्णन है । इस अध्याय में 65 श्लोक हैं । इस अध्याय के आरम्भ में बायु की विशेषता, उपयोगिता एवं स्वरूप का कथन किया गया है। वायु के परिज्ञान द्वारा भावी शुभाशुभ फल का विचार किया गया है। इसके लिए तीन तिथियाँ विशेष महत्त्व की मानी गयी हैं। ज्येष्ठ पुणिमा, आषाढ़ी प्रतिपदा और अपाढ़ी पूर्णिमा। इन तीन तिथियों में वायु के परीक्षा द्वारा वर्षा, कृषि, वाणिज्य, रोग आदि की जानकारी प्राप्त की जाती है। आषाढ़ी प्रतिपदा के दिन सूर्यारत के समय में पूर्व दिशा में वायु चले तो आश्विन महीने में अच्छी वर्षा होती है तथा इस प्रकार की वायु से श्रावण मास में भी अच्छी वर्षा होने की सूचना समझनी चाहिए। रात्रि के समय जब आकाश मे मेघ छाये हों और धीमी वर्षा हो रही हो, उस समय पूर्व दिशा में वायु नले तो भाद्रपद मास में अच्छी वर्षा की गुचना समझनी चाहिए। श्रावण मास में पश्चिमीय हवा, भाद्रपद मास में पूर्वीय और आश्विन में ईशान कोण की हवा चले तो अच्छी वर्षा का योग समझना चाहिए तथा फसल भी उत्तम होती है । ज्येष्ठ पूर्णिमा को निरभ्र आकाश रहे और दक्षिण वायु चले तो उस वर्ष अच्छी वर्षा नहीं होती। ज्येष्ठ पूर्णिमा को प्रात काल सूर्योदय के समय में पूर्वीय वायु के चलने से फसल खराव होती है, पश्चिमीय के चलने से अच्छी, दक्षिणीय से दुष्काल और उत्तरीय वायु से
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सामान्य फसल की सूचना समझनी चाहिए ।
दसवें अध्याय में प्रवर्षण का वर्णन है इस अध्याय में 55 श्लोक हैं। इस अध्याय में विभिन्न निमित्तों द्वारा वर्षा का परिमाण निश्चित किया गया हैं । वर्षा ऋतु में प्रथम दिन वर्षा जिस दिन होती है, उसी के फलादेशानुसार समस्त वर्ष की वर्षा का परिमाण ज्ञात किया जा सकता है। अश्विनी, भरणी यादि 27 नक्षत्रों में प्रथम वर्षा होने से समस्त वर्ष में कुल कितनी वर्षा होगी, इसकी जानकारी भी इस कृध्याय में बतलायी गयी है। प्रथम वर्षा अश्विनी नक्षत्र में हो तो 49 आढ़क जल, भरणी में हो तो 19 आढ़क जल, कृत्तिका में हो तो 51 आढक, रोहिणी में हो तो 91 आढक, मृगशिर नक्षत्र में हो तो 91 आढ़क, आर्द्रा में हो तो 32 आढ़क, पुनर्वसु में हो तो 91 आढक, पुष्य में हो तो 42 आढक, आश्लेषा में हो तो 64 आढ़क, मघा में हो तो 16 द्रोण, पूर्वा फाल्गुनी में हो तो 16 द्रोण, उत्तरा फाल्गुनी में हो तो 67 आढक, हस्त में हो तो 25 आढ़क, चित्रा में हो तो 22 आढक, स्वाति में हो हो 32 थादुक, विशाखा में हो तो 16 द्रोण, अनुराधा में हो तो 16 द्रोण, ज्येष्ठा में हो तो 18 आढक और मूल में हो तो 16 द्रोण जल की वर्षा होती है । इस अध्याय में पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्र में वर्षा होने का फलादेश पहले कहा गया है । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ पूर्वाषाढा से नक्षत्र की गणना की गयी है ।
ग्यारहवें अध्याय में गन्धवं नगर का वर्णन किया गया है। इस अध्याय मैं 3 श्लोक हैं । इस अध्याय में बताया गया है कि सूर्योदयकाल में पूर्व दिशा में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो नागरिकों का वध होता है। सूर्य के अस्तकाल में गन्धर्वनर दिखलाई दे तो आक्रमणकारियों के लिए घोर भय की सूचना समझनी चाहिए। रक्त वर्ण का गन्धर्वनगर पूर्व दिशा में दिखलाई पड़े तो शस्त्रीत्पात, taa का दिखलाई पड़े तो मृत्यु तुल्य कष्ट, कृष्णवर्ण का दिखलाई पड़े तो मारकाट, स्वेत्तवर्ण का दिखलाई पड़े तो विजय, कपिलवर्ण का दिखलाई पड़े तो क्षोभ, मंजिष्ठ वर्ण का दिखलाई पड़े तो सेना में क्षोभ एवं इन्द्रधनुष के वर्ग के समान वर्ण वाला दिखलाई पड़े तो अग्निभय होता है । गन्धर्वनगर अपनी आकृति, वर्ण, रचना सन्निवेश एवं दिशाओं के अनुसार व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के शुभाशुभ भविष्य की सूचना देते हैं। शुभ्रवर्ण और सोम्य आकृति के गन्धर्वनगर प्रायः शुभ होते हैं। विकृत आकृति वाले, कृष्ण और नील वर्ण के गन्धर्वनगर व्यक्ति, राष्ट्र और समाज के लिए अशुभसूचक हैं। शान्ति, अशान्ति, आन्तरिक उपद्रव एवं राष्ट्रों के सन्धिविग्रह के सम्बन्ध में भी गन्धर्य नगरों से सूचना मिलती है ।
बारहवें अध्याय में 38 श्लोकों में गर्भधारण का वर्णन किया गया है । मेघ गर्भ की परीक्षा द्वारा वर्षा का निश्चय किया जाता है। पूर्व दिशा के मेघ जब
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पश्चिम दिशा की ओर दौड़ते हैं और पश्चिम दिशा के मेघ पूर्व दिशा में जाते हैं, इसी प्रकार चारों दिशाओं में मेघ पवन के कारण अदला-बदली करते रहते हैं, तो मेघ का मर्भ काल जानना चाहिए। जब उत्तर ईशानकोण और पूर्व दिशा की वायु द्वारा आकाश विमल, स्वच्छ और आनन्दयुक्त होता है तथा चन्द्रमा और सर्य स्निग्ध, श्वेत और बहु घेरेदार होता है, उस समय भी मेघों ने गर्भधारण का समय रहता है। मेघों के गर्भधारण का समय मार्गशीर्ष अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन है। इन्हीं महीनों में मेघ गर्भधारण करते हैं। जो व्यक्ति मेघों के गर्भधारण को पहचान लेता है, वह सरलतापूर्वक वर्षा का समय जान सकता है। यह गणित का सिद्धान्त है कि गर्भधारण के 195 दिन के उपरान्त वर्षा होती है। अगहन के महीने में जिम तिथि को मेघ गर्भ धारण करते हैं, उस तिथि से ठीक 195वें दिन में अवश्य वर्षा होती है। इस अध्याय में गर्भधारण की तिथि का परिजान कराया गया है। जिम समय मेघ गर्भधारण करते हैं; उस समय दिशाएँ शान्त हो जाती हैं, पक्षियों का कलरव सुनाई पड़ने लगता है। अगहन के महीने में जिस तिथि को मेघ सन्ध्या की अरुणिमा से अनुरस्त और मण्डलाकार होते हैं। उसी तिथि को उनकी गर्भधारण क्रिया समझनी चाहिए। इस अध्याय में गर्भ धारण की परिस्थिति और उस परिस्थिति के अनुसार घटित होने वाले फलादेश का निरूपण किया गया है।
तेरहवें अध्याय में यात्रा के शकुनों का वर्णन है। इस अध्याय में 186 श्लोक हैं। इसमें प्रधान रूप में राजा की विजय यात्रा का वर्णन है, पर यह विजय यात्रा सर्वसाधारण की यात्रा के रूप में भी बणित है । यात्रा के शकुनों का विचार सर्व साधारण को भी करना चाहिए । सर्वप्रथम यात्रा के लिए शुभमुहूर्त का विचार करना चाहिए। ग्रह, नक्षत्र, करण, तिथि, मुहूर्त , स्वर, लक्षण, व्यंजन, उत्पात, साधुमंगल आदि निमित्तों का विचार यात्रा काल में अवश्य करना चाहिए । यात्रा में तीन प्रकार के निमित्तों-आकाश से पतित, भूमि पर दिखाई देने वाले
और शरीर से उत्पन्न चेप्टाओं का विचार करना होता है। सर्वप्रथम पुरोहित तथा हवन क्रिया द्वारा शकुनों का विचार करना चाहिए । यौआ, भूषक और शूकर आदि पीछे की ओर आते हुए दिखाई पड़ें अथवा बायों और चिड़िया उड़ती हुई दिखलाई पड़े तो यात्रा में कष्ट की सूचना समझनी चाहिए । ब्राह्मण, घोड़ा, हाथी, फल, अन्न, दही, आम, सरसों, कमल, वस्त्र, वेश्या, बाजा, मोर, पपैया, नोला, बंधा हुआ पशु, ऊख, जलपूर्ण कलश, बल, कन्या, रतन, मछली, मन्दिर एवं गुअवती नारी का दर्शन यात्रारम्भ में हो तो यात्रा सफल होती है । सीसा, काजल, धुला वस्त्र, धोने के लिए वस्त्र ले जाते हुए धोबी, घृत, मछली, सिहासन, मुर्गा, ध्वजा, शहद, मेवा, धनुष, मोरोचन, भरद्वाज पक्षी, पालकी, वेदध्वनि, मांगलिक गायन ये पदार्थ सम्मुख आयें तथा बिना जल-खाली घड़ा लिये कोई व्यक्ति
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पीछे की ओर जाता दिखाई पड़े तो यह शकुन अत्युत्तम है। बांझ स्त्री, चमड़ा, धान का भूसा, पुआल, सूखी लकड़ी, अंगार, हिजड़ा, विष्ठा के लिए पुरुष या स्त्री, तेल, पागल व्यक्ति, जटा वाला संन्यासी व्यक्ति, तृण, संन्यासी, तेल मालिश किये बिना स्नान के व्यक्ति, नाक या कान चाटा व्यक्ति, धिर, रजस्वला स्त्री, गिरगिट, बिल्ली का लड़ना या रास्ता काटकर निकल जाना, कीचड़, कोयला, राख, दुर्भग व्यक्ति आदि शकुन यात्रा वे, आरम्भ में अशुभ समझे जाते हैं । इन शकुनों से यात्रा में नाना प्रकार के कष्ट हो और कार्य भी सफल नहीं होता है । यात्रा के समय में दधि, मछली और जलपूर्ण कलश आना अत्यन्त शुभ माना गया है । इस अध्याय में यात्रा के विभिन्न शकुनों का विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । यात्रा करने के पूर्व शुभ शकुन और मुहुर्त का विचार अवश्य करना चाहिए। शुभ समय का प्रभाव यात्रा पर अवश्य पड़ता है। अतः दिशाशूल का ध्यान कर शुभ समय में यात्रा करनी चाहिए।
चौदहवें अध्याय में उत्पातों का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में 182 श्लोक हैं । आरम्भ में बताया गया है कि प्रत्येक जनपद को शुभा गुभ की सूचना उत्पातों से मिलती है। प्रकृति के विपर्यय कार्य होने को उत्पात कहते हैं। यदि शीत ऋतु में गर्मी पड़े और नीम ऋतु में कड़ाके की गर्दी पड़े तो उक्त घटना के नौ या दस महीने के उपरान्त महान भय होता है । 'शु, पक्षी और मनुष्यों का स्वभाव विपरीत आचरण दिखलाई गड़े अर्थात् पशुओं के पक्षी या मानब सन्तान हो और स्त्रियों के पशु-पक्षी सन्तान हो तो भय और विपत्ति की सूचना समझनी चाहिए । देव प्रतिमाओं द्वारा जिन उत्पातों की सूचना मिलती है वे दिव्य उत्पात, नक्षत्र, उल्का, निर्यात, पवन, विशुनपात, इन्द्र धनुष आदि के द्वारा जो उत्पात दिखलायी पड़ते हैं दे अन्तरिक्ष; पार्थिव विभाग द्वारा जो विशेषता दिखलाई पड़ती हैं वे भौमोत्पात कहलाते हैं । तीर्थ कर प्रतिमा से पसीना निकलना, प्रतिमा का हँसना, रोना, अपने स्थान से हटकर दूसरी जगह पहुँच जाना, छवभंग होना, छत्र का स्वयमेव हिलना, चलना, काँगना आदि उल्लातों को अत्यधिक अशुभ समझना चाहिए । ये उत्पात व्यक्ति, समाज और राष्ट्र इन तीनों के लिए अशुभ हैं । इन उत्पातों से राष्ट्र में अनेक प्रकार के उपद्रव होने हैं। परेल गंधर्ष भी न उत्पातों के कारण होते हैं । इस अध्याय में दिव्य , अन्तरिक्ष और गौम तीनों प्रकार के उत्पातों का विस्तृत वर्णन किया गया है ।
पन्द्रहवें अध्याय में शुक्राचार्य का वर्णन है। इसमें 2300 श्लोक हैं। इसमें शुक्र के समान, उदय, अस्त, वक्री, मार्गों आदि द्वारा 'भूत-विष्यत् का फल, वृष्टि, अवृष्टि, भय, अग्निप्रकोप, जय, पराजय, रोग, धन, सम्पत्ति आदि फलों का विवेचन किया गया है। शुत्र के छहों मनों में भ्रमण करंग के फल का कथन किया है। शुक्र का नागवीथि, गजबीथि, ऐरावतवीथि, बायोथि, गोवीथि,
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जरद्गवीथि, अजवीथि, मृगवीथि और वैश्वानरवीथि में भ्रमण करने का फलादेश बताया गया है। दक्षिण, उत्तर, पश्चिम और पूर्व दिशा की ओर से शुक्र के उदय होने का तथा अस्त होने का फलादेश कहा गया है। अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्रों में शुक्र के अस्तोदय का फल भी विस्तारपूर्वक बताया गया है। शुक्र की आरूढ, दीप्त, अस्तंगत आदि अवस्थाओं का विवेचन भी किया गया है। शुक्र के प्रतिलोम, अनुलोम, उदयास्त, प्रवास आदि का प्रतिपादन भी किया गया है। इस अध्याय में गणित त्रिया के बिना केवल शुक्र के उदयास्त को देखने से ही राष्ट्र का शुभाशुभ ज्ञान किया जा सकता है।
सोलहवें अध्याय में शनिवार का कथन है। इसमें ३२ श्लोक हैं। शनि के उदय, अस्स, भारूड़, छ, गत आदि जगायों का मन किया गया है। कहा गया है कि श्रवण, स्वाति, हस्त, आर्द्रा, भरणी और पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में शनि स्थित हो, सो पृथ्वी पर जल की वर्षा होती है, मुभिक्ष, समर्धता-वस्तुओं के भाकों में समता और और प्रजा का विकास होता है । अश्विनी नक्षत्र में शनि के विचरण करने से अश्व, अश्वारोही, कवि, वंद्य और मन्त्रियों को हानि उठानी पड़ती है। शनि और चन्द्रमा के परमार वेध, परिवेष आदि का वर्णन भी इस अध्याय में है। शनि के वकी और मानी होने का फलादेश भी इस अध्याय में कहा गया है।
सत्रहवें अध्याय में गुरु ने वर्ण, गति, आधार, मार्गी, अस्त, उदय, वक्र आदि का फलादेश धणित है। इस अध्याय में ४६ श्लोक हैं। बृहस्पति का, कृत्तिका, रोहिणी, मृगगिर, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुप्य, आश्लेषा, गया और पूर्वाफाल्गुनी इन नो नक्षत्रों में उमर मार्ग, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल और पूर्वापाढ़ा इन नौ नक्षत्रों में मध्यम मार्ग एवं उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी और भरणी इन नौ नक्षलों में दक्षिण मार्ग होता है। इन मार्यो का फलादेश इस अध्याय में विस्तारपूर्वक निरूपित है । संवत्सर, परिवत्सर, इरावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर इन पाँचों संवत्सरों के नक्षत्रों का वर्णन फलादेश के साथ किया गया है। गरु की विभिन्न दशाओं का फलादेश भी बतलाया गया है।
अठारहवें अध्याय में बुध के अस्त, उदय, वर्ण, ग्रहयोग आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इस अध्याय में 37 श्लोक हैं। बुध की सौम्या, विमिश्रा, संक्षिप्ता, तीव्रा, घोरा, दुर्गा और पापा इन सात प्रकार की गतियों का वर्णन किया गया है। बुध की सौम्या, विमिना और संक्षिप्ता गतियाँ हितकारी हैं। शेष सभी गलियों पाप गतियाँ हैं। यदि बुध समान रूप से गमन करता हुआ शकटवाहक के द्वारा स्वाभाविक गति से नक्षत्र का लाभ करे तो यह बुध का नियतचार कहलाता है, इसके विपरीत गमन करने से भय होता है। बुध की
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वृद्धि होती है ।
बाईसवें अध्याय में 21 श्लोक हैं । इस अध्याय में सूर्य की विशेष अवस्थाओं का फलादेश वर्णित है। सूर्य के प्रवास, उदय और चार का फलादेश बतलाया गया है 1 लाल वर्ण का सूर्य अस्त्र प्रकोप करनेवाला, पीत और लोहित वर्ण का सूर्य व्याधि-मृत्यु देनेवाला और धूम्र वर्ण का सूर्य भुखमरी तथा अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करनेवाला होता है। सूर्य की उदयकालीन आकृति के अनुसार भारत के विभिन्न प्रदेशों के सुभिक्ष और दुभिक्ष का वर्णन किया गया है । स्वर्ण के समान सूर्य का रंग सुखदायी होता है तथा इस प्रकार के सूर्य के दर्शन करने से व्यक्ति को सुख और आनन्द प्राप्त होता है।
तेईसवें अध्याय में 58 श्लोक हैं। इसमें चन्द्रमा के वर्ण, मंस्थान, प्रमाण आदि का प्रतिपादन किया गया है। स्निग्ध, श्वेतवर्ण, विशालाकार और पवित्र चन्द्रमा शुभ समझा जाता है । चन्द्रमा का शृग- किनारा कुछ उत्तर की ओर उठा हआ रहे तो दस्युओं का घात होता है। उत्तर शृग वाला चन्द्रमा अश्मक, कलिंग, मालव, दक्षिण द्वीप आदि के लिए अशुभ तथा दक्षिण शृ गोन्नति वाला चन्द्र यवन देश, हिमाचल, पांचाल आदि देशों के लिए अशुभ होता है। चन्द्रमा की विभिन्न आकृति का फलादेश भी इस अध्याय में बतलाया गया है । चन्द्रमा की गति, भार्ग, आकृति, वर्ण, मण्डल, वीथि, चार, नक्षत्र आदि के अनुसार चन्द्रमा का विशेष फलादेश भी इस अध्याय में वर्णित है ।
चौबीसवें अध्याय में 43 श्लोक हैं 1 इसमें ग्रहयुद्ध का वर्णन है । ग्रहयुद्ध के चार भेद हैं- भद, उल्नख, अंशुमर्दन और अपसव्य । ग्रहद में वर्षा का नाश, सहद और कुलीनों में भेद होता है। उल्लेख युद्ध में शस्त्रभय, मन्त्रि बिरोध और दुभिक्ष होता है । अंशुमर्दन युद्ध में राष्ट्रों में संघर्य, अन्नाभाव एवं अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं । अपसव्य युद्ध में पूर्वीय राष्ट्रों में आन्तरिक संघर्ष होता है तथा राष्ट्रों में वैमनस्य भी बढ़ता है। इस अध्याय में ग्रहों के नक्षत्रों का कथन तथा ग्रहों के वर्णों के अनुसार उनो फलादेशों का निरूरण निया गया है । ग्रहों का आपस में टकराना धन-जन के लिए अशुभ सूचक होता है।
पच्चीसवें अध्याय में 50 श्लोक हैं । इस ग्रह, नक्षत्रों के दर्शन द्वारा शुभाशुभ फल का कथन किया गया है। इस अध्याय में ग्रहों के पदार्थों का निरूपण किया गया है । ग्रहों के वर्ण और आकृति के अनुसार पदार्थी के तेज, मन्द और समत्व का परिज्ञान किया गया है। यह अध्याय व्यापारियों के लिए अधिक उपयोगी है।
छब्बीसवें अध्याय में स्वप्न का फलादेश बतलाया गया है । इस अध्याय में 86 श्लोक हैं । स्वान निमित्त का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है। धनागम, विवाह, मंगल, कार्यसिद्धि, जय, पराजय, हानि, लाम आदि विभिन्न फलादेशों
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चारों दिशाओं की यारियों का भी वर्णन किया गया है। विभिन्न ग्रहों के साथ बुध का फलादेश बताया गया है ।
उन्नीसवें अध्याय में 39 श्लोक हैं। इसमें मंगल के चार, प्रवास, वर्ण, दीप्ति, काष्ठ, गति, फल, वक्र और अनुवक का विवेचन किया गया है। मंगल का चार बीस महीने, वक्र आठ महीने और प्रवास चार महीने का होता है। वक्र, कठोर, श्याम, ज्वलित, धूमवान, विवर्ण, क्रुद्ध और बायीं ओर गमन करने वाला मंगल सदा अशुभ होता है। मंगल के पाँच प्रकार के वक्र बताये गये हैं--उष्ण, शोषमुख, व्याल, लोहित और लोहमुद्गर । ये पांच प्रधान वक्र हैं । मंगल का उदय सातवें, आठवें या नवें नक्षत्र पर हुआ हो और वह लोट कर गमन करने लगे तो उसे उष्ण वक्र कहते हैं । इस उष्ण वक्र में मंगल के रहने से वर्षा अच्छी होती है विष; कीट और अग्नि की वृद्धि होती है। जनता को साधारणतया कष्ट होता है। जब मंगल दसवें, ग्यारहवें और बारहवें नक्षत्र से लौटता है तो शोषमुख वक्र कहलाता है। इस वक्र में आकाश से जल की वर्षा होती है। जब मंगल राशि परिवर्तन करता है, उस समय वर्षा होती है । यदि मंगल चौदहवें अथवा तेरहवें नक्षत्र से लौट आये तो यह उसका व्याल चक्र होता है । इसका फलादेश अच्छा नहीं होता । जब मंगल पन्द्रहवें या सोलहवें नक्षत्र से लौटता है तब लोहित वक्र कहलाता है। इसका फलादेश जल का अभाव होता है। जब मंगल सत्रहवें या अठारहवे नक्षत्र से लौटता है, तब लोहमृद्गर कहलाता है । इस बक्र का फलादेश भी राष्ट्र और समाज को अहितकर होता है । इसी प्रकार मंगल के नक्षत्रभोग का भी वर्णन किया गया है ।
बीसवें अध्याय में 63 श्लोक हैं । इस अध्याय में राहु के गमन, रंग आदि का वर्णन किया गया है । इस अध्याय में राहु को दिशा, वर्णन, ममन और नक्षत्रों के संयोग आदि का फलादेश वणित है । चन्द्रग्रहण तथा ग्रहण की दिशा, नक्षत्र आदि का फल भी बतलाया गया है 1 नक्षत्रों के अनुसार ग्रहणों का फलादेश भी इस अध्याय में आया है।
__इक्कोसवे अध्याय में 58 श्लोक हैं । इसमें केतु के नाना गद, प्रभेद, उनके स्वरूप, फल आदि का विस्तार सहित वर्णन किया गया है । बताया गया है कि 120 वर्ष में पाप के उदय से विषम केतु उत्पन्न होता है । इस केतु का फल संसार को उथल-पुथल करनेवाला होता है,। जन्म विषम केतु का उदय होता है, तब विश्व में युद्ध, रक्तपात, महामारी आदि उपद्रव अवश्य होते हैं । केतु के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन भी इस अध्याय में फल सहित विया है। अश्विनी आदि नक्षत्रों में उत्पन्न होने पर केतु का फल विभिन्न प्रकार का होता है । क्रूर नक्षत्रों में उत्पन्न होने पर केतु भय और पीड़ा का सूचक होता है और सौम्य नक्षत्रों में केतु के उदय होने से राष्ट्र में शान्ति और सुख रहता है । देश में धन-धान्य की
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की सूचना देनेवाले स्वप्नों का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, प्रार्थित; कल्पित, भाविक और दोपज इन सात प्रकार के स्वप्नों में से केवल भाचिक स्वप्नों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
सत्ताईसवे अध्याय में कुल 13 श्लोत्रा हैं। इस अध्याय में वस्त्र, आसन, पादुका आदि के छिन्न होने का फलादेश बाद सा है ! ह नि निमित्त का विषय है। नवीन बस्त्र धारण करने में नक्षत्रा का फलादेश भी बताया गया है। शुभ मुहूर्त में नवीन वस्त्र धारण करने से उपभोक्ता का कल्याण होता है । मुहूर्त का उपयोग तो सभी कार्यों में करना चाहिए ।
परिशिष्ट में दिये गये 30वे अध्याय में अरिष्टों का वर्णन किया गया है। मृत्यु के पूर्व प्रकट होने वाले अरिष्टों का कथन विस्तारपूर्वक किया गया है। पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ तीनों प्रकार के अरिष्टों का कथन इस अध्याय में किया गया है । शरीर में जितने प्रकार के विकार उत्पन्न होने हैं उन्हें पिण्डस्थ अरिष्ट कहा गया है। यदि कोई अशुभ लक्षण के रूप में चन्द्रमा, सूर्य, दीपक या अन्य किसी वस्तु को देखता है तो ये सब अरिष्ट मुनियों के द्वारा पदस्थ--बाह्य वस्तुओं से सम्बन्धित कहलाते हैं। आकाशीय दिव्य पदार्थों का शुभाशुभ रूप में दर्शन करना, कुत्ते, बिल्ली, कौआ आदि प्राणियों की दृष्टानिष्ट सूचक आवाज का सुनना या उनकी अन्य किसी प्रकार की चेष्टाओं को देखना पदस्थ अरिष्ट कहा गथा है । पदस्थ अरिष्ट में मृत्यु की सूचना दो-तीन वर्ष पूर्व भी मिल जाती है। जहाँ रूप दिखलाया जाम वहाँ रूपस्थ अरिष्ट कहा जाता है । यह रूपस्थ अरिष्ट छाया पुरुष; स्वप्नदर्शन, प्रत्यक्ष, अनुमानजन्य और प्रश्न के द्वारा अवगत किया जाता है। छायादान द्वारा आणु का ज्ञान करना चाहिए। उक्त तीनों प्रकार के अरिष्ट व्यक्ति की आयु की सूचना देते हैं । भद्रबाहुसंहिता की बृहत्संहिता से तुलना तथा ज्योतिष शास्त्र में उसका स्थान
भद्रबाहु संहिता के कई अध्याय विषय की दृष्टि से वृहत्संहिता से मिलते हैं । भद्रबाहु संहिता के दूसरे और तीसरे अध्याय बृहत्संहिता के 33वें अध्याय से मिलते हैं। दूसरे अध्याय में उल्काओं का स्वरूप और तीसरे अध्याय में उल्लाओं का फल वर्णित है । उल्का की परिभाषा का वर्णन कहते हुए बहा है ---
भौतिकानां शरीराणां स्वर्गात् प्रच्यवतामिह । संभवश्चान्तरिक्षे तु तज्ज्ञ रूकेति संज्ञिता ।। तत्र वारस तथा धिष्ण्यं विद्युच्चाशनिभिः सह । उल्काविकारा बोद्धव्या ते पतन्ति निमित्ततः ॥
--अ02, श्लो० 5-6
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भद्रबाहुसंहिता इसी आशय को वराहमिहिर ने निम्न श्लोकों में प्रकट किया है
दिवि भक्तशुभफलानां पता रूपाणि यानि तान्युल्काः । धिष्ण्योल्काशनिविधताए इति पंचधा भिन्नाः ।
___-अ. 30, श्लो. 1 भद्रबाहुसंहिता के दूसरे अध्याय के 8, 9वां श्लोक वाराही संहिता के 33वें अध्याय के 3, 4 और 8वें श्लोक के समान हैं । भाव साम्य के साथ अक्षर साम्य भी प्रायः मिलता है । भद्रबाहुसंहिता के तीसरे अध्याय का 5, 9, 16, 18, 19वाँ श्लोक बाराही संहिता के 33वें अध्याय के 9, 10, 12, 15, 16, 18 और 19वें श्लोवा से प्रायः मिलते हैं। भाव की दृष्टि से दोनों ग्रन्थों में आश्चर्यजनक समता है।
अन्तर इतना है कि वाराही संहिता में जहाँ विषय वर्णन में संक्षेप किया है, यहाँ भद्रवाहित में वि विरता है। मान्येक विषय को विस्तार के साथ समझाने की चष्टा की है। फलादेशों में भी कहीं-कहीं अन्तर है, एक बात या परिस्थिति का फलादेश वाराही संहिता से भद्रबाहुसंहिता में पृथक है। कहींकहीं तो यह पृथकता इतनी बढ़ गयी है कि फल विपरीत दिशा ही दिखलाता है ।
परिवेष का वर्णन भद्रबाहुसंहिता के चौथे अध्याय में और वाराही संहिता के 34वें अध्याय में है । भद्रबाहु संहिता के इस अध्याय के तीसरे और सोलहर्षे श्लोक में खण्डित परिवेषों को अभिष्टकारी कहा गया है। चाँदी और तेल के समान वर्ण वाले परिवप भिक्ष करनेवाले कहे गये हैं । यह कथन बाराही संहिता के 34वें अध्याय के 4 और 5 श्लोक से मिलता-जुलता है। परिवेश प्रकरण के 8, 14, 20, 28, 29, 37, 38वां श्लोक वाराही संहिता के 34वें अध्याय के 6, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 14 37वें श्लोक से मिलते हैं। भाव में पर्याप्त साम्य है। दोनों ग्रन्थों का फलादेश तुल्य है। परिवेप के नक्षत्र तिथियों एवं वर्णों का फलकथन भद्रबाहुसंहिता में नहीं है, किन्तु वाराही संहिता में ये विषय कुछ बिस्तृत और व्यवस्थित रूप में वर्णित हैं। प्रकरणों में केवल विस्तार ही नहीं है, विषय का गाम्भीर्य भी है । भद्रबाहुसंहिता के परिवेश अध्याय में विस्तार के साथ पुनरुक्ति भी विद्यमान है।
भद्रबाहुसंहिता का 12वाँ अध्याय मेघ-गर्मलक्षणाध्याय है। इसके चौथे और सातवें श्लोक में बताया है कि सात-सात महीने और सात-सात दिन में गर्भ पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त होता है। वाराही संहिता में (2022 एनो० 7) में 195 दिन कहा गया है । अत: स्थूल रूप से दोनो कथनों में अन्तर मालूम पडता है, पर वास्तविक में दोनों कथन एवः हैं। भद्रवाहसंहिता में नाक्षत्र मास ग्रहीत है, जो 27 दिन का होता है, अतः यहाँ 196 दिन आते हैं । दाराहमिहिर
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बस 195 दिन तथा वर्तमान 196वां दिन ही माना है, जो 'भद्रबाहुसंहिता के नाक्षत्र मास के तुल्य है । गर्भ का धारण और वर्षण प्रभाव सामान्यतया एक हैं, परन्तु भद्रबाहु संहिता के कथन में विशेषता है । भद्रबाहुसंहिता में गर्भधारण का वर्णन महीनों के अनुसार किया है। वाराहीसंहिता में यह कथन नहीं है ।
उत्पात प्रकरण दोनों ही संहिताओं में है। भद्रबाहुसंहिता के चौदहवें अध्याय में और वाराही संहिता के छियालीसवें अध्याय में यह प्रकरण है । भद्रबाहु संहिता में उत्यातों के दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम ये तीन शद किये हैं तथा इनका वर्णन बिना किसी क्रम के मनमाने ढंग से किया है। इस ग्रन्थ के वर्णन में किसी भी प्रकार का क्रम नहीं है। दिव्य उत्पातों के साथ भौम उत्पातों का वर्णन भी किया गया है । पर वाराही संहिता में अशुभ, अनिष्टकारी, भयकारी, राजभयोत्पादक, नगरभयोत्पादका, सुभिक्षदायक आदि का वर्णन सुव्यवस्थित ढंग से किया है। लिंगवैकत. अग्निवकृति वनवैकत, जन्मवेयत, नेत, प्रसवबकृत, चतुष्यादवकृत, वायव्ययकृत, मृगपक्षी विकार एवं शकालाजेन्द्रकीलवकृत इत्यादि विभागों का वर्णन किया है । वाराहमिहिर का यह इत्यात प्रकरण भवबाहुसंहिता के उत्पात प्रकरण की अपेक्षा अधिक विस्तृत और व्यवस्थित है। वैसे वाराहमिहिर ने केवल 99 श्लोकों में उत्पात का वर्णन किया है, जबकि भद्रबाहुसंहिता में 182 श्लोकों में उत्सातों का कयन किया गया है। उत्पात का लक्षण प्रायः दोनों का समान है । 'प्रकृतेर्यो विपर्यास: स: उत्पात: प्रकीर्तितः' (भ० सं० 14, 2) तथा वाराह ने 'प्रकृतेरन्यत्वमुत्पात:' (वा० सं० 45, 1)। इन दोनों लक्षणों का तात्पर्य एक ही है । राजमन्त्री, राष्ट्रसम्बन्धी फलादेश प्राय. दोनों ग्रन्थों में समान
शुक्रवार दोनों ही ग्रन्थों में है । भद्रबाहुसंहिता के पन्द्रहवं अध्याय में और वाराही संहिता के नौवें अध्याय में यह प्रकरण आया है। उल्या, सन्ध्या, वात, गन्धर्वनगर आदि तो आकस्मिक घटनाएँ हैं, अतः दैनन्दिन शुभाशुभ को अवगत करने के लिए ग्रहचार का निरूपण करना अत्यावश्यक है । यही कारण है कि संहिताकारों ने ग्रहों के वर्णनों को भी अपने ग्रन्थों में स्थान दिया है। राष्ट्रविप्लव, राजभय, नगरभय, संग्राम, महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुभिक्ष, दुभिक्ष आदि का विवेचन ग्रहों की गति के अनुसार करना ही अधिक युक्तिसंगत है। अतएव संहिताकारों ने ग्रहों के चार को स्थान दिया है। शुक्रवार को अन्य ग्रहों की अपेक्षा अधिक उपयोगी और बलवान कहा गया है।
शुक्र के गमन-मार्ग को, जो कि 27 नक्षत्रात्मक है, वीधियों में विभक्त किया गया है। नाग, गज, ऐशवण, वृषभ, गो, जराय, अज, मृग और वैश्वानर ये वीथियाँ भद्रवाहसंहिता में आयी हैं (15 अ. 44-48 श्लो०) और नाग, गज, ऐरावत, वृषभ, गो, जरद्गव, मृग और दहन ये वीथियां वाराही संहिता
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(9 अ० 1 श्लो) में आयी हैं। इन वीथियों में भद्रबाहु संहिता में अज नाम की वीथि एक नयी है तथा ऐरावत के स्थान पर ऐरावण और दहन के स्थान पर वैश्वानर वीथियाँ आयी हैं । इस निरूपण में केवल शब्दों का अन्तर है, भाव में कोई अन्तर नहीं है । भद्रबाहुसंहिता में भरणी से लेकर चार-चार नक्षत्रों का एक-एक मण्डल बताया गया है। कहा है---
भरण्यादीनि चत्वर चतुर्नक्षत्राणि हि षडेव मण्डलानि स्युस्तेषां नामानि लक्षयेत् ॥ चतुष्कं च चतुष्कञ्च पंचकं त्रिकमेव च । पंचकं बटुक विज्ञेयो भरण्यादौ तु भार्गवः । भ० सं०, 15 अ० 7, 9 श्लो० बाराही संहिता के 9वें अध्याय के 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20 वें प्रलोक में उपर्युक्त बात का कथन है । भद्रबाहुसंहिता के अगले श्लोकों में फलादेश का भी है, जबकि संहिता में मण्डल के नक्षत्र और फलादेश साथ-साथ वर्णित है। शुक्र के नक्षत्र-गंदन का फल दोनों ग्रन्थों में रूपान्तर है । भद्रबाहुसंहिता में कहा गया है कि शुक्र यदि रोहिणी नक्षत्र में आरोहण करे तो भय होता है । पाण्डय, केरल, चोल, कर्नाटक, चेदि, चेर और विदर्भ आदि देशों में पीड़ा और उपद्रव होता है । वाराही संहिता मैं भी मृगशिर नक्षत्र का भेदन या आरोहण अशुभ माना गया है। बाराही संहिता के शुक्रचार में केवल 45 श्लोक हैं, जबकि भद्रबाहुसंहिता में 231 श्लोक हैं। इसमें विस्तारपूर्वक शुक्र के गमन, उदय एवं अस्त आदि का वर्णन किया गया है। बाराही संहिता की अपेक्षा इसमें कई नयी बातें हैं।
भद्रबाहुमंहिता और बाराही महिला में शनैश्चर चार नामक अध्याय आया है । यह भबानुसंहिता का 16वाँ अध्याय और वाराही संहिता का दसवाँ अध्याय है। बाराही संहिता का यह वर्णन संहिता के वर्णन की अपेक्षा अधिक विस्तृत और ज्ञानवर्धक है। वाराही संहिता में प्रत्येक नक्षत्र के भोगानुसार फलादेश कहा गया है, इस प्रकार के वर्णन का मद्रबाहु संहिता में अभाव है । भद्रबाहुसंहिता में कहा गया है कि कृत्तिका में शनि और विशाखा में गुरु हो तो चारों ओर दारुणता व्याप्त हो जाती है तथा वर्षा खूब होती है। शनि के रंग का फलादेश लगभग समान है । भद्रबाहु संहिता में बताया गया हैश्वेते सुभिक्षं जानीयात् पाण्डु-लोहितके भयम् । पीतो जनयते व्याधि शस्त्रकोपं च दारुणम् ॥ कृष्णे शुष्यन्ति सरितो वासवश्च न वर्षति । स्नेह्वानत्र गृह जाति रूक्षः शोषयते प्रजाः 11
- भ० सं० अ० 16, श्लो० 26-27
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वाराही संहिता में शनि के वर्ण का फलादेश निम्न प्रकार बताया है--
अण्डजहा रविजो यदि चित्रः क्षद्भयकृयाद पीतमयूखः । शभपाय च रक्तवर्णो भस्मनिभो बहुवरकरश्च ।। वैदुर्यकान्तिरमल: शभदः प्रजानां बाणातसोकुसुमवर्णनिभश्च शस्त: । पंचापि वर्णमुपगच्छति तत्सवान सूर्यात्मजः क्षपप्रतीति मनिप्रवादः ।।
-वा० सं, अ० 10, श्लो० 20-21 भं० सं० में कहा है कि श्वेत शनि का रंग हो तो गुभिक्ष, पाण्डु और लोहित रंग का होने पर भय एवं पीतवर्ण होने पर व्याधि और भयंकार शस्त्रकोप होता है। शनि के कृष्ण वर्ण होने पर नदियाँ सूख जाती हैं और वर्षा नहीं होती है। स्निग्ध होने पर प्रजा में सहयोग और रूक्ष होने पर प्रजा का शोषण होता है। ____ वाराही–संहिता में यदि शनि अनेक रंग वाला दिखाई दे तो अंडज प्राणियों का नाश होता है। पीतवर्ण होने से क्षुधा और भय होता है । रामवर्ण होने से शत्रभय और भस्म के समान रंग होने से अत्यन्त अशुभ होता है। यदि शनि वैदूर्यमणि के समान कान्तिभान् और निर्मल हो तो प्रजा का अत्यन्त अशुभ होता है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर दोनों ग्रन्थों के निवर्ण फल में पर्याप्त अन्तर है।
भद्रबाहुसंहिता में (18, 20, 21, नो में) नन्द्र और शनि के योग का फलादेश बतलाया गया है, जो वाराही संहिता में नहीं है। संयोग पल भर म० का महत्त्वपूर्ण है और यह एक नवीन प्रकरण है।
वहस्पति तार का कथन भ० सं० 17वें अध्याय और या० मं के 8वें अध्याय में आया है। निस्सन्देह भद्रबाहुसंहिता का यह प्रकरण फलादेश की दृष्टि से वाराही संहिता की अपेक्षा महत्त्वपूर्ण है । यद्यपि विस्तार की दृष्टि में बाराही संहिता का प्रकरण भ० सं० की अपेक्षा बड़ा है। एक से निमित्तों का भी फलादेश समान नहीं है। उदाहरण के लिए कतिपय बार्हस्पति-संयत्यारों का फलादेश दोनों ग्रन्थों से उद्धृत किया जाता है
माधमल्पोदकं विद्यात् फाल्गुने दुर्भगा: त्रियः । चैत्रं चित्रं विजानीयात् सस्यं तोयं सरीमपाः ।। विशाखा नपभेदश्च पूर्णतोयं विनिर्दिशत् । ज्येष्ठा-मूले जलं पश्चाद् मित्र-भेदश्च जायते ॥ आषाढ तोयसंकीर्ण सरीसरसमाकुलम् । श्रावणे दंष्ट्रिणश्चौरा व्यालाश्च प्रबलाः स्मृताः ।।
- भ० सं०, 17 अ० 29-31 अर्थ---माव नाम का वर्ष हो तो अल्प वर्षा होती है, फाल्गुन नाम का वर्ष
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भद्रबाहुसाहता हो तो स्त्रियों का कुभाग्य बढ़ता है । चैत्र नाम के वर्ष में धान्य और जल-वृष्टि विचित्र रूप में होती है तथा सरीसृपों की वृद्धि होती है । वैशाख नामक संवत्सर में राजाओं में मतभेद होता है और जल की अच्छी वर्षा होती है। ज्येष्ठ नामक वर्ष में अच्छी वर्षा होती है और मित्रों में मतभेद बढ़ता है। आषाढ़ नामक वर्ष में जल की कमी होती है, पर कहीं-कहीं अच्छी वर्षा भी होती है। श्रावण नामक वर्ष में दांत वाले जन्तु प्रबल होते हैं। भाद्र नामक संवत्सर में शस्त्रकोप, अग्निभय, मऊ आदि फल होते हैं और आश्विन नामक संवत्सर में सरीसृपों का अधिक भय रहता है। वाराही संहिता में यही प्रकरण निम्न प्रकार मिलता है
शुभकृज्जगतः पौषो निवृत्तवराः परस्परं क्षितिपाः । द्वित्रिगुणो धान्याः पौष्टिककर्मप्रसिद्धिश्च ।। पितृपूजापरिवद्धिर्माध हाई च सर्वभूतानाम् । आरोग्यवृष्टिधान्यार्घसम्पदो मित्रलाभश्च ॥ फाल्गुने वर्षे विद्यात् चित् क्वचित् क्षेमवृद्धिसत्यानि । दौर्भाग्यं प्रमवानां प्रबलाश्चोरा नृपाश्चोग्राः ।। चत्रं मन्दा वृष्टिः प्रियभन्नक्षेममवनिर मृदा । वृद्धिस्तु कोशधान्यस्य भवति पीडा च रूपवताम् ।। वैशाख धर्मपरा विगतभयाः प्रदिताः प्रजाः सनपाः । पक्रियाप्रवृत्तिनिष्पत्तिः
सर्वसस्यानाम् ॥
-चा० सं० 8 अ० 5-9 इनो० अर्थ--पौष नामक वर्ष में जगत् का शुभ होता है, राजा आपस में वैरभाव का त्याग कर देते हैं । अनाज की कीमत दूनी या तिगुनी हो जाती है और पौष्टिक कार्य की वृद्धि होती है । माघ नाम वर्ष में पितृ लोगों की पूजा बढ़ती है, सर्व प्राणियों का हार्द होता है; आरोग्य, सुवृष्टि और धान्य का मोल सम रहता है, मित्रलाभ होता है । फल्गुन नाम वाले वर्ष में कहीं-कहीं क्षेम और अन्न की वृद्धि होती है, स्त्रियों का कुभाग्य, चोरों की प्रबलता और राजाओं में उग्रता होती है। चैत्र नाम के वर्ष में साधारण वष्टि होती है, राजाओं में सन्धि, कोष और धान्य की वृद्धि और रूपवान् व्यक्तियों को पीड़ा होती है। वैशाख नामक वर्ष में राजाप्रजा दोनों ही धर्म में तत्पर रहते हैं, भय शून्य और हपित होते है, यज्ञ करते हैं
और समस्त धान्य भलीभांति उत्पन्न होते हैं । (ज्येष्ठ नामक वर्ष में राजा लोग धर्मज्ञ और मेल-मिलाप से रहते हैं । आपाढ़ नामक वर्ष में समस्त धान्य पैदा होते हैं। कहीं-कहीं अनावृष्टि भी रहती है । श्रावण नामक वर्ष में अच्छी फसल पैदा होती है । भाद्रपद नामक वर्ष में लता जातीय समस्त पूर्व धान्य अच्छी तरह पैदा होते हैं
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प्रस्तावना
और आश्विन नामक वर्ष में अत्यन्त वर्षा होती है।)
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर दोनों वर्णनों में बहुत अन्तर है । विपय एक होने पर भी फल-फयन करने की शैली भिन्न है। इगी अध्याय में गुरु की विभिन्न गतियों का फलादेश भी वाहा गया है।
बुधचार भ० सं० के 18वें अध्याय और वा० सं० या वें अध्याय में आया है। भ० सं० के 18वें अध्याय के द्वितीय श्लोक में बुध की सौम्या, विमिश्रा, संक्षिप्ता, तीब्रा, घोरा, दुर्गा और पापा ये सात प्रकार की गतियाँ बतलायी गयी हैं। वा० सं० के 7वें श्लोक में बुध की प्रकृता, विमिश्रा, संक्षिप्ता, तीक्ष्णा, योगान्ता, भोरा और पा इन गतियों का उल्लेख किया है । तुलना करने से ज्ञात होता है कि भ० सं० में जिस सौम्या कहा है, उसी को वा० सं० में प्रकृता; जिसे भ० सं० में तीबा कहा है, उसे वा० सं० में तीक्ष्णा; भ० सं० में जिसे दुर्गा कहा है, उसे वा० सं० में योगान्ता कहा है। इन गतियों के पलादेशों में भी अन्तर है। वाराहमिहिर ने सभी प्रकार की गलियों की दिन संख्या भी बतलायी है, जब कि भ० सं० इस विषय पर मौन है। अस्त, उदय और वकी आदि का कथन भ० सं० में कुछ अधिक है, जब कि वा० सं० में नाम मात्र को है।
अंगारक चार, राहुचार, केतृचार, मुर्य चार और चन्द्रचार विषयक वर्णनों की दोनों ग्रन्थों में बहुत कुछ समता है। कतिपय श्लोकों के भाव ज्यों-के-त्यों मिलते हैं। ___ भद्रबाहुसंहिता का अंगारकचार विस्तृत है, वाराही संहिता का संक्षिप्त । वर्णन प्रक्रिया में भी दोनों में अन्तर है । भद्रबाहुसंहिता (अ० 19; शलोक 11) में मंगल के बक्री का कथन करते हुए कहा है कि मंगल के उष्ण, शोपमुख, व्याल, लोहित और लोहमदगर ये पाँच प्रधान वन हैं । ये वक्र मंगल के उदय नक्षत्रों की अपेक्षा में बताये गये हैं । बाराही संहिता में (अ० (श्नो० 1-5) उष्ण; अश्रुमुख, व्याल, रुधिरामन और अमिगुराल इन वनों का उल्लेख किया है। इन वक्रों में पहले और तीसरे वक्र के नाम दोनों में एक हैं, शेष नाम भिन्न हैं। दूसरी बात यह है कि भ० सं० में सभी यक उदय नक्षत्र के अनुसार वर्णित है, किन्तु वाराही संहिता में व्याल, रुधिरानने और असिमुसल को अस्त नक्षत्रों के अनुसार बताया गया है । भ० सं० (39; 25-34) में कहा गया है कि कृत्तिकादि सात नक्षत्रों में मंगल गमन करे तो कष्ट; माघादि सात नक्षत्रों में विचरण करे तो भय, अनुराधादि सात नक्षत्रों में विचरण करे तो अनीति; धनिष्ठादि मात नक्षत्रों में बिचरण करे तो निन्दित फल होता है । वा० सं० (6; [1-12) में बताया गया है कि रोहिणी, श्रवण, मूल, उत्तराफाल्गुनी, उत्त समाढा, उत्तराभाद्रपद या ज्येष्ठा नक्षत्र में मंगल का विचरण हो तो मेघों का नाश एवं श्रवण, मघा, पुनर्वगु, मूल, हस्त, पूर्वाभाद्रपद, अश्विनी, विशाखा और रोहिणी नक्षत्र में विचरण करता है
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भद्रबाहुसंहिता
तो शुभ होता है। इस प्रकार वाराही संहिता में समस्त नक्षत्रों पर मंगल के विचरण का फल नहीं, जबकि भद्रवाह संहिता में है । भ० सं० ( 19:1 ) में प्रतिज्ञानुसार मंगल के चार, प्रवास, वर्ग, दीप्ति, काष्ठा, गति, फल, वक्र और अनुवक का फलादेश बताया गया है।
राहुचार का निरूपण भद्रबाहु संहिता के 20वें अध्याय में और वाराही संहिता के पाँचवें अध्याय में आया है। वाराही संहिता में यह प्रकरण खून विस्तार के साथ दिया गया है, पर भद्रबाहु संहिता में संक्षिप्त रूप से आया है । भद्रबाहु संहिता (20 2 57 ) में हुये पीत और कृष्ण वर्ण क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रों के लिए शुभाशुभ निभितक माना गया है, पर वाराही संहिता (5, 53-57 ) में हरे रंग का राहु रोगमुत्रक, कपिल वर्ण का राहु म्लेच्छों का नाम एवं दुर्भिक्ष सूचक, अरुण वर्ण का राहु दुर्भिक्ष कपोत, अरुण, कपिल वर्ण का राहू भयचक, पीत वर्ण का वैश्यों का नाशसूचक दूर्वादल या हल्दी के समान वर्ण वाला राहु मरीसूचक एवं धूलि या लाल वर्ण का राहु क्षत्रियनाशक होता है । उस विवेचन से स्पष्ट है कि राहु के वर्ण का फल वाराही संहिता में अधिक व्यापक वर्णित है । वाराही संहिता के आरम्भिक 26-27 श्लोकों में जहाँ ग्रहण का ही कथन है, वहाँ भद्रबाहुसंहिता में आरम्भ में ही राहूनिमित्तों पर विचार किया गया है। वाराही संहिता (5 42-52 ) में ग्रहण के बारा के सव्य, अपसव्य, लेह ग्रसन, निरोध, अवमर्द, आरोह, अत्रात, मध्यतम और तमोनय ये दस भेद बताये हैं तथा इनका लक्षण और फलादेश भी कहा गया है । भद्रबाहु संहिता में ग्रहण का फल साधारण रूप से कहा गया है, विशेष रूप से तो राहु और चन्द्रमा की आकृति, रूप-रंग, चक्र -भंग आदि निमित्तों काही वर्णन किया है। निमितों की दृष्टि से यह अध्याय वाराही संहिता के पांचवें अध्याय को अपेक्षा अधिक उपयोगी है ।
भद्रबाहु संहिता के 21 वें अध्याय में और बाराही संहिता के 11 वें अध्याय में केतुचार का वर्णन आया है। वाराही संहिता में केतुओं का वर्णन दिव्य, अन्तरिक्ष और भीम इन तीन स्थूल भेदों के अनुसार किया गया है। केतुओं की विभिन्न संख्यायें इसमें आयी है । भद्रबाहुसंहिता में इस प्रकार का विस्तृत वर्णन नहीं आया है । भ० सं० ( 21 6-7-18) में केतु की आकृति और वर्ण के अनुसार फलादेश बताया गया है। केतु का शमन कृत्तिका से लेकर भरणी तक दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन तीन दिशाओं में जानना चाहिए। नौ-नौ नक्षत्र तक केतु एक दिशा में गमन करता है। वाराही संहिता ( 11; 53-59 ) में बताया है कि केतु अश्विनी नक्षत्र का स्पर्श करे तो देश का विनाश, गरणी में कियतपति, कृत्तिका में कलिंगराज, रोहिणी में शूरसेन्द, मृगशिरा में उशीनरराज, आर्द्रा में मत्स्यराज, पुनर्वसु में अनाथ, गुण्य में मगधाधिपति, आश्लेषा में असिकेश्वर,
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प्रस्तावना
मधा नक्षत्र में अंगराज, पूर्वाफाल्गुनी में पाण्ड्य नरपति, उत्तराफाल्गुनी में उज्जयिनी स्वामी, हस्त में दण्डाधिपति, चित्रा में कुरक्षेत्रराज, स्वाति में काश्मीर, विशाखा में इक्ष्वाकु, अनुराधा में पुगदेश, ज्येप्टा में चक्रवर्ती का विनाश, मूल में मद्रराज, एवं पूर्वापाढ़ा में काशीपति का विनाश होता है। इस प्रकार प्रत्येक नक्षत्र का फलादेश पृथक-पृथक् रूप से बताया गया है 1 कंतुओं में श्वेतकेतु और धूम केतु का फल प्राय: दोनों ग्रन्थों में समान है ।
भद्रबाहु संहिता के 22वें अध्याय में सूर्यचार का कथन है तथा यह प्रकरण वाराही संहिता के तीसरे अध्याय में आया है। भद्रबाहसंहिता (22; 2) में बताया गया है कि अच्छी किरणों बाला, रजत के समान कान्तिवाला, स्फटिक के समान निर्मल, महान कान्ति वाला सूर्य राजकल्याण और सुभिक्ष प्रदान करता है । वाराही संहिता (3; 40) में आया है कि निर्मल, गोलमण्डलाकार, दीर्घ निर्मल किरण वाना, विकाररहित शरीर वाला, चिह्न र हित मण्डलबाला जगत् का कल्याण करता है। दोनों की तुलना करने से दोनों में बहुत साम्य प्रतीत होता है। सूर्य के वर्ण का कथन करते समय कहा गया है कि अमुक वर्ण का मूर्य इष्ट या अनिष्ट करता है। इस प्रकरण में भद्रबाहगंहिता (22; 3-4, 16-17) और वाराहीसंहिता (3; 25, 29, 30) में बहुत कुछ साम्य है। अन्तर इतना ही है कि वाराहीसंहिता में इस प्रकरण का विस्तार किया गया है, पर भद्रबाहु संहिता में संक्षेप रूप सही कथन किया गया है।
चन्द्रचार का कथन भद्रबाहुसंहिता का 23वें अध्याय में और बाराहीसंहिता के चौथे अध्याय में आया है। भ० सं० (23; 3, 4) में चन्द्र गोन्नति का जैसा विवेचन किया गया है, लगभग वैसा ही विवेचन वाराही संहिता (4; 16) में भी मिलता है। भगवाहुसंहिता (23; 15-16) में अस्व, रूक्ष और काला चन्द्रमा भयोत्पादक तथा स्निग्ध, शुक्ल और सुन्दर चन्द्र सुखोत्पादक तथा समद्धिकारक माना गया है। श्वेत, पीत, सम और कृष्ण वर्ण का चन्द्रमा क्रमशः ब्राह्मणादि चारों वर्गों के लिए मुखद माना गया है। मुन्दर चन्द्र सभी के लिए सुखदायक होता है ! वाराही महिता (4; 29-30) में बताया गया है कि भस्मतुल्य रूखा, अरुण वर्ण, किरणहीन, श्यामवर्ण चन्द्रमा गयकारक एवं मंग्राम-मूचक होता है। हिमवण, कुन्दपुर, स्फटिकमणि के समान चन्द्रमा जगत् का कल्याण करने वाला होता है। उपयुक्त दोनों वर्णन तुल्य हैं। भद्रबाहुसंहिता में चन्द्र शृगोन्नति का उतना विस्तार नहीं है, जितना विस्तार वाराही संहिता में है। तिथियों के अनुसार विकृत वर्ण के चन्द्रमा र जितना विस्तृत फलादेश भद्रबाहु संहिता (23; 9-14) में आया है, उतना वा राही संहिता में नहीं। इसी प्रकार चन्द्रमा में अन्य ग्रहों के प्रवेश का काथन भद्रवाह मंहिता (23; 17-19) में अपने ढंग का है। चन्द्रमा की वीथियों का कथन भ० सं० (22; 25-30) में है, यह
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भद्रबाहुसंहिता
कथन वाराह के कथन से भिन्न है ।
गृहयुद्ध की चर्चा भ० सं० के 24वें अध्याय में और वाराही संहिता के 17वें अध्याय में आयी है । इस विषय का निरूपण जितना विस्तार के साथ वाराही संहिता में आया है, उतना भद्रबाहु संहिता में नहीं । यद्यगि भद्रबाहु संहिता के इस प्रकरण में 43 श्लोक हैं और वाराही संहिता में 27 श्लोक; पर विषय का प्रतिपादन जितना जमकर वाराही संहिता में हुआ है, उतना भद्रबाहु संहिता में नहीं।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है किः भद्रबाहु नंहिता विषय एवं भाषाशैली की दृष्टि उतनी व्यवस्थित नहीं है, जितनी वाराही संहिता । भद्रबाहु संहिता के दो-चार स्थल विस्तृत अवश्य हैं, पर एकाध स्थल ऐसे भी हैं, जो स्पष्ट नहीं हुए हैं, जहां कुछ और कहने की आवश्यकता रह गयी है। एक बात यह भी है कि भद्रबाहु संहिता में कथन वी पुनरुक्ति भी पायी जाती है । छन्दोभंग, व्याकरणदोष, शिथिलता एवं विपय विवेचन में अऋयता आदि दोष प्रचुर मात्रा में वर्तमान हैं। फिर भी इतना सत्य है कि निभितों का यह संकलन किन्हीं दृष्टिगों से वाराही संहिता की अपेक्षा उत्कृष्ट है । स्वप्न निमित्त एवं यात्रा निमित्तों का वर्णन वाराही संहिता की अपेक्षा अच्छा है। इन निमित्तों में विषय सामग्री भी प्रचर परिणाम में दी गयी है।
भद्रबाहु संहिता का ज्योतिष शास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान माना जायगा। 'वसन्तराज शाकुन' और 'अद्भुत सागर' जैसे संकलित ग्रन्थ विषय विवेचन की दृष्टि से आज महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं । इन ग्रन्थों में निमित्तों का सांगोपांग विवेचन विद्यमान है । प्रस्तुत भद्रबाहु संहिता भी जितने अधिक विषयों का एक साथ परिचय प्रस्तुतत करती है, उतने अधिक विषयों से परिचित कराने वाले ग्नन्थ ज्योतिष शास्त्र में भरे पड़े हैं। फिर भी वाराही संहिता के अतिरिक्त ऐसा एक भी ग्रन्थ नहीं है, जिसे हम भद्रवाहसंहिता की तुलना के लिए ले सकें। जैन-ज्योतिष के ग्रन्थ तो अभी बहुत ही परम उपलब्ध हैं और जो उपलब्ध भी हैं उनका भी प्रकाशन अभी शेप है । अतः जैन-ज्योतिष-साहित्य में इस ग्रन्थ की समता करने वाला कोई ग्रन्थ नहीं है । प्रश्नांग पर जैनाचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है, पर अष्टांग निमित्त के सम्बन्ध में इस एक ही ग्रन्थ में बहुत लिखा गया है।
अष्टांग निमित्त का सांगोपांग वर्णन इसी अकेले ग्रन्थ में है। अभी इस ग्रन्थ का जितमा भाग प्रकाशित किया जा रहा है, उतने में सभी निमित्त नहीं आते हैं । लक्षण और जन बिलगल ण्टे हुए हैं । परन्तु इस ग्रन्थ के आद्योपान्त अवलोकन से ऐसा लगता है कि इसये. अन्तर्गत ये दो निमित्त भी अवश्य रहे होगे तथा वास्तु-प्रामाद, मूर्ति आदि के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला गया होगा। संक्षेप में हम इतना ही कह सकते हैं कि जैनेतर ज्योतिप में वाराही संहिता का जो स्थान
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है, वही स्थान जैन ज्योतिष में भद्रबाहुसंहिता का है। निमित्त ज्ञान के विषय को इतने विस्तार के साथ उपस्थित करना इसी ग्रन्थ का कार्य है ।
प्रस्तावना
मद्रबाहु संहिता के रचयिता और उनका समय
इस ग्रन्थ का रचयिता कौन है और इसकी रचना कब हुई है, यह अत्यन्त विचारणीय है । यह ग्रन्थ भद्रबाहु के नाम पर लिखा गया है, क्या सचमुच में द्वादशांगवाणी के ज्ञाता श्रुतकेबली भद्रबाहु इसके रचयिता हैं या उनके नाम पर यह रचना किसी दूसरे के द्वारा लिखी गयी है। परम्परा से यह बात प्रसिद्ध चली आ रही है कि भगवान वीतरागी, सर्वज्ञ गाषित निमित्तानुसार श्रुत केवली भद्रबाहु ने किसी निमित्त शास्त्र की रचना को श्री; किन्तु आज वह निमित्त शास्त्र उपलब्ध नहीं है। श्रुतकेवली भद्रबाहु यी नि० सं० 155 में स्वर्गस्थ हुए, इनके ही शिष्य सम्राट् गुप्त थे। मगध में बारह वर्ष के पड़ने वाले दुष्काल को अपने निमित्त ज्ञान से जानकर ये संघ की दक्षिण भारत की ओर ले गये थे और वहीं इन्होंने समाधि ग्रहण की थी । अतः दिगम्बर जैन साधुओं की स्थिति बहुत समय तक दक्षिण भारत में रही। कुछ साधु उत्तर भारत में ही रह गये, समय दोष के कारण जब उनकी चर्चा में बाधा आने लगी तो उन्होंने वस्त्र धारण कर लिये तथा अपने अनुकूल नियमों का भी निर्माण किया। दुफाल के समाप्त होने पर जब मुनिसंघ दक्षिण से वापस लौटा, तो उसने यहाँ रहने वाले मुनियों की चर्या की भर्त्सना की तथा उन लोगों ने अपने आचरण के अनुकूल जिन ग्रन्थों की रचना की थी उन्हें अमान्य घोषित किया। इसी समय से श्वेताम्बर सम्प्रदाय का विकास हुआ। वे शिथिलाचारी मुनि ही वस्त्र धारण करने के कारण श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक हुए। भगवान् महावीर के समय में जैन सम्प्रदाय एक था; किन्तु भद्रबाहु के अनन्तर यह सम्प्रदाय दो टुकड़ों में विभक्त हो गया । उक्त भद्रबाहु श्रुतकेचली को ही निमित्तशास्त्र का ज्ञाता माना जाता है, क्या वहीं श्रुतकेवली इस ग्रन्थ के रचयिता हैं ? इस ग्रन्थ को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भद्रबाहु स्वामी इसके रचयिता नहीं हैं 1
यद्यपि इस ग्रन्थ के आरम्भ में कहा गया है कि पाण्डुगिरि पर स्थित महात्मा, ज्ञान-विज्ञान के समुद्र, तपस्वी, कल्याणमुनि, रोगरहित, द्वादशांग श्रुत के वेत्ता, निर्ग्रन्थ, महाकान्ति से विभूषित, शिष्य-प्रशिष्यों से युक्त और तत्त्ववेदियों में निपुण आचार्य भद्रबाहु को सिर में नमस्कार कर उनसे निमित्तशास्त्र के उपदेश देने को प्रार्थना की।
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'भद्रबाहुसंहिता
तत्रासीनं महात्मानं ज्ञान विज्ञानसागरम् । तपोयुक्तं च श्रेयांसं भद्रबाई निराश्रयम् ।। द्वादशांगत्य वेत्तारं नैन्यं च महाद्य तिम् । वृत्तं शिष्यैः प्रजिष्यश्च निपुण तत्त्ववेदिनसम् ।। प्रणम्य शिरसाऽऽच यमचः शिष्यास्तदा गिरम् । सर्वेषु प्रीतमनसो दिव्यज्ञानं बभुत्सवः ।।
(भ० सं० अ० } एलोक 5-7) द्वितीय अध्याय के आरम्भ में बताया गया है कि शिष्यों के प्रश्न के पश्चात् भगवान् भद्रबाहु कहने लगे
ततः प्रोवाच भगवान् दिवासाः श्रमणोत्तमः । यथावस्थास विन्यासं द्वादशांगविशारदः । भवद्भिर्यद्यहं पुण्टो निमित्त जिनभाषितम् ।
समासण्यासतः सर्व तन्निबोध यथाविधि ।। इस कथन ग यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसकी रचना श्रुतकेवली भद्रबाहु ने की होगी । पररात ग्रन्थ वः आगे के हिस्से को देखने से निराशा होती है। इस ग्रन्थ के अनेक स्थानों पर भद्रबाहवचो यथा' (अ0 3 श्लो० 64; अ० 6 एलो० 17;#07 नो. 1): अ.9 लो० 26; अ० 10 श्लो० 16, 45,53; अ० || श्नो0 26, 30; अ० 12 पलो. 37; अ0 13 श्लो074, 100, 178; अ० 14 श्लो. 54, 136: अ. !5 लो0 37, 73, 128) लिखा मिलता है । इसरो सहज में अनुमान किया जा सकता है कि यह रचना भद्रबाहु के वचनों के आधार पर किसी अन्य विद्वान् ने लिखी है। इस ग्रन्थ के पुप्पिका वाक्यों में 'भद्रबाहुवे निमित्ते', 'भद्रवाहसंहितायां', 'भद्रबाहु निमित्तगाल्वे' लिखा मिलता है । ग्रन्थ की उत्थानिका में जो ग्लोक आये हैं, उनसे निम्न प्रकाश पढ़ता है--
1. इस ग्रन्थ की रचना मगध देश के राजगृह नामक नगर के निकटवर्ती पाण्डुगिरि पर राजा सेजित् के राज्यकाल में हुई होगी।
2. यह ग्रन्थ मर्वज्ञ कथित बबनों के आधार पर भद्रबाह स्वामी ने अपने दिव्य ज्ञान के बन में लिखा।
3. राजा, भिक्षु, श्रावक एवं जन-साधारण के लिए इस ग्रन्थ की रचना की गयी।
4. इस ग्रन्थ के रचयिता भद्रवाह स्वामी दिगम्बर आम्नाय के अनुयायी थे । जिस प्रकार मनुस्मृति की रचना स्वायं मनु ने नहीं की है, बल्यिा मनु के वचनों के आधार पर की गयी है। फिर भी वह मनु के नाम से प्रसिद्ध है तथा मनु के ही विचारों का प्रतिनिधित्व करती है । उस रचना में भी मनु के वचनों का
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प्रस्तावना
कथन मिलता है । इसी प्रकार भद्रबाहुसंहिता स्वयं भद्रबाहु की न होकर, भद्रबाहु के वचनों का प्रतिनिधित्व करती है।
ग्रन्थ की उत्थानिका में आये हुए सिद्धान्तों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि उत्थानिका के कथन में ऐतिहासिक दृष्टि से विरोध आता है । भद्रबाहु स्वामी चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में हुए, जब कि मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में थी। सेनजित् या प्रसेनजित महाराज श्रेणिक या बिम्बसार के पिता थे । इनके समय में और चन्द्रगुप्त के समय में लगभग 140 वर्षों का अन्तराल है, अत. श्रुतकेवली भद्रबाहु तो इस ग्रन्थ के रचियता नहीं हो सकते हैं । हाँ, उनके वचनों के अनुसार किसी अन्य विद्वान् ने इस ग्रन्थ की रचना की होगी। ___'जन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' में देसाई ने इस ग्रन्थ का रचयिता वराहमिहिर के भाई भंद्रबाहु को माना है। जिस प्रकार वराहमिहिर ने बृहत्संहिता या वाराही संहिता की रचना की, उसी प्रकार भद्रबाहु ने भद्रबाहुसंहिता की रचना की होगी । वराहमिहिर और भद्रबाहु का सम्बन्ध राजशेखरकृत प्रबन्धकोष (चतुविशतिप्रबन्ध) से भी सिद्ध होता है । यह अनुमान स्वाभाविक रूप से संभव है कि प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु भी ज्योति नी रह होंगे । कहा जाता है कि वराहमिहिर के पिता भी अच्छे ज्योतिषी थे। बृहज्जातक में स्वयं वराहमिहिर ने बताया है कि कालपी नगर में सूर्य से वर प्राप्त कर अपने पिता
आदित्यदास से ज्योतिषशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। इससे सिद्ध है कि इनके वंश में ज्योतिषशास्त्र के पठन-पाठन का प्रचार था और यह इनकी विद्या वंशगत थी। अत: इनके भाई भद्रबाहु द्वारा रचित कोई ज्योतिष ग्रन्थ हो सकता है। पर यह सत्य है कि यह भद्रबाहु भुतकवली भद्रबाहु से भिन्न हैं। इनका समय भी श्रुतकोवली 'मद्रवाह से सैकड़ों वर्ष बाद का है।
श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने ग्रन्थपरीक्षा द्वितीय भाग में इस ग्रन्थ के अनेक उद्धरण देकार तथा जन उद्धरणों की पारम्परिव असम्बद्धता दिखलाकर यह सिद्ध किया है कि यह ग्रन्थ भद्रबाहु युतकेवली का बनाया हुआ न होकर इधरउधर के प्रकरणों का बेढंगा संग्रह है। इन्होंने अपने वक्तव्य का निष्कर्ष निकालत हुए लिखा है-..."यह खण्डत्रयात्मक ग्रन्थ (भद्रबाहुसहिता) भद्रबाहु श्रुत केवली का बनाया हुआ नहीं है, न उनके किसी शिष्य-प्रशिष्य का बनाया हुआ है और न विक्रम सं. 1657 के पहले का बनाया हुआ है, बल्कि उक्त संवत् के पोछ का बनाया हुआ है ।'' मुख्तार साहब का अनुमान है कि ग्वालियर के भट्टारक धर्मभूषणजी की कृपा था यह एकमात्र फल है । उनका अभिमत है. "वहीं उस समय इस ग्रन्थ फे सर्व सस्वाधिकारी थे। उन्होंन वामदेव सरोख अपन किसी कृपापात्र पा आत्मीयजन के द्वारा इसे तैयार कराया है अथवा उसकी सहायता से स्वयं तैयार किया है । तैयार हो जाने पर जब इसके छो-चार अध्याय किसी को पढ़ने
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भद्रबाहुसंहिता
के लिए दिये गये और वे किसी कारण से वापस न मिल सके तब वामदेवजी को दुबारा उनके लिए परिश्रम करना पड़ा । जिसके लिए प्रशस्ति का यह वाक्य 'यदि वामदेवजो फेर शुद्ध करि लिखो तैयार करी' खासतौर से ध्यान देने योग्य है और इस बात को सूचित करता है कि उक्त अध्यायों को पहले भी वामदेव जी ने ही तैयार किया था। मालूम होता है कि लेखक ज्ञान भूषणजी धर्मभूषण भट्टारक के परिचित व्यक्तियों में से थे और आश्चर्य नहीं कि वे उनके शिष्यों में भी थे। उनके द्वारा खास तौर से यह प्रति लिखवायी गयी है।"
श्रद्धेय मुख्तार साहब के उपर्युक्त न यह ति की दृष्टि में यह ग्रन्थ ! 7वीं शताब्दी का है तथा इसके लेखक ग्वालियर के भट्टारक धर्मभूषण या उनके कोई शिष्य हैं । मुख्तार साहब ने अपने कथन की पुष्टि के लिए इस ग्रन्थ के जितने भी उद्धरण लिये है, वे सभी उद्धरण इस ग्रन्थ के प्रस्तुत 27 अध्यायों के बाहर के हैं। 30वां अध्याय जो परिशिष्ट में दिया गया है. इससे उस अध्याय की रचना-तिथि पर प्रकाश पड़ता है। इस अध्याय के आरम्भ में 10वें श्लोक में बताया गया है ।
पूर्वाचार्य या प्रोक्तं दुर्गाय नादिभिर्यथा ।
गृहीत्वा तदभिप्रायं तथारिष्टं बदाम्हम् ।। इश लोक में दुर्गाचार्य और एलाचार्य के कथा के अनुसार अरिष्टों के वर्णन की बात कही गयी है । दुर्गाचार्य का 'रिष्ट सगुच्चय' नामक एक ग्रन्थ उपलब्ध __ है। इस ग्रन्थ की रचना लक्ष्मीनिवास राजा के राज्य में पानगर नामक पहाड़ी नार के शान्तिनाथ चैत्यालय में की गई है। इसका रचनाकाल 21 जुलाई शुक्रवार ईस्वी सन् 1032 में माना गया है। इस ग्रन्थ में 261 गाथाएँ है, जिनका भाव इस तीवें अध्याय में ज्यों-का-त्यों दिया गया है। अन्तर इतना ही है कि रिष्टममुचम ? कथन व्यवस्थित, कमबद्ध और प्रभावक है, किन्तु इस अध्याय की निरूण शैली शिथिल, अमिा और अव्यवस्थित है ! विषय दोनों का समान है । इस अध्याय ये; अन्त में कतिपय श्लोक वाराही संहिता के वस्त्रच्छेद नाक 7 वें अध्याय में ज्यों-के-त्यों उद्धृत हैं। केवल एनोकों के क्रम में व्यतिकम कर दिया गया है। अत: यह सत्य है कि भद्रबाहुसंहिता के सभी प्रकरण एका साथ नहीं लिखे गये।
समग्र म बाहुसंहिता में तीन खा । प्रथम ना में दश अध्याय हैं, जिनक नाम हैं चतुर्थर्ण गित्य किया, क्षत्रिय नित्याम, अत्रियधर्म, कृतिसंग्रह, सीमानिर्णय, दण्डपारसय, स्तत्यकर्म,स्त्रीरामण, दायभाग और प्रश्चित्त । इन दगी अध्याय के विषय मनुस्मृति आदि ग्रन्या के प्राचार लिच गये हैं। पतिपय पद्य तो ज्या-क-यां मिल जाता है और कतिय कुछ परिवर्तन र ले लिय गय
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हैं.। यह समस्त खण्ड नकल किया गया-सा मालूम होता है।
दूसरे खण्ड को ज्योतिष और तीसरे को निमित्त कहा गया है। परन्तु इन दोनों अध्यायों के विषय मास में इतने अधिक सम्बद्ध हैं कि उनका यह भेद उचित प्रतीत नहीं होता है। दूसरे खण्ड के 25 अध्याय, जिनमें उल्का, विद्युत्, गन्धर्वनगर आदि निमित्तों का वर्णन किया गया है, निएनयत: प्राचीन हैं। छब्बीसवें अध्याय में स्वप्नों का निरूपण किया गया है। इस अध्याय के आरम्भ में मंगलाचरण भी किया गया है।
नमस्कृत्य महावीर सुरासुरजनेनंतम्।
स्वप्नाध्यायं प्रवक्ष्यापि शुभाशुभसमोरितम् ।। देव और दानवों के द्वारा नमस्कार किये गये भगवान महावीर को नमस्कार कर शुभाशुभ से युक्त स्वप्नाध्याय का वर्णन करता हूँ।
इससे ज्ञात होता है कि यह अध्याय पूर्व के 24 अध्यायों की रचना के बा:: लिखा गया है और इसका रचनाकाल पूर्व अध्याय के रचनाकाल के बाद का होगा।
मुख्तार साहब ने तृतीय खण्ड के श्लोकों की समता मुहत चिन्तामणि, पाराशरी, नीलकण्ठी आदि ग्रन्थों से दिखलायी है और सिद्ध किया है कि इस खण्ड का विषय नया नहीं है, संग्रहार्ता ने उक्त ग्रन्थों में श्लोक लेवार तथा उन श्लोकों में जहां-तहाँ शुद्ध या अशुद्ध रूप में परिवर्तन कारक अव्यवस्थित रूप में संकलन किया है । अतः मुख्तार साहब न इस ग्रन्थ का रचना कारन 17वीं सताब्दी माना है।
इस ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में मुनि जिन विजयजी ने मिन्धी जैन ग्रन्थ माला से प्रकाशित भद्रबाहुसंहिता के विञ्चित प्रस्तावित में लिखा है . "ते विखे म्हारो अभिप्राय जरा जुदो छे हुँ एने पंदरमी दीनी पछीनी रचना नयी समजतो ओछामाँ ओछी 12मी सदी जेटली जूनी तो ए कृति छेज, एवो म्हारो साधार अभिमत थाय छे, म्हारा अनुमाननो आधार ए प्रमाणे छ -- पाटणना वाडी पार्श्वनाथ भण्डार माथी जे प्रति म्हने मली छे ते जिनभद्र मूरिना समयमाँ - एटले के वि० सं० 1475-85 ना अरसामा लग्याएली छ, एम हुँ मान छ कारण के ए प्रतिमा आकार-प्रकार, लखाण, पत्रांक आदि बधा संकेतो जिनभद्रसूरिए लखावेला सेकडो ग्रन्य तो तद्दन मलता अनेतेज स्वरूपता छ, जेम म्हें 'विज्ञप्ति त्रिवेणि, नी म्हारी प्रस्तावनामाँ जपाव्यु छ तेम जिनभद्र सुरिए खमात, पाटण, जैसलमेर आदि स्थानोमा म्होटा ग्रन्य-भण्डारो स्थापन कर्या हतां अने तेना, तेमण नष्ट थतां जुना एवां सेंकडो ताडपत्रीय पुस्तकोनी प्रतिलिपिओ कागल उपर उतरावी-उतरावी ने नूतन पुस्तकोनो संग्रह कर्यो हतो, ए भंडारमाथी मलेली
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भद्रबाहु संहितानी उक्त प्रति पण एज रीते कोई प्राचीन ताडपत्रनी प्रतिलिपि रूपे उतारेली छे, कारण के, ए प्रतिमा ठकठेका एवो केटलीय पंक्तिओ दृष्टिगोचर थाय छ, जेमालहियाए पोताने मलली आदर्श प्रतिमा उपलब्ध थता खंडित के त्रुटित शब्दो अने वाक्यो मार्ट, पाछलथी कोई तेनी वृत्ति करी शके ते सारू: आ जातनी अक्षरविहीन मात्र शिरोरेखाओ दोरी मुकेली छे, एनो अयं ए छे के ए प्रतिना लहियाने जे ताडपत्रीय प्रति मलीहती ते विशेष ओणं थऐली होवी जोईए अने तेमा से ते स्थलना लखपणा नक्षरो, नानपत्रोमो डिपो इसकी पडा मीनता रहेला भुंसाई गएलाहोवा जोईए-ए उपरथी एवं अनुमान सहेजे करी शकाय के ते जूनी ताडपत्रीय प्रति एण ठीक-ठीक अवस्थाए पहोंचो गएली होवी जोईए, आ रीते जिनभद्र सूरिना समयमां जो ए प्रति 300-400 वर्षों जेटली जूनी होय :- अने ते होवानो विशेष संभव छेज-तो सहेजे ते मलं प्रति विक्रमना मा 12मा सका जंटली जनी होई शके। पाटण अने जेसलमेरना जना भंडारोमा आवी जातनी जीर्ण-शीर्ण यएली ताइपत्रीय प्रतियो तेमज तेमना उपरथी उतारवामां आवेली कागलनी सेंकडो प्रतियो म्हारा जोवामां आवोछ ।"
इस लम्बे कथन से आप ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भद्रबाहुसंहिता का रचनाकाल ||-12 शताब्दी से अर्वाचीन नहीं है। यह ग्रन्थ इससे प्राचीन ही होगा । मुनिजी का अनुमान है कि इस ग्रन्थ का प्रचार जैन साधुओं और गृहस्थों में अधिक रहा है, इसी कारण इसके पाटान्तर अधिक मिलते हैं । इसके रचयिता कोई प्राचीन जैनाचार्य हैं, जो भद्रबाहु से भिन्न हैं । मूल ग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखा गया था, पर किसी कारण बण आज यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । यत्र-तत्र प्राप्त गोखिम या लिपिबद्ध रूप में प्राचीन गाथाओं को लेकर उनका संस्कृत रूपान्तर कर दिया है। जिन विषयों के प्राचीन उद्धरण नहीं मिल सके, उन्हें वाराही गंहिता, महतं चिन्तामणि आदि ग्रन्थों मे कर किसी भट्टारक या यति ने संकलित कर दिया।
श्री मुना र माहब, गुनिश्री जिनविजय जी तथा प्रो. अमृतलाल मावचंद गोमाणी आदि महानुभावों के कथनों पर विचार करते तथा उपलब्ध ग्रंथ का अवलोकन गहमारा अपना मत यह है कि इस प्रन्थ का विषय, रचना शैली और वर्णन वाराही मंहिता में प्राचीन है। उल्का प्रकरण में वाराहीसंहिता की अपेक्षा नवीरला है और यह नवीनता ही प्राचीनता का संकेत करती है । अत:
मा गगन, | 11 गे कम प्रारमा के 25 अध्यावो का, किमी व्यक्ति ने प्राचीन गावाआमा का होगा। वहत संभव है कि भद्रबाह स्वामी की कोई
का इग प्रकार की रही होगी, जिगका प्रतिसाद्य विषय निमित्त शास्त्र है । अतएव मन पनि समान मात्रा मंहिता का संकलन भी बिगी भाषा तथा विषय - पिट में अपन्न व्यक्ति ने किया है। निमितशास्त्र के महाविद्वान भद्रबाहु
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की मूल कृति आज उपलब्ध नहीं है, पर उनके वचनों का कुछ शार अवश्य विद्यमान है। इस रचना का संकलन 8-9
में अवश्य
होगा
हाँ, यह सत्य है कि इस ग्रन्थ में प्रक्षिप्त अंश अधिक बढ़ते गये हैं । इनका प्रथम खण्ड भी पीछे से जोड़ा गया है तथा इसमें उत्तरोत्तर परिवर्द्धन और संवर्द्धन किया जाता रहा है। द्वितीय खण्ड का स्वप्नाध्याय भी अर्वाचीन है तथा इसमें 28, 29 और 30 वें अध्याय तो और भी अर्वाचीन हैं । अतएव यह स्वीकार करने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं है कि इस ग्रन्थ का प्रणयन एक समय पर नहीं हुआ है. विभिन्न समय पर विभिन्न विद्वानों ने इस ग्रन्थ के कलेवर को बढ़ाने की चेष्टा की है । "भद्रबाहुवचो यथा" का प्रयोग प्रमुख रूप से 15वें अध्याय तक ही मिलता है। इसके आगे इस वाक्य का प्रयोग बहुत कम हुआ है, इससे भी पता चलता है कि संभवतः 15 अध्याय प्राचीन भद्रबाहु संहिता के आधार पर लिखे गये होंगे । और संहिता ग्रन्थों की परम्परा में रखने के लिए या इसे वाराही संहिता के समान उपयोगी और ग्राह्य बनाने के लिए, आगे वाले अध्यायों श्रा कलेवर बढ़ाया जाता रहा है। श्री मुख्तार साहब ने जो अनुमान लगाया है कि ग्वालियर के भट्टारक धर्मभूषण जी की कृपा का यह फल है तथा बामदेव ने या उनके अन्य किसी शिष्य ने यह ग्रन्थ बनाया है, वह पूर्णतया सही तो नहीं है । इस अनुमान में इतना अंश तथ्य है कि कुछ अध्याय उन लोगों की कृपा से जोड़े गये होंगे या परिवर्तित हुए होंगे। इस ग्रन्थ के 15 अध्याथ तो निश्चयतः प्राचीन हैं और ये भद्रबाहु के वचनों के आधार पर ही लिखे गये हैं । शैली और क्रम 25 अध्यायों तक एक-सा है, अत: 25 अध्यायों को प्राचीन माना जा सकता है ।
भद्रबाहुसंहिता का प्रचार जैन सम्प्रदाय में इतना अधिक था, जिससे यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से समादृत थी। इसकी प्रतियां पूना, पाटण, बम्बई, हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान मन्दिर पाटण, जैन सिद्धान्त भवन आरा आदि विभिन्न स्थानों पर पायी जाती है। पूना की प्रति में 26वें अध्याय के अन्त में वि० स० 1504 लिखा हुआ है और समस्त उपलब्ध प्रतियों
यही प्रति प्राचीन है । अत: इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि इसकी रचना वि० सं० 1504 से पहले हो चुकी थी। श्री मुख्तार साहब का अनु मान इस लिपिकाल से खंडित हो जाता है और इन 26 अध्यायों की रचना स्वी सत् की पन्द्रहवीं शती के पहले हो चुकी थी। इस ग्रन्थ के अत्यधिक प्रचार का एक सबल प्रमाण यह भी है कि इसके पाठान्तर इतने अधिक मिलते हैं, जिससे इसके निश्चित स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता | जैन सिद्धान्त भवन आरा की दोनों प्रतियों में भी पर्याप्त पाद-मंद मिलता है । अत: इस ग्रन्थ को सर्वथा भ्रष्ट या कल्पित मानना अनुचित होगा। इसका प्रचार उतना अधिक रहा है, जिससे रामायण और महाभारत के समान इसमें प्रक्षिप्त असो की भी
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भद्रबाहुसंहिता
बहुलता है। इन्हीं प्रक्षिप्त अंशों ने इस ग्रन्थ की मौलिकता को तिरोहित कर दिया है । अतः यह भद्रबाहु के वचनों के अनुसार उनके किसी शिष्य या प्रशिष्य अथवा परम्परा के किसी अन्य दिगम्बर विद्वान द्वारा लिखा गया ग्रन्थ है । इसके भारम्भ के 25 अध्याय और विशेषतः 15 अध्याय पर्याप्त प्राचीन हैं। यह भी सम्भव है कि इनकी रचना वराहमिहिर के पहले भी हुई हो ।
भापा की दृष्टि से यह ग्रन्ध अत्यन्त सरल है । व्याकरण सम्मत भाषा के प्रयोगों की अवहेलना की गई है। छन्दोभंग तो लगभग 300 श्लोकों में है। प्रत्येक अध्याय में कुछ पध ऐसे अवश्य हैं जिनमें छन्दोभंग दोष है । व्याकरण दोष लगभग 125 पद्यों में विद्यमान है। इन दोषों का प्रधान कारण यह है कि ज्योतिष और धैद्यक विषय के ग्रन्थों में प्रायः भाषा सम्बन्धी शिथिलता रह जाती है। वाराही संहिता जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ में व्याकरण और छन्द दोप हैं, पर भद्रबाहु संहिता की अपेक्षा कम
सम्पादन और अनुवाद
३ग ग्रन्थ का सम्पादक मिन्धी जैन ग्रन्थ गाला' में मुदित प्रति तथा जैन सिद्धान्त भपन आदी दो हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर हुआ है । एक प्रति पूज्य आचार्य महावीर कीति जी में भी प्राप्त हुई थी। मुद्रित प्रति में और जैन सिद्धान्त भवन की प्रतियों में बहुत अन्तर था । कई श्लोक भवन की प्रतियों में मुद्रित प्रति की अपेक्षा अधिक निकाले । भवन की दोनों प्रतियाँ भी आपस में भिन्न थीं तथा आचार्य महावीर कीनि जी की हस्तलिखित प्रति भवन की प्रतियों की अपेक्षा
छ भिन्न तथा मुद्रित प्रति में उल्लिखित बम्बई की प्रति से बहुत कुछ अंशों में समान श्री । प्रस्तुत गंस्करण में भवन की खु/174 प्रति का पाठ ही रखा गया है। अवशेष प्रतियां क. पाठान्तरों को पाद टिपणी में रखा गया है । प्रस्तुत प्रति में मुदित प्रति भी अपना अनेक विशेषताएं हैं। कुछ पाठान्तर तो इतने अच्छे हैं, जिसमें प्रकरणमत अर्थ स्पष्ट होता है और विषय का विवेचन भी स्पष्ट हो जाता है । हमने मुक द्वारा गद्रित प्रति के पाठ को सूचित किया है । मु० A से हमारा गंकत यह है कि आचार्य महावीरकीत्ति जी की प्रति में वह पाठ मिलता है। आचार्य महावीर कीत्ति की प्रति उनके हाथ से स्वयं कहीं से प्रतिलिपि की गयी श्री और उसमें अनेक स्थलों पर बगान में पाठान्तर भी दिये गये थे । यह प्रति हमें 15 अध्याय तक मिली तथा इसके आगे एक दुसरे रजिस्टर में 30वाँ अध्याय और एक पृथवा रजिस्टर में कुछ फुट कर शकुन और निमित्त सम्बन्धी श्लोक लिखे थे। फुटकर श्लोकों में अध्याय का संकेत नहीं किया गया था, अतः हमने उन श्लोकों को उस ग्रन्थ में स्थान नहीं दिया । 3वें अध्याय यो परिशिष्ट के रूप में दिया गया है। उपयोगी विषय होने के कारण इस अध्याय को भी अनुवाद सहित दिया
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जा रहा है।
जिस प्रप्ति का पाठ इस ग्रन्थ में रखा गया है, उसके मात्र 27 अध्याय ही हमें उपलब्ध हुए हैं । भवन की दूसरी प्रति में 26 अध्याय हैं। दोनों ही प्रतियों के देखने से ऐसा लगता है कि इनकी प्रतिलिपि विभिन्न प्रतियों से की गयी है । अन्य समाप्ति सुचक कोई चिह्न या पुष्पिका नहीं दी गयी है, अत: प्रतिलिपि-काल की जानकारी नहीं हो सकी।
अनुवाद के पश्चात् प्रत्येक अध्याय के अन्त में विवेचन लिखा गया है । विवेचन में वाराही संहिता, अद्भुतसागर, वसन्त राज शाकुन, मुहूर्तगणपति, वर्षप्रबोंध, बृहत्पाराशरी, रिष्टसमुच्चय, केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणि, नरपतिजयचर्या, भविष्यज्ञान ज्योतिष, एवरोडे एस्ट्रोलाजी, केवलज्ञानहोरा, आयज्ञानतिलक, ज्योतिषसिद्धान्तसार संग्रह, जातक क्रोडपत्र, चन्द्रोन्मीलनप्रश्न, ज्ञानप्रदीपिका, देवज्ञकामधेनु, ऋषिपुत्रनिमित्त शास्त्र, बृहज्योतिपार्णव, भुवनदीपक एवं विद्यामाधवीय का आधार लिया गया है ! विवेचन में उद्धरण कहीं से भी उद्धृत नहीं किये हैं । अध्ययन के बल से विषय को पचाकर तत्-तत् प्रकरण से विषय से सम्बद्ध विवेचन लिखा गया है । विषय के स्पष्टीकरण की दृष्टि से ही यह विवेचन उपयोगी नहीं होगा, बल्कि विपय वा साांगोपांग अध्ययन करने के लिए उपयोगी होगा। प्रत्येक प्रकरण पर उपलब्ध ज्योतिष ग्रन्थों के आधार पर निचोड़ रूप में विवेचन लिखा गया है । यद्यपि इस विवेचन को ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से संक्षिप्त करने की पूरी चेष्टा की गयी है। फिर भी सैकड़ों ग्रन्थों का सार एक ही जगह प्रत्येक प्रकरण के अन्त में मिल जायगा। अन्य ज्योतिर्वेत्ताओं का उस प्रकरण के सम्बन्ध में जो नया विचार मिला है उसे भी विवेचन में रख दिया गया है ! पाठक एक ही ग्रन्थ में उपलब्ध समस्त संहिताशास्त्र का सार भात्र प्राप्त कर सकेगा, ऐसा हमारा पूर्ण विश्वास है। ____ अनुवाद तथा विवेचन में समस्त पारिभाषिक शब्दों को स्पष्ट कर दिया गया है। पारिभाषिक शब्दों पर विवेचन भी लिखा गया है । अत: पृथक् पारिभाषिक शब्दसूची नहीं दी जा रही है । यतः शब्दसूची पुनरावृत्ति ही होगी। ___ अनुवाद में शब्दार्थ की अपेक्षा भाव को स्पष्ट करने की अधिक चेष्टा की गयी है । सम्बद्ध श्लोकों का अर्थ एक साथ लिखा गया है । इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद अभी तक नहीं हुआ तथा विषय की दृष्टि से इसका अनुवाद करना आवश्यक था । ज्योतिष विषयक निमित्तों की जानकारी के लिए इसका हिन्दी अनुवाद अधिक उपयोगी होगा । संहिताशास्त्र के समग्र विषयों की जानकारी इस एक ग्रन्थ से हो सकती है।
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आत्म-निवेदन
भद्रबाहु संहिता का अनुवाद करने की बलवती इच्छा केवलज्ञान प्रश्नचूडामणि के अनुवाद के अनन्तर ही उत्पन्न हुई । सन् 1956 में इस कार्य को हाथ में लिया। जैन सिद्धान्त भवन, आरा की दोनों हस्तलिखित प्रतियों का मिलान मुद्रित प्रति से करने के पश्चात् यह निश्चय किया कि ख / 174 प्रति का पाठ अधिक उपयोगी है, अत: इसे ही मूल पाठ मानकर अनुवाद कार्य किया जाय। इधर-उधर के अनेक व्यासंगों के कारण बार्य मन्थर गति से चलता रहा। हाँ, सदा की प्रवृत्ति के अनुसार ग्रन्थ का कार्य समाप्त करके भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय की सेवा में इसे अवलोकनार्थ भेज दिया। उन्होंने अपनी कार्य प्रणाली के अनुसार ग्रन्थमाला के सम्पादक डॉ. हीरालाल जी जैन, निर्देशक प्राकृतिक जैन विद्यापीठ, मजफ्फरपुर तथा टॉ० ए० एन० उपाध्ये कोल्हापुर के यहाँ इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि को मेज दिया । कुछ समय के पश्चात् डॉ० हीरालाल जी साहब का एक सूचना पत्र मिला और उनकी सूचनाओं के अनुसार संशोधन, परिवर्तन कर पुनः ग्रन्थ को ज्ञानपीठ भेज दिया।
मैं ग्रन्थमाला के सम्पादक उपर्युक्त डॉ० द्वय का अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन का अवसर तथा अपने बहुमूल्य सुझाव दिये। श्री अयोध्या प्रसाद जी गोयलीय, मन्त्री भारतीय ज्ञानपीठ, काशी का भी कृतज्ञ हूं, जिनकी उत्साहवर्धक प्रेरणाएं सर्वदा साहित्य-सेवा के लिए मिलती रहती हैं । परामर्श रूप में सहायता देने वाले विद्वानों में आचार्य श्री राममोहनदास जी एम० ए० संस्कृत
और प्राकृत विभागाध्यक्ष हरप्रसाद जैन कालेज, आरा; 40 लक्षमणजी विपाठी व्याकरणाचार्य, राजकीय संस्कृत विद्यालय आरा, थी प्रेमचन्द्र जैन साहित्याचार्य बी० ए० ह० दा. जैन स्कूल, आरा एवं श्री अमरचन्द तिवारी, आमरा प्रभृति विद्वानों का आभारी हूं। प्रूफ-संशोधन श्री पं० महादेवी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्य ने किया है । मैं आपका भी अत्यन्त आभारी हूं। ___श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा के विशाल ग्रन्थागार से विवेचन लिखने के लिए संवाड़ों ग्रन्थों का उपयोग किया, अत: भवन का आभार स्वीकार करना परमावश्यक है।
प्रफ में कई गल्तियाँ छुट गयी हैं, विज्ञ पाठक संशोधन कर लाभ उठायेंगे। इसमें प्रूफ संशोधन का दोष नहीं है; दोष मेरा है, यतः मेरी लिपि कुछ अस्पष्ट और अवाचा होती है, जिससे प्रूफ सम्बन्धी त्रुटियाँ रह जाना आवश्यक है । सम्पादन, अनुवाद और विवेचन में प्रमाद एवं अज्ञानतावश अनेक त्रुटियो रह गयी होंगी, वृषालु पाठक उनके लिए क्षमा करेंगे । यह भद्रबाहु संहिता का प्रथम भाग ही है । अवशेष मिल जाने पर उसका द्वितीय भाग सानुवाद और सविवेचन प्रकाशि
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किया जायगा । बयोंकि ज्योतिष और निमित्त शास्त्र की दृष्टि से यह ग्रन्थ उपयोगी है। जिन कृपालु पाठकों के पास या उनकी जानकारी में इसके अवशेष अध्याय हों, वे सूचित करने का काम करेंगे।
नेमिचन्द्र शास्त्री
हरप्रसाद दास जैन कालेज, आरा । संस्कृत एवं प्राकृत विभाग
11-10-1958
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विषयानुक्रम
सहला अध्याय मंगलाचरण रचना का उद्देश्य प्रतिपाद्य विषयों की तालिका विवेचन दूसरा अध्याय विकार का स्वरूप उत्पात का स्वरूप उल्काओं की उत्पत्ति, रूप, प्रमाण, फल और आकृति के वर्णन का निश्चय उल्का का स्वरूप उल्का के विकार शुभ और अशुभ उल्काएँ विवेचन
तीसरा अध्याय उल्काओं द्वारा नक्षत्र-ताडन का फल नील वर्ण, बिखरी हुई, सिंह-व्याघ्र आदि विभिन्न आकार की उल्काएँ अग्रभाग आदि के अनुसार उल्काओं के गिरने का फल स्नेहयुक्त एवं विचित्र वर्ण की उल्काओं का फल विविध वर्ण और आकृति वाली उल्काओं का फल विद्य त संज्ञक उल्का और उसका फल उल्का के गिरने का स्थानानुसार फल राजभयसूचक उल्काएँ स्थायी नागरिकों की भयसूचक उल्काएँ अस्त कालीन उल्काओं का फल प्रतिलोम गार्ग से जानेवाली उल्काओं का फल विभिन्न मार्गों से गिरने वाली उल्काओं का सेना के लिए फल
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भद्रबाहुसंहिता
जन्मनक्षत्र में बाणसदृश गिरने वाली उल्काओं का फल अन्य शुभ-अशुभ उल्काएं विवेचन चौथा अध्याय परिवेष और उनके भेद चन्द्र-परिवेष, विविध रूप एवं फल सूर्य-परिवेष का फल नक्षत्रों के अनुसार परिवेपों का फल वर्षा और कृषि सम्बन्धी परिवेषों का फलादेश परिवेषों का राष्ट्र म्बन्धी कला ६ विवेचन पांचवा अध्याय विद्य त-स्वरूप और प्रकार विद्य त-वों का निरूपण एवं फलादेश विद्य त-मागों का कथन विद्य त् के रूप-रंग, आकार तथा शब्द द्वारा वर्षा का निर्देश विवेचन छठा अध्याय बादलों के प्रकार और वर्षा-फल शुभ चिह्नों वाले बादल संग्राम-सूचक बादल राजा, युवराज, मंत्री के मरणसूचक बादल सेना के युद्धस्थल से पराङ्मुख होने की सूचना देने वाले बादल गर्जना सहित और गर्जना रहित बादलों का फल मलिन तथा वर्ण रहित बादलों का दीप्ति दिषा में फल नक्षत्र, ग्रह आदि के निमित्त से बादलों का फल शीघ्रगामी बादलों का फल विरागी, प्रतिलोम, अनुलोम गति वाले बादलों का फल नागरिक एवं शासन के अनुकूल, प्रतिकूल ति बाले बादल विवेचन सातवां अध्याय सन्ध्याओं के लक्षण और निमित्तशास्त्र के तत्वों के अनुसार उनका फल 85 सन्ध्या की परिभापः
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विषयानुक्रम
PO
स्निग्ध वर्ण की सन्ध्या का फल तत्काल वर्षा-सूचक सन्ध्या सन्ध्या में सूर्य-परिवेष का फल सध्या में सूर्य के मण्डलों का फल सरोवर, तालाब, प्रतिमा, कूप, कुम्भ आदि सदृश स्निग्ध सन्ध्या का फल राजभय-उत्पादक सन्ध्या सन्ध्याकाल में बादलों की आकृति का फल सन्ध्या-काल में विद्य त-दर्शन का फल
XR
४४
89
विवेचन
94
94
95
96
97
97
98
98
आठवां अध्याय मेघों के भेद वर्षा के कारक मेघ अच्छी वर्षा के सूचक मेघ युद्ध और सन्धि के सूचक मेघ युद्ध की सफलता और असफलता की सूचना देनेवाले मेघ विभिन्न आकृतिवाले मेघों का फलादेश तिथि-नक्षत्र, मुहूर्त आदि के अनुसार मेघ-फल कुवर्ण, वाटु क रस और दुर्गन्ध वाले मेघों का फल अन्य प्रकार मे शुभ-अशुभ सूचक मेघ विवेचन नौवां अध्याय वायु के भेद वायु द्वारा वर्षण, भय, क्षेम आदि बलवती वायु दिशा के अनुसार बायू का कथन
आषाढी पूर्णिमा के दिन विभिन्न दिशाओं की वायु के फलादेश दिशाओं एवं विदिनाओं की वायु का संक्षिप्त फल परस्पर घात कर वहने वाली वायुओं का फल सन्य-अपसव्य वायूओं का फल प्रदक्षिणा करती हुई बहने वाली वायु का फल मध्याह्न और अर्धसयिका वायु प्रवाह का फल राजा के प्रयाग के समय प्रतिलोम और अनुलोम बायुओं का फला अशुभ वायु का फल
104 104 105 105 106 110 |10
112
।[2 112 112 113
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भद्रबाहु सहिता
ऊर्ध्वगामी एवं क्रूर वायु का फल शीघ्रगामी वायु का फल दुर्गन्धित प्रतिलोम वायु का फल सैन्य-बंध एवं सैन्य-पराजय सूचक वायु
दिशा एवं विदिशा के अनुसार वायुफल
विवेचन
Reaf अध्याय
मूल नक्षत्र को बिताकर होने वाली वर्षा
पूर्वाषाढा एवं उत्तराषाढा नक्षत्र की प्रथम वर्षा
नक्षत्र-क्रम से प्रथम वर्षा का फल
श्रावण मास की प्रथम वर्षा का फल विवेचन
ग्यारहवां अध्याय
गन्धर्वनगर के फलादेश कथन की प्रतिज्ञा
- सूर्योदय कालीन गन्धर्वनगर का फल
वर्णों के अनुसार पूर्व दिशा के गन्धर्वनगर का फल
सभी दिशाओं के गन्धर्वनगर का फल
कपिलवर्ण के गन्धर्वनगर का फल राज-विजयसूचक गन्धर्वनगर विविध भयसूचक गन्धर्वनगर
परशासन के आक्रमण की सूचना देने वाले गन्धर्वनगर दक्षिण की ओर भ्रमन करने वाले गन्धर्वनगर का फल
प्रज्वलित गन्धर्वनगर की सूचना
राष्ट्र - विप्लव के सूत्र गन्धर्वनगर राजवृद्धि के सूचक गन्धर्वनगर
वर्षासूचक गन्धर्वनगर
अनेक वर्ण एवं आकार के गन्धर्वनगर विवेचन
बारहवाँ अध्याय मेघगर्भ कथन की प्रतिज्ञा
मेघों के गर्भधारण करने का समय
रात्रि और दिन के गर्भ का फल
पूर्व सन्ध्या और पश्चिम राख्या के गर्भ का फल
113
113
113
114
115
116
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122
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143
143
143
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144
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144
145
145
146
162
163
163
163
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विषयानुक्रम
"मेघों के गर्भधारण के चिह्नों का कथन मेघगर्भ के भेद और उनके द्वारा सूचना
मेघ के मास- गर्भ का फल
सौम्यगर्भ के मास और उनका फल
नक्षत्रों के अनुसार गर्भं का फल विविध वर्ण एवं आकार के मेघगर्भ
विवेचन
तेरहवाँ अध्याय
राजयात्रा के वर्णन की प्रतिज्ञा
· सफल एवं असफल यात्रिक के लक्षण
- यात्रा करने की विधि
यात्रा में विचारणीय निमित्त
चतुरंग सेना में यात्राकालीन निमित्त शनिश्चर की यात्रा का फल
175
175
175
175
176
176
176
177
177
179
182
प्रयाण काल में निमित्तों द्वारा शुभ-अशुभ योग का परिज्ञान प्रयाणकालीन शुभ एवं अशुभ निमित्त
184
निन्दित यात्रा - सूचक निमित्त
186
191
सूर्य नक्षत्रों एवं चन्द्र-नक्षत्रों के अनुसार यात्रा फला प्रयाण काल में बायु परिमाण का विचार
191
प्रयाण-काल में अनेक वस्तुओं के दर्शन के आधार पर शुभ-अशुभ विचार 193 द्विपदादि की विकृत ध्वनि का फल
193
193
195
सेनापति के बचसूचक यात्रा - शकुन नैमित्तिक, राजा, बंध और पुरोहित रूप विष्कम्भ और उसके विश्व नैमित्तिक, राजा, वैद्य और पुरोहित के लक्षण
योग्यनैमित्तिक आदि के होने से राजकार्य में सिद्धि
प्रयाण के समय सेना में कलह या मतभेद से अशुभ फल
प्रयाण के समय मनुष्य, पशु-पक्षियों की आवाज़ पर विचार
युद्ध के उपकरण तथा सन्ध्याकालीन बादलों के विवर्ण होने का फल
मांसप्रिय पक्षियों के अवलोकन का फलादेश
विजातियों के मैथुन में विपरीत क्रिया का फलादेश
गमनकाल में घोड़ों के रंग, आकृति, स्वर एवं अन्य क्रियाओं में विकृति का विचार
89
गमनकाल में हाथी-घोड़ों के विभिन्न प्रकार के दर्शनों का फलादेश विशेष स्थान के अनुसार फलादेश
163
164
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167
167
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196
196
197
198
201
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90
भद्रबाहुसंहिता
204 205
206
222 222 223
223
224 224
225
225
225
2.9
229
230
प्रयाण के समय अन्य विचारणीय बातें राज्य, धर्मोत्सर, कार्य सिद्धि के निमित्तों का निरूपण विवेचन चौदहवां अध्याय उत्पातों के निरूपण की प्रतिज्ञा उत्पात का लक्षण और भेद ऋतुओं के उत्पातों का फलादेश पश-पक्षियों के विपरीत आचरण का फल विकृत सन्तानोपत्ति का फल गद्य, रुधिर आदि वरराने का फल सरीसृप, मेंदय आदि बरसने का फल बिना ईधन अग्नि चः प्रज्वलित होने का फल वृक्षा से रस चूने, मिग्न, वस्त्रयष्टित होने तथा अन्य प्रकार की विकृतियों का विचार देवां के हंग, रोन, नत्य करने आदि का फल मादिशों के हंसने-रोने आदि प्रवृत्ति का विचार अस्त्र-शस्त्रों के शब्दों का फल विना बजाये वादिनों का फल आकाश में अकारण 'कोर शब्द सुनने का फल भमि में अकारण निर्धातित होने तथा वृक्षों के अकारण हरे हो जाने
का फल चीटियों की प्रिया अनुसार फल-विचार राजा क मा, चेंबर, अष्ट प्रादि उपकरण तथा हाथी, घोड़ा आदि वाहनों के भंग होने का फल असमय में पीपल के वृक्ष के पुरिपत होने का फल इन्द्रधनगमायादि हार का फान मन्मोताता का फलादेश जिय, पण दिनिका गवं उपकरणों के उत्पातों का फल नाम :-दोन का पाल
का वर्णनमार फनादेश चादोगान का विचार यहीं . र भेदन या विचार ग्रह-गु को होगात कामान
हा, नहान जादि क्रियाओ का विचार
230
231
231 231
232 232 233 233 234 236 237 238 238 2.38 240
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विषयानुक्रम
242 243 243
246
पृथ्वी के धंसने का फलादेश
241 धूलि, राख, अग्नि प्रादि बरसने वा फलादेश
241 विभिन्न ग्रहों के प्रताडित मार्ग में विभिन्न ग्रहों के गमन का फल निर्जीव पदार्थों के विकृत होने का फलादेश पूजा आदि के स्वयमेव बन्द हो जाने आदि का विचार वक्षों की छाया आदि विकृतियों का बिचार
244 चन्द्रग एवं चन्द्रोल्पातों का फलादेश
244 शिवलिंग के विवाद आदि का फलादेश
245 मंगलकलश के अकारण विध्वंश वा फल
246 नवीन वस्त्रों के अकारण जलने का फल । पक्षियों एवं सवारियों की विकृति का फल
246 घोड़ों के उत्पातों का फल
247 नक्षत्रों के उत्वात का फलादेश
250 उत्पात-शान्ति विचार
252 विवेचन
252 पन्द्रहवां अध्याय ग्रहाचार के निरूपण की प्रतिज्ञा
263 शुक्र ग्रह का महत्त्व
264 शक के उदय और अस्त का सामान्य कथन
264 शुक्र की किरणों के घातित होने का फलादेश
264 शुक्र के मण्डलों और नक्षत्रों के नाम और लक्षण एवं उनमें शुत्र का गमन का फल
265 शुक्र की नाग आदि वीथियों के नक्षत्र
270 शुक्र के वीथि-गमन का फल
270 कृत्तिका आदि नक्षत्रों के उत्तर एवं दक्षिण की ओर से शुक्र के गमन का फलादेश
271 वीथि-मार्ग वार और नक्षत्रों के सहयोग गे शुक्र-गमन का फल
274 सुर्य में शुक्र के विचरण का फल
275 तृतीयादि मण्डलों में शुक्र के विचरण कर पल
275 कृत्तिकादि नक्षत्र तथा दक्षिण आदि दिशाओं में शुक्र के गमन का फलादेश 276 मघा आदि नक्षत्रों में मध्यम गति के शुक्ल का फलादेश
276 वर्षासूतक शुक्र का गमन
277 प्रातःकाल पूर्व में शुक्र और अनुगामी बृहस्पति का फल
277
274
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भद्रबाइसंहिता
288
307
विभिन्न आकार के शुक्र का कृत्तिका आदि नक्षत्रों में गमन करने का फल 278 भुक्र के घात का फल
279 नक्षत्रों के आरोहण और भेदन करनेवाले शुक्र का फल
279 शुक्र के अस्तदिनों की संख्या शुक्र के मार्गों का फलादेश
288 गज, ऐरावण आदि वीथिकाओं का फलादेश
289 शुक्र के विभिन्न वर्गों का फल
290 शुक्र के प्रवास और वक्र होने का फल
291 शुक्र के अतिचार
295 विवेचन
299 सोलहवां अध्याय शनि-चार के वर्णन की प्रतिज्ञा
306 दक्षिण मार्ग में शनि के अस्त होने का काल-प्रमाण
306 शनि के दो, तीन, चार नक्षत्र-प्रमाण गमान करने का फल
307 उत्तरमार्ग में वर्ण के अनुसार शनि का फल
307 मध्यभार्ग में शनि के उदयास्त का फल
307 शनि के दक्षिण मार्ग में ममन का फल शनि की नक्षत्र-प्रदक्षिणा के आधार पर जन्म-फरता
308 शनि के अपसव्य मार्ग में गमन करने वा फल माभि पर चन्द्रपरिवेष का फल चन्द्र और शनि के एक साथ होने का फल शनि के बंध का फल
309 शनि के कृत्तिका पर होने का फल
309 शनि के विविध वर्गों का फल
309 शनि से युद्ध का फल शनि के अस्तोदय का फल
310 विवेचन सत्रहवां अध्याय वहस्पति (गुरु) के वर्ण, गति, आकार, मार्गी, उदयास्त के फलादेश वर्णन की प्रतिज्ञा
317 बृहस्पति के अशुभ मण्डल
317 रहस्पति द्वारा कृत्तिका आदि के बाल का फल
319 बहस्पति द्वारा वायों और साथी कोर नक्षत्रों के अभिधातित होने का फल 323 बृहस्पति द्वारा चन्द्रमा की प्रदक्षिणा का फल
324
308
309
310
310
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विषयानुक्रम'
93
324
325
331 331 332
332
333
333 333 334 335. 336.
चन्द्रमा द्वारा बृहस्पति के आच्छादन का फल विवेचन अठारहवां अध्याय बुध के प्रवास-अस्त, उदय, वर्ण और ग्रयोग के वर्णन की प्रतिज्ञा बुध की सात प्रकार की मतियों और उनका स्वभाव बुध का नियतचार वर्णानुसार बुध का फल बुध की वीथियाँ और पालादेश बुध की कान्ति का फल अन्य ग्रह द्वारा बुध की दक्षिण-बीथि का भेदन बघ की उत्तर-वीथि का भेदन कृत्तिका, विशाखा आदि नक्षत्रों में वध्र के गमन का फल विवेचन उन्नीसवा अध्याय मंगल के चार, प्रवास, वर्ण, दीप्ति आदि के कथन की प्रतिज्ञा मंगल के चार और प्रवास की काल-गणना मंगल के शुभ और अशुभ का विचार प्रजापति मंगल ताम्रवर्ण के मंगल का फल रोहिणी नक्षत्र पर मंगल की चेष्टा का फल दक्षिण मंगल के सभी द्वारों का अवलोकन मंगल के पांच प्रमुख वक्र और उनका फल बागति से मंगल के गमन और नक्षत्रघात का फल अपगति के गमन का फल मंगल के वर्ण, कान्ति और स्पर्श का फल विवेचन मीसा अध्याय राहु-चार के कथन की प्रतिज्ञा राहु की प्रकृति, विकृति आदि के अनुसार शुभाशुभ निमित्त चन्द्रग्रहण का वर्णन राशि तथा समय के अनुसार ग्रहण-फल चन्द्रग्रहण का विभिन्न दृष्टियों से फल चन्द्रग्रहण सम्बन्धी अन्य शकुन
339 340 340 340 340 340
341
341 341 342 345
345
349
3:49
349 351 3:51 356
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94
भद्रबाहुसंहिता
358
365
365
366
370
372
373
विवेचन इक्कीसवाँ अध्याय केतु-वर्णन की प्रतिज्ञा
364 केतृओं चिह्न केतु का वर्ण के अनुसार फलादेश विकृत केतु का फल
366 केतु की शिखा के अनुसार पलादेश
366 गुल्म, विक्रान्त, कबध, मण्डली, मयूर, धूमनोतु धूमकेतु का विशेष फल
367 केतृदय का फल
369 विपथ केत का फल
370 स्वाति नक्षत्र में उहित केस का फल भय उत्पन्न करने वाले तुओं के नाम
371 उत्पात नहीं करनेवाले बेतु
372 केतु-शान्ति के पूजा-विधान की आवश्यकता विवेचन बाईसवाँ अध्याय सूर्य-चार के कथन की प्रतिज्ञा
380 उदय-काल में सूर्य की कान्ति के अनुरूप फल दिशाओं के अनुमार सुदय काल की आकृति का फलादेश शृगी वर्ण के सूर्य का फलादेश
383 अस्तकालीन सूर्य का फल
383 चन्द्र और सूर्य के पर्वकाल का फल
383 विवेचन
384 तेईसवाँ अध्याय चन्द्र-विचार और उसके शुभाशुभ निरूपण की प्रतिज्ञा
387 चन्द्रमा की गोन्नति का विचार
387 चन्द्रमा की आभा और वर्ण विचार
387 चतुर्थी, पंचमी आदि तिथियों में न्द्रमा की विकृति का फल
388 प्रतिपदा आदि तिथियों में चन्द्रमा में अन्य ग्रहों के प्रविष्ट होने का फल 389 चन्द्र-विषम का फल
389 विभिन्न वीथियों और नक्षत्रों में विवर्ण चन्द्र के गमन करने का फल 391 वैश्वानर आदिमागों में चन्द्रमा के विभिन्न प्रकार का फल
392
381 381
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विषयानुक्रम
393
395 395
399 399 400
400
401
401 403 404 405
408 408
चन्द्र द्वारा शनि, रवि आदि ग्रहों के घात का फल क्षीण चन्द्रमा का फल विदेचन चौबीसवाँ अध्याय ग्रहयुद्ध के वर्णन की प्रतिज्ञा यायी संज्ञक ग्रह जय-पराजय सूचक ग्रह चन्द्रघात और राहुयात शुक्रघात ग्रहयुद्ध के समय होने वाले ग्रहवर्गों के अनुसार प.लादेश रोहिणी नक्षत्र के घातित होने का फल ग्रहों की वात-पित्ताति प्रकृतियों का विचार विवेचन पच्चीसवां अध्याय नक्षत्र और ग्रहों के निमितजान की आवश्यकता ग्रहों की आकृति, वर्ण और चिह्नों द्वार। तेजी-मन्दी का विचार ग्रहों के प्रतिपुद्गल मक्षयों के सम्बन्ध के अनुसार विभिन्न ग्रहों द्वारा नेजी-गन्दी एवं
होमाधिकता वा विचार विवेचन हदीसवाँ अध्याय मंगलाचरण स्वप्नदर्शन के कारण वात, पित्त और कफ प्रकृतिबालों द्वारा दृष्ट
स्वप्नों का फल राज्यप्राप्तिमुचक स्वप्न जयसूचक स्वप्न विपत्तिमोचन-सूचक स्वप्न धन-धान्यवृद्धि-गुच। स्वप्न शस्त्रघात, पीड़ा तथा कष्टगुवक स्वप्न स्त्रीप्राप्ति सूचक स्वप्न मृत्युसूचक स्वप्न कल्याण-अकल्याण सुचव स्वप्न धन-प्राप्ति एवं धन वृद्धि सूचक स्वप्न
409
415
416
430
431
431
433
433 434
435
435 436
438
439
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भद्रबाहुसंहिता
प्रथमोऽध्यायः
नमस्कृत्य जिनं वीरं सुरासुरनतक्रमम् ।
यस्य ज्ञानाम्बुधः प्राप्य किञ्चिद् वक्ष्ये निमित्तकम् ॥ ॥ जिनके चरणों में सुर और अगुर नति हुए हैं, ऐसे भी महावीर स्वामी को नमस्कार कर, उनके ज्ञानरूपी समुद्र के आश्रय से मैं निमित्तों का किञ्चित् वर्णन करता हूँ ।। 1 ।।
मागधेषु पुरं ख्यातं नाम्ना राजगृहं शुभम् । नानाजनसमाकीर्ण नानागुणविभूषितम् ॥ 2 ॥
मगध देश के नगरों में प्रसिद्ध राजगृह नाम का श्रेष्ठ नगर है, जो नाना प्रकार के मनुष्यों से व्याप्त और अनेक गुणों से युक्त है ॥ 2 ॥
तत्रास्ति सेनजिद् राजा युक्तो राजगुणेः शुभेः । तस्मिन् शैले सुविख्यातो नाम्ना पाण्डुगिरिः शुभः ॥ 3 ॥
राजगृह नगरी में राजाओं के उपयुक्त शुभ गुणों से सम्पन्न सेनजित् नाम का राजा है । तथा उस नगरी में (पाँच) पर्वतों में विख्यात पाण्डुगिरि नाम का श्रेष्ठ पर्वत है ॥। 3 ॥
नानावक्षसमाकीर्णो नानाविहगसेवितः । चतुष्पदे: सरोभिश्च साधुभिचोपसेवितः ॥ 4 ॥
यह पर्यंत अनेक प्रकार के वृक्षों से व्याप्त है । अनेक पक्षियों का कीडास्थल है ।
1. यह श्लोक मुद्रित प्रति में नहीं है। 2 पद 3. शुभम् 4 शांति
आरे ।
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भद्रबाहुरोहिता
नाना प्रकार के पशुओं की विहारभूमि है, तालाबों से युक्त है और साधुओं से उपसेवित है ।। 4॥
तत्रासीनं महात्मानं ज्ञानविज्ञानसागरम् । तपोयुक्तं च श्रेयांसं भद्रबाहुं निराश्रयम् ।। 5 ।। द्वादमांजर वेतारं निर्गदर्थ महाद्युतिम् । वृत्तं शिष्यः प्रशिष्यश्च निपुणं तत्त्ववेदिनाम् ॥6॥ प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यसूचुः शिष्यास्तदा गिरम् ।
सर्वेषु प्रीतमनसो दिव्यं ज्ञानं बुभुत्सवः ॥ 7 ॥ उस पाण्डुगिरि (पर्वत) पर स्थित महात्मा, ज्ञान-विज्ञान के समुद्र, तपस्वी, कल्याणमूर्ति, अपराधीन, द्वादशाशगि श्रुत के वेत्ता, निग्रंथा, महाकान्ति रो विभूषित, शिप्य-प्रशिग्यों रो युक्त और तत्त्ववेदियों में निपुण आचार्य भद्रबाहु को सिर से . नमस्कार कर राब जीवों पर प्रीति करने वाले और दिव्य ज्ञान के इच्छुक शिष्यों । ने उनसे प्रार्थना की ।। 5-7 ॥
पार्थिवानां हितार्थाय शिष्याणां हितकाम्यया।
आक्काणां हितार्थाय दिव्यं ज्ञानं ब्रवीहि नः ।।8।। राजाओं, भिक्षुओं और भावकों के हित के लिए आप हमें दिव्यज्ञाननिमित्ति ज्ञान का उपदेश दीजिए ।। ४ ।।
शुभाशुभं समुदभतं श्रुत्वा राजा निमित्तत: ।
विजिगीषुः स्थिरमतिः सुखं पाति महीं सदा ॥१॥ यतः शत्रुओं को जीतने का इच्छुक राजा निमित्त के बल से अपने शुभाशुभ को गुनकर स्थिरमति हो मुखपूर्वका सदा पृथ्वी का पालन करता है ।। 94
राजाभिः पूजिता: सर्वे भिक्षवो धर्मचारिणः ।
विहरन्ति निरुद्विग्नास्तेन राजभियोजिताः ॥10॥ धर्मपाल क मगी भिक्ष राजाओं द्वारा पूजित होते हुए और उनकी मेवादि को ! प्राप्त करते हुए निस फुलतापूर्वक लोक ग विचरण करते हैं । ॥ 10 || ___ पापमुत्पातिकं दृष्ट्वा ययुर्देशांश्च भिक्षवः ।
स्फीतान् जनपदांश्चव संश्रयेयुः प्रचोदिताः ॥1॥
1. महाशानं श्री । 2. निरामयम् प० । 3. या दिनम TA. I 4. आचार्यम् म ।। 5. वानररातिम् भ 6. शिक्षणाम् ग । 7. 92fF1: वा । 8.अन्न दिदा मु०।
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प्रथमोऽध्यायः
भिक्षु आश्रित देश को भविष्यत्काल में पापयुक्त अथवा उपद्रवयुक्त अवगत कर वहाँ से देशान्तर को चले जाते हैं तथा स्वतन्त्रतापूर्वक धन-धान्यादि सम्पन्न देशों में निवास करते हैं ॥ ॥ ॥ ॥
श्रावकाः स्थिर संकल्पा दिव्यज्ञानेन हेतुना ।
नाथयेयुः परं तीर्थं यथा सर्वज्ञभाषितम् ।।12।।
1
श्रावक इस दिव्य निमित्त ज्ञान को पाकर दृढसंकल्पी होते हैं और सर्वज्ञकथित तीर्थं धर्म को छोड़कर अन्य तीर्थ का आश्रय नहीं लेते ॥ 12 ॥
सर्वेषामेव सत्वानां दिव्यज्ञानं' सुखावहम् । भिक्षुकाणां विशेषेण परविण्डोपजीविनाम् ॥13॥
यह दिव्य ज्ञान --- अष्टांगनिमित्त ज्ञान राय जीवों को सुख देने वाला है और परपिण्डोपजीवी साधुओं को विशेष रूप से सुख देने वाला है । 13 11
विस्तीर्ण द्वादशांगं तु "भिक्षुवश्चात्पमेधसः । भविता हि बहवस्तेषां चैवेदमुच्यताम् ||14
3
द्वादशांग श्रुत तो बहुत विश्रुत है और आगामी काल में भिक्षु अल्पबुद्धि के धारक होंगे, अतः उनके लिए निमित्त शास्त्र का उपदेश कीजिए ॥ 14 ॥
सुखग्राहं" लघुग्रन्थं स्पष्टं शिष्यहितावहम् । सर्वज्ञभाषितं तथ्यं निमित्तं तु ब्रवीहि नः ।। 5 ।
जो सरलता से ग्रहण किया जा सके, संक्षिप्त हो, स्पष्ट हो, शिष्यों का हित करने वाला हो, सर्वन द्वारा भाषित हो और यथार्थ हो, उस निमित्त शास्त्र का हम लोगों के लिए उपदेश कीजिए || 15
उल्का: समासतो व्यासात् परिवेषांस्तथैव च । विद्युतोऽभ्राणि सन्ध्याश्च मेघान् वातान् प्रवणर्षम् ।।16।। गन्धर्वनगरं गर्भान यात्रोत्पातांस्तथैव च । ग्रहचारं पृथक्त्वेन ग्रहयुद्ध च कृत्स्नतः 1117
वातिकं चाथ स्वप्नांश्च" मुहूर्ताश्च तिथींस्तथा । करणानि निमित्त " च शकुनं परकमेव च ॥18॥॥
au
2.
1. माश्रयेयुः भु० A. 5. भिक्षत्र: स्वल्पमेधसः
13. असून म० । 4. दिज्ञानं । A
। A. 6.
7
8. स्वप्नश्च भू० A. 9. निमित्तार्शन गुरु A. 10. प्राकून पा
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भद्रबाहुसंहिता ज्योतिष केवलं कालं वास्तुदिव्येन्द्र'सम्पदा। लक्षणं व्यञ्जनं चिह्न तथा दिव्यौषधानि च ॥1॥ बलाबलं च सर्वेषां विरोध च पराजयम्। तत्सर्वमानुपूर्वेण प्रणवीहि महामते ! ॥20॥ सर्वानेतान् यथोद्दिष्टान भगवन् वक्तुमर्हसि । प्रश्नान् शुश्रूषवः सर्वे वयमन्ये च साधवः ।।2।।
हे महामते ! संक्षेप और विस्तार से उल्का, परिवेप, विद्य त , अभ्र, सन्ध्या, मेघ, बात, प्रवर्षण, गन्धर्वनगर, गर्भ, यात्रा, उत्पात, पृथवा-पृथक् ग्रह चार, गृहयुद्ध, वातिक-तेजी-मन्दी, स्वप्न, मुहत्तं, तिथि, करण, निमित्त, शकुन, पाक, ज्योतिष, वास्तु, दिव्येन्द्रसंपदा, लक्षण, व्यञ्जन, चिह्न, दिव्योषध, बलाबल, बिरोध और जय-पराजय इन समस्त विषयों का श्रमशः वर्णन कीजिए। हे भगवन् ! जिस क्रम से इनका निर्देश किया है. इसी क्रम से इनका उत्तर दीजिए। हम सभी तथा अन्य साधुजन इ प्रश्नों का उत्तर गुनने के लिए उत्कण्ठित हैं ॥ 16-21 1
इति श्रीमहामुनिनग्रंथ भद्रबाइसंहितायां ग्रन्थांगसंचयो नाम प्रथमोऽध्यायः ।
विवेचन--इस ग्रन्थ में श्रावक और मुनि दोनों के लिए उपयोगी निमित्त का विवेचन आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने किया है। इसके प्रथम अध्याय में ग्रन्थ में विवेच्य विषय वा निर्देश किया गया है। इस ग्रन्य में उन निमित्तों का निरूपण विया है, जिनमें अबलोकन मात्र से कोई भी व्यथित अपने शुभाशुभ को अवगत कर सकता है। अष्टांग निमित्त ज्ञान को आचायों ने विज्ञान के अन्तर्गत रखा है; यतः "मोक्षे धोनिमन्यत्र विज्ञान शिल्ल शास्त्रयो.'' अर्थात्-निर्वाणप्राप्ति सम्बन्धी ज्ञान को ज्ञान और शिल्प तथा अन्य शास्त्र संबंधी जानकारी को विज्ञान कहते हैं । यह उभय लोक की सिद्धि में प्रयोजक है, इसलिए गृहस्थों के समान मुनियों के लिए भी उपयोगी माना गया है। किसी एक निमित्त से यथार्थ का निर्णय नहीं हो सकता । निर्णय करना निमित्तों के स्वभाव, परिमाण, गुण एवं प्रकारों पर भी बहुत अंशों में निर्भर है। यहाँ प्रथम अध्याय में निरूपित वर्ण्य - ....- . .-.. .-------
1. न दियन्द्रगणय ग. A., बासुदेवेन्द्र जी । 2. लग्नं गु। 3. विद्यापधानि च. 14. निवोधय प्राः। 5. भद्रया के निमित 6, गन्धरामया आ.1
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प्रथमोऽध्यायः
विषयों का संक्षिप्त परिभाषात्मक परिचय दे देना भी अनासागेक न होगा।
उहा---"ओषति, उप षकारस्य लत्वं क ततः टाप्'- अर्थात् उष् धातु के षकार का 'ल' हो जाने से क प्रत्यय कर देने पर स्त्रीलिंग में उल्का शब्द बनता है। इसका शाब्दिक अर्थ है तेज:पुज, ज्वाला या लपट । तात्पर्यार्थ लिया जाता है, आकाश से पतित अग्नि । कुछ मनीषी आकाश से पतिर होने वाले उल्काकाण्डों को टूटा तारा के नाम से कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र में बताया गया है कि उल्का एक उपग्रह है। इसके आनयन का प्रकार यह है कि सूर्याक्रान्त नक्षत्र से पंचम विद्युन्मुख, अष्टम शून्य, चतुर्दश सन्निपात, अष्टादश केतु, एकविंश उल्ला, द्वाविंशति कल्प, अयोविंशति बन और चतुर्विशति निघात संजक होता है । विद्युन्मुख, शून्य, सन्निपात, केतु, उल्का, कल्प, वञ्च, और निघात ये आठ उपग्रह माने जाते हैं । इनका आनयन पूर्ववत् सूर्य नक्षत्र मा किया जाता है ।
मान लें कि गुयं कृत्तिका नक्षत्र पर है। यहाँ कृतिका से गणना की तो पंचम पुनर्वसु नक्षत्र विञ्च न्मुख-संज्ञक, अष्टम मा शून्यसाक, चतुर्दश विशाखा नक्षत्र सन्निपात-संजा, अष्टादश पूर्वाषाढ़ केतु-संजक. एकविंशति धनिष्ठा उल्का संज्ञक, द्वाविंशति शतभिषा कल्प-संज्ञक, यांनियति पूर्वाभाद्रपद वन-संज्ञक और चतुर्विशति उत्तराभाद्रपद निघातसंचक माना जायगा। इन उपग्रहों का फलादेश नामानुसार है तथा विशेष आगे बतलाया जायगा ।
निमित्तज्ञान में आग्रह सम्बन्धी उल्का का विचार नहीं होता है । इसमें आकाश से पतित होनेवाले तारों का विचार किया जाता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने उल्का के रहस्य को पूर्णतया अवगत करने की चपटा की है । कुछ लोग इसे Shooting stars टूटयाला नक्षत्र, कुछ fire-bells अग्नि-गोलक और कुछ इरो Astcrvids उपना मानते हैं। प्राचीन ज्योतिषियों का मत है कि वायुमण्डल के ऊध्र्व भाग में ना जैसे कितने ही दीप्तिमान पदार्थ समयसमय पर दीख पड़ते हैं और गगनमार्ग में दायेग म बलत है तथा अन्धकार में लुप्त हो जाते हैं । कभी-नाभी कतिपय वृहदाकार दीप्तिमान पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं; पर वायु की गति से विपर्यय हो जाने के कारण उनके कई खण्ड हो जाते हैं और गम्भीर गर्जन के साथ भूमितल पर पतित हो जाते हैं। उल्काएँ पृथ्वी पर नाना प्रकार आभार में गिरती हई दिखलाई पड़ती है। कभी-कभी निरन आकाश में गम्भीर गर्जन के साथ उल्माया होता है। कभी निमल आकाश में झटिति मेघों के एकत्रित होते ही अन्धकार में भीषण शाहदक साथ उल्कापात होते देखा जाता है। योरोपीय विद्वानों की उल्कापातक सम्बन्ध में निम्न भम्गति है।
(1) तरल पदार्थ र अमे धूम उठता है, वैसे ही उना सम्बन्धी व्य भी अतिशय सूक्ष्म आकार में पृथ्वी न वायुमण्डल के उपस्थ मेध र जा जुटता है
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भद्रबाहुसंहिता
और रासायनिक क्रिया से मिलकर अपने गुरुत्व के अनुसार नीचे गिरता है ।
(2) उलका के समस्त प्रस्तर पर ले भाग गिरि से निकल अपनी गति के अनुसार आकाश मण्डल पर बहुत दूर पर्यन्त चढ़ते हैं और अवशेष में पुन: प्रबल वेग से पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं ।
(3) किसी-किसी समय चन्द्रमण्डल के आग्नेय गिरि स इतने वेग में धातु निकलता है कि पृथ्वी के निकट आ लगता है और पृथ्वी की शक्ति से खिचकर नीचे गिर पड़ता है।
(4) समस्त उस्काएं उपग्रह हैं। ये सूर्य के चारों ओर अपने-अपने कक्ष में घमती हैं। इनमें सूर्य जैसा आलोक रहता है। पवन रा अभिभूत होकर उल्काएं पृथ्वी पर पतित होती है। उल्काएं अनेक आकार-प्रकार की होती हैं।
आचार्य ने यहां पर दादीप्यमान नक्षत्र-गुजो की उल्का सजा दी है, ये नक्षत्रपूज निमित्तसूचक है। इन क पतन के आकार-प्रार, दीरित, दिशा आदि से शुभाशभ का विचार किया जाता है। द्वितीय अध्याय में इसके फलादेश का निरूपण किया जायगा।
परिवेष---"परिता विष्यल व्याप्यतेऽनन" अर्थात् चारा और मा व्याप्त होकर मण्डलाकार हो जाना परिवेष है । यह शब्द विष् धातु से धन, प्रत्यय कर दन पर निष्पन्न होता है। इस शब्द का तात्पर्यार्थ यह है कि सूर्य या चन्द्र की किरणे जव बाय द्वारा मण्डलीभूत हो जाती है तब आकाश में नानावर्ण आकृति विशिष्ट मण्डल बन जाता है, इसी को परिवेष कहते है । यह परिवेष रखत, नील, पीत, कष्ण, हरित आदि विभिन्न रंगों का होता है और इसका फलादेश भी इन्हीं रंगों के अनुसार होता है ।
विद्यप्त---"विशषेण योतत इति वियत्' । धत् धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर विद्यत शब्द बनता है। इसका अर्थ है बिजली, तधित्, सम्पा, सौदामिनी आदि। विद्य तु के वर्ण की अपेक्षा से चार गद मान गय हैं कपिला, अतिलोहिता, सिता और पीता । ऋषिला वर्ष की विधर होने से वायु, लोहित वर्ण की हान से आतप, पीत वर्ण की होने से वर्षण और सित वर्ण की होने से भिक्ष होता है। विद्य दुत्पत्ति का एक मात्र कारण मेध है । समुद्र और स्थल भाग की ऊपरवाली वायु तडित् उत्पन्न करने में असमर्थ है, किन्तु जल के वाष्पीभूत होत हो उसमें विद्युत् उत्पन्न हो जाती है। आचार्य ने इस ग्रन्थ में में वियु त द्वारा विशेष फलादेशक निश्पण किया है।
अभ्र - आकाश के रूप-रंग, आकृति आदि न द्वारा ताफल का निहाण करना अध्र के अन्तर्गत है । अध्र शब्द का अ गगन है। दिनदाह-दिशात्री को
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प्रथमोऽध्याय:
आकृति भी अभ्र के अन्तर्गत आ जाती है।
सन्ध्या -दिवा और रात्रि का जो सन्धिवाल है उसी को सन्ध्या कहते हैं । अर्द्र अस्तमित और अर्द्ध उदित सूर्ग जिस समय होता है, वही प्रकृत सन्ध्याकाल है। यह काल प्रकृत सन्ध्या होने पर भी दिवा और रात्रि एक-एक दण्ड सन्ध्याकाल माना गया है। प्रातः और सायं को छोड़कर और भी एक सन्ध्या है, जिसे मध्याह्न कहते हैं। जिस समय गूर्य आकाश मण्डल के मध्य में पहुँचता है, उस समय मध्याह्न सन्ध्या होती है। यह सन्ध्याकाल सप्तम मुहूर्त ने बाद अष्टम मुहूर्त में होता है। प्रत्येक सन्ध्या का काल २४ मिनट या १ घटी प्रमाण है। संध्या के रूप-रंग, आकृति आदि के अनुसार शुभाशुभ फल का निरूपण इस ग्रंथ में किया जायगा ।
मेघ----मिह धातु मे अच् प्रत्यय कर देने ये मेघ शब्द बनता है। इसका अर्थ है बादल । आकाश में हमें ., श्वेत आदि वर्ण की वायवी जलराशि की रेखा वाषाकार में चलती हुई दिखलाई पड़ती है, इसी को मध (Clourd) कहते हैं । पर्वत के ऊपर कुहासे की तरह गहरा अन्धकार दिखाई देता है, वह मेघ का रूपान्तर मात्र है । वह आकाश में संचित धनीभूत जल-बाप से बहुत कुछ तरल होता है । यही तरल कुहरे की जैगी बाप्प राशि पीछे धनीभूत होकर स्थानीय शीतलता के कारण अपने गर्भस्थ उत्ताप को नष्ट कर शिशिर बिन्दु की तरह वर्षा करती है। मेध और कुहासे की उत्पति एक ही है, अन्तर इतना ही है कि मेघ आकाश में चलता है और कुहामा पृथ्वी पर। मेघ अनेक वर्ण और अनेक आकार के होते हैं । फलादेश इनके आकार और वर्ण के अनुसार वणित किया जाता है। मेघों के अनेक भेद हैं, इनमें चार प्रधान हैं आवतं, संवर्त, पुष्कर और द्रोण। आवर्त मघ निर्मल, संबर्न मेघ बहुजन विशिष्ट, पुष्कर दुरकर-जल और द्रोण शस्त्रपूरक होते हैं । ___ वात-बायु के गमन, दिशा और चत्र द्वारा शुभाशुभ फल बात अध्याय में । निरूपित किया गया है। वायु वा संभार अनेक प्रकार के निमित्तों को प्रकट करने वाला है।
प्रवर्षण • -वर्षा-विचार प्रकरण को प्रवर्पण में रखा गया है। ज्येष्ठ पूर्णिमा के बाद यदि पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में वृष्टि हो तो जल व परिमाण और शुभाशुभ सम्बन्ध में विद्वानों का मत है कि एक साथ गहरा, एक हाथ लम्बा और एक हाथ चौड़ा गड्ढा खोदकर रखे। यदि यह गड्ढा वर्ग के जल से भर जावे तो एक आढ़क जल होता है । वि.सी-किमी का मत है कि जहां तक दृष्टि जाय, वहाँ तक जस दिखलाई दे तो अतिवृष्टि संगझनी चाहिए । बर्षा का विचार ज्येष्ठ की
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भद्रबाहुसंहिता
पुणिमा के अनन्त र आषाढ़ की प्रतिपदा और द्वितीया तिथि की वर्षा से ही किया जाता है।
गन्धर्वनगर--गगन-मण्डल में उदित अनिष्टसूचक पुरविशेष को गन्धर्वनगर कहा जाता है । पुद्गल के आकार विशेष नगर के रूप में आकाश में निर्मित हो जाते है । इन्हीं मगरों द्वारा फलादेश का निरूपण करना गन्धर्वनगर सम्बन्धी निमित्त कहलाता है।
गर्भबताया जाता है कि ज्येष्ठ महीने की शुक्ला अष्टमी स चार दिन तक मेघ वायु से गर्भ धारण करता है। उन दिनों यदि मन्द वायु चले तथा आकाश में सररा मेघ दीख पड़ें तो शुभ जालना चाहिए और उन दिनों में यदि स्वाति आदि चार नक्षत्रों में ऋगानुसार वृष्टि हो तोश्रावण आदि महीनों में वैसा ही वृष्टि योग रामझना चाहिए। किसी-किसी का मत है कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के उपरान्त गर्भदिवस आता है । गर्गादि के भस से अगहन का शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के उपरान्त जिस दिन चन्द्रमा और पूर्वापामा का संयोग होता है, उसी दिने गर्भलक्षण समझना चाहिए । चन्द्रमा के जिस नक्षत्र को प्राप्त होने पर मंघ के गर्भ रहता है, चन्द्रमा र स 195 दिनों में उस गर्भ का प्रसवकाल आता है। शुक्लपक्ष का गभं अष्णपक्ष में, कृष्णपक्ष का शुक्लपक्ष में, दिवस जात गर्भ रात में, रातमा गर्भ दिन म एवं सन्ध्या का गर्भ प्रात: और प्रातः का गर्भ संध्या को प्रसव . वर्षा करता है। मगशिरा और पौष शुक्लपक्ष का ग मन्द फल देनेवाला होता है। पॉप करणपक्ष के गर्भ का प्रमवाल श्रावण शुक्लपक्ष, माघ शुक्लपक्ष के मेध का आवण कृष्णपक्ष, माघ शाणाक्ष के मेघ का श्रावण शुक्लपक्ष, फाल्गुन शुक्लपक्ष के मेवा भागद कागपक्षा, फाल्गुन कृष्णपक्ष व मेध' का आश्विन शुक्लपक्ष, चंन शाम का गबन कृष्णपक्ष एवं चंत्र कृष्ण पक्ष के मे का कार्तिक शुपक्ष बकाल 1 पुर्व का मेघ पश्चिम और पश्चिम का मंध पूर्व में वरराता है। गर्भ में वरिट है। परिज्ञान तथा खेती का विचार किया जाता है। मर ग माया वायुक योग का विचार कर रोना भी आवश्यक है।
यात्रा -- इस प्रकरण में माय स्पसजा की यात्रा का निरूपण किया है । यात्रा के समय में होने वाले मान-शानों द्वारा शुभाशुभ फल निरूपित है। यात्रा के लिए शुभ तिथि, शुभ नक्षण, शुभ वार, शुभ योग और शुभ कारण का होना परमावश्यक है। शुभ समय में यात्रा करने में मीत्र और अनायाग़ ही कार्यसिद्धि होती है।
उत्पात वन विपरीत पनि ना ही 34 :: रात तीन प्रकार के होन दिव्य, अन्तरिक्ष और मा! नक्षत्रों का विकार, उल्का.
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निर्घात, पवन और घेरा दिव्य उत्पात हैं, गन्धर्वनगर, इन्द्रधनुष आदि अन्तरिक्ष उत्पात हैं और चर एवं स्थिर आदि पदार्थों से उतान्न हुए उत्पात भौम कहे जाते हैं।
ग्रहचार—सूर्य, चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु इन ग्रहों के गमन द्वारा शुभाशुभ फल अवगत करना ग्रहवार कहलाता है। समस्त नक्षत्रों और राशियों में ग्रहों की उदय, अस्त, बक्री, मार्गी इत्यादि अवस्थाओं द्वारा फल का निरूपण करना ग्रहवार है। ___ग्राद्ध-मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि इन ग्रहों में से किन्हीं दो ग्रहों की अधोपरि स्थिति होने से किरणे परस्पर में स्पर्श करें तो उसे ग्रहयुद्ध कहते हैं । बृहत्संहिता के अनुसार अधोपरि अपनी-अपनी कक्षा में अवस्थित ग्रहों में अतिदूरत्वनिबन्धन देखने के विष टोन्में जो समता होती है, उसे ही ग्रहमुद्ध कहत हैं । ग्रहयुति और ग्रह युद्ध में पर्याप्त अन्ता है। ग्रहयुति में मंगल, बुध, गुरु, शुक्र
और शनि इन पाँच ग्रहों में से कोई भी ग्रह जब सूर्य या चन्द्र गाथ समय में स्थित होते हैं, तो ग्रहयुति कहलाती है और जब मंगलादि पानी ग्रह भापम में हो समसूत्र में स्थित हो अहह हार ग्रहयुद्ध के चार भेद हैं—उल्लेख, भेद, अंशु विमर्द और अपसव्य। छायामाय से ग्रहों के स्पर्श हो जाने को उल्लेख; दोनों ग्रहों का परिमाण यदि योगफल के आधे से ग्रहद्वय का अन्तर अधिक हो तो उस युद्ध को भेद; दो ग्रहों की किरणों का संघट्ट होना अंशविमर्द एवं दोनों ग्रहों का अन्तर साठ कला से न्यून हो तो उसे अपसव्य कहते हैं।
वातिक या अर्धकाण्ड - ग्रहों के रबरा, गगन, अवस्था राय विभिन्न प्रकार के बाह्य निमित्तों द्वारा वस्तुओं की नजी-मन्दी अवगत गरमा अर्घकाण्ड है।
स्वप्न चिन्ताधास दिन और रात दोनों में गाय कप में चलती है। जानतावस्था की चिन्ताधारा पर हमारा नियन्त्रण रहता है, पर शुग्तावस्था नी चिन्ताधारा पर हमारा नियन्त्रण नहीं रहता है, इसीलिप बामन भी नाना अलंका:मयी प्रतिरूपों में दिखलाई पड़ते हैं। स्वप्न में दर्शन और प्रत्यभिज्ञानुभति के अतिरिक्त शेषानुभूतियों का अभाव होने पर भी मुग्न, युः, श्रोध, आनन्द, भय, ईर्ष्या आदि सभी प्रकार के मनोभाय पाये जाते है । इन भावा क पाये जाने का प्रधान कारण हमारी अज्ञात इच्छा है। स्वप्न द्वारा गाविण्य में घटित होने वाली शुभाशुभ घटनाओं की सुचना अलंकृत भाषा में मिलती। अतः उस अलंथात भापा का विश्लेषण करना ही स्वप्न-विज्ञान का कार्य है। अरसा (Aristotle) ने स्वप्न के कारणों का विश्लपण चारत : लिपिजामा वा गं जिन प्रत्तियों की ओर व्यक्ति का ध्यान नहीं जाता, ने ही शवलिया अनिमित
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भद्रबाहुसंहिता
अवस्था में उत्तेजित होकर मानसिक जगत् में जागरूक हो जाती । अतः स्वप्न में भावी घटनाओं की सूचना के साथ हमारी छिपी हुई प्रवृत्तियों का ही दर्शन होता है। एक दूसरे पश्चिमीय दार्शनिक ने मनोवैज्ञानिक कारणों की खोज करते हुए बताया है कि स्वप्न में मानसिक जगत् के साथ बाह्य जगत् का सम्बन्ध रहता है, इसलिए हमें भविष्य में घटने वाली घटनाओं की सूचना स्वप्न की प्रवृत्तियों से मिलती है। (tr. D. Whitbcy) ने मनोवैज्ञानिक ढंग से स्वप्न के कारणों की खोज करते हुए लिखा है कि गर्मी के कारण हृदय की जो क्रियाएँ जागृत अवस्था में सुषुप्त रहती हैं, वे ही स्वप्नावस्था में उत्तेजित होकर सामने आ जाती हैं। जागृत अवस्था में कार्य-संलग्नता के कारण जिन विचारों की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता है, निद्रित अवस्था में वे हो विचार स्वप्न में सामने आते हैं। विगोरियन सिद्धान्त में माना गया है शरीर आत्मा की कब्र है। निद्रित अवस्था में आत्मा स्वतन्त्र रूप से असल जीवन की ओर प्रवृन होता है और अनन्त जीवन की घटनाओं को ला उपस्थित करता है। अतः स्वप्न का सम्बन्ध भविष्यकाल के साथ भी है। बेबीलोनियन ( Babylonian ) कहते है कि स्वप्प में देव और देवियां आती है तथा स्वप्न में हमें उनके द्वारा भावी जीवन की सूचनाएं मिलती है, अतः स्वप्न की बात। द्वारा भविष्यत् कालीन घटनाएं सूत्रित की जाती है । निलजेम्स (Giljames) नामक महाकाव्य में लिखा है कि वीरों को रात में स्वप्न द्वारा उनके भविष्य की सूचना दी जाती श्री । स्वप्न का सम्बन्ध देवी-देवताओं से है, मनुष्यों से नहीं । देवी-देवता स्वभावतः व्यक्ति में प्रसन्न होकर उसके शुभाशुभ की सूचना दी है।
उपयुक्त विचारधाराओं का गगन्वय करने से यह स्पष्ट है कि स्वप्न केवल अवदगित इच्छाओं का प्रकाशन नही कि भावी शुभाशुभ का युवक है | इ स्वप्न का सम्बन्ध भविष्य में घटने वाला से कुछ भी नहीं स्थापित किया है, पर वास्तविकता दूर है। स्वप्न भविष्य असूनक है। क्योंकि गुषुप्तावस्था में भी आत्मा तो जागृत ही रहती है, केवल इन्द्रियां और मन की शक्तियां विश्राम करने के लिए सुगुप्त सी हो जाती है। अतः मान की मात्रा की उज्ज्वलता से निद्रित अवस्था में जो कुछ देखा है, उसका सम्बन्ध हमारे भूत, वर्तमान और भावी जीवन से है। इसी कारण बचावों के स्वप्न को भूत, भविष्य और वर्तमान का सुनक बताया है ।
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मुहूर्त -- मांगलिक कार्यों के लिए शुभ समय का विचार करना मुहते है | यतः समय का प्रभाव प्रत्येक नेतन सभी प्रकार के पदार्थों पर पड़ता है । अन: गर्भाधानादि पोल संसार एवं प्रतिष्ठा, गृठामा प्रवेश वाला प्रभृति शुभ कार्यों के लिए गुर्त का आश्रय लेना परमावश्यक है।
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तिथि -चन्द्र और सूर्य के अन्तरांशों पर से तिथि का मान निकाला जाता है। प्रतिदिन 12 अंशों का अन्तर सूर्य और चन्द्रमा के भ्रमण में होता है, यही अन्तरांश का मध्यम मान है। अमावास्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियां शुक्लपक्ष की और पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से लेकर अमावास्या तक की तिथियाँ कृष्णपक्ष की होती है। ज्योतिप शास्त्र में तिथियों की गणना शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होती है।
तिथियों की संज्ञाएँ----||611 1 नन्दा, 217112 भद्रा, 31811 3 जया, 4191 14 रिक्ता और 5110115 पूर्णा संजक है 1
पक्षरन्ध्र-4161819112114 तिथियाँ पक्षरन्त्र हैं। ये विशिष्ट कार्यों में त्याज्य हैं।
मासशन्य तिथियाँ --चैत्र में दोनों पक्षों की अग्टमी और नवमी; वैशाग्य के दोनों पक्षों की द्वादशी, ज्येष्ठ में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी और शुक्लपक्ष की त्रयोदशी; आषाढ़ में कृष्णपक्ष की षष्ठी और शाल पक्ष की सप्तमी: थावण में दोनों पक्षों की द्वितीया और तृतीया; भाद्रपद में दोनों पक्षों की प्रतिपदा और द्वितीया; आश्विन में दोनों पक्षो की दशमी और एकादशी; कार्तिक में कृष्ण पक्ष की पञ्चमी और शुक्लपक्ष की चतुर्दशी; मार्गशीर्ष में दोनों पक्षों की सप्तमी और अष्टमी; पौष में दोनों पक्षों की चतुर्थी और पंचमी; मात्र में कृष्णपक्ष की पंचमी और शुक्लपक्ष की षष्ठी एवं फाल्गुन में कृष्णपक्ष की चतुर्थी और शुक्लपक्ष की तृतीया मासशून्य संज्ञक हैं।
सिद्धा तिथियाँ—-मंगलवार को 31811 3, बुधवार को 217112, गुरुवार को 5110115, शुक्रवार को ||611 एवं शनिवार को 418114 तिथियां सिद्धि देन वाली सिद्धा संज्ञका है।
दग्ध, विष और हुताशन संज्ञक तिथियां-विवार को द्वादशी, गोमवार को एकादशी, मंगलवार को पंचमी, बुधबार या तृतीया, गुरुवार को पाठी, शुक्र को अष्टमी, शनिवार को नवमी दग्धा संज्ञयः; रविवार को चतुर्थी, सोमवार को पष्टी, मंगलवार को सप्तमी, बुधवार को द्वितीया, गुरुवार को अष्टमी, शुक्रवार को नवमी और शनिवार को सप्तमी विपरांज्ञक एवं रविवार को द्वादशी, गोमवार को षष्ठी, मंगलवार को सप्तमी; बुधवार को अष्टमी, बृहस्पतिवार को नवमी, शक्रवार को दशमी और शनिवार को एकादशी हुताशनसंशक है। ये तिथियाँ नाम के अनुसार फल देती है।
करण-तिथि के आधे भाग को करण कहत है अर्थात् सिधि में दो करण होते हैं । करण ।। होत : --(1) बब (2) बालव (3) कौलव (4) तैतिल (5) गर (6) वणिज (7) विष्टि (8) शकुनि (9) चतुःपाद (10) नाग और
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(11) किस्तुघ्न। इन करणों में पहले के 7 करण चरसंज्ञक और अन्तिम 4 करण स्थिर संज्ञक हैं।
करणों के स्वामी—वव का इन्द्र, बालब का ब्रह्मा, कौलब का सूर्य, तैतिल का सूर्य, गर की पृथ्वी, वणिज की लक्ष्मी, विष्टि का या, शकुनि का कलि, चतुष्पद का रुद्र, नाग का सर्प एवं किस्तुघ्न का वायु है । विष्टि करण का नाम भद्रा है, प्रत्येक पञ्चांग में भद्रा के आरम्भ और अन्त का समय दिया रहता है।
निमित्त जिन लक्षणों को देख कर भूत और भविष्य में घटित हुई और होने वाली घटनाओं का निरूपण किया जाता है, उन्हें निमित्त कहते हैं । निमित्त के आहद है -(1) व्यंजन तिल, मस्सा, चट्टा आदि को देखकर शुभाशुभ का निरूपण करना पंजा निमित्त ज्ञान है ! (2) मस्तक, हाथ, पाँव आदि अंगों को देखकर शुभाशुभ पहना अंग निमितज्ञान है। 13) मीर अमेत के शब्द गुनकर शुभाशुभ का वर्णन करना स्वर निमित्तशान है। (4) पृथ्वी की चिकनाई और धन को कर पालादेग निरूपण करना गोम निमित्तान है । (5) घरा, सर , मान, आदि को विदा हा देखकर मानभ फल कहना गिन्न निमित्ताज्ञान है । (6) ग्रह, नक्षीक उदयास्त द्वारा फल निक्षपण करना अन्तरि निमनजान है। (7) स्वस्तिक, कलश, , चक्र आदि चिल्लों द्वारा एवं हरतारमा की परीक्षा र फलादेश बतलाना लक्षण निमित्तज्ञान है। (8) स्वप्न द्वारा शुभाशुभ बहना स्वप्न निमितज्ञान है। ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्र में निभिनों व तीन ही भद किये गये है---
जो दिट्ठ भविरसण जे दिट्ठा हमेध कत्ताणं ।
सदसलेन दिसा उस ऐल गाणधिया ।। आपति जी दिखलाई दन बाल fifti, आकाश में दिखला देने वाले निमित्त और शब्द द्वारा मुक्ति होने वाले निमित, इस प्रकार निमित्त क. तीन मन्द हैं।
शकुन -जिसका शुभाशु हा माल किया जाय, वह शकुन है । वसन्तराज शान में बताया गया है कि जिन चिह्नों के देखाने से शुभाशुभ जाना जाय, उन्हें गगन कहा है । जिरा निशिन द्वारा शुभ विषय माना जाय उग शुभ शकुन और जिम द्वारा भ जाना जाय उसे अशुभ मान ही है। दधि, घृत, मूळ,
आतप, ताहुल, 'पूर्ण भ, सिद्धान्त, श्वत माप, चन्दन, , मृत्तिका, गोरोचन, काति, वीणा, फल, पुष, अलंकार, अग्न, ताम्बुल, मान, आसन, ध्वज, छत्र, रा , बसपा, न, गुवर्ण, TI, भूगार, प्रज्वलित बहिन, हरती, छाग, कुश,
प्र, ता. बंग, पान, इन वस्तुओं की गणना शु॥ शनुना में की गई है। पावान समय इनका दर्शन और सपन शुभ माना गया है । यात्राकाल
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में संगीत सुनना, वाद्य सुनना भी शुभ माना गया है । गमनकाल में यदि कोई खाली घड़ा लेकर पथिक के साथ जाय और घड़ा भर कर लौट आये तो पथिक भी कृतकार्य होकर निर्विघ्न लौटता है । यात्रा काल में चुल्लू भर जल से कुल्ली करने पर यदि अकस्मात् कुछ जल गले के भीतर चला जाय तो भी को सिद्धि होती है ।
अंगार, भस्म, काष्ठ, रज्जु, कर्दम- कीचड़, कपास, तुष, अस्थि, विला, मलिन व्यक्ति, लौह, कृष्णधान्य, प्रस्तर, केश, सर्प, तेल, गुड़, चमड़ा, खाली घड़ा, लवण, तिनका, तक्र, शृंखला आदि का दर्शन और स्पर्शन यात्रा काल में अशुभ माना जाता है | यदि यात्रा करते समय गाड़ी पर चढ़ते हुए पैर फिसल जाय अथवा गाड़ी छूट जाय तो यात्रा में विघ्न होता है। मार्जारयुद्ध, मार्जारशब्द, कुटुम्ब का परस्पर विवाद दिखलायी पड़े तो यात्राकाल में अनिष्ट होता है । अतः यात्रा करना वर्जित है । नये घर में प्रवेश करते समय शव-दर्शन होने से मृत्यु अथवा बड़ा रोम होता है ।
जाते अथवा आते समय यदि अत्यन्त सुन्दर शुक्लवस्त्र और शुक्ल मालाधारी पुरुष या स्त्री के दर्शन हों तो कार्य सिद्ध होता है । राजा, प्रसन्न व्यक्ति, कुमारी कन्या, गजारूढ़ या अश्वारूढ़ व्यक्ति दिखलाई पड़े तो यात्रा में शुभ होता है | श्वेत वस्त्रधारिणी; श्वेतचन्दनलिप्ता और सिर पर श्वेत माला धारण किये हुए गौरांग नारी मिल जाय तो सभी कार्य सिद्ध होते हैं ।
यात्राकाल में अपमानित, अंगहीन, नग्न, तैलजिप्त, रजस्वला, गर्भवती, रोदनकारिणी, मलिनवेशधारिणी, उन्मत्त, मुक्तकेशी नारी दिखलाई पड़े तो महान् अनिष्ट होता है । जाते समय पीछे से या सामने खड़ा हो दूसरा व्यक्ति कहे- 'जाओ, मंगल होगा तो पाक को सब प्रकार से विजय मिलती है। यात्राकाल में शब्दहीन श्रृंगाल दिखलाई पड़े तो अनिष्ट होता है । यदि शृगाल पहले 'हुआ हुआ' शब्द करके पीछे 'टटा' ऐसा शब्द करे तो शुभ और अन्य प्रकार का शब्द करने से अशुभ होता है। रात्रि में जिस घर के पश्चिम ओर शृगाल शब्द करे, उसके मालिक का उच्चाटन, पूर्व की ओर शब्द होने से भय, उत्तर और दक्षिण की ओर शब्द करने से शुभ होता है ।
यदि भ्रमर बाई ओर गुन-गुन शब्द कर किसी स्थान में ठहर जाएं अथवा भ्रमण करते रहें तो यात्रा में लाभ, हर्ष होता है। यात्राकाल में पैर में काँटा लगने से विघ्न होता है ।
अंग का दक्षिण भाग फड़कने से शुभ तथा पृष्ठ और हृदय के वामभाग का स्फुरण होने से अशुभ होता है । मस्तक स्पन्दन होने मे स्थानवृद्धि तथा भ्रू और नासा स्पन्दन से प्रियसंगम होता है । चक्षुः स्पन्दन से भृत्यलाभ, चक्षु के उपान्त
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भद्रबाहुसंहिता
देश का स्पन्दन होने से अर्थलाभ और मध्य देण के फड़कने रा उद्वेग और मृत्यु होती है । अपांग देश के फड़कने में स्त्रीलाभ, कर्ण के फड़कने से प्रियसंवाद, नासिका के फड़कने से प्रणय, अधर ओष्ठ के फड़कने से अभीष्ट विषयलाभ, कण्ठ देश के फड़कने से सुम्ब, बाहु के फड़कने से मित्रस्नेह, स्कन्धप्रदेश के फड़कने मे सुख, हाथ के फगवान से प्रनलाभ, पीट के फड़कने से पराजय, और वक्षस्थल के पालने गे जयलाभ होता है। स्त्रियों को कुक्षि और स्तन फड़कने से सन्तानलान, नाभि फड़कने से कष्ट और स्थान-च्युति फल होता है। स्त्री का वामांग और गरुप का दक्षिणांग ही फल निरूपण के लिए ग्रहण किया जाता है ।
पा--- सूर्यादि ग्रहों का फल कितने समय में मिलता है, इसका निरूपण करना ही इरा अध्याय का विषय है।
ज्योतिष ----सुििद ग्रहों के गमन, संचार आदि के द्वारा फल का निरूपण किया जाता है। टममें प्रधानतः ग्रह, नक्षत्र, धमकतु आदि ज्योति पदार्थों का म्वरूप, संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थिति प्रभूति समस्त घटनाओं का निर्माण एवं ग्रह. नक्षयों की गति, यिनि और संचारानुसार णभाशभ फलों का नशन किया जाता है । कतिपय मनोपियों का अभिमत है कि नभोमंडल में स्थित ज्योतिःगम्बन्धी विविध विषयक विद्या को ज्योति विद्या कहते हैं, जिस शास्त्र में इस विद्या का सांगोपांग वर्णन रहता है. यह ज्योतिपशास्त्र कहलाता है ।
वास्तु–वाम स्थान को वास्तु कहा जाता है । वास करने के पहले वास्तु का शुभाशुभ स्थिर करके वाम करना होता है : लक्षणादि द्वारा इस बात का निर्णय करना होता है कि कोग बास्तु शुभकारक है और कौन अशुभकारक । इस प्रकरण में ग्रहों की लम्बाई, चौड़ाई तथा प्रकार आदि का निरूपण किया जाता है ।
दियन्द्र संपदा आमाण की दिव्य विभूति द्वारा 'फग्नादेश का वर्णन करता ही इस अध्याय के अन्तर्गत है।।
लक्षण स विषय में दीपया, दन्त, काठ, श्वान, गो, नुक्कुट, कूर्म, छाग, अश्य, गज, पुरुष, स्त्री, चमर, छत्र, प्रतिमा, पाट्यामन, प्रासाद प्रभूति के स्वरूप गुण आदि का विवेचन किया जाता है। स्त्री और पुरुष के लक्षणों के अन्तर्गत गामुद्रि भाम् । भी आ जाता है। अंगोगांगों की बनावट एवं आकृति द्वारा भी माभ लक्षणों का निम्ाण इम अध्याय में किया जाता है ।
चिह्न विभिन्न प्रकार में शरीर-वाय । शरीगन्तर्गत चिहनों द्वारा शुभाशुभ फल का निर्णय करना बिल के अन्तर्गत आता है । इनमें तिल, मस्सा आदि चिटनों का विचार विशेष रूप में होता है। ___ लग्न-जिस समय में क्रान्तिवृत्त' का जो प्रदेश स्थान क्षितिज वृत्त में लगता है, वही लग्न कहलाता है । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि दिन का
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प्रथमोऽध्यायः
उतना अंश जितने में किसी एक राशि का उदय होता है, लग्न कहलाता है । अहोरात्र में बारह राशियों का उदय होता है, इसलिए एक दिन-रात म बारह लग्न मानी जाती हैं | लग्न निकालने की क्रिया गणित द्वारा की जाती है। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन मे लग्न राशियाँ हैं ।
15
मेष - पुरुषजाति, चर संज्ञक, अग्नितत्त्व, सतपीतवर्ण, पित्तप्रकृति, पूर्वदिशा की स्वामिनी और पृष्ठोदयी है।
वृष -- स्त्रीराशि स्थिरसंशक भूमितत्त्व, शीतल स्वभाव, वातप्रकृति, श्वेतaj, वियमोदघी और दक्षिण की स्वागिनी है।
मिथुन - पश्चिम की स्वामिनी, वायुतत्त्व, हरितवर्ण, गुरुराशि, द्विस्वभाव, उष्ण और दिनवली है ।
कर्क-चर, स्त्रीजाति, सौम्य, कफ प्रकृति, जनचारी, समोदयी, रात्रित्रली और उत्तर दिशा की स्वामिनी है।
सिंह - पुरुषजाति, स्थिरसंशक अदितच्च दिवानी, पित्तप्रकृति पृष्टशरीर, भ्रमणप्रिय और पूर्व की स्वामिनी है।
कन्या - पिंगलवर्ण, स्त्री जाति, द्विस्वभाव, दक्षिण की स्वागिवी, सत्रिवली, वायु-पित्त प्रकृति और पृथ्वीतत्व है ।
तुला - पुरुष, चर, वायुतस्त्र, पश्चिम की स्वामिनी, श्यामवर्ण शीर्णोदयी, दिनवली और क्रूरस्वभाव है
वृश्चिक - स्थिर, शुभ्रवर्ग, स्त्रीजाति, जननस्त्र, उत्तर दिशा की स्वामिनी, कफप्रकृति, रात्रिवली और ही है ।
'
धनु -पुरुष, कांचनवर्ण, द्विस्वभाव क्रूर पिनप्रवृति, दिनवली, अग्नितत्व और पूर्व की स्वामिनी है ।
मकर-चर, स्त्री, पृथ्वीतस्व, वातप्रकृति, पिंगलवणं, रात्रिवली, उच्चाभिलाषी और दक्षिण की स्वामिनी है ।
कुम्भ -- पुरुष, स्थिर, वायुतत्त्व, विचित्रवर्ण, श्रीपदय, अर्द्धजल, त्रिदोष प्रकृति और दिनबली है ।
मीन – द्विस्वभाव, स्त्रीजाति, कफप्रकृति, भलनस्य, राभिवली, पिंगलवर्ण और उत्तर की स्वामिनी है ।
इन लग्नों का जैसा स्वरूप बतलाया गया है, उन लग्नों में उत्पन्न हुए व्यक्तियों का वैसा ही स्वभाव होता है ।
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द्वितीयोऽध्यायः
ततः प्रोवाच भगवान दिग्बासाः श्रमणोत्तमः ।
यथावस्थासु विन्यासं द्वादशांगविशारदः ॥1॥ शिष्यों के उक्त प्रश्नों के किये जाने पर द्वादशांग के पारगामी दिगम्बर श्रमणोत्तम भगवान् भद्रबाहु आगम में जिस प्रकार से उक्त प्रश्नों का वर्णन निहित है उसी प्रकार से अथवा प्रश्नकम से उत्तर देने के लिए उद्यत हुए। 111
भवद्भियदहं पृष्टो निमित्त जिनभाषितम् ।
समासपासत: सर्व तन्निबोध यथाविधि ॥2।। आप सबने मुझमे यह पूछा कि "शुभाशुभ जानने के लिए जिनेन्द्र भगवान मे जिन निमितों का वर्णन किया है, उन्हें बतलाओ।" अतः मैं संक्षेप और विस्तार गे उन सबका यथाविधि वर्णन करता हूं, अवगत करो ॥ 2 ॥
प्रकृतेर्यो न्यथाभावो विकार: सर्व उज्यते ।
एवं विकारे' विज्ञेयं भयं तत्प्रकते: सदा ॥3॥ प्रकृति का अन्यथाभाव विचार कहा जाता है। जब कभी तुमको प्रकृति का विपार दिखलाई पड़े तो उस पर से ज्ञात करना कि यहां प्रा भय होने वाला है। 3 ।।
य: प्रकृतविपर्यासः प्रायः संक्षेपत उत्पातः ।
क्षिति-गगन-दिव्यजातो यथोत्तर गुरुतरं भवति ॥4॥ प्रकृति के विपरीत घटना घटित होना उत्पात है। ये उत्पात तीन प्रकार के होते हैं. भौनिक, अन्तरिक्ष और दिव्य ! क्रमपा: उत्तरोतर ये दुःखदायक तथा काठिन होते हैं ।। 4 ।।
उल्कानां प्रभवं रूपं प्रमाण फलमाकृतिः ।
यथावत् संप्रवक्ष्यामि तन्निबोधय तत्वत: ।।5।। उल्माओं की उत्पत्ति, रूप, प्रमाण, फल और आकृति का यथार्थ वर्णन करता हूँ। आप लोग यथार्थ रूप से इभे अवमत करें ।। 5॥
I. विपास म । 2. विधारी विज्ञ ग HAI 3. रा प्रकोरन्यथा गमः मु. AI 4. या लोकः मद्रिनाल में नही । 5. गथाबन्धं ना.. | 6. निबंधित मा ।
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द्वितीयोऽध्यायः
भौतिकानां शरीराणां स्वर्गात् प्रच्यवतामिह ।
सम्भवश्चान्तरिक्षे तु तज्जैरुल्केति संज्ञिता ॥6॥ भौतिक-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच भृतों से निष्पन्न शरीरों को धारण किये हुए देव जब स्वर्ग से इस लोक में आते हैं, तब उनके शरीर आकाश में विचित्र ज्योति-रूप को धारण करते हैं; इसी ज्योति का नाम विद्वानों ने उल्का कहा है ।। 6 ।।.
तत्र तारा तथा धिणा विधुच्चाशनिभिः सह ।
उल्का विकारा बोद्धव्या 'निपतन्ति निमित्ततः।।7।। तारा, धिण्य, विद्य त् और अशलिये मब उFT के विकार हैं और ये निमित पार गिरते हैं ।। 7 ।।
ताराणां च प्रमाण छ धिष्ण्यं तद्विगुणं भवेत ।
विद्युद्विशालकुटिला रूपत: क्षिप्रकारिणी ॥8॥ तारा का जो प्रमाण है उगसे लम्बाई में दुना धिण्य होता है। विद्य त् नाम __ताली उल्का बड़ी, कुटिल–टेडी-मेटी और शीनगागिनी होती है। ।। 8 ।।
अशनिश्चक्रसंस्थाना दीर्घा भवति रूपतः।
पौरुषी तु भवेदुल्का प्रपतन्ती विवर्द्धते ॥9॥ अशनि नाम की उनका चक्राकार होती है । पौरुगी साम की उल्का स्वभाव से लम्बी होती है तथा गिरते समय बढ़ती जानी है ।। 9 ।।
चतुर्भागफला तारा प्रष्ण्यमर्थफल भवेत् ।
पूजिताः पद्मसंस्थाना मांगल्या ताश्च भूजिता: ॥1011 तारा नाम की उल्का का फल चतुर्थाश होता है, धिम्य रांजक उल्का का फल आधा होता है और जो उल्का कालाकार होती है वह गुना योग्य तथा मंगलकारी होती है ।। 10 ||
पापाः "घोरफलं दधुः शिवाश्चापि शिवं फलम् । व्यामिश्राश्चापि व्यामिश्र यो : प्रतिपदगला: ।।1।।
1. ते पतन्ति मु० । 2. तारातार। मु० । 3. तु मा । 4. क्षिप्रनारिणि म.. । 5. रक्ता पीतास्तु मध्यास्तु श्वेता: स्निग्धास्तु पूजिता: गु० । 6. पापफलं मा० ।
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भद्रबाहुसंहिता
पापम्प उल्काएँ घोर अशुभ फल देती हैं तथा शुभ रूप उल्काएं शुभ फल देती हैं । शुभ और अशुभ मिथित उल्काएं मिश्रित उभय रूप फल प्रदान करती। हैं । इन पुद्गलों का ऐसा ही स्वभाव है ।। 1 ||
इत्येतावत् समासेन प्रोक्तुमुल्कासुलक्षणम् ।
पृथक्त्वेन प्रवक्ष्यामि लक्षणं व्यासतः पुनः ।। 2॥ यहाँ तक उल्काओं के संक्षेप में लक्षण कहे, अब पृथक-पृथक पुन: विस्तार से वर्णन करता हूँ 11 12॥
इति श्रीभद्रबाहूसंहितायामुल्कालक्षणो द्वितीयोऽध्यायः । विवेचन - प्रकृति का विपरीत परिणमन होने ही अनिष्ट घटनाओं के घटने की संभावना ममस लेनी चाहिए । जब तक प्रकृति अपने स्वभावरूप में परिणमन करती है, तब तपः अनिष्ट होने की आशंका नहीं। मांहिता ग्रंशा म प्रकृति को इप्टानिष्ट गूचक निभिन्न माना गया है 1 दिशाएं, आकाश, आतप, वर्धा, नांदनी, पेड़-पौधे, पक्षी , उपा, सन्ध्या आदि गनी निमिसगुचक है। ज्योतिष शास्त्र में इन भी निमितों द्वारा भावी इटानिष्टो की विवेचना की गई है। इस द्वितीय अध्याय में उसकात्री के स्वरूप का विवेचन किया गया है और इनका फलादेश तृतीय अध्याय में वणित है। प्रधान प्रथम अध्याय के विवेचान में उताओं के स्वमा का गंक्षिप्त और गामान्य परिचय दिया गया है, तो भी यहाँ संक्षिप्त । विवेचन करना अभीष्ट है।।
त को प्राय: जो तारे टूटार गिरते हुए जान पड़ते हैं, ये ही उल्काएँ हैं। अधिगण उल्का हमारे वायुमण्डल में ही गरम हो जाती है और उनका कोई अंश पृथ्वी तक नहीं आ पाता, पन्तु कुछ उल्काएँ बड़ी होती है। जब वे भूमि पर गिरती हैं, तो उनमे प्रचण्ड ज्वाना गी निकालती है और भारी भूमि उस ज्वाला में प्रशित हो जाती है। वायु को चील हए भयानकः वेग से उनके चलने का गब्द कोगों तक सुनाई पड़ता है, और पृथ्वी पर गिरने की धमक भूकम्पनी जान पड़ती है। कहा जाता है गि: आरम्भ में उल्कापिण्ड एक सामान्य ठण्टे प्रस्तार-
डिग रहता है। यदि यह वायुमगल में प्रविष्ट हो जाता है सोमाण कारण उगमें भयंकर ताप और प्रकाश उत्पन्न होता है, जिसमें वह जल उरता है और भीगण गति मे दोरता हुआ अन्त में गग्य हो जाता है और जब यह वायुमपान में रान नहीं होता, जब पृथ्वी पर गितार भयानक दृश्य उत्पन्न कर देता है ।
मामा के गगन का मार्ग नक्षत्र कक्षा के आधार पर निश्चित किया जाय
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तो प्रतीत होगा कि बहुतेरी उल्लाएँ एक ही बिन्द्र से चलती हैं, पर आरम्भ में अदृश्य रहने के कारण वे हमें एक बिन्दु से आती दुई नहीं जान पड़तीं। केवल .उल्का-झड़ियों के समान ही उनके एक विन्दु में चलने का आभाग हमें मिलता है । उस बिन्दु को जहाँ से उल्का चलती हुई मालम पड़ती हैं, संगात मूल कहते हैं । आधुनिक ज्योतिष इलाओं को बेतुओं के रोड़े, टुकड़े या अंग मानता है। अनुमान किया जाता है कि केतुओं के मार्ग में असंख्य रोडे और ढाक बिखर जाते हैं। सूर्य गमन करते-मरने जब इन रोड़ों के निकट से जाता है तो ये रोड़े टकरा जाते हैं और उल्का के रूप में भूमि में पतित हो जाने हैं। उल्काओं की ऊंचाई पृथ्वी से 50-73 मील के लगभग होती है । ज्योतिषशास्त्र में इन उल्काओं का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है । इनक पतन द्वारा शुभाशुभ का परिधान किया जाता
उस्का के ज्योतिष में पाँच गद है.---धिरण्य!, उवा, नि, विद्युत् और नारा। उल्का का 15 दिनों में, धिया और अर्थान का .15 दिनों में एवं तास और विद्युत का छ: दिनों में फल प्राप्त होता है । अनि का आकार चक के समान है, यह बड़े शब्द के माथ पृथ्वी पाती हुई मनु, गज, अश्व, मृग, पत्थर, गृह, वृक्ष और पशुओं के सर गिरती है। तहत नब्द करती हई विद्य त् अचानक प्राणियों को त्रास उत्पन्न करती हुई कुटिल और विशाल में जीवों और ईंधन के ढेर पर गिरती है। । पतन्नी छोटी गूंछबाली धिया जलत हए अंगारे के समान चालीरा हाथ तक दिखलाई देनी है । गकी नम्बाई दो हाथ को होती है। तारा ताँबा, कंगन, तारकप और शुक्ल होती है, इसकी चौड़ाई एक हाथ और विचती हुई-गी में तिरछी या आधी उठी हा ममन करती है। प्रतनुपृच्छा विशाला या गिरने-गिख बढ़ती है, परन्तुगकी पंछ छोटी होती जाती है, इसकी दीर्धता पुरुप वः सगानी है, इसके अनरः भेद हैं। कभी यह प्रेत, शास्त्र, खर, परम, ना, बन्दर, नीदण दतवान्न जीव और मग के ममान आकारवाली हो जाती है ! की गोह, गाग भीर अमाप वाली हो जाती है। कभी यह दो सिर वाली दिपना गती है। यह उपा पापमय मानी गई है।
कभी ध्वज, मत्स्य, हाथी, पर्वत, यामल, चन्द्रमा, अण्व, तारज और सके समान दिखलायी पड़ती है, यह उल्का भनारक प्रमामयी है। श्रीवत्स, बा, शंख और स्वस्तिक रूप में प्रकाशित होने वाली जमा पायाणयारी जोर भिक्षदायक है। अनेक वर्णवाली उल्काएँ आकाश में निरन्तर प्रमण करती रहती हैं।
जिन उल्काओं के सिर का भाग मकर के समान और पंछ गाय के समान
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भद्रबाहुसंहिता
हो, वे उल्काएँ अनिष्ट सुचक तथा मनुष्य जाति के लिए भयप्रद होती है । चमक। या प्रका गवाली छोटी-छोटी उल्काएं--जिनका स्वरूप धिष्ण्या के समान है, किसी महत्त्वपूर्ण घटना की सूचना देती हैं। तार के समान लम्बी उल्काएं। जिनका गगन सम्पात विन्दु में भूमण्डल तक एक-सा हो रहा है, बीच में किसी । भी प्रकार का विराम नहीं है, वे व्यक्ति के जीवन की गुप्त और महत्त्वपूर्ण बातों । को प्रकट करती है। तार या लड़ी रूप में रहना उसका व्यक्ति और समाज के । जीवन की शृखला की सूचक है । सूची रूप में पड़ने वाली उल्का देश और राष्ट्र के उत्थान की सूचिका है।
इधर-उधर उठी हुई और विखलित उल्काएँ आन्तरिता उपद्रव की मूचि है । जब देश में महान् अशान्ति उत्पन्न होती है, उस समय इस प्रकार की छिट-फट गिरती पड़ती उल्काएं दिखलायी पढ़ती है। उल्काओं का पतन प्राय: प्रतिदिन होता है । पर उनसे इटानिष्ट की सूचना अवसर विशेषों पर ही मिलती है।
उल्बाओं का फलादेश उनकी बनावट और रूप-रंग पर निर्भर करता है। । यदि उल्का फीकी, रेवल तारे की तरह जान पड़ती है तो उसे छोटी उल्का या टूटना ताग कहते हैं । यदि उल्का इतनी बड़ी हुई कि उसका अंश पृथ्वी तक पहुँच जाय तो उसे उल्का प्रस्तर कहते हैं और यदि उल्या बड़ी होने पर भी आकाश ही में फटकर चूर-चूर हो जाए तो उसे साधारणतः अग्निपिण्ड कहते हैं। छोटी उल्काएँ महत्वपूर्ण नहीं होती हैं, इनके द्वारा किसी खास घटना की सूचना नहीं मिलती है। ये केबल दर्शक व्यक्ति के जीवन के लिए ही उपयोगी सूचना देती है। बड़ी-बड़ी उल्याओं का सम्बन्ध माट्र रा है, ये 'ट्र और देश के लिए उपयोगी सुचनाएँ देती है। यद्यपि आधुनिक विज्ञान उल्का-पतन को मात्र प्रकृतिलीला मानता है, किन्तु प्राचीन ज्योतिषियों ने इनका सम्बन्ध वैयक्तिक, सामाजिया और राष्ट्रीय जीवन के उत्थान-पतन के साथ जोड़ा है।
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तृतीयोऽध्यायः
नक्षत्रं यस्य यत्पुंसः पूर्णमुल्का प्रताडयेत् ।
भवं तस्य भवेद घोरं यतस्तत् कम्पते हतम् ॥ ॥ ॥ ॥
जिस पुरुष के जन्म-नक्षत्र को जामन्यव को संत्रता से ताड़ित करे उस पुरुष को घोर भय होता है। यदि जन्म नक्षत्र को कम्पायमान करे तो उसका घात होता है ॥ 1 ॥
अनेकवर्ण नक्षत्रमुल्का हन्युर्यदा समाः । तस्य देशस्य तावन्ति नान्युग्राणि निर्दिशेत् ॥ 21
जिस वर्ष जिस देश के
देश या ग्राम को उम्र भय होता है ॥ 2 ॥
अनेक वर्ण की उसका आघात करे तो उस
।। 5 ।।
येषां वर्णेन संयुक्ता सूर्यादुल्का प्रवर्तते । तेभ्यः संजायते तेषां भयं येषां दिशं पतेत् ॥3॥
सूर्य से मिलती हुई उल्का जिंग वर्ण से युक्त होकर जिस दिशा में गिरे, उस दिशा में उस वर्ण वाले को वह दोर भय करने वाली होती है || 3 ||
नीला पतन्ति या उल्काः सस्यं सर्वं विनाशयेत् । त्रिवर्णा त्रीणि घोराणि भयान्युत्का निवेदयेत् ॥4॥
यदि नीलवर्ण की उल्का गिरे तो वह सर्व प्रकार के धान्यों को नाश करती है अर्थात् उनके नाश की सूचना देती है और यदि तीन वर्ष की उल्का गिरे तो तीन प्रकार के घोर भयों को प्रकट करती है ॥ 4 ॥
विकीर्यमाणा कपिला विशेष वाससंस्थिता ।
खण्डा भ्रमत्यों" विकृताः " सर्वा उल्काः भयावहाः ॥ बिखरी हुई कपिल वर्ण की विशेषकर वामभाग में गगन करने वाली, घूमती हुई, खण्डरूप एवं विकृत सन्काएँ दिखाई दें तो वे सब भय होने की सूचना
कारती
हैं
उल्काशनिश्च धिष्णां च प्रपतन्ति यतो मुखाः । तस्यां दिशि विजानीयात् ततो भयमुपस्थितम् ।।6।।
उल्का, अर्णान और विष्ण्या जिस दिशा में मुख में गिरे तो उस दिशा में भय की उपस्थिति अवगत करनी चाहिए |
॥
1. ÁFANY® B. C 12. WEL
C 13 Apung Ci
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भद्रबाहुसंहिता
सिंह- व्याघ्र - वराहोष्ट्र श्वानद्वीपि - खरोपमाः । शूलपट्टिशसंस्थाना धनुर्वाणगदा पयाः ॥7॥ पाशवज्र । सिसदृशाः परश्वधंन्दुसन्निभाः । गोधा - सर्प- शृगालानां सदृशाः शल्यकस्य च ॥४॥ मेबाज महिषाकाराः काका कृतिवृकोपमाः । शश' मार्जार- सदृशाः पक्ष्यकोदग्रसन्निभाः ॥५॥ ऋक्ष-वानरसंस्थानाः कबन्धसदृशाश्च याः । अलातचक्रसदृशा "वक्राक्षप्रतिमाश्च' या: # uron शक्तिलाङ गुलसंस्थाना" यस्याश्चोभयतः शिरः । स्त्रास्तन्यमाना नागाभाः प्रपतन्ति" स्वभावतः ॥ ३॥
B
सिंह, व्याघ्र, चीता, शुकर, ऊँट, कुला, तेंदुआ, गदहा, त्रिशूल, पट्टिण-एक प्रकार का आयुध, धनुष, बाण, गदा, फरसा, वज्र, तलवार, फरसा अन्द्राकार कुल्हाड़ी, गोह, सर्प, शृगाल, भाला, मेढ़ा, बकरा, भैसा, कौआ, भेड़िया, खरगोश, बिल्ली, अत्यन्त ऊँध उड़नेवाले पक्षी - गुद्ध आदि, रीछ बन्दर, सिर कटे हुए धड़, कुम्हार का चाक, टेढ़ी आंखवाला, शक्तिआयुध विशेष, हल इन सबके आकार वाली और दो सिरवाली तथा हाथी के आकारवाली उल्काएं स्वभाव से गिरती है ।। 7- 1 ।।।
उल्काऽशनिश्च विद्युच्च सम्पूर्ण कुरुते फलम्
पतन्ती जनपदान् त्रीणि उल्का तीव्र " प्रबाधते ||12||
उल्का, अर्थानि और विद्यत् ये तीनों पूर्ण फल देती हैं और इन तीनों के गिरने से देशवासियों को पूर्ण बाधा होती है ||2||
यथावदनुपूर्वेण तत् प्रवक्ष्यामि तत्त्वतः । अग्रतो देशमार्गेण मध्येनानन्तरं ततः ॥13॥ पुन पृष्ठतो देशं पतन्त्युल्का विनाशयेत् । मध्यमा न प्रशस्यन्ते नभस्युल्काः पतन्ति याः ॥14॥
1. grupa 2 mix. go 3 ganz
4
7.
pervar qe 15. WAR A 16. TRES C C 19.84 11. प्रबोधते भु ABP
44
10.
verdiktafon, 1
C P). 1
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तृतीयोध्यायः
पूर्व परम्परा के अनुसार फलादेश का निरुपण करता हूँ । यदि उल्ला अग्रभाग से गिरे तो देश के मार्ग का नाश करती है। यदि मध्यभाग से मिरे तो देश के मध्यभाग के और पूंछ भाग से गिरे तो देश के पृष्ठ भाग के विनाश की सूचना देती है । मध्यम-समान साधारण अवस्थावाली उल्का का घनन भी प्रशस्त नहीं होता है ।।13-1411
23
स्नेहवत्योऽन्यगामिन्यो प्रशस्ताः स्युः प्रदक्षिणाः । उत्पादि पतेविना 'पक्षिणमहिताय सा ।। 150 मध्यम उल्का स्नेहयुक्त होती हुई दक्षिण मार्ग से गमन करे तो वह प्रशस्त है और चित्र-विचित्र रंग की मध्यम उत्काएँ वाम मार्ग से गमन करे तो पक्षियों के लिए अहित कारक होती हैं ॥ 5॥
श्याम-लोहितवर्णा च सद्यः कुर्याद् महद्भयम् । उल्कायां भस्मवर्णायां पर गमो भवत् ॥6॥ काली और कालवर्ण की उल्का गिरे तो वह गोत्र ही महाभय की है तथा भस्मवर्ण को उसका परच का आना सूचित करती है || 1 || अग्निमग्निप्रभा कुर्याद् व्याधिमञ्जिष्ठसन्निभा । नोला कृष्णा च धूम्रा च शुक्ला वाऽसिसमद्युतिः ॥17॥ उल्का नीचैः समा स्निग्धा पतन्ति भयमादिशेत् ॥17॥
सूचना देती
शुक्ला रक्ता च पीता च कृष्णा चापि यथाक्रमम् । चतुर्वर्णा विभक्तव्या साधुनोक्ता यथाक्रमम् ॥8॥
अग्नि की प्रभावशाली उसका अग्नि का भय करती है। मंजिल के रागान रंगवाली उल्का व्याधि की सूचना देती है। नील कृष्ण, धूम्र तलवार क समान तिवानी उल्का नीच प्रकृति जधम होती है। स्निग्ध उल्का राम प्रकृतिवाली होती है। शुक्न, खत, गीत और कृष्ण इन यांवाली उल्का क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ण में विभाजित समझनी चाहिए। से चारों वर्णवाली उल्काएँ क्रमशः ब्राह्मणादि चारों वर्णो को भय की सूचना देती है, ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है | अभिप्राय यह है कि श्वेतवर्ण की उलाह्मण संज्ञक है, इसका फलादेश ब्राह्मण वर्ण के लिए विशेष रूप से और सामान्यतः अन्य वर्णवालो को भी प्राप्त होता है। इसी प्रकार रक्त से क्षत्रिय, गीत ग वैश्य और कृष्ण से सूवर्ण के लिए प्रधानतः फल और गौण रूप से अन्य वर्णवालों को भी फलादेश प्राप्त होता है ।117-18।
12. दक्षिण A. D. 13. महा मु० C. 4. एणं afana go, B. vad vi kan so kùa, yo D.
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भद्रबाहुसंहिता उदीच्या ब्राह्मणान् हन्ति प्राच्यामपि च क्षत्रियान्।
वैश्यान् निहन्ति याम्यायां प्रतीच्यां शूद्रघातिनी ॥19॥ यदि उल्का उत्तर दिशा में गिरे तो ब्राह्मणों का घात करती है, पूर्व दिशा में गिरे तो क्षत्रियों का, दक्षिण दिशा में गिरे तो वैश्यों का और पश्चिम दिशा में गिरे तो शुद्रों का घात करती है 1119।।
उल्का रूक्षेण वर्णन स्वं स्वं वर्ण प्रबाधते।
स्निग्धा चैवानुलामा च प्रसन्ना च न बाधते ॥20॥ जाका रूक्ष वर्ष से अपनाने की जाती हैं- श्वेतवर्ण की होकर रूक्ष हो तो ब्राह्मणों के लिए बाधासूचक, रक्तवर्ण की होकर रूक्ष हो तो क्षत्रियों को बाधासूचक, पीतयणं की होकर रूक्ष हो तो बैंश्यों को बाधासूचका और कृष्णवर्ण या होकर रूक्ष हो तो शुद्रों को बाधासुचक होती है। स्निग्ध और अनुलोम--सव्यमाग तथा प्रसन्न उल्का हो ना शुभ होन स अपने-अपने वर्ण को बाधा नहीं देती है ।। 2011
या चादित्यात पतेदुल्का वर्णतो वा दिशोऽपि वा।
तं तं वर्ण निहन्त्याशु वैश्वानर इवाचभिः ॥2॥ जो उल्ला सूर्य से निकलकर जिरा वर्ण की होकार जिस दिशा में गिरे उस वर्ण और दिशा पर से उसी-उसी वर्णवाल को अग्नि बी ज्वाला के समान शीघ्र नाश करती है ।।211
अनन्तरां दिशं दीप्ता येषामुल्काग्रत: पतेत् ।
तेषां स्त्रियश्च गर्भाश्च भयमिच्छन्ति दारुणम् ॥2॥ यदि जल्या अन्य हित दिशा को दीत ती हुई अनाग में गिरती स्त्रियों और गभी को भयानर, भय करता है अर्थात् गर्भवास की मुचि है !12 2।।
कृष्णा नीला च रूक्षाश्च प्रतिलोमाश्च गहिताः।
पशुपक्षिसुसंस्थाना भैरवाश्च भयावहाः ॥23॥ सण अथवा नील वर्ण की सलका प्रतिलोम---उन यांत अरसन्य माग-- या स गिरे तो निन्दित है। यदि प.-"TT बाला हो तो गयोत्पादक होती ह ॥2311
अनुगच्छन्ति याश्चोलका बाह्यास्तल्का समन्ततः ।
वसानुसारिणो नाम सा त राम विनाशय ॥2411 I. .in वर्णन भ. 1 2. या २iti! | 3.4. मr !! . . ! 5. वर्णानुसाई या भु।
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तृतीयोऽध्यायः जो उल्का मार्ग में गमन करती हुई आरा-पाम में दुसरी उवाओ रो भित्र जाय, यह वत्सानुसारिणी (बच्चे की आकावाली) उल्का नही जाती है और एसी उल्का राष्ट्र का नाश सूचित करती है ।। 2411
रक्ता पीता नभस्युल्काश्चेभ-नक्रेगह। सन्निभाः। अन्येषां गहितानां च सत्त्वाना सदृशास्तु याः ।।25।। उल्कास्ता न प्रशस्यन्ते विपतन्त्य: सुदारुणाः ।
यासु प्रपतमानासुः मृगा विविधमानुषाः ।।261 आकाश में उत्पन्त होती हुई जो उल्का हाथी और नक (गगर) के आकार तथा निन्दित प्राणियों के आकारबाली होती है, वह जहां गिर वही दारुण अशुभ फल की सूचना करती है और मृगों तथा विविध गनुप्यों को घार वट देसी है ।।25-26।।
शब्द मुञ्चति दोप्तासु दिक्षु चासन्न काम्यया। ऋयादाश्चाऽशु दृश्यन्त या खरा विकृताश्च याः ॥27॥ सधूम्रा या सनिर्घाता उल्कायाघ्रमवाप्नुयुः । सभूमिकम्पा परुषा रजस्विन्योऽपसव्यमाः ॥28॥ ग्रहानादित्यचन्द्र च या: स्पशन्ति दहन्ति वा।
परचक्रभयं' घार क्षुचाव्याधिजनलयम् ॥29॥ जो उल्का अपने द्वारा प्रदीप्त दिशाओं में निकट कानदान शन्द भारती . गड़गड़ाती हुई मांसभक्षी जीया का मान शीता गदिमा बचा जा का रूक्ष विकृतरूप धारण करती हुई धूमवाली, शाहिद, -." या Fir, भूमि को कंपाती हुई, कठोर, धूल राती दुर जा
रहा है, ग्रह। तथा सूर्य और चन्द्रमा को हानी हुई या जलापता हु वो परे- गर ।। वह पर चक्रमा घोर भग उपस्थित कारती है या शुधा-ग- ... A itल, महामारी और मनुष्यों के नाश होने की सूचना देती है 1127-29।।
एवं लक्षणसंयुक्ता: कुर्वन्त्युल्का महाभयम् । अष्टापदवदुलकाभिदिशं पश्येद् "यदा वृतम् ॥3॥ युगान्त इति विख्यातः। षडमासेनोपलभ्यते।
पदम मोक्षवन्द्रार्कलेद्यावबिटोपम: ॥३।। 1. येनपागन भु । 3.3. AT: H A | 4. [.. ! 5 min . 1 6. भापते आ. 1 7. उत्पाश्नानमः . 8. काय मापु. C 19. :पमा प्रा । 10. दिग बा० । 11. बदावमा । 12. .. | [3. मनाया मु. ।
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भद्रबाहुसंहिता
वर्द्धपानध्वजाकारा: पताकामत्स्यकर्मवत । वाजिवारणरूपाश्च शंखवादित्रछत्रवत् ॥3211 'सिंहासन रथाकारा रूपपिण्डव्यवस्थिता.।
रूरतः प्रशस्यन्ते सुखमुल्का: समाहिताः ।।33॥ उपर्णात नक्षणयुक्त उल्या महान् मय उत्पन्न करती है। यदि अष्टापद के रामानमा दटिगोचर हो तो छह मास में युगात की सुचिका समझनी चाहिए। यदि म...श्रीवा, चन्द्र, मुयं, नन्द्यावतं, कलश, वृद्धिगत होने वाले ध्वज, पताका, 11. FI, अपच, हरनी, अग्न, वादिन, स्त्र, सिंहासन, २श्च और चांदी के fry; गोलाकार ए और आारों में उला गिरे तो उग उत्तभ अवगत करना चाहिए या उसका सभी को गुख देनवाली है 1130-3311
नक्षत्राणि 'विमचन्त्यः स्निग्धाः प्रत्युत्तमाः शुभाः। सुष्टि क्षेममारोग्यं शस्यसम्पत्तिस्त्तमाः ॥3॥
:: नवी कोर ग ग करने वाली स्निग्ध और उत्तम शुभ नET IT तो गुवति, योम, आगाम्य और धान्य की उत्पत्ति बाली .1 341
सोमो राहश्च शुक्रश्च केतभोमश्च "यायिनः ।
बृहस्पतिर्बुधः सूर्यः सारिश्चापोह नागरा: ॥35॥ मार्गी शुद्ध । लिग अन्य देश या नृपति पर आक्रमण करनेवाले व्यक्ति के [ , , , मन और मंगा था. आवय होता है और स्थायी१३|या या देश, नाति या ari यनित वागत ने लि। बृहस्पति, बुध,
न का बल पम होता है। इन ग्रहा क बनावल पर ग यायी और l i. IF IT ना पाहिए ।।35।।
हन्युमध्यन या उल्का ग्रहाणां नाम विद्युता।
निर्धाता सधम्रा वा तव विद्यादि फलम् ॥361 जा ....TH भाग ग्रह शाह --प्रताडित कर, वह वियत संसक है। ..: :TI: ||| IIT मार धूम गहा हो तो न निम्न प्रकार होता .: ।।3111
[...It : IAस्याग .. ३..। 2. श्यन्त भ.. । 3. स्वं स्वं 4.A . 1.। 4 पुनम आ॥ 5. प्रत्युना .D. I 6. यो पिन: "... , 11|गा ! ( 7 पोर • I A , सार . ). 1 8-9. श्चा चलय पर: ३ : । 10 मा.. ।
म
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तृतीयोऽध्यायः
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नारेषपसष्टेषु नागराणां महद्भयम् ।
यायिषु 'चोपसृष्टेषु यायिनां तदभयं भवेत् ।।37॥ स्थायी के नगर की व्यूह रचना पर पूर्वचित प्रकार की का गिरे तो उरा स्थायी के नगरवासियों को महान् 'भय होता है। यदि पानी के सैन्य-शिविर पर गिरे तो यायी पक्ष वालों को महान भय होता है ॥36।।
सन्ध्यानां रोहिणी पौरुण्यं चित्रां त्रीण्यत्तराणि च ।
मैत्रं चोल्का यदा हन्यात् तदा स्यात् पार्थिव भयम ॥38॥ यदि सन्ध्या कालीन उल्ला रोहिणी. रेवती, त्रिआ, उन गफागुनी, उन्न गबाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा और अनुराधा नक्षत्रों को हने प्रताडित गे तो राजा को भय होता है अर्थात् सन्ध्याकालीन उन इन नक्षत्रा गटनगर गिरे ता देश और नृपति गर विपत्ति आती है ।।381)
वायव्यं वैष्णवं पुष्यं यद्युल्काभि: प्रताडयेत्।
ब्रह्मक्षत्रभयं विन्द्याद् राजश्च भयमादित् ।।39॥ स्वाती, श्रवण और पुष्य नक्षत्रों को यदि उल्का प्रताड़ित मरे तो प्राण, क्षत्रिय और राजा को भय की गूचना देती है।। 39।।
यथा गृहं तथा ऋक्षं चातुर्वण्य विभावयेत् ।
अतः परं प्रवक्ष्यामि सेनासल्का यविधि ॥१॥ जैसे ग्रह अथवा नक्षत्र हा, उन्हीं अनुसार चारों वर्गों के लिए शुभाशुभ अवगत करना चाहिए। अब इगग आगे गेना . गम्बन्ध में उल्का का शुभाशुभ फल निरूपित करते हैं ।।4011
सेनायास्तु समुद्योगे राज्ञो विविध' - मानवाः ।
उल्का यदा पतन्तीति तदा वक्ष्यामि लक्षणम् ॥4।।। युद्ध के उद्योग के समय गवा क समक्ष जो उल्का गिरती है, उसका लक्षण, फलादि राजाओं और विविध मनुष्यों के लिए बगित किया जाता है ।14 1।।
"उदगच्छन सोममक वा ययुल्का सविदारयेत् । स्थावराणां विपर्यासं तस्मिन्नुत्पातदर्शने' ।।2।।
1. याम्पध्वन पगाटप मा । 2. बोरकी मु.. । 3. Miमाद . ॥ 4. बाम । 5. दिवदमानया म । 6. उद्ग । म • | 7. अस्मि-पदे दर्शने ।
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भद्रबाहुसंहिता
यदि अरको गमन करती हुई उल्का चन्द्र और सूर्य को विदारण करे तो स्थावर - स्थायी नगरवासियों के लिए विपरीत उत्पातों को सूचना देती है ॥42||
अस्तं यातभयादित्यं सोममल्का लिखेद् यदा।
आगन्तुबध्यते सेना यथा चोश' यथागमम् ।।43॥ मूर्य और चन्द्रमा के भरत होने पर यदि उल्का दिखलाई दे तो वह आनेवाले पायी कर दिशा में आगन्तुक गना के वध का निर्देश करती है ।। 43।।
उदात सोममर्क का यधुल्का प्रतिलोमतः ।
प्रविकानागराणां त्याद् विस स्तथागते ।।44॥ प्रतिलोम मागं रो गमन करती हुई उल्का उदय होत हुए सूर्य और चक्र मण्डल प्रवण । ती स्थायी आर यायी दोनों के लिए विपरीत फलदायया अर्थात् अम होती है ।।4411
एषवास्तगत उल्का आगन्तनां भयं भवेत् ।
प्रतिलोमा लयं कुर्याद् यथास्तं चन्द्रसूर्ययोः ।।45॥ गत योग में मय-चन्द्र का अरत समय प्रतिलीम माग गमन करती हुई .. - महल में आकर इ. अस्त हो जाय तो स्थायी और यायी दोनों के निकाय गयोत्पाद है ।। 4511
उदयं भास्करस्योल्का पालो प्रतो भिसर्पति ।
भोमात्यापि जय कादेषां पुरस्सरावृतिः ॥46।। यदि । सदिय होता गृधे क आगे और चन्द्र के उदय होते हुए बामा माग गरे तथा मा की प्रानि हो तो उसे जयसूचक
पाक्षिा 14011 सेनामभिमुखो भूत्वा पशुल्का प्रतिप्रत्यत ।
प्रतिसनावचं बिन्धात् तस्मिन्नुत्पातदर्शने ॥471 यदि सना के सामन होकर गिरती हुई दिखाई पड़े तो प्रतिसेना (प्रति लीना) का वध की सूधिका समझनी चाहिए ।।4711
1. पथावल :., 1 ग्रंन्यधनी यथा, गुर । 2. लागते । 3. यथैवानमने
N, I मन म .. C. 1ो ग्रनो भिसा .. ! 5. गस राति आ० । १. प्रदिश्यत गु
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तृतीयोऽध्यायः
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अथ यद्युभया। सेनामेकैक प्रतिलोमत: ।
उल्का तूर्ण प्रपद्येत उभयत्र भयं भवेत् ।।481 यदि दोनों सेनाओं की ओर एक-एक गेना में प्रतिलोम-मध्य मार्ग में उल्का शीघ्रता से मिरे तो दोनों सेनाओं को :य होता है ।।48।।
येषां सेनास निफ्तेदुल्का नीलमहाप्रभा।
सेनापतिवधस्तेषामचिरात् सम्प्रजायते ॥491 नीले रंग की महाप्रभावशाली उल्का जिम गंगा में गिरे उस गना ना सेनापति शीघ्र ही मरण को प्राप्त होता है ।।4।।
उल्कास्तु लोहिता: सक्ष्मा: पतन्त्य: पृतना प्रति ।
यस्य राज्ञः प्रपद्यन्तं कमारो हन्ति तं नृपम ॥5॥ लहेत वर्ण को सक्षम उल्का जिस राजा की मेना प्रति गिरे, गगगा: राजा को राजकुमार मारता है ॥50।
उल्कास्तु बहवः पीता: पत्तन्त्य: पतनां प्रति ।
पृतनां व्याधितां प्राहस्तस्मिन्नुत्पातदर्शने ।।5।। पीतवर्ण की बहुत उल्काएँ गेना के समक्षा या सेना में गिरें तो इस उत्तात का फल सेना में रोग फैलना है ।15 |||
संघशास्त्रानुपद्येत (?) उल्का; श्वेताः समन्ततः ।
ब्राह्मणेभ्यो भयं घोरं तस्य सैन्यस्य निर्दिशत ।।52॥ यदि श्वेत रंग की उल्का मेना में चारों तरफ गिर तो यह उगना को और ब्राह्मणों को घोर भय को सूचना देनी है ।। 52।।
उल्का व्यूहेम्वनीकेषु या पत्तियंगागता।
न तदा जायते युद्धं परिघा नाम सा भवेत् ॥3॥ बाण या खड्गरूप तिरछी उल्का सेना की व्यूह रचना में गिरे तो टिल युद्ध नहीं होता है, दमको परिघा नाम से स्मरण करत है - वाहन ।। . 3।।
उल्का व्यूहेष्वनीकेषु पृष्ठतोऽपि पतन्ति' याः । क्षयव्ययेन पोड्यरन्नुभयो: सेनयोपान् ।।5।।
1. उभयं आ. 12. मह प्रभा पुः । 3. बहुशास्त्र प्रपद्य न म ! 4. पानि आ० । 5. च सायका आ० । 6. पठनः आः ! 7. निपनि आ० । 8. नपा: आ० ।
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भद्रबाहुसंहिता
सेना की व्यूह रचना के पीछे भाग में उन्का गिरे तो दोनों सेनाओं के राजाओं को वह नाश और हानि द्वारा कष्ट की सूचना करती है ॥54॥ उल्का व्यूहेष्वनीकेष प्रतिलोमाः पतन्ति याः । संग्रामेषु निपतन्ति' जायन्ते किशुका वनाः ॥155॥
सेना की व्यूह रचना में अपसव्य मार्ग से उल्का गिरे तो संग्राम में योद्धा गिर पड़ते हैं— मारे जाते हैं, जिससे रणभूमि रक्तरंजित हो जाती है |55|| उल्का यत्र समायान्ति यथाभावे तथासु च । येषां मध्यान्तिकं यान्ति तेषां स्याद्विजयो ध्रुवम् ॥156 || जहाँ उल्का जिस रूप में और जब गिरती है तथा जिनके बीच से या निकट में निकलती है, उनकी निश्चय ही विजय होती है 11560
30
चतुर्दिक्षु यदा पूतना उल्का गच्छन्ति सन्ततम् चतुर्दिशं तदा यान्ति भयातरमसंघशः ॥57।।
यदि उल्का गिरती हई निरन्तर चारों दिशाओं में गगन करे तो लोग या सेना का समूह भयातुर होकर चारों दिशाओं में तितर-बितर हो जाता है 157 अग्रतो या पतेदुल्का सा सेना तु प्रशस्यते । तिर्यगाचरते' मार्ग प्रतिलोमा भयावहा ॥58॥
सेना के आगे भाग में यदि उपागिरे तो अच्छी है । यदि तिरछी होकार प्रतिलोम गति से गिरे तो सेना को भय देनेवाली अवगत करनी चाहिए ||58 ॥ यतः सेनामभिपतेत् तस्य सेनां प्रबाधयेत् ।
"तं विजयं कुर्यात् येषां पतेत्सोका यदा पुरा ॥5॥
जिस राजा की सेना में उदका बीचों-बीच गिरे उम सेना को कष्ट होता है और आगे गिरे तो उसकी विजय होती है | 591
डिम्भरूपा नृपतये बन्धमुल्का प्रताडयेत् । प्रतिलोमा विलोमा च प्रतिराजं भयं सृजेत् ॥10॥
हिया उल्का गिरने में राजा के बन्दी होने की सूचना मिलती है और प्रतिलोम तथा अनुलोम उसका शत्रुराजाओं को भवत्यादिका है |160
1.
आज 14 अनकूला
दंगा,
3. भवन्युसंघशः गु
4. सेना । 5. निर्य संचरते मु 6. विजयं तु समाख्याति व सोल्का एन्स्सराः ।। 7, प्रदात् म. 8. ग्रह पाठ मु० प्रति में नहीं है।
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तृतीयोऽध्याय:
____32 यस्यापि जन्मनक्षत्रं उल्का गच्छेच्छरोपमा।
विदारणा तस्य वाच्या व्याधिना वर्णसंकरः ॥6॥ जिसके जन्म-नक्षा में बाणसदृश उरुका गिर तो उस व्यक्ति के लिए विदारण- -- घाव लगने, धीरे जाने का फल मिलता है, और नाना वर्ण हा हो तो ग्याधि प्राप्त होने की सूभना समझनी चाहिए ।। 111
उल्का येषां यथारूपा दृश्यते प्रतिलोमतः ।
तेषां ततो भयं विन्द्यादनुलोमा शुभागमम् ॥62॥ विलोम मार्ग मे जैसे रूम की उल्का जिग दिखाई दे तो उमाको भय होगा, ऐसा जानना चाहिए और अनुलोम गति गे दिवाई दे तो शरू जानना चाहिए ।।62।।
उल्का यत्र प्रसन्ति भ्राजमाना दिशो दश ।
सप्तराबान्तरं वर्ष दशाहादुतरं भयम ।।6।। जिम स्थान पर ET फैलती विवाद को यह भी जाना को दी दिशाओं में भागना पड़ता --उपद्रव कारणादा -"घर जाना रिता है। यदि मात रात्रि के मध्य में वर्षा हो जाय तो 'म दोग या अगग हो जाना है, अन्यथा दम दिन के पश्चात उपपंक्त भयरूप फलादेश घटित होता है ।।63||
पापासूल्कासु यद्यस्तु यदा देय प्रवति ।
प्रशान्तं तद्भयं विन्याद् भद्रबाहुवचो यथा ।।6।। पापरू । उल्कापात र पनान् म व जाये वाघां हो जाय तो भय को शान्त हुआ समझना चाहिए, ग प्रकार भद्रबाह ? वामी का कथन है ।।64।।
यथाभिवष्या: स्निग्धा यदि शान्ता निपतन्ति याः ।
उल्कास्वाशु भवेत् क्षेमं सुभिक्षं मन्दरोगवान् ॥6॥ अभिवृष्य, स्निग्ध और शान्त उबा जिम दिशा में गिरती है, उस दिशा गं यह शीत्र क्षेम-कुशन सुभिक्ष करती है,
ग धोला-गा गेंग अवश्य होता है ।। 5 ।। यथामार्ग यथावृद्धि यथाद्वारं यथाऽगमम् । यथाविकार विज्ञेयं ततो ब्रूयाच्छुभाशुभम् ।।6।।
1. सप्ताह बारे म. C । 2. यथ।।। बट: 1
न
ग ण :T F1 ॥
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भद्रबाहुसंहिता
जिग मार्ग, वृद्धि, द्वार, आगमन प्रकार और विकार के अनुसार शुभाशुभ रूप उल्कापात हो उगी के समान शभाशुभ फन अवगत करना चाहिए ।।66।।
तिथिश्च करणं चैव नक्षत्राश्च मुहूर्तत: ।
ग्रहाश्च शकुन बैल विशो वर्मा: इमामत17!! उस्तापात का शुभाशुभ फल तिथि, करण, क्षय, मुहर्त, ग्रह, शकुन, दिशा, वर्ण, प्रमाण - लम्बाई-चौड़ाई पर रा बतलाना चाहिए ।।6711
निमित्तादनुपूर्वाच्च पुरुष: कालतो बलात् ।
प्रभावाच्च गतेश्चैवमुल्काया फलमादित् ।।68।। निमित्तानुगार क्रापूर्व उपर्युक्त प्रकार से निरूपित काल, बल. प्रभाव और गति पर से उल्का फल नो भवगन करना चाहिए ।।6।।
एतावदुक्तमुल्कानां लक्षणं जिनभाषितम् ।
परिवेषान् प्रवक्ष्यामि तान्निबोधत तत्वतः ॥6॥ जिम प्रकार जिनेन्द्र भगवान् ने उल्कानों का लक्षण और गल निरूपित किया है, उमी प्रकार यहाँ वणित किया गया है। अब परिवेश के सम्बन्ध में वर्णन किया जाता है, उसे यथार्थ रूप से अवगत करना चाहिए ।।6911
__ इति भद्रबाहुसंहितायां भद्रबाहुनि मित्तशास्त्रे) तृतीयोऽध्यायः ।
विवेचार -.-उल्लात का जनादेश संहिता ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक वणित है। यहाँ सर्वसाधारण की जानकारी लिंग भोड़ा-सा फलादेशा निरूपित किया जाता है। उलापात से व्यक्ति, मा, देश, राष्ट्र आदि बा फलादेश ज्ञात किया जाता है। सर्वप्रथम व्यक्ति के लिए हानि, लाभ, जीवन, मरण, सन्तान-सुख, हर्षविवाद ॥वं विशेष अवमर्श पर घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं का निरूपण किया जाता है। आत्राश वा निरीक्षण करते हए ताराओं को देखने से व्यक्ति अपने सम्बन्ध में अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त कर सकता है ।
रयत वर्ण की टेढ़ी, टूटी हुई उल्काओं को पतित होले देखने से व्यक्ति को भय, पांच महीने में परियार के व्यक्ति की मृत्यु, धन-हानि और दो महीने के बाद किये गये व्यापार में हानि, राज्य में झगड़ा, मुबद्दया एवं अनेक प्रकार की चिन्ताओं के कारण परेशानी होती है। वृष वर्ण की टूटी हुई, छिन्न-भिन्न - - -. . .- .... - .
1. शकुनाच प० । 2. निमिवादनुपाश्च, पुरुषो कालनो बलात् मु०। 3. भयान गरिएपेशालामा मु० ।
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तृतीय
उल्काओं का पतन होते देखने से व्यक्ति के आत्मीय की सात महीने में मृत्यु, हानि, झगड़ा, अशान्ति और परेशानी उठानी पड़ती है। कृष्ण वर्ण की उल्का का पात सन्ध्या समय देखने से मथ, विद्रोह और अशान्ति, सन्ध्या के तीन घटी उपरान्त देखने से विवाद, कलह, परिवार में झगड़ा एवं किसी आत्मीय व्यक्ति को कष्ट; मध्यरात्रि के समय उक्त प्रकार की उल्का का पतन देखने से स्वयं को महाकष्ट, अपनी या किसी आत्मीय की मृत्यु, आर्थिक कष्ट एवं नाना प्रकार की अशान्ति प्राप्त होने की सूचना होती है ।
33
श्वेत वर्ण की उल्का का पतन सन्ध्या समय में दिखलायी पड़े तो धन लाभ, आत्मसन्तोष, सुख और मित्रों से मिलाप होता है। यह उल्का दण्डकार हो तो सामान्य लाभ, मुसलाकार हो तो अत्यल्प बाभ और शकटाकार - गाड़ी के आकार या हाथी के आकार हो तो पुष्कल लाभ एवं अश्व के आकार प्रकाशमान हो तो विशेष लाभ होता है । मध्यरात्रि में उक्त प्रकार की उल्का दिखलायी पड़े तो पुत्र लाभ, स्त्री लाभ, धन लाभ एवं अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है । उपर्युक्त प्रकार की उल्का रोहिणी, पुनर्वसु, धनिष्ठा और तीनों उतराओं में पतित होती हुई दिखलायी पड़े तो व्यक्ति को पूर्णफलादेश मिलता है तथा सभी प्रकार से धनधान्यादि की प्राप्ति के साथ, पुत्र-स्त्रीलाभ भी होता है। आश्लेषा, भरणी, तीनों पूर्वा-पूर्वापाढा, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वाभाद्रपद और रेवती इन नक्षत्रों में उपर्युक्त प्रकार का उल्कापन दिखलाई पड़े तो सामान्य लाभ ही होता है । इन नक्षत्रों में उल्कापतन देखने पर विशेष लाभ या पुढकल लाभ की आशा नहीं करनी चाहिए, लाभ होते-होते क्षीण हो जाता है। आर्द्रा, पुष्य, मघा, धनिष्ठा, श्रवण और हस्त इन नक्षत्रों में उपर्युक्त प्रकार श्वेतवर्ण की प्रकाशमान उल्का पवित होती हुई दिखलाई पड़े तो प्रायः पुस्कल लाभ होता है। मघा, रोहिणी, तीनों उत्तरा-- उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढा और उत्तराभाद्रपद, मूल, मृगशिर और अनुराधा इन नक्षत्रों में उक्त प्रकार का उल्कापात दिखलाई पडे तो स्त्रीला और सन्तानलाभ समझना चाहिए । कार्यसिद्धि के लिए चिकनी, प्रकाशमान, प्रवेतवर्ण की उल्का का रात्रि के मध्यभाग में पुनर्वसु और रोहिणी नक्षत्र में पतन होना आवश्यक माना गया है । इस प्रकार के उल्कापतन को देखने से अभीष्ट कार्यों की सिद्धि होती है । अल्प आभास से भी कार्य सफल हो जाते हैं। पीतवर्ण की उल्का सामान्यतया शुभप्रद है । सन्ध्या होने के तीन घटी पीछे कृतिका नक्षत्र में पीतवर्ण का उल्कापात दिखलाई पड़े तो मुकद्दमे में विजय, बड़ी-बड़ी परीक्षाओं में उत्तीर्णता एवं राज्यकर्मचारियों से मंत्री बढ़ती है। आर्द्रा पुनर्वसु, पुष्य और श्रवण में पीतवर्ण की उल्का पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो स्वजाति और स्वदेश में सम्मान बढ़ता है। मध्यरात्रि के समय उक्त प्रकार की उल्का दिखलाई पड़े तो
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भद्रबाहुसंहिता
हर्ष, मध्यरात्रि के पश्चात् एक बजे रात में उक्त प्रकार का उल्कापात दिखलाई पड़े तो सामान्य पीड़ा, आर्थिक लाभ और प्रतिष्ठित व्यक्तियों से प्रशंसा प्राप्त होती है। प्रायः सभी प्रकार की उल्काओं का फल सन्ध्याकाल में चतुर्थांश, दस बजे षष्ठाण, ग्यारह बजे तृतीयांश, बारह बजे अर्ध एक बजे अर्धाधिक और दो बजे से चार बजे रात तक किंचित् न्यून उपलब्ध होता है । सम्पूर्ण फलादेश बारह बजे के उपरान्त और एक बजे के पहले के समय में ही घटित होता है । उल्कापात भद्रा - विष्टि काल में हो तो विपरीत फलादेश मिलता है 1)
प्रतनुपुच्छा उल्का सिर भाग से गिरने पर व्यक्ति के लिए अरिष्ट सूचक, मध्यभाग से गिरने पर विपत्ति सुचक और पुंछ भाग से गिरने पर रोगसूचक मानी गई है। साँप के आकार का उल्कापात व्यक्ति के जीवन में भय, आतंक, रोग, शोक आदि उत्पन्न करता है। इस प्रकार का उल्कापात भरणी और आश्लेषा नक्षत्रों का घात करता हुआ दिखलाई पड़े तो महान् विपत्ति और अशान्ति मिलती है । पूर्वाफाल्गुनी पुन, धनिष्ठा और मूल नक्षत्र के योग तारे को उल्का हनन करे तो युवतियों को कष्ट होता है। नारी जाति के लिए इस प्रकार का उल्कापात अनिष्ट का सूचक है । शुकर और चमगीदड़ के समान आकार की उल्का कृतिका, विशाखा, अभिजित्, भरणी और आश्लेषा नक्षत्र को प्रताड़ित करती हुई पतित हो तो युवक-युवतियों के लिए रोग की सूचना देती है | इन्द्रध्वज के आकार की उल्का आकाश में प्रकाशमान होकर पतित हो तथा पृथ्वी पर आते-आते चिन गारियाँ उड़ने लगे तो इस प्रकार की उल्काएं कारागार जाने की सूचना सम्बन्धित व्यक्ति को देती हैं। गिर के आर पतित हुई उल्का चन्द्रमा या नक्षत्रों का घात करती हुई दिखलायी पड़े तो आगामी एक महीने में किसी आत्मीय की मृत्यु या परदेशगमन होता है । सामने कृष्णवर्ण की उल्का गिरने से महान कष्ट, धनक्षय, विवाद, कलह और झगड़े होने की सूचना मिलती है । अश्विनी, कृत्तिका, आर्द्रा, आम्लेषा, मघा, विशाखा, अनुराधा, मूल, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा और पूर्वाभाद्रपद इन नक्षत्रों में पूर्वोक्त प्रकार की उल्का का अभिघात हो तो व्यक्ति के भावी जीवन के लिए महान कष्ट होता है। पीछे की ओर कृष्णवर्ण की उल्का व्यक्ति को असाध्य रोग की सूचना देती है । विचित्र वर्ण उत्का मध्यरात्रि में च्युत होती हुई दिखलाई पड़े तो निश्चयतः अर्थहानि होती है । धूम्रवर्ण की उल्काओं का पतन व्यक्तिगत जीवन में हानि का सूचक है। अग्नि के समान प्रभावशाली वृष्णाकार उल्कापात व्यक्ति की उत्पत्ति का सूचक हैं। तलवार की
ति समान उल्काएँ व्यक्ति की अवनति सुचित करती है । सूक्ष्म आकार वाली उल्काएँ अच्छा फल देती है और स्थूल आकार वाली उल्काओं का फलादेश अशुभ होता है । हाथी, घोडा, बैल आदि पशुओं के आकार वाली उल्काएँ शान्ति और
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तृतीयोऽध्यायः
सुख की सूचिकाएँ हैं। ग्रहों का स्पर्श कर पतित होनेवाली उल्काएँ भयप्रद हैं और स्वतन्त्र रूप से पतित होनेवाली उल्काएँ सामान्य फलवाली होती हैं । उत्तर और पूर्व दिशा की ओर पतित होनेवाली उल्काएं सभी प्रकार का मुख देती हैं; किन्तु इस फल की प्राप्ति रात के मध्य समय में दर्शन करने से ही होती है । ___ कमल, वृक्ष, चन्द्र, सूर्य, स्वस्तिक, कलश, ध्वजा, शंख, वाद्य-~ढोल, मंजीरा, तानपूरा और गोलाकार रूप में उल्काएँ रविवार, भौमवार और गरुवार, को। पतित होती हुई दिखलाई पड़ें तो व्यक्ति को अपार लाभ, अकल्पित धन की , प्राप्ति, घर में सन्तान लाभ एवं आगामी मांगलिकों की सूचना समझानी चाहिए। इस प्रकार का उल्कापतन उक्त उक्त दिनों की सन्ध्या में हो तो अर्धफल, नौ-दस बजे रात में हो तो तृतीयांश फल और ठीक मध्य रात्रि में हो तो पूर्ण फल प्राप्त होता है । मध्यरात्रि के पगन्नात पतन दिखलाई पड़े तो पष्टांश फल और ब्राह्मामुहूर्त में दिखलाई पड़े तो चतुर्थाश फल प्राप्त होता है 1 दिन में उल्काओं का पतन देखनेवाले को असाधारण लाभ या असाधारण हानि होती है । उक्त प्रकार की उल्काएँ सूर्य, चन्द्रमा नक्षत्रों का भेदन करें तो साधारण लाभ और भविष्य में घटित होनेवाली असाधारण घटनात्रों की सूचना समझनी चाहिए । रोहिणी, मृगशिरा और श्रवण नक्षत्र के साथ योग करानेवाली उल्लाएं उन म भविष्य की सूचिका हैं । कच्छप और मछली के आकार की उल्काएं व्यक्ति के जीवन में शुभ फलों की सूचना देती हैं । उक्त प्रकार की उल्बाओं का पतन मध्यरात्रि के उपरान्त और एक बजे के भीतर दिखलाई पड़े तो व्यक्ति को धरती के नीचे रखी हुई निधि मिलती है। इस निधि के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता, कोई भी व्यक्ति उक्त प्रकार की उल्काओं का पतन देखकर चिन्तामणि पार्वनाथ स्वामी की पूजाकर तीन महीने में स्वयं ही निधि प्राप्त करता है। व्यन्तर देव उसे स्वप्न में निधि के स्थान की सूचना देते हैं और वह अनायास इस स्वान के अनुसार निधि प्राप्त करता है। उक्त प्रकार की उकाओं का पतन सन्ध्याकाल अथवा रात में आठ या नौ बजे हो तो व्यक्ति के जीवन में विषम प्रकार की स्थिति होती है। सफलता मिल जाने पर भी असफलता ही दिखलाई पड़ती है। नौ-दस बजे का उल्कापात सभी के लिए अनिष्टकर होता है।
सन्ध्याकाल में गोलाकार उल्का दिखलाई पड़े और यह उमा पतन समय में छिन्न-भिन्न होती हुई दृष्टिगोचर हो तो व्यक्ति के लिए रोग-शोक की सूचक है। आपस में टकराती हुई उकाएं ध्यमित के लिए गुप्त रोगों को सूचना देती है। जिन उल्काओं को शुभ बतलाया गया है, उनका पतन भी शनि, बुध और शुन को दिखलाई पड़े तो जीवन में आनेवाले अनेक कष्टों की सूचना समझनी चाहिए। शानि, राहु और केतु से टकराकर उल्काओं का पतन दिखलाई पड़े तो महान्
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भद्रबाहुसंहिता अनिष्टकर है, इससे जीवन में अनेक प्रकार की विपत्तियों की सूचना समझनी चाहिए । खोई हुए, भूली हुई या चोरी गई वस्तु के समय में गुरुवार की मध्यरात्रि में दण्डाकार उल्का पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो उस वस्तु की प्राप्ति की तीन मास के भीतर की सूचना समझानी चाहिए। मंगलवार, सोमवार और शनिवार उल्कापात दर्शन के लिए अशुभ हैं, इन दिनों की सन्ध्या का उल्कापात दर्णन अधिक अनिष्टकर समझा जाता है । मंगलवार और आश्लेषा नक्षत्र में शुभ उल्कापात भी अशुभ होता है, इससे आगामी छः मासों में कष्टों की सूचना समझनी चाहिए । अनेन्ट उल्न.... यो वर्ष र चिलाकण पाश्वनाथ का पूजन करने से आगामी अशुभ की शान्ति होती है।
राष्ट्रघातक उल्कापात-जब उल्का चन्द्र और सूर्य का स्पर्श कर भ्रमण करती हुई पतित हो और उस समय पृथ्वी कम्पायमान हो तो राष्ट्र दुसरे देश के अधीन होता है । मुर्य और चन्द्रमा के दाहिनी ओर उल्कापात हो तो राष्ट्र में रोग फैलने हैं तथा ग'ट्र की वनसमातिविशेषरूप से नष्ट होती है । चन्द्रमा से मिलकर उल्का मामने आने तो राष्ट्र के लिए विजय और लाभ की सूचना देती है । श्याम, अरुण, नील, रक्त, दहन, असित, और भम्म के समान का उल्का देश के शत्रओं के लिए बाधा होती है। रोहिणी, उत्तराफाल्गनी, उपरापाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद, पशिस, चित्रा और अनुराधा नक्षत्री उल्का घालित करे तो राष्ट्र को पीड़ा होती है मंगल और रविवार को अजेयः व्यक्ति मध्य रात्रि में उल्कापात देखें तो राष्ट्र के लिए भय सूत्रक समझना चाहिए ) पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वापाढ़ और पुर्वाभाद्रपद, मघा, आर्द्रा, आपा, ज्येष्ठा और मूल नक्षय को उल्का ताडित पारे तो देश के व्यापारी वर्ग को कष्ट होता है तथा अग्विनी, पुष्य, अभिजित्, कृतिका और विशाखा नक्षत्र सो उल्का ताटिा करे तो कलाविदों को कष्ट होता है । देव मन्दिर या देवमूर्ति को उन्मात हो तो राष्ट्र में बड़े बड़े परिवर्तन होते हैं, आन्तरिक संघषों के साथ विदेशीय शक्ति का भी मकाबला करना पड़ता है। इस प्रकार उत्पादन देश के लिए महान् अनिष्टकारक है। मशान भूमि में पतित उमा प्रशासकों में भय का संचार करती है तथा देश या राज्य ग नवीन परिवर्तन उत्पन्न करती है । न्यायालयों पर उल्कापात हो तो किसी को नेता की मृत्यु को गुनना अवगत करनी चाहिए । भ, धर्मशाला, तालाब और अन्य पवित्र भूमियों पर उल्कापात हो तो राज्य में आन्तरिक विद्रोह, बराओं का भंहगा एवं देश के नेतालों में फूट होती है। संगठन के अभाव होने से देश या राष्ट्र को महान् क्षति होती है। वेल और पीत वर्ण की मुख्याकार अनेक जला फिगी रिक्त स्थान पर पनि हो तो दग या राष्ट्र के लिए शुभ १.१... समझना चाहिए । राष्ट्र के HTो बीच भल-मिलापको सूचना भी लपत प्रकार के उल्कापात में ही सम्
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तृतीयोऽध्यायः
सनी चाहिए । मन्दिर के निकटवर्ती वृक्षों पर उल्कापात हो तो प्रशासकों के बीच मतभेद होता है, जिससे देश या राष्ट्र में अनेक प्रकार की अशान्ति फैलती है । पुष्य नक्षत्र में श्वेतवर्ण की चमकती हुई उल्का राजप्रासाद या देवप्रासाद के किनारे पर गिरती हुई दिखलाई पड़े तो देश या राष्ट्र की शक्ति का विकास होता है, अन्य देशों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित होता है तथा देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है। इस प्रकार का उन्कापात राष्ट्र या देश के लिए शुभकारक है । मघा और श्रवण नक्षत्र में पूर्वक्ति प्रकार का उल्कापात हो तो भी देश या राष्ट्र की उन्नति होती है । खलिहान और बगीचे में मध्यरात्रि के समय उक्त प्रकार उल्का पतित हो तो निश्चय ही देश में अन्न का भाव द्विगुणित हो जाता है ।
शनिवार और मंगलवार को कृष्णवर्ण की मन्द प्रकाशवासी उल्काएँ श्मशान भूमि या निर्जन वन भूमि में पतित होती हुई देखी जाएं तो देश में कलह होता है । पारस्परिक अशान्ति के कारण देश की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था बिगड़ जाती है। राष्ट्र के लिए इस प्रकार की उल्काएं भयोत्पादक एवं घातक होती है । आश्लेषा नक्षत्र में कृष्णवर्ण की उल्का पतित हो तो निश्चय ही देश के किसी उच्चकोटि के नेता की मृत्यु होती है। राष्ट्र की शक्ति और बल को बढ़ानेवाली श्वेत, पील और रक्तवर्ण की उत्काएँ शुक्रवार और गुरुवार को पतित होती हैं।
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कृषिफलादेश सम्बन्धी उल्कापात प्रकाशित होकर चमक उत्पन्न करती हुई उल्का यदि पतन के पहले ही आकाश में विलीन हो जाय तो कृषि के लिए हानिकारक है | मोर पूँछ के समान आकारवाली उसका मंगलवार की मध्यरात्रि में पतित हो तो कृषि में एक प्रकार का रोग उत्पन्न होता है, जिगमे फसल नष्ट हो जाती है। मण्डलाकार होती हुई उल्का शुक्रवार की मन्ध्या को गर्जन के साथ पतित हो तो कृषि में वृद्धि होती है । फसल ठीक उत्पन्न होती है और कृषि में कीड़े नहीं लगते । इन्द्रध्वज के रूप में आपा, विशाखा, भरणी और रेवती नक्षत्र में तथा रवि, गुरु, सोम और शनि इन द्वारों में उल्कापात हो तो कृषि में फसल पकने के समय रोग लगता है इस प्रकार के उल्कापात में गेहूं, जौ, धान और चने की फसल अच्छी होती है तथा अवशेष धान्य की फसल बिगड़ती है । वृष्टि का भी अभाव रहता है। शनिवार को दक्षिण की ओर बिजली चमक तथा तत्काल ही पश्चिम दिशा की ओर उल्का पक्षित हो तो देश के पूर्वीय बाग में बाढ़, तूफान, अतिवृष्टि आदि के कारण फसल को हानि पहुंचती है तथा इसी दिन पश्चिम की ओर बिजली चमके और दक्षिण दिशा की और उल्कापात हो तो देश के पश्चिमी भाग में सुभिक्ष होता है । इस प्रकार का उल्कापात कृषि के लिए अनिष्टकर ही होता है । संहिताकारी ने कृषि के सम्बन्ध में विचार करते समय
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भद्रबाहुसंहिता
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समय-समय पर पतित होनेवाली उल्काओं के शुभाशुभत्व का विचार किया है। वराहमिहिर के मतानुसार पुष्य, मघा, तीनों उत्तरा इन नक्षत्रों में गुरुवार की सन्ध्या या इस दिन की मध्य रात्रि में चने के खेत पर उल्कापात हो तो आगामी वर्ष की कृषि के लिए शुभदायक है। ज्येष्ठ महीने की पूर्णमासी के दिन रात को होनेवाले उल्कापात से आगामी वर्ष के शुभाशुभ फल को ज्ञात करना चाहिए । इस दिन अश्विनी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी और ज्येष्ठा नक्षत्र को प्रताड़ित करता हुआ उल्कापात हो तो वह फसल के लिए खराब होता है । यह उल्कापात कृषि के लिए अनिष्ट का सूचक है। शुक्रवार को अनुराधा नक्षत्र में मध्य रात्रि में प्रकाशमान उल्कापात हो तो कृषि के लिए उत्तम होता है। इस प्रकार के उल्कापात द्वारा श्रेष्ठ फसल की सूचना समझनी चाहिए। श्रिवण नक्षत्र का सार्थ करता हुआ उल्कापात सोमवार को मध्यरात्रि में हो तो गेह और धान की फसल उत्तम होती है । शवण नक्षत्र में मंगलवार को उल्कापात हो तो गन्ना अच्छा उत्पन्न होता है विन्तु चने की फसल में रोग लगता है । सोमवार, गुरुवार और शुक्रवार को मध्यरात्रि में बड़क के साथ उल्कापात हो तथा (इस उल्का का आकार ध्वजा के समान चौकोर हो तो आगामी वर्ष में कृषि अच्छी होती है, विशेषतः चावल और गेहूं की फसल उत्तम होती है। ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी को पश्चिम दिशा की ओर उल्कापात हो तो फसल के लिए अशुभ समझना चाहिए । यहाँ इतनी विशेषता है कि उल्का का आकार त्रिकोण होने से यह फल यथार्थ घटित होता है। यदि इन दिनों का उल्यापात दण्डे के समान हो तो आरम्भ में सूखा पश्चात् समयानुकल वर्षा होती है। दक्षिण दिशा में अनिष्ट फल घटता है । शुक्लपक्ष की चतुर्दशी की समाप्ति और पूणिमा के आरम्भ काल में उल्कापात हो तो आगामी वर्ष के लिए साधारणतः अनिष्ट होता है। पूणिमाविद्ध प्रतिपदा में उल्कापात हो तो फसल कई गनी अधिक होती है 1 किन्तु पशुओं में एक प्रकार का रोग फैलता है जिससे पशुओं की हानि होती है।
आषाढ़ महीने के आरम्भ में निरभ्र आकाश में काली और लाल रंग की उल्काएँ पतित होती हुई दिग्बलाई गड़ें तो आगामी तथा वर्तमान दोनों वर्ष में कृषि अच्छी नहीं होती। वर्षा भी समय पर नहीं होती है। अतिवृष्टि और अनावृष्टि का योग रहता है। (आपाढ़ कृष्ण प्रतिपदा शनिवार और मगलवार को हो और इस दिन गोलाकार काले रंग की उल्काएँ टूटती हुई दिखलाई पड़े तो महान भय होता है और कागि अनछी नहीं होती) इन दिनों में मध्य रात्रि के बाद श्वेत रंग की उल्काएँ पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो फसल बहुत अच्छी होती है। यदि इन पतित होनेवाली उल्काओं का आकार मगर और सिह के समान हो तथा
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पतित होते समय शब्द हो रहा हो तो फसल में रोग लगता है और अच्छी होने पर भी कम ही अनाज उत्पन्न होता है । (आषाढ़ कृष्ण तृतीया, पंचमी, षष्ठी, एकादशी, द्वादशी और चतुर्दशी को मध्यरात्रि के बाद उल्कापात हो तो निश्चय से फसल खराब होती है। इस वर्ष में ओले गिरते है तथा पाला पड़ने का भी भय रहता है ( कृष्णपक्ष की दशमी और अष्टमी को मध्यरात्रि के पूर्व ही उल्कापात दिखलाई पड़े तो उस प्रदेश में कृषि अच्छी होती है । इन्हीं दिनों में मध्यरात्रि के बाद उल्कापात दिखलाई पड़े तो गुड़, गेहूँ की फसल अच्छी और अन्य वस्तुओं की फसल में कमी आती है । सन्ध्या समय चन्द्रोदय के पूर्व या चन्द्रास्त के उपरान्त उल्कापात दिखलाई पड़े तो फसल अच्छी नहीं होती । अन्य समय में सुन्दर और शुभ आकार का उल्कापात दिखलाई पड़े तो फसल अच्छी होती है (शुक्लपक्ष में तृतीया दशमी और त्रयोदशी को आकाश गर्जन के साथ पश्चिम दिशा की ओर उल्कापात दिखलाई पड़े तो फसल में कुछ कमी रहती है। तिल तिलह्न और दालवाले अनाज की फसल अच्छी होती है । केवल चावल और गेहूं की फसल में कुछ त्रुटि रहती है । >
फसल की अच्छाई और बुराई के लिए कात्तिक, पीप और माघ इन तीन महीनों के उल्कापात का विचार करना चाहिए (चैत्र और वैशाख का उल्कापात केवल वृष्टि को सूचना देता है । कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी और चतुर्दशी को धूम्रवर्ण का उदक्षिण और पश्चिम दिशा की ओर दिखलाई पड़े तो आगामी फसल के लिए अत्यन्त अनिष्टकारक और पशुओं की महँगी का सूचक है। वपायों में घरी के रोग की सूचना भी इसी उल्कापात से समझनी चाहिए। यदि उक्त तिथियाँ शनिवार, मंगलवार और रविवार को गड़े तो समस्त फल और सोमवार, बुधवार, गुम्वार और शुक्रवार को पड़े तो अनिष्ट चतुर्थांश ही मिलता है। कार्तिक की पुर्णमा को उल्कापात का विशेष निरीक्षण करना चाहिए। इस दिन सूर्यास्त के उपरान्त ही उल्कापात हो तो आगामी वर्ष की बरबादी प्रकट करता है। मध्यरात्रि के पहले उल्कापात हो तो श्रेष्ठ फसल का सूचक है, मध्यरात्रि के उपरान्त उल्कागात हो तो फसल में साधारण गड़बड़ी रहने पर भी अच्छी होती है। मोटा धान्य खूब उत्पन्न होता है। पौष मास में पूर्णिमा को उल्कापात हो तो फसल अच्छी, अमावस्या को हो तो खराब. शुक्ल या कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को हो तो श्रेष्ठ, द्वादशी को हो तो धान्य की फसल बहुत अच्छी और गेहूँ की साधारण दशमी को हो तो साधारण एवं तृतीया, चतुर्थी और सप्तमी को हो तो फसलों में रोग लगने पर भी अच्छी ही होती है। पोप मास में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को यदि मंगलवार हो और उस दिन उल्कापात हो तो निश्चय ही फग़ल चौपट हो जाती वराहमिहिर ने इस
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योग को अत्यन्त अनिष्टकारक माना है। ___ द्वितीया विद्ध माघ मास की कृष्ण प्रतिपदा को उल्कापात हो तो आगामी वर्ष फसल बहुत अच्छी उत्पन्न होती है और अनाज का भाव भी सस्ता हो जाता है । तृतीया बिद्ध द्वितीया को रात्रि के पूर्वभाग में उल्कापात हो तो सुभिक्ष और अन्न की उत्पत्ति प्रचुर मात्रा में होती है। चतुर्थी विद्ध तृतीया को कभी भी उल्कापात हो तो कृषि में अनेक रोग, अवृष्टि और अनावर्षण से भी फसल को क्षति पहुँचती है। पंचमी विद्ध चतुर्थी को उल्कापात हो तो साधारणतया फसल अच्छी होती है । दालों की उपज कम होती है, अवशेष अनाज अधिक उत्पन्न होते हैं । तिलहन, गुड़ का भाव भी कुछ महँगा रहता है । इन वस्तुओं की फसल भी कमजोर ही रहती है । पाठी विद्ध पंचमी को उल्कापात हो तो फसल अच्छी उत्पन्न होती है । सप्तमी विद्ध षष्ठी को मध्य रात्रि के कुछ ही बाद उल्कापात हो तो फसल हल्की होती है । दाल, गेहूं, वाजरा और ज्वार की उपज कम ही होती है। आटमी विद्ध सप्तमी को रात्रि के प्रथम प्रहर में उल्कापात हो तो अतिवृष्टि से फसल को हानि, द्वितीय प्रहर में इलात हो तो साधारणतया अच्छी वर्षा, तृतीय प्रहर में उल्कापात हो तो फसल में यामी और चतुर्थ प्रहर में उल्कापात हो तो गेहूं, गुड़, तिलहन की खूब उत्पत्ति होती है 1 नवमी विद्ध अष्टमी को शनिवार या रविवार हो और इस दिन उल्कापात दिखलाई पड़े तो निश्चयत: चने की फसल में क्षति होती है। दशमी, एकादशी और द्वादशी तिथियाँ शूक्रवार या गुरुवार को हों और इनमें उल्कापात दिखलाई पड़े तो अच्छी फसल उत्पन्न होती है। पूर्णमासी को लाल रंग या काले रंग का उल्कापात दिखलाई पड़े तो फसल की हानि, पीत और श्वेत का उल्कापात दिखलाई पड़े तो श्रेष्ठ फसल एवं चित्र-विचित्र वर्ण का उल्कापात दिला पडे तो सामान्य पअच्छी फसल उत्पन्न होती है। होली के दिन होलिवादाह से पूर्व उल्कापात दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष फसल की कमी और होलिकादाह के पश्चात उसकापाल नीले रंग का विचित्र वर्ण का दिख. लाई पड़े तो अनेक प्रकार से फसल को हानि पहुंचती है।
वैयक्तिक फलादेश--सर्प और शूकर के समान आवारयुक्त शब्द सहित उल्लापात दिखलाई पड़े तो दर्शक को तीन महीने के भीतर मृत्यु या मृत्युतुल्य कप्ट प्राप्त होता है। इस प्रकार का उल्कापात आर्थिक हानि भी सूचित करता है। इन्द्रधनुक आकार समान उल्कापात किसी भी ध्यक्ति को सोमवार की रात्रि में दिखलाई पड़े तो धन हानि, रोग वृद्धि तथा मित्रों द्वारा किसी प्रकार की सहायता की गुना बुधवार की रात्रि में उल्यालात दिखाई पड़े तो वस्त्राभूषणों का लाभ, व्यापार में लाभ और मन प्रसन्न होता है । गुरुवार की रात्रि में उल्का1211 इन्द्रधनुष के आसारा दिखाई पड़े तो व्यक्ति को तीन मास में आर्थिक
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उत्तरा
लाभ, किसी स्वजन को कष्ट, सन्तान की वृद्धि एवं कुटुम्बियों द्वारा यश की प्राप्ति होती है, शुक्रवार को उल्कापात उस आकार का दिखलाई पड़े तो राज-सम्मान, यश, धन एवं मधुर पदार्थ भोजन के लिए प्राप्त होते हैं तथा शनि की रात्रि में उस प्रकार के आकार का उल्कापात दिखलाई पड़े तो आर्थिक संकट, धन को क्षति तथा आत्मीयों में भी संघर्ष होता है। रविवार की रात्रि में इन्द्रधनुष के आकार की उल्का का पतन देखना अनिष्टकारक बताया गया है। रोहिणी, तीनों -उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराभाद्रपदा, चित्रा, अनुराधा और रेवती नक्षत्र में इन्हीं नक्षत्रों में उत्पन्न हुए व्यक्तियों को उल्कापात दिखलाई पड़े तो वैयक्तिक दृष्टि से अभ्युदय सूचक और इन नक्षत्रों से भिन्न नक्षत्रों में जन्मे व्यक्तियों को उल्कापात दिखलाई पड़े तो बष्ट सूचक होता है। तीनों पूर्वो-पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा और और मूलनक्षत्र में जन्मे व्यक्तियों को इन्हीं नक्षत्रों में शब्द करता हुआ उल्कापात दिखलाई पड़े तो मृत्यु सूचक और भिन्न नक्षत्रों में जन्म व्यक्तियो को इन्हीं नक्षत्रों में उलापात सशब्द दिखलाई पड़े तो किसी आत्मीय की मृत्यु और शब्द रहित दिखलाई पड़े तो आरोग्यलाभ प्राप्त होता है। विपरीत आकारवाली उल्का दिखलाई पड़े-जहाँ से निकली हो, पुन: उसी स्थान की ओर गमन करती हुई दिखलाई पड़े तो भयकारक, विपत्तिसूचक तथा किसी भयंकर रोग की सूचक अवगत करना चाहिए। पवन की प्रतिकूल दिशा में उल्का कुटिल भाव से गमन करती हुई दिखलाई पड़े तो दर्शक की पत्नी को भय, रोग और विपत्ति की सुतक समझना चाहिए ।
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व्यापारिक फल (श्याम और असितवर्ण की उल्का रविवार की रात्रि के पूर्वार्ध में दिखलाई पड़े तो काले रंग की वस्तुओं की महंगाई, पीतवर्ण की उल्का इसी रात्रि में दिखलाई पड़े तो गेहूं और चने के व्यापार में अधिक पटावड़ी, श्वेतवर्ण की उल्का इसी रात्रि में दिखलाई पड़े तो चांदी के भाव में गिरावट और लालवर्ण की उल्का दिखलाई पड़े तो सुवर्ण के व्यापार में गिरावट रहती है ।) मंगलवार, शनिवार और रविवार की रात्रि में सट्टेबाज व्यक्ति पूर्व दिशा में गिरती हुई उल्का देखें तो उन्हें माल बेचने में लाभ होता है, बाजार का भाव गिरता है और खरीदने वाले की हानि होती है । यदि इन्हीं रात्रियों में पश्चिम दिशा की ओर से गिरती हुई उल्का उन्हें दिखलाई पड़े तो भाव कुछ ऊँच उठते है और सट्टे वालों को खरीदने में लाभ होता है हिक्षिण में उत्तर की ओर गमन करती हुई उल्का दिखलाई पड़े ती मोती, हीरा, पन्ना, माणिक्य आदि के व्यापार में लाभ होता है। इन रत्नों के मूल्य में आठ महीने तक घटावड़ी होती ती है। जवाहरात का बाजार स्थिर नहीं रहता है) यदि सूर्यास्त या चंद्रास्त काल में
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भद्रबाहुसंहिता
उल्कापात हरे और लाल रंग का वृत्ताकार दिखलाई पड़े तो सुवर्ण और चांदी के । भाव स्थिर नहीं रहते। तीन महीनों तक लगातार घटा-बढ़ी चलती रहती है। कृष्ण रार्प के आकार और रंगवाली उल्का उत्तर दिशा से निकलती हुई दिखलाई पड़े तो लोहा, उड़द और तिलहन का भाव ऊँचा उठता है। व्यापारियों को खरीद से लाभ होता है । पतली और छोटी पूंछवाली उल्का मंगलवार की रात्रि न चमकती हुई दिखलाई पड़े तो गेहूं, लाल कपड़ा एवं अन्य लाल रंग की वस्तुओं वे भाव में घटा-बड़ी होती है। मनुष्य, गज और अश्व के आकार की उल्का यदि रात्रि के मध्यभाग में शब्द सहित गिरे तो तिलहन के भाव में अस्थिरता रही है। मृग, अश्व और वृक्ष के आकार की उल्का मन्द-मन्द चमकती हुई दिखलाई पड़े और इसका पतन किसी वृक्ष या घर के ऊपर हो तो पशुओं के भाव ऊंचे उठते हैं, साथ ही माथ तृण के दाम भी महंगे हो जाते हैं। चन्द्रमा या सूर्य के दाह्निी और उल्का गिरे तो सभी वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है। यह स्थिति तीन महीने तक रहती है, पश्चात् मूल्य पुनः नीचे गिर जाता है । वन या श्मशान भृमि में उलापात हो तो दाल वाले अनाज महंगे होत हैं और अवशेष अनाज सस्ते होते है । पिण्डाकार, चिनगारी फूटती हुई उनका आकाश में भ्रमण करती हुई दिखलाई पड़े और इसका पतन किसी नदी या तालाब के किनार पर हो तो कपड़े का भाव सस्ता होता है। रूई, कपास, सूत आदि के भाव में भी गिरावट आ जाती है। चित्रा, मृगशिर, रेवती, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी और ज्येष्ठा इन नक्षत्रों में पश्चिम दिशा से चलकर पूर्व या दक्षिण की ओर उल्कापात हो तो सभी वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है तथा विशेष रूप से अनाज का मूल्य बढ़ता है। रोहिणी, धनिष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद, श्रव और पृष्य इन नक्षत्रों में दक्षिण की ओर जाज्वल्यमान उल्कापात हो तो अन्न का भाव सस्ता, सवर्ण और चांदी के भावों में भी गिरावट, जवाहरात के भाव में कुछ महंगी, तृण और लवाड़ी के मूल्य में वृद्धि एवं लोहा, इस्पात आदि के मूल्य में भी गिरावट होती है । अन्य धातुओं के मूल्य में वृद्धि होती है।
दह्न और भस्म के समान रंग और आकारवाली उल्याएं आकाश में गमन करनी हुई रविवार, भौमवार और शनिवार की रात्रि को अवस्मात् किसी कुएं पर पतित होती हुई दिखलाई पड़ें तो प्राय: अन्न का भाव आगामी आठ महीनों से महंगा होता है और इस प्रकार का उल्कापात दुभिक्ष का सूचक भी है । अन्नसंग्रह करनेवालों को विशेष लाभ होता है । (शुक्रवार और गुरुवार को पुष्य या पुनर्वसु नक्षत्र हो और इन दोनों की रात्रि के गुर्वार्ध में श्वेत या पीतवर्ण का उल्कापात दिपनाई गई तो गाधारणतया भात्र गम रहने है।माणिक्य, मंगा, मोती, हीरा, पागग दिलों की कीमत में वृद्धि होती है । 'गुवर्ण और चांदी का भाव भी
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तृतीयोऽध्यायः
कुछ ऊंचा रहता है। गुरु पुष्य योग में उल्कापात दिखलाई पड़े तो यह सोने, चाँदी के भावों में विशेष घटा-बड़ी का सूचक है जूट, बादाम, घृत, और तेल के भाव भी इस प्रकार के उत्कमेंट की करते हैं (रवि-पुष्य योग में दक्षिणोत्तर आकाश में जाज्वल्यमान उल्कापात दिखलाई पड़े तो सोने का भाव प्रथम तीन महीने तक नीचे गिरता है फिर ऊँचा चढ़ता है घी और तेल के भाव में भी पहले गिरावट, पश्चात् तेजी आती है। यह व्यापार के लिए भी उत्तम है। नये व्यापारियों को इस प्रकार के उल्कापात के पश्चात् अपने व्यापारिक कार्यों में अधिक प्रगति करनी चाहिए रोहिणी नक्षत्र यदि सोमवार को हो और उस दिन सुन्दर और श्रेष्ठ आकार में उल्का पूर्व दिशा से गमन करती हुई किसी हरे-भरे खेत या वृक्ष के ऊपर गिरे तो समस्त वस्तुओं के रहती है व्यापारियों के लिए यह समय विशेष महत्त्वपूर्ण है, समय का सदुपयोग करते हैं, वे शीघ्र ही धनिक हो जाते हैं ।
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रोग और स्वास्थ्य सम्बन्धी फल देश सछिद्र, कृष्णवर्ण या नीलवर्ण की उल्काएँ ताराओं का स्पर्श करती हुई पश्चिम दिशा में गिरे तो मनुष्य और पशुओं में संक्रामक रोग फैलते हैं तथा इन रोगों के कारण सहस्रों प्राणियों की मृत्यु होती है । आश्लेषा नक्षत्र में मगर या सर्प की आकृति की उल्का नील या रक्तवर्ण की भ्रमण करती हुई गिरे तो जिस स्थान पर उल्कापात होता है, उस स्थान के चारों ओर पचास कोस की दूरी तक महामारी फैलती है। यह फल उल्कापात से तीन महीने के अन्दर ही उपलब्ध हो जाता है। श्वेतवर्ण की दण्डाकार उल्का रोहिणी नक्षत्र में पतित हो तो पतन स्थान के चारों ओर सौ कोश तक सुभिक्ष, सुख, शान्ति और स्वास्थ्य लाभ होता है। जिस स्थान पर यह उल्कापात होता है, उससे दक्षिण दिशा में दो सौ कोश की दूरी पर रोग, कष्ट एवं नाना प्रकार की शारीरिक बीमारियाँ प्राप्त होती हैं । इस प्रकार के प्रदेश का त्याग कर देना ही श्रेयस्कर होता है । गोपुच्छ के आकार की उल्का मंगलवार को आश्लेषा नक्षत्र में पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो यह नाना प्रकार के रोगों की सूचना देती है । हैजा, चेचक आदि रोगों का प्रकोप विशेष रहता है। बच्चों और स्त्रियों के स्वास्थ्य के लिए विशेष हानिकारक है। किसी भी दिन प्रातःकाल के समय उल्कापात किसी भी वर्ण और किसी भी आकृति का हो तो भी यह रोगों की सूचना देता है । इस समय का उल्कापात प्रकृति विपरीत है, अतः इसके द्वारा अनेक रोगों की सूचना समझ लेनी चाहिये । इन्द्रधनुष या इन्द्र की ध्वजा के आकार में उल्कापात पूर्व की ओर दिखलाई पड़े तो उस दिशा से रोग की सूचना समझनी चाहिए। किवाड़, बन्दूक और तलवार के आकार की उल्का धूमिल वर्ण की पश्चिम दिशा में दिखलाई पड़े तो अनिष्टकारक समझना चाहिये । इस प्रकार का
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मूल्य मे घटा-बढ़ी
जो व्यापारी इस
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चतुर्थोऽध्यायः
उल्कापात व्यापी रोग और महामारियों का सूचक है ( स्निग्ध, श्वेत, प्रकाशमान और सीधे आकार का उल्कापात शान्ति, सुख और नीरोगता का सूचक है ) उल्कापात द्वार पर हो तो विशेष बीमारियां सामूहिक रूप से होती है ।
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चतुर्थोऽध्यायः
"
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि परिवेशान यथाक्रमम । प्रशस्तानप्रशस्तांश्च यावदनुपूर्वतः ॥ ॥
उल्काध्याय के पश्चात् जब परिवेषों का पूर्व परम्परानुसार यथाक्रम से कथन करता हूँ । पपि दो प्रकार के होते हैं प्रशस्त शुभ और अप्रशस्त-अशुभ ॥ ॥ पंच प्रकारा विज्ञेया: पंचवर्णाश्च भौतिकाः । ग्रहनक्षत्रयोः कालं परिवेषाः समुत्थिताः " 11211
पाँच वर्ण और पाँच भूतों- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश की अपेक्षा से परिवेष पनि प्रकार के जानने चाहिए। ये परिवेष ग्रह और नक्षत्रों के काल को पाकर होते हैं || 21
रूक्षाः खण्डाश्च वामाश्च क्रव्यादायुधसन्निभाः । अप्रशस्तः प्रकीर्त्यते "विपरीतगुणान्विता ॥3॥
जो चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह और नक्षत्रों के परिवेष - - मण्डल कुण्डल रुक्ष, खण्डित अपूर्ण, टेढ़े, क्रव्याद - मांसभक्षी जीव अथवा चिता की अग्नि और आयुध - तलवार, धनुष आदि अस्त्रों के समान होते हैं, वे अशुभ और इनसे विपरीत लक्षण वाले शुभ मान गये हैं ||3||
रात्रौ तु सम्प्रवक्ष्यामि प्रथमं तेषु लक्षणम् । ततः पश्चादिवा भूये तन्निबोध" यथाक्रमम् ' ॥4॥
1. अनुपूर्वशः गुo C. 5. विपरीत आ० । 6. तन्निबोधन
। 2 समुपस्थिताः आ । 3. प्रशस्त C. 14. न प्रशस्यते C. 17. गलत: मु० D. ।
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किसान चित
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तृतीयोऽध्यायः
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आगे हम रात्रि में होने वाले परिवेषों के लक्षण और फल वो कहेंगे; पश्चात दिन में होने वाले परिवेषों के लक्षण और फल का निरूपण करेंगे। क्रमशः उन्हें अवगत करना चाहिए ॥411
क्षीरशंखनिभाते परिवेष योग :
तदा क्षेमं सुभिक्षं च राज्ञो विजयमादिशेत् ॥5॥ चन्द्रमा के इदं-गिदं दूध अथवा शंख के सदृश परिवेप हो तो क्षेम-कुशल और मुभिज्ञ होता है तथा राजा की विजय होती है ।।5।।
सपिस्तलनिकाशस्तु परिवेषो यदा भवेत् ।
न चाऽऽकृष्टोऽतिमात्र च महामेधस्तदा भवेत् ॥6॥ यदि घृत और तैल के वर्ण का चन्द्रमा का मण्डल हो और वह अत्यन्त प्रवेत न होकर विञ्चित् गन्द हो तो अत्यन्त वर्ण होती है ।।७।।
रूप्यपारापताभश्च परिवेषो यदा भवेत् ।
'महामेघास्तवाभीक्षण' तर्पयन्ति जलमहीम् ।।7॥ चाँदी और कबूतर के समान आ'भा बाला चन्द्रमा का परिवेष हो तो निरन्तर जल-वर्षा द्वारा पृथ्वी जलवाचित हो जाती है अर्थात् नाई दिनों तक झड़ी लगी रहती है ।।7।।
इन्द्रायुध सवर्णस्तु परिवतो यदा भवेत।
संग्राम तत्र जानीयाद वर्ष" चापि जलागमम् ॥8॥ यदि पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रधनुष के समान वर्ण बाला चन्द्रमा का परिवेष हो तो उस दिशा में संग्राम का होना और जल का बरसना जानना चाहिए ॥६।।
कृष्णे नीले ध्रुवं वर्ष पीते तु" व्याधिमादिशेत् ।
12रूक्षे भस्म निभे चापि दुष्टिभयमादिशेत् ॥9॥ काले और नीले वर्ण का चन्द्रमण्डल हो तो निश्चय ही वर्षा होती है । यदि पीले रंग का हो तो व्याधि का प्रकोप होता है। चन्द्रमण्डल में रूक्ष और भस्म सदृश होने पर वर्षा का अभाव रहता है और उसमे भय होता है । तात्पर्य
1. परिवेष आ० । 2. यथा आ० । 3. आकष्ट मु० । 4. धारर मु. C.I 5. प्रभावस्तु म.C. 1 6. मेष: A.C. B. मु. 17. भीक्षं मु० C.48. मवर्ण आ० । 9. वर्ष आ० । 10. जलागमे आ० । 11. पीतके आ० । 12. मदिन C में इसके पूर्व लक्षवप्रतिमानातु महामेघस्तदा भवेत्' यह पाठ भी मिलता है ।
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भद्रबाहुसंहिता
यह है कि जल की वर्षा न होकर वायु तेज चलती है, जिससे फूल की वर्षा दिखलाई पड़ती है 119|
यदा तु सोममुदितं परिवेषो रुणद्धि हि ।
जीमूतवर्णस्निग्धश्च महामेघस्तदा भवेत् ॥10॥ यदि चन्द्रमा का परिवेष उदयप्राप्त चन्द्रमा को अवरुद्ध करता है-~-ठक लेता है और वह मेघ के समान तथा स्निग्ध हो तो उत्तम वृष्टि होती है । 10॥
अभ्युन्नतो यदा श्वेतो रूक्षः सन्ध्यानिशाकरः।
अचिरेणैव कालेन राष्ट्र चौरविलुप्यते ॥1॥ उदय होना हुआ सन्ध्या के समय का चन्द्रमा यदि श्वेत और रूक्ष वर्ण के । परिवेप से युति हो तो देश को चोरों के उपद्रव का भग होता है 11 ||
चन्द्रस्य परिवेषस्तु सर्वरात्रं यदा भवत् ।
शस्त्रं जनक्षयं चैव तस्मिन् देशे विनिदिशेत् ॥12॥ यदि सारी रात --उदय में अम्त तमः चन्द्रमा वा परिवेप रहे तो इस प्रदेश में परस्पर गलह-मारपीट और जनता का नाश सूचित होता है ।। 1 211
भास्करं तु यदा रूक्ष: परिवेषो रुणद्धि हि।
तदा मरणमाख्याति नागरस्य महीपतेः ।।13।। यदि सूर्य का परियेप रूक्ष हो और वह उस ढक ले तो उसके द्वारा नागरिक एवं प्रशासकों की मृत्यु की गूचना मिलती है ।।1 311
आदित्यपरिवेषस्तु यदा सर्वदिनं भवेत् ।
क्षुभयं जनमारिञ्च शस्त्रकोपं च निदिशेत् ॥14॥ मूर्य का परिवेष मारे दिन उदय मे अम्त तक बना रहे तो क्षुधा का भय, मनुष्यों का महामारी द्वारा मरण एवं युद्ध का प्रकोप होता है | 141
हरते सर्वसमस्यानामोतिर्भवति दारुणा।
वृक्षगुल्मलतानां च वर्तनीनां तथैव च ॥15॥ उक्त प्रसार के पग्वेिप से सभी प्रकार धान्यों का नाश, घोर ईति-भीति और बा, मो-जुर मटो, नताशों तथा पश्थियों को हानि पहुँचती है ।। 1 51
1. सापरस्य आ० । 2. नरिमन्नत्गानदर्शने म..।
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चतुर्थोध्यायः
यत: खण्डस्तु दृश्येत् ततः प्रविशते परः ।
ततः प्रयत्नं कुर्वीत रक्षण पुरराष्ट्रयोः ।।।6। उपर्युक्त समस्त दिनव्यापी सर्य परिवेष का जिस ओर का भाग खगिडत दिखाई दे, उस दिशा से परचक्र का प्रवेश होता है. अत: नगर और देश की रक्षा के लिए उस दिशा में प्रबन्ध करना चाहिए ।।16।।
रक्तो वा यथाभ्युदितं कृष्णपर्यन्त एव च।
परिवेषो रवि रुन्ध्याद ? राजव्यसनमादिशेत् ।।17। रक्त अथवा कृष्णवर्ण पर्यन्त चार वर्ण वाला सूर्य का परिवप हो और वह __ उदित सूर्य को आच्छादित करे तो कष्ट सूचित होता है ।।17।।
यदा त्रिवर्णपर्यन्तं परिवेषो दिवाकरम ।
तद्राष्ट्रमचिरात् कालाद् दस्युभिः परिलुप्यते ॥18॥ यदि तीन वर्ण वाला परिवेष सूर्य मण्डल को दवा ले तो बराओं द्वारा देश में उपद्रव होता है तथा दस्यु वर्ग की उन्नति होती है || J KI!
हरितो नीलपर्यन्तः परिवेषो यदा भवेत् ।
आदित्ये यदि वा सोमे राजधसनमादिशेत ॥19। यदि हरे रंग से लेकर नीले रंग पर्यन्न परिवेष मूर्य अथवा चन्द्रमा का हो तो प्रशासक वर्ग को कष्ट होता है ।। 1 911
दिवाकर बहविधः परिवषो रुद्धि हि।
भिद्यते बहुधा वापि गवां मरणमादिशत ।।2011 यदि अनेक वर्ण वाला परिवेष सूर्य भगडला को अवरुद्ध करने अथवा खा. खण्ड अनेक प्रकार का हो तथा सूर्य को क ले तो गायों का मरण सूचित होना है।।2011
10यदाऽतिमुच्यते शीघ्र" दिशि चलाभिवर्धते। गवां विलोपमपि च तस्य राष्ट्रस्य निदिशेत् ।।2।।
1. प्रत्यत्नं गन्न मु. 1 2 'पतं { A. I 3. अब मा ( । ...) । 5. रवि मु. D. I 6. विद्यात् आ० । 7. राजा मु.A., राजा म. (
C8 .1, और परिसाप्यते, ये दोनों ही पाठ मिलते हैं। आ• 19 साक्षोभो भवेस् ... | 30. वषाभिमुच्यते मु० । 11. दिवसश्चवाभिवति म ।
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भाकाहाहिता
जिस दिशा में सूर्य का परिवेप शीघ्र हटे और जिस दिशा में बढ़ता जाय उस दिशा में राष्ट्र की गायों का लोप होता है -गायों का नाश होता है 1121|| .
अंशुमाली' यदा तु स्यात् परिवेषः समन्ततः ।
तदा सपुरराष्ट्रस्य देशस्य रुजमादिशेत् ॥22॥ सूर्य का परिवैप यदि सूर्य के चारों ओर हो तो नगर, राष्ट्र और देश के मनुष्य महामारी से पीड़ित होते हैं ।1221।
ग्रहनक्षत्रचन्द्राणां परिवेषः प्रगृह्यते।
अभीषणं यत्र वर्तेत' तं देशं परिवर्जयेत् ॥23॥ ग्रह--गूर्यादि मात ग्रह, नक्षत्र - अभियनी, भरणी आदि 28 नक्षत्र और चन्द्रा का गग्विष निरन्तर बना रहे और वह उस रूप में ग्रहण किया जाय तो उस देश का परित्याग कर देना चाहिए, यतः वहाँ शीघ्र ही भय उपस्थित होता है ।।23।।
परिवेषो विरुद्धष नक्षत्रेषु प्रहेषु च ।
कालेषु वृष्टिविज्ञेया भयमन्यत्र लिदिशेत ॥24॥ गाल में ग्रहों और अक्षयों की जित दिशा में परिवेष हों उस दिशा में वृष्टि होती है और अन्य प्रकार का मय होता है ।।24।
अभ्रशवितर्यतो गरोत तां दिश त्वभियोजयेत् ।
रिक्ता' वा विपुला' चाग्रे जयं कुर्वीत शाश्वतम् ।।2511 जल ग रिात अथवा जद में पूर्ण बादलों की पंक्ति जिस दिशा की ओर गमन पारे उस दिशा में गायत जय होती है ।।250
यदाभ्रशक्तिई श्येत परिवषसमानवता'।
नागरान यायिनो हन्युस्तदा यत्नेन संयगे ॥26॥ गादि परिवे सहित अनशक्ति -बादल दिखलाई पड़े तो आक्रमण करने याने जज द्वारा नगरवासियों का युद्ध में विनाश होता है, अतः यलपूर्वक रक्षाः करनी चाहिए 1126।।
!. अर्थगाली ! 2. धर्तेत म । 3. आदिशेत् मु. B. D. 14. रक्तो मु०॥ 5. बिपला म - 1 6. कुर्वीन म० । 7. समलिना मु. C. 1 8. गायिनो, याविनः A. D., याविनं मुCI
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चतुर्थोऽध्यायः नानारूपो यदा दण्डः परिवष प्रमर्दति ।
नागरास्तत्र 'बध्यन्ते यायिनो नात्र संशयः ॥27॥ यदि अनेक वर्ण वाला दण्ड परिवेष को मर्दन करता हुआ दिखलाई पड़े तो आक्रमणकारियों द्वारा नागरिकों का नाश होता है, इसमें सन्देह नहीं ।।27।।
त्रिकोटि' यदि दृश्येत् परिवेष: कथञ्चन ।
त्रिभागशस्त्रवध्योऽसाविति निग्रन्थशासने ॥28॥ कदाचित् तीन कोने वाला परिवेष देखने में आवे तो युद्ध में तीन भाग सना मारी जाती है, ऐसा निर्ग्रन्थ शासन में बतलाया गया है ।।2811
चतुरस्रो यदा चापि परिवेषः प्रकाशते ।
क्षुधया व्याधिमिश्चापि चतुर्भागोऽवशिष्यते ॥29॥ यदि चार कोने वाला परिवेष दिखलाई दे तो क्षुधा--भूख और रोग से पीड़ित होकर विनाश को प्राप्त हो जाती है, जिसमे जन-संख्या चतुर्थाश रह जाती है ।।2911
अर्द्धचन्द्रनिकाशस्तु परिवेषो रुद्धि हि।
आदित्यं यदि वा सोमं राष्ट्र संकुलतां व्रजेत् ॥3॥ अर्ध चन्द्राकार परिवेष चन्द्रमा अथवा सूर्य को आच्छादित करे तो देश में व्याकुलता होती है ॥30॥
प्राकाराट्रालिकाप्रख्यः परिवेषो रुणद्धि हि।
आदित्यं यदि वा सोमं पुररोध निवेदयेत् ॥31॥ यदि कोट और अट्टालिका के सदृश होकर परिवेष सूर्य और चन्द्रमा को __ अवरुद्ध करे तो नगर में शत्रु के घेरे पड़ जाते हैं ऐसा कहना चाहिए ।।3।।
समन्ताद् बध्यते यस्तु मुच्यते च महर्मुहुः । __ संग्रामं तत्र जानीयाद् दारुणं पर्युपस्थितम् ॥32॥ सूर्य अथवा चन्द्रमा के चारों ओर परिवेष हो और वह बार-बार होवे और बिखर जाये तो वहाँ पर कलह एवं संग्राम होता है ।।3211
। 4. आदित्य म्।।
1. . ते म । 2. विकोणो मा । 3. विशिने 5. मोम म । 6. भयमास्यानि दारुणम् म C. I
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भद्रबाहुसंहिता
पा गृहमा परिवेषः प्रकाशते।
अचिरेणव कालेन संकुलं' तत्र जायते ॥33॥ यदि परिवेष ग्रह को आच्छादित करके दिखलाई दे तो वहाँ शीघ्र ही सब आकुलता से व्याप्त हो जाते हैं 1133॥
यदि राहमपि प्राप्तं परिवेषो रुणद्धि चेत् ।
तदा सष्टिर्जानीयाद् व्याधिस्तत्र भयं भवेत् ॥34॥ यदि परिवेष राहु को भी ढक ले ---घेरे के भीतर राहु ग्रह भी आ जाय - तो अन्नी वर्षा होती है, परन्तु वहाँ व्यधि का भय बना रहता है ॥34॥
पूर्वसन्ध्या नागराणामागतानां च पश्चिमा।
अद्धरास्त्रेषु राष्ट्रस्य मध्याह्न राज्ञ उच्यते ॥35।। गुर्व की सन्ध्या का फल स्थायी---नमरवामियों को होता है और पश्चिम की गण्या का फल आगन्तुक - गायी को होता है । अर्धरात्रि का फल देश भर को और गायान का फल राजा को प्राप्त होता है ॥35॥
धमकेतं च सोमं च नक्षत्रं च रुद्धि हि।
परिवेषो यदा राहं तदा यात्रा न सिध्यति ॥36॥ यदि परिव धूमधेत--पुच्छलतारा, चन्द्रमा, नक्षत्र और राहु को आच्छादित करे तो यामी -प्रापण करने वाले रागा की यात्रा की सिद्धि नहीं होती ॥36।।
यदा तु ग्रहनक्षत्रे परिवेषो रुणद्धि हि ।
अभावस्तस्य देशस्य विज्ञेयः पर्युपस्थितः ॥37॥ यदि परिवेष ग्रह और नक्षत्रों को रोके तो उस देश का अभाव हो जाता है-- उस देश में प्रकट होता है ।। 3711
त्रयो "यत्रावरुद्ध्यन्ते नक्षत्रं चन्द्रमा ग्रहः ।
व्यहाद वा जायते वर्ष मासाद वा जायते भयम् ।।38) नक्षत्र, चन्द्रमा और मंगल, बुध, गुरु और शुत्रः इन पाँच ग्रहों में से किसी एा को रश्रि परिवेष अवरुद्ध करे तो तीन दिन में वर्ण होती है अयना एन.
1. मग ।। 2 ।गा नदः साई परिमाणादिदि धिमा भयं न ।। 3411 म.. (' । 3 जनानां म.। 4 मिले, ना नन्दमा : [..।
भाट विजानियन प15 वीण पन्न
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चतुर्थोऽध्याय:
मास में भय उत्पन्न होता है ।। 38।।
उल्कावत् साधनं ज्ञेयं परिवेषेषु तत्त्वतः ।
लक्षणं सम्प्रवक्ष्यामि विद्युतां तन्निबोधत ॥39॥ परिवेषों का फल उल्का के फल के समान ही अवगत करना चाहिए । अब आगे विद्युत् के लक्षणादि का निरूपण करते हैं ।।3911
इति नन्थे भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र परियेषवर्णनो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।
विवेचन–परिवेषों के द्वारा शुभाशुभ अवगत करने की परम्परा निमित्त शास्त्र के अन्तर्गत है। परिवेषों का विचार अग्वेद में आया है। सूर्ग अथवा चन्द्रमा की किरणें पर्वत के ऊपर प्रतिबिम्बित और पवन के द्वारा मंडलाकार होकर थोड़े से मेघ वाले आकाश में अनेक रंग और आकार जी दिखलाई पड़ती हैं, इन्हीं को परिवेष करते हैं। वर्षा ऋतु में सूर्य या चन्द्रमा के चारों ओर एक गोलाकार अथवा अन्य नि.मी आकार में एक महलमा बनता है, कमी को परिचय कहा जाता है।
परिवेषों का साधारण फलादेश- जो परिवेष नीलकंट, मोर, चांदी, तेल, दूध और जल को समान आभा वाला हो, स्वशाल सम्भूत हो, जिम का वृत्त पण्डित न हो और स्निग्ध हो, वह भिक्ष और मंगल करने वाला होता है। जो परिवेश समस्त आकाश में गमन करे, अनेक प्रकार की आभा वाला हो, मरि कभमान' हो, रूखा हो, खण्डित हो सश्रा धना और शृगाटिक यो मामान को वह पापकारी, भयप्रद और रोगसूचक होता है। मोर की गर्दन वे सामान परिवा हो तो अत्यन्त वर्षा, वहृत रंगों वाला हो तो राजा का वध, धूमवर्ण या होने में गाय और इन्द्रधनुष के समान या अशोक के फल के समान कान्ति बाला हो तो यूद होता है। किसी भी ऋतु में यदि परिवेप एक ही वर्ण का हो, स्निग्ध हो सथा छोट-छोटे मेघों में व्याप्त हो और सूर्य की किरण पीत वर्ण की हों तो प्रकार का रिवा शीघ्र ही वर्षा का सूचक है। यदि तीनों कानों की सन्ध्या में परिवग दिखलाई पड़े तथा परिबेप की ओर मुख करक मग या पक्षी गब्द करने हों तो इस प्रकार का परिवेष अत्यन्त अनिष्टकारक होता है। यदि परिवेग का भेदन मा या विद्युत् द्वारा हो तो इस प्रकार के परिवेग द्वारा किसी बो ता की मृत्य की सूचना समझनी चाहिए । रमतवर्ण का पग्विप भी किगी नेता की मृत्यु ना गुच है । उदयकाल, अस्तकाल और मध्याह्न या मध्य रात्रि कान में लगातार परिमाण दिखलाई पड़े तो किसी नेता की मृत्यु ममानी चाहिए । दो मण्डल का परिचय
I.मग्निवोधन म.
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भद्रगहुसंहिता
सेनापति के लिए आतंककारी, तीन मडल बाला परिवेष शस्त्रकोप का गूचक, चार मंडल का परिवेष देश में उपद्रव तथा महत्त्वपूर्ण युद्ध का सूचक एवं पाँच मण्डल का परिवेष देश या राष्ट्र के लिए अत्यन्त अशुभ सूचक है। मंगल परिवेप में हो तो सेना एवं गनापति को भग्न, बुध परिवेश में हो तो कलाकार, कवि, लेखा एवं मन्त्री को भय; बृहस्पति परिवेष में हो तो पुरोहित, मन्त्री और राजा को भय, शुक्र परिवेष में हो तो क्षत्रियों को कष्ट एवं देश में अशान्ति और शनि परिवेष महो तो देश में चोर, डाकूओं का उपद्रव वृद्धिंगत हो तथा साधु, संन्यासियों को अनेक प्रकार के कष्ट है। दुनियेत में हो तो नि ! प्राम तथा शस्त्रादि का भय होता है। परिवेष में दो ग्रह हों तो कृषि के लिए हानि, वर्षा का अभाव, अशान्ति और साधारण जनता को कष्ट; तीन ग्रह परिवेष में हों तो दुभिक्ष, अन्न का भाव महँगा और धनिक वर्ग को विशेष कष्ट; चार ग्रह परिवेष में हो तो मन्त्री, नेता एवं किसी धर्मात्मा की मृत्यु और पाँच ग्रह 'रिवेप में हो तो अनय तुल्य कष्ट होता है। यदि मंगल बुधादि पांच ग्रह परिवेष में हो तो विसी बड़े गारी राष्ट्रनायक को मृत्यु तथा जगत् में अशान्ति होती है। शासन परिवान का योग भी दगी के द्वारा बनता है। यदि प्रतिगया से लेकर चतुर्थी तक परिवेष हो तो जमानुसार ब्राह्मण, क्षभिय, वैश्य और शूद्रों को काट सूत्रक होता है। पंचमी मे लेकर सप्तमी तक परिवेष हो तो नगर, कोप एवं धान्य के लिए अशुभकारक होता है । अष्टमी को परिवेष हो तो युवया, मन्त्री या किसी बड़े शासनाधिकारी की मृत्यु होती है । इस दिन या परिवेष गाँव और नगरों की उन्नति में रुकावट को भी सूचना देता है । नवमी, दशमी और एकादशी में होने वाला परिवेष नागरिक जीवन में अशान्ति और प्रशासक या मंडलाधिकारी की मृत्यु की सबना देता है । द्वादशी तिथि में परिवेष हो तो देश या नगर में घरेलू उपद्रव अयोदशी में परिवेग हो तो शस्त्र का क्षोन, चतुर्दशी में परिवेष हो तो नारियों म भयानक रोग, प्रशासनाधिकारी की नमणी को कष्ट एवं पूर्णमासी में परिवेष हो तो साधारणत: गान्ति, समृद्धि एवं सुख की सूचना मिलती है। यदि परिवेष के भीतर रेखा दिखलाई पड़े तो नगरवासियों को कष्ट और परिवेष के बाहर रेखा दिखालाई पड़े तो देश में शान्ति और सुख का विस्तार होता है । स्निग्ध, श्वेत, और दीप्तिगाली परिवेप विजय, लक्ष्मी, मुख और शान्ति की सूचना देता
रोहिणी, धनिष्ठा और श्रवण नक्षत्र में परिवेष हो तो देश में सुभिक्ष, शान्ति, वर्षा एवं हर्ष की वृद्धि होती है । अश्विनी, कृत्तिका और मृगशिरा में परिवेष हो तो समयानुकल वर्षा, देश में जान्ति, धन-धान्य की वद्धि एवं व्यापारियों को लाभ; भरणी और आश्लेषा में परिवेश हो तो जनता को अनेक प्रकार का
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चतुर्थोऽध्यायः
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कष्ट, किसी महापुरुष की मृत्यु, देश में उपद्रव, अन्न कष्ट एवं महामारी का प्रकोप आर्द्रा नक्षत्र में परिवेष हो तो सुख-शान्ति का कारक पुनर्वसु नक्षत्र में परिवेष हो तो देश का प्रभाव बढ़े, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिले, नेताओं को सभी प्रकार के सुख प्राप्त हों तथा देश की उपज वृद्धिगति हो; पुष्य नक्षत्र में परिवेष हो तो कल-कारखानों की वृद्धि हो; आश्लेषा नक्षत्र में परिवेष हो तो सब प्रकार से भय, आतंक एवं महामारी की सूचना, मघा नक्षत्र में परिवेष हो तो श्रेष्ठ वर्षा की सूचना तथा अनाज सस्ते होने की सूचना तीनों पूर्वाओं में परिवेष हो तो व्यापारियों को भय, साधारण जनता को भी कष्ट और कृपक वर्ग को चिन्ता की सूचना; तीनों उत्तराओं में परिवेष हो तो साधारणतः शान्ति, चेचक का प्रकोप, फसल की श्रेष्ठता और पर-शासन से भय हस्त नक्षत्र में परिवेष हो तो सुभिक्ष, धान्य की अच्छी उपज और देश में समृद्धि; चित्रा नक्षत्र में परिवेष हो तो प्रशासकों में मतभेद, परस्पर कलह, और देश को हानि स्वाती नक्षत्र में परिवेष हो तो समयानुकूल वर्षा, प्रशासकों को विजय और शान्ति विशाखा नक्षत्र में परिवेष हो तो अग्निभय, शरत्र भय और रोगभय अनुराधा नक्षत्र में परिवेष हो तो व्यापारियों को कष्ट, देश की आर्थिक क्षति और नगर में उपद्रव; ज्येष्ठा नक्षत्र में परिवेष हो तो जणान्ति, उपद्रव और अग्नि भय मूल नक्षत्र ग पारष हो यो देश में घरेलू कलह, नेताओं में मतभेद और अन्त की क्षति पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में परिवेष हो तो कृषकों को लाभ, पशुओं की वृद्धि और धन-धान्य की वृद्धि; उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में परिवेष हो तो जनता में प्रेम, नेताओं में सहयोग, देश की उन्नति और व्यापार में लाभ; शतभिषा में परिवेष हो तो शत्रु भय, अग्नि का विशेष प्रकोप और अन्न की कमी पूर्वाभाद्रपद में परिवेष हो तो कलाकारों का सम्मान और प्रायः शान्ति; उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में परिवेष हो तो जनता में सहयोग देश में कल-कारखानों की वृद्धि और शासन में तरक्की एवं रेवती नक्षत्र में परिवेष हो तो सर्वत्र शान्ति की सूचना समझनी चाहिए। परिवेष के रंग, आकृति और मण्डलों की संख्या के अनुसार फलादेश में न्यूनता या अधिकता हो जाती है । किसी भी नक्षत्र में एक मंत्र का परिवेष साधारणतः प्रतिपादित फल की सूचना देता है, दो मंडल का परिवेष निरूपित फल से प्रायः डेढ़ गुने फल की सूचना, तीन मंडल का परिवेप द्विगुणित फल की सूचना, चार मंडल का परिवेष त्रिगुणित फल की सूचना और पाँच मंडल का परिवेष चीने फल की सूचना देता है ! परिवेष में पाँच से अधिक मंडल नहीं होते हैं । साधारणतः एक मंडल का परिवेष शुभ ही माना जाता है। मंडलों में उनकी आकृति की स्पष्टता का भी विचार कर लेना उचित ही होगा
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वर्षा और कृषि परिविष का फलादेश वर्धा का विचार प्रधान रूप
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भद्रबाहुसंहिता
से चन्द्रमा के परिवेष से किया जाता है और कृषि सम्बन्धी विचार के लिए सूर्य परिवेष का अवलम्बन लिया जाता है। यद्यपि दोनों ही परिवेष उभय प्रकार के फल की सूचना देते हैं, फिर भी विशेष विचार के लिए पृथक परिवेष को ही लेना चाहिए।
सन्दरी के परिव व रंग का हो और उसमें अधिक से अधिक दो मण्डल हों तो लगातार सात दिनों तक वर्षा की सूचना समझनी चाहिए। इस प्रकार का परिवेष फसल की उत्तमता की सूचना भी देता है । वर्षा ऋतु में समय पर पर्षा होती है । आश्विन और कात्तिक में भी बर्षा होने से धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती है। यदि उक्त प्रकार के परिवेष के समय चन्द्रमा का रंग श्वेत वर्ण हो तो माघ मारा में भी बर्षा होने की सूचना समझ लेनी चाहिए । कदाचित चन्द्रमा का रंग नीला या काला दिखलाई पड़े तो निश्चय से अच्छी वर्षा होने की सूचना समझनी चाहिए । चन्द्रमा के नीन्ने या काले होने में मुभिक्ष भी होता है । गेहूं, घान और गुड़ की फसल अच्छी उत्पन्न होती है। काले रंग के चन्द्रमा के होने से आश्विन भारा में वर्षा का दस दिनों तक अवरोध रहता है, जिससे धान की फसल में कमी आती है। चन्द्रमा हरित वर्ण का मालग हो और परिवेष दो मंडलों के घेरे में हो तो वर्पा सामान्य ही होती है, पर फसल अच्छी ही उत्पन्न होती है। चन्द्रमा जिस समय रोहिणी नक्षत्र के नध्य में स्थित हो, उसी समय बिचित्र वर्ण का परिवेग रात्रि के मध्य भाग में दिखलाई पड़े तो इस प्रकार के परिवेप द्वारा देश की उन्नति की सूचना समझनी चाहिए। देश में धन-धान्य की उत्पत्ति' प्रचुर रूप में होती है, वो भी समय पर होती है तथा देश में सर्वत्र मुभिक्ष व्याप्त रहता है। चन्द्रमा का परियोग रक्त वर्ण का दिखलाई गई और चन्द्रमा दा रंग श्वेत या कपोत हो तथा एक ही मंडल वाला परिवेष हो तो वी आपाद में नहीं होती, श्रावण, भाद्रपद में अच्छी वर्मा और अश्विग में वर्ग का अभाव ही रहता है। फसल भी उत्पन्न नहीं होती। यदि आपाह मास में चन्द्रमा का परिवेप सध्या गमय ही दिखलाई पड़े तो श्रावण में धूप होती है, वर्षा का अभाव रहता है। जापाढ़ कृष्ण प्रतिपदा को सन्ध्या काल में चन्द्रमा का परिचय दो मंडलों में दिवलाई पडे तो वर्षा का अभाव, एक मंडल में रक्त वर्ण का परिवेष दिग्दलाई दे तो साधारण वर्श, एक मंडल में ही श्वेत वर्ण और हरित वर्ण मिश्रित परिवेष दिखलाई दे तो प्रचुर बर्षा, तीन मंडल में परिवेष दिखलाई दे तो दुकाल, वर्धा का अभाव और चार मंडल में परिवेष दिसला रहे तो फसल में कमी और दुनिश्श, वर्मा तु गः चारों महीनों अपवष्टि और अन्म वी बाभी होती है । आगाह कृष्ण
चन्द्रोदय होत हरित भारत मिति परिवेष दिनलाई पई ना पूरा ना होती है । तृतीया को चन्द्रोदय के तीन घड़ी बाद यदि
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लाल वर्ण का एक मंडल वाला परिवेष दिखलाई पड़े तो निश्चयत: अधिक वर्षा होती है । नदी-नाले जल से भर जाते हैं । श्रावण के महीने में वर्षा की कुछ कमी रहती है, फिर भी फल उन होती है । तिमी तिथि से मध्य रात्रि के उपरान्त परिवेष दो मंडल वाला दिखलाई पड़े तो वर्षा का अभाव, कृषि में गड़बड़ी और सभी प्रकार की फसलों में रोगादि लग जाते हैं । चतुर्थी तिथि को चन्द्रोदय के साथ ही परिवेष दिखलाई पड़े तो फसल उत्तम होती है और वर्षा भी समयानुकूल होती है, यदि इसी दिन चन्द्रोदय के चार-पांच घड़ी उपरान्त परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा का भादों मास में अभाव ही समझना चाहिए। उपर्युक्त प्रकार का परिवेष फसल के लिए भी अनिष्टकारक होता है ।
आषाढ़ कृष्ण पंचमी, षष्ठी और सप्तमी को चन्द्रास्त काल में विचित्र वर्ण का परिवेष दिखलाई पड़े तो निश्चयतः अल्प वर्षा होती है । अष्टमी तिथि को चन्द्रोदय काल में ही परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा प्रचुर परिमाण में तथा फसल उत्तम होती है । अष्टमी के उपरान्त कृष्ण पक्ष की अन्य तिथियों में अस्त या उदय काल में चन्द्र परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा की कमी ही समझनी चाहिए । फसल भी सामान्य ही होती है ।
आषाढ़ शुक्ला द्वितीया को चन्द्रोदय होते ही परिवेष घेर ले तो अगले दिन नियमत: वर्षा होती है । इस परिवेष का फल तीन दिनों तक लगातार वर्षा होना भी है | आषाढ़ शुक्ला तृतीया को चन्द्रोदय के तीन घड़ी भीतर ही विचित्र वर्ण का परिवेष चन्द्रमा को घेर ले तो नियमतः अगले पांच दिनों तक तेज धूप पड़ती है, पश्चात् हल्की वर्षा होती । आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी को चन्द्रोदय काल में ही परिवेष रक्त वर्ण का हो तो आषाढ़ मास में सूखा पड़ता है और श्रावण में वर्षा होती है। आपढ़ी पूर्णिमा को लाल वर्ण का परिवेष दिखलाई पड़े तो यह सुभिक्ष का सूचक है, इस वर्ष वर्षा विशेष रूप से होती है। फसल भी अच्छी होती है । अन्न का भाव भी सस्ता रहता है। श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को मध्य रात्रि में चन्द्रमा का परिवेष दिखलाई पड़े तो अगले आठ दिनों में वर्षा का अभाव समझना चाहिए। यदि यह परिवेष ज्वेत वर्ण का हो तो श्रावण भर वर्षा नहीं होती । कड़ाके की धूप पड़ती है, जिससे अनेक प्रकार की बीमारियां भी फैलती हैं । उदयकालीन चन्द्रमा को श्रावण कृष्ण द्वितीया के दिन परिवेष वेष्टित करे तो वर्षा अच्छी होती है | किन्तु गुर्जर, द्राविड़ और महाराष्ट्र में वर्षा का अभाव सूचित होता है । वर्षा ऋतु में ग्रहों और नक्षत्रों की जिस दिशा में परिवेष हो उस दिशा में वर्षा अधिक होती है, फसल भी अच्छी होती है। श्रावण कृष्णा सप्तमी को उदय काल में चन्द्र परिवेष दिखाई पड़े तो वर्षा सामान्यतः अल्प समझनी चाहिए । यदि प्रातःकाल चन्द्रारत के समय ही परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा
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भद्रबाहुसंहिता
अगले पांच दिनों में खूब होती है। यदि त्रिकोण परिवेष श्रावण कृष्णा तृतीया । को दिखलाई पड़े तो वर्षा का अभाव, दुभिक्ष और उपद्रव समझना चाहिए। नक्षत्रों का भी परिवेष होता है । श्रावण मास में नक्षत्रों का परिवेष हो तो वर्षा का अभाव उस देश में अवगत करना चाहिए । यदि श्रावण मास की किसी भी। तिथि में चन्द्र परिवेष चन्द्रोदय से लेकर चन्द्रास्त तक बना रहे तो श्रावण और भाद्रपद इन दोनों ही महीनों में वर्षा का अभाव रहता है । आश्विन मास में किसी भी तिथि को चन्द्रोदय काल या चन्द्रास्त काल में चऋपरिवेष दिखलाई पड़े तो। वह फसल के लिए अच्छाई की सूचना देता है। वर्षा कम होने पर भी फसल अच्छी उत्पन्न होती है । ज्येष्ठ, वैशाख और चैत्र महीने का परिवेष घोर दुर्भिक्ष । की सूचना देता है। इन तीनों महीनों में चन्द्रोदय काल में वा चन्द्रास्त काल में । परिवर दिखलाई पड़े तो फसल के लिए अत्यन्त अनिष्टकारक समलना चाहिए ।। उक्त महीनों की प्रतिपदाविद्ध पूर्णिमा को परिबेष दिखलाई पड़े तो वर्षा के लिए। उरा वर्ष हाहाकार होता रहता है। बादल आकाश में व्याप्त रहते हैं, पर वर्षा नहीं होती। तृण और शाम की भी कमी होती है जिसमे पशुओं को भी कष्ट होता है । द्वितीयाविद्ध प्रतिपदा को परिवेष हो तो साधारण वर्षा होती है।। द्वितीयाविद्ध पूर्णिमा में चला परिवार दिखलाई पड़े तो उस वर्ष निश्चयत: सुखा पड़ता है। ओं का पानी भी रास्त जाता है। फसल का अभाव ही उस वर्ष रहता
सूर्य परिवेष का पल ..-यदि सर्योदय काल में ही सयं परिवेष दिखलाई पड़े तो साधारणतः वर्षा होने की सूचना देता है । मध्याह्न में परिवेष सूर्य को घेरकर मंडलाकार हो जाय नो आगामी चार दिनों में घोर वर्षा की सूचना देता है । इस प्रकार के परिवेष में फगल भी अच्छी होती है । सूर्य का परिवेष द्वारा प्रधान रूप से फसल का विचार किया जाता है । यदि किसी भी दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तब परिवेष बना रह जाय तो चोर दुभि का सूचक सगाना चाहिए । दिन भर परिवेग का बना रह जाना वर्मा का अबरोधन भी करता है तथा अनेक प्रकार की विपत्तियों की भी गूचना देता है । वर्षा अनु में सूर्य का परिवेप प्रायः वर्षा सूचक समझा जाता है । वैशाख और ज्येष्ठ इन महीनों में यदि सूर्य का परिवेष दिखलाई पड़े तो निश्चयतः फसल की वस्यादी का सूचक होता है । उस वर्ष वर्षा भी नहीं होती और यदि ध होती है तो इतनी अधिक और असामयिक होत है, जिससे फसल मारी जाती है। इन तीनों महीनों का सूर्य का परिवेप मंगलवार, गानिवार और रविवार इन तीन दिनों में से किसी दिन हो तो संसार के लिए महान भयनारक, उपः वसूचक और दुभिा की सूचना समझनी चाहिए । सूर्य का परिवेप यदि आना , विशाखा और भरणी इन नक्षत्रों में हो तथा सूर्य
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भी इन नक्षत्रों में से किसी एक पर स्थित हो तो इस परिवेष का फल फसल के लिए अत्यन्त अशुभसूचक होता है । अनेक प्रकार के उपाय करने पर भी फसल अच्छी नहीं हो पाती । नाना वर्ण का परिवेष सूर्य मण्डल को अवरुद्ध करे अथवा अनेक टुकड़ों में विभक्त होकर सूर्य को आच्छादित करे तो उस वर्ष वर्षा का अभाव एवं फसल की बरबादी समझनी चाहिए। रक्त अथवा कृष्ण वर्ण का परिवेष उदय होते हुए सूर्य को आच्छादित कर ले तो फसल का अभाव और वर्षा की कमी सूचित होती है। मध्याह्न में सूर्य का कृष्ण वर्ण का परिवेष आच्छादित करे तो दालवाले अनाजों की उत्पत्ति अधिक तथा अन्य प्रकार के अनाज कम उत्पन्न होते हैं । मवेशी को कष्ट भी इस प्रकार के परिवेष से समझना चाहिए । यदि रक्त वर्ण का परिवेष सूर्य को आच्छादित करे और सूर्यमंडल ध्वेतवर्ण का हो जाय तो इस प्रकार का परिवेष श्रेष्ठ फग़ल होने की सूचना देता है। आषाढ़, श्रावण और भाद्रपद मास में होने वाले परिवेषों का फलादेश विशेष रूप से घटित होता है | यदि आपाड़ शुक्ला प्रतिपदा को सध्या समय सूर्यास्त काल में परिथेग दिखलाई पड़े तो फसल का जमाव, प्रातः सूर्योदय काल में परिचेष दिखलाई पड़े तो अच्छी फसल एवं ध्यान समय में परिवेष दिखलाई पड़े तो साधारण फसल उत्पन्न होती है । इस तिथि को सोमवार पड़े तो पूर्ण फल, मंगलवार पड़े तो प्रतिपादित फल से कुछ अधिक फल, बुधवार हो तो अल्प फल, गुरुवार हो तो पूर्ण फल, शुक्रवार हो तो रामान्य फल एवं शनिवार हो तो अधिक फल ही प्राप्त होता है | यदि आपाद शुक्ला द्वितीया तिथि को पीतवर्ण का मंडलाकार परिवेष सूर्य के चारों ओर दिखलाई पड़े तो समय पर वर्षा श्रेष्ठ फसल की उत्पत्ति, मनुष्य और पशुओं को सब प्रकार से आनन्द की प्राप्ति होती है । इस तिथि को त्रिकोणाकार, चौकोर या अनेक कोणाकार टेढ़ा-मेढ़ा परिवेष दिखलाई पड़े तो फसल में बहुत कमी रहती है। वर्षा भी समय पर नहीं होती तथा अनेक प्रकार के रोग भी फसल में लग जाते हैं । सूर्य मंडल को दो या तीन वलयों में बेष्टित करने वाला परिवेष मध्यम फल का सूचक है। आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी या पंचमी को कृष्ण वर्ण का परिवेष सूर्य को चार बड़ी तक वेष्टित किये रहे तो आगामी ग्यारह दिनों तक सूखा पड़ता है, तेज धूप होती है, जिससे फसल के सभी पौधे सूख जाते है । इस प्रकार का परिवेष केवल बारह दिनों तक अपना फल देता है, इसके पश्चात् उसका फल क्षीण हो जाता है ।
आषाढ़ शुक्ला पष्ठी, अष्टमी और दशमी को सूर्योदय होते ही पीत वर्ण का त्रिगुणाकार परिवेष वेष्टित करें तो उस वर्ष फसल अच्छी नहीं होती, वृत्ताकार आच्छादित करें तो फसल साधारणतः अच्छी दीर्घ वृत्ताकार -अण्डाकार या ढोलक के आकार में जाच्छादित करे तो फसल बहुत अच्छी, चावल की उत्पत्ति
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विशेष रूप से चौकोर रूप में आच्छादित करे तो तिलहन की फसल और अन्य प्रकार की फसलों में गड़बड़ी एवं पंच भुजाकार आच्छादित करें तो गन्ना, घी, मधु आदि की उत्पत्ति प्रचुर परिणाम में तथा रूई की फसल को विशेष क्षति होती है। दशमी को सूर्यास्त काल में कृष्ण वर्ण का परिवेष दिखलाई पड़े तो वर्षा का अभाव, फसल की क्षति और पशुओं में रोग फैलता है । पष्ठी और अष्टमी का फल जो उदय काल का है, वहीं अस्तकाल का भी है। विशेषता इतनी ही है कि उक्त तिथियों में अस्तकालीन परिवेष द्वारा प्रत्येक वस्तु की उपज अवगत की जा सकती है। आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी और पूर्णिमा को दोपहर के तृण की पश्चात् सूर्य के चारों ओर परिवेष दिखलाई पड़े तो सुभिक्ष, धान्य और विशेष उत्पत्ति होती है। श्रावण मास का सूर्य परिवेष फसल के लिए हानिकारक माना गया है । भीमादि कोई ग्रह और सूर्य नक्षत्र यदि एक ही परिवेष में हों तो तीन दिन में वर्षा होती है। यदि शनि परिसंग मंडल में हो तो छोटे धान्य को नष्ट करता है और कृषकों के लिए अत्यन्त अनिष्टकारी होता है, तीव्र पवन चलता है । थावणी पूर्णिमा को मेधाच्छन्न आकाश में सूर्य का परिवेष दृष्टिगोचर हो ती अत्यन्त अनिष्टकारक होता है.
'भाद्रपद मास में सूर्य के परिवेश का फल केवल कृष्णपक्ष की 31617101 और 13 तथा शुक्ल पक्ष में 2151718113 114 115 तिथियों मंमिलता है। कृष्णपक्ष में परिवेष दिखलाई दे तो साधारण वर्षा की सूचना के साथ कृषि के जघन्य फल को सूचित करता है। विशेषतः कृष्णपक्ष की एकादशी को सूर्य परिवेष दिखलाई पड़े तो नाना प्रकार के धान्यों की समृद्धि होती है, वर्षा समय पर होती है । अनाज का भाव भी सस्ता रहता है और जनता में सुख शान्ति रहती है। शुक्ल पक्ष को द्वितीया और पंचमी तिथि का गरिवेष सुर्यादि या मध्या काल में दिखलाई पड़े तो गाधारणतः फगत अच्छी और अपराह्न काल में दिखलाई पड़े तो पराल में कमी ही समझनी चाहिए। सप्तमी और अष्टमी को अपराह्न काल में परिवेष दिखलाई पड़े तो वायु की अधिकता समजनी चाहिए। वर्षा के साथ वायु का प्राबल्य रहने से वर्षा की कमी रह जाती है और फसल में न्यूनता रह जाती है । यदि चार कोनों वाला परिषद गहने से सूर्य के चारों ओर दिखलाई पड़े तो मशार में अपकीर्ति के साथ फसल में भी कमी रहती है | आश्विन गाय का सूर्य परिवेग केवल फसल में ही कमी नहीं करता, बल्कि इसका प्रभाव अनेक व्यक्तियों पर भी पड़ता है। सूर्य का परिवेष यदि उदय कान में हां और परिवेश के निकट बुध या शुक्र कोई ग्रह हो तो शुभ फसल की सूचना समझनी चाहिए। रेवती, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका और मृगशिर के क्षन परिप की परिधि में आत हो तो पूर्णतया वर्षा का अभाव, धान्य की कमी, पशुओं को कष्ट
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एवं विश्व के समस्त प्राणियों में भय का संचार होता है। कात्तिक मास का परिवेष अत्यन्त अनिष्टकारी और मात्र मास का परिवेष समरत आगामी वर्ष का फलादेश सूचित करता है । माघी पूणिमा को आकाग में बादल छा जाने पर विचित्र वर्ण का परिवेष सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार में दिखलाई गड़े तो पूर्णतया सुभिक्ष आगामी वर्ष में होता है। इस दिन का परिवेष प्रायः शुभ होता
hiridiemini
परिवेषों का राष्ट्र सम्बन्धी फलादेश--चन्द्रमा का परित्रेप मंगल, गनि और रविवार को आश्लेषा, विशाखा, भरणी, ज्येष्ठा, मूल और शतभिषा नक्षत्र में काले वर्ण का दिखलाई पड़े तो राष्ट्र के लिए अत्यन्त अशुभ सका होता है। इस प्रकार के परिवेप का फल गपट्र में उपद्रव, घरेलू कलह, महामारी और नेताओं में मतभेद तथा झगड़ों में होने से राष्ट्र की क्षति आदि समझना चाहिए । तीन मंडल और पनि मंडल का परिचप रागी प्रकार से सटको क्षति करता है। यदि अनेक वर्ण वाला दण्डाकार चन्द्र परित्रेप मर्दन गारसा हुआ दिग्वनाई पनी राष्ट्र के लिए अशुभ रागझना चाहिए । इस प्रकार ला परिवेग में राष्ट्र नः निवासियों में आपसी यान है, एवं किसी विशेष प्रकार की विपनि की सूचना मिलती है। जिन देशों में पारम्परिक व्यापारिक समझौत होते हैं, वे भी इस प्रकार के परिवेष से भंग हो जाते हैं अतः पर-राष्ट्र का भय और आतंक व्याप्त. हो जाता है। देश की आर्थिक क्षति भी होती है । देश में चोर, डाकुओं का अधिक आतंक बढ़ता है और देश की व्यापारिक स्थिति असन्तुलित हो जाती है । रात्रि में शुक्ल पक्ष के दिनों में जब मेघाजन्न आकाण हो, उन दिनों पूर्व दिशा की ओर से बढ़ता हुआ चन्द्र परिवेष दिपलाई गड़े और इस परिवेप का दक्षिण का कोण अधिक बड़ा और उन बाला कोण अधिइलोटा नी माना गई तो उस परिवेष का फल भी राष्ट्र के लिए घातयः समझना चाहिए । इस प्रकार के परिवेग से राष्ट्र की प्रतिष्ठा में भी कमी आती है तथा राष्ट्र की सम्पति भी घटती हुई दिखलाई पड़ती है । अच्छे कार्य राष्ट्र हित के लिए नहीं हो पाते हैं, कंवल मेरा ही काय होते रहते हैं, जिनसे राष्ट्र में अशान्ति होती है । राष्ट्र के किसी अच्छे कर्णधार की मृत्यु होती है, जिससे राष्ट्र में महान प्रणान्ति ना गाती है। प्रशासकों में भी मतभेद होता है, देश के प्रमुख-प्रमुख शासक अपने-अपने अहंभाव की पुष्टि के लिए विरोध करते हैं, जिससे राष्ट्र में अशान्ति होती है। मध्य रात्रि में निरभ्र आकाश में दक्षिण दिशा की ओर से विचित्र वर्ण का परिव उत्पन्न होकर चन्द्रमा को वेष्टित करे तथा इस भइल में चन्द्रमा का उस दिन का नाम भी वेप्टित हो तो इस प्रकार का परिवेष रास्ट्र उत्थान का होता है । कलाकारों के लिए यह परिवेप उन्नति सूचना है। दण में क :- कारखानों की उन्नति होती है। नदियां
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एवं विश्व के समस्त प्राणियों में भय का संचार होता है। कात्तिक मास का परिवेष अत्यन्त अनिष्टकारी और माघ मास का परिप समस्त आगामी वर्ष का फलादेश सूचित करता है । माघी पूणिमा नो आकाश में बादल छा जाने पर विचित्र वर्ण का परिवेष सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार में दिखलाई पड़े तो पूर्णतया सुभिक्ष आगामी वर्ष में होता है। इस दिन का परिवेष प्रायः शुभ होता
परिवेषों का राष्ट्र सम्बन्धी फलादेश- चन्द्रमा का परिवेष मंगल, शनि और रविवार को आश्लेषा, विशाखा, भरणी, ज्येष्ठा, मूल और शतभिषा नक्षत्र में काले वर्ण का दिखलाई पड़े तो राष्ट्र के लिए अत्यन्त अशुभ सूचक होता है । इस प्रकार के परिवेप का फरन राष्ट्र में उपद्रव, घरेलु बालह, महामारी और नेताओं में मतभेद तथा झगड़ों को होने से राष्ट्र की क्षति आदि समझना चाहिए। तीन मंडल और पान मंइल का परिक्षेप राणी प्रकार में राटी क्षति करता है। यदि अनेक वर्ण वाला दण्डाभार चन्द्र परिवेष मर्दन करता हुआ दिखलाई तो राष्ट्र के लिए अशुभ समझना चाहिए । इस प्रकार ने परिवेप ग राष्ट्र के निवासियों में आपसी बालह एवं किसी विशेग प्रकार की विपत्ति की सूचना मिलती है। जिन देशों में पारस्परिक व्यापारिक समशीत होते हैं, वे भी इस प्रकार के परिवेष से भंग हो जाते हैं अतः पर-गष्ट का भय और आतंक व्याप्त, हो जाता है। देश की आर्थिक क्षति भी होती है । देश में चोर, डाकुओं का अधिक आतंक बढ़ता है और देश की व्यापारिया स्थिति अगन्तुलित हो जाती है। रात्रि में शुक्ल पक्ष के दिनों में जब मेघान्न आकाश हो, रन दिनों पूर्व दिशा की ओर से बढ़ता हुआ चन्द्र परिवेष दिसलाई पड़े और इस परिवेष या दक्षिण का कोण अधिक बड़ा और उत। वाला कोण अधि। छोटा भीमात गाई तो इस परिवेष का फल भी राष्ट्र के लिए मानव समलना चाहिए । इस प्रकार के परिवेश से राष्ट्र की प्रतिष्ठा में भी कभी आती है तथा राष्ट्र की सम्पत्ति भी घटती हुई दिखलाई पड़ती है 1 अच्छे कार्य राष्ट्र हित के लिए नहीं हो पान हैं, बावलग ही कार्य होते रहते हैं, जिनसे राष्ट्र में अशान्ति होती है। राष्ट्र के किगी अच्छे कर्णधार की मृत्यु होती है, जिससे राष्ट्र में महान अशान्ति छा जाती है। प्रशासकों में भी मतभेद होता है, देश के प्रमुग्व-प्रमुख शासक अपने-अपने अहंभाव की पुष्टि के लिए विरोध करते हैं, जिससे राष्ट्र में अशान्ति होती है। मध्य रात्रि में निरभ्र आकाश में दक्षिण दिशा की ओर से विचित्र वर्ण का परिव उत्पन्न होगार चन्द्रमा को वेष्टित कर तथा इस मंडल में नन्द्रमा का उरा दिन । नक्षत्र भी घटित हो तो इस प्रकार का परिवंप राष्ट्र उत्थान का पर होता है । कलाकारों के लिए यह परित्रेय उन्नतिसूचया है। दण में कलकारमाना की उन्नति होती है। नदिया
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भद्रबाहुसंहिता
पर पुल बांधने का कार्य विशेष रूप से होता है। धन-धान्य की उत्पत्ति विपुल परिणामों में होती है और राष्ट्र में चारों ओर समृद्धि और, शान्ति व्याप्त हो । जाती है।
मूर्य परिवेप द्वारा भी राष्ट्र के भविष्य का विचार किया जाता है । चैत्र और बैशाख में बिना बादलों के आकाश में सूर्य-परिवेप दिखलाई पड़े और यह कम से कम डेढ़ घण्टे तक बना रहे तो रात के लिए अत्यन्त अशुभ की सुचना देता है । इस परिवेष का फल तीन वर्षों तक राष्ट्र को प्राप्त होता है। वर्या का अभाव होने से तथा राष्ट्र के किसी हिस्से में अतिवृष्टि से बाढ़, महामारी आदि का प्रकोप होता है । इस प्रकार का परिवेष राष्ट्र ने महान् उपद्रव का सूचक है । ऐसा पग्वेिष तभी दिखलाई पड़ेगा, जब देश के अपर महान् विपत्ति आयेगी । सिकन्दर के आकरण के समय भारत में इस प्रकार का परिचय देखा गया था। सूर्य के अस्ताल में, जब नैऋत्य दिशा में वायु बह रहा हो, इसी विणा ग बायु का साथ बढ़ता हआ गरिष गूयं को माछादित बार न तो रात के लिए अन्यन्त शुभनारक होता है। वेग में धन-धान्य की वृद्धि होती है। सभी निवासियों को मुख-शान्ति मिलती है। अन्द्र व्यक्तियों का जन्म होता है। परराष्ट्री से सन्धिाय होती है तथा राष्ट्र की आर्थिक स्थिति दृढ़ होती है। देश में कला-कौशल का प्रचार होता है, नैनिकता, ईमानदारी और सच्चाई की वृद्धि होती है।
परिवेषों का व्यारारिक फलादेश----रविवार को चन्द्र-परिवेष दिखलाई गड़े तो रूई, गुड़, कपास और चांदी का भाव पहँमा; तिल, तिलहन, धी और तेल का भाव सस्ता होता है । गोने के भाव में अधिवा घटा-बढ़ी रहती है तथा अनाज का मात्र सम दिखलाई पड़ता है। फल और सरकारिया ये गाय ॐच रहा है। रविवार के चन्द्र परिवेग का फर गले दिन से ही आराको जाना है और दो महीना तक प्राप्त होता है । जूट, मशाले एवं रत्नों को सामान बरनी है तथा इन की के मुल्यों में निन्तर घटा-बड़ी होती रहती है। जान दिन को गुर्थ-रिवेष दिखलाई पड़े तो प्रत्येक वस्तु की महंगाई होती है तथा विगष रूप में तण, पशु, सोना, चाँदी औ? मशीनों के कल पों के मुल्य में वृद्धि होती है। व्यापारियों के लिए रविवार का मूर्य और चन्द्र-परिवेष विशेष महत्त्वपूर्ण होता है। इस परिवेष द्वारा सभी प्रकार के छोटे-बड़े व्यापारी लाभान्वित होत है। ऊन एवं ऊगी बम्ब के व्यागार में विशेष लाभ होता है । इनका मूल्य स्थिर नहीं रहता, उत्तरोत्तर मृत्य में वृद्धि होती जाती है। सोमवार को सुन्दर आकार वाला चन्द्र परिवष निर आकाश में दिई गड़े तो प्रत्य प्रकार की वस्तु परती होती है। नित रूप र घत, दुग्ध, सैल, तिलहन और अन्न का मूल्य सस्ता हो जाता :: । व्यापारिक दृष्टि से इस प्रकार का परिवेष घाट की ही सूचा देता है। जो लोग बॉर्दा,
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सोना, रूई, सूत, कपास, जूट आदि का सट्टा करत है, उन्हें विशेष रूप से घाटी लगता है। यदि इसी दिन सूर्य परिवेष दिखलाई पड़े तो गेहूँ, गुड़, लाल वस्त्र, लाख, लाल रंग तथा लाल रंग की सभी वस्तुएं महँगी होती हैं और इस प्रकार के परिवेष से उक्त प्रकार की वस्तुओं के खरीदारों को दुगुना लाभ होता है । यह परिवेष व्यापारिक जगत् के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है, सीमेण्ट, चूना, रंग, पत्थर आदि के व्यापार में भी विशेष लाभ की संभावना रहती है। सोमवार को सूर्य परिवेष देखने वाले व्यापारियों को सभी प्रकार की वस्तुओं में लाभ होता है । ईंट, कोयला और अल्प प्रकार के इमारती समान के मूल्य में भी वृद्धि होती है ।
मंगलवार को चन्द्र-परिवेष दिखलाई पड़े तो लाल रंग की वस्तुओं का मूल्य गिरता है और श्वेत रंग के पदार्थों का मूल्य बढ़ता है । धातुओं के मूल्य में प्रायः समता रहती है। सुवर्ण के मूल्य में परिवेष के एक महीने तक वृद्धि, पश्चात् कमी होती है। चाँदी का मूल्य आरम्भ में गिरता है, पश्चात् ऊँचा हो जाता है। श्वेत रंग का कपड़ा, सुत, कपास, रूई आदि का मूल्य तीन महीनों तक मस्ता होता रहता है। जवाहरात का मूल्य भी गिरता है। मंगलवार का परिवेष तीन महीनों तक व्यापारिक स्थिति के क्षेत्र में सस्ते भावों की ही सूचना देता है । यदि मंगलवार को ही सूर्य परिवेष दिखलाई पड़े तो प्रत्येक वस्तु का मूल्य मचाया बढ़ जाता है, यह स्थिति आरम्भ से एक महीने तक रहती है पश्चात् सोना, चाँदी, जवाहरात रूई, चीनी, गुड़ आदि वस्तुओं के मूल्य में गिरावट आ जाती है और बाजार की स्थिति बिगड़ने लगती है। मशाला, कल एवं मेवों क मूल्य में भी गिरावट आ जाती है। दो महीने के पश्चात् कपडा तथा श्वेत रंग की अन्य वस्तुओं की स्थिति सुधर जाती है । अनाज का भाव कुछ सस्ता होता है, पर कालान्तर में उसमें भी महँगाई आ जाती है । यदि मंगलवार को पुप्य नक्षत्र हो और उस दिन सूर्य परिवेष दिखलाई पड़ा हो तथा वह कम से कम दो घण्टे तक बना रहा हो तो सभी प्रकार की वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है । व्यापारियों के लिए यह परिक्षेष कई गुने लाभ की सूचना देती है । प्रत्येक वस्तु के व्यापार में लाभ होता है। लगभग चार महीने तक इस प्रकार की व्यापारिक स्थिति अवस्थित रहती है। उक्त प्रकार के परिवेष से सट्टे के व्यापारियों को अपने लिए घाटे की ही सूचना समझनी चाहिए ।
बुधवार को चन्द्र-परिवेष स्वच्छ रूप में दिखलाई पड़े और इस परिवेष की स्थिति कम से कम आध घण्टे तक रहे तो मशाला, तेल, घी, तिलहन, अनाज, सोना, चांदी, रूई, जूट, वस्त्र, मेवा, फल, गुड़ आदि का मूल्य गिरता है और यह मूल्य की गिरावट कम से कम तीन महीनों तक बनी रहती है । केवल रेशमी वस्त्र का मूल्य बढ़ता है और इसके व्यापारियों को अच्छा लाभ होता है। यदि
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इसी दिन सूर्य-परिव दिखलाई पड़े और यह एक घण्टे तक स्थित रहे तो सभी प्रकार की वस्तुओं के मल्यगी स्थिरता का सूचक समझना चाहिएं। बुधवार को सूर्य-परिवेप सूर्योदय काल में ही दिखलाई पड़े तो श्वेत, लाल और काले रंग की वस्तुओं के भाव बढ़ते हैं। यदि परिवेष काल मे आकाश का रंग गाय की आँख के समान हो जाय तो इस परिवेप का फल लाल रंग की वस्तुओं के व्यापार में लाभ एवं अन्य रंग की वस्तुओं के व्यापार में हानि की सूचना समझनी चाहिए । इस प्रकार की ध्यापारिक स्थिति एक महीने तक ही रहती है। मुरुवार को चन्द्रपरिवेष चन्द्रोदय काल या चन्द्रास्त काल में दिखलाई पड़े तो इसका फल महर्षता होता है। रसादि पदार्थों में विशेष रूप से महंगाई होती है । औषधियों के मल्यों में भी वृद्धि होती है । घृत, तैल आदि स्निग्ध पदार्थों का मूल्य अनुपाततः ही बढ़ता
गुरुवार को सूर्य-परिवेष मंडलाकार में दिखलाई पड़े तो लाल, पीले और हरे रंग की वस्तुएं सस्ती होती हैं, अनाज का मूल्य भी घटता है। वात्र, चीनी, गड़
आदि उपभोग की वस्तुओं में भी सामान्यतः यामी आती है । सदबाजों के लिए यह परिवेग अनिष्ट मूचक है; यतः उन्हें हानि ही होती है, लाभ होने की संभावना बिल्कुल नी । यदि उक्त प्रकार का मर्य-परिवार दो घण्टे से अधिक समय तक ठहर जाय तो पशुओं के व्यापारियों को विशेष लाभ होता है । स्वेत रंग के सभी पदार्थ महँगे होते हैं और उपभोग की वस्तुओं का मूल्य यता है। बागार में यह स्थिति चार महीनों तक रह सकती है।
शुक्रवार को चन्द्र-गरिवेष लाल या पीले रंग का दिखलाई पड़े तो दूसरे दिन गही सोना, पीतल आदि पीतवर्ण की धातुओं की कीमत बढ़ जाती है। चाँदी के भाव में थोड़ी गिरावट के पश्चात् बढ़ती होती है। मनाला, फल और तरकारियों के मूल्य में वृद्धि होती है। हरे रंग की सभी वस्तुएँ मरती होती हैं । पर तीन महीना के पश्चात हरे रंग की वस्तुओं के भाव में भी महँगी आ जाती है। रुई, कपास और युत के व्यापार में सामान्य लाभ होता है। यानि रंग की वस्तुओं में अधिक लाभ की संभावना है। यदि शुक्रवार को सूर्य परिवेष दिखलाई पड़े तो आरम्भ में वस्तुओं का भाव तटस्थ रहन हैं, परन्तु आपधियों, विदेश से आनेवाली वस्तृ और पशुओं की कीमत में वृद्धि हो जाती है। श्वेत रंग की वस्तुओं का मुल्य सम रहता है, नाल और नीले रंग के पदार्थों का मूल्य बढ़ जाता है।
गनिवार को चन्द्र-गरिबेग दिखलाई पड़े तो काले रंग के सभी पदार्थ तीन महीनों तथा सस्त रहत हैं । लाल और "वेत रंग के पदार्थ तीन महीनों तक महँग रहते हैं । गवाहरात विशेष रूप से महंगे होते हैं। सोना, चांदी आदि खनिज पदार्थों के मूल्य में असाधारण रूप से वृद्धि होती है। यदि इसी दिन सूर्य-परिवेष
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दिसलाई पटेलो सभी प्रकार की धाओं में मूल्य में वृद्धि होती है। विशेष रूप से जूट, मीमन्ट, कागज एवं विदेश ग आने वाली बस्तु अधिक महंगी होती हैं। चीनी, गुड़, शहद आदि मिट पदार्थों के मून्य गिरने हैं। यदि उक्त प्रकार का सूर्य-परिवेष दिन भर रह जाय नो इसका फल व्यापार के लिए अत्यन्त लाभप्रद है। वस्तुओं का मूल्य चौगुने बन जाते हैं और म्यापारियों को आरिमित लाभ होता है। बाजार में यह स्थिति अधिक से अधिक पांच महीनों तक रह सकती है। आरम्भ के तीन माह महेंगाई और अबणेप दो महीने साधारण महंगाई के होते हैं।
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अथात: संप्रवक्ष्यामि विद्यतां नामविस्तरम् ।
प्रशस्ता या प्रशस्ता च याथवदनुपूर्वतः ।। अब मायागार विस का बिजली का विस्तार गे पिम्पण करना है। थियन (बिजली) दो प्रकार की होती है-प्रशस्त और अप्राररा ।।।।।
सौदामिनी च पूर्वा च कुसुमोत्पलनिभा शुभा। निरभ्रा मिश्रकेशो च क्षिप्रगा चानिस्तथा ॥2॥ एतासां नामभिर्वर्ष ज्ञेयं कर्मनिरुक्तिता।
भयो व्यासेन वक्ष्यामि प्राणिनां पुण्यपापजाम् ॥3॥ गौशामिनी और पूर्वा बिजली यदि कमल के पुत्र के समान हो तो वह शुभअन हाल देने वाली होती है। वह बिजली निरमा बादलों में रहित, देवांगना पः ममा गिमिशी, शी गमन करने वाली और वन के समान हो तो अशनि नाम । ही जाती है 1 बापापा कारण है, अत: यह वर्ष भी वाही जाती है। इस बिजली बना सकती किया निरुपित से अवगत कर लेना चाहिए। अब पुन:
।
। 2. कामामोपला, मा। 3 TETम ।
निकित
!
4
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बिजली का विस्तारपूर्वक फल, लक्षण आदि का वर्णन किया जाता है, जो जीवों के पुण्य-पाप के निमित्त से होते हैं ॥2-3||
स्निग्धान्निधेष चाभ्रषु विद्युत् प्राच्या जलावहा ।
कृष्णा तु कृष्णमार्गस्था वातवर्षावहा भवेत् ॥4॥ स्निग्ध बादल से उत्पन्न विजली स्निग्धा वही जाती है । यदि यह पूर्व दिशा की हो तो अवश्य वर्षा करती है । यदि काले बादल से उत्पन्न हो तो कृष्णा कही जाती है और यह वायु की वर्षा करती है - पवन चलता है। यहाँ पर 'कृष्ण' शब्द अग्निवाचक है, अतः अग्निकोण के मार्ग में स्थित विद्युत् कृष्णा नाम से नही जाती है । इसका फल तीव्र पवन का चाना है ।।4।।
अथ र शिमगतोऽमिन हरिला हरितप्रका:
दक्षिणा दक्षिणावर्ता कुर्यादुदकसंभवम् ॥5॥ जिग़ बिजली में गियाँ नहीं है, वह अस्निग्धा कही जाती है और हरिता प्रभावशाली विजली हरिता कही जाती है, दक्षिण में ममन करने वाली दक्षिणा पहलाती है । इस प्रकार की विद्युत जल बरसने की सूचना देती है ।। 511
रश्मिवती' मेदिनी' भाति विद्युदपरदक्षिणे ।
हरिता भाति रोमाञ्चं सोदकं पातयेद् बहुम् ॥6॥ पृथ्वी पर प्रकाश करने वाली विद्य त रश्मिवती, नैऋत्य कोण में गमन करने वाली हरिता और बहुत रोमवाली बिजली बहुत जल की वृष्टि करने वाली होती है।16।
अपरेण तु या विद्युच्चरते चोत्तरामुखी।
कृष्णाभ्रसंश्रिता स्निग्धा साऽपि कुर्याज्जलागमम् ॥7॥ पश्चिम दिशा में प्रकट होने वाली, उत्तर मुख करके गमन करने वाली, कृष्ण रंग के बादलों से निकलने वाली और स्निग्धा ये चारों प्रकार की बिजलियाँ जल के आने की गुचना देती है ।।7।।
अपरोसरा तु या विद्युन्मन्दतोया हि सा स्मृता। उदीच्यां सर्ववर्णस्था" रूक्षा" तु सा तु वर्षति ॥8॥
1. वाहियाविह। na D. ! 2 म. म. । 3. नलवम् पु. । 4. मनी, म । 5. गोदिनी प..। 6. हरितां नां प्रासेत् म. c.। 7. अरपोदय म. A. C.। 8. संस्थिता मु. । 9. जलागमः आs | 10. यामवर्णस्था मा । 11. तक्षात् मु० ।
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वायव्यकोण को विजली थोड़ी वर्षा करने वाली और उत्तर दिशा की बिजली चाहे किसी भी वर्ण की क्यों न हो; अथवा रूक्ष भी हो तो भी जलवष्टि करने वाली होती है । 18।। __या तु पूर्वोतरा विद्युत् दक्षिणा च पलायते।
चरत्यक्षं च तिर्यस्था साऽपि श्वेता जलवहा ॥१॥ ईशानकोण नी बिजली तिरछी होकर पूर्व में गमन करे और दक्षिण में जाकर विलीन हो जाय तथा श्वेत रंग की हो तो बह जल की वृष्टि करा वाली होती है ।।9॥
तथैवोर्वमधी' वाऽपि स्निग्धा रश्मिमती भशम्।
सघोषा चाप्यघोषा वा दिक्ष सर्वासु वर्षति ॥10॥ इसी प्रकार कार-नीचे जाने वाली, स्निग्धा और बहुत पशि वाली शब्द करती हुई अथवा शब्द न भी मरने पानी बिजली सभी दिशाओं में वर्षा र वानी होती है ।।१०॥
शिशिरे चापि वर्षन्ति रक्ता: पोताश्च विद्युतः ।
नीला: श्वेता वसन्तेषु न वर्षन्ति कथंचन ॥1॥ यदि शिशिराब, फाल्मान मनौने और पीले रंग की बिजली हो वो वा होती है तथा बगन्त-..चैत्र, वैशाख में नील और श्वेत रंग की विजली हो तो कदापि वर्षा नहीं होती।।11।।
हरिता मधुवश्च ग्रीष्मे रूक्षाश्च निश्चला: ।
भवन्ति ताम्रगौराश्च वर्षास्वपि निरोधिकाः ॥12॥ हरे और मधु रंग की रूक्ष और स्थिर बिजली ग्रीष्म ऋतु ·- ज्येष्ठ, आपाढ गं चमके तो वर्षा नहीं होती तथा इसी प्रकार वर्षा ऋतु- श्रावण, भाद्रपद में ताम्रवर्ण की बिजली चमके तो वा का अवरोध होता है ।।। 211
शारद्यो नाभिवर्षन्ति नीला वर्षाश्च विधुतः ।
हेमन्ते श्यामताम्रास्तुऽतडितो निर्जलाः स्मृताः ।।।3।। शरद् ऋतु । आश्विन, कार्तिन में नील वर्ण की बिजली नमन तो न हीं होती और हेमन्त . मार्गशीर्ष, पोप में यदि श्याय और सागस्वर्ण की जा
म. |
1. दक्षिण मु.। 2. तिथंग सा, मः। 3 मनापापि ग.. A. I 4. 5. हेम-से ताम्रपणन्तु तडितो निर्जला रमता. ग. ((.।
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चमय तो जल-वष्टि नहीं होती ।। 1312
रक्तारक्तेषु चानेषु हरिताहरितेषु च।
नोलानीलेषु वा स्निग्धा वर्षन्तेऽनिष्टयोनिषु।।4 बन-भरवत, हरित-अहरित और नील-अनील बादलों में यदि स्निग्धा बिजली चमकती है, तो उक्त प्रकार के बादलों के अनिष्टसूचक होने पर भी जल की वर्षा अवश्य होती है || 140
अथ नीलाश्च पीताश्च रक्ताः श्वेताश्च विद्युतः।
एतां श्वेतां पतत्यूर्व विधुदुदकसंप्लवम् ॥15॥ अत्र बिजली के वर्षों का निरूपण करते हैं -नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्ण की बिजलियों में में श्वेत रंग की बिजली ऊपर गिरे तो पृथ्वी पर जल ही मन व रगता है. ---बी जल गेग्लाविक जाती है :
वैश्वानरपथे विद्यत् श्वेता रूक्षा चरेद् यतः ।
विन्यात् तदाऽशनिवर्ष रक्तायामनितो भयम् ।।16।। ग्यास र T अर्थात् अग्निकोण में उत्पन्न हुई अवना और रक्षा नाम भी विजयि वियत् काही जाती हैं । ये अशनि बुष्टि करती हैं । रक्तवर्ण भी बिजली अग्नि का भग करती हैं ॥16
यदा श्वेता भ्रवृक्षस्य विद्युच्छिर सि संचरेत् ।
अथ वा गृह्योर्मध्ये वातवर्ष सृजेन्महत् ।।17।। यदि एवेत रंग की विजनी वृक्ष के ऊपर गिरे अथवा दो गृहों के मध्य से होकर गिरे तो रोज वायु सहित जल की वर्षा होती है ।।1711
अथ चन्द्राद विनिष्क्रम्य विद्युन्मंडलसंस्थिता।
श्वेताऽभा प्रविशेदक विन्द्यादुदकसंप्लवम् ॥18॥ यदि नन्द्रमण्य गे निपालमा २ प्रधेस मेघ युक्त बिजली सूर्यमण्डल में प्रवेश नारे नो से अधिक वर्गानिका समझनी चाहिए ।। 1 8।।
अथ सूर्याद् विनिष्क्रम्य रक्ता समलिना भवेत् ।
प्रविश्य सोमं वा तस्य तत्र' वृष्टिर्भयंकरा ॥19 यदि सूर्यमण्डल में निकलकर रक्त वर्ण की भलिन विद्यत चन्द्रमण्डल में प्रवेश
J. सदा म.. ('.। 2. निलामा । 3. ना
. ('. । 4. 1 ते म" ( 1
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करे तो वहाँ पर भयंकर वायु चलती है ।।।७।।
विद्युतं तु यथा विद्युत् ताडयेत् प्रविशेद् यदा।
अन्योऽन्यं वा लिखयातां वर्ष विन्द्यात् तदा शुभम् ॥20॥ विजली बिजली में ताडित होकर एक-दूसरे में प्रवेश करती हुई दिखलाई दे तो शुभ जानना चाहिए-वर्ग यथोचित रूप में होती है ।।2011
राहुणा संवृतं चन्द्रमादित्यं चापि सर्वतः ।
कुर्यात् विद्युत् यदा साधा तदा सस्यं न रोहलि ।।21॥ राहु द्वारा चन्द्रमा और केनु द्वारा सूर्य जगमव्य मार्ग से ग्रहण किया गया हो और ये बादल मे आच्छादित हों और उस समय उनगे बिजली निकले तो धाना, नहीं उगने ॥2॥
नीला ताम्रा च गौरा च श्वेता 'चा:भ्रान्तरं चरेत् ।
सघोषा मन्दधोषा वा विन्द्यादुदकसंप्लवम् ॥22॥ नील, ताम्र, गौर और त बादलों से बिजली का संचार हा और वह भारी अथवा थोड़ी गर्जना युक्त हो तो अनही वर्षा होनी है 1122।।
मध्यमे मध्यमं वर्ष अधमे अधम दिशेत् ।
उत्तम चोत्तमे मार्गे चरन्तीनां च विद्युताम् ।।23।। आकाश के मध्यमार्ग से गमन करनेवाली बिजली मध्यम वर्मा, जपन्य मार्ग से गमन करनेवाली जघन्य वर्षा और उत्तम मार्ग मे गमन करनेवाली उत्तम वर्पा की सूचिका है ॥23॥
वीथ्यन्तरेषु या विद्यच्चरतामफलं विदुः ।
अभीक्ष्णं दर्शयेच्चापि तत्र दूरगतं फलम् ।।24। यदि बिजली वीथी-चन्द्रादि के मार्ग का अन्तगाल में संचार करे तो उसका कोई फल नहीं होता । यदि बार-बार दिखलाई पड़े तो उसका 'मल्ल गुछ दुर जाकर होता है ।।2411
उल्कावत् साधनं ज्ञयं विद्युतामपि तत्वतः । अथाभ्राणां प्रवक्ष्यामि लक्षणं तन्निबोधत ॥25॥
[.विद्यद्वियद्यया भूया आ० । 2. च । मृ• A. I 3 गगी, ... सेव्या: म. . ! 4. गौरी मु० । 5. वा, मु.। 6. वामफलं, मु. A, त्वां फन ग• 13. I फनं म.. (', । 7. संप्रवश्यामि, मु..। 8. लक्षणानि भू. C. I.
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बिजलियों के निमित्तों को उल्ला के निमित्तों के समान ही अवगत करना चाहिए । अब आगे बादलों के लक्षण और फल को बतलाते हैं ।।25।।
इति नग्रन्थे भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र विद्युल्लक्षणो नाप पंचमोऽध्यायः । विषम- बिजली के निमिया का विकार किया जा है । रात्रि में चमकने म च के सम्बन्ध में शुभाशुभ अवगत करने के साथ फराल का भविष्य भी ज्ञात किया जा सकता है । जब आकाश में धने बादल छाये हुए हों, उस समय पूर्व दिशा में बिजली कड़के और इसका रंग श्वेत या पीत हो तो निश्चयतः वर्षा होती है । यह फल बिजली कड़कने के दूसरे दिन ही प्राप्त होता है । विशेषता यहाँ यह भी है कि यह फलादेश उसी स्थान पर प्राप्त होता है, जिस स्थान पर बिजली चमकती है। इस बात का सदा ध्यान रखना होता है कि विजनी चमकने गा पल तत्काल और तद्देश में प्राप्त होता है । अत्यन्त इष्ट या अनिष्टमुचक यह निमिस नहीं है और न इस निमित्त बारा वर्ष भर का फलादेश ही निगाला जा सकता है। सामान्य म्हा से दो-चार दिन या अधिक-से-अधिक कम-पन्द्रह दिनों का फलादेश निकालना ही इस निमित का उद्देश्य है। जब पूर्व दिशा में रक्त वर्ण की बिजली जोर-जोर से हक कर चमके तो वायु चलती है तथा अलार वर्षा होती है। गन्द-मन्द चमक के साथ जोर-जोर से कराने का शब्द सुना दे तथा एकाएक आकाश से बादल हट जावे तो अदानी वर्षा होती है और साथ ही ओले भी बरसते है। पूर्व दिशा में करिया रंग की बिजली तेज प्रकाश के साथ नमले तो अगले दिन तेज धूप पड़ती है, पश्चात् मध्याह्नोत्तर जल की वर्षा होती है। जल भी तना अधिक बरसता है, जिसरी पृथ्वी जलमयी दिखलाई पड़ती है।
यादि पश्चिम दिशा में साधारण रूप से मध्य रात्रि में बिजली चमके तो तेज धूप पड़ती है । स्निग्ध विद्युत् पश्चिम दिशा में कड़ाके के फाब्द के साथ चमके तो धुप होने के पश्चात् जल की वर्षा ठोती है। यहाँ इतनी बात और अवगत करनी चाहिए कि जान की वर्षा के साथ तूफान भी रहता है । अनेक वृक्ष धराशायी हो जाते हैं, पशु और पक्षियों को अनेक प्रकार के कस्ट होते हैं। जिला समय आकाग काले-काले बादलों से आच्छादित हो, चारों ओर अन्धकार-ही-अधिकार हो, उरा रामय नील प्रकाश करती हई बिजली चमके, साथ ही भयंकर जोर का शब्द भी हो तो अगले दिन तीन वायु बहने की सूचना समझनी चाहिए । वार्ग तीन दिनों के बाद होती है यह भी इस निमित्त का फलादेश है। फसल के लिए इग प्रकार की बिजली रिनाशकारी ही मानी गई है । पश्चिम दिशा से निकलकर विचित्रवर्ण की बिजली चारों ओर घूमती हुई च के तो अगले तीन दिनों में वर्षा होने की
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सूचना अवगत करनी चाहिए। इस प्रकार की बिजली फसल को भी समृद्धिशाली बनाने वाली होती है। गेहूं, जौ, धान और ईख की वृद्धि विशेष रूप से होती है । पश्चिम दिशा में रक्तवर्ण की प्रभावशाली बिजली मन्द- गन्द शब्द के साथ उत्तर की ओर गमन करती हुई दिखलाई पड़े तो अगले दिन तेज हवा चलती है और कड़ाके की धूप पड़ती है। इस प्रकार की बिजली दो दिनों में वर्षा होने की सूचना देती है । जिस बिजली में रश्मिय निकलती हों, ऐसी बिजली चिम दिशा में गड़गड़ाहट के साथ चमके तो निश्चयतः अगले तीन दिनों तक वर्षा का अवरोध होता है। आकाश में बादल छाये रहते हैं, फिर भी जल की वर्षा नहीं होती । कृष्णवर्ण के बादलों में पश्चिम दिशा से पीतवर्ण की विद्युत धारा प्रवाहित हो और यह अपने तेज प्रकाश के द्वारा आंखों में चकाचौंध उत्पन्न कर दे तो वर्षा की कभी समझनी चाहिए। वायु के साथ बूंदा-बूंदी होकर ही रह जाती है। धूप भी इतनी तेज पड़ती है, जिसे इस बूँदा बूंदी का भी कुछ प्रभाव नहीं होता 1 पश्चिम से बिजली निकलकर पूर्व की ओर जाय तो प्रातकाल कुछ वर्षा होती है और इस वर्षा का जल फसल के लिए अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध होता है। फसल के लिए इस प्रकार बिजली उत्तम समझी गई है।
[उत्तर दिशा में बिजली चमके तो नियमतः वर्षा होती है। उत्तर में जोर-जोर से कड़क के साथ बिजली चमके और आकाश मेघाच्छन्न हो तो प्रातःकाल घनघोर वर्षा होती है । जब आकाश में नीलवर्ग के बादल छाये हों और इनमें पीतवर्ण की बिजली चमकती हो तो साधारण वर्षो के साथ वायु का भी प्रकोप समझना चाहिए । जब उत्तर में केवल मन्द मन्द शब्द करती हुई बिजली कड़कती है, उस समय वायु चलने की हो सुनना सगजनी चाहिए। हरे और पीले रंग के बादल आकाश में हों तथा उत्तर दिशा में रह-रहकर बार-बार बिजली चमकती हो तो जल वर्षा का योग विशेष रूप से समझना चाहिए। यह वृष्टि उस स्थान से गौ कोश की दूरी तक होती है तथा पृथ्वी जलप्लावित हो जाती है। लालवर्ण के बादल जब जाकाश में हों, उस समय दिन में बिजली का प्रकाश दिखलाई पड़े तो वर्षा के अभाव की सूचना अवगत करनी चाहिए। इस प्रकार की बिजली दुष्काल पड़ने की सूचना भी देती है। यदि उक्त प्रकार की बिजली आराढ़ मास के आरम्भ में दिखलाई पड़े तो उस वर्ष दुष्काल समझ लेना चाहिए । वायव्य कोण में त्रिजली कड़ाके के शब्द के साथ चमके तो अल्प जल की वर्षा समझनी चाहिए। वर्षा काल में ही उक्त प्रकार को बिजली का निमित्त घटित होता है । ईशान कोण में तिरछी चमकती हुई बिजली पूर्व दिशा की ओर गमन करे तो जल की वर्ता होती है । यदि इस कोण की चिजली गर्जन-तर्जन के साथ चपके तो तूफान की सूचना समझनी चाहिए। आवादमास और आवणमास में उत्तम प्रकार की विद्युत् का
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भद्रबाहुसंहिता फल घटित होता है।
(दक्षिण दिशा में बिजली की चकाचौंध उत्पन्न हो और श्वेत रंग की चमक दिखलाई पड़े तो सात दिनों तक लगातार जल की वर्षा होती है। यदि दक्षिण दिशा में केवल विजली की चमक ही दिखलाई पड़े तो धूप होने की सूचना अवगत करनी चाहिए । जब लाल और काले वणं के मेघ आकाश में आच्छादित हों और बार-बार तेजी से बिजली चमकती हो तो, साधारणतया दिन भर धूप रहने के पश्चात् रात में वर्षा होती है। दक्षिण दिशा से पूर्वोत्तर गमन करती हुई बिजली चम और उत्तर दिशा में इसका तेजप्रकाश भर जाए तो तीन दिनों तक लगातार जल-ब होती है । यहाँ इतना विशेष और है कि वर्षा के साथ
ओले भी पड़ते हैं । यदि इस प्रकार की बिजली शरद ऋतु में चमकती है तो निश्चत: आल ही पड़ते हैं, जल शाहां नहीं होती : ग्री: , उस प्रकार की बिजली चगकती है तो वायु के साथ तेज धूा पड़ती है. बृष्टि नहीं होती। गौनामा पप दक्षिण दिशा में बिजली चम तो आगामी ग्यारह दिना तय जान its४ वर्षा होती है । इस प्रकार की बिजली अतिवृष्टि की सूचना देती है । आप्पा यदी प्रतिपदा का दक्षिण दिशा में शब्द रहित बिजली चमन तो आगामी 4 म फराल निकृष्ट, उत्तर दिशा में शब्द रहित बिजली चमय तो फरालगाधारण; अश्चिम दिशा में शब्द रहित बिजली चमके तो फसल के लिए मध्यम और पूर्व दिशा में शब्द रहित विजली चमके तो बहुत अच्छी फसल उपजती है । यदि इन्हीं दिशाओं में शब्द माहित बिजली चग तो क्रमश: आधी, तिहाई, साधारणत: पूर्ण और सवाई परान इसान्न होती है। यदि आपाद बदी द्वितीया चतुर्थी स विदो और उसमें दक्षिण दिशा म निकलती हई विजली उत्तर की ओर जाये तथा सा नमक बहुत तेज हो तो चोर दुभिक्ष की सूचना मिलती है. । बर्गा भी इस प्रकार की बिजली ग अवरुद्ध ही होती है। चटपटाहट करती हुई बिजली चग तो बर्षा भाव एवं घोरोपद्रव की सूचना देती है ।।
ऋतुओं के अनुसार विद्य त निमित्त का फल-शिविर-... माघ और फाल्गुन माम में नीले और पीले रंग की बिजली चमके तथा आकाश श्वेत रंग वा दिखलाई पड़े तो ओलों के साथ जलयर्षा एवं कृषि के लिए हानि होती है। माघ कृष्ण प्रतिपदा को बिजली चम तो गुड़. चीनी, मिश्री आदि वस्तुएं महंगी होती हैं सथा कपा, सूत, कावास, ई आदि वस्तुएं सस्ती और शेष वस्तुएँ सम रहती हैं।ग दिन बिजली कनावीमारियों की राचना भी देता है । माघ कृष्णा द्वितीया, पाठी और बादमी को पूर्व दिशा में बिजली दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ग में अधिक पक्तियोंजकालमरण होने की रचना समदानी चाहिए। यदि चन्द्रमा के विम्ब के चारो ओर परिवष होन पर उस परियप के निकट ही बिजली
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पंचमोऽध्यायः
71 चमकती प्रकाशमान दिखलाई पड़े तो आगामी आपाढ़ में अच्छी वर्षा होती है । माघ कृष्ण द्वितीया को गर्जन-तर्जन के साथ बिजली दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष में फसल साधारण तथा वर्षा की कमी होती है। माघी पूणिमा को मध्य रात्रि में उत्तर-दक्षिण चमकती हुई विजली दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष राष्ट्र के लिए उत्तम होता है। व्यापारियों को सभी वस्तुओं के व्यापार में लाभ होता है। यदि दूसरी रात में चन्द्रोदय के समय में ही लगातार एक मुहूर्त-48 मिनट तक बिजली चमके तो आगामी वर्ष में राष्ट्र के लिए अनेक प्रकार से विपत्ति आती है । फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया को मेघाच्छन्न आकाश हो और उस में पश्चिम दिशा की ओर बिजली चमकती हुई दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष में फसल अच्छी होती है और तत्काल ओलों के साथ जल वृष्टि होनी है। यदि होली की रात्रि में पूर्व दिशा से विजली चमके तो आगामी वर्ष में अकाल, वर्षाभाव, बीमारियों एवं धन-धान्य की हानि और दक्षिण दिशा में बिजली चमक तो आगामी वर्ष में साधारण वर्षा, चेचक का विशेष प्रकोप, अन्न की महँगो एवं खनिज पदार्थ सामान्यतया महेंगे होते है। पश्चिम दिशा की ओर विजली चमके तो उपद्रव, झगड़े, मार-पीट, हत्याएँ, चोरी एवं आगामी वर्ष में अनेक प्रकार की विपति और उत्तर दिशा में बिजली चमक तो अग्निभय, आपसी विरोध, नेताओं में मतभदा, आरम्भ में वस्तुएँ सस्ती पश्चात महंगी एवं आकस्मिक दुर्घटनाएं घटित होती हैं । होली के दिन आकाश में बादलों वा छाना और बिजली का चमकना अशुभ है।3।
विसन्त ऋतु . चैत्र और बैशाख में बिजली का चमकना प्रायः निरर्थक होता है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को आकाश में मेध व्याप्त हों और चंदा-बंदी के साथ बिजली चमके तो आगामी बर्ष लिए अत्यन्त अणुभ होता है । 'फसाल तो नाट होती ही है, माथ ही गोती, माणिक्य' आदि जवाहरात भी नाट होते है। दिन में इस दिन मेध छा जायें और वर्मा के साथ बिजली नगवे तो अत्यन्त अशुभ होता है । आगामी वर्ष के लिए यह निमित्त विशेष अशुभ की सूचना देता है । चैत्र कृष्ण प्रतिपदा तृतीया विद्ध हो तथा इस दिन भरणी नक्षत्र हो तो इस दिन चमकने याली विजली आगामी वर्ष में मनुष्य और पशुओं के लिए नाना प्रकार के अरिष्टों की सूचना देती है। पशुओं में आगामी आश्विन, कातिक , माघ और नेत्र में भयानक रोग फैलता है तथा मनुष्यों में भी इन्हीं महीनों में बीमारियों फैलती हैं । भूकम्प होने की सूचना भी उक्त प्रकार की बिजली से ही अवगत करनी चाहिए। चंत्री पूर्णिमा को अचानक आकाश में बादल छा जायें और पूर्व-पश्चिम बिजली कड़के तो आगामी वर्ष उत्तम रहता है और वर्षा भी अच्छी होती है । फसल के लिए यह निमित्त बहुत अच्छा है । इस प्रकार के निमित्त रो सभी वस्तुओं की
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भद्रबाहुसंहिता
सस्ताई प्रकट होती है । वैशाखी पूर्णिमा को दिन में तेज धूप हो और रात में बिजली चमके तो आगामी वर्ष में वर्षा अच्छी होती है।
(गीष्म ऋतु: -ज्येष्ठ और आषाढ़ में साधारणतः बिजली चगके तो वर्षा नहीं होती। ज्यष्ठ मास में बिजली चमकने का हल कंवल तीन दिन घटित होता है, अवशेष दिनों में कुछ भी फल नहीं मिलता । ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या और पूर्णिमा इन तीन दिनों में बिजली चमकने का विशेष फल प्राप्त होता है । यदि प्रतिपदा को मध्य रात्रि के उपरान्त निरभ्र आकाश में दक्षिणउत्तर की ओर गगन करती हई बिजली दिखाई पडे तो आगामी वर्ष के लिए अनिष्टकारयः फल होता है । पूर्व-पश्चिम सन्ध्याकाल के दो घण्टे बाद तड्-तड़ करती हुई थिजली इसी दिन दिखलाई पड़े तो घोर भिश्न और शब्दरहित बिजली दिखलाई पड़े तो समयानल वर्मा होती हैं। अमावस्या के दिन दूंदा-बूंदी के साथ बिजली चमक तो जंगली जानवरों की एट, धातुओं की उत्पत्ति में कमी एवं नागरिका में प
ता है। ज्याठ-णिमा को आकाश में बिजली तङ्ताद के साथ समानतो आमामी वर्ष के लिए शुभ, समयानुकल बर्या और धनधान्य की उत्पत्ति प्रचुर परिमाण में होती है ।
द्विर्षा ऋतु-श्रावण और भाद्रपद में ताम्रवर्ण की विजली चमके तो वर्षा का अवरोध होता है । श्रावण में कृष्ण द्वितीया, प्रतिपदा, सप्तमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, शुक्ला प्रतिपदा, पंचमी, अष्टपी, दादनी और पूर्णिमा तिथियाँ विद्य त् निमित्त को अवगत करने के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण है, अबशेष तिथियों में रक्त और श्वेत वर्ण की बिजली चमकने से चर्या और अन्य वर्ण की बिजली चमनने से वर्षा का अभाव होता है। कृष्ण प्रतिपदा को रात्रि में लगातार दो घण्टे तक विजली चमने तो धावण मास में वर्ग की कीद्वितीया को रह-रहकर बिजली चमक तथा गर्जन-जर्जन भी हो जो भादों में अल्पवर्षा और श्रावण के महीने में साधारण वर्ग; राप्तभी को पीले रंग की विजली चमके तथा आकाश में बादल चित्र-विविध रंग में एकत्रित हों तो सामान्य वर्षा होती है । पादशी को निरभ्र आकाश में बिजली चमके तो फसल में कमी और अनेक प्रकार से अशान्ति की सूचना सभानी चाहिए। चतुर्दशी को दिन में बिजली चमके तो उत्तम बी और रात में चमया तो साधारण वर्षा होती है । अमावस्या को हरित, नील और ताम्रवर्ण की बिजली चमक तो वर्षा का अवरोध होता है। भाद्रपद मास में कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को निरभ्र आकाश में बिजली चमयो तो अकाल की सूचना और नपाच्छादित आश में बिजली चमाती ही दिखलाई पः तोगुमाल की सनमा रापानी जाएकृष्ण पक्ष की गातमी और एकादशी को गज-तर्जन के साथ सिग्ध और रश्मियुनस बिजली चमक तो गरम गुकाल, समयानुकूल वर्षा,
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षष्ठोऽध्यायः
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सब प्रकार के नागरिकों में सन्तोष एवं सभी वस्तुएँ सस्ती होती हैं । पूर्णिमा और अमावस्या को बूंदा-बूंदी के साथ बिजली शब्द करती हुई चमके और उसकी एक धारा-सी बन जाए तो वर्षा अच्छी होती है तथा फसल भी अच्छी ही होती है।
शरदऋतु--आश्विन और कार्तिक में बिजली का चमकना प्रायः निरर्थक है। केवल विजयदशमी के दिन बिजली चमक तो आगामी वर्ष के लिए अशुभ सूचक समझना चाहिए । कार्तिक मास में भी बिजली चमकने का फल अमावस्या और पूर्णिमा के अतिरिक्त अन्य तिथियों में नहीं होता है। अमावस्या को बिजली चमकने से खाद्य-पदार्थ महंगे और पूर्णिमा को बिजली चमकने से रासायनिक पदार्थ महंगे होते हैं।
हेमन्तऋतु-मार्गशीर्ष और पौय में श्याम और ताम्रवणं की बिजली चमकने से वर्षाभाव तथा रक्त, हरित, पोत और चित्र-विचित्र वर्ण की बिजली चमकने स वर्षा होती है।
षष्ठोऽध्यायः
अभ्राणां लक्षणं कृत्स्नं प्रवक्ष्यामि यथाक्रमम् ।
प्रशस्तमप्रशस्त' च तन्निबोधत तत्वत: ॥॥ बादलों की आकृति के लक्षण यथाक्रम से बणित करता हूँ। दो प्रकार के होते हैं—शुभ और अशुभ ।।1।।
स्निग्धान्यभ्राणि यायन्ति वर्षदानि न संशयः ।
उत्तरं मार्गमाश्रित्य तियो मुखे यदा भवेत् ॥2॥ चिकने बादल अवश्य वरात हैं, इसमें कुछ भी संशय नहीं, और उत्तर दिशा के आश्रित बादल प्रातःकाल नियमतः वर्षा करते हैं 11211
उदीच्यान्यथ पूर्वाणि वर्षदानि शिवानि च।
दक्षिणाण्यपराणि स्युः समूत्राणि न संशयः ।।3।। [. प्रास्तान : A. B. 10. । 2. अप्रशाना! गु: A. B. D. I 3. शुभानि मु. C.। 4. शुभा नि मु. C. पा०.
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भद्रबाहुसंहिता
उत्तर और पूर्व दिशा के बादल सदा उत्तम वर्षा करते हैं और दक्षिण तथा पश्चिग के बादल मूत्र के समान बोहो-धोई वषां करते है, इसमें कुछ संशय नहीं ॥311
कृष्णानि पीत-ताम्राणि श्वेतानि च यदा भवेत् ।
तयोनिर्देश'मासृत्य वर्षदानि शिवानि च ॥4॥ यदि बादल कृष्ण, पीले, ताँव और श्वेत वर्ण के हों तो वे उत्तम वर्षा की। मूचना देते हैं ।।411
अप्सराणां च सन्वानां सदशानि चराणि च ।
सुस्मिाधानि च यानि स्युर्वर्षदानि शिवानि च ॥5॥ यदि बादल देवांगनाओं और प्राणियों के सद्श आचरण करें-विचरण करें और किम हो तो दुभ होते हैं और उनसे उनम कपी होती है ।।511
शुक्लानि स्निग्धवनि विद्युच्चित्रघनानि च ।
सद्यो वर्ष समाधान्ति तान्यभ्राणि न संशयः ॥6॥ बादल सुन कणं न हो, स्निग्ध हो, विद्य त् समान विचित्र -कटूतर के । रामान रंग के बादल हो तो तत्याः । बागा होती है ।।6।।
शकुन: कारणश्चापि सम्भवन्ति शुभैर्यदा।
तदा वर्ष च क्षमं च सुभिक्ष' च जयं भवेत् ॥7॥ शुभ शकुन और अन्य शुभ-चिल्ला माहित यदि बादल हो तो वे वर्षा करते हैं। तथा क्षेग, गुगल, मंभिक्ष और राजा श्री विजय सूचित करती हैं।।7।।
पक्षिणां द्विपदानां च सदृशानि यदा भवत् ।
चतुष्पदानां सौम्यानां तदा विद्यान्महज्जलम् ॥४॥ मौम्य पक्षियों के सदृश, सौभ्य द्विपद ..-मनुष्यों के ग़दृश और सौम्य चतुष्पद.. - चौपायों गाय, भैग, हाथी घोड़ा आदि नतुल्य वादल हो सो विजयसूचक समाना चाहिए । इस परलोक में सौम्य विशेषण से तात्पर्य है कि अर प्राधियों को पानि नहीं ग्रहण करनी चाहिए। जो प्राणी सीधे-गाधे स्वभान है, उन्हीं की जाति को बादल शुभ सूचक होते है । गौम्य प्राणियों में हाथी, घोड़ा, बल, हंस, मयूर, सारस, तोता, मैना, कोयल, कबूतर आदि प्राणी संग्रहीत है ॥8॥
.।
3
| यानिदिशा म.। 2 अम्मा आ। 5. जय वदत् मु• A, B. ) ।
111 • I 4.
पु
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षष्ठोऽध्यायः
यदा राज्ञः प्रयाणे तु यान्यभ्राणि शुभानि च ।
अनुमाणि स्निग्धानि तदा राज्ञो जयं वदेत् ॥७॥ राजा के प्रयाण के समय यदि शुभ रूप बादल हों और वे राजा के मार्ग के साथ-साथ गमन करें, स्निग्ध हों तो उस यात्रा में राजा की विजय होती है ।।911
रथायुधानामश्वानां हस्तिनां सदशानि च।।
यान्यनतो प्रधावन्तिः जयमायान्त्युपस्थितम् 110 रथ -- गाड़ी, मोटर तथा आयुध--तलवार, बन्दुक और हाथो आदि प्राणियों के सदृश बादल राजा के आगे-आगे गमन करें तो वे उसकी जय की सूचना देते हैं।।1011
ध्वजानां च पताकानां घण्टानां तोरणस्य च ।
सदशान्यग्रतो यान्ति जयमाख्यान्त्यपस्थितम ॥ ध्वजा, पताका, घण्टा, तोरण इत्यादि की आकृति वाल वान 11 प्रयाण समय आग-आगे चलें तो उनसे राजा वी विजय सूचित होती है
शुक्लानि स्निग्धवर्णानि पुरत:" पृष्ठतोऽपि वा।
अभ्राणि दीप्तरूपाणि जयमाख्यान्त्युपस्थितम् ।।।2।। श्वेत और चिकने दादल राजा के आगे अथवा पीछे चमकते हुए ममन पारे तो बिजयलक्ष्मी उसके सामने उपस्थित रहती है --युद्ध में उरी विजय मिलती है।।12।
चतुष्पदानां पक्षिणां कव्यादानां च दंष्ट्रिणाम् ।
सदृशप्रतिलोमानि बधमाल्यानान्त्युपस्थितम् ॥13॥ चौपायों - 'भैसा, शूकर', गधा आदि पशुओं और गांसभक्षी कर पक्षियों - . गीध, कार, बगुला, बाज, तीतर आदि पक्षियों एवं दांत वाले सिंहादि हिंगक प्राणियों के आकार वाले बादल शाजा के युद्धार्थ गमन करते समय प्रतिलीम गति -अपराव्य मार्ग भ गमन करते हुए दिखाई दें तो राजा का शाल अश्या पराजय होती है।।131
भोल म• C.2. पागधामा ॥ यदाय धम्न।म, म. C.। 3. अभिधान्ति शुक C.4. प्रस्तात् म | 5. बाणां मु• BI
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भद्रबाहुसंहिता
अशिषिततोमराणा खा चर्मणाम् सदृशप्रतिलोमानि सङ्ग्रामं तेषु निविशेत् ॥14॥
तलवार, त्रिशूल, भाला, बर्फी, खड्ग, चक्र और ढाल के समान आकार वाले और प्रतिलोम - विपरीत मार्ग से गमन करने वाले बादल युद्ध की सूचना देते हैं ।14।।
धनुषां कवचानां च बालानां सदृशानि च । खण्डान्यभ्राणि रूक्षाणि सग्रामं तेषु निर्दिशेत् ॥15॥
धनुषाकार, कवचाकार, बाल हाथी, घोड़ों की पूंछ के बालों के समान तथा खण्डित और रूक्ष वाद संग्राम की सूचना देते हैं || 1511
नानारूप प्रहरणं सर्वं यान्ति परस्परम् ।
ग्रामं तेषु जानीयादतुलं प्रत्युपस्थितम् ।।।6।।
नाना प्रकार के रूप धारण कर सब बादल परस्पर में आधार - प्रतिघात करें तो घोर संग्राम की सूचना अवगत करनी चाहिए ||16|
अभ्रवृक्षं समुच्छाद्य योऽनुलोमसमं व्रजेत् । यस्य राज्ञो वधस्तस्य भद्रबाहुवचो यथा ||17
जड़ से उखड़े हुए वृक्ष के समान यदि बादल गमन करते हुए दिखलाई पड़ें तो राजा के वध की सूचना ज्ञात करनी चाहिए, ऐसा भद्रवाह स्वामी का वचन है ।।17।।
t
'बाला वृक्षमरणं कुमारामात्ययोर्वदेत् ।
एवमेवं च विलेयं प्रतिराजं यदा भवेत् ॥ 8 ॥
छोटे-छोटे वृक्ष के समान आकृति वाले बादलों से युवराज और मन्त्री का मरण जानना चाहिए ॥ 8 ।।
तिर्यक्षु यानि गच्छन्ति क्षाणि च धनानि च । निवर्तयन्ति तान्याशु चमूं सर्वा सनायकाम् ॥५॥
यदि संघ तिर गमन करते हों, रूक्ष हों और सघन हों तो उनसे नायक
| अप A. शिमरण
ulua as C., zlaut
〃
5, नायकम् C
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-
3.ffa ge C. 14. sala gA. D.
D. 2. प्रतियां B.,
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षष्ठोऽध्याय
सहित रामस्त सेना के युद्ध से लौट आने या पराइ मुख हो जाने की सूचना मिलती
है । 1 9।
अभिद्रवन्ति घोषेण महता यां चमूं पुनः । सविद्युतानि चाभ्राणि तदा विन्द्याच्चमृवधम् || 201
जिस सेना के ऊपर बादल घोर गर्जना करते हुए बरराते हैं तथा बिजली सहित होते हैं तो उस सेना का नाश सूचित होता है ॥20॥
रुधिरोदकवर्णानि निम्बगन्धीनि यानि च । व्रजन्त्य भ्राणि" अत्यन्तं सङ्ग्रामं तेषु निविशेत् ॥12 ॥
रुधिर के समान रंग वाली जलवर्षा हो और नीम जैसी गन्ध आती हो तथा बादल गमन करते हुए दिखलाई पड़े तो युद्ध होने का निर्देश बात करना चाहिए || 2 ||
विस्वरं रवमाणाश्च शकुना यान्ति पृष्ठतः ।
यदा चाभ्राणि धूम्राणि तदा विन्द्यान्महद्भयम् ॥22॥
77
पीछे की ओर शब्द सहित अथवा शब्दरहित शकुन रूप धूम जैसी प्राकृति वाले वादन महान् भय की सूचना देते हैं ||22||
मलिनानि विवर्णानि दीप्तायां दिशि यानि च । दीप्तान्येव यदा यान्ति भयमाख्यान्त्युपस्थितम् ॥23॥
मलिन तथा वर्णरहित बादल दीप्ति दिशा सूर्य जिस दिशा में हो उस दिशा में स्थित हो तो भय की सूचना समझनी चाहिए 11231
11
"सग्रहे "चापि नक्षत्रे ग्रहयुद्धे " शुभे तिथौ । सम्भ्रमन्ति यदाऽस्राणि तम विद्यान्महद् भयम् ॥2411
मुहरों शकुने वापि निमित्ते वाशुभं यदा । सम्भ्रमन्ति यदाऽभ्राणि तदा विन्यान्महद् भयम् ||25||
25।।
1 पोरण C. 12. ना सु । 3. प्रजन्ति अश्राम: अभ्राणि मु० 15 सधूमान A. BB | 6-7 B. E. । 8. विवर्णानि भू० A 9 ग्राम 11. अमुक्ते मु० 12. सम्भवन्ति
A. B. D. 4. यानि
महाश्रयम् " A., भयम् महत् मु संग्रहे म DI 10 वा ।
A,
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भद्रबाहुसंहिता
अशुभ प्रह, नक्षत्र, प्रयुद्ध, तिथि-मुहूर्त-शकुन और निमित्त के अशुभ होने पर बादलों का भ्रमण हो तो बहुत भारी भय की सूचना समझनी चाहिए ।124-2511
अभ्रशक्तियतो गच्छेत् तां दिशा' चाभियोजयेत् ।
विधुला क्षिप्रगा स्निग्धा जयमाख्याति निर्भयम् ॥26॥ भारी शीघ्रगामी और स्निग्ध बादल जिस दिशा में गमन करें उस दिशा में वे यागी राजा की विजय की सुचना करते हैं 1126।।
यदा तु धान्यसंघाना सदशानि भवन्ति हि।
अभ्राणि तोयवर्णानि सस्य तेषु समृद्ध्यते ॥27॥ यदि वादन धान्य के समुह के सदश अथवा जल के वर्ण वाले दिखाई दे तो धान्य को बहुत पैदावार होती है ॥2711
विरागान्यनुलोमानि शुक्लरक्तानि यानि च।
स्थावराणोति जानीयात् स्थावराणां च संश्रये ॥28॥ बिगगी, अनुलोम गति वाले तथा श्वेत और रक्त वर्ण के बादल स्थिर हों तो स्थायी -उस स्थान के निवासी राजा की विजय होती है ।।2811
क्षिप्रगाति विलोमानि नीलपीतानि यानि च ।
चलानीति' विजानीयाच्चलानां च समागमे ॥29॥ त्रिगामी, प्रतिलोम गति से चलने वाले, पीत और नील वर्ण के बादल चल होने हैं और ये पायी या लिए समागमकारक है ।।29।।
स्थावराणां जयं विन्द्यात् स्थावराणां द्युतियंदा।
यायिनां च जयं बिन्याच्चलाभ्राणां धुतावपि ॥30॥ जो बादल स्थावरों - निवासियों के अनुकूल छ ति आदि वह वाले हों तो उस परसे स्थायियों की जय जानना और यायी के अनुकुल ति आदि चिह्नवाले हो तो गायी की विजय जानना चाहिए ।। 301
| 5. 14 8 ना
| 2 वाभियो नये म.. | 3. वायाधाना म..| 4 सदनानां प.. । ग• I 6.
I T IA. I 7. नाना भ.. ASH: T..। ... | | " चलान - A10. नमाम
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षष्ठोऽध्यायः
राजा' तत्प्रतिरूपैस्तु ज्ञेयान्यभ्राणि सर्वश" ।
तत् सर्व' सफलं' 'विन्द्याच्छुभं वा यदि वाऽशुभम् ॥31॥
यदि राजा को बादल अपने प्रतिरूप - सदृश जान पड़ें तो उनसे शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का फल अवगत करना चाहिए ॥31॥
दरभावित
नाम ठोऽध्यावः ||6||
विवेचन--- आकाश में बादलों के आच्छादित होने से वर्षा, फसल, जय, पराजय, हानि, लाभ आदि के सम्बन्ध में जाना जाता है। यह एक प्रकार का निमित्त है, जो शुभ-अशुभ की सूचना देता है। बादलों की आकृतियाँ अनेक प्रकार की होती हैं । कतिपय आकृतियाँ पशु-पक्षियों के आकार की होती हैं और कतिपय मनुष्य, अस्त्र-शस्त्र एवं गेंद, कुर्सी आदि के आकार की भी । इन समस्त आकृतियों को फल की दृष्टि से शुभ और अशुभ इन दो भागों में विभक्त किया गया है । जो पशु सरल, सीधे और पालतू होते हैं, उनकी आकृति के बादलों का फल शुभ और हिंसक, क्रूर, दुष्ट जंगली जानवरों की आकृति के बादलों का फल निकट होता है। इसी प्रकार सौम्य मनुष्य की आकृति के बादलों का फल शुभ और क्रूर मनुष्यों की आकृति के बादलों का पल निकृष्ट होता है। अस्त्र-शस्त्रों की जाति के बादलों का फल साधारणतया अशुभ होता है। स्निग्ध वर्ण के बादलों का फल उत्तम और रूक्ष वर्ण के बादलों का फल रावंदा निकृष्ट होता है ।
पूर्व दिशा में मेघ गर्जन-तर्जन करते हुए स्थित हो तो उत्तम वर्षा होती है तथा फसल भी उत्तम होती है। उत्तर दिशा में बादल छाये हुए हों तो वर्षा की सुचना देते हैं। दक्षिण और पश्चिम दिशा में बादलों का एकत्र होना वर्षावरोधक होता है। वर्षा का विचार ज्येष्ठ की पूर्णिमा की वर्षा से किया जाता है । यदि ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र हो और उस दिन बादल आकाश में आच्छादित हों तो साधारण वर्षा आगामी वर्ग में समझनी चाहिए। उत्तराषाढ़ा नक्षत्र यदि इस दिन हो तो अच्छी वर्षा होने की सूचना जाननी चाहिए | आषाढ़ कृष्ण पक्ष में रोहिणी के चन्द्रमा योग हो और उस दिन आकाश में पूर्व दिशा की ओर मेघ सुन्दर, सौम्य आकृति में स्थित हो तो आगामी वर्ष में सभी दिशाएं शान्त रहती है, पक्षीगण या मृगगण मनोहर शब्द करते हुए आनन्द से निवास करते हैं, भूमि सुन्दर दिखलाई पड़ती है और धन-धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती
1. नां भू० C. 1 2 निति 1 3
5. सर्वमनं मरु C 16. बूयात् मु.. B. C
"
79
N
C 4 ततः सुरु
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भद्रबाहुसंहिता
है । यदि आकाश में कहीं कृष्ण-श्वेत मिश्रित वर्ण के मेघ आच्छादित हों, कहीं श्वेत वर्ण के ही स्थित हों, कहीं कुण्डली आकार में स्थित हों, कहीं बिजली चमकती हुई मेघों में दिखलाई पड़े, कहीं कुमकुम और टेसू के पुष्प के समान रंग के बादल सामने दिखलाई पड़ें, कहीं मेघों के इन्द्रधनुष दिखलाई पड़ें तो आगामी वर्ष में साधारणतः वर्षा होती है। आचार्यों ने ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी से आषाढ़ शुक्ल तक के मेघों का फल विशेष रूप से प्रतिपादित किया है ।
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विशेष फल- -यदि ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को प्रातः निरभ्र आकाश हो और एकाएक मेघ मध्याह्नकाल में छा जायें तो पौष मास में वर्षा की सूचना देते हैं तथा इस प्रकार के मेघों से गुड़, चीनी आदि मधुर पदार्थों के महंगे होने की भी सूचना समझनी चाहिए। यदि इसी तिथि को रात्रि में गर्जन-तर्जन के साथ बूंदाबूंदी हो और पूर्व दिशा में बिजली भी चमके तो आगामी वर्ष में सामान्यतया अच्छी वर्षा होने की सूचना देते हैं। यदि उपर्युक्त स्थिति में दक्षिण दिशा में बिजली चमकती है तो दुर्भिक्ष सूचत्र समझना चाहिए। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को नभय हो और दिन उत्तर दिशा की ओर से मेत्र एकत्र होकर आकाश को आच्छादित करें तो वस्त्र और अन्न सस्ते होते हैं और आषाढ़ से आश्विन तक अच्छी वर्षा होती है, सर्वत्र सुभिक्ष होने की सूचना मिलती है। केवल यह योग चूहों, सर्पों और जंगली जानवरों के लिए अनिष्टप्रद है। उक्त तिथि को गुरुवार, शुक्रवार और मंगलवार में से कोई भी दिन हो और पूर्व या दक्षिण दिशा की ओर से बादलों का उमड़ना आरम्भ हो रहा हो तो निश्चयतः मानव, पशु, पक्षी और अन्य समस्त प्राणियों के लिए वर्षा अच्छी होती है ।
ज्येष्ठ शुक्ला पष्ठी को आकाश में मंडलाकार मेघ संचित हों और उनका लाल या काला रंग हो तो आगामी वर्ष में वृष्टि का अभाव अवगत करना चाहिए। यदि इस दिन बुधवार और मघा नक्षत्र का योग हो तथा पूर्व या उत्तर से मेघ उठ रहे हों तो श्रावण और भाद्रपद में वर्षा अछी होती हैं, परन्तु अन्न का भाव महँगा रहता है। फग़ल में कीड़े लगते हैं तथा सोना, चाँदी आदि खनिज धातुलो 甬 मूल्य में भी वृद्धि होती है । यदि ज्येष्ठ शुक्ला पछी रविवार को हो और इस दिन पुष्य नक्षत्र का योग हो तो क्षेत्र का आकाश में छाना बहुत अच्छा होता है। आगामी वर्ष बृष्टि बहुत अच्छी होती है, धन-धान्य की उत्पत्ति भी श्रेष्ठ होती है ।
ज्येष्ठ शुक्ला सप्तमी शनिवार को हो और इस दिन आश्लेषा नक्षत्र का भी योग हो तो आप में श्वेत रंग के बादलों का छा जाना उत्तम माना गया है। इस निमित्त से देश की उन्नति की सूचना मिलती है। देश का व्यापारिक सम्बन्ध अन्य देशों में बढ़ता है तथा उसकी सैन्य और अर्थ शक्ति का पूर्ण विकास होता
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षष्ठोऽध्यायः
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है। वर्षा भी समय पर होती है, जिससे कृषि बहुत ही उत्तम होती है । यदि उक्त तिथि को गुरुवार और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग हो और दक्षिण से बादल गर्जना करते हुए एकत्र हों तो आगामी आश्विन मास में उनम वर्षा होती है तथा फसल भी साधारणत: अच्छी होती है। ___ ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी को रविवार या सोमवार दिन हो और इस दिन पश्चिम की ओर पर्वताकृति बादल दिग्खलाई पड़ें तो आगामी वर्ष के शुभ होने की सूचना देते हैं। पुष्य, मघा और पूर्वा फालानी इन नक्षत्रों में से कोई भी नक्षत्र उस दिन हो तो लोहा, इस्पात तथा इनसे बनी समस्त वस्तु महंगी होती हैं। जट का बाजार भाव अस्थिर रहता है। तथा आगामी वर्ष में अन्न की उपज भी कम ही होती है। देश में गोधन और पशुधन का विनाश होता है। यदि उक्त नक्षत्रों के साथ गुम्वार का योग हो तो आगामी वर्ष गब प्रकार से मुखपूर्वक व्यतीत होता है। वर्षा प्रचुर परिमाण में सोती है । कृपया वर्ग को सभी प्रकार में शान्ति मिलती है। ___ ज्येष्ठ शुक्ला नवमी शनिवार को यदि आश्लेगा, विशास्त्रा और अनुराधा में से कोई भी नक्षत्र हो तो इस दिन मेघों का आना में व्याप्त होता साधारण वर्षा का सचक है। साथ ही इन मेषों से माघ मास में जल नो घरमने की भी सुचना मिलती है। जौ, धान, बना, मूंग और बाजरा की उताति अधिक होती है। मेह का अभाव रहता है या स्वरूप परिमाण में उत्पादा होता है। ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को रविवार या मंगलवार हो और इस दिन ज्येष्ठ या अनुराधा नक्षत्र हो तो आगामी वर्ष में श्रेष्ठ फसल होने की सूचना समझनी चाहिए। तिल, तेल, घी और तिलहनों का भाव महँगा होता है तथा घत में विशेष लाभ होता है। उक्त प्रकार का मेघ व्यापारी वर्ग के लिए 'भयदायक है तथा आगामी वर्ष में उत्पातों की सूचना देता है।
ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी को उत्तर दिशा की ओर सिंह, ध्यान के आकार में बादल छा जाये तो आगामी वर्ष के लिए अनिष्टप्रद समझना चाहिए । इस प्रकार की मेघस्थिति पौष या माघ मास में देश में किसी नेता की मत्य भी सचित करती है। वर्षा और कृषि के लिए उक्त प्रकार की मेघ स्थिति अत्यन्त अनिाटकारक है। अन्न और जट की फसल सामान्य रूप से अन्ही नहीं होती । कपाग और गन्ने की फसल अच्छी ही होती है। यदि उक्त तिथि को गुरुवार हो तो इम प्रकार की मेघस्थिति द्विज लोगों में भय उत्पन्न करती है नथा देश में अधाभिक वातावरण उपस्थित करने का कारण बनती है।
ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को बुधवार हो और हग दिन पश्चिम दिशा में सुन्दर और मौम्य आकार में बादल आकाग में छा जावे तो आगामी वर्ष में अच्छी वर्ण
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भद्रवाहुसंहिता
होती है । यदि इस दिन ज्येष्ठा या मुल वक्षत्र में से कोई हो तो ज्यत प्रकार की मेघ की स्थिति से धन-धान्य का उत्पत्ति में डेढ़ गुनी वृद्धि हो जाती है । दैनिक उपयोग को रामस्त बस्तुएँ आगामी वर्ष में सस्ती होती हैं ।
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ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी को गुरुवार हो और इस दिन पूर्व दिशा की ओर से बादल उमड़ते हुए एकत्र हों तो उत्तम वर्षा की सूचना देते हैं। अनुराधा नक्षत्र भी हो तो कृषि में वृद्धि होती है। ज्येष्ठ शुक्ला चर्तुदशी की रात्रि में वर्षा हो और आकाश मण्डलाकार रूप में मेघाच्छन्न हो तो आगामी वर्ष में खेती अच्छी होती है। ज्येष्ठ पूर्णिमा को आकाश में सघन मेघ आच्छादित हों और इस दिन गुरुवार हो तो आगामी वर्ष में गुभिक्ष की सूचना समझनी चाहिए ।
आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा को हाथी और अश्व के आकार में कृष्ण वर्ण के बादल आकाश में अवस्थित हो जायें तथा पूर्व दिशा से वायु भी चलती हो और हल्की वर्षा हो रही हो तो आगामी वर्ष में दुष्काल की सूचना समझनी चाहिए । आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा के दिन आकाश में बादलों का आच्छादित होना तो उत्तम होता है, पर पानी का बरमना अत्यन्त असमझा जाता है। इस दिन अनेक प्रकार के निमित्तों का विचार किया जाता है-यदि रात में उत्तर दिशा से श्रृंगाल मन्द मन्द शव्द करते हुए बोलें तो आश्विन मास में वर्षा का अभाव होता है तथा समस्त खाद्य पदार्थ महंगे होते हैं। तेज धूप का पड़ना श्रेष्ठ समझा जाता है और यह लक्षण सुभिक्ष का द्योतक होता है। आप कृष्णा द्वितीया को पर्वत, या समुद्र के आकार में उमड़ते हुए बादल एकत्रित हों और गर्जना करें, पर वर्षा न हो तो गाधारणतः अच्छा समझा जाता है । आगामी श्रावण और भाद्रपद में वर्षा होती है । आपाड़ कृष्णा द्वितीया को सुन्दर द्विपदाकार मेघ आकाश में अवस्थित हो तो उत्तम समझा जाता है। वर्षा भी उत्तम होती है तथा आगामी वर्ष फसल भी अच्छी होती है। यदि आपाड़ कृष्णा द्वितीया को सोमवार हो और इस दिन श्रवण नक्षत्र हो तो उक्त प्रकार के सेव का विशेष फल प्राप्त होता है । तिलहन की उत्पत्ति प्रचुर परिमाण में होती है तथा पशु धन की वृद्धि होती रहती है । इस तिथि को मंधाच्छन आकाश होने पर रात्रि में शूकर और जंगली जानवरों का कर्केश शब्द सुनाई पड़े तो जिस नगर के व्यक्ति इस शब्द को सुनत हैं, उसके चारों और दस-दस कोश की दूरी तक महामारी फैलती है | यह फल कार्तिक गाम में ही प्राप्त होता है, सारा नगर कार्तिक में वीरान हो जाता है । फसल भी कमजोर होती है और फसल नष्ट करने वाले कीड़ों की वृद्धि होती है। यदि उक्त तिथि को प्रातःकाल आकाश निरभ्र हो और सन्ध्या समय रंग-विरंग वर्ण के बादल पूर्व से पश्चिम की ओर गमन करते हुए दिखलाई पड़ें तो सात दिन के उपरान्त घनघोर वर्षा होती है तथा श्रावण महीने में भी खूब वर्षा
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पष्ठोऽध्यायः
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होने की सूचना समझनी चाहिए । यदि उक्त तिथि को दिन भर मेघाच्छन्न आकाश रहे और सन्ध्या समय निरभ्र हो जाय तो आगामी महीने में साधारण जल-वर्षा होती है तथा भाद्रपद में सूखा पड़ता है।
आषाढ़ कृष्ण नतीया को प्रातःकाल ही आकाश मेघाच्छन्न हो जाय तो आगामी दो महीने अच्छी वर्षा होती है तथा विश्व में सुभिक्ष होने की गूचना समझनी चाहिए। काले रंग के अनाज महंगे होते हैं और श्वेत रंग की सभी वस्तुएं सस्ती होती हैं । यदि उक्त तिथि को मंगलवार हो तो विशेप वर्षा की मचना समझनी चाहिए । धनिष्ठा नक्षत्र सम्ध्या समय में स्थित हो और इस तिथि को मंगलवार मेघ स्थित हो तो भाद्रपद मास में भी वा की सूचना गमअनी चाहिए।
आषाढ़ कृष्णा चतुर्थी को मंगलवार या शनिवार हो, पूर्वागाह्म, जनरसपाढ़ा और श्रावण में से कोई भी एक नक्षत्र हो तो उक्त तिथि को प्रात:काल ही मेघाच्छन्न होने से आगामी वर्ष अनछी वर्गा की सूचना मिलती है । धन-धान्य की वृद्धि होती है । जूट की उपज में लिए उक्त परिवनि की गमझी जाती है। आपाद कृष्णा पञ्चमीको गनुपरस के आप में पेशागाशा गं चित हों तो वर्षा और फसल उत्तम होती हैं। देश की आथि स्थिति बद्धि होती है। विदेशों में भी देश का व्यापारिक सम्बन्ध रववपित होता है। गेह, ग, और लाल वस्त्र के व्यापार में विशेष लाभ होता है । मोती, सोना, रहन और अन्य प्रकार के बह मूल्य जवाहरात की महंगी होती है । आगाट कृष्णा पाठी को निरभ्र आकाण रहे और पूर्व दिशा से नज वाय् चले तथा गया है समय पीत वर्ण के बादल आकाश में व्याप्त हो जाये तो श्रावण म वर्गा की कमी, भाद्रपद में सामान्य वर्ग और आश्विन में उत्तम वर्गानी मनमा समअनी माहिए। यदि उनत तिथि रविवार, गोमवार और गंगवार हो तो सामान्यतः वर्मा उत्तम होती है तथा तृण और पाठ का मुल्य बना है । पशुओं पंः मुल्य में वृद्धि हो जाती है । यदि उक्त तिथि अग्विनी नक्षत्र हो तो बी इनकी होती है, ना पसल में कमी रहती है । बाढ़ और अतिटि के कारण फसल नष्ट हो जाती है। माघ मास में भी वृष्टि की सूचना उक्त प्रकार के मेंब यो स्थिति से निजाती है। यदि आपाद वृारण गरतगी की रात गं एकाएक मंत्र एकत्र हो जायें तथा व न हो तो तीन दिन से पाचान बनड़ी बर्या होने की मचना मालनी चाहिए। यदि उक्त तिथि को प्रातःकाल ही मन बाधित हों नया हल्की वर्षा हो रही हो तो आपादमाग में भी चार्ग, श्रावण में यामी और भाद्रपद में वो वा नगाव तथा प्राश्विन मास में छिट-पट वर्मा सम्बनी चाहिए। यदि उका बिथियो गोमवार पड़े तो सूर्य की मेपस्थिति जगत में हाहाकार होने की सूचना देती है। अर्थात् मनुष्य
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भद्रबाहुसंहिता
और
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पशु सभी प्राणी कष्ट पाते हैं | आश्विन मास में अनेक प्रकार की बीमारियां भी व्याप्त होती हैं | आषाढ़ कृष्ण अष्टमी को प्रातःकाल सूर्योदय ही न हो अर्थात् सूर्य मेघाच्छन्न हो और मध्याह्न में तेज धूप हो तो श्रावण मास में वर्षा की सूचना समझनी चाहिए हो तो इस देश जत्य अनिष्टकर होता है। फसल में अनेक प्रकार के रोग लग जाते हैं तथा व्यापार में भी हानि होती है । आषाढ़ कृष्णा नवमी को पर्वताकार बादल दिखलाई पड़े तो शुभ, ध्वजा - घण्टापताका के आकार में बादल दिखलाई पड़े तो प्रचुर वर्षा और व्यापार में लाभ होता है। यदि इस दिन बादलों की आकृति मांसभक्षी पशुओं के समान हो तो राष्ट्र के लिए भय होता है तथा आन्तरिक गृह कलह के साथ अन्य शत्रु राष्ट्रों की ओर से भी भय होता है। यदि तलवार, त्रिशूल, भाला, बर्फी आदि अस्त्रों के रूप में बादलों की आकृति उक्त तिथि को दिखलाई पड़े तो युद्ध की सूचना समझनी चाहिए। यदि आषाढ़ कृष्ण दशमी को उबड़े हुए वृक्ष की आकृति के समान बादल दिखलाई पड़े तो वर्षा का अभाव तथा राष्ट्र में नाना प्रकार के उपद्रवों की सूचना समझनी चाहिए। आपाद कृष्ण एकादशी को रुधिर वर्ण के बादल आकाश में आच्छादित हो तो आगामी वर्ष प्रजा को अनेक प्रकार का कष्ट होता है तथा खाद्य पदार्थों की कमी होती है। आषाढ़ कृष्ण द्वादशी भर त्रयोदशी को पूर्व दिशा की ओर से बादलों का एकत्र होना दिखलाई पड़े तो फसल की क्षति तथा वर्षा का अभाव और चर्तुदशी को गर्जन-तर्जन के साथ बादल आकाश में व्याप्त हुए दिखलाई पड़ें को श्रावण में सूखा पड़ता है । अमावस्या को वर्षा होना शुभ है और धूप पड़ना अनिष्टकारक है। शुक्ला प्रतिपदा को मेघों का एकत्र होना शुभ, वर्षा होना सामान्य और धूप पड़ना अनिष्टकारक है । शुक्ला द्वितीय और तृतीया को पूर्व में मेघों का एकत्रित होना शुभसूचक है ।
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सप्तमोऽध्यायः
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अथातः सम्प्रक्ष्यामि सन्ध्यानां लक्षणं ततः । प्रशस्तमप्रशस्तं च यथातत्त्वं निबोधत ॥॥॥॥॥
1. faz mo C
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सप्तमोऽध्यायः
सन्ध्याओं के लक्षण का निरूपण किया जाता है । ये सध्याएं दो प्रकार की होती हैं -प्रशस्त और अप्रशस्त । निया शारत को ः अनुसार उनका फल अवगत करना चाहिए ।। 1 ।।
उद्गच्छमाने चादित्ये। यदा सन्ध्या विराजते ।
नागराणां जयं विन्धादस्तं गच्छति यायिनाम् ॥2॥ सूर्योदय के समय की सन्ध्या नागरों को और सूर्यास्त के समय की सन्ध्या यायी के लिए जय देने वाली होती है ।।2।।
उद्गच्छनाने चादित्ये शुक्ला साध्या यदा भवेत् ।
उत्तरेण गता' सौम्या ब्राह्मणानां जयं विदुः ॥३॥ सूर्योदय के गमय की सन्ध्या यक्षित वर्ण की हो और वह उत्तर दिशा में हो तथा मोम्य हो तो ब्राह्मणों के लिए नयदायक होती है ।।3।।
उद्गच्छमाने चादित्ये रक्ता सन्ध्या यदा भवत् ।
गर्वण च गता सोम्या क्षत्रियाणां जयावहा ।।4।। सूर्योदय के समय लाल वर्ण ! मन्या हो और बह पूर्व दिशा में स्थित है। तथा सौम्य हो तो क्षत्रियो को जय देने वाली होती है ।।4।।
उदगच्छमाने चादित्ये पीता सध्या यदा भवत् ।
दक्षिणेन गता सौम्या वैश्यानां सा जयावहा" ।।5।। गुर्योदय के समय की पण मलगा दिही और बद दक्षिण दिशा का आश्रय करे तथा सौम्य हो तो वैश्या नि जसबागी होती ।।5।।
उद्गन्धमाने चादिन्ये कसया एदा भवेत!
अपरेणा गता सोम्या शूद्राणां च जयावहा ॥ सूर्योदय के माय गवण की सगा शादी और वह पश्चिम दिशामा आशय करे तथा मौम्य होना शुद्रा लिया जयकारा होती है ।।61
सन्ध्योत्तरा जब राजः सतः कुर्यात् पराजयम् । पूर्वा क्षेमं सुमितं च पश्चिमा च भयंकरा॥7॥
बाद-।। 2 (TRIC.3. 4 :14. ग! म .. | 5, it. He C16 यावी . . . : म. ८.। 7. पाप I li. जयकार। म C.I 8. कुर्यात् ण पाया ॥ 19. तुम.
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भद्रबाहुसंहिता
उत्तर दिशा की सन्ध्या राजा के लिए जयसूचक है और दक्षिण दिशा की सन्ध्या पराजयसूचक होती है ।पूर्व दिशा की सन्ध्या क्षेमकुशलसूचक और पश्चिम दिशा की सन्ध्या भयंकर होती है ।।7।
आग्नेयो अग्निमाख्याति नैऋती राष्ट्रनाशिनी ।
वायव्या प्रावृष' हन्यात् ईशानी च शुभावहा ॥8॥ अग्नि कोण को सन्ध्या अग्निभय कारक, नैऋत्य दिशा की सन्ध्या देश का नाश करने वाली, वायु कोण की सन्ध्या वर्षा की हानिकारक एवं ईशान कोण की सन्ध्या शुभ होती है ॥४॥
एवं सम्पत्करायेषु नक्षत्रेष्वपि निदिशेत्।
जयं सा कुरुते सन्ध्या साधकेषु समुत्थिता ॥१॥ इसी प्रकार गम्पत्ति का लाभ आदि कराने वाल नक्षत्रों में भी निर्देश करना चाहिए, इस प्रकार की सन्ध्या साधवः यो जयप्रदा होती है । तात्पर्य यह है कि साधक पुरुष को नक्षत्रों में भी शुभ सन्ध्या का दिवाई देना जबप्रद होता है ।।१।।
उदयास्तमनेऽर्कस्य यान्यनापतो भवेत् ।।
सम्प्रभाणि सरश्मीनि तानि सन्ध्या विनिदिशेत् ।।1।। शयं के उदयास्त समय वादलों पर जो सूर्य की प्रभा पड़ती है, उस प्रभा से बादलों में नाना प्रकार के वर्ण उत्पन्न हो जाते हैं, उसी का नाम राध्या है॥100
अभ्राणां यानि रूपाणि सौम्यानि विकृतानि च ।
सर्वाणि तानि सन्ध्यायां' तथैव प्रतिवारयेत् ||| अध्र अध्याय में जो उनमें अच्छे और बुरे फल निरपित किये गये हैं, उस । सबको इस सन्ध्या अध्याय में भी लागू बार लेना चाहिए || | ||
एवमस्तमने काले या सन्ध्या सर्व उच्यते ।
लक्षणं यत्" तु' सन्ध्यानां शुभं" वा यदि "वाशुभम् ।। 1 218 उपयुक्त सूर्यादय की सन्ध्या के लक्षण और शुभाशुभ फलानुसार अस्त काल
t.ali 0 1 2. A र ग• f' 13. धि | H: 4..19 1 मुर (,15. प्रॉi नापन प० । 6.-7.-8 नाम: (.) या I HAIR मार गुन C. 10. न म • ।
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सप्तमोऽध्यायः
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की सन्ध्या का भी शभाशुभ फन्न अबगत करना चाहिए ।।12।।
स्निग्धवर्णमती सन्ध्या वर्षदा सवंशो भवेत् ।
'सर्वा वीथिगता बाप सुनक्षला. विशेषत: ॥13॥ स्निग्ध वर्ण को सतया वर्षा दने वाली होली है वोथिया में प्राप्त और विशष कर शुभ नक्षत्रों वाली सन्ध्या वां को वारती है ।।।3।।
"पूर्वराजपरिवेषाः विद्युत्परिखायता।
सरश्मी" सर्वतः सन्ध्या सद्यो वर्ष प्रयच्छति ॥14।। पूर्व रात्रि... पिछली बीती हुई राधिको परिप हो और परिखायुक्त बिजली हो तया सब और रश्मि सहित सन्ध्या हो तो तत्काल बा होती है ।। |4||
प्रतिसर्यागमस्तत्र "शऋचापरजस्तथा।
सन्ध्यायां यदि दृश्यन्ते सद्यो वर्ष प्रयच्छति ॥15।। प्रतिसूर्य ३.! आगमन हो, यहा पर इन्द्रधनप रजोया गया में शिवलाई पड़े तो तत्काल बारी होती है ।।150
सन्ध्यायामेकश्मिस्तु यदा सजति भास्करः ।
उदितोऽस्तमितो चापि विन्द्याद् वर्षमपस्थितम् ।।16।। गन्ध्या में गूर्य उदय या अस्त में गमय में IFE सवाना मिलाई गई तो तत्काल वर्मा होती है।।।6।।
आदित्यपार वषरतु सध्यागां यदि दृश्यते ।
वर्ष महद् विजानीयाद् भयं वा था प्रवर्षण'' ॥1711 मन्या में सूर्य के गरिख मलाई त भारी होती. या मय होता है। तात्पर्य यह है कि सध्या काल भगवंक वार दिला तर नहीं माना जाता है । इस ET कलादा अछा नहीं होता। मां भी होताना अधिक होती है जिसमें मनुष्य और पशु को काट ही होता है।17।।
त्रिमण्डलपरिक्षिप्तो यदि वा पंचमण्डल:। सन्ध्यायां दृश्यते सूर्यो महावर्षस्य सम्भव. ।। ! 881
! ।। 1 । । . . ... .3 .। .. ... || I. ! । Sil-JI H A ; 1 yi: । ( .:।।। . .।।। । . ( . 9. नत्र , I 11-11 ।। 1.'11 . 12 : : :
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भद्रबाहुसंहिता
यदि सूर्य सन्ध्या में तीन मंडल अथवा पाँच मंडल से घिरा हुआ दिखलाई दे तो महावर्षा का होना संभव होता है ।। 18।।
द्योतयन्तो दिशा सर्वा यवा सन्ध्या प्रदृश्यते ।
महामेधास्तदा विन्द्यात् भद्रबाहुवचो यथा ।।1911 सब दिशाओं में प्रकाशमान झलझलाहट थुमत सन्ध्या दिखलाई दे तो भारी वर्षा होती है, ऐसा भद्रबाहु का वचन है ।।। 9।।
सरस्तडागप्रतिमाकूपकुम्भनिभा च या।
यदा पश्यति' सुस्निग्धा सा सन्ध्या वर्षदा स्मृता ॥20॥ सरोवर, तालाब, प्रतिमा, कूप और कुम्भ सदृश स्निग्ध सन्ध्या यदि दिखलाई दे तो वर्षा होगी, ऐसा जानना चाहिए ।।2।।
धूम्रवर्णा बहुच्छिद्रा खण्डपापसमा यदा ।
था सन्ध्या दृश्यते नित्यं सा तु राज्ञो भयंकर।।2।। धूम्र वर्णवाली, छिद्रयुक्त, खण्डम्प सध्या यदि नित्य दिखाई दे तो वह राजाको भयकारक है 11211
द्विपदाश्चतुष्पदा: ऋ राः पक्षिणश्च भयंकराः ।
सन्ध्यायां यदि दृश्यन्ते भयमाख्यान्त्युपस्थितम् ।।2।। क्रूर स्वभाव वाले द्विपद, चतुष्पद और पक्षीगण के सदृश वादल यदि मन्ध्या काल में दिखलाई दें तो भय उपस्थित होता है ।12211
अनावृष्टिर्भयं रोमं दुर्भिक्ष राजविद्रवम् ।
रूक्षायां विकृतायां च 'सन्ध्यायामभिनिदिशेत् ।।2311 सन्ध्या में बादल झा और विकृतिरूप दिखाई दें तो अनावृष्टि, भग, रोग, भिक्ष और राजा का उपद्रव होता है ।।23।।
विशतिर्योजनानि स्युविभाति च सुप्रभा। ततोऽधिकं तु स्तनित अभ्र यौव दृश्यते ॥2413
।
1. महापं पु०। 2. यु मु.. | 3. शिधा C.I 4. मधमा 5. मायानां विनिदिशे, म । 6. स्वागतम् ग |
विशेष नोट-पुनित प्रनि में एलोक-संस। 22, 23 में व्यक्तिमाम मिलता है।
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सप्तमोध्यायः
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पंचयोजनिका सन्ध्या वायुवर्ष च दूरतः ।
त्रिरात्र सप्तरात्रं च सद्यो वा पाकमादिशत् ।।25।। बिजली की प्रभा बोस योजन--अस्सी कोश पर से दिखाई दे तथा इससे भी अधिक दूरी से बादल दिखलाई दें तो वायु और वर्षा भी इतने ही योजन की दूरी तक दिखलाई देती हैं। यदि सन्ध्या पाँच योजन' बीस कोश से विश्वलाई दे तो वायु और वर्षा भी इतनी ही दूरी से दिखलाई पड़ती है । उपर्युक्त चिह्नों का फल तीन या सात रात्रि में मिलता है । तातार्य यह है कि जब बीग कोस की दूरी से सन्ध्या और अस्सी कोश की दूरी से विद्य प्रभा और अन-बादल दिखलाई देते हैं, तब वर्षा भी उस स्थान के चारों ओर अस्सी कोश या बीमा कोश की दूरी तक होती है । यह फलादेश तीन या सात दिनों में प्राप्त होता है ।।24-2511
उल्कावत् साधनं सर्व सन्ध्यायामभिनिदिशेत् ।
अतः परं प्रवक्ष्यामि मेघानां तन्निबाधत ॥2611 उ« अध्याय के समान सा के सच लक्षण और फल रामानना चाहिए । जिस प्रकार प्रशभ और दुर्भाग्य आकृति बाली उकाएं देश, समाज, व्यक्ति का राष्ट्र के लिए हानिकारका समझी जाती हैं, उसी प्रकार अन्ध्यार भी । अब आग मेघ का फल और लक्षण निरूति विया जाता है, उसे अवगत करना चाहिए ॥26॥
इति नन्थे भद्रबाहु के निमित सन्ध्यालक्षणो नाम सातमोऽध्यायः 1714
विवेचन प्रतिदिन सूर्य के अर्धास्त हो जाने के समय से जब ताः आकाश में नक्षत्र भलीभाँति दिखाई न दें तब तक सुन्या मरता है, ती प्रार अर्कोदित सूर्य में पहले ताना दर्शन तक सध्या काल माना जाता है /गच्या मन बार-बार ऊंना भयंकर शब्द' करता हुवा मृग ग्राम नष्ट होने का मनना का पता है । सेना को दक्षिण भाग में रिक्त मृग सूयं
न करे तोगना का नाश समझना चाहिए। यदि पूर्व में प्रात: मन्ध्या के समय मा की ओर मन्त्र करके मग और पक्षियों के अन्दगे यूक्तमया दिलाई पदेतो दनकी सूचना गिनती है। दक्षिण में स्थित भग सूर्य की और मुख का शब्द पर तो शत्रुओं द्वारा नगर का ग्रहण किया जाता है । मुह, वृक्ष, तोरण मया और बलि के साथ मिट्टी बलों को भी उड़ाने वाला गवना प्रवल चंग और नमक खे
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भद्रबाहुसंहिता
शब्द स पक्षियों को आक्रान्त करे तो अशुभकारी सन्ध्या होती है । सन्ध्या काल में भन्द पवन के प्रवाह से हिलते हुए पलाश अथवा मधुर शब्द करते हुए विहंग और मग निनाद करते हों तो सन्ध्या पूज्य होती है। सन्ध्या काल में दण्ड, तडित, मत्स्य, मंडल, परिवेय, इन्द्रधनुष, ऐरावत और सूर्य की किरणें इन सबका स्निग्ध होना शीघ्र ही वर्षा को लाता है । टूटी-फूटी, क्षीण, विश्वस्त, विकराल, युटिल, बाईं ओर को झुकी हुई छोटी-छोटी और मलिन सूर्यकिरणे सन्ध्या काल में हों तो उपद्रव या युद्ध होने की सूचना समझनी चाहिए। उक्त प्रकार की सन्ध्या वर्षावरोधक होती है। अन्धकारविहीन आकाश में सर्य की किरणों का निर्मल, प्रसन्न, सीधा और प्रदक्षिणा के आकार में भ्रमण करना संसार के मंगल का कारण है । यदि सूर्यरश्मियां आदि, मध्य और अन्तगामी होकर निवानी, सरल, अखण्डित और श्वेत हो तो वर्षा होती है । कृष्ण, गीत, कपि, रन्न, हरित आदि विभिन्न वर्गों की गिरणे आकाश में व्याप्त हो . लार्य तो जच्छो अपो होती है तथा एक सप्ताह समा भय भी बना रहता है। यदि माया समय गर्य की किरणें तान रंग की हों तो सेनापति की मत्यु, पीले और लाल रंग के समान हो तो सनापति को दुःख, हरे रंग की होने से पशु और धान्य का नाश, धूम्न वर्ण की होने से गायों का नाश, मंजीठ को समान आभा और रंगदार होने से शस्त्र व अग्निभय, पीत हों तो पवन के साथ वर्मा, भस्म के समान होने से अनावृष्टि और मिश्रित एवं करमाप रंग होने से वृष्टि का क्षीण भाव होता है । सन्ध्याकालीन धून दुपहिया के फूल और अंजन के चूर्ण के समान काली होकर जब सूर्य के सामने आती है, तब मनुःय सैकड़ों प्रकार व गोगा रो पीडिस होता है। यदि सन्ध्या काल में राय की किरणे वित रंग की हों तो मानव का भ्युदय और उसी शान्ति सूचित होती है । यदि सूर्य की किरणे गन्ध्या समय जल और पवा से मिलकर दण्ड के समान हो जाये, तो यह दण्ड
हलाता है । अब यह दण्ड विदिशा शा में स्थित होता है तो राजाओं में लिए और जब दिशाओं में स्थित होता है तो द्विजातियों के लिए अनिष्टकारी है। दिन निकालने में पहले और मध्य सन्धि में जो दण्ड दिखलाई दे तो शस्वभय और रोगभय करने वाला होता है, शुक्वादि वर्ण का हो तो ब्राह्मणों को काटकारक, सयदायक और अविनाश करने वाला होता है। ___आकाश में सूर्य के हकने वाले दही के समान किनारेदार नीले मेघ को अघ्रतरू कहत हैं । यह नील रंग का मेघ यदि नीचे की ओर मुख किये हुए मालूम पड़े को अधिक वर्षा करता है । अतर शत्रु के ऊपर का नाम गण करने वाले राजा के पोर-पछि सलकर अकस्मान् शान्त हो जाय तो युवराज और मन्त्री का नाश .. होता है।
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सप्तमोऽध्यायः
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नील कमल, बैडूर्य और पत्यकसर के समान कान्ति युवत, वायुरहित सन्ध्या सूर्य की किरणों को प्रकाशित करे तो घोर वर्षा होती है । इस प्रकार की सन्ध्याका फल तीन दिनों में प्राप्त हो जाता है । यदि मन्ध्या समय गन्धर्वनगर, कुहासा और धूम छाये हुए दिखलाई पहे तो वर्षा की कमी होती है। मन्ध्याकाल में शम्ध धारण किए हुए नर पधारी के गमान भघ मूर्य के मम्मग्न छिन्न-भिन्न हो तो शत्रुभय होता है । भवनवर्ण ... र किन लेगम गार आच्छादित करें तो वर्षा होने का योग सामाना नाहिए । दियकाल में शुक्ल वर्ण की परिधि दिखलाई दे तो राजा को विपद् होती है, वतवर्ण हो तो सेना की और कनकवर्ण की हो तो बन और पुरुषार्थ की वृद्धि होती है। प्रात: कालीन सन्ध्या के समय शर्य के दोनों ओर की पगिनि, यदि शरीर बाली हो जाय तो बहुत जल-वृष्टि होती हैं और रात्र परिधि दिशाओं को घर ले तो जान का नाण भी नहीं बरता । सन्ध्या काल में मेध, ज, जि, पर्वत, ली और घोड़े का रूप धारण करें तो जब नाना है और रस्ता सपना होता युद्ध का कारण होते हैं । पलाम धरी ना गमान स्निग्ध मतियारीमा जाओं के बल को बढ़ाते है । सन्ध्या काल में रायं का प्रकाश यदि तीक्ष्ण आकार हो या नीचे की ओर अके आकार का हो तो मंगला होता है। मग मम्गुणत होकर पसी, गीदढ़ और मृग राम्ध्याकाल में शब्द या रे तो भिक्ष ना नाग होता है, प्रा में आपस में संघर्ष होता है और अनेक प्रकार से देश में कलह एवं उपद्रव हो। है ।
यदि सूर्योदय काल में दिशाएँ पीत, हन्ति और चित्र-विचित्र वर्ग की मालम हों तो सात दिन में प्रजा में भयंकर रोग, नील वर्ण की पालम हो ता समय पर वर्षा और कृष्ण वर्ण को मालूम हो तो बान। रोग पाना । यदि गागकालीन गन्या के समय दक्षिण दिशा मी बाहुप दिन्ना: । आट, दिनों तक बगाय, पश्चिम दिशा आम हा पालम पता पांच दिनों का वर्षाभाव, उत्तर दिशा से आते हा गानू म प तो ग्राम वर्मा और दिमाग आने हुए मेघ गर्जन माहित दिग्युलाई पहेली पर दिया गया. काहन की सूचना मिलती है। प्रातःकालीन और सायंकालीन मन्याओं . ] पान समान हों तो एक महीने तक माना और विलहन का भाव गगता, सुवर्ण और चाँदी का भाव महंगा तथा दणं परिबनना तो नाभी प्रकार की .jा भाव नीचे गिर जाते हैं।
उमेर | प्रतिपदा की मानकान्दोन गया:पा वर्ण की होकोना: में श्रेष्ठ वर्ग. नाव नोनी जापा:ो । अोर नाग १ . धा, पीत असतो आप गपकन पानी सो आगामी वर्षा ऋतु म सामान्य या ना हो । मत तिथि का
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भद्रबाहुसंहिता
सायंकालीन सन्ध्या श्वेत या रक्त वर्ण की हो तो सात दिन के उपरान्त वर्षा एवं मिश्रित वर्ण की हो तो बर्षा ऋतु में अच्छी वर्षा होती है। ज्येष्ठ वृष्ण द्वितीया को प्रात:कालीन सन्ध्या श्वेत वर्ण की हो तो वर्षा ऋतु में अच्छी वर्षा होती है । ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया प्रातःकालीन सन्ध्या श्वेतवर्ण की हो और पूर्व दिशा से बादल घुमड़कर एकत्र होते दिखलाई पड़े तो आप में वर्षा का अभाव और वर्षा ऋतु में भो अल्प वर्षा तथा सायंकालीन सन्ध्या में बादलों की गर्जना सुनाई पड़े या बंदा-बंदी हो तो घोर भिक्ष का अनुमान करना चाहिए । उक्त प्रकार की सन्ध्यार व्यापार में लाभ सचित करती हैं। सटटे के व्यापारियों के लिए उत्तम फल देती है। वस्तुओं के भाव प्रतिदिन ऊँचे उठते जाते हैं। सभी चिकने पदार्थ और तिलहन आदि का भाव कुछ सस्ता होता है। उपत सन्ध्या का फल एक महीने तक प्राप्त होता है। यह सन्ध्या जनता में रोगों की उत्पनिकारक होती है । ज्येष्ट वृष्ण ततीया या क्षय हो और इस दिन चतुर्थी पंचमी तिथि से विद्ध हो तो उक्त तिथि की प्रातलालीन सन्ध्या अलान्त महत्वपूर्ण होती है। यदि इस प्रकार की सन्ध्या म अधोदय के समय सर्य के चारों ओर नीलवर्ण का मंडलाकार परिवेग दिखलाई पड़े तो भाध और फालगुन माम में भूकम्प होने की सूचना समझनी चाहिए । इन दोनों महीनों में भकम्प के साथ और भी प्रकार की अनिष्ट घटनाएँ घटित होती हैं । अनेक स्थानों पर जनता में संघर्ष होता है, गोलियाँ चलती हैं और रेल या विमान दुर्घटनाएं भी घटित होती है। आकाश में ओले बरसते हैं तथा दुर्घटना द्वारा किसी प्रसिद्ध व्यक्ति की मृत्यू होती है । एक बार राज्य में क्रान्ति होती है तथा ऐसा लगता है कि राज्य-परिवर्तन ही होने वाला है । चैत्र में जाकर जनता में आत्मविश्वास जपन्न होता है तथा सभी लोग प्रेम और श्रद्धा के साथ कार्य करते हैं । यदि उक्त प्रकार की सन्ध्या का वर्ण रक्त और श्वेत मिश्रित हो तो यह सन्ध्या मुकाल तथा ममया कल वर्षा और अगनचन की सूचना देती है। यदि उस्त प्रकार की सध्या को उत्तर दिणा समेत पर्वत के आकार के बादल उठे और ये गये आसनादित कर लें तो विश्व में शान्ति समझनी चाहिए । सायंकालीन सन्ध्या यदि इरा दिन हंसमुन्न मालूम पड़े तो आपाढ़ में खूब वर्षा और शेती हुई मालग पड़े तो वर्गाभाव जानना चाहिए।
या कृष्णा पाठी को बारलेषा नक्षत्र हो और शायंकालीन सन्ध्या पत्तरणं मास्बर हप हो तो आगामी वर्ष अच्छी दा होने की सचवा समझनी चाहिए। इस सन्ध्याक दर्शन मीन, मन और मकर राशि वाले व्यक्तियों को मारट होता
और अवयष राशि वाले व्यक्तियों का अधं शूर्वया मातीत होता है । प्रातः4. लीन आया इस तिथि की रकम, ए और गीता को म मासी गई है और अाप वण को सन्ध्या हानिकारक होती है । जया कृष्ण मातमी को उदय
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सप्तमोऽध्यायः
काली सन्ध्या में सिंह की आकृति के बादल दिखलाई पड़े तो वर्षाभाव और निर आकाश हो तो यथोचित वर्षा तथा श्रेष्ठ फसल उत्पन्न होती है। साथ सन्ध्या में अग्निकोण की ओर रक्त वर्ण के बादल तथा उत्तर दिशा में श्वेत वर्ण के बादल सूर्य को आच्छादित कर रहे हों तो इसका फल देश के पूर्व भाग में यथोचित जलवृष्टि और पश्चिम भाग में वर्षा की कमी तथा सुवणं, चांदी, मोती, माणिक्य, होरा, पद्मराग, गोमेद आदि रत्नों की कीमत तीन दिनों के पश्चात् ही बढ़ती है । वस्त्र और खाद्यान्न का भाव कुछ नीचे गिरता है। ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी को भी प्रातः सन्ध्या निरम्र और निर्मल हो तो आपाद कृष्ण पक्ष में वर्षा होती है । यदि यह मन्या मेघाच्छन्न हो तो वर्गाभाव रहता है तथा आषाढ़ का महीना प्रायः सुखा निकल जाता है । उक्त तिथि को गावं सन्ध्या मिश्रित वर्ण हो तो फसल उनम होती है तथा व्यापार में लाभ होता है । ज्येष्ठ कृष्णा नवमी की प्रातःसन्ध्या रक्त के समान लाल वर्ण की हो तो घर दुनिक्ष की सूचक तथा मेना में विद्रोह कराने वाली होती है। सायंकालीन सन्ध्या उक्त तिथि को एवंत वर्ण की होतो सुक्षि और सुकी सूचना देती है। यदि उक्त तिथि को विशाखा या शतत्रिया नक्षत्र हो तथा इस तिथि का क्षय हो तो इस सन्ध्या की महत्ता फलादेश के के लिए अधिक बढ़ जाती है। क्योंकि इसके रंग, आकृति और सौम्य या दुभंग द्वारा अनेक प्रकार के स्वभाव गुणानुसार फलादेश निरूपित किये गये हैं । यदि ज्येष्ठ कृष्ण दशमी को प्रातःकालीन संख्या स्वच्छ और निरन हो तो आपा भ खूब वर्षा एवं थावण में साधारण वर्षा होती है। सायं सन्ध्या स्वच्छ और निरभ्र हो तो सुभिक्ष की सूचना देती है । ज्येष्ठ कृष्णा एकादशी को प्रातःसन्ध्या धूम्र वर्ण की मालूम हो तो भय, चिन्ता और अनेक प्रकार के रोगों की सूचना समझनी चाहिए । इस तिथि की सायं सन्ध्या स्वच्छ और निरन हो तो आराढ़ में वर्षा की सूचना समझ लेनी चाहिए। ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी की प्रातः सन्ध्या भास्वर हो और सायं सन्ध्या मेवाच्छन्न हो तो सुभिक्ष की सूचना समझनी चाहिए। ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी की प्रातः सन्ध्या निरभ्र हो तथा सायं सन्ध्या काल में परिवप दिखलाई पड़े तो श्रावण में वर्षों, भादपद में जल की कमी एवं वर्षा ऋतु में खाद्यान्नों की महंगी समझ लेनी चाहिए । यदि ज्येष्ठ चर्तुदशी की सन्ध्याएँ परिष या परिधि से युक्त हों तथा सूर्य का निमंडलाकार परिवेष दिखलाई पड़े तो महान् अनिष्ट की सूचना समझनी चाहिए। ज्येष्ठ कृष्णा अभावस्या और शुक्ला प्रतिपदा इन दोनों तिथियों की दोनों ही सन्ध्याएँ छिद्र युक्त विकृत आकृति वाली और परिवेष या परिधयुक्त दिखलाई दें तो वर्ण साधारण होती है और फसल भी साधारण ही होती है। इस प्रकार की मन्ध्या विवहन, गुड़ और वस्त्र की विशेष उपज की सूचना देती है । ज्येष्ठ मास की अवशेष तिथियों की सन्ध्या के वर्ण
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भद्रबाहुसंहिता आकृति के अनुसार फलादेश अवगत करना चाहिए । आषाढ़ मास में कृष्ण प्रतिपदा की सन्ध्या विशेष महत्वपूर्ण हैं । इस दिन दोनों ही सन्ध्या स्वच्छ, निरभ्र और सौम्य दिखलाई पड़ें तो मुभिक्ष नियमत. होता है । नागरिकों में शान्ति और गग्य व्याप्त होता है । यदि रा दिन की किसी भी सन्ध्या में इन्द्रधनुष दिखलाई पड़े तो आपसी उपद्रवों को सूचना समझनी चाहिए । आपाद मास की अवशेष तिथियों की राया था फन पूर्वोक्त प्रकार से ही समझना चाहिए। स्वच्छ, सौम्य और श्वेत, रक्त, पीत और नील वर्ण की सध्या अच्छा फल सूचित करती है, और मलिन, विकृत आकृति तथा छिद्र युक्त सन्ध्या अनिष्ट फन्न मूचित करती है।
अष्टमोऽध्यायः
अतः परं प्रवक्ष्यामि मेघनापि लक्षणम् ।
प्रशस्तमप्रशस्तं च यथावदनुपूर्वश: ।।1।। सन्ध्या का लक्षण और फल निरूपण करने के उपरान्त अब मेघों के लक्षण और फल का प्रतिपादन करते हैं । ये दो प्रकार में होते हैं. .. शस्त शुभ और अप्रस्त अशुभ ।।
यदांजनिभो मेघः' शान्तायां दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मन्तगतिश्चापि तदा विन्द्याज्जलं शुभम् ॥2॥ यदि अंजन का समान गहरे काले मंघ पश्चिम दिशा में दिखलाई पड़ें और ये चिकन तथा मन्द गति वाले हों तो भारी जल-वृष्टि होती है ।।2।।
पीतपुष्पानभो यस्तु यदा मेघ: समुत्थितः।
शान्तायां यदि दृश्येत स्निाधो वर्ष तदुच्यते ।।3।। पीले पुष्प के शमान स्निग्ध मेघ पश्चिम दिशा में स्थित हों तो जल की वृष्टि तत्काल बराते हैं । इस प्रकार के मेध वर्षा के वारक माने जाते हैं ।।3
। दनः .. 2 तीन और बार. गया गाद श्लोक गदि प्रान में नहीं है।
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अष्टमोऽध्यायः
___45 रक्तवर्णो यदा मेघः शान्तायां दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मन्तगतिश्चापि तदा विन्द्याज्जलं शुभम् ॥4 लाल वर्ण के तथा स्निग्ध और मन्द गति वाले मेघ पश्चिम दिशा में दिपलाई ' दें तो अच्छी जल-वृष्टि होती है ।
शक्लवर्णो यदा मेघः शान्तायां दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मन्दगतिश्चापि निवृत्त: स जलावहः ॥5॥ श्वेत वर्ण के स्निग्ध और मन्द गति वाले पश्चिम दिशा में दिखाई दें । जिर न उन में पाया है उतनी हार के वा हो जाते हैं ।।5।।
स्निग्धाः सर्वेषु वर्णेषु स्वां दिशं संसता यदा।
स्वर्णविजयं कुर्युदिक्षु शान्तासु ये स्थिता: ॥6॥ यदि पश्चिम दिशा में स्थित मेध मिनग्ध हो तो मय वर्णों की विजय करत हैं और अपने-अपने वर्ण के अनुसार अपनी-अपनी दिणा में विमान मंच रिपत हों तो वर्ण के अनमा जय करते हैं ।6।।
जातिसादाण क्षत्रिय राजा जातिवर्ण श्वेत रक्त बीत cor जातिदिगा उत्तर पूर्व
दक्षिण पश्चिम यथास्थितं शुभं 'मेघमनुपश्यन्तिः पक्षिण;"।
जलाशयः जलधरास्तदा विन्द्याज्जलं शुभम् ॥7॥ यदि शुभ मेघ पक्षिगण और जलाशय का दिग्बा लाई में तो अच्छी वर्षा होती है और यह वर्पा फसल को अधिक लाभ पहुंचाती है ।।7।
स्निग्धवर्णाश्च ते (ये) मेघा स्निग्धाश्च ते (ये) सदा !
मन्दगा: सुमुहूर्ताश्च य (ते) सर्वत्र जलावहाः ॥8॥ यदि स्निग्ध .. गौम्य, मृदुल गब्द बाले, मन्द गति वाल और उनम गृहात वाले भेघ दिबलाई पहें तो सर्वत्र वर्षा होती है ।।8।।
सुगन्धगन्धा ये मेघाः सुस्वरा: स्वादुसंस्थिताः। __ मधरोदकाश्च ये मेघा जलाय! जलदास्तथा ।।।
] विजय म.. (' 12 जान: म. | 3 ग • : 4 म. ( : 5 गया .' | b. दक्षिा . ग. (' । 7. धन ग• । 8. गम मा - A मयना न..9 मतायः म ( । 10 जाम ( । ।। नाम ।
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भगवाहुसंहिता
गुगन्ध----केशर और कस्तूरी के ममान गन्ध वाले, मनोहर गर्जन बारने बाल, वाद रग वाले, पीठे जल वाले मन्त्र मचा जल को मां पारते हैं।
मेघा' यदा भिवर्षन्ति प्रयाणे पथिवीपते ।
मधुराः मधुरेणैव तदा सन्धिर्भविष्यति ॥10॥ सजा के आऋण . भगय मनोहर और मधुर गब्द वाले मेघ या कारें जो गद्ध न होकर परस्पर सन्धि हो जाती है ।।10।
पृष्ठतो वर्षतः श्रेष्ठ अग्रतो बिजयंकरम् ।
मेघा: कुर्वन्ति ये टूरे सज्जित-सविद्युत ।।1।। गजा के प्राण गमय यदि भेष दुर्ग पर गर्जना र विजली महित पट । रे जोर पर भाग पर हों तो बेट जानना चाहिए और अग्र भाग ५ो तो विजयपद मााना चाहिए |||
मेघशब्देन महता यदा निर्याति पार्थिवः ।
पठतो गर्जमानेन तदा जयति दुर्जयम् ॥12॥ पदि आप प्रत्याण व मभन पोरे का मार्ग माबी गर्जना करें तो दर्शन धु पर भी विजय गंगव हो होता है ।।।2।।
मेघशब्देन महता बदा तिर्यग प्रधावति ।
न तय जायते सिद्धिरुभयो: परिसैन्ययोः ॥3॥ यदि आक्रमण काल में गम मम्मम् या पाठ भाम में गर्जना न कर तिर्यक वायें या दाय भाग गर्जना करें तो यायी और स्थायी इन दोनों ही रोनाओं पं. गिद्धि नहीं होती अर्थात दोनों ही गनाएँ परम्पर में मिअन्त करती हुई अमपान रहती हैं ।। [3]
मेघा यत्राभिवर्षन्ति स्कन्धावार' समन्तत: ।
सनायका विद्रवते।' सा "चमूर्नात्र संशय: ।।।4।। मेघ जिस स्थान पर मुसलाधार पानी दावे वहां पर नायक और सेना कोन: ही रयत जित होने हैं. इसमें कुछ भी गन्देह नहीं है ।।। 411
1. मयी ग. A. I 2 मधा। 3 गुरम। 4 श्रीम... A. ध .. ( । S : म.. A. नरमा । 6 यगोम. 17. परित्यया: म.. | 8 माल ।।. A, ) HC | 10. मान्यप प.. ('. : 11. घम १ ('।
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अष्टमोऽध्यायः
रूक्षा वाता: प्रकुर्वन्ति व्याधयो विष्टगन्धिताः ।
कुशब्दाश्च विवर्णाश्च मेघो वर्ष न कुर्वते ॥15।। रूक्ष वायु विष्टा गन्ध्र के समान गन्ध वाली बहती हो तो व्याधि उत्पन्न करती है। कुशब्द अर्थात् कठोर शब्द और विकृत वर्ण वाली हो तो मेघ जलवृष्टि नहीं करते ।। 1 51
सिंहा' शृगालमार्जारा व्याघ्रमेधाः द्रवन्ति ये।
महता भीम' शब्देन रुधिरं वर्षन्ति ते घनाः ।।16। जो मेघ सिंह, सियार, बिल्ली, चीता की आकृति वाले होकर बरसें और भारी कठोर वर्षा करें तो इस प्रकार के मेघों का फल रुधिर की वर्षा करना है ।।160
पक्षिणश्चापि ऋव्यादा वा पश्यन्ति समुत्थिताः ।
मेघास्तदाऽपि रुधिरं" 'वर्ष वर्षन्ति ते धना: ॥17॥ यदि मांसभक्षी पक्षियों ...साद आदि पक्षियों की आकृति वाले मेघ तथा उड़ते हुए पक्षियों की आकृति वाले मे दिग्पलाई पड़े तो बे रुधिर की वर्षा करते
अनावृष्टिभयं घोरं दुभिक्षं मरण तथा।
निवेदयन्ति ते मेघा ये भवन्तीदृशा दिवि ॥18॥ उपर्युक्त अशुभ आकृतिवाले मेघ अनावृष्टि, घोरभय, दुभिक्ष, मृत्यु आदि फलों को करने वाले होते हैं । अर्थात् मांसभक्षी पशु ओर भाराभक्षी पक्षियों की आकृतिवाले मेघ अत्यन्त अशुभ सूचक होते हैं ।।।3।।
तिथी 1मुहर्तकरणे नक्षत्रे शकुने 2 शुभ।
सम्भवन्ति यदा मेघाः पापदास्ते भयंकराः ।।1।। अशुभ तिथि, मुहूर्त, करण, नक्षत्र और शान में यदि भेष आकाश में आच्छादित हों तो 'भयंकर पाप का फल देने वाले होते हैं ।। 1911
एवं लक्षणसंयुक्ताश्चमू वर्षन्ति ये घनाः । चमं सनायकां सर्वा हन्तुमाख्यान्ति सर्वशः ।।20।
1. सिंघ भु० A. | 2. रवन्ति गु० A. | 3. बत् म.A | 4. मेघ मु. A. B. D. I 5. गश्यन्ते: मु. हि. यास्यन्ते मु. राज्यते मु०) । 6. चिरं म... 1 7. वर्षने लव दर्थने मु. 18. माकं मु. A 19. दिदगा म. BID । 10. भषि म. A.। 11. मूह म. A. ID. I 12. करणे मु. C. 1 13. नथा म • AI
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भद्रबाहुसंहिता
यदि उपयुक्त आकृति और लक्षणबाले मेध युद्धस्थल में स्थित सेना पर । बहुत वर्षा करें तो सेना और उसके नायक सभी मारे जाते हैं ।12011
रक्ते: पांशुः सधूमं वा क्षौद्र' केशास्थिशर्करा:21
मेधाः वर्षन्ति विषये यस्य राज्ञो हतस्तु सः ॥21॥ धूलि, धून, मधु, केश, अस्थि और गांड के समान लाल वर्ण के मेघ वर्षा करें नो देश का राजा मारा जाता है ।2।।
क्षार वा कटुकं वाऽथ "दुर्गन्धं "सस्यनाशनम् ।
यस्मिन् देशेऽभिवर्षन्ति मेघा देशो विनश्यति ॥22॥ जिग देश में धान्य को नाश करनेवाले क्षार- लवणयुक्त, कटुक-चरपरे रस और दुर्गन्धित रस की मेघ बर्षा बरें तो उस देश का नाश होता है ॥22।।
प्रयात' पार्थिवं यत्र मेघो वित्रास्य वति ।
वित्रस्तो बध्यते राजा विपरीतस्तदाऽपरे ।।23।। राजा के प्रयाण के समय त्रासगक्त मेघ वरम तो राजा का प्रासयक्त वध होता है । यदि वासयुक्त वर्षा न हो तो ऐसा नहीं होता ।।23।।
सर्वत्रेव प्रयाणेन नपो येनाभिषिच्यते।
रुधिरादि-विशेषेण सर्वघाताय निदिशेत् ।।24।। राजा ने आक्रमण के गमय बर्षा से देश का सिंचन हो तो सबों के घात की। सम्भावना समझनी चाहिए ।।24।।
मेघा: सविद्युतश्चैव सुगन्धाः सुस्वराश्च ये।
सुवेषाश्च' सुवाताश्च "सुधियाश्च सुभिक्षदाः ॥25॥ बिजली सहित, गुगन्धित, मधुर स्वर वाले, सुन्दर वर्ण और आकृति वाले, शुभ घोषणा वाले और अमृत समान वापी करने वाले मेघों को सुभिक्ष का सूचक समझना चाहिए ।।25।।
अभ्राणां यानि रूपाणि सन्ध्यायामपि यानि च । मेघेषु तानि सर्वाणि समासव्यासतो विदुः ॥26॥
1. HB | 2. इनका ग• 3 13 १०B | 4. बस्या म• A. ! 5. मधादश ! 6. विनश्याम भु० C. 17. प्रशान्त H० । ४. नग समधि सज्यं च मु. A. B. D. I 9. सौवा मु"CI 10. सुरभा पु• C. 11. अवैषा मु० । 12. मुवेषा मु० C.1 13. सुधी पाश्र्व मु. 3. गधाया मु. D. व जना म C. I 14. अमेघे मु० C.
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अष्टमोऽध्यायः
बादल, उल्का और सन्ध्या का जैसा निरूपण किया गया है, उसी प्रकार का संक्षेप और विस्तार से मेघों का भी समझना चाहिए ॥26॥
उल्कावत् साधनं जयं मेघेष्वपि स्तदादिशेत् ।
अत: परं प्रवक्ष्यामि दातानामपि लक्षणम् ।।27। इस मेघवर्णन अध्याय का भी उल्का की तरह ही फलादेश अवगत कर लेना चाहिए। इसके पश्चात् अब आगे वायु-अध्याय का निरूपण किया जायगा ।।2711
इति नंग्रंन्थे भद्रबाहु के निमित्त मेधकाण्डो नामाष्टमोऽध्यायः । विवेचन - मेघों की आकृति, उनका काला, वर्ण, दिशा प्रमति के द्वारा शुभाशुभ फल का निरूपण मेध-ध्याय में किया गया है। यहाँ एक विशेष बात यह है कि मेघ जिम स्थान में दिखलाई पड़ते हैं उसी स्थान पर यह फल विशेष रूप से घटित होता है । 30 अध्याय का प्रयोजन भी वर्षा, गगाल, फराल की उत्पत्ति इत्यादि के सम्बन्ध में ही
दिन में पारा वाला है। पहले कनयायों द्वारा भी वर्षा और सुभिक्ष सम्बन्धी प.लादेश निरूपित किया गया है, पर इस : अध्याय में भी यही पन्न प्रतिपादित है। मेघों की आकृतियाँ चारों वर्ण के
व्यक्तियों के लिए भी शुभाशुभ बतलाती हैं। अतः सामाजिक और वैयक्तिक इन दोनों ही दृष्टिकोणों से मेधों के फलादेश का विवेचन किया जाएगा। ___मेघों का विचार ऋतु में क्रमानुसार करना चाहिए । वर्षा ऋतु के मेघ केवल वर्षा की सुचना देते हैं। गारद ऋतु के मंघ भाभ अनेक प्रकार का फल सचित करते हैं। ग्रीम बन के मघा सेवा की सूचना तो मिलती ही है, पर ये विजय, यात्रा, लाभ अलाभ, इट, अनिष्ट, जीवन, मरण आदि को भी सूचित करते हैं। मेघों की भी भागा होती है। जो व्यक्ति मेघों की नापा--गजना को समझ लेते हैं, वे कई प्रकार का महत्वपूर्ण फलादेगों की जानकारी प्राप्त पर सवाते हैं । पशु, पक्षी और मनालों के समान मंघों की भी भाषा होती है और गर्जन-तजन द्वारा अनेक प्रकार का शुभाशुभ प्रकट हो जाता है । यहां गर्वप्रथम नीम ऋतु के मेघों का निरूपण किया जाएगा । ग्रीम ऋतु का समय फाल्गुन से ज्येष्ठ तक माना जाता है । यदि फाल्गल के महीने में अंजन के समान काल-काल मेध दिखलाई पड़ें तो इनका फल दर्शकों के लिए शुभ, यशप्रद और आर्थिक लाभ देने वाला होता है । जिस स्थान पर उक्त प्रकार के मेघ दिखलाई पड़ते हैं, उस स्थान पर अन्न का भाव सस्ता होता है, व्यापारिक वस्तुओं में हानि तथा भोगोपभोग की वस्तुएँ प्रचुर
1. सर्थ म C. 1 2. समा म. C. 13. निगुs B. D।
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भद्रबाहुसंहिता
परिमाण में उपलब्ध होती हैं । वस्त्र के भाव साधारण रूप से कुछ ऊंचे चढ़ते हैं। स्निग्ध, श्वेत और मनोहर आकृति वाल मेघ जनता में शान्ति, सुख, लाभ और हर्ष सूचक होते हैं । व्यापारियों को वस्तुथों में साधारणतया लाभ होता है। ग्रीष्म ऋतु के अवशेष महीनों में सजल मेघ जहाँ दिखलाई पड़ें उस प्रदेश में दुर्भिक्ष, अन्न की फसल की कमी, जनता को आर्थिक कष्ट एवं आपस में मनमुटाव उत्पन्न होता है। चत्र मास के कृष्ण पक्ष के मेष साधारणतया जनता में उल्लास, आगामी खेती का विकास और मुभिक्ष की सूचना देते हैं। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को वर्षा करने वाले मेघ जिस क्षेत्र में दिखलाई पड़ें उस क्षेत्र में आर्थिक संकट रहता है। हैजा और चेचक की बीमारी विशेष रूप से फैलती है। यदि इस दिन रक्त वर्ग के मेन आकाश में संघर्ष करते हर दिखलाई पड़ें तो वहीं सामाजिक संघर्ष होता है। चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को भी मेघों की स्थिति का विचार किया जाता है। यदि इस दिन गर्जन-तर्जन करते हुए मेघ आकान में बूंदा-बुंदी करें तो उस प्रदेश के लिए अबदायक समझना चाहिए । फसल की उत्पत्ति भी नहीं होती है तथा जनता में परस्पर संघर्ष होता है । चंत्री पूर्णिमा को पीतवर्ण के. मेघ आकाश में घूमते हुए दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष उस प्रदेश में फसल को क्षति होती है तथा पन्द्रह दिनों तका अन्न का भाव महंगा रहता है । सोना और चांदी के भाव में घटा-बढ़ी होती है। ___ शरद् ऋतु के मेघ वर्षा और सुभिक्ष के साथ उस स्थान की आर्थिक और । सामाजिक उन्नति-अवनति की भी सूचना देते हैं । यदि कार्तिक की पूर्णिमा को मेध वर्षा करें तो उस प्रदेश की आर्थिक स्थिति दृढ़तर होती है, फराल भी उत्तम होती है तथा समाज में शान्ति रहती है । पशुधन की वृद्धि होती है, दूध और पी की उत्पत्ति प्रचुर परिमाण में होती है। उस प्रदेश के व्यापारियों को भी अच्छा लाभ होता है । जो व्यक्ति कार्तिकी पूर्णिमा को नील रंग के बादलों को देखता है, उसके उदर में भयंकर पीड़ा तीन महीनों के भीतर होती है । पीत वर्ण के मेघ उक्त दिन को दिखलाई पड़ें तो किसी स्थान विशेष से आधिक लाभ होता है। श्वेत वर्ण के मेघ के दर्शन से व्यक्ति को सभी प्रकार के लाभ होते हैं। मार्गशीर्ष मास की कृष्ण प्रतिपदा को प्रातःकाल वर्षा करने वाले मेघ गोधूम वर्ण के दिखलाई पड़े तो उस प्रदेश में महामारी की सूचना अवगत करनी चाहिए । इस दिन कोई व्यक्ति स्निग्ध और सौम्य मेघों का दर्शन करे तो अपार लाभ, रूक्ष और विकृत वणं के मेघों का दर्शन करे तो आर्थिक क्षति होती है। उक्त प्रकार के मेघ वर्षा की भी सूचना देते हैं । आगामी वर्ष में उग प्रदेश में फसल अच्छी होती है। विशेषतः गन्ना, कपास, धान, गेहूँ, चना और तिलहन की उपज अधिक होती है। व्यापारियों के लिए उक्त प्रकार के मेघ का दर्शन लाभप्रद होता है। मार्गशीर्ष
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अष्टाः
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कृष्णा अमावस्या को छिंद्र युक्त क्षेत्र बूंदा-बूंदी के साथ प्रातःकाल से सन्ध्याकाल तक अवस्थित रहें तो उस प्रदेश में वर्तमान वर्ष में फसल अच्छी तथा आगामी वर्ष में अनिष्टकारक होती है। इस महीने की पूर्णिमा को सन्ध्या समय रक्तगीत वर्ण के मे दिखलाई पड़ें तथा गर्जन के साथ वर्षण भी करें तो निश्चय से उस प्रदेश में आगामी आषाढ़ मास में सम्यक् वर्षा होती है तथा वहाँ के निवासियों को सन्तोष और शान्ति की प्राप्ति होती है। यदि उक्त दिन प्रातःकाल आकाश निरभ्र रहे तो आगामी वर्ष वर्षा साधारण होती हैं तथा फसल भी साधारण ही होती है । जो व्यक्ति उक्त तिथि को अंजनवर्ण के समान मेघों का दर्शन प्रातःकाल ही करता है, उसे राजसम्मान प्राप्त होता है, तथा किसी प्रकार की उपाधि भी उसे प्राप्त होती है। रक्त वर्ण के मेघ का दर्शन इस दिन व्यक्तिगत रूप से अनिष्टकारक माना गया है। यदि कोई व्यक्ति उक्त तिथि को मध्य रात्रि में सछिद्र आकाश का दर्शन करे तथा दर्शन करने के कुछ ही समय उपरान्त वर्षा होने लग तो व्यक्तिगत रूप से इस प्रकार के संघ का दर्शन बहुत उत्तम होता है । पृथ्वी से निधि प्राप्त होती है तथा धार्मिक कार्यों के करने में विशेष प्रवृत्ति बढ़ती है । संसार में जिन-जिन स्थानों पर उक्त तिथि को वर्षा करते हुए मंत्र देखे जाते हैं, उन-उन स्थानों पर सुभिक्ष होता है तथा बर्तमान और आगामी दोनों ही वर्ष श्रेष्ठ समझे जाते हैं । पौष मास की अमावस्या को आकाश में बिजली चमकने के उपरान्त वर्षा करते हुए मंत्र दिखलाई पड़ें तो उत्तम फल होता है । इस दिन श्वेत वर्ण के मेषों का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है। गौष मास की अमावस्या को यदि सोमवार, शुक्रवार और गुरुवार हो और इस दिन मेघ आकाश में घिरे हुए हों तो जल की वर्षा आगामी वर्ष अच्छी होती है। फल भी उत्तम होती है और प्रजा भी सुखी रहती है । यदि यहाँ तिथि शनिवार, रविवार और मंगलवार को हो तथा आकाश निर हो या सछिद्र विकृत वर्ण के मेघ आकाश में आच्छादित हों तो अनावृष्टि होती है और अन्न महंगा होता है। डाक कवि ने हिन्दी में पौषमास की तिथियों के मेघों का फलादेश निम्न प्रकार बतलाया है
पौप इजोड़िया सप्तमी अष्टमी नवमी बाज | डावा जलद देखे प्रजा, पूरण सब विधि काज |
अर्थात् पौष शुक्ल प्रतिपदा, सप्तमी, अष्टमी, नवमी तिथि को यदि आकाश में बादल दिखलाई पड़ें तो उस वर्ष वर्षा अच्छी होती है। धन-धान्य की उत्पत्ति अधिक होती है और सर्वत्र सुभिक्ष दिखलाई पड़ता है। जो व्यक्ति उन तिथियों में प्रातःकाल या सायंकाल मयूर और हंसाकृति के मेघों का दर्शन करता - है, वह जीवन मे सभी प्रकार की इच्छाओं को प्राप्त कर लेता है। उक्त
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'भद्रबाहुसंहिता प्रकार के मेघ का दर्शन व्यक्ति और समाज दोनों के लिए मंगल करने वाला होता है।
पौषवदी सतमी तिथि माही, बिन जल बादल गर्जत आही। पूनो तिथि सावन के पास, अतिगय वर्ग गखो आस ! पौषबदी दशमी तिथि माही, जो वर्ष मेवा अधिकाहीं । तो सावन वदि दशमी दरसे, सो मेघा पुहमी बहु बरसे ।। रवि या रवि गुप्त ओ अंगार, पुस अमावस कहत मोकार ।
अपन अपन घर चेतह जाय, रतनक मोल अन्न बिकाय ।। पौष बदी सप्तमी को विना जल बरसाये बादल गर्जना करें तो श्रावण पूर्णिमा को अत्यन्त वर्षा होती है। यदि पौष वदी दशमी तिथि यो अधिवः वर्षा हो तो श्रादप बदी दशमी को इतना आधा जल बरसता है कि पानी पृथ्वी पर नहीं समाता । पौष अमावस्या, शनिवार और रविवार को मंगलवार हो तो अन्न का भाव अत्यन्त महगा होता है । वर्षा की कमी रहती है । पौष मास में वर्षा होना और मेवों का छाया रहना अच्छा समझा जाता है। यदि इस महीने में आकाश निरभ्र दिखलाई पड़े तो दुकाल के लक्षण समझना चाहिए । पौष पूणिमा को प्रातःकाल श्वेत रंग के बादल आकाश में आच्छादित हो तो आपाढ़ और श्रावण मास में अच्छी वर्षा होती है और सभी वर्ण वाले व्यक्ति को आनन्द की प्राप्ति होती है । यदि पोप शुक्ला चतुर्दशी को आकाश में गर्जना करते हुए बादन दिखलाई पड़ें तो भाद्रपद मास में अच्छी वर्षा होती है । मात्र माता के मेघों का फल डाक ने निम्न । प्रकार बतलाया है--
माघ वदी रातमी ये ताई, जो विज्ज चमो नम माई । मास बारहों बरसे मेह, मत सोचो चिन्ता तल देह ।। भाध सूदी पडिबा के मध्य, दनवे विज्ज गरजे बद्ध । तेल आस सुरही दोनन मार, मँहगो होवे 'डाक' गोआर।। माध बदी तिथि अष्टमी, दशमी पूस अन्हार । 'डाक' मेघ देखी दिना, साबन जलद अपार ।। माघ द्वितीया चन्द्रमा, धर्मा विजुली होय । 'डाक' कहथि सुनह नृपति, अन्नक महंगी होय ।। मा तृतीया सूदि में, वर्षा बिजुली देख । 'डाक' ऋथि जो गहुँम अति, महग वर्ष दिन लख ॥ माघ सुदी के चौथ में, जो लोग धन देख । मंहगो होवे नारियल, रहे न पाहि शेष ॥
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अष्टमोऽध्यायः
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भाष पंचमी चन्द्र तिथि, वय जो उत्तर बाय । तो जानी भरि भाद्र में, जल विन पृथ्वी जाय ।।
माघ सुदी पष्ठी तिथि, यदि वर्षा न होय । ___'डाक' कपास मंहगो मिले, राखें ता नहि कोय ॥
अर्थ--माघ वदी सप्तमी के दिन आकाश में बिजली चमके और बरसते हुए मेघ दिखलाई पड़ें तो अच्छी फसल होती है और वर्षा भी उत्तम होती है । बारह महीनों ही वृष्टि होती रहती है, फसल उत्तम होती है । मात्र सुदी प्रतिपदा के दिन आकाश में बिजली चमके, बादल गर्जना करें तो तेल, घृत, गड़ आदि पदार्थ मंहगे होते हैं । इस दिन वा मेघदर्शन वस्तुओं की मंहगाई सूचित करता है । माध कृष्ण अग्टमी को वर्षा हो तो सुभिक्ष सचक है । मेघ स्निग्धा और सौम्य आकृति के दिखलाई पड़ें तो जनता के लिए सुखदायी होता है । माघ बदी अष्टमी और पोप बदी दशमी को आकाश में बादल हों तथा वर्षा भी हो तो श्रावण के महीने में अच्छी वर्षा होती है। माघ शुक्ला द्वितीया को वर्षा और बिजली दिखलाई पड़े तो जी और गेहूँ अत्यन्त महग होते हैं। व्यापारियों को उक्त दोनों प्रकार के अनाज के संग्रह में विशेष लाभ होता है। यद्यपि सभी प्रकार के अनाज मैंहगे होते हैं, फिर भी गेहूँ और जी की तजी विशेष रूप से होती है। यदि माघ शुक्ला चतुर्थी के दिन आकाश में बादल और बिजली दिखलाई पड़े तो नारियल विशेष रूप से मंहगा होता है। यदि माघ शुक्ला पंचमी को वायु ये साथ मेघों का दर्शन हो तो भाद्रपद में जल के बिना भूमि रहती है। भार मला पाठी को आकाश में केवल मेध दिखलाई पड़े और दर्गा न हो तो कपाश महगा होता है। माघ शुक्ला अष्टमी और नवमी को विचित्रण व भग आकाण में दिखलाई पड़ और हल्की सी वर्षा हो तो भाद्रपद मास में खूब वा होती है।
वर्षा ऋतु के मेघ स्निग्न और गौम्य आकृति को तो खूब वर्ग होती है। आषाढ कृष्ण! प्रदिगाक दिन मेघ गर्जन हो तो पथ्वी पर माल पड़ता है और युद्ध होते हैं । आपाई कृष्णा एकादगी को जामा में वायु, मेघ और बिजली दिखलाई पड़े ती श्रावण बार भाद्रपद में अल्पवरिट हाती है । आपाढ़ शुक्ला ततीया बुधवार को हो और इस दिन आकाश में भय दिखलाई पड़े तो अधिक वर्षा होती है। श्रावण शुयल राप्तमी के दिन आकाश मेघाच्छन्न हो तो देवोत्थान एकादशी पर्यन्त जल बरसता है। श्रावण कृष्ण चतुर्थी को जल बरस तो उस दिन से 45 दिन तक मात्र वर्मा होती है। उक्त तिथि को आकाश में कंबल मेघ दिखलाई पड़ें तो भी फरान जमा होती है । श्रावण वदी पंचमी का बाा हो और आकाश में मेध छाये रहना चातुर्मास पयंन्त वर्मा होती रहती है । श्रावण मास की अमावस्या सोमवार को हो और इस दिन आकाश में धन मेघ दिखलाई पड़े तो दुलाल समझना
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भद्रबाहुसंहिता
चाहिए । इसका फल कहीं वर्षा, कहीं सूखा तथा कहीं पर महामारी ओर कहीं पर उपद्रव होना समझना चाहिए । भाद्रपद शुदी पंचमी स्वाती नक्षत्र में हो और इस दिन मेघ आकाश में सघन हों तथा वर्षा हो रही तो सर्वत्र सुख-शान्ति व्याप्त होती है और जगत के सभी दुख दूर हो जाते हैं तथा सर्वत्र मंगल होता है । इस महीने में भरणी नक्षत्र में वर्षा हो और मेघ आकाश में व्याप्त हो तो सर्वत्र सुभिक्ष होता है। गेहूँ, चना, जौ, धान, गन्ना, कपास और तिलहन की फसल खूब उत्पन्न होती है । भाद्रपद मास की पूर्णिमा को जल बरसे तो जगत में सुभिक्ष होता है। भाद्रपद मास में अश्विनी और रोहिणी नक्षत्र में आकान में बादल व्याप्त हों, पर वर्षा न हो तो पशुओं में भयंकर रोग फैलता है । आद्री और पुष्य में रक्त वर्ष के मेध संघर्षरत दिखलाई पड़ें तो विद्रोह और अशान्ति की सूचना समझनी चाहिए । बदि इन नक्षत्रों में वर्षा भी हो जाए तो शुभ फल होता है । श्रवण नक्षत्र को वर्षा उत्तम मानी गयी है । भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा को श्रवण नक्षत्र हो और आकाश में मेघ हों तो सुभिक्ष होता है।
नवमोऽध्यायः
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि वातलक्षणमुत्तमम्।
प्रशस्तमप्रशस्तं च यथावदनुपूर्वश: ।।1।। अब मैं वायु का उत्तम लक्षण पूर्वाचार्यों के अनुसार बहूँगा। वायु के द्वारा निरूपित फलादेश के भी दो भेद किये जा सकते हैं...प्रशस्त और अप्रशस्त ॥1॥
वर्ष भयं तथा क्षेमं राज्ञो जय-पराजयम् ।
मारुत: कुरुते लोके जन्तूनां पुण्यपापजम् ॥2॥ वायु संसारी प्राणियों के पुण्य एवं पाप से उत्पन्न होने वाले वर्षण, भय, क्षेम और राजा के जय-पराजय को सूचित करती है ।।2।।
1. संकमम् मु. C. 12. पूर्वतः मुः। 3. पापजाम् मु० ।
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नवमोऽध्यायः
'आदानाच्चैव पाताच्च पचनाच्च विसर्जनात् । मारुतः सर्वगर्भाणां बलवान्नायकश्च सः ॥
आदान, पातन, पचन और विसर्जन का कारण होने से मारुत बलवान् होता है और सब गर्भों का नायक बन जाता है || 331
दक्षिणस्यां दिशि यदा वायुर्दक्षिणकाष्ठिकः । 'समुद्रानुशयो' नाम से गर्भाणां तु सम्भवः ॥4n
दक्षिण दिशा का वायु जब दक्षिण दिशा में बहता है. सब वह 'समुद्रानुशय' नाम का बाबु कहलाता है और गर्भो को उत्पन्न करने वाला भी है || 4 | तेन सञ्जनितं गर्भं वायुर्दक्षिण काष्ठिकः । धारयेत् धारणे* मासे पाचयेत् पाचने तथा ॥5॥
उस समुद्रानुशय वायु से उत्पन्न गर्भ को दक्षिण दिशा का वायु धारण मास में धारण करता है तथा पाचन मास में पकाता है ||5||
धारितं पाचितं गर्भं वायुरुत्तरकाष्ठिकः । प्रमुंचति यतस्तोयं वर्ष तन्मरुदुच्यते ||6||
उस धारण किये तथा पाक को प्राप्त हुए मेघ गर्भ को चूँकि उत्तर दिशा का विवाहै अव करने वाले उस वायुको 'महत्' कहते
061
आषाढीपूर्णिमायां तु पूर्ववातो यदा भवेत् । प्रवाति दिवस सर्व सुवृष्टिः सुषमा' तदा ॥7॥
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आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पूर्व दिशा का बावु यदि सारे दिन चने तो वर्षा काल में अच्छी वर्षा होती है और यह वर्ष अच्छा व्यतीत होता है |17||
8
वाप्यानि सर्वबीजाति' जायन्ते निरुपद्रवम् । शूद्राणामुपघाताय सोम्य लोके परत्र च ॥४॥
उक्त प्रकार के वालु में बोये गये सम्पूर्ण बीज उत्तम रीति से उत्पन्न होत हैं | परन्तु शूद्रों के लिए यह वायु इस लोक और परलोक में उपघात का कारण है ||8||
1. अवाज बापन
3.
गुरु 34 मध्यम
go 1 7. gáztaila y. B. S.
A. D. 2. धारण
મ
go C, 1
दिन
C. 15 व
Her
A.
6. सुवृष्टिस्तु वदा मना
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नबमोऽध्यायः
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आषाढीपूर्णिमायां तु पश्चिमो यदि मारुतः।
मध्यमं वर्षणं सस्यं धान्यार्थो मध्यमस्तथा ॥14॥ आषाढ़ी पूर्णिमा को यदि पश्चिम वायु चले तो मध्यम प्रकार की वर्षा होती है । तृण और अन्न का मूल्य भी मध्यम---न अधिक मंहगा और न अधिक सस्ता रहता है ।।।4।।
उद्विजन्ति च राजानो वैराणि च प्रकुर्वते।
परस्परोपघाताय- स्वराष्ट्रपरराष्ट्रयोः ।।15।। उक्त प्रकार की वायु के चलने से राजा लोग उद्विग्न हो उठत हैं और अपने तथा दूसरों के राष्ट्रों को परम्पर में घात करने के लिए वैर-भाव धारण करने लगते हैं । तात्पर्य यह है कि आपाढ़ी पूर्णिमा को पश्चिम दिशा को बायु चले तो देश और राष्ट्र में उपद्रव होता है। प्रशासन और नेताओं में मतभेद बढ़ता है ।।।5।।
आषाढीपूर्णिमायां तु वायुः स्यादुत्तरो यदि ।
वापयेत् सर्वबीजानि सस्यं ज्येष्ठ समद्ध यति ॥16॥ आषाढी पूर्णिमा को उत्तर दिशा की वायु चले तो सभी प्रकार के बीजों को बा देना चाहिए। क्योंकि उमेत प्रकार के वायु में बोये गये वीज बहुतायत से उत्पन्न होते हैं ।। 1 611
क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं प्रशान्ता: पाथिवास्तथा।
बहूदकास्तदा मेधा महो' धर्मोत्सवाकुला॥17॥ उक्त प्रकार की वायु क्षेम, कुशल, आरोग्य की वृद्धि का गुचा है, राजाप्रशासक परस्पर में शान्ति और प्रेम में निवास करते हैं, प्रजा के साथ प्रशाराकों का व्यवहार उत्तम होता है। मेध बहुत जान बरसात है और पृथ्वी धर्मत्सित्रों से युक्त हो जाती है ।। 170
आषाढीपूणिमायां तु वायुः स्यात् पूर्वदक्षिणः । "राजमृत्यु"विजानीयाच्चित्रं सस्यं तथा जलम् ।।18।।
1. उग-छन्त म..BD.। 2-3. Tथा Tili E A. तथा गजोम. 13. यथा राजा मु. D. 14 :ri HC प्रवासि ग..) । 5. न ये गथानीय A. 6. शाम | 7. यसोश.. A | 8. का मू. C । 9. महाम.. A. D. का भु० C.। 10 राज्ञा गु., ALL. गु . !
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भद्रबाहुसंहिता
आषाढ़ी पूर्णिमा को यदि पूर्व और पश्चिम के बीच – अग्निकोण का वायू चले तो प्रशासक अथवा राजा की मृत्यु होती है । शस्य तथा जल की स्थिति चित्र-विचित्र होती है ॥ 8 ॥
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क्वचिन्निष्पद्यते सस्यं क्वचिच्चिापि विपद्यते । धान्यार्थो मध्यमो ज्ञेयः तदाऽग्नेश्च भयं नृणाम् ॥19॥ धान्य की उत्पत्ति कहीं होती है और कहीं उस पर आपत्ति आ जाती है । मनुष्य को धान्य का लाभ मध्यम होता है और अग्निभय बना रहता है ||9|| आषाढीपूर्णिमायां तु वायुः स्याद् दक्षिणापरः । सस्यानामुपघाताय चांराणां तु विवृद्धये ॥20॥
आषाढ़ी पूर्णिमा को यदि दक्षिण और पश्चिम के बीच की दिशा अर्थात् नैर्ऋत्य कोण का वायु चले तो वह धान्यघातक और चोरों की वृद्धिकारक होती € 11201
भस्मपांशुरजस्कीर्णा यदा" भर्वात मेदिनी ।
सर्वत्यागं तदा कृत्वा कर्त्तव्यो धान्यसंग्रहः ॥21॥
उस समय पृथ्वी भस्म, धूलि एवं रजकण से व्याप्त हो जाती है - अनावृष्टि के कारण पृथ्वी भूलि-मिट्टी से व्याप्त हो जाती है। अतः समस्त वस्तुओ को त्याग कर धान्य का संग्रह करना चाहिए 12
विद्रवन्ति च राष्ट्राणि क्षीयन्ते नगराणि च । श्वेता स्थिर्मेदिनी ज्ञेया मांसशोणितकर्दमा ||22||
उक्त प्रकार की वायु चलन में राष्ट्रों में उपद्रव पैदा होते हैं और नगरों का क्षय होता है । पृथ्वी श्वेत हड्डियों में भर जाती है और मांस तथा खून की कीचड़ से सराबोर हो जाती है ॥22॥
आषाढीपूर्णिमायां तु वायुः स्यादुत्तरापरः । मक्षिका' दंशमशका जायन्ते प्रबलास्तदा ||23|| मध्यमं क्वचिदुत्कृष्टं वर्ष सस्यं च जायते । नूनं च मध्यमं किचिद् धान्यार्थ तव निर्दिशेत् ॥ 241
आषाढ़ी पूर्णिमा को यदि बायु उत्तर और पश्चिम के बीच के कोण
1. भवत् । 2. रास्यः A 34 काण्डम् गु० । 5-6. नान्न संशय: मु० C ऽञ्चौराणां समूपद्रवम् गुरु C
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नवमोऽध्यायः
109 वायव्य कोण की चले तो मक्खी, डांस और मच्छर प्रबल हो उठते हैं । वर्षा और धान्योत्पत्ति कहीं मध्यम और कहीं उत्तम होती है और कुछ धान्यों का मूल्य अथवा लाभ निश्चित रूप से मध्यम समझना चाहिए ॥23-24।।
आषाढीपूणिमायां तु वायुः पूर्वोत्तरो यदा। वापयेत् सर्वबीजानि तदा चौराश्च घातयेत् ।।25।। स्थलेष्वपि च यद्बीजमुप्यते तत् समृद्ध यति। क्षेमं चैव सुभिक्ष च भद्रबाहुवचो यथा ॥26॥ बहूदका सस्यवती यज्ञोत्सवसमाकुला।
प्रशान्तडिम्भ-डमरा शुभा भवति मेदिनी ॥27॥ आषाढ़ी पूर्णिमा को यदि पूर्व और उत्तर दिशा के बीच का... र्टान कोष, का वायु चले तो उससे चोगें का घात होता है अर्थात् चोरों का उपदव ।म होता है। उस समय सभी प्रकार के वीज बोना शुभ होता है । रचनों पर अर्थात कंकरीली, पथरीली जमीन में भी बोया हुआ बीज उगता तथा समृद्धि को प्राप्त होता है । सर्वत्र क्षेम और सुमिन होता है, ऐसा प्रवाह स्वामी का यया है। साथ ही पृथ्वी बहुजल और धान्य से सम्पन्न होती है, पूजा-प्रतिष्टादि महोत्सवों से परिपूर्ण होती है और सब विडम्बनाएँ दूर होकर प्रशान्त वातारण को लिये मंगलमय हो जाती हैं । नगर और देश में शान्ति व्याप्त हो जाती है ।125-27॥
पूर्वा वातः स्मृतः श्रेष्ठः तथा चाप्युत्तरो भवेत् । उत्तमस्तु तथशानो मध्यमस्त्वपरोत्तरः ।।28।। अपरस्तु तथा न्यूनः शिष्टो वातः प्रकीर्तितः ।
पापे नक्षत्रकरणे मुहूर्ते च तथा भृशम् ।।29॥ पूर्व दिशा का वायु श्रेष्ठ होता है, इसी प्रकार उत्तर का वायु भी श्रेष्ठ कहा जाता है । ईशान दिशा का वायु उत्तम होता है। वायव्य कोण तथा पश्चिम का वायु मध्यम होता है । शेप दक्षिण दिशा, अग्निकोण और नात्यकोण का वायु अधम कहा गया है, उस समय नक्षत्र, करण तथा मुहूर्न यदि अणुभ हो तो वायु भी अधिक अधम होता है ।।28-291
पूर्ववातं यदा हन्यादुदीर्णो दक्षिणोऽनिलः । न तत्र वापयेद् धान्यं कुर्यात् सञ्चयमेव च ॥30॥
-.-... ... -.... .
12. पूर्वोत्तर मु. C. 13. उता मुo A. BD.। 4. पावर: मु. A परोजग मुल C.15 न्यून भA., न्यूनः म B. D. I 6-7. शमा बाना म.. A. भिष्ट नोय म. C. शिष्टा बाना मु. D 18. दक्षिणानलः FA. बधिगोऽन: मु. ।। ।
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भद्रबाहुसंहिता
दुभिक्षं चाप्यवृष्टि च शस्त्रं रोगं जनक्षयम् । करुते सोऽनिलो घोरं आषाढाभ्यतरं परम् ॥31॥
आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पूर्व के चलते हुए वायु को यदि दक्षिण का उठा हुआ वायु परास्त करके नष्ट कर दे तो उस समय धान्य नहीं बोना चाहिए। बल्कि धान्यसंचय करना ज्यादा अच्छा होता है, क्योंकि वह वायु दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, शस्त्रसंचार और जनक्षय का कारण होता है ।130-31।।
पापघाते तु वातानां श्रेष्ठ सर्वत्र चादिशेत् । 'ष्ठानपि यदा हन्युः पापा पापं तदाऽऽदिशेत् ॥32॥
श्रेष्ठ वायुओं में से किसी के द्वारा पापवायु का यदि घात हो तो उसका फल सर्वत्र श्रेष्ठ कहना ही चाहिए और पापा श्रेष्ठ वायुओं का घात करें तो उसका फल अशुभ ही जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार के वायु की प्रधानता होती है, उसी प्रकार का शुभाशुभ फल होता है |32||
यदा तु वाताश्चत्वारो भृशं वान्त्यपसव्यतः । अल्पोदक" शस्त्राघातं भयं व्याधि च कुर्वते ॥ 330
यदि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर के चारों पवन अपसव्य मार्ग मे-.दाहिनी ओर से तेजी के साथ चलें तो वे अल्पवर्षा धान्यनाश और व्याधि उत्पन्न होने की सूचना देते हैं उक्त बातें उग बर्ष घटित होती हैं || 3311
प्रदक्षिणं यदा वान्ति त एवं सुखशीतलाः । क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं राज्य वृद्धिर्जयस्तथा ॥134
वे ही चारों पवन यदि प्रदक्षिणा करते हुए चलते हैं तो सुख एवं शीतलता को प्रदान करने वाले होते है तथा लोगों को क्षेम, सुभिक्ष, आरोग्य, राजवृद्धि और विजय की सूचना देनेवाले होते है || 34।।
समन्ततो यदा वान्ति परस्परविघातिनः ॥
13
शस्त्रं" जनक्षय रोगं सस्पघातं च कुर्वते ॥35॥
चारों पवन यदि सब ओर से एक दूसरे का परस्पर बात करते हुए चलें तो शस्त्रमय, प्रजानाश, रोग और धान्यत्रात करवाने होत है ॥35॥
1. घातेषु . A. 12. नागानां A3:
A 5-6 गोम् मु 7 अप : A
9. सस्यसंघातं 12. सत्वं मु० A
4 श्रेष्ठ
मु
AD C 8 अल्पदम् मु ।
गु० A
। 10 राज्यबुद्धिर्जयस्तथा ॥ परिविधानल 13 जनभयं मुळे C
r
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नवमोऽध्यायः
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एवं विज्ञाय वातानां संयता भैक्षतिनः।
प्रशस्तं यत्र पश्यन्तिः' वसेयुस्तत्र निश्चिलम् । 36॥ इस प्रकार पवनों और उनका शुभाशुभ फल को जान कर भिक्षावृत्तिवाले साधुओं को चाहिए कि वे जहाँ बाधारहित प्रशस्त स्थान देखें वहीं निश्चित रूप से निवास करें ।।3611
आहारस्थितयः सर्वे जंगमस्थावरास्तथा।
जलसम्भवं च सर्वं तस्यापि जनकोऽनिलः ॥37॥ जंगम-चल और स्थावर समस्त जीवों की स्थिति आहार पर निर्भर हैसबका आधार आहार है और खाद्यपदार्य जल से उत्पन्न होते हैं तथा जल की उत्पत्ति वायु पर निर्भर है ।।37॥
सर्वकालं प्रवक्ष्यामि वातानां लक्षण' परम् ।
आषाढीवत् तत् साध्यं यत् पूर्व सम्प्रकीर्तितम् ।।38॥ अव पवनों का सार्यवालिया उक्त लक्ष कहूँगा, उसे पूर्व में काहे हा आपाही पूर्णिमा के समान सिद्ध करना चाहिए ।।38।।
पूर्ववातो यदा तूर्णं सप्ताहं वाति कर्कशः। स्वस्थाने नाभिवत् महदुत्पद्यते भयम् ।।39॥ प्राकारपरिखाणां च शस्त्राणां च समन्ततः ।
निवेदयति राष्ट्राणां विनाशं तादृशोऽनिलः 1801 पूर्व दिशा का पवन यदि ककंशरूप धारण करके अतिशीत्र गति से चले तो वह स्वस्थान में बर्मा व न होने की सूचना देता है और उसग अत्यन्त भय उत्पन्न होता है, उस प्रकार का पवन कोट, बाइयों, शस्त्रों और गप्ट्रों का सब ओर से विनाश सुचित करता है ।। 39.4011
सप्तरात्रं दिनार्ध' च यः कश्चिद् वाति मारुतः ।
महद्भयं च विज्ञेयं वर्ष बाध्य महद् भवेत् ॥4॥ किसी भी दिशा का वायु यदि साढ़े सात दिन तक लगातार चले तो उंग
1. यानस्तु • C 12 लावामिलाम् [C. 13. म. ('. । 4. fruirr: मु०ः । 5. जनमभ्रम म..B. 16. जलद गु० 1 7-8 नक्षणान्विय [.. A.B.D.। 9. शस्त्रकोपभयं नम. म. C. 10. दिवावधि म• A. वि. वा म.. 13. विश शर्य म. DI
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भद्रबाहुसंहिता
महान भय का सूचक जानना चाहिए अथवा इस प्रकार का वायु अतिवृष्टि का। सूचक होता है ।1410
पूर्वसन्ध्यां यदा 'वायुरपसव्यं प्रवर्तते।
पुरावरोधं कुरुते यायिनां तु जयावहः ॥42॥ यदि वायु अपसव्य मार्ग से पूर्व सन्ध्या ' को वातान्वित करता है तो वह पुर के अवरोध का धेरे में पड़ जाने का सूचक है । इस समय यायियों-आक्रमणकारियों की विजय होती है ।। 4211
पूर्वसन्ध्यां यदा वायुः सम्प्रवाति प्रदक्षिणः ।
नागराणां जयं कुर्याद् सुभिक्षं याधिविद्रवम् ॥43॥ यदि वह वायु प्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वसन्ध्या को व्याप्त करे तो उससे नागरिकों ६. काय होती है, सुभिक्ष झेता है और पढ़कर आनेवाले आक्रमणकारियों को लेने के देने गड़ जाते हैं अर्थात् उन्हें भागना पड़ता है ।।431
मध्याह्न वार्धरावे दार तथा वाऽस्तमनोदये।
वायुस्तूर्णं यदा वाति तदाऽवृष्टि भयं राजाम् ॥4॥ यदि वायु मध्याह्न में, अर्धरात्रि में तथा सूर्य के अस्त और उदय के समय शीघ्र गति से चले तो अनावृष्टि, 'भय और रोग उत्पन्न होते हैं ।।44॥
यदा राज्ञः प्रयातस्य प्रतिलोमोऽनिलो भवेत।
अपसव्यो “समार्गस्थस्तदा सेनावध' विदुः ।।45॥ यदि राजा के प्रयाण के समय वायु प्रतिलोम - विपरीत बहे अर्थात् उस दिशा को न चलकर जिधर प्रयाण किया जा रहा है, उससे विपरीत जिधर से प्रयाण हो रहा है, चले तो उसगे आक्रमणकारी की सेना का वध समझना चाहिए 11451
अनुलोमो यदा स्निग्धः सम्प्रवाति प्रदक्षिणः । नागराणां जयं कुर्यात सुभिक्षं च प्रदीपयेत् ।।46।।
1. परसन्ध्या द्रवात् पुर: मु. A., नयाभ्यासात् पम् . B परगत प्रवास्यते म् ) 2. भयं मु.D | 3. विधाम म. A. | 4. च गु. 5. रुजा मा । 6. समार्गस्य म० । विमार्गस्थो म C.I7. भई ग. A. ॥ 8. प्रदीपतश्च चार्थशब्दश्च तदा मित्र जयावहः मु. ।
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नवमोऽध्याय
यदि वायु स्निग्ध हो और प्रदक्षिणा करता हुआ अनुलोमरूप से बहे – उसी दिशा की ओर चले जिधर प्रयाण हो रहा है, तो नगरवासियों की विजय होती है और सुभिक्ष की सूचना मिलती है ||46||
दशाहं द्वादशाहं वा पात्रात यदा भवेत । अनुबन्धं तदा विन्द्याद् राजमृत्युं जनक्षयम् ॥147॥
यदि अशुभ वायु दस दिन या बारह दिन तक लगातार चले तो उससे सेनादिक का बन्धन, राजा को मृत्यु और मनुष्यों का क्षय होता है, ऐसा समझना चाहिए 11471
यदानवर्जितो वाति वायुस्तूर्णम कालजः । पांशुभस्मसमाकीर्णः सस्यघातो भयावहः ||48
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जब अकाल में मेघरहित उत्पात वायु धूलि और भस्म से भरा हुआ चलता है, तब वह शस्त्रगातक एवं महाभयंकर होता है ॥ 8 ॥
सविद्युत्सरजो वायुरूर्ध्वगो वायुभिः सह । 'प्रवाति पक्षिशब्देन क्रूरेण स भयावहः ॥ 49
यदि बिजली और धूल से युक्त वायु अन्य वायुओं के साथ ऊर्ध्वगामी हो और क्रूरपक्षी के समान शब्द करता हुआ चले तो वह भयंकर होता है ||49 प्रवान्ति सर्वतो वाला यदा तूर्णं मुहुर्मुहुः
यतो यतोऽभिगच्छन्ति तत्र देशं निहन्ति ते ॥50॥
,
यदि पवन सब ओर से बारम्बार शीघ्र गति से चले तो वह जिस देश की ओर गमन करता है, उस देश को हानि पहुँचाता है || 50||
अनुलोमो यदाऽनीके सुगन्धो वाति मारुतः । 'अयत्नतस्ततो राजा जयमाप्नोति सर्वदा ॥15॥
यदि राजा की सेना में सुगन्धित अनुलोम प्रयाण की दिशा में प्रगतिशील पवन चले तो बिना यत्न के ही राजा सदा विजय को प्राप्त करता है ॥51॥ प्रतिलोमो यदाऽनीके दुर्गन्धो वाति मारुतः । तदा यत्नेन साध्यन्ते वीरकीर्ति सुलब्धयः ॥52॥
यदि राजा की सेना में दुर्गन्धित प्रतिलोम- - प्रयाण की दिशा मे विपरीत
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1. मदिन प्रति में श्लोकों का व्यकिम है। आधा श्लोक पर्व के श्लोक में है आधा उत्तर उत्तर के श्लोक में 2 आयातश्च न भु
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भद्रबाहुसंहिता
दिशा में पवन चले तो उस समय बीर-नीति को उपलब्धियां बड़ी ही प्रयत्नसाध्य होती हैं ।। 521
यदा सपरिघा सन्ध्या पूर्वो वात्यनिलो भृशम् ।
पूर्वस्लिीव विभाग पश्चिमा बध्यते चमः ।।53॥ यदि प्रात: अथवा सायंकाल की सन्ध्या परिघसहित हो--सूर्ष को लाँघती हुई मेरों की पंक्ति से युक्त हो-और उस समय पूर्व का वायु अतिवेग से चलता हो तो पूर्व दिशा में ही पश्चिम दिशा की सेना का वध होता है ।। 53||
यदा सपरिघा सन्ध्या पश्चिमो वाति मारुतः।
परस्मिन् दिशो भागे पूर्वा स वध्यते चमू: 154।। यदि सध्या सारिघा - सूर्य को लांघती मेषपंक्ति से युक्त हो और उस समय पश्चिम पवा चले तो पूर्व दिशा में स्थित सेना का पश्चिम दिशा में बध होता होता है ।।54॥
यदा सपरिघा सन्ध्या दक्षिणो वाति मारुतः।
अपरस्मिन् दिशो भागे उत्तरा वध्यते चमः ।।55॥ यदि सन्ध्या सपरिणा-सूर्य को लांघती हुई मेगपंक्ति से युक्त हो-और उस समय दक्षिण का वायु चलता हो तो उत्तर की सेना का पशिवम में वध होता है ।।551
यदा सपरिघा सन्ध्या उत्तरो वाति मारुतः ।
अपरस्मिन् दिशो भागे दक्षिणा बध्यते चमूः ॥56। यदि सन्ध्या सपरिया -सूर्य को लांघती हुई मेघपंक्ति से युक्त हो और उस समय उत्तर का गबन चले तो दक्षिण की सेना का उत्तर दिशा में बध होता है ।।561
प्रशस्तस्तु यदा वातः प्रतिलोमोऽनुपद्रवः ।
तदा यान् प्रार्थयेत् कामांस्तान प्राप्नोति नराधिपः ।।571 जर प्रतिलोम वायु प्रशस्त हो और उस समय कोई उपद्रव दिखाई न पड़ता हो तो राजा जिन कार्यों को चाहता है वे उसे प्राप्त होते हैं... - राजा के अभीष्ट की सिद्धि होती है ।। 571
अप्रशस्तो यदा वायु भिपश्यत्युपद्रवम्।
प्रयातस्य नरेन्द्रस्य चमूरिवते सदा ॥58॥ परिवायु अपशस्त हो और उस समय कोई उपद्रव दिखाई न पड़े तो युद्ध
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नवमोऽध्यायः
के लिए प्रयाण करनेवाले राजा की सेना सदा पराजित होती है 115811
तिथीनां करणानां च मुहूर्तानां च ज्योतिषाम् । नेता तस्माद् यत्रैव मारुतः 1159
मारुतो बलवान्
तिथियों, करणों, मूहर्ता और ग्रह नक्षादिकों का बलवान् नेता वायु है, अतः जहाँ वायु है, वहीं उनका बल समझना चाहिए |:59 ।।
वायमानेऽनिले पूर्व मेघांस्तत्र समादिशेत् । उत्तरे वायमाने तु जलं तत्र समादिशेत् ॥60
यदि पूर्व दिशा में पवन चले तो उस दिशा में मेघों का होना कहना चाहिए और यदि उत्तर दिशा में पवन चने तो उस दिशा में जय का होना कहना चाहिए ||600
ईशाने वर्षणं ज्ञेयमाग्नेये नंऋषि च । याम्येव विग्रहं ब्रूयाद् भद्रबाहूवचो यथा ॥७ ॥ ॥
115
यदि ईशान कोण में पवन ने तो वर्षा का ये जानना चाहिए और यदि नैऋत्य तथा पूर्व-दक्षिण दिशा में वन बने तो शुद्ध का होना कहना चाहिए ऐसा प्रवाहस्वामी का वचन है ॥6॥॥॥
सुगन्धेषु प्रशान्तेषु स्निग्धेषु मार्दवेषु च । वायमानेषु वातेषु सुभिक्षं क्षेममेव च ॥620
यदि चलने वाले पवन सुगन्धित, प्रशान्त, स्निग्ध एवं कोमल हो तो सुशिक्ष और क्षेत्र का होना ही कहना चाहिए 162 ||
महतोऽपि समुद्भूतान् सतडित् साभिगजितान् । मेघान्निहनते वायुनेऋतो दक्षिणाग्निजः ॥163॥
नैऋत्यकोण, अग्निकोष तथा दक्षिण दिशा का पवन उन बड़े मेघों को भी नष्ट कर देता है -बरन नहीं देता, जो चमकती बिजली और भारी गर्जना में युक्त हों और ऐसे दिखाई पड़ते हो कि अभी बरसेंगे 11631
सर्वलक्षणसम्पन्ना मेघा मख्या जलवहाः । मुहूर्त्तादुत्थितो वायुर्हन्यात् सर्वोऽपि नैर्ऋतः ॥ 64
सभी शुभ लक्षणों के सम्पन्न जन्न को धारण करने वाले जो मुख्य मेघ है, उन्हें भी नैऋत्य दिशा का उठा हुआ पूर्व पवन एक मन में
कर देता है |641|
1 दिन में लोकों की गंगा में होने से ग्लो
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भद्रबाहसंहिता
सर्वथा बलवान् वायुः स्वचक्रे निरभिग्रहः । करणादिभिः संयुक्तो विशेषेण शुभाशुभः ॥1650
अभिग्रह से रहित वायु स्वचक्र में सर्वथा बलवान् होता है और करणादिक से संयुक्त हो तो विशेषरूप से शुभाशुभ होता है— शुभ करणादि से युक्त होने पर शुभफल सूचक और अशुभ करणादिक से युक्त होने पर अशुभसूचक होता है ||65 1
इति नैन्ये भद्रबाहु नैमित्तं वातलक्षणो नाम नवमोऽध्यायः ।
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विवेचन - वायु के चलने पर अनेक बातों का फलादेश निर्भर है। वायु द्वारा यहाँ पर आचार्य ने केवल वर्षा, कृषि और सेना, सेनापति राजा तथा राष्ट्र के शुभाशुभत्व का निरूपण किया है। वायु विश्व के प्राणियों के पुण्य और पाप के उदय से शुभ और अशुभ रूप में चलता है। अतः निमित्तों द्वारा वायु जयत् के निवासी प्राणियों के पुण्य और पाप को अभिव्यक्त करता है । जो जानकार व्यक्ति हैं, वे बाप के द्वारा भावी फल को अवगत कर लेते हैं। आषाढ़ी प्रतिपदा और पूर्णिमा से दो तिथि इस प्रकार की हैं, जिनके द्वारा वर्षा, कृषि, व्यापार, रोग, उपद्रव आदि के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यहाँ पर प्रत्येक फलादेश का क्रमश: निरूपण किया जाता है ।
वर्षा सम्बन्धी फलादेश आयाढ़ी प्रतिपदा के दिन सूर्यास्त के समय पूर्व दिशा में बायु चले तो आश्विन महीने में अच्छी वर्षा होती है तथा इस प्रकार के वायु से अगले महीने में भी वर्षा का योग अवगत करना चाहिए। रात्रि के समय जब आकाश में मेघ छाये हुए हों और धीमी-धीमी वर्षा हो रही हो, उस समय पूर्व का वायु चले तो भाद्रपद मास में अच्छी वर्षा की सूचना समझनी चाहिए। इस तिथि को यदि मेत्र प्रातःकाल से ही आकाश में हों और वर्षा भी हो रही हो, तो पूर्व दिशा का वायु चतुर्मास में वर्षा का अभाव सूचित करता है । तीत्र धूप दिन भर पड़े और पूर्व दिशा का वायु दिन भर चलता रहे तो चातुर्मास में अच्छी वर्षा का योग होता है। आषाढ़ी प्रतिपदा का तपना उत्तम माना गया है, इससे चातुर्मास में उत्तम वर्षा होने का योग समझना चाहिए। उपर्युक्त तिथि को सूर्योदय काल में पूर्वीय वायु चले और साथ ही आकाश में मेघ हों पर वर्षा न होती हो तो श्रावण महीने में उत्तम वर्षा की सूचना समझनी चाहिए। उक्त तिथि को दक्षिण और पश्चिम दिशा का वायु जले तो वर्षा चातुर्मास में बहुत कम या उसका बिल्कुल अभाव होता है । पश्चिमी वायु चलने से वर्षा का अभाव नहीं होता, बल्कि श्रावण में घनघोर वर्षा, भाद्रपद में अभाव और आश्विन में अल्प वर्षा होती है। दक्षिण दिशा का वायु वर्षा का अवरोध करता है। उत्तर दिशा का वायु चलने से भी वर्षा का अच्छा योग रहता है। आरम्भ में कुछ कमी रहती है, पर अन्त तक समयानुकूल और आवश्यकतानुसार होतो जाती है | आषाढ़ी
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नवमोऽध्यायः
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Punitivevictiminindia
पूर्णिमा को आधे दिन दोपहर तक पूर्वीय वायु चलता रहे तो श्रावण और भाद्रपद में अच्छी वर्षा होती है । पूरे दिन पूर्वीय पवन चलता रहे तो चातुर्मास पर्यन्त अच्छी वर्षा होती है और एक प्रहर पूर्वीय पवन चले तो केवल श्रावण के महीने में अच्छी वर्षा होती है । यदि उक्त तिथि को दोपहर 3. उपरान्त पुर्वीय पवन चले और आकाश में बादल भी हों तो भाद्रपद और आश्विन इन दोनो महीनों में उत्तम वर्षा होती है । यदि उक्त तिथि को दिन भर मुगन्धित वायु चलता रहे और थोड़ी-थोड़ी वर्षा भी होती रहे तो चातुर्मास में अच्छी वर्मा होती है। माघ महीने का भी इस प्रकार का पवन वर्षा होने की सूचना देता है। यदि आपाढ़ी दुणिमा को दक्षिण दिशा का वायु चले तो वर्षा का अभाव सूनित होता है । यह पवन सूर्योदय से लेकर मध्याहन बाल ताः चले तो आरम्भ में वर्ग का अभाव और मध्याहतातर चले तब आन्तम महीनी में वर्षा का अगाव गमाना नाहि । यदि आधे दिन दक्षिणी पवन राधे दिन पूर्वीय या उत्तरीय जनता पारा में वर्षाभाव, अनन्तर उत्तम था तथा आरम्भ में उस बी, अनन्तर मार अवगत करना नाहिए । वर्षा की स्थिति पूर्वाधं और उत्तराध पर अबलम्बित समझनी चाहिए। यदि उक्त तिथि को पशिचनीय पया चले, आकाश में बिजली तड़के तथा भगों की गर्जना भी हो तो साधारतः अच्छी वर्ग होती है । इस प्रकार की स्थिति मध्यम वर्षा होने की सूचना देती है। पशिचमीय पवन यदि सूर्योदय से लेकर दोपहर तक चलता है तो उत्तम वर्षा और दोपहर के उपरान्त चले तो मध्यम वर्षा होती है।
श्रावण आदि महीनो पवन का फलादेश 'डाक' निम्न प्रकार बताया
nmritaire....... -
सांओन सवा भादव पुरिया गिर ब सान । कातिकः कन्त। मिकियोंने गोले, यहाँ तक रखवह धान !! माओन पछवा बह दिन चारि, चूल्हीचा पाला उपजै सारि। वरिम रिमझिम निगिदिन वारि, कहिगल वचन 'पाक' परचारि ।। सांओन पुरिवा भादव पवा आसिन बह नैऋत। कातिकः कान सिकियोन डोले, उपजै नहि भरिबीत ।। सांओन पुरिक्षा बह रविवार, चोदा मडुआया होय बहार । खोजत गेट नहि थोड़ी अहार, वाहत वैन यह 'डाव' गावार ।। जो साँओन पुरवा बहै, शाली लागु करीन । भावपछवा जी बहै होहि क नर दीन । समोर वर जी यांगा, श्री का
धामा । सांओन जो वह पुरर्थया, वडद चिके कोनह गया ॥
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भद्रबाहुहिता
अर्थ-यदि श्रावण मास में पश्चिमीय हवा. भाद्रपद मास में पूर्वीय हवा और आश्विन मास में ईशान कोण की हवा चले तो अच्छो वर्षा होती है तथा फसल भी बहुत उत्तम उत्पन्न होती है । श्रावण में यदि चार दिनों तक पश्चिमीय हवा चले तो रात-दिन पानी बरसता है तथा अन्न की उपज भी खूब होती है । यदि श्रावण में पूर्वीय, भाद्रपद में पश्चिमीय और आधिवन में नैऋत कोणीय ह्वा चले तो वर्षा नहीं होती है तथा फसल की उत्पत्ति भी नहीं होती। यदि श्रावण में पूर्वीय, भाद्रपद में पश्चिमीय हवा चले तथा इस महीने में रविवार के दिन पूर्वीय हवा चले तो अनाज उत्पन्न नहीं होता और वर्षा की भी कमी रहती है। श्रावण मास में पूर्वीय वायु का चलना अत्यन्त अशुभ समझा जाता है। अतः इस महीने में पश्चिमीय हवा यो चलने रा फसल अच्छी उत्पन्न होती है। श्रावण मास में यदि प्रतिपदा तिथि रविवार को हो, और उस दिन तेज पूर्वीय हवा चलती हो तो वर्षा का अभाव आश्विन माग में अबश्य रहता है। प्रतिपदा तिथि का रविवार और मंगलवार को पना 'भा शुग नहीं है। इस वर्गकी कमी थी और फसल को बरबादी की सूचना मिलती है । भाद्रपद मास में पश्चिमीय हवा का चलना अशुभ और पूर्वीय हवा या चलना अधिक शुभ माना गया है। यदि श्रावणी पूणिया शनिवार को हो और इस दिन दक्षिणीय वायु चलाता हो तो वर्षा की कमी आश्विन मास में रहती है । शनिबार के साथ शाभिषा नक्षत्र भी हो तो और भी अधिक हानिकर होता है। भाद्रपद प्रतिपदा को प्रात:काल पश्चिमीय हवा चले और यह दिन भर चलती रह जाए, तो खूब वर्षा होती है। आश्विन मास के अतिरिक्त कार्तिक मास में भी जल बरसता है। गेहूँ और धान दोनों की फसल के लिए यह उत्तम होता है । भाद्रपद कृष्णा पंचमी शनिवार या मंगलवार यो हो और इस दिन पूर्वीय हवा चले तो साधारण वर्मा और माधारण ही फसल तथा दक्षिणीय हवा चल तो फग़ का प्रभाव के साथ वर्मा का भी अभाव होता है । पंचमी तिथि को 'गरणी नक्षत्र हा और इस दिन दक्षिणी हवा चले तो वर्षा का अभाव रहता है तथा फसल मी अच्छी नहीं होती । पंचमी तिथि को गुरुवार और अश्विनी नक्षत्र हो तो अच्छी फसल होती है। कृतिका नक्षत्र हो तो साधारणतया वर्षा अच्छी होती है। ___ राष्ट्र, नगर सम्बन्धो फलादेश ----आपाड़ी पूणिमा को पश्चिमीय वायु जिस प्रदेश में चलती है, उस प्रवेश ग उपद्रव होता है, अन्न प्रकार का राम पलत है तथा उस क्षेत्र में प्रशासका ममतभद होता है । यदि प्रणिना शनिवार को हो तो उस प्रदेश के शिली काट , रविवार को हो तो चारी वर्ण के व्यक्तियों के लिए अनिष्टकार होता । मगलवार को पुणिमा सिधि हो और दिनभर पश्चिमीय या चलना सा उपप्र. मची II II 41 धाम को अनेक प्रकार के काटा है। गुरुवा? जर शुरुवार को पूणिमा हो जार इस दिन
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सन्ध्या समय तीन घंटे तक पश्चिमीय वायु चलता रहे तो निश्चयतः उस नगर, देश या राष्ट्र का विकास होता है। जनता में परस्पर प्रेम बढ़ता है, धन-धान्य की वृद्धि होती है और उस देश का प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ता है। व्यापारिक उन्नति होती है तथा जान्ति और सुख का अनुभव होता है। उक्त तिथि को दक्षिणी वाबु चले तो उस क्षेत्र म अत्यन्त भय, उपद्रव, बालह और माहमारी का प्रकोप होता है। आपसी कलह के कारण आलरिक अगड़े बन जाते है और सुखशान्ति दूर होती जाती है । मान्य नेताओं में मतभेद बढ़ता है, सैनिक शक्ति क्षीण होती है । देश में नये-नये कारों की वृद्धि होती है और गप्त रोगों की उत्पत्ति भी होती है । यदि रविवार के दिन अपसव्य मार्ग से दक्षिणीय बायु चले तो घोर उपद्रवों की सूचना मिलती है। नगर में शीलला और हैजे का प्रकार होता है। जनता अनेक प्रकार का बास उठाती है, भयंकर भवाम्म होन की गचना भीगा प्रकार के वायुग समझनी चाहिए। यदि अर्धरात्रि में दक्षिणीय बागु शब्द करता हुआ व तो इसका फलादेश म मस्त राष्ट्र के लिए हानिकारना होता है। राष्ट्रको आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है तथा राष्ट्र के सम्मान का भी नास होता है । देश में किसी महान व्यक्ति की मृत्यु से अपूरणीय क्षति होती है। यदि यही वायु प्रदक्षिणा करता हुआ अनुलोम गति में प्रवाहित हो तो राष्ट्रको साधारण क्षति उठानी पड़ती है । स्निग्ध, मन्द, गुगन्ध दक्षिणीय वायु भी अच्छा होता है तथा राष्ट्र में सुख-शान्ति उत्पन्न करता है । मंगलवार को दक्षिणीय वायु माथ-सायं का शब्द करता हुआ चले और एक प्रकार की दुर्गन्ध आती हो तो राष्ट्र और देश के लिए चार महीनों तक अनिष्ट सचक होता है । इस प्रकार के वायु स राष्ट्र को अनेक प्रकार के संाट गन करने पर अ पनों पर उपद्रव होत हैं, जिससे प्रशासकीय ग पाया T 11 वा. मला है। देश ने. खनिज पानी उपज मला 41 ग , जिस देश का धन ना हो जाता है। वाराही १ . क्षणीय वाणु चले तो देश को अनेक प्रकारकास्ट उठाना पड़ा। जिम प्रदेश राप्रकार का वायु चलता है उस प्रदेश के गौ-सौ कोश बारों और अग्नि-प्रकोण होता है । आपाढी पूर्णिमा को पूर्वीय वायु चले तो देश में गव, गान्ति होती है तथा सभी प्रकार की शक्ति बढ़ती है। बन. गनिज पदार्थ, कल-कारखान आदि की उन्नति होने का सुन्दर अवसर पाता है । सोमता नो यदि Patष वा प्रात: काय मध्याह्नकाल तक लगातार चलती रहे और हवा में ग मन्धि आती हो ता दश का भविष्य उज्वल होता है । सभी प्रसार गदा की ममति होती है। ये-नय नंताजी का नाम होता जा
!! जागनिक कान का भी विकास होता। ; it. 11:कार .1 . न मागम एक वर्ष तक आनन्दोत्सव होत रहा। सभी प्रकार का जन्य बसा शिक्षा
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भद्रबाहुसंहिता
कला-कौशल की वृद्धि होती है और नैतिकता का विकास नागरिकों में पूर्णतया होता है। नेताओं में प्रेमभाव बढ़ता है जिससे वे देश या राष्ट्र के कार्यों को बड़े सुन्दर ढंग से सम्पादित करते हैं। गुरुवार को पूर्वीय वायु चले तो देश में विद्या का विकास, नये-नये अन्वेषण के कार्य, विज्ञान की उन्नति एवं नये-नये प्रकार की विद्याओं का प्रसार होता है। नगरों में सभी प्रकार का अमन चैन रहता है। शुक्रवार को पूर्वाय बडुभिरहे तो शान्ति, सुभिक्ष और उन्नति का सूचक है, इस प्रकार के बायु से देश की सर्वांगीण उन्नति होती है ।
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व्यापारिक फलादेश – आषाढ़ी पूर्णिमा को प्रातःकाल पूर्वीय हवा, मध्याह्न दक्षिणीय हवा, अपराह्न काल पश्चिमीय हवा और सन्ध्या समय उत्तरीय हवा चले तो एक महीने में स्वर्ण के व्याभर में सवाया लाभ, चाँदी के व्यापार में डेढ़ गुना तथा गुरु के व्यापार में बहुत लाभ होता है। अन्न का भाव सस्ता होता है तथा कपड़े और सूत के व्यापार में तीन महीनों तक लाभ होता रहता है। यदि दस दिन प्रातः काल से सूर्यास्त तक दक्षिणीय हवा ही चलती रहूं तो सभी वस्तुएँ पन्द्रह दिन के बाद ही महंगी हो जाती हैं और यह मँहगी का बाजार लगभग छः महीने तक चलता है। इस प्रकार के बायु का फल विशेषतः यह है कि अन्न का भाव बहुत मँहगा होता है तथा अन्य की कमी भी हो जाती है । यदि आधे दिन दक्षिणीय वायु चले, उपरान्त पूर्वीय या उत्तरीय वायु चलने लगे तो व्यापारिक जगत् में विशेष हलचल रहती है तथा वस्तुओं के भाव स्थिर नहीं रहते हैं । सट्टे के व्यापारियों के लिए उक्त प्रकार का निमित्त विशेष लाभ सूचक है । यदि पूर्वार्ध भाग में उक्त तिथि को उत्तरीय वायु चले और उत्तरार्ध में अन्य किसी भी दिशा की वायु चलने लगे तो जिस प्रदेश में यह निमित्त देखा गया है, उस प्रदेश के दोदो सौ कोश तक अनाज का भाव मस्ता तथा वस्त्र को छोड़ अवशेष सभी वस्तुओं का भाव भी रास्ता ही रहता है। केवल दो महीने तक वस्त्र तथा श्वेत रंग के पदार्थों के भाव ऊँ चढ़ते हैं तथा इन वस्तुओं की कमी भी रहती हैं। सोना, चांदी और अन्य प्रकार की खनिज धातुओं का मूल्य प्रायः सम रहता है । इस निमिल के दो महीने के उपरान्त सोने के मूल्य में वृद्धि होती है, यद्यपि कुछ ही दिनों के पश्चात् पुनः उसका मूल्य गिर जाता है । १शुओं का मूल्य बहुत बढ़ जाता है । गाय, बैल और घोड़े के मूल्य में पहले से लगभग सबाया अन्तर आ जाता है। यदि आषाढ़ी पूर्णिमा की रात में ठीक बारह बजे के समय दक्षिणीय वायु चले तो उस प्रदेश में छ: महीनों तक अनाज की कमी रहती है और अनाज का मूल्य भी बहुत बढ़ जाता है। यदि उक्त तिथि की मध्यरानि में उत्तरीय हवा चलने लग तो भगाना, नारियल, सुपाड़ी आदि का भात्र ऊंचा उठता के जनाज रास्ता होता È lebar, diệt ki yra yang ûr zardiacaran gun utara si सूर्योदय काल मय हवा, मध्याह्न उत्तरीय, अपराह्न में पश्चिमी हवा और
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सन्ध्या काल में उत्तरीय हवा चलने लगे तो लगभग एक वर्ष तक अनाज सस्ता रहता है, केवल आश्विन मास में अनाज मंहगा होता है, अवशेष सभी महीनों में अनाज सस्ता ही रहता है । सोना, चाँदी और अभ्रक का भाव आश्विन म माय तक सस्ता तथा फाल्गुन स ज्येष्ठ तक मंहगा रहता है । व्यापारियों को कुछ लाभ ही रहता है । उक्त प्रकार के वायु निमित्त में व्यापारियों के लिए शुभ फलादेश ही समझा जाता है। यदि इस दिन सन्ध्या काल में वर्षा के साथ उत्तरीय हवा चले द्रो अगले दिन से ही अनाज मँहगा होने लगता है। उपयोग और विलास की सभी वस्तुओं के मूल में वृद्धि हो जाती है. विशेष रूप से आभूषणों के मूल्य भी बढ़ जाते हैं। जूट, सन, मूज आदि का भाव भी बढ़ता है। रेशम की कीमत पहल से डेढ़ गुनी हो जाती है। काले रंग की प्रायः सभी वस्तुओं के भाव सम रहत है ।हरे, लाल और पीले रंग की वस्तुओं का मूल्य वृद्धिगत होता है । श्वेत रंग के पदार्थ का मल्य राम रहता है । याद उक्त तिथि को ठोक दोपहर के समय परिचमीय वायु चले तो सभी वस्तुओं का भाव सरता रहता है। फिर भी व्यापारियों के लिए यह निमित्त अशण गचक नहीं; उन्हें लाभ होता है। यदि थावणी पूणिमा को प्रात:काल बर्षा हो और दक्षिणीय वाय भी चले तो अगले दिन से ही सभी वस्तुओं की मंहगाई समय लेनी चाहिए । इस प्रकार के निमित्त का प्रधान फलादेश खाद्य पदार्थों के मूल्य में वृद्धि होना है। खनिज धातुओं के मूल्य में भी वृद्धि होती है। पर थोड़े दिनों के उपरान्त उनका भाव भी नीचे उत्तर आता है । यदि उक्त तिथि को पूरे दिन एक ही प्रकार की हवा चलती रहे तो वस्तुओं के भाव सस्ते और हवा बदलती रहे तो वस्तुओं के भाव ऊंचे उटते है। विशेषतः मध्याह्न और मध्यरात्रि में जिस प्रकार की हवा हो, ईसा ही फल समझना चाहिए । पूर्वीय और उत्तरीय हवा से वस्तुएँ सस्ती और पश्चिमीय और दक्षिणीय हवा में चलने से बस्तुएं मंहगी होती हैं ।
दशमोऽध्यायः
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि प्रवर्षण निबोधत।
प्रशस्तमप्रशस्त च यथावदारपूर्वतः ।। अब प्रउ १ का वर्णन 11. आता है ।
तर अगस्त- अ 1. मघana! ", PAR- Ho .. L. I.. - ! ५५ . .. ।
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भद्रबाहुसंहिता
और अप्रशस्त–अशुभ इस प्रकार दो तरह का होता है ।।
ज्येष्ठे। मूलमतिक्रम्य पतन्ति बिन्दवो यदा ।
प्रवर्षणं तदा ज्ञेयं शुभं वा यदि वाऽशुभम् ॥2॥ ज्येष्ठ मास में मूल नक्षत्र को बिताकर यदि वर्षा हो तो उसके शुभाशुभ का विचार करना चाहिए 1121।।
आषाढे शुक्लपूर्वासु ग्रीष्मे मासे तु पश्चिमे। 'देवः प्रतिपदायां तु यदा कुर्यात् प्रवर्षणम् ।।३।। चतुःषष्टिमादकानि तदा वर्षति वासवः।
निष्पद्यन्ते च सस्यानि सर्वाणि निरुपद्रवम् ॥4॥ गोम ऋतु में शुल्का प्रतिपाद को पूर्वाषाढा नक्षत्र में पश्चिम दिशा स बादल उसार वर्षा हो तो 64 आइक प्रमाण वर्षा होती है और निरूपद्रव —बिना किसी बाधा गभी प्रकार के अनाज उत्पन्न होने है ।13-4।।
धमकामार्था वर्तन्ते' परचक्र प्रणश्यति ।
क्षेम सुभिक्ष"मारोग्यं दशरात्री स्वपग्रहम् ।। आत प्रकार के प्रवर्षण में धर्म, काम और धन विद्यमान रहते हैं तथा क्षेम, सुभिज और आरोग्य की वृद्धि होती है और परचक्र--परशासन का भय दूर हो जाता है किन्तु दम दिन के बाद पराजय होती है ..अगुभ फल घटित होता है ॥३॥
उत्तराभ्यामाषाढाभ्यां यदा देवः प्रवर्षति । विज्ञेया द्वादश द्रोणा अतो वर्ष सुभिक्षदम् ॥6॥ तदा निम्नानि वातानि मध्यम वर्षणं भवेत् ।
सस्थानां चापि निष्पत्ति: सुभिक्षं क्षेममेव च ॥7॥ जब उत्तरापाढा नक्षत्र में वा होती है, नव [2 श्रोण प्रभा जल की वर्षा होती है तथा गाभिन भी होता है । मन्द-मन्द वायु चलता है, मध्यम वर्षा होती है, नाजा को पति होती है, मुभिदा और कल्याण-गंगला होता ॥6-7।।
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दशमोऽध्यायः श्रवणेन धारि विज्ञेयं श्रेष्ठं सस्यं च निदिशेत् । चौराश्च प्रबला ज्ञेया व्याधयोऽत्र पृथग्विधाः ॥8॥ क्षेत्राण्यत्र प्ररोहन्ति दंष्ट्रानां नास्ति जीवितम्।
अष्टादशाहं जानीयादपग्रह न संशयः ॥9॥ यदि श्रवण नक्षत्र में जल की वर्षा हो तो अन्न की उपज अच्छी होती है, चोरों की शक्ति बढ़ती है और अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । लतों में अन्न के अंकुर अच्छी तरह उत्पन्न होते हैं, दंष्ट्रो-चूहों के लिए तथा डांस, मच्छरों के लिए यह वर्षा हानिकारक है, उनकी मृत्यु होती है । अठारह दिनों के पश्चात् अपग्रह-पराजय तथा अशुभ फल की प्राप्ति होती है, इसमें सन्देह नहीं ।। 8-9॥
आढकानि धनिष्ठायां सप्तपंच' समादिशेत । मही सत्यवतो ज्ञेया वाणिज्यं च विनश्यति ॥10॥ क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं सप्तरात्रभयग्रहः ।
प्रबला दैष्ट्रिणो ज्ञेया मूषकाः शलभा: शुकाः ।। धनिष्ठा नक्षत्र में वर्षा हो तो उस वर्ष 57 आदक वर्षा होती है, पृथ्वी पर फसल अच्छी उत्पन्न होती है और व्यापार गड़बड़ा जाता है। इस प्रकार की वर्षा के क्षेम-कल्याण, सुभिक्ष और आरोग्य होता है किन्तु सात दिनों के उपरान्त अपग्रह अशुभ का फल प्राप्त होता है । दन्तधारी प्राणी भूपक, पतंग, तोता आदि प्रबल होते हैं अर्थात् उनक द्वारा फसल को हानि पहुँचती है ।।10-11 ।।
खारीस्तु वारिणो 'विन्यात् सस्यानां "चाप्युपद्रवम् ।
चौरास्तु प्रबला ज्ञेया न च कश्चिदपग्रहः' ।।2।। शतभिषा नक्षत्र में वर्षा हो तो फसल उत्पन्न होने में बने प्रकार का पदन होत हैं। चोरों को शक्ति बनती है, वा अशुभ किसी ना नहीं ।! || 1211
पूर्वाभाद्रपदायां तु यदा मेघः प्रवर्षति । चतुःषष्टिमाढकानि तदा वर्षति सवंश: ।।13॥ सवैधान्यानि जायात बलवन्तश्च तस्कराः ।
नाणकं क्षुभ्यते। चापि दशरात्रमपग्रहः ॥1॥ पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में जव मंघ बरसता ह तो उस समय सब 64 : प्रमाण वर्षा होती है । सभी प्रकार के अनाज उत्पन्न होते है, चोरों की शक्ति
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भद्रबाहुसंहिता
बढ़ती है तथा मुद्रा का चलन तेज हो जाता है । लेकिन दस दिन के बाद अनिष्ट । या अशुभ होता है ।। 13-1411
नवतिराढकानि स्युरुत्तरायां समादिशेत् । स्थलेषु वापयेद् बीज सर्वसस्य समृद्धयति ॥॥ क्षेमं सुभिक्षमारोग्य विशदात्रमपग्रहः ।
दिवसानां विजानीयाद् भद्रबाहुवचो यथा ।।161 यदि प्रथम वर्षा उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में हो तो 90 आढक प्रमाण जल-वृष्टि । होती है । स्थल में बोया गया बीज भी समृद्धि को प्राप्त होता है, तथा सभी प्रकार । के अनाज बढ़त हैं । क्षेम, सुभिक्ष और आरोग्य की प्राप्ति होती है तथा 20 दिन । पश्चात् अग्रह–अशुभ होता है. ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।। 1 5-16॥
चतुःषष्टिमाढकानोह रेवत्याभिनिदिशेत् । रास्यानि च समृद्धयन्ते सर्वाण्येव यथाक्रमम् ॥17॥ उत्पद्यन्तं च राजानः परस्पविरोधिनः ।
यानयुग्यानि शोभन्ते बलवष्टिवर्धनम् ॥18॥ यदि प्रथम वर्षा रेवती नक्षत्र में हो तो उस वर्ष 64 आढक प्रमाण जल-वृष्टि । होती है और क्रम से सभी प्रकार का अनाज को समृद्धि होती है। गाजाओं में परस्पर ' बिरोध उत्पन्न होता है, सेना और दंप्द्रधारी:-चूहों की वृद्धि होती है ।। 17-18911
एकोनानिः तु पंचाशदाढकानि समादिशेत्। अश्विन्यां कुरुते यत्र प्रवर्षणमलशयः ॥19॥ 'भवेतामुभये 'सस्ये पोड्यन्त यवनाः शकाः ।
गान्धारिकाश्च "काम्बोजा: पांचालाश्च चतुष्पदाः ।।200 यदि प्रथम वर्षा अश्विनी नक्षत्र में हो तो 49 आदा जल की वर्षा होती है, इसमें कोई भी सन्देह नहीं है । कातिकी और वैशाखी दोनों ही प्रकार की फसल होती है। यवन, शक, गान्धार, काम्बोज, पांचाल और चतुष्पद पीड़ित होते हैं अर्थात उन्हें नाना प्रकार के कष्ट होत हैं ।।19-200
एकोनविंशतिविन्द्यादाढकानि न संशयः । भरवा वासवश्चैव यदा कुर्यात प्रवर्षणम् ॥2॥
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दशमोऽध्यायः
125 व्यागा तीसपारनेल पर गमागे गजः ।
सस्यं कनिष्ठ विज्ञ यं प्रजाः सर्वाश्च दुखिताः ॥22॥ जब प्रथम वर्षा का प्रारम्भ भरणी नक्षत्र में होता है, उस समय वर्ष भर में निस्सन्देह उन्नीस आहक प्रमाण जल की वर्षा होती है। सर्प और सरीसप-. दुमुही, विभिन्न जातियों के सर्पादि, मरण, व्याधि, रोग आदि उत्पन्न होते हैं । अनाज भी निम्न कोटि का उत्पन्न होता है और प्रजा को सभी प्रकार से कष्ट उठाने पड़ते हैं ।।21-221
आढकान्येकपंचाशत् कृत्तिकासु समादिशेत् । तदा त्वपग्रहो जयः सप्तविंशतिरात्रकः ॥23॥ द्वैमासिकस्तदा देवश्चित्रं सस्यमुपद्रवम् ।
निम्नेषु वापयेद् बीजं भयमग्नेविनिदिशेत् ॥24॥ यदि प्रथम वर्षा ऋतिका नक्षत्र में हो तो 51 आठया प्रमाण व समझनी चाहिए और 27 दिनों के बाद अनिष्ट समझना चाहिए । इस वर्ष मेघ दो महीने तक ही बरसते हैं, अनाज की उत्पत्ति में विघ्न आते हैं, अत: निम्न स्थानों में वीज बोना अच्छा होता है । इस वर्ष अग्नि-भय जी कहा है ।।23-2411
आढकान्येकविंशच्च' रोहिण्यामभिवति । अपग्रहं निजानीयात सर्व मेकादशाहिकाम् ।।2।। "सुभिक्ष क्षममारोग्यं नैऋतीयं बहूदकम् ।
स्थलेषु वापयेद् बीजं राज्ञो विजयमादिशेत् ॥26॥ यदि प्रथम बर्षा रोहिणी नक्षत्र में हो तो 91 आढक प्रगाणा उस वर्ष जल बरसता है और 11 दिनों के बाद अपग्रह ...अनिष्ट होता है । उस वर्ष क्षेम, सभिक्ष और आरोग्य समझना चाहिए । नैनत्य दिशा की ओर सवाल उठकर अधिक जल की वर्षा करते हैं । स्थल में बीज बोने पर भी अच्छी फसल उत्पन्न होती है तथा राजा की विजय की सूचना भी समझनी चाहिए ।। 25-26।।
आढकान्येकनवत्ति: सौम्ये प्रवर्षते यदा। 'अपग्रहं तदा विन्द्यात् सर्वमेकादशाहिकम् ॥27॥ महामात्याश्च पोड्यन्ते क्षधा व्याधिश्च जायते ।
क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं दष्ट्रिण: प्रबलास्तदा ।।28।। 1. मत्युव्याधितो वियिधराजः म० A. 2. कनिष्ठक ज्ञेयं । 3. मेधः मु० । 4. न्यायालय 5. विनिदिशेत म.। 6. मुद्रित एति में 'क्षम गभिक्षमाग्य' पाट मिलना है। 7. मदाऽयपग्रह विन्दात् बासमणि चतुर्दश. म. । 8. बदन्याधि विनिदिशेन् 19. गनिता व विज्ञेयं दंष्ट्रिण प्रबलास्तथा ।
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भद्रबाहुसंहिता
यदि प्रथम वर्षा मृगशिरा नक्षत्र में हो तो 91 आढक प्रमाण उस वर्ष जल की वर्षा समझ लेनी चाहिए और ग्यारह (चौदह) दिन के उपरान्त अपग्रह - अनिष्ट समझना चाहिए | प्रधानमन्त्री को पीड़ा तथा अनेक प्रकार के रोग फैलते है । वैसे सुभिक्ष एवं चूहों का प्रकोप उस वर्ष में समझना चाहिए 1127-28॥
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आढकानि तु द्वात्रिंशदाद्रयां चापि निर्दिशे ' । दुर्भिक्षं व्याधिमरणं सस्यंघातमुपद्रवम् ॥29॥ श्रावणे प्रथमे मासे 'वर्ष वा न च वर्षति ।
प्रोष्ठपदं च वषित्वा शेषकालं न वर्षति ॥30॥
यदि प्रथम वर्धा आर्द्रा में हो तो 32 आढक प्रमाण उस वर्ष जल की वर्षा होती है । उस वर्ष दुर्भिक्ष, नाना प्रकार की व्याधियाँ, मृत्यु और फसल को बाधा गहुँचाने वाले अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं। श्रावण मास के प्रथम पक्ष कृष्ण पक्ष में अनेक बार वर्षा होती है, किन्तु भाद्रपद मास में एक बार जल बरसता है, फिर वर्षा नहीं होती |129-3011
आढकान्येकनवत
विन्द्याच्चैव पुनर्वसौ । सस्यं निष्पद्यते क्षिप्रं व्याधिश्च प्रबला' भवेत् ॥३१ ॥
यदि पुनर्वसु नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो 9 आढक प्रमाण उस वर्ष जलवृष्टि होती है, अनाज शीघ्र ही उत्पन्न होता है। रोगों का जोर रहता है ॥३३॥ चत्वारिंशच्च द्वे वाऽपि जानीयादाढकानि च । पुष्येण मन्दवृष्टिश्च निम्ने बीजानि वापयेत् ॥32॥ पक्षमश्वयुजे चापि पक्षं प्रोष्ठपदे तथा । अपग्रहं विजानीयात् बहुलेऽपि प्रवर्षति 11330
पुष्य नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो 42 आढक प्रमाण जल-वृष्टि होती है। पां मन्द मन्द धीरे-धीरे होती है, अतः निम्न स्थानों पर बीज बोने से अच्छी फसल उत्पन्न होती है। आश्विन और भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष में अपग्रह - अनिष्ट होता है तथा वर्षा भी इन्हीं पक्षों में होती है 1132-3311
'चतुष्षष्टिमाढकानीह तदा वर्षति वासवः । यदा श्लेषाश्च कुरुते प्रथमे च प्रवर्षणम् ॥341
1. अभिनिदिशेत् पु० । 2. अयित्वा म
वर्ष
पुनः पुनः
।
3. बलवान् विदुः
4 नाथ मु० 5. माझे सुरु 16. प्रथम मुल् । 7. संख्या 34 का गति प्रति में नहीं है।
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दशमोऽध्यायः
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सस्ययातं विजानीयाद व्याधिभिश्चोदकेन तु।
साधवो दुःखिता ज्ञेया प्रोष्ठपदमपग्रहः ।।35॥ पदि आश्लेषा नक्षत्र में प्रथम जल-वृष्टि हो तो 64 आढक प्रमाण जल की वर्षा होती है । फसल में अनेक प्रकार के रोग लगते हैं, नाना प्रकार के रोगों से जनता में आतंक व्याप्त रहता है, साधुओं को अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं तथा भाद्रपद मास में अपग्रह – अनिष्ट होता है ।। 34-35।।
मघासु खारी विज्ञेया सस्यानाञ्च समुद्भवः ।
कुक्षिव्याधिश्च बलवाननीतिश्च तु जायते ।।36॥ यदि मघा नक्षत्र में प्रथम जल की वर्षा हो तो वारी प्रमाण ... [ 6 द्रोण जलवृष्टि उस वर्ष होती है और अनाज की उत्पत्ति खुब होती है। पेट व नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होती है और अन्याय नोति न प्रचार होता है ।। 36।।
फाल्गुनीषु च पूर्वासु यदा देव: प्रवर्षति । खारी तदाऽदिशेत पूर्णा तदा स्रीणां सुखानि च ॥3711 सस्यानि फलवन्ति स्युवाणिज्यानि दिन्ति च ।
अपग्रहश्चतुस्त्रिशच्छावणे सप्तराविकः ॥38॥ यदि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो जग वर्ग वारी प्रमाण ..16 द्रोण जल की वर्षा होती है। स्त्रियों को अनेक प्रकार का सुख प्राप्त होता है। कृषि और वाणिज्य दोनों ही सफल होते हैं 1 24 दिनों के पश्चात् अर्थात् श्रावण मास में 7 दिन व्यतीत होने पर अपग्रह... अनिष्ट होता है ।। 37-38।।
उत्तरायां तु फालान्यां षष्टि सप्त च निदिर्शत। आढकानि सुभिक्ष च क्षेममारोग्यमेव च ।।3।। बहुजा दीना शीलाश्च धर्मशीलाश्च साधवः ।
अपग्रहं विजानीयात् कातिके द्वादशाहिकम् ।।40॥ उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो उस वर्ष 67 आढक प्रमाण जल की वर्षा होती है तथा भिक्ष, क्षेम और आरोग्य की प्राप्ति होती है। सभी मनुष्यों में दानशीलता और माधुओं के धर्मशीलता की वृद्धि होती हैं। कानिया गाम में 12 दिन व्यतीत होने पर अपग्रह–अनिष्ट होता है ।।39-41।।
पश्चाशीति विजानीयात् हस्ते प्रवर्षणं यदा। तदा निम्नानि चाप्यानि पंचवर्णं च जायते ।।4।।
1 मिन्द्यान मु। 2. च नमुन्द्रम् म् । 3. दानशीनाश्च गमला म.. |
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भद्रबाहुसंहिता
संग्रामाश्चानुक्र्धन्ते शिल्पकानां सुखोत्तमम् । श्रावणाश्वयुजे मासि तथा कातिकमेव च ॥42।। अपग्रहं विजानीयान्मासि मासि दशाहिकम्।
चौराश्च बलवन्त: स्युरुत्पद्यन्ते च पार्थिवाः ॥43॥ हस्त नक्षत्र में जब प्रथम वर्षा होती है तो 85 आढक प्रमाण जल उस वर्ष बरसता है। निम्न स्थानों को वापियां-वावड़ियाँ पंचवर्गात्मक हो जाती हैं। इस वर्ष में युद्ध की वृद्धि होती है, शिल्पियों को उत्तम सुख प्राप्त होता है। श्रावण, आश्विन और कात्तिक इन तीनों महीनों में से प्रत्येक महीने में 10 दिन तक अपग्रह– अनिष्ट समझना चाहिए । चोर, गेना-योद्धा और नपतियों की उत्पत्ति होती है अर्थात् उस वर्ष चोरों की, सैनिकों की और नपतियों को कार्यसिद्धि होती है।।41-430
द्वात्रिशमाढकानि स्युश्चित्रायां च प्रवर्षणम्। चिन्न विन्द्यात् तदा सस्यं चित्रं वर्ष प्रवर्षति ॥44।। निम्नेषु वापयेद बीजं स्थलेषु परिवर्जयेत् ।
मध्यमं तं विजानश्याद् भद्रबाहुवचो यथा ॥45॥ चित्रा नक्षत्र में जिस वर्ष प्रथम वर्षा होती है, उस वर्ष 32 आढक प्रमाण जल की वर्षा होती है । अनाज की उत्पत्ति भी विचित्र रूप से होती है और यह वर्ष भी विचित्र ही होता है । इस वर्ग निम्न स्थानों --आर्द्र स्थानों में बीज बोना चाहिए, ऊंचे स्थलों में नहीं, क्योंकि यह वर्ष मध्यम होता है, ऐशा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।।44-4541
द्वात्रिंशदाढकानि स्युः स्वाती स्याच्चेत प्रवर्षणम्।
"वायुरग्निरनावृष्टिः मासमेकं तु वर्षति ।।46॥ स्वाति नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो 32 आढक प्रमाण बुष्टि होती है। इस वर्ष में एक ही महीने तक जल की वर्षा होती है । वायु चलता है, अग्नि बरसती है तथा अनावृष्टि होती है ।।4611
विशाखासु विजानीयात् खारोमेकां न संशयः। सस्यं निष्पद्यते चापि वाणिज्यं पीडयते तदा 147
1. यूजी म. | 2. मासौ गु० । 3. मासे गासे मु०। 4. वर्षण यदा मुः। 5. बिनिदिशेत् 6. वायुवष्टिाना वग्रिमासमेव न वर्षनि म । 7. साधिराशय गु !
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दशमोऽध्यायः
अपग्रहं तु जानीयाद् दशाहं प्रौष्ठपादिकम् । क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं तां समां' नात्र
संशयः ॥148
विशाखा में प्रथम दृष्टि हो तो एक खारी प्रमाण 16 द्रोण निस्सन्देह् जल बरसता है । फसल बहुत अच्छी होती है तथा व्यापार भी निर्बाध रूप से चलता है । भाद्रपद मास में दश दिन जाने पर अपग्रह — अनिष्ट होता है । यों इस वर्ष में निस्सन्देह क्षेम, सुभिक्ष, आरोग्य की स्थिति होती है ॥ 47-48॥
जानीयादनुराधायां खारीमेकां" प्रवर्षणम् । तदा सुभिक्षं सक्षेमं परचक्र प्रशाम्यति ॥49॥ दूरं प्रवासिका यान्ति धर्मशीलाश्च मानवाः । मैत्री च स्थावरा ज्ञेया शाम्यन्ते चेतयस्तदा ॥50॥
यदि अनुराधा नक्षत्र में प्रथम जल-वृष्टि हो तो एक खारी प्रमाण -- 16 द्रोण प्रमाण जल उस वर्ष बरसता है। दम, सुनिक और आरोग्य रहते हैं तथा परशासन भी शान्त रहता है। इस वर्ष दूर के प्रवासी भी वापस आते हैं, सभी व्यक्ति धर्मात्मा रहते हैं। मित्रता स्थिर होती है तथा भय और आतंक नष्ट होते जाते हैं 1149-5011
ज्येष्ठायामाढकानि स्युर्दशश्चाष्टी' विनिर्दिशेत् ।
1
स्थलेषु वापयेद् बीजं तदा भूदाहविद्रवम* ॥51॥
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ज्येष्ठा नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो 18 आढक प्रमाण जल-वृष्टि होती है । स्थल में बीज बोने पर भी फसल उत्तम होती है। किन्तु भूकम्प, भूदाह, आदि उपद्रव भी होते हैं । तात्पर्य यह है कि ज्येष्ठा नक्षत्र की प्रथम वर्षा फसल के लिए उत्तम है ।।5।।
मूलेन खारी विज्ञेया सस्यं सर्वं समृद्ध्यति
एक मूलानि पीड्यन्ते 'वर्द्धन्ते तस्करा अपि ॥15211
मूल नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो एक खाने प्रमाण जल बरसता है और सभी प्रकार के अनाजों की उत्पत्ति खूब होती है । सैनिक योद्धा पीड़ा प्राप्त करते हैं तथा चोरों की वृद्धि होती है |52||
2
वर्षे यदा मु० |
1. सस्यं सम्पद्येत् सर्व वाणिज्य पीड्यते न हि 3. क्षेमं सुभिक्षमा ग्यं मु० : 4. चतुष्टिए । 5. विद्रवः गु० । 6. विजानीयात् मु० । 7. चौराश्च प्रचलाश्न ये
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भद्रबाहुसंहिता
एतद् व्यासेन कथितं 'समासान्छु यतां पुन: ।
भद्रबाहुवचः श्रुत्वा मतिमानवधारयेत् ॥53॥ यह विस्तार से वर्णन किया है, संक्षेप में पुन: सुनिये । भद्रबाहु के वचनों को सुनकर बुद्धिमानों को उनका अवधारण करना वाहिए ।।53॥
द्वात्रिंशदाढकानि स्युः नक्रमासेषु निदिशेत् ।
समक्षेत्रे द्विगुणितं तत् त्रिगुणं वाहिकेषु च ।।54॥ नक्रमारा---धावण मास में 32 आढक प्रमाण वर्षा हो तो समक्षेत्र में दुगुनी और निम्न स्थल-आर्द्र स्थलों में तिगुनी फसल होती है ।154||
उल्कावत् साधनं चात्र वर्षणं च विनिर्दिशेत् ।
शुभाशुभं तदा वाच्यं सम्यग् ज्ञात्वा यथाविधि ॥5511 उल्का के समान वर्षण की सिद्धि भी कर लेनी माहिए तथा सम्यक प्रकार जानकर के शुभाशुभ फल का निरूपण करना चाहिए ॥550 इति भद्रबाहुके संहितायां महान मितशास्त्र सकलमारसमुच्चयवर्षको
नाम दशमोऽध्याय: परिसमाप्तः । विवेचन--वर्षा का विचार यद्यपि पूर्वोक्त अध्यायों में भी हो चुका है, फिर भी प्राचार्य विशेष महत्ता दिखलाने के लिए पुन: विचार करते हैं। प्रथम वर्षा जिस नक्षत्र में होती है, उसी के अनुसार वर्षा के प्रमाण का विचार किया गया है। आचार्य ऋषिपुत्र ने निम्न प्रकार वर्षा का विचार किया है।
आदि मार्गशीर्ष महीने में पानी बरसता है तो ज्येष्ठ के महीने में वर्षा का अभाव रहता है । यदि पौण भारा में बिजली चमककर पानी बरसे तो आषाढ़ के महीने में अच्छी वर्षा होती है। माघ और फाल्गुन महीनों के शुक्लपक्ष में तीन दिनों तवा पानी बरसता रहे तो छठे और नोवें महीने में अवश्य पानी बरसता है। यदि प्रत्येक महीने में आवाज में बादल आनादित रहे तो उस प्रदेश में अनेक प्रकार की बीमारियां होती हैं। वर्ष के आरम्भ में यदि कृत्तिका नदात्र में पानी बरसे तो अनाज की हानि होती है और उस वर्ष में अतिवृष्टि या अनावृष्टि का भी योग रहता है । रोहिणी नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने पर भी देश की हानि होती है तथा असमय में वर्षा होती है, जिससे फसल अच्छी नहीं उत्पन्न होती । अनेक प्रकार की व्याधियाँ तथा अनाज की महँगाई भी इस नक्षत्र में पानी बरसने से होती है। परस्पर कलह और विसंवाद भी होते हैं । मृगशिर नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने से अवश्य सुभिक्ष होता है। फसल भी अच्छी उत्पन्न होती है । यदि सूर्य नक्षत्र
J. समारोन गनः शृणु। 2. त्रिगुणं व्याधितषु च म । 3. ततो म्.. ! 4. क्रमम् मुः ।
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मृगशिर हो तो खण्डवृष्टि होती है तथा कृषि में अनेक प्रकार के रोग भी लगते हैं। इस नक्षत्र की वर्षा व्यापार के लिए भी उत्तम नहीं है । राजा या प्रशासक को भी कष्ट होते हैं। मन्त्री-पुत्र या विसी बड़े अधिकारी की मृत्यु भी दो महीने में होती है। आर्द्रा नक्षत्र में प्रथम जल-वृष्टि हो तो खण्डवृष्टि का योग रहता है, फसल साधारणतया आधी उत्पन्न होती है । चीनी, गुड़, और गधु का भाव सस्ता रहता है । वेद रंग के पदार्थों में हाई अाई है। पुनर्वसु नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो एक महीने तक लगातार जल बरसता है। फसल अच्छी नहीं होती तथा बोया गया बीज भी मारा जाता है। आश्विन और कात्तिक में वर्षा का अभाव रहता है और सभी वस्तुएं प्रायः महंगी होती हैं, लोगों में धर्माचरण की प्रवृत्ति होती है। रोग-व्याधियों के लिए उक्त प्रनार का वर्ष अत्यन्त अनिष्टकर होता है, सर्वत्र अशान्ति और असन्तोष दिखलाई पड़ता है; तो साधारण जनता का ध्यान धर्म-साधन की ओर अवश्य जाता है । पुष्य नक्षत्र में प्रथम जल वर्षा होने पर समयानुकुल जल की वर्षा एक वर्ष तक होती रहती है, कृषि बहुत उत्तम होती है, खाद्यान्नों के सिवाय फलों और मेवों को अधिक उत्पत्ति होती है। प्रायः समस्त वस्तुओं के भाव गिरते हैं। जनता में पूर्णतया शान्ति रहती है, प्रशासक वर्ग की समृद्धि बढ़ती है। जनसाधारण में परस्पर विश्वास और सहयोग की भावना का विकास होता है । यदि आश्लेषा नक्षत्र में
प्रथम जल की वर्षा हो तो बर्षा उत्तम नहीं होती, फसल की हानि होती है, जनता E में असन्तोष और अशान्ति फैलती है । सर्वत्र अनाज की कमी होने से हाहाकार
व्याप्त हो जाता है। अग्नि'भय और शस्त्रभय का आतङ्क उस प्रदेश में अधिक में रहता है। चोगी और लूट का व्यापार अधिक बढ़ता है । दैन्य और निराशा
का संचार होने से राष्ट्र में अनेक प्रकार के दोष प्रविष्ट होते हैं। यदि इस नक्षत्र A में वर्षा के साथ ओले भी गिरें तो जिस प्रदेश में इस प्रकार की वर्षा हुई है, उस
प्रदेश के लिए अत्यन्त भयकारक समझना चाहिए । उक्त प्रदेश में प्लेग, हैजा जैसी संक्रामक बीमारियाँ अधिक बढ़ती हैं, जनसंख्या घट जाती है । जनता सब तरह से कष्ट उठाती है। आश्लेषा नक्षत्र में तेज वायु के साथ वर्मा हो तो एक वर्ष पर्यन्त उक्त प्रदेश को कष्ट उठाना पड़ता है. धूल और कांकड़ पत्थरों के साथ वर्षा हो तथा चारों ओर बादल मण्डलाकार बन जाएं, तो नियत: उस प्रदेश में अकाल पड़ता है तथा पशुओं की भी हानि होती है और अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं। प्रशासक वर्ग के लिए उक्त प्रकार की वर्षा भी कष्टकारक होती है।
यदि मघा और पूर्वा फाल्गुनी में प्रथम वर्षा हो तो समयानुकूल वर्षा होती है, फसल भी उत्तम होती है । जनता में सब प्रकार का अमन-चैन व्याप्त रहता है। कलाकार और शिल्पियों के लिए उक्त नक्षत्रों की वर्षा कष्टप्रद है तथा
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मनोरंजन के साधनों की कमी रहती है । राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से उक्त नक्षत्रों की वर्षा साधारण फल देती है। देश में सभी प्रकार की समृद्धि बढ़ती है और नागरिकों में अभ्युदय की वृद्धि होती है । यद्यपि उक्त नक्षत्रों को वर्षा फसल की वृद्धि के लिए शुभ है, पर आन्तरिक शान्ति में बाधक होती है। भीतरी आनन्द प्राप्त नहीं हो पाता और भान्तरिक अशान्ति बनी ही रह जाती है। उत्तरा फाल्गुनी और हस्त नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने से सुभिक्ष और आनन्द दोनों की ही प्राप्ति होती है । वर्षा प्रचुर परिमाण में होती है, फसल की उत्पत्ति भी अच्छी होती है । विशेषतः धान की फसल खूब होती है । पशु-पक्षियों को भी शान्ति और सुख मिलता है। तृण और धान्य दोनों की उपज अच्छी होती है। आर्थिक शान्ति के विकास के लिए उक्त नक्षत्रों में वर्षा होना अत्यन्त शुभ है। गुड़ की फसल बहुत अच्छी होती है तथा गुड़ का भाव भी सस्ता रहता है । जूट की फसल साधारण होती है. इसका भाव भी आरम्भ में सस्ता, पर आगे जाकर तेज हो जाता है । व्यापारियों के लिए भी उक्त नक्षत्रों की वर्षा सुखदायक होती है । साधारणतः व्यापार बहुत ही अच्छा चलता है। देश में कल-कारखानों का विकास भी अधिक होता है । चित्रा नक्षत्र में प्रथम जल की वर्षा हो तो वर्षा अत्यन्त कम होती है, परन्तु भाद्रपद और आश्विन में वर्षा का योग अच्छा रहता है। स्वाती नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने से मामूली वर्षा होती है । श्रावण मास में अच्छा पानी बरसता है, जिससे फसल अच्छी हो जाती है। कात्तिकी फसल साधारण ही रहती है, पर चैत्री फसल अच्छी हो जाती है; क्योंकि उक्त नक्षत्र की वर्षा आश्विन मास में भी जल की वर्षा का योग उत्पन्न करती है । यदि विशाखा और अनुराधा नक्षत्र में प्रथम जल की वर्षा हो तो उस वर्ष खूब जल-वृष्टि होती है । तालाब और पोखरे प्रथम जल की वर्षा से ही भर जाते हैं ! धान, गेहूँ, जूट
और तिलहन की फसल विशेष रूप से उत्पन्न होती है । व्यापार के लिए यह वर्ष साधारणतया अच्छा होता है । अनुराधा में प्रथम वर्षा होने से गेहूँ में एक प्रकार का रोग लगता है जिससे गेहूं की फसल मारी जाती है। यद्यपि गन्ना की फसल बहुत अच्छी उत्पन्न होती है। व्यापार की दृष्टि से अनुराधा नक्षत्र की वर्षा बहुत उत्तम है । इस नक्षत्र में वर्षा होने से व्यापार में उन्नति होती है । देश का आर्थिक विकास होता है तथा काला-कौशल की भी उन्नति होती है । ज्येष्ठ नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने से पानी बहुत कम बरसता है, पशुओं को कष्ट होता है । तृण की उत्पत्ति अनाज की अपेक्षा कम होती है, जिससे पालतू पशुओं को कष्ट उठाना पड़ता है । मवेशी का मूल्य सस्ता भी रहता है । दूध की उत्पत्ति भी कम होती है। उक्त प्रकार की वर्षा देश की आर्थिक क्षति की धोतिका है। धन-धान्य की कमी होती है, संक्रामक रोग बढ़ते हैं । चेचक का प्रकोप विशेष रूप से होता है। सम-शीतोष्ण वाले प्रदेशों को मौसम बदल जाने से यह वर्षा विशेष कष्ट की
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सूचिका है । तिलहन और तल का भाव महंगा रहता है. धन की कमी रहती है तथा प्रशासक और बड़े धनिक व्यक्तियों को भी कष्ट उठाना पड़ता है। सेना में परस्पर विरोध और जनता में अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं। साधारण व्यक्तियों को अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं। आश्विन और भाद्रपद के महीनों में केवल सात दिन वर्षा होती है तथा उक्त प्रकार की वर्षा फाल्गुन मास में घनघोर वर्षा की सूचना देती है जिससे फसल और अधिक नष्ट होती है । चैत्र के महीनों में जल बरसता है तथा ज्येष्ठ में भयंकर गर्मों पड़ती है जिससे महान् कष्ट होता है।
यदि मूल नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो उस वर्ष सभी महीनों में अच्छा पानी बरसता है। फसल भी अच्छी उत्पन्न होती है। विशेष रूप से भाद्रपद और आश्विन में समय पर उचित वर्षा होती है, जिससे दोनों ही प्रकार की फसलें बहुत अच्छी उत्पन्न होती हैं । व्यापार के लिए भी उक्त प्रकार की वर्षा अच्छी होती है । खनिज पदार्थ और वन-सम्पत्ति की वृद्धि के लिए उक्त प्रकार की वर्षा बहुत अच्छी होती है । मूल नक्षत्र की वर्षा यदि गर्जना के साथ हो तो माघ में भी जल की वर्षा होती है । बिजुली अधिक बड़के तो फसल में कमी रहती है शान्त और सुन्दर मन्द-मन्द वायु चलते हुए वर्षा हो तो सभी प्रकार की फसलें अत्युत्तम होती हैं । धान की उत्पत्ति अत्यधिक होती है । गाय-बैल आदि मवेशी को भी चावल खाने को मिलते हैं। चावल का भाव भी सस्ता रहता है । गेहूँ, जो और चना की फसल भी साधारणत: उत्तम होती है। चने का भाव अन्य अनाजों की अपेक्षा महंगा रहता है तथा दाल वाले सभी अनाज महंगे होते हैं। यद्यपि इन अनाजों की उत्पत्ति भी अधिक होती है फिर भी इनका मूल्य वृद्धिंगत होता है। उत्तराषाढ़ नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो अच्छी वर्षा होती है तथा हवा भी तेजी से चलती है। इस नक्षत्र में वर्षा होने से चैत्र वाली कगल बहुत अच्छी होती है, अगहनी धान भी अच्छा होता है। किन्तु कात्तिकी अनाज कम उत्पन्न होते हैं। नदियों में बाढ़ आती है, जिससे जनता को अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने पड़ते हैं । भाद्रपद और पौष में हवा चलती है, जिससे फसल को भी क्षति होती है। श्रवण नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो कार्तिक मास में जल बा अभाब और अवशेष महीनों में जल की वर्षा अच्छी होती है। भाद्रपद में अच्छा जल वरसता है, जिससे धान, मकई, ज्वार और बाजरा की फरालें भी अच्छी होती हैं । आश्विन में जल की वर्षा शुगल पक्ष में होती है जिसमें फसल अच्छी हो जाती है। गेहूँ में एक प्रकार का कीड़ा लगता है, जिससे इसकी फसल में क्षति उठानी पड़ती है। उक्त प्रकार की वर्षा आग्विन, कात्तिक और चैत्र के महीनों में रोगों की सूचना देती है। छोटे बच्चों को अनेक प्रकार के रोग होते हैं। स्त्रियों के लिए यह वर्षा उत्तम है, उनका सम्मान बढ़ता है तथा ये सब प्रकार
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से शान्ति प्राप्त करती हैं । धनिष्ठा नक्षत्र में जल की वर्षा होने पर पानी श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कात्तिक, माघ और वैशाख में खूब बरसता है। फसल । कहीं-कहीं अतिवृष्टि के कारण नष्ट भी हो जाती है । आर्थिक दृष्टि से उक्त प्रकार की वर्षा अच्छी होती है। देश के वैभव का भी विकास होता है। यदि गर्जन-जन के साथ उक्त नक्षत्र में वर्षा हो तो उपर्युक्त फल का चतुर्थांश फल कम समझना चाहिए । व्यापार के लिए भी उक्त प्रकार की वर्षा मध्यम है । यद्यपि विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ता है तथा प्रत्येक वस्तु के व्यापार में लाभ होता है । धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में ही जल की वर्षा हो तो फसल उत्तम और अन्तिम तीन घटियों में जल बरगे तो साधारण फल होता है और वर्षा भी मध्यम ही होती है। शतभिषा नक्षत्र में जल की प्रथम वर्षा हो तो बहुत पानी बरसता है। अगहनी फमाल मध्यम होती है, पर चैती फसल अच्छी उपजती है। व्यापार में हानि उठानी पड़ती है, जूट और चीनी के व्यापार में साधारण लाभ होता है । पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के आरम्भ की पांच घटियों में जल भरमे तो फसल मध्यम और बर्ग भी मध्यम होती है । माघ मास में वर्षा का अभाव होने से चैती फसल में कमी आती है । यद्यपि चातुर्मास में जल ग्वय बरसता है, फिर भी फसल में न्यूनता रह जाती है । अन्तिम की घटियों में जल की बर्षा होने से अगहन में पानी की वर्षा होती है. प.मल भी अपनी उत्पन्न होती है। धान की फसल में रोग लग जाती हैं, फिर भी फसल मध्यम हो ही जाती है। यदि उक्त नक्षत्र के मध्य भाग में वर्षा हो तो अधिनः जल की वर्षा होती है तथा आवश्यकतानुसार जल बरसने से फसल बहत अग होती है। व्यापारियों के लिए उक्त प्रकार की वर्षा हानि पहुंचाने वाली होती है। यदि उनराभाद्रपद विद्ध पूर्वाभाद्रपद में वर्षा आरम्भ हो तो शामकों के लिए अशुभकारक होती है तथा देश की सद्धि में भी कमी आती है।
उन राभाद्रपद नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो चातुर्मास में अच्छी वर्षा होती है। 'रा। सीट के कारण मुक, विगढ़ जाती है। यात्तिक मास में आने वाली भी होनी है। चैती फसल अच्छी होती है । ज्वार और बाजरा को उत्पति कान ५. होती है। उत्तराभाद्रपद के प्रथम चरण में वर्षा आरम्भ होसार बन्द हो जाय तो कानिक में पानी नहीं बरसता, अवशेष महीनों में वर्षा होती है । फसल भी उत्तम होती है । द्वितीय चरण में वर्षा होकर तृतीय चरण में समाप्त हो तो वाभियानुवारल होती है और काल भी उत्तम होती है। यदि उत्त समाया कततीय चरण में बार्ग हो तो चातुसि में रा होने को साथ मार्गशीर्ष और माघ मास में भी पर्याप्त वा होती है । चतुर्थ चरण में वर्षा आरम्भ हो तो भाद्रपद मास में अत्यला पानी बरसता है ! आशिया मारा म साधारण वर्षा होती है। माम मास में चर्चा होर का कारण गहुँ-चने की फसल वहुत अच्छी
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होती है। रेवती नक्षत्र में वर्षा आरम्भ हो तो अनाज का भाव ऊँचा हो जाता है, वर्षा साधारणत: अच्छी होती है। श्रावण मास के शुक्लपक्ष में केवल पाँच दिन ही वर्षा होने का योग रहता है। भाद्रपद और आश्विन में यथेष्टं जल बरसता है । भाद्रपद मास में वस्त्र और अनाज होते हैं। कि मास के अन्त में भी जल की वर्षा होती है । रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में वर्षा होने पर चातुर्मास में यथेष्ट वर्षा होती है तथा पौप और माघ में भी वर्षा होने का योग रहता है । वस्तुओं के भाव अच्छे रहते हैं। गुड़ के व्यापार में अच्छा लाभ होता है। देश में सुभिक्ष और सुख-शान्ति रहती है । यदि रेवती नक्षत्र लगते ही वर्षा आरम्भ हो जाय तो फसल के लिए मध्यम है; क्योंकि अतिवृष्टि के कारण फसल खराब हो जाती है | चेती फसल उत्तम होती है, अगहनी में भी कमी नहीं आती; केवल कार्तिकीय फसल में कमी आती है । भोट अनाजों की उत्पत्ति कम होती है । श्रावण के महीने में प्रत्येक वस्तु महंगी होती है। यदि रेवती नक्षत्र के तृतीय चरण में वर्षा हो तो भाद्रपद माग सूखा जाता है; केवल हल्की वर्षा होकर रुक जाती है। आश्विन मास में अच्छी वर्षा होती हैं, जिससे फसल साधारणतः अच्छी हो जाती है। श्रावण से आश्विन मास तक सभी प्रकार का अनाज महंगा रहता है । अन्य वस्तुओं में साधारण लाग होता है। श्री का भाव इस वर्ष अधिवा ऊँचा रहता है। मवेशी की भी कभी रहती है, मवेशी में एक प्रकार का रोग फैलता है, जिससे मवेशी को क्षति होती है । द्वितीय चरण के अन्त में वर्षा आरम्भ : होने पर वर्ष के लिए अच्छा फलादेश होता है। गेहूं, चना और गुड़ का भाव
प्रायः सस्ता रहता है, केवल मूल्यवान् धातुओं का भाव ऊँचा उठता है। खनिज पदार्थों की उत्पत्ति इस वर्ष अधिक होती है तथा इन पदार्थों के व्यापार में भी लाभ रहता है । रेवती नक्षत्र के तीय ना में वर्षा हो तो अवका योग समझना चाहिए। श्रावण की पांच दिन भादा में तीन ओर खिन में आठ दिन जल की वर्षा होती है। फसल निकृष्ट श्रेणी की उत्पन्न होती है, वस्तुओं के भाव महेंगे रहते हैं | देश में अशान्ति और लूट-पाट अधिक होती है। चतुर्थ चरण में वर्षा होने से समयानुकूल पानी बरसता है. फसल भी अच्छी होती है । व्यापारियों के लिए भी यह वषां उत्तम होती है। यदि रेवती नक्षत्र का क्षय हो और अश्विनी में वर्षा आरम्भ हो तो इस वर्ष अच्छी वर्षा होती है; पर मनुष्य और पशुओं को अधिक शीत पड़ने के कारण महान् कष्ट होता है । फसल को भी पाला मारता है । यदि अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण में वर्षा आरम्भ होतो चातुर्मास में अच्छी वर्षा होती है, फसल भी अच्छी उत्पन्न होती है। विशेषत चंती फसल बड़े जोर की उपजती है तथा मनुष्य और पशुओं को सुख-शान्ति प्राप्त होती है। यद्यपि इस वर्ष वायु और अग्नि का अधिक प्रकोप रहता है । फिर भी किसी प्रकार की बड़ी क्षति नहीं होती है। ग्रीष्म ऋतु में लू अधिक
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चलती है, तथा इस वर्ष गर्मी भी भीषण पड़ती है । देश के नेताओं में मतभेद एवं उपद्रव होते हैं । व्यापारियों के लिए उक्त प्रकार की वर्षा अधिक लाभदायक होती है। प्रथम चरण के लगते ही वर्षा का आरम्भ हो और समस्त नक्षत्र के अन्त तक वर्षा होती रहे तो वर्ष उत्तम नहीं रहता है । चातुर्मास के उपरान्त जल नहीं बरसता, जिससे फसल अच्छी नहीं होती । तृतीय चरण में वर्षा होने पर पौष में वर्षा का अभाव तथा फाल्गुन में वर्षा होती है । इस चरण में वर्षा का आरम्भ होना साधारण होता है । वस्तुओं के भाव नीचे गिरते हैं । आश्विन मास से वस्तुओं के भावों में उन्नति होती हैं । व्यापारियों को अशान्ति रहती है, बाजार भाव प्रायः अस्थिर रहता है। चतुर्थ चरण में वर्षा आरम्भ होने पर इस वर्ष उत्तम वर्षा होती है । सभी प्रकार के अनाज अच्छी तादाद में उत्पन्न होते हैं । भरणी नक्षत्र में वर्षा आरम्भ हो तो इस वर्ष प्रायः वर्षा का अभाव रहता है या अल्प वर्षा होती है। फसल के लिए भी उक्त नक्षत्र में जल की वर्षा होना अच्छा नहीं है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ भी उक्त नक्षत्र में वर्षा होने पर फैलती हैं । यदि भरणी का क्षय हो और कृत्तिका भरणी के स्थान पर चल रहा हो तो प्रथम वर्षा के लिए बहुत उत्तम है । भरणी के प्रथम और तृतीय चरण बहुत अच्छे हैं, इनके होते वर्षा होने पर फसल प्राय अच्छी होती है, जनता में शान्ति रहती है । यद्यपि उक्त चरण में वर्षा होने पर भी जल की कमी ही रहती है, फिर भी फसल हो जाती है । द्वितीय और चतुर्थ चरण में वर्षा हो तो वर्षा के अभाव के साथ फसल का भी अभाव रहता है । प्रायः सभी वस्तुएं महंगी हो जाती हैं, व्यापारियों को भी साधारण ही लाभ होता है | नाना प्रकार की व्याधियाँ भी फैलती हैं ।
यहाँ वर्षा का आरम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को मानना होगा तथा उसके बाद ही या उसी दिन जो नक्षत्र हो उसके अनुसार उपर्युक्त क्रम से फलाफल अवगत करना चाहिए। समस्त वर्ष का फल श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से ही अवगत किया जाता है | )
वर्षा का प्रमाण निकालने क. विशेष विचार जिस समय सूर्य रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करे, उस समय चार घड़ा सुन्दर स्वच्छ जल मंगाएं और चतुष्कोण घर में गोबर या मिट्टी से लीपकर पवित्र चौक पर चारों बड़ों को उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम क्रम से स्थापित कर दें और उन जलपूरित घड़ों को उसी स्थान पर रोहिणी नक्षत्र पर्यन्त 15 दिन तक रखें, उन्हें तनिक भी अपने स्थान से इधर-उधर न उठाएँ । रोहिणी नक्षत्र के बीत जाने पर उत्तर दिशा वाले घड़े के जल का निरीक्षण करें। यदि उस घड़ा में पूर्णवार समस्त जन मिले तो श्रावण भर खूब वर्षा होगी। आधा खाली होवे तो आधे महीने वृष्टि और चतुर्थांश जल अवशेष हो तो चौथाई वर्षा एवं जल से शुन्य घड़ा देखा जाय तो श्रावण में प का अभाव समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि उत्तर दिशा के बड़े के जलप्रभाण
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'से ही श्रावण में वर्षा का अनुमान लगाया जा सकता है। जितना कम जल घड़े में रहेगा, उतनी ही कम वर्षा होगी। इसी प्रकार पूर्व दिशा के घड़े से भाद्रपद मास की वर्षा, दक्षिण दिशा के घड़े से आश्विन मास की वर्षा, और पश्चिम के घड़े के जल से कात्तिक की वर्षा का अनुमान करना चाहिए। यह एक अनुभूत और सत्य वर्षा परिज्ञान का नियम है ।
ਕ
1
उसर-- श्रावण
4
पश्चिम -कार्तिकः वेदी या चतुष्कोण घर का भाग
2
-भाद्रपद
पूर्व --
3
दक्षिण- आश्विन
वर्षा का विचार रोहिणी चक्र के अनुसार भी किया जाता है। 'वर्षप्रबोध'
में मेवविजय गणि ने इस चक्र का उल्लेख निम्न प्रकार किया है :
राशिचक्रं लिखित्यादौ मेषसंक्रान्ति नादिकम् । अष्टाविंशतिकं तत्र लिखेन्नक्षत्र संकुले || सन्धौ द्वयं जलं दद्यादन्यचैकैकमेव च ।
चत्वारः सागरास्तत्र
सन्धयश्चाष्टसंख्यया ॥
ग्राणि तत्र चत्वारि तदान्यष्टौ स्मृतानि च ।
रोहिणी पतिता यत्र ज्ञेयं तत्र जाता जलप्रदस्यैपा चन्द्रस्य समुद्र ेति महावृष्टिस्तटे वृष्टिश्च शोभना । पर्वत बिन्दुमात्रा च खण्डवृष्टिश्च सन्धिषु । सन्धी वणिम् गृहे वासः पर्वते कुम्भकुद्गृहे ॥ मालाकारगृहे सिन्धी रजकस्य गृहे तटे ।
अर्थात् सूर्य की मेष संक्रान्ति के समय जो चन्द्र नक्षत्र हो, उसको आदि कर
शुभाशुभम् ॥ परमप्रिया ।
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अट्ठाईस नक्षत्रों को क्रम से स्थापित करना चाहिए । इनमें दो-दो शृग में, एकएक नक्षत्र सन्धि में. और एक-ए। तर में स्थापित करें। यदि उक्त क्रम से . रोहिणी समुद्र में पड़े तो अधिक वपा, शृग में पड़े तो थोड़ी वर्षा, सन्धि में पड़े तो वर्थाभाव और तट में पड़े तो अच्छी वर्षा होती है। यदि रोहिणी नक्षत्र सन्धि में हो तो वैश्य के घर, पर्वत पर हो तो कुम्हार के घर, सिन्धु में हो तो माली के घर और तट में हो तो धोबी के धर रोहिणी का वास समझना चाहिए। रोहिणी चक्र में अश्विनी नक्षत्र के स्थान पर मेष सूयं संक्रान्ति का नक्षत्र रखना होगा।
रोहिणी-चक्र
सरा भाद्रपद मान्धी
|
सन्धि रोहिणी -
(भादर
तर ।
मिन्य
अशिनी
आदर्श
कृत्तिका
भरणी
मृगशिर
गतभिषा मन्धि
सन्धि
धान तथा
»
नट
पुनसु
सिन्धु
अभिजित
आरलेपन
श्रवण
!
मघा तट
उत्तरापानात मादी सन्धि
सिन्धु स्वाती
सन्धि पूर्वाफामानी
विशा
सन्धि दस्त /
... मान्यता
(वर्ष का विचार एवं अन्य फलादेश - यदि माघ मास में मम आनछादित रहें और चैत्र में आकाश निर्मल रहे तो पृथ्वी में धान्य अधिक उत्पन्न हों और
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वर्षा अधिक मनोरम होती है । चैत्र शुक्लपक्ष में आकाश में बादलों का छाया रहना शुभ समझा जाता है। यदि दैत्र शुक्ला पंचमी को रोहिणी नक्षत्र हो और इस दिन बादल आकाश में दिखलाई पड़ें तो निपचय से आमामी वर्ष अच्छी वर्षा होती है । सुभिक्ष रहता है तथा प्रशा में सुख-शान्ति रहती है। सूर्य जिस समय या जिस दिन आदी में प्रवेश करता है, उस समय था उस दिन के अनुसार भी वर्षा और सुभिक्ष का फल ज्ञात किया जाता है। आचार्य मेघ महोदय गार्ग ने लिखा है कि सूर्य रविवार के दिन आ नक्षत्र में प्रवेश करे तो वर्षा का अभाव या अल्पवृष्टि, देश में उपद्रव, पशुओं का नाश, फसल की कमी, अन्न का भाव महँगा एवं देश में उपद्रव आदि फल घटित होता हैं। सोमवार को आर्द्रा में रवि का प्रवेश हो तो समयानुकल यथेष्ट वर्षा, मभिश्न, शान्ति, परस्पर मेल-मिलाप की वृद्धि, सहयोग का विकास, देश को उन्नति, व्यापारियों को लाभ, तिलहन में विशेष लाभ, बस्त्र-व्यापार का विकाम एवं घत मस्सा होता है । मगलवार को आर्द्रा में रविना प्रवेश हो तो देश में धन की हानि, अग्निभय, कलह-विसंवादों की वृद्धि, जनता में परस्पर संघर्ष, चोर-गुटेरों की उन्नति, साधारण वर्मा, फसल में कमी और वन एवं खनिज पदार्थों की उत्पत्ति में कमी होती है। बुधवार को आर्दी में सूर्य का प्रवेश हो तो प्रच्छी वां, सुभिक्ष, धान्य भाव सरसा, रस भाव महंगा, खनिज पदार्थों की उत्पत्ति अधिक, मोती-माणिक्य की उत्पत्ति में वृद्धि, घृत की कमी, पशुओं में रोग और देश का आधिक विकास होता है । गुरुवार के दिन आर्द्रा में सूर्य का प्रवेश हो तो अच्छी वर्मा, मुभिक्ष, अर्थ बुद्धि, देश में उपद्रव, महामारियों का प्रकोप, गुड़-गहूं का भाव महेंगा तथा अन्य प्रकार अनाजों का भाव सस्ता; शुक्रवार में प्रवेश हो तो जाति में अच्छी वर्मा, पर माघ में वर्षा का अभाव तथा कात्तिक में भी पापा की नमी रहनी । दमक अतिरिक्सा पाराल में साधारणत: रोग, पशुओं में व्याधि और अग्निभय गवं शनिवार को प्रवेश हो तो दुष्काल, वर्षाभाव या अल्पवृष्टि, असमय पर अधिक वाई, अनावृष्टि के कारण जनता में अशान्ति, अनेक प्रकार के रोगी की वद्धि, धान्य का अभाव और व्यापार में भी हानि होती है । वर्षा का रिज्ञान रवि का आर्द्रा में प्रवेश होने पर किया जा सकेगा। पर इस बात का ध्यान रखना होगा कि प्रदेश के समय चन्द्र नक्षत्र कौन-सा है ? यदि चन्द्र नक्षत्र मृदु और जालसंज्ञान हो तो निश्चयतः अच्छी वर्षा होती है। उम्र तथा अग्नि संज्ञक नक्षत्रों में गरल की बर्षा नहीं होती। प्रातःकाल आर्द्रा में प्रवेश होने पर सुभिक्ष और माधारण धपा, मध्यान्न काल में प्रवेश होने पर चातुर्मास के प्रारम्भ में वर्षा, मध्य में कमी और अन्त में अल्पवृष्टि एवं सन्ध्या समय प्रवेश होने पर अतिवृष्टि या अनावृष्टि का योग्य रहता है । रात्रि में जब सूर्य आर्द्रा में प्रवेग करता है, तो उस अप यषां जन्छी होती है, किन्तु फसल साधारण ही रहती है । अन्न का माय निरन्तर ऊंच-नीची होता रहता है। सबस
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उत्तम समय मध्य रात्रि का है। इस समय रवि आर्द्रा में प्रवेश करता है तो अच्छी वर्षा और धान्य की उत्पत्ति उत्तम होती है। जब सूर्य का आर्द्रा में प्रवेश हो उस समय चन्द्रमा केन्द्र या त्रिकोण में प्रवेश करे अथवा चन्द्रमा की दृष्टि हो तो पृथ्वी धान्य से परिपूर्ण हो जाती है। जिस ग्रह के साथ सूर्य का इत्थशाल सम्बन्ध हो, उसके अनुसार भी फलादेश घटित होता है। मंगल, चन्द्रमा और शनि के साथ यदि सूर्य इत्थशान कर रहा हो तो उस वर्ष घोर दुर्भिक्ष तथा अतिवृष्टि या अनावृष्टि का योग समझना चाहिए । गुरु के साथ यदि सूर्य का इत्यशाल हो तो यथेष्ट वर्षा, सुभिक्ष और जनता में शान्ति रहती है । व्यापार के लिए भी यह योग उत्तम है। देश का आर्थिक विकास होता है । बुध के साथ सूर्य का इत्यशाल हो तो पशुओं के व्यापार में विशेष लाभ, समयानुकूल वर्षा, धान्य की वृद्धि
और सुख-शान्ति रहती है । शुक्र के साथ इत्थशाल होने पर चातुर्मास में कुल तीस दिन वर्षा होती है।
प्रश्नलग्नानुसार वर्षा का विचार—यदि प्रश्नलग्न के सभय चौथे स्थान में राहु और शनि हो तो उस वर्ष घोर दुभिक्ष होता है तथा वषां का अभाव रहता है। यदि चौथे स्थान में मंगल हो तो उस वर्ष वर्षा साधारण ही होती है और फसल भी उत्तम नहीं होती। चौथे स्थान में गुरु और शुक्र के रहने से वर्षा उत्तम होती है । चन्द्रमा चौथे स्थान में हो तो श्रावण और भाद्रपद में अच्छी वर्षा होती है; किन्तु कात्तिक में वर्षा का अभाव और बाशिन्कन में कुल सात दिन वर्षा होती है। हवा बहुत तेज चलती है, जिससे फसल भी अच्छी नहीं हो पाती । यदि प्रश्नलग्न में गुरु हो और एक या दो ग्रह उच्च के चतुर्थ, सप्तम, दशम भाव में स्थित हों तो वर्ष बहुत ही उत्तम होता है । समयानुसार यथेष्ट वर्षा होती है, गेहूँ, चना, धान, जौ, तिलहन, गन्ना आदि की फसल बहुत अच्छी होती है। जूट का भाव पर उठता है तथा इसकी फसल भी बहुत अच्छी रहती है। व्यापारियों के लिए वर्ष बहुत ही अच्छा रहता है । यदि प्रशमलग्न में कन्या राशि हो तो अच्छी वर्षा, पूर्वीय हवा के साथ होती है । वर्ष में कुल 90 दिन वर्षा होती है, फसल भी अच्छी होती है । मनुष्य और पशुओं को सुख-शान्ति मिलती है। केन्द्र स्थानों में शुभ ग्रह हों तो सुभिक्ष और वर्षा होती है जिस दिशा में क्रूर ग्रह हों अथवा शनि देखें तो उस दिशा में अवश्य दुभिक्ष होता है । यदि वर्षा के सम्बन्ध में प्रान करने वाला पाँचों अंगलियों को स्पर्श करता हा प्रश्न करे तो अल वर्मा, फसल की क्षति एवं अंगूठे का स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो साधारण वर्षा होती है । यदि वर्षा के प्रश्न गाल में पृच्छक सिर का स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो आश्विन में वर्पा भाव तथा अन्य महीनों में साधारण वर्षी; कान का स्पर्श करता हुआ प्रश्न बरे तो साधारण वर्षा, र भाद्रपद में कुल दस दिन की वर्षा: आँखों को मलता हुआ प्रश्न करे तो चातुर्मास के सिवा अन्य महीनों में वर्षा का
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एकादशोऽध्याय:
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अभाव तथा चातुर्मास में भी कुल सत्ताईस दिन वर्षा; घुटनों को स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो सामान्यतया सभी महीनों में वर्षा, फसल उत्तम जनता का आर्थिक विकास, कला-कौशन की वृद्धि; पेट का स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो साधारण वर्षा, श्रावण और भाद्रपद में अच्छी वर्षा, फसल साधारण, देश का आर्थिक विकास, अग्निभय, जलभय, बाढ़ आने का भय; कमर स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो परिमित वर्षा, शान्य की सामान्य उत्पत्ति, अनेवः प्रकार के रोगों की वृद्धि, वस्तुओं के भाव महंगे; पाव का स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो श्रावण में वर्षा की कमी, अन्य महीनों में अच्छी वर्षा, फसल की अच्छी उत्पत्ति, जो और गेहूं की विशेष उपज एवं जंघा का स्पर्श करता हुआ प्रश्न करे तो अनेक प्रकार के धान्यों की उत्पत्ति, मध्यम वर्षा, देश में समृद्धि, उत्तम फसल और देश का सर्वांगीण विकास होता है । प्रश्न काल में यदि मन में उत्तेजना आये, या किमी कारण से क्रोधादि आ जाये तो वर्ग का अभाव समझना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति को प्रशासन में रोते हुए देखें तो वश में छ: वर्षा होती है, किन्तु फसल में कमी रहती है। व्यापारियों के लिए भी यह वर्ष उम नहीं होता। प्रश्नकाल में यदि काना व्यक्ति भी वहां उपस्थित हो और वह अपने हाथ से दाहिने कान को खुजला रहा हो तो घोर दुभिक्ष की सूचना समझनी चाहिए। विकृत अंग वाला किसी भी प्रकार का व्यक्ति यहाँ रहे तो वर्षा की कमी ही समझनी चाहिए । फसल भी साधारण ही होती है । सौम्य और सुन्दर व्यक्तियों का वहाँ उपस्थित रहना उत्तम माना जाता है ।
एकादशोऽध्यायः अथात: सम्प्रवक्ष्यामि गन्धर्वनगरं तथा।
शुभाशुभार्थभूतानां निर्ग्रन्थस्य च भाषितम् ॥१॥ अब गन्धर्व नगर का फलादेश कहता है, जिस प्रकार पूर्वाचार्यों ने प्राणियों के शुभाशुभ का निरूपण किया है, उसी प्रकार यहां पर भी फल अवगत करना पाहिए ।
1. नग्रन्थे निपुणे यथा भु० ।
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भद्रबाहुसंहिता
पूर्वसूरे यदा घोरं गन्धर्वनगरं भवेत ।
नागराणां वधं विन्द्यात तदा घोरमसंशरयम् ॥21॥ यदि सूर्योदय काल में पूर्व दिशा में गन्धर्व नगर दिखलाई दे तो नागरिकों का वध होता है, इसमें मन्देह नहीं है ॥2॥
अस्तमायाति दीप्तांशो गन्धर्वनगरं भवेत् ।
यायिनां च तु भयं विन्द्याद् तदा घोरमुपस्थितम् ॥3॥ यदि मुर्य के अस्तकाल में गन्धर्व नगर दिग्वलाई दे तो यायी . आक्रमणकारी के लिए घोर भय की उपस्थिति गुचित करता है ।।311
रक्तं गन्धर्वनगरं दिशं दीप्तां यदा "भवेत् ।
शस्त्रोत्पातं तदा विन्द्याद् दारुणं समुपस्थितम् ॥4॥ यदि रक्त गन्धर्वनगर पूर्व दिशा में दिखलाई पड़े तो शस्त्रोत्पात -मारकाट का भय समझना चाहिए 11411
पीतं गन्धर्वनगर दिशं दीप्तां यदा भवेत् ।
व्याधि तदा विजानीयात् प्राणिनां मृत्युसन्निभम् ॥5॥ यदि गीत–पीला गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो प्राणियों के लिए मृत्यु के तुल्य कष्टदायका व्याधि उत्पन्न होती है 115।।
कृष्णं गन्धर्वनगरमपरा' दिशिमासतम् ।
बधं तदा विजानीयाद भयं वा शूद्रयोनिजम् ।।6।। यदि कृष्ण वर्ण-काले रंग का गन्धर्व नगर पश्चिम दिशा में दिखलाई पड़े तो वध ----मार-बाट ग उत्पन्न बध होता है तथा शुद्रों के लिए भयोत्पादक है।16।
श्वेतं गन्धर्वनगर दिशं सौम्यां यदा भशम् ।
रातो विजयमाख्याति "नगरश्त धनान्वितम ॥7॥ यदि श्येत गन्धर्वनगर उत्तर दिशा में दिखलाई पड़े तो राजा की विजय होती है और नगर धन-धान्य मे परिपूर्ण होता है ।।१।
1. अस्ते गाते प्रथाऽदिये म । 2. दा म । 3. यधं म। 4. भशम् मु। 5. याम्यां मु। 6. भम् मु. । 7. अपस्या म8. मतं दिन मु० । 9. वर्ष म. A. B. D. I 10. गम्य मुल; मगरं म C.I
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एकादशोऽध्यायः
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सर्वास्वपि यदा दिक्षु गन्धर्वनगर भवेत् ।
सर्वे वर्णा विरुध्यन्ते सर्वदिक्षु परस्परम् ॥8॥ यदि सभी दिशाओं में गन्धर्वनगर हो तो सभी दिशाओं में सभी वर्ण वाले परस्पर विरोध करते हैं - कलह करते हैं 118।।
कपिलं सस्यघाताय मांजिष्ठं हरिण भगवाम् ।
अव्यक्तवर्ण कुरुते बलक्षोभं न संशयः ॥५॥ कलि वर्ण का गन्धर्वनगर धान्य द्योतना, मस्जिाल वर्ण का गन्धर्वनगर हरिण, गौ आदि पशुओं का पातक और अव्यक्त वर्ण का गन्धर्वनगर मेना में क्षोभ उत्पन्न करता है।।9।'
गन्धर्वनगर स्निग्धं सप्राकारं सलोरणम ।
शान्तदिशि समाश्रित्य राजस्तद् विजयं वदेत् ॥10॥ यदि स्निग्ध, परकोटा और तोरण सहित गन्धर्वनगर नीरव दिशा में दिखलाई पड़े तो राजा के लिए विजय देने वाला होता है ।। ||
गन्धर्वनगरं व्योम्नि परुषं यदि दृश्यते । - वाताशनिनिपातांस्तु तत् करोति सुदारुणम ॥11॥ यदि आकाश में परुप-~-कठोर गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो वायु के चलने और बिजली के गिरने का महान भय होता है ।।11।।
इन्द्रायुधसवर्णं च धूमाग्निसदृशं च यत् ।
तदाग्निभयमाख्याति गन्धर्वनगरं नणाम ।।12।। पदि इन्द्रधनुष के समान वर्णमाला और धूमयुक्त अग्नि के भापान गन्धर्व नगर दिखलाई पड़े तो मनुष्यों को अग्नि-भय हो । है ।।। 2।।
खण्डं विशीर्ण 'सच्छिद्रं गन्धर्वनगरं यदा।
तदा तस्करसंघानां भयं सजायते सदा ॥13॥ यदि खण्डित,
विखलित और छिद्रयुक्त गन्धर्थनगर दिखलाई पड़े तो पृथ्वी पर चोरों का भय होता है ।।13।।।
यदा गन्धर्वनगरं सप्राकारं सतोरणम् । दृश्यते तस्करान् हन्ति तदा चानूपवासिनः ।।14।।
___ 1. गया मु० । 2. समन्ननः म । 3. करम म । 4. छिद्र धा मु. । 5. स गया जायते भूवि मु. 1 6. बान्तबाशितः पुस ।
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भद्रबाहुसंहिता
__ यदि गन्धर्व नगर परकोटा और तोरणरहित दिखलाई पड़े तो वनवासी तस्करों - चोरों और अनूपदेश निवासियों का विनाश होता है ॥14॥
विशेषतापसव्यं तु गन्धर्वनगरं यदा।
पराग महला मगर नाभिभूयते ॥15॥ यदि विशेष रूप से अपसव्य --दक्षिण की ओर गन्धर्व नगर दिखलाई पड़े तो परशासन के द्वारा नगर का घेरा डाला जाता है-परशासन का आक्रमण होता है।।151
गन्धर्वनगरं क्षिप्रं जायते वाभिदक्षिणम् ।
स्वपक्षागमनं चैव जयं वृद्धि जलं वहेत् ।।16। यदि शीघ्रतापूर्वक दक्षिण की ओर गन्धर्वनगर गमन करता हुआ दिखलाई पड़े तो स्वपक्ष की सिद्धि, जय, वृद्धि और बल–सामार्थ की प्राप्ति होती है 11160
यदा गन्धर्वनगरं प्रकटं तु दवाग्निवत् ।
दृश्यले पुररोधाय तद्भवेनात्र संशयः ॥17॥ जब गन्धर्वनगर दावाग्नि-अरण्य में लगी अग्नि के समान दिखलाई पड़े। तब नगर का अवरोध अवश्य होता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥17॥
अपसव्यं विशीणं तु गन्धर्वनगरं यदा ।
तदा विलुप्यते राष्ट्र बलक्षोभश्च जायते॥18॥ अपसव्य --- दक्षिण की ओर जर्जरित गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो राष्ट्रों में विप्लव–उपद्रव और सेना में क्षोभ होता है ।।।8।।
यदा गन्धर्वनगरं प्रविशेच्चाभिक्षिणम् ।
अपूर्वा लभते राजा तदा स्फोतां वसुन्धराम् ॥19॥ जब गन्धर्वनगर दक्षिण से प्रवेश करे.--- दक्षिण से चारों दिशाओं की ओर घूमता हुआ दिखलाई दे तब राजा अपूर्व विशाल भूमि प्राप्त करता है ।1911
सध्वजं सपताकं वा सुस्निग्धं सुप्रतिष्ठितम् ।
शान्तां दिशं प्रपद्येत राजवृद्धि स्तथा भवेत् ॥20॥ ध्वजा और पताकाओं से युक्त स्निग्ध तथा सुव्यवस्थित शान्त दिशा
I. परिवार्यते म० । 2. दक्षिो जायते यदा । 3. विशीर्थस् म. C. I 4, गदाऽऽदित्
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एकादशोऽध्याय:
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नीरब दिशा में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो राजवृद्धि का फलादेश समझना चाहिए ।।2011
यदा चाभ्र धमिधं सघनैः सबलाहकम् ।
गन्धर्वनगरं स्निग्धं विन्द्यादुदकसंप्लवम् ।।21॥ यदि शुभ मेघों से युक्त विद्यत् सहित स्निग्ध गन्धर्व नगर दिखलाई पड़े तो जल की बाढ़ आती है----वर्षा अधिक होती है और नदियों में याद आती है; सर्वत्र जल ही जल दिखलाई पड़ता है । 2 ।।।
सध्वजं सपताक वा गन्धर्वनगरं भवेत् ।
दीप्तां दिशं समाश्रित्य नियतं राजमत्युदम् ॥22॥ यदि ध्वजा और ताना शहित गन्धर्व नगर पूर्व दिशा में दिखलाई पड़े तो नियमित रूप मे सजा की मृत्यु होती हैं ।।2 211
विदिक्ष 'चापि सर्वास गन्धर्वनगरं यदा।
संकरः सर्ववर्शानां तदा भवति दारुणः ॥23॥ यदि सभी विदिशाओं में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो सभी वर्गों का अत्यन्त संकर-सम्मिश्रण होता है ।।23।।
द्विवर्ण वा त्रिवणं वा गर्वनगरं "भवेत् ।
चातुर्वयं मयं भेदं तदानापि बिनिदिशेत् ॥2411 यदि दो रंग, तीन रंग या चार रंग का गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो भी उक्त प्रकार का ही फल घटित होता है ।।24।
अनेकवर्णसंस्थानं गन्धर्वनगरं यदा । क्षुभ्यन्ते तत्र राष्ट्राणि प्रामाश्च नगराणि च ।।25।। सङग्रामाश्चापि जायन्ते' मांसशोणितकदमा: ।
भएतश्च लक्षणैर्युक्तं भद्रबाहुवचो यथा ॥26॥ यदि अनेक वर्ण आकार का मन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो गगा, ग्राम और राष्ट्र में ओश उत्पन्न होता है, युद्ध होते हैं और स्थान मांस तथा २ को कीचड़ से भर जाते हैं । रक्त प्रकार के निति से अनेक प्रकार का उत्पात होता है, इस प्रकार का भद्रबाहु स्वामी का बबन है।! 25-26।।
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1. गु- म० । 2. विद्युः ।। 3 . 4. 6. भवेत् । । ?. अनबन म । 8.
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भद्रबाहुसंहिता
Raditaticariates
रक्तं गन्धर्वनगरं क्षत्रियाणां भयावहम् ।
पीतं वैश्यान् निहन्त्याशु कृष्णं शूद्रान् सितं द्विजान् ॥27॥ लाल रंग का गन्धर्वनगर क्षत्रियो के लिए भयोत्पादक, पीत वर्ण का गम्भव नगर वैश्यों को, कृष्णवर्ण का गन्धर्वनगर शूद्रों को और श्वेत वर्ण का गन्धर्वनगर ब्राह्मणों को भयोत्पादक होने के साथ शीघ्र ही विनाश करता है ।।27॥
अरण्यानि तु सर्वाणि गन्धर्वनगरं यदा।
आरण्यं जायते 'सर्व तद्राष्ट्र नात्र संशयः ॥28॥ यदि अरण्य में मन्धर्व नगर दिखलाई गड़े तो शीघ्र ही राष्ट्र उजड़कर अरण्य –जंगल बन जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ।।28।।
अम्बरेषदकं विन्द्याद् भयं प्रहरणेषु च।
अग्निजेषपकरणेषु भयमग्नेः समादिशेत् ॥29॥ यदि स्वच्छ आकाश में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जल की वृष्टि, अस्त्रों के बीच गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो भय और अग्नि सम्बन्धी उपकरणों के मध्य गन्धर्व नगर दिखलाई पड़े तो अग्निभय होता है ॥29॥
शुभाशुभं विजानीयाच्चातुर्वण्र्य यथाक्रमम्।
दिक्षु सर्वासु नियतं भद्रबाहुवचो यथा ॥30॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण को क्रमानुसार पूर्वादि सभी दिशाओं के गन्धर्वनगर के अनुसार भद्रबाहु स्वामी के वचनों से शुभाशुभत्व जानना चाहिए 11300
उल्कावत् साधनं दिक्षु जानीयात् पूर्वकीर्तितम् ।
गन्धर्वनगरं सर्व यथावदनुपूर्वशः ॥31॥ उल्का के समान पूर्व बताये गये निमित्तों के अनुमार गन्धर्व नगरों के फलाफल को अवगत कर लेना चाहिए ॥3111 इति भद्रबाहविरचिते निखिललिमित्तीयाधिकारद्वादशांगाद्-उद्धृत
निमित्तशास्त्र गन्धर्वनगरं एकादशमं लक्षणम् । विवेचन--वराहमिहिर ने उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्रिम दिशा के गन्धर्वनगर का फलादेश क्रमण. पुरोहित, राजा, मनापति और युवराज को विघ्न , कारक बताया है । श्वेत, खत, पीत और कृष्ण वर्ण के गन्धर्वनगर को ग्राह्मण :
___1. राष्ट्र मु० । 2. चिन म५.। 3. सवंग-धर्वनगरं ।
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क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के नाश का कारण माना है । उत्तर दिशा में गन्धर्वनगर हो तो राजाओं को जयदायी; ईशान, अग्नि और वायुकोण में स्थित हो तो नीच जाति का नाश होता है । शान्त दिशा में तोरणयुक्त गन्धर्वनगर दिखलाई दे तो प्रशासकों की विजय होती है। यदि सभी दिशाओं में गन्धर्व नगर दिखलाई दे तो राजा और राज्य के लिए समान रूप में भयदायक होता है। धूम, अनल और इन्द्रधनुष के समान हो तो चोर और वनवामियों को कष्ट देता है। कुछ पाडुरंग का गन्धर्वनगर हो तो वज्रपात होता है, भयंकर पवन भी चलता है । दीप्त दिशा में गन्धर्वनगर हो तो राजा की मत्यू, नाम टिगहा में हो तो गावभय और दक्षिण भाग में स्थित हो तो जय की प्राप्ति होती है। नाना रंग की पताका ग युक्त गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो रण में हाथी, मनु"प और घोटों का अधिक रस्तपात होता है। ___ आचार्य ऋषिपत्र ने बतलाया है कि पूर्व दिशा में गन्धधनगर दिखाई पड़े तो पश्चिम दिशा का नाश अवश्य होता है। पश्चिम में अन्न और वात्र की कमी रहती है। अनेक प्रकार के कष्ट पश्चिम निवासियों को गहन करने पहने हैं । दक्षिण दिशा में गन्धर्वनगर दिखलाई दे तो राजा का नाश होता है, प्रशासक वर्ग में आपसी मनमुटाव भी रहता है, नेताओं में गारमारिक कलह होती है, जिसमें आन्तरिक अशान्ति होती रहती है । पग्निम दिशा का गन्धर्व नगर पूर्व के वैभव का बिनाश करता है। पूर्व में हैजा, प्लेग जमी संक्रामक बीमारियां फैलती हैं और मलेरिया का प्रकोप भी अधिक रहेगा । उक्त दिशा का गन्धर्वनगर पूर्व दिशा के निवासियों को अनेक प्रकार का कष्ट देता है। उन र दिशा का गन्धर्वनगर उत्तर निवासियों के लिए ही नाटकारक होता है। यह धन, जन और वैभव का विनाश करता है। हेमन्तऋतु के गन्धर्वनगर मे गेगों का विशप आतक रहता है । वसन्त ऋतु में दिखाई देनेवाला गन्धर्वनार मकाल करता है तथा जनता का पूर्ण रूप से आर्थिक विकास होता है। ग्रीपमऋतु में दिखाई देनवाना गन्ध्रनगर नगर का विनाश करता है, नागरिकों में अनेक प्रकार गे अशान्ति फैलाता है । अनाज की उपज भी कम होती है । वस्या मात्र का कारण भी जनता में अशान्ति रहती है । आपस में भी झगड़े बढ़ते है, जिससे परिस्थिति उत्तरोत्तर विषम होती जाती है। वर्षा ऋतु में दिखलाई देनेवाला गन्धर्वनगर वर्गा का अभाव करता है। इस मन्धर्व नगर का फल दुष्काल भी है। व्यापारी और कृपक दोनों के लिए ही इस प्रकार के गन्धर्वनगर का फलादेश अशुभ होता है। जिस वर्ष में उसत प्रकार का गन्धर्वमगर दिखलाई पड़ता है, उग वर्ष में गहुँ और चावल की उपज भी बहुत कम होती है। शरदऋतु में गन्धर्व नगर दिखाई पड़े तो मनुष्यों को अनेक प्रकार की पीड़ा होती है। चोट लगना, शरीर में धाव लगना, नेचक निकल ना अनेक प्रकार के फोड़े होना आदि फन घटित होते हैं । अवशेष ऋतुओं में प्रा
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भद्रबाहुसंहिता
दिखलाई दे तो नागरिकों को कष्ट होता है। साथ ही छः महीने तक उपद्रव होते रहते हैं । प्रकृति का प्रकोप होने से अनेक प्रकार की बीमारियाँ भी होती हैं । रात्रि में गन्धर्बनगर दिखलाई पड़े तो देश की आर्थिक हानि, वैदेशिक सम्मान का अभाव तथा देशवासियों को अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने पड़ते हैं । यदि कुछ रात्रि शेष रहे तब गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो चोर, नृपति, प्रबन्धक एवं पूंजीपतियों के लिए हानिकारक होता है। रात्रि के अन्तिम प्रहर में - ब्रह्ममुहूर्त काल में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो उस प्रदेश में धन संपदा का अधिक विकास होता है। भूमि के नीचे से धन प्राप्त होता है । यह गन्धर्वनगर सुभिक्षकारक है। इसके द्वारा धन-धान्य की वृद्धि होती है। प्रशासक वर्ग का भी अभ्युदय होता है। कला-कौशल को वृद्धि के लिए भी इन समय का गन्धर्वनगर श्रेष्ठ माना गया है ।
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पंचरंगा गन्धर्वनगर हो तो नागरिकों में भय और आतंक का संचार करता है, रोगभय भी इसके द्वारा होते हैं। हवा बहुत तेज चलती है, जिससे फसल को भी क्षति पहुँचती है। श्वेत और रक्तवर्ण की वस्तुओं की महंगाई विशेष रूप से रहती है। जनता में अशान्ति और आतंक फैलता है । श्वेतवर्ण का गन्धर्वनगर हो तो घी, तेल और दूध का नाश होता है। पशुओं की भी कमी होती है और अनेक प्रकार की व्याधियाँ भी व्याप्त हो जाती है। गाय, बैल और घोड़ों की कीमत में अधिक वृद्धि होती है । तिलहन और तिल का भाव ऊंचा बढ़ता है। विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध दृढ़ होता है। काले रंग का गन्धर्वनगर वस्त्र नाश करता है, कपास की उत्पत्ति कम होती है तथा वस्त्र बनानेवाले मिलों में भी हड़ताल होती है, जिससे वस्त्र का भाव तेज हो जाता है। कागज तथा कागज के द्वारा निर्मित वस्तुओं के मूल्य में भी वृद्धि होती है। पुरानी वस्तुओं का भाव भी बढ़ जाता है तथा वस्तुओं की कमी होने के कारण बाजार तेज होता जाता है । लालरंग का गन्धर्वनगर अधिक अशुभ होता है, यह जितनी ज्यादा देर तक दिखलाई पड़ता रहता है, उतना ही हानिकारक होता है। इस प्रकार के गन्धर्वनगर का फल मारपीट, झगड़ा, उपद्रव, अस्त्र-शस्त्र का प्रहार एवं अन्य प्रकार से झगड़े- टण्टों का होना आदि है। सभी प्रकार के रंगों में लालरंग का गन्धर्वनगर अशुभ कहा गया है। इसका फल रक्तपात निश्चित है । जिस रंग का गन्धर्वनगर जितने अधिक समय तक रहता है, उसका फल उतना ही अधिक शुभाशुभ समझना चाहिए ।
मन्धर्वनगर जिस स्थान या नगर में दिखलाई देता है, उसका फलादेश उसी स्थान और नगर में समझना चाहिए। जिस दिशा में दिखलाई दे उस दिशा में भी हानि या लाभ पहुँचाता है | इसका फलादेश विश्वजनीन नहीं होता, केवल थोड़े से प्रदेश में ही होता है। जब गन्धर्वनगर आकाश के तारों की तरह बीच में
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E छाया हुआ दिखलाई दे तो मध्य देश को अवश्य न करता है। यह जितनी दूर
तक फैला हुआ दिखलाई दे तो समझ लेना चाहिए कि उतनी दूर तक देश का नाश होगा । रोग, मरण, दुभिक्ष आदि अनिष्टकारक फलादेशों की प्राप्ति होती है। इस प्रकार का गन्धर्व नगर जनता, प्रशासक और उच्चवर्ग के लोगों के लिए भी भयदायक होता है। अवर्षण, सुखा आदि के कारण फसल भी मारी जाती है। यदि गन्धर्वनगर इन्द्रधनुषाकार या माप के विल के आकार में दिखलाई पड़े तो देशनाश. दुभिक्ष, मरण, व्याधि आदि अनेक प्रकार के अनिष्टकारक फरन प्राप्त होते हैं। यदि चारदीवारी के समान गन्धर्व नगर पी भी बहारदीवारी दिखलाई पड़े और ऊपर के गुम्बज भी दिखलाई त निश्चयत. प्रशासक या मन्त्री का विनाश होता है। नगर के मुखिया के लिए भी प्रकार का गन्धर्वनगर दुःखदायक बताया गया। जम गन्धर्वनगर का ऊपरी हिस्सा टूटा हुआ दिखलाई दे तो दस दिन के भीतर ही किसी प्रधान व्यवित की मृत्यु सूचित कारता . है! ऊपर स्वर्ण की मुबजे दिलाई पड़ें और उनपर स्वर्ण-बालश भी दिखलाई
देते हों तो निश्चयतः रा प्रदेश की आशिक हानि, फिसी प्रधान व्यक्तिको मृत्यु, : वस्तुओं की महंगाई और रोगादि उपद्रव हो । हैं। जब गन्धर्वनगर कः घर की
स्थिति ऊँचे मन्दिरों के समान दिग्बलाई दे और उनके बालशों पर मालाएँ लटकती हुई दिखाई पड़ें तो मुभिक्ष, समयानुसार वर्षा, ऋषि का विकास, अच्छी फसल और धन-धान्य की समृद्धि होती है । टूटते-दहत गन्धर्वनगर दिखलाई द तो उनका फल अच्छा नहीं होता । रोग और मानसिक आपनियों ने साथ पारस्परिक कलह की भी सुना समझनी चाहिए। जिस गन्धर्वनगर द्वारपर सिंहाकृति दिखलाई दें, वह जनता में बा, पौगए और शक्ति का विकास करता है । वृषभाकृतिवाला गन्धर्वन पर जनता को धर्म-मार्ग की ओर ले जानवाला है। उस प्रदेश की जनता में संघम और धर्म की भावनाएं विशप कप से उत्पन्न होती हैं। जो व्यक्ति उक्त प्रकार के गन्धर्वनगरों को स्वीकृति में देखता है. उसे उस क्षेत्र में शान्ति समझ लेनी चाहिए।
मास और वार के अनुसार गन्धर्वनगर का फलादेश · यदि रविवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता को कष्ट. दुनि, अन्न का पविज, नश को कमी, वृश्चि? आदि विपैले जन्त पों की वृद्धि, गाराम, कृषिका विनाश और अन्य प्रकार को उपद्रय भी होते है । दल वायुनता है। प्राचिन नास में कुछ वर्षा होती है, जिनो मातारा से भी माल हो जाती। विचार को सन्ध्या में गन्धर्वनगर देखन से भूकम्प का मेय. मध्यान में गन्धर्वनार से जनता में अराजकता प्रातःकाल सूर्योदय के नारे गधनगर दिपना तो नगर में साधारणतः गान्ति रहती है। सन्ध्या काल का गायनगर बहत अधिक धुरा साझा जाता है। बात में दिखलाई देने में कम न देता है।
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भद्रबाहुसंहिता
मेघविजय मणि ने रविवार के गन्धर्वनगर को अधिक अशुभकारक बतलाया है। इस दिन का गन्धर्वनगर वर्षा का अभाव करता है तथा व्यापारिक दृष्टि से भी हानिकारक होता है। सोमवार को गन्धर्वनगर दीप्तियुक्त दिखलाई पड़े तो कलाकारों के लिए शुभफल, प्रशासक वर्ग और कृपकों के लिए भी शुभ फलदायक होता है । इस प्रकार के गन्धर्वनगर के देखने से श्रावण और आषाढ़ मास में अच्छी वर्षा होती है । भाद्रपद और आश्विन में वर्षा की कमी रहती है । यदि इस प्रकार का गन्धर्वनगर ज्येष्ठ मास में रविवार को दिखलाई पड़े तो निश्चयतः दुर्भिक्ष होता है । आषाढ़ में रविवार को दिखलाई पड़े तो आश्विन में वर्षा, अवशेष महीनों में वर्षा का अभाव तथा साधारण फसल श्रावण में दिखलाई पड़े तो भूकम्प का भय, मार्गशीर्ष में अल्प वर्षा, वन वमीचों की वृद्धि, खनिज पदार्थों की उपज में कमी; भाद्रपद मास में रविवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो आश्विन और कार्तिक में अनेक प्रकार के रोग, जनता में अशान्ति तथा उपद्रव होते हैं। आश्विन मास में रविवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो साधारण कष्ट, माथ में ओलों की वर्षा, भयंकर शीत का प्रकोप और चैती फसल की हानि होती है। कार्तिक और अगहन मास में रविवार के दिन गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अनेक प्रकार के रोगों के साथ घृत, दूध, तेल आदि पदार्थों का अभाव होता है, पशुओं के लिए चारे की भी कमी रहती है। पौष और माघ मास में गन्धर्वनगर रविवार को दिखलाई पड़े तो छः महीनों तक जनता को आर्थिक कष्ट रहता है । निमोनिया और प्लेग दो महीने तक विशेष रूप से उत्पन्न होते हैं। होली के दिन गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष घोर दुर्भिक्ष पड़ता हैं । अन्न की अत्यन्त कमी रहती है, चोर और लुटेरों का भय आतंक बढ़ता चला जाता है । फाल्गुन और चंद्र में रविवार के दिन गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जिस दिन गन्धर्वनगर का दर्शन हो उससे ग्यारह दिन के भीतर में भूकम्प या अन्य किसी भी प्रकार का महान् उत्पात होता है। वज्रपात होना या आकस्मिक घटनाओं का घटित होना आदि फलादेश समझना चाहिए। वैशाख महीने में रविवार को गन्धर्व नगर दिखलाई पड़े तो साधारणतः शुभ फल होता है । केवल उस प्रदेश के प्रशासनाधिकारी के लिए अनिष्टप्रद समझना चाहिए। इसी प्रकार ज्येष्ठमास में सोमवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता में साधारण शान्ति, आषाढ़ मास में सोमवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो श्रावण में वर्षा की कमी, धान्योत्पत्ति को साधारण कमी, वस्त्र के व्यापार में लाभ, घी, और चीनी के व्यापार में अत्यधिक लाभ, सोना-चाँदी के व्यापार में साधारण हानि और अन्न के व्यापार में लाभ होता है। श्रावण मास में सोमवार को गन्धर्वनगर दिलाई पड़े तो चातुर्मास में अच्छी वर्गा, श्रेष्ठ फसल और जनता में सुखशान्ति रहती है । व्यापारियों के लिए भी इस महीने का गन्धर्वनगर उत्तम माना
नमक
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एकादशोऽध्यायः
गया है । भाद्रपद और आश्विनमास में सोमवार के दिन का गन्धर्वनगर अनिष्टकारक, लोहा, सोना, चांदी आदि धातुओं के व्यापार में अत्यधिक लाभ, फसल माधारण एवं जनता में शान्ति रहती है। कार्तिकमास के सोमवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो शरद् ऋतु में अत्यधिक हवा चलती है, जिससे शीत का प्रकोप बढ़ जाता है। अगहन मास में गन्धर्वनगर सोमवार को दिखलाई पड़े तो सुभिक्ष, शान्ति और आर्थिक विकास होता है । सांगतिक पर्योों की वृद्धि के लिए यह गन्धवं नगर उत्तम माना गया है। पौष, माघ और फाल्गुन मास में सोमवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो आगामी वर्ष सुभिक्ष, अनेक प्रकार के रोगों की वृद्धि, देश की समृद्धि और व्यापार में साधारण लाभ होता है । चैत्र मास में सोमवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता को कष्ट, आर्थिक क्षति, अनेक प्रकार की व्याधियाँ और प्रशासकवर्ग का विनाश होता है। अन्य प्रदेशों से संघर्ष का भी भय रहता है। वैशाखमास में सोमवार को गन्धर्वनगर दिखलाई दे तो जनता में धार्मिक रुचि उत्पन्न होती है, उस वर्ष अनेक धार्मिक महोत्सव होते हैं । राजा, प्रजा सभी में धर्माचरण का विकास होता है ।
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ज्येष्ठमास में मंगलवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो उस वर्ष आषाढ़ में साधारण वर्षा होती है, श्रावण और भाद्रपद में वर्षा की कमी रहती तथा आश्विन मास में पुनः वर्षा हो जाती है, जिससे फसल अच्छी हो जाती है । व्यापारिक दृष्टि से वर्ष अच्छा नहीं रहता । लोहा, सोना और वस्त्र के व्यापार में हानि उठानी पड़ती है। पुराने पदार्थों के व्यापार में लाभ होता है। कागज के मूल्य में भी वृद्धि होती है। इसी महीने में बुधवार को गन्धवेनगर दिखलाई पड़े तो अशान्ति, कष्ट, भूकम्प, वज्रपात, रोग, धनहानि जादि फल प्राप्त होता है। गुरुवार को गन्धर्वनगर दिखाई पड़े तो जनता को लाभ, पारस्परिक प्रेम, शान्ति और सुभिक्ष होता है। शुक्रवार को इस महीने में गर्वनर दिखलाई पड़े तो साधारण व्यक्तियों को विशेष नाम, धनी मानियों को कष्ट, प्रशासक वर्ग की हानि, तत्प्रदेशीय किसी नेता की मृत्यु, कलाकारों को कष्ट और वर्षा साधारणतः अच्छी होती है। फसल भी अच्छी होती है। इसी महीने में शनिवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो वर्षा का अभाव, दुभिक्ष, जनता को कष्ट, तेज वायु या तूफानों का प्रकोप, अग्निभय, विषैले जन्तुओं का विकास तथा उनके प्रभाव से जनता में अधिक आतंक होता है।
कला
आषाढ़ महीने में मंगलवार के दिन गन्धर्बनगर दिखलाई पड़े तो अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, अन्न का भाव मस्ता, सीना, चांदी के मूल्य में भी गिरावट, कार और शिल्पियों को सुख-शान्ति, देश का आर्थिक विकास, व्यापारी समाज को सुख और प्रशासकों को भी शान्ति मिलती है। केवल लोहे की बनी वस्तुओ में हानि होती है। इसी महीने में बुधवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता
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भद्रबाहुसंहिता
पयोष्णी, गोमती तथा विन्ध्य, महेन्द्र और मलयाचल की मदियाँ आदि हैं।
बुध के प्रदेश -सिन्धु और लोहित्य, गंगा, मंदीरका, रथा, सरयू और कौशिकी के प्रान्त के देश तथा चित्रकूट, हिमालय और गोमन्त पर्वत, सौराष्ट्र देश और मथुग का पूर्व भाग आदि हैं।
बृहस्पति के प्रदेश · गिन्धु का पूर्वार्द्ध, मथुरा का पश्चिमाद्धं भाग तथा विराट और शतद्र नदी, मत्स्यदेश (धौलपुर, भरतपुर, जयपुर आदि) का आधा भाग, उदीच्यदेश, अर्जुनायन, सारस्वत, वारधान, रमट, अम्बष्ठ, पारत, सध्न, सौवीर, भरल, साल्व, गर्त, गौरब और यौधेय हैं ।
शुक्र के प्रदेश वितस्ता, इरावती और चन्द्रभागा नदी, तक्षशिला, गान्धार, पुगकालावत, मालना, शीलर, सिटि अपल, मालिकावत. दशाएं और ककेय हैं।
शनि के प्रदेश वेदस्मृति, विदिशा, कुरुक्षेत्र का समीपवर्ती देश, प्रभास क्षेत्र, पश्चिम देश, सौराष्ट्र, आभीर, शूद्रक देश तथा आनत से पुष्कर प्रान्त तक के प्रदेश, आबू और रैवतक पर्वत है ।
केतु के प्रदेश--- मारबार, दुर्गांचलादिक, अवगाण, श्वेत हूणदेश, पल्लव, चोल और नीलक हैं।
वष्टिकारक अन्य योग-रायं, गुरु और बुध का योग जल की वर्षा करता है। यदि इन्हीं के ग्रहों ने साथ मंगल का योग हो जाये तो वायु के साथ जल की वर्षा होती है । गुरु और गर्य, राह और चन्द्रमा, गुरु और मंगल, शनि और चन्द्र गा, गुरु और मंगल, गुरु और बुध तथा शुक्र और चन्द्रमा इन ग्रहों के योग होने से जल की वर्षा होती है।
सुभिक्ष-दुर्भिक्ष का परिज्ञान
प्रभवाद् विगुणं कृत्वा विभिन्नं च कारयेत् । गप्तभिस्तु हरेद्भाग गपं ज्ञेयं शुभाशुभम् ।। एक चत्वारि दुभिक्षं पंवद्वाभ्यां सुभिक्षकम्।
त्रिपाठे तु समं ज्ञेयं शून्ये पीडा न संशयः ।। अर्थात् प्रवादि म ग वर्तमान चाल संवत की संख्या को दुगुना कर उसमें मे तीन घटा सात का भाग देने से जो शेष रहे, उससे शुभाशुभ फल अवगत करना चाहिए । उदाहरण--साधारण नाम का संवत् चल रहा है । इसकी संख्या प्रभया दि से 4 आती है, अतः इसे दुगुना किया। 44X2 = 88,88-3= 85, 85 : 7. 12 ल०, 1 शेग, इसका फरल दुर्भिक्ष हैं। क्योंकि एक और बार शेष में दुभिक्ष, पांच और दो शप में गुभिक्ष, तीन या छ: शेष ने साधारण और
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शून्य शेष में पीड़ा समझनी चाहिए। ____ अन्य नियम--विक्रम संवत् की संख्या को तीन से गुणा कर पाँच जोड़ना चाहिए । योगफल में सात का भाग देने से शेष क्रमानुसार फल जानना । 3 और 5 शेष में दुर्भिक्ष, शून्य में महाकाल और 1, 2, 4, 6 शेष में सुभिक्ष होता है। ___ उदाहरण-विक्रम संवत् 2048, इसे तीन से गुणा किया; 2048X3--- 6144, 6144 + 52-6149, इसमें 7 का भाग दिया, 6149-:-74-878 लब्धि, शेष 3 रहा । इसका फल दुर्भिक्ष हुआ।
प्रभवादि संवत्सरबोधक चक्र
संख्या | संवत्सर । संख्या संवत्सर । संख्या, संवत्सर संख्या
संवत्सर
47||
50 | नल
शोभन
52
| प्रभव 16 चित्रभानु 31 हेमलम्बी 46 परिधावी विभव सुभानु विलम्बी प्रसादी शुल्क तारण विकारी आनन्द
प्रमोद पार्थिव | शार्वरी राक्षस 5 | प्रजापति | 20 व्यय प्लव अंगिरा। सर्वजित् ।
शुभकृत पिमल श्रीमुख सर्वधारी
मालयुक्त भाव विरोधी
| क्रोधी 53 | सिद्धार्थी युवा
विकृति स्वर
परायव दुर्मति ईश्वर नन्दन
प्लबंग |
दुन्दुभि बहुधान्य 27 विजय कीलक । 57 रुधिरोद्गारी प्रमाथी
। सौम्य रयताक्षी विक्रम
44 साधारण ऋोधन 45 विरोधकृत 60
54 रोल
धाता
जय
मन्मथ
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भद्रबाहुसंहिता
संवत्सर निकालने की प्रक्रिया संवत्कालो ग्रहयुतः कृत्वा शून्यरसहृतः।
शेषाः संवत्सग शेयाः प्रभवाद्या बुधैः क्रमात् ।। अर्थात्--विक्रम संवत में 9 जोड़कर 60 का भाग देने में जो शेष रहे, वह प्रभवादि गत संवत्सर होता है, उससे आगे वाला वर्तमान होता है । उदाहरणसंवत् 2047, इसमें 9 जोड़ा तो 2047+9-2056-:-60 = 34 उपलब्धि शेष 16, अतः । 6वीं संख्या चित्रभान की थी जो मत हो चला है, वर्तमान में सुभानु संवत् है, जो आगे बदल जाएगा, और वन्ति में तारण हो जाएगा।
प्रभवादि संवत्सर बोधक चक्र पाँच वर्ष ना एन युग होता है, इसी प्रमाण से 60 वर्ष के 12 युग और उनो ! 2 स्वामी हैं विष्णु. बृहस्पति, इन्द्र, अग्नि, ब्रह्मा, शिव, पितर, विश्वेदेवा, चन्द्र, अग्नि, अश्विनीकुमार और सूर्य ।
मतान्तर में प्रथम बीस संवत्सरों के स्वामी ब्रह्मा, इसके आगे बीस संवत्सगे के स्वामी विष्णु और इससे आगे वाले बीस संवत्सरों के स्वामी रुद्र शिव हैं।
द्वादशोऽध्यायः
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि गर्भान् सर्वान् सुखावहान् ।
भिक्षकाणां' विशेषेण परदत्तोपजीविनाम ॥1॥ अब सभी प्राणियों को सुख देने वाले मेघ के गर्भधारण का वर्णन करता हूँ। विशेष रूप से इस निमित्त का फल दूसरों के द्वारा दिये गए भोजन को ग्रहण करने वाले शिक्षकों के लिए प्रतिपादित करता हूँ। तात्पर्य यह है कि उक्त निमित्त द्वारा वर्षा और फसल की जानकारी सम्यक् प्रकार से प्राप्त की जाती है। जिस देश में मुभिक्ष नहीं, उस देश में त्यागी, मुनियों का निवास करना कठिन है।
1. शिक्षाचरणा 1. A. I
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अतः मुनिजन इस निमित्तद्वारा पहले से ही सुकाल दुष्काल का ज्ञान कर विहार करते हैं ।।1।।
ज्येष्ठा-मूलममावस्यां मार्गशीर्ष प्रपद्यते ।
मार्गशीर्षप्रतिपदि गर्भाधानं प्रवर्तते ॥2॥ मार्गशीर्ष-अगहन की अमावस्या को, जिस दिन चन्द्रमा ज्येष्ठा या मूल नक्षत्र में होता है, मेध गर्भ धारण करते हैं अथवा मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा को, जबकि चन्द्रमा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में होता है, मेघ गर्भ धारण करते हैं ।।2।।
मीदा स्थित गोंजानो विजो जलम् ।
रात्रौ समुत्थितश्चापि दिवा विसजते जलम् ॥3॥ दिन का गर्भ रात्रि में जल की वर्षा करता है और रात्रि का गर्भ दिन में जल की वर्षा करता है ।।3।।
सप्तमे सप्तमे मासे सप्तमे सप्तमेऽहनि ।
गर्भाः पाक विगच्छन्ति यादृशं तादृशं फलम् ॥4॥ सात-सात महीने और सात-सात दिन में गर्भ पूर्ण परिपाक अवस्था को प्राप्त होता है। जिस प्रकार का गर्भ होता है, उसी प्रकार का फल प्राप्त होता है। अभिप्राय यह है कि गर्भ के परिपक्व होने का समय सात महीना और सात दिन है । वाराही संहिता में यद्यपि 196 दिन ही गर्भ परिपक्व होने के लिए बताये गए हैं, किन्तु यहाँ आचार्य ने सात महीने और सात दिन काहे हैं। दोनों कथनों में अन्तर कुछ भी नहीं है, यतः यहाँ भी नक्षत्र मास गृहीत हैं, एक नक्षत्र मारा 27 दिन का होता है, अत: योग करने पर यहाँ भी 196 दिन आते हैं ।।4।।
पूर्वसन्ध्या-समुत्पन्नः पश्चिमायां प्रयच्छति ।
पश्चिमायां समुत्पन्नः पूर्वायां तु प्रयच्छति ॥5॥ पूर्व सन्ध्या में धारण किया गया गर्भ पश्चिम सन्ध्या में बरसता है और पश्चिम में धारण किया गया गर्भ पूर्व सन्ध्या में बरसता है । अभिप्राय यह है कि प्रात: धारण किया गया गर्भ सन्ध्या समय बरसता है और सन्ध्या सभय धारण किया गया गर्भ प्रात: बरसता है ।। 51
नक्षत्राणि मुहूर्ताश्च सर्वमेवं समादिशेत् । 'षण्मासं समतिक्रम्य ततो देव: प्रवर्षति ।।6।
1. प्रवर्तते ४० C. | 2. विकार
: A. 1 3 नम: ! 4. प"मारा न म ।
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भद्रबाहुसंहिता
नक्षत्र, मुहूर्त आदि सभी का निर्देश करना चाहिए। मेघ गर्भ धारण के छ. महीने के पश्चात् वर्षा करते हैं |16||
गर्भाधानादयो मासास्ते च मासा अवधारिणः । विपाचनत्रयश्वापि त्रयः कालाभिवर्षणाः ॥17॥
गर्भाधान, वर्षा आदि के महीनों का निश्चय करना चाहिए। तीन महीनों तक गर्भ की पक्व क्रिया होती है और तीन महीने वर्षा के होते हैं !! 7 शीतवातश्च विद्युच्च गर्जितं परिवेषणम् । सर्वगर्भेषु शस्यन्ते निर्ग्रन्थाः साधुदर्शिनः ॥8॥
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सभी गर्भो में शीत वायु का बहना, बिजली का चमकना, गर्जन करना और परिवेष की प्रशंसा सभी निर्ग्रन्थ साधु करते हैं । अर्थात् मेघों के गर्भ धारण के समय शीत वायु का बहना, बिजली का चमकना, गर्जन करना और परिवेष धारण करना अच्छा माना गया है। उक्त चिह्न फसल के लिए भी श्रेष्ठ होते # 1801
गर्भस्तु विविधा ज्ञेयाः शुभाशुभा यदा तदा । पापलिंगा निरुदका भयं दद्यनं संशय: 2 ॥9॥ उल्कापातोऽथ निर्धाताः दिग्दाहा' पांशुवृष्टयः । गृहयुद्धं निवृत्तिश्च ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः ॥101 ग्रहाणां चरितं चक्रं साधूनां' कोपसम्भवम् । गर्भाणानुपघाताय न ते ग्राह्या 'विचक्षणः ॥11॥
मेघ-गर्भ अनेक प्रकार के होते हैं, पर इनमें दो मुख्य हैं— शुभ और अशुभ | पाप के कारणीभूत अशुभ मेघ गर्भ निस्सन्देह जल की वर्षा नहीं करते हैं तथा भय भी प्रदान करते हैं । अशुभ गर्भ से उल्कापात, दिग्दाह, धूलि की वर्षा, गृहकलह, घर से विरक्ति और चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण होते हैं। ग्रहों का युद्ध, साधुओं का क्रोधित होना, गर्भों का विनाश होता है, अतः बुद्धिमान व्यक्तियों को अशुभ गर्भमेघों का ग्रहण नहीं करना चाहिए 119-11
1
5. flead:
धूमं रजः पिशाचाश्च शस्त्रमुल्कां सनागजः । तैलं घृतं सुरामस्थि क्षारं लाक्षां वसां मधु ॥11 2 ॥ अंगारकान् नखान् केशान् मांसशोणितकर्द्दमान् । विपश्यमाना मुञ्चन्ति गर्भाः पापभयावहाः ॥ 13।।
2 3 दिदा मु० । 4 सधूमं भु० B. I 16. A.
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पापगर्भ पंचममान होने के उपरान्त धूप, रज - धूलि का वर्षण, पिशाच --- भूतपिशाचादि का भय, शस्त्रप्रहार, उल्कापतन, हाथियों का विनाश तेल, घी, मद्य, हड्डी, क्षार - घातक तेज पदार्थ, लाख, रूप, मधु के अंगारे, नख, केश, मांस, रक्त, कीचड़ आदि की वर्षा करते हैं | 12-13॥
कार्तिकं 'चाय पौषं च चैत्र- वंशाखमेव च । श्रावणं चाश्विनं सोम्यं गर्म विन्याद् बहूदकम् ॥14॥
कात्तिक, पौष, चैत्र, वैशाख, श्रावण, आश्विन मास में सौम्य अर्थात् शुभ गर्भ होता है और अधिक जल की वर्षा करता है । अर्थात् उक्त मासों में यदि मेघ गर्भ धारण करे तो अच्छी वर्षा होती है ।।14।।
ये तु पुष्येण दृश्यन्ते हस्तेनाभिजिता तथा । अश्विन्यां सम्भवन्तश्च ते पश्चान्नेव शोभनाः ॥15॥ आर्द्राऽश्लेषासु ज्येष्ठासु मूले वा सम्भवन्ति ये । "ये गर्भागमदक्षाश्च मतास्तेऽपि बहुदकाः " ॥16॥
यदि पुष्य, हस्त, अभिजित, अश्विनी इन नक्षत्रों में गर्भ धारण हो तो शुभ है, इन नक्षत्रों के बाद शुभ नहीं । आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, भूल इन नक्षत्रों में गर्भ धारण का कार्य हो तो उत्तम जल की वर्षा होती है ।।15-16।
'उच्छ्रितं चापि वैशाखात् कार्तिके स्रवते जलम् । हिमागमेन गमिका 'तेऽपि मन्दोदकाः स्मृताः ॥17॥
वैशाख में गर्भ धारण करने पर कार्तिक मास में जल की वर्षा होती है । इस प्रकार के मेघ हिमागम के साथ जल की मन्दवृष्टि करने वाले होते हैं ॥ 17 ॥ स्वाती च मंत्रदेवे च वैष्णवे च सुदारुणे" ।
गर्भाः सुधारणा ज्ञेषा ते स्रवन्ते' बहूदकम् ॥18॥
स्वाती, अनुराधा, श्रवण और शतभिषा इन नक्षत्रों में मेघ गर्भ धारण करें तो अधिक जल की वर्षा होती है ||18||
पूर्वामुदोचीमंशानी ये गर्भा दिशमाश्रिताः ।
ते सम्यवन्तस्तोयायास्ते गर्भास्तु सुपूजिताः ॥19॥
पूर्व, उत्तर और ईशान कोण में जो मंत्र गर्भ धारण करते हैं, वे जल की वर्षा
1. बाज्य भू० 2. गर्भागमनदक्षञ्च म 3 व
5. मदोदास्ते प्रकीमिता 16. मुदा मु० AD
मु
4 उत्थितं भू
7 संभवन्ती बहुदनः
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भद्रबाहुसंहिता
करते हैं तथा फसल भी उत्तम होती है ।।19।।
वायव्यामथ वारुण्यां ये गर्भा सदन्ति च ।
"ते वर्ष मध्यमं दद्युः सस्यसम्पदमेव च ॥20॥ वायव्य कोण और पश्चिम दिशा में जो मेघ मर्भ धारण करते हैं, उनसे मध्यम जल की वर्षा होती है और अनाज की फसल उत्तम होती है ॥2011
शिष्टं सुभिक्षं विजेयं जघन्या नात्र संशयः ।
मन्दगाश्च घना वा च सर्वतश्च सुपूजिता: ॥21॥ दक्षिण दिशा में मेघ गर्भ धारण करें तो सामान्यतः शिष्टता, सुभिक्ष समझना चाहिए, इसमें सन्देह नहीं है तथा इस प्रकार के मन्द गति वाले मेघ सर्वत्र पूजे भी जाते हैं ।।214
भारुत: तत्प्रभवा: गर्भा धूयन्ते मारुतेन च।
धातो गर्भाश्च वर्षञ्च करोन्यपकरोति च ॥22।। वायु से उत्पन्न गर्भ वायु के द्वारा ही आन्दोलित किये जाते हैं तथा वायु चलता है, बर्षा करता है और गर्भ की क्षति भी होती है ।।22।।
कृष्णा नीलाश्च रक्ताश्च पीता: शुक्लाश्च सर्वतः ।
व्यामिश्राश्चापि ये गर्भाः स्निग्धाः सर्वत्र पूजिता: ।।23।। कृष्ण, नील, रक्त, पीत, शुक्ल, मिश्विवर्ण तथा स्निग्ध गर्भ सभी जगह पूज्य होते है शुभ होते हैं ।। 2311
अप्सराणां तु सदृशाः पक्षिणां जलचारिणाम् ।
वक्षपर्वतसंस्थाना गर्भाः सर्वत्र पूजिता: ।।24।। देवांगनाओं के सदृश, जलचर पक्षियों में समान, वृक्ष और पर्वत के आकार वाले गर्भ सर्वन पूज्य हैं-- शुभ हूँ ।। 2411
वापीकूपतडागाश्च' नद्यश्चापि मुहुर्मुहुः ।
पर्यन्ते तादृशंर्गभस्तोयक्लिन्ना नदीवहैः ।।2511 इस प्रकार के गर्भ से बावड़ी, कुंआ, तालाब, नदी आदि जल से लबालब भर आते हैं तथा इस प्रकार जल कई बार य रसता है ।।25।।
1. बायया (यय1) तु । 2. मध्य वर्ग 4 तनामन गु० । 5 धाव है: गे!
: म. ! 3. पातु गम
भु।।
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द्वादशोऽध्यायः
नक्षत्रेषु तिथौ चापि मुहूर्त्ते करणे दिशि ।
यत्र यत्र समुत्पन्नाः 'गर्भाः सर्वत्र पूजिताः ॥26॥
जिस-जिस नक्षत्र, तिथि, दिशा, मुहूर्त, करण में स्निग्ध मेघ गर्भ धारण करते हैं, वे उस उस प्रकार के मेघ पुज्य होते हैं— शुभ होते हैं ! 201
सुसंस्थाताः सुवर्णाश्च सुवेषाः स्वभ्राजा घनाः । सुबिन्दवः स्थिता गर्भाः सर्वे सर्वत्र पूजिताः ॥27॥
सुन्दर आकार, सुन्दर वर्ण, सुन्दर वेप, सुन्दर बादलों से उत्पन्न सुन्दर बिन्दुओं से युक्त मेघगर्भ सर्वत्र पूजित होते हैं-- शुभ होते हैं ॥27॥
कृष्णा रूक्षाः सुखण्डाश्च विद्रवन्तः पुनः पुनः । विस्वरा रूक्षशब्दाश्च गर्भा: सर्वत्र निन्दिताः ॥28॥
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कृष्ण, रूक्ष, खण्डित तथा विकृत आकार वाले, भयंकर और रूक्ष शब्द करने वाले मेघगर्भ सर्वत्र निन्दित हैं || 2811
'अन्धकारसमुत्पन्ना गर्भास्ते तु न पूजिताः ।
चित्रा: स्रवन्ति सर्वाणि गर्भाः सर्वत निन्दिताः ॥29॥
अन्धकार में 'समुत्पन्न गर्भ - कृष्णपक्ष में उत्पन्न गर्भ पूज्य नहीं – शुभ नहीं होते हैं । चित्रा नक्षत्र में उत्पन्न गर्भ भी निन्दित हैं ॥29॥
मन्दवृष्टिमनावृष्टि भयं राजपराजयम् ।
दुभिक्षं मरणं रोगं गर्भाः कुर्वन्ति तादृशम् ॥30
उक्त प्रकार का मेघगर्भ मन्दवृष्टि, अनावृष्टि, राजा की पराजय का भय, दुर्भिक्ष, मरण, रोग इत्यादि बातों को करता है ॥30॥
मार्गशीर्षे तु गर्भास्तु ज्येष्ठामूलं समादिशेत् । पौषमासस्य गर्भास्तु विन्द्यादाषादिकां बुधाः ॥३४॥ माघजात् श्रवणे विन्द्यात् प्रोष्ठपदे च फाल्गुनात् । वामश्वयुजे विन्द्याद्गर्भ जलविसर्जनम् 1|32|1
मार्गशीर्ष का गर्भ ज्येष्ठा या मूल में और पॉप का गर्भ पूर्वाषाढ़ा में, मात्र में उत्पन्न गर्भ श्रवण में, फाल्गुन में उत्पन्न धनिष्ठा नक्षत्र में, चैत्र में उत्पन्न गर्भ अश्विनी नक्षत्र में जल-वृष्टि करता है 1131-321
1. स्निग्धाः मु । 2. इस श्लोक के गहने B C Dद्रित है-अत्युष्णाश्चातिथीनाश्च बहुदा वितात्र या सर्वाणि गर्भाः सर्वत निन्दिताः । मु० 1
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भद्रबाहुसंहिता
मन्दोदा: प्रथमे मासे पश्चिमे ये च कीर्तिताः ।
शेषा बहूदका ज्ञेया: प्रशस्तैर्लक्षणर्यवा ॥33॥ पहले दिन मेघगर्मों का निरूपण किया है, उनमें से उपर्युक्त मेघगर्भ पहले महोने में कम जल को वर्षा करते हैं, अवशेष प्रशस्त-शुभ लक्षणों के अनुसार अधिक जल की वर्षा करते हैं ।।3314
यानि रूपाणि दश्यन्ते गर्भाणां यत्र यत्र च ।
तानि सर्वानि जेयानि भिक्ष णां भैक्षतिनाम् ।।34॥ मेघगर्भो का जहाँ-जहाँ जो-जो रूप दिखाई देता हो, मधुकरीवृत्ति करने वाले साधु को वहां-वहाँ उसका निरीक्षण करना चाहिए ।। 3411
सन्ध्यायां यानि रूपाणि मेघेष्वभ्रषु यानि च ।
तानि गर्नेषु सर्वाणि यथावदुपलक्षयेत् ।।35॥ मेघों का जो रूप सन्ध्या समय में हो, उनका गर्भकाल में अवस्था के अनुसार निरीक्षण करना चाहिए ॥3541
ये केचिन् विपरीतानि पठ्यन्ते तानि सर्वशः।
लिंगानि तोयगर्भेषु भयदेषु भवेत् तदा ।।36॥ प्रतिपादित शुभ चिह्नों के विपरीत चिह्न यदि दिखलाई पड़ें तो उन चिह्नों वाला मेघगर्भ भय देने वाला होता है 136
गर्भा यत्र न दृश्यन्ते तत्र विन्द्यान्महद्भयम् ।
उत्पन्ना वा स्रवत्याशु भद्रबाहुवचो यथा 137॥ जहाँ मेघगर्भ दिखलाई नहीं पड़ें, यहाँ अत्यन्त भय समझना चाहिए । उत्पन्न हुई फसल शीघ्र नष्ट हो जाती है, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ॥37।।
निर्ग्रन्था यन गर्भाश्च न पश्येयुः कदाचन ।
तं च देशं परित्यज्य सगर्भ संश्रयेत् त्वरा ॥38॥ निम्रन्थ मुनि जिस देश में मेघमर्भ न देखें, उस देश को छोड़कर शीघ्र ही। उन्हें मेघगर्भ वाले अन्य देश का आश्रय लेना चाहिए ।। 38।।
इति श्रीभद्रबाहु के संहितायां सकलमुनिजनानन्द नद्रबाहुविरचिते महान मित
शास्त्रे गर्भवातलक्षणं द्वादशमं परिसमाप्तम् ।
1. यथावस्थ निक्षयेस भु० । 2. तपेशं प्रथम त्या त्या सगर्भ रित प्रयत् मु० ।
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द्वादशोऽध्यायः
विवेचन - मेघगर्भ की परीक्षा द्वारा वर्षा का निश्चय किया जाता है । बराहमिहिर ने बतलाया है - "देवविवहितचित्तो निशं यो गर्भलक्षणे भवति । तस्य मुनेरिव वाणी न भवति मिथ्याम्बुनिर्देशे" ।। अर्थात् जो देव का जानकार पुरुष रात-दिन गर्भलक्षण में मन लगाकर सावधान चित्त से रहता है, उसके वाक्य मुनियों के समान मेवगणित में कभी मिथ्या नहीं होते । अतः गर्भ की परीक्षा का परिज्ञान कर लेना आवश्यक है। आचार्य ने इस अध्याय में गर्भधारण का निरूपण किया है। मार्गशीर्ष मास में शुक्ल पक्ष की तिपदा से जिस दिन चन्द्रमा पूर्वाषाढा नक्षत्र में होता है, उस दिन से ही सभी गर्भों का लक्षण जानना चाहिए। चन्द्रमा जिस नक्षत्र में रहता है, यदि उसी नक्षत्र में गर्भ धारण हो तो उस नक्षत्र से 195 दिन के उपरान्त प्रसवकाल- वर्षा होने का समय होता है । शुक्लपक्ष का गर्भ कृष्णपक्ष में और कृष्णपक्ष का गर्भ शुक्लपक्ष में, दिन का गर्भ रात्रि में, रात का गर्भ दिन में, प्रातका गर्भ में और
का गर्भ प्रातःकाल में जल की वर्षा करता है। मार्गशीर्ष के आदि में उत्पन्न गर्भ एवं पौष मास में उत्पन्न गर्भ मन्दफल युक्त हैं— अर्थात् कम वर्षा होती है । माघ मास का गर्भ श्रावण कृष्णपक्ष में प्रातःकाल को प्राप्त होता है । माघ के कृष्ण पक्ष द्वारा भाद्रपद मास का शुक्लपक्ष निश्चित है। फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में उत्पन्न गर्भ भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जल की वर्षा करता है। फाल्गुन के कृष्ण पक्ष का गर्भ आश्विन के शुक्लपक्ष में जन की वृष्टि करता है ।
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पूर्व दिशा के मेघ जब पश्चिम की ओर उड़ते हैं और पश्चिम के मेव पूर्व दिशा में उदित होते हैं, इसी प्रकार चारों दिशाओं के मेघ पवन के कारण अदला-बदली करते रहते हैं, तो मेघ का गर्भकाल जानना चाहिए । जब उत्तर, ईशानकोण और पूर्व दिशा वायु में आकाश विमल, स्वच्छ और आनन्दयुक्त होता है तथा चन्द्रमा और सूर्य स्निग्ध, स्वेरा और बहुत घेरंवार होते हैं, उस समय भी मेघों के गर्भधारण का समय रहता है। मेघों के गवारण करने का समय मार्गशीर्ष -- अगन, पोष, मात्र और फाल्गुन हैं। इन्हीं महीनों में मेघ गर्भ धारण करते हैं। जो व्यक्ति गर्भधारण का काल पहचान लेता है, वह गणित द्वारा बड़ी ही सरलता से जान सकता है कि गर्भधारण के 195 दिन के उपरान्त वर्षा होती है । अगहन के महीने में जिस तिथि को क्षेत्र गर्भ धारण करते हैं, उस तिथि में ठीक 19 5वें दिन में अवश्यं वर्षा होती है । अतः गर्भधारण की तिथि का ज्ञान लक्षणों के आधार पर ही किया जा सकता है। स्थूल और स्निग्ध मेघ जब आकाश में आच्छादित हों और आकाश का रंग काक के अण्डे और मोर के पंख के समान हो तो मेघों का गर्भधारण समझना चाहिए | इन्द्रधनुष और गम्भीर गर्जनायुक्त, सूर्याभिमुख, बिजली का प्रकाश करने वाले मेघ होतो;
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को साधारण कष्ट, अच्छी वर्षा, गभिक्ष और व्यापार में साधारण लाभ होता है। वज्रपात का योग अधिक रहता है । इस दिन गुरुवार को गन्धर्वनगर दिखलाई ! पड़े तो भी जनता को विशेष लाभ, अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, श्रेष्ठ फसल, व्यापार में लाभ और सभी प्रकार का अमन-चैन रहता है। शुक्रवार को गन्धर्वनगर : दिखलाई पड़े तो साधारण वर्षा, पर फसल अच्छी, वस्त्र के व्यापार में अधिक : लाभ, मशीनों के कल-गुजों में अधिक लाभ, गुड़, चीनी का भाव सस्ता एवं : प्रतिदिन उपभोग में आनेवाली वस्तुएं महंगी होती हैं । शनिवार को गन्धर्वनगर । उक्त महीने में दिखलाई पड़े तो साधारण वर्षा, फसल की कमी और व्यापारियों को कष्ट होता है।
श्रावण मास में मंगलवार को गन्धवं नगर दिखलाई पड़े तो वर्षा की कमी, किन्तु भाद्रपद में अच्छी वर्षा, फसल साधारण, धन-धान्य की वृद्धि, व्यापारियों को लाभ, जनता को कष्ट, बस्त्र का अभाव, आपसी-लाह और उक्त प्रदेश में । उपद्रव होते हैं । बुधवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अल्प वर्षा, साधारण पसल, धी की महँगी, तेल की भी महंगी, वस्त्र का बाजार सस्ता, सोना-चाँदी - का बाजार भी सस्ता, शरद ऋतु में अधिक शीत, अन्न का भाव भी महंगा रहता है । साधारण जनता को तो काष्ट होता ही है, पर धनी-मानियों को भी अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने पड़ते हैं। गुरुवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अच्छी वर्षा, सुभिक्ष, जनता में शान्ति और व्यापारियों को साधारण लाभ होता है। शुक्रवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो वर्षामान, दभिक्ष और जनता को आर्थिक कष्ट होता है। शनिवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो घोर दुभिक्ष और नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं।
भाद्रपद मास में मंगलवार को गन्धर्वनमर दिखलाई पड़े तो अल्प वर्षा, फसल की कमी, जनता को कष्ट एवं आर्थिक क्षति होती है। बुधवार को दिखलाई पड़े तो अच्छी वर्षों, समिक्ष, व्यापारी समाज को लाभ, मसाले के व्यापार में हानि एवं पशुओं में अनेक प्रकार यो रोग फैलते है। गुरुवार को गन्धवंनगर दिखलाई ९ तो अतिवृष्टि, फसल की कमी, बा, राजा की मृत्यु, नागरिकों में अशान्ति, घत, तैल के व्यापार में लाभ और गुड़, चीनी का भाव घटता है। शुक्रवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता को कष्ट, अनेक प्रकार के उप पव, व्यापार में हानि और आभिजात्य वर्ग के व्यक्तियों को कष्ट होता है। शनिवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो वर्षा में रुकावट, फसल की कमी और धान्य का 'माध महंगा होता हे 1
आश्विन मास में मंगलवार को गन्धर्वनभर दिखलाई पड़े तो सामान्य वर्षा, मात्र में विशेष वर्षा और शीत का प्रकोप, फसल साधारण, खनिज पदार्थों का विकास और देश की समद्धि होती है। बुधवार को गन्धर्वनना र दिखलाई पड़े तो
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ईशान और पूर्व दिशा में गर्भधारण करते हैं। जिस समय मेघ गर्भधारण करते : हैं उस समय दिशाएँ शान्त हो जाती हैं, पक्षियों का कलरव सुनाई पड़ने लगता । है । अगहन मास में जिस तिथि को नेघ सन्ध्या की अरुणिमा से अनुरक्त और मंडलाकार होते हैं, उसी तिथि को उनकी गर्भ धारण की क्रिया समझनी चाहिए। अगहन मास में जिस तिथि को प्रबल वायु चले, लाल-लाल बादल आच्छादित हों, चन्द्र और सूर्य की किरणें तुषार के समान कलुषित और शीतल हों तो छिन्न-भिन्न समझना चाहिए ! गर्भधारण के उपर्युक्त चारों मासों के अतिरिक्त । ज्येष्ट मास भी माना गया है । ज्येष्ठ में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से चार दिनों तक गर्भ धारण की क्रिया होती है। यदि ये चारों दिन एक समान हों तो सुखदापी । होते हैं, तथा गर्भधारण किया बहुत उत्तम होती है। यदि इन दिनों में एक दिन : जल बरसे, एक दिन पवन चले, एक दिन तेज धूप पड़े और एक दिन आंधी चले तो निश्चयतः गर्भ शुभ नहीं होता। ज्येष्ठमास ब गर्भ मात्र 89 दिनों में । बरसता है । अगहन वा गर्भ दिन में वर्षा करता है; किन्तु वास्तविक गर्भ अगहन । पौर और माघ का ही होता है। अगहन के गर्भ द्वारा आषाढ़ में वर्षा, पोप के गर्भ से श्रावण में, माघ के गर्भ से भाद्राद और फाल्गन के गर्भ से आश्विन में जलबुष्टि होती है। ___ फाल्गुन में तीक्ष्ण पवन चलने रो, रिनन्ध बादलों के एकत्र होने से. सूर्य के अग्नि समान गिल और ताम्रवर्ण होने में गर्भ क्षीण होता है । चत्र में सभी गर्भ पवन, मेघ, वर्षा और परिबंध युक्त होने में शुभ होते हैं। बैशाख में मेष, वायु, जल और बिजली की चमक एवं पकड़ाहट के होने से गर्भ की पुष्टि होती है। उल्का, बच, धलि, दिग्दाह, भूकम्प, गन्धर्धनगर, कीलक, केतु, ग्रहयुद्ध, निर्धात, परिज, इन्धनुष, राहुदर्शन, मधिरादि का बर्षण आदि के होने से गर्भ का । नाश होता है। पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, पूर्वागामा, उन रापाढ़ा और
रोहिणी नक्षत्र में धारण किया गया गर्भ पुष्ट होता है। इन पांच नक्षत्रों में गर्भ धारण दरना शुभ माना जाता है तथा मेघ प्रायः अन्हीं नक्षत्रा में गर्भ धारण । करते भी हैं । अगहन महीने में जब ये नक्षत्र हों, उन दिनों गर्भ वाल का निरीक्षण करना चाहिए 1 पोप, भाप और फाल्गुन में भी इन्हीं नक्षत्रों का मेघगर्भ शुभ होता है, किन्तु शतभिषा, आश्लपा, आना और स्वाती नक्षत्र में भी गर्भ धारण की क्रिया होती है। अगहन में बैशाख माग तक छ: महीनों में गर्भ धारण करने से 8, 6, 16, 24, 20 और 3 दिन तक निरन्तर वर्षा होती है। क्रूरग्रहयुक्त । होने पर समस्त गर्भ में ओले, अशनि और मछली की वर्षा होती है। यदि गर्भ समय में अकारण ही गार वर्षा हो तो गर्भ मा रतुलन हो जाता है।
ममें पांच प्रकार के निमित्ता स पुष्ट होता है । जो पुष्टगर्भ है, वह सौ योजन
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तक फैल कर जल की वर्षा करता है । चतुर्निमित्तक गुष्ट गर्भ 50 योजन, त्रिनिमित्तक 25 योजन, द्विनिमित्तक 125 योजन और एक निमित्तक 5 योजन तक जल की वर्षा करता है । पञ्चनिमितों में पवन, जल, बिजली, गर्जना और मेघ शामिल हैं । वर्षा का प्रभाव भी निमित्तों के अनुसार ही ज्ञात किया जाता है । पञ्चनिमित्त मेघगर्भ से एक द्रोण जल की वर्षा, चतुर्निमित्तक से बारह आढक जल की वर्षा, त्रिनिमित्तक से 8 आढक जल की वर्षा, द्विनिधि से 6 आढक और एक निमित्तक से 3 आढक जल की वर्षा होती हैं । यदि गर्भकाल में अधिक जल की वर्षा हो जाय तो प्रसनकाल के अनन्तर ही जल की वर्षा होती है।
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मेघविजयगण ने मेघगर्भ का विचार करते हुए लिखा है कि मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के उपरान्त जब चन्द्रमा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र पर स्थित हो, उसी समय गर्भ के लक्षण अवगत करने चाहिए। जिस नक्षत्र में मेघ गर्भ धारण करते हैं, उससे 195 वें दिन जब वहीं नक्षत्र आता है तो जल-वृष्टि होती है। मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष का गर्भ तथा पौष कृष्णपक्ष का गर्भ अत्यल्प वर्षा करने वाला होता है । माघ शुक्लपक्ष का गर्भ श्रावण में और भाप कृष्ण का गर्भ भाद्रपद शुक्ल में जल की वृष्टि करता है । फाल्गुन शुक्ल का गर्भ भाद्रपद कृष्ण में, फाल्गुन कृष्ण का आश्विन शुक्ल में चैत्र शुक्ल का गर्भ आश्विन कृष्ण में, चैत्र कृष्ण का गर्भं कार्तिक शुक्ल में जल की वर्षा करता है। सन्ध्या समय पूर्व में आवश मेवाच्छादित हो और ये मेघ पर्वत या हाथी के समान हों तथा अनेक प्रकार के श्वेत हाथियों के समान दिखलाई पड़े तो पाँच या सात रात में अच्छी वर्षा होती है | सन्ध्या समय उत्तर में आकाश मेत्राच्छादित हो और मेघ पर्वत या हाथी के समान मालूम पड़ें तो तीन दिन में उत्तम वर्षा होती है । सन्ध्या समय पश्चिम दिशा में श्याम रंग के मे आच्छादित हों तो सूर्यास्त काल में ही जल की उत्तम वर्षा होती है। दक्षिण और आग्नेय दिशा के मेघ, जिन्होंने पीप में गर्भ धारण किया है, अल्प वर्षा करते हैं | श्रावण मास में ऐसे मेघों द्वारा श्रेष्ठ वर्षा होने की सम्भावना रहती है । आग्नेय दिशा में अनेक प्रकार के आकार वाले मंत्र स्थित हों तो इति, सन्ताप के साथ सामान्य वर्षा करते है । वायव्य और ईशान दिशा के बादल शीघ्र ही जल बरसात है। जिन मेघों ने किसी भी महीने की चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी और सप्तमी को गर्भ धारण किया है, मेघ शीघ्र हो जल-वृष्टि करते हैं । मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष में मघा नक्षत्र में मेघ गर्भ धारण करे अथवा मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशी को मेघ और बिजली दिखलाई पड़े तो आषाढ़ शुक्ल पक्ष में अवश्य ही जल-वृष्टि होती है ।
मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, पंचमी और पष्ठी इन तिथियों में आश्लेषा,
मत्रा
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और पूर्वाफाल्गुनी ये नक्षत्र हों और इन्हीं में गर्भ धारण की क्रिया हुई हो तो आषाढ़ में केवल तीन दिनों तक ही उत्तम वर्षा होती है । यदि मार्गशीर्ष में उत्तरा, हस्त और चित्रा ये नक्षत्र सप्तमी तिथि को पड़ते हों और इसी तिथि को गर्भ धारण करें तो आषाढ़ में केवल बिजली चमकती है और मेघों की गर्जना होती है । अन्तिम दिनों में तीन दिन वर्षा होती है । आषाढ़ शुक्ला अष्टमी को स्वाती नक्षत्र पड़े तो इस दिन महावृष्टि होने का योग रहता है । मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी, एकादशी और द्वादशी और अमावस्या को चित्रा, स्वाती, विशाखा
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हो और इन तिथियों में क्षेत्रों गर्भ धारण किया हो तो आषाढ़ी पूर्णिमा को बनघोर वर्षा होती है । जब गर्भ का प्रसवकाल आता है, उस समय पूर्व में बादल धूमिल, सूर्यास्त में श्याम और मध्याह्न में विशेष गर्मी रहती है । यह सक्षण प्रसवकाल का है। श्रावण, भाद्रपद और आश्विन का गर्भ सात दिन या नां दिन में ही बरस जाता है। इन महीनों का गर्भ अधिक वर्षा करने वाला होता है । दक्षिण की प्रबल हवा के साथ पश्चिम की वायु भी साथ ही चले तो शीघ्र ही वर्षा होती है । यदि पूर्व पवन चले और सभी दिशाएँ धूम्रवर्ण हो जायें तो चार प्रहर के भीतर मेघ बरसता है। यदि उदयकाल में सूर्य विद्यलाये गये स्वर्ण के समान या वैडूर्य मणि के समान उज्ज्वल हो तो शीघ्र ही वर्षा करता है। गर्भकाल में साधारणतः आकाश में बादलों का छाया रहना शुभ माना गया है। उल्कापात, विद्यत्पात, धूलि, वर्षा, भूकम्प, दिग्दाह गन्धर्थनगर, निर्धात शब्द आदि का होना संघगर्भ काल में अशुभ माना गया है। पंचनक्षत्र - पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, रोहिणी, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपद में धारण किया गया गर्भ सभी ऋतुओं में वर्षाका कारण होता है । शतभिषा, आश्लेषा, आर्द्रार्श, स्वाती, मघा इन नक्षत्रों में धारण किया गया गर्भ भी शुभ होता है। अच्छी वर्षा के साथ सुभिक्ष, शान्ति, व्यापार में लाभ और जनता में सन्तोष रहता है । पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र का गर्भ पशुओं के लिए लाभदायक होता है । उस गर्भ का निमित नर और मादा पशुओं की उन्नति का कारण होता है | पशुओं के रोग आदि नष्ट हो जाते हैं और उन्हें अनेक प्रकार से लोग अपने कार्यों में लाते हैं। पशुओं की कीमत भी बढ़ जाती है । देश में कृषि का विकास पूर्णरूप से होता है तथा कृषि के सम्बन्ध में नये-नये अन्वेषण होते हैं । पूर्वापाड़ा में गर्भ धारण करने से चातुर्मास में उत्तम वर्षा होती है और माप के महीने में भी वर्षा होती है, जिससे फसल की उत्पत्ति अच्छी होती है । पूर्वाषाढ़ा का गर्भ देश के निवासियों के आर्थिक विकास का भी कारण बनता है। यदि इस नक्षत्र के मध्य में गर्भ धारण का कार्य होता है, तो प्रशासक के लिए हानि होती है तथा राजनीतिक दृष्टि से उक्त प्रदेश का सम्मान गिर जाता है । उत्तरापाड़ा में गर्भ धारण की क्रिया होती है तो भाद्रपद के महीने में अल्प वर्षा होती है, अवशेष महीनों में खूब वर्षा होती है। कलाकार और शिल्पियों के
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लिए उक्त प्रकार का गभं अच्छा होता है। देश में कला-कोपाल की भी वृद्धि होती है। यदि उक्त नक्षत्र में सन्ध्या सगय गर्भ धारण की क्रिया हो तो व्यापारियों के लिए अशुभ होता है। वर्षा प्रचुर परिमाण में होती है। विद्य त्पात अधिक होता है, तथा देश के किसी बड़े नेता की मृत्यु की भी सूचक होती है । उत्तराषाढ़ा के प्रथम चरण में गर्भ धारण की क्रिया हो तो साधारण वर्षा आश्विन मास में होती है, द्वितीय चरण में गर्भधारण की क्रिया हो तो भाद्रपद मास में अल्प वर्षा होती है और यदि तृतीय चरण में गर्भधारण की क्रिया हो तो पशुओं को कष्ट होता है । अतिवृष्टि के कारण बाढ़ अधिक आती है तथा समस्त बड़ी नदियाँ जल से आप्लावित हो जाती हैं । दिग्दाह और भूकम्प होने का योग भी आश्विन और माघ मास में रहता है। कृषि के लिए उक्त प्रकार की जलवृष्टि हानिकारक ही होती है। उत्तराषाढ़ा के चतुर्थ चरण में गर्भधारण होने पर उसम वर्षा होती है और फसल के लिए यह वर्षा अमृत के समान गुणकारी सिद्ध होती है ।
पूर्वा भाद्रपद में गर्भ धारण हो तो चातुर्मास को अलावा गौष में भी वर्षा होती है और फसल में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, जिरासे फसल की क्षति होती है। यदि इस नक्षत्र के प्रथम चरण में गर्भ धारण की क्रिया मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष में हो तो गर्भ धारण के 193 दिन बाद उत्तम वर्षा होती है और आषाढ़ के महीने में आठ दिन वर्षा होती है । प्रथम चरण की आरम्भ वाली तीन घटियों में गर्भ धारण हो तो पाँच आढक जल आषाढ में, सात आढक श्रावण में, छ: आढक भाद्रपद और चार अगढक आश्विन में बरसता है। गर्भ धारण के दिन से ठीक 193 वें दिन में निश्चयतः जल बरस जाता है। यदि द्वितीय चरण में गर्भ धारण की क्रिया मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष में हो तो 192 दिन के पश्चात् या 192वें दिन ही जल वृष्टि हो जाती है । आषाढ़ कृष्ण पक्ष में उत्तम जल बरसता है, शुक्ल पक्ष में केवल दो दिन अच्छी वर्षा और तीन दिन साधारण वर्षा होती है। द्वितीय चरण का गर्भ चार सौ कोश की दूरी में जल बरसाता है । यदि इसी नक्षत्र के इसी चरण में मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में गर्भ धारण की क्रिया हो तो आषाढ़ में प्रायः वर्षा का अभाव रहता है। थावण मास में पानी बरसना आरम्भ होता है, भाद्रपद में गी अल्प ही वर्षा होती है । यद्यपि उक्त नक्षत्र के उक्त चरण में गर्भ धारण करने का फल वर्ष में एक मारी जल बरसता है; किन्तु यह जल इस प्रकार बरसता है, जिससे इसका सदुपयोग पूर्ण रूप से नहीं हो पाता। यदि पूर्वाभाद्रपद के तृतीय चरण में मेघ मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष में गर्भधारण करें तो 190वें दिन वर्षा होती है । वर्षा का आरम्भ आषाढ़ कृष्ण सप्तमी से हो जाता है तथा आषाढ़ में ग्यारह दिनों तक बर्षा होती रहती है। श्रावण में कुल आठ दिन, भाजपद में चौदह दिन और आश्विन में नौ दिन वर्षा होती है। कात्तिक मास में कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को शुक्लपक्ष की पंचमी
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तक वर्षा होती है। इस चरण का गर्भधारण फसल के लिए भी उत्तम होता है तथा सभी प्रकार के धान्यों की उत्पत्ति उत्तम होती है। जब नक्षत्र के चतुर्थ चरण में गर्भ धारण की क्रिया हो तो 196वे दिन घोर वर्षा होती है। सुभिक्ष, शान्ति और देश के आर्थिक विकास के लिए उक्त गर्भ धारण का योग उत्तम है। वर्ष में कुल 84 दिन वर्षा होती है । आषाढ़ में ! 6 दिन, श्रावण में 19 दिन, भाद्रपद में | 4 दिन, आश्विन में 19 दिन, कातिक में 10 दिन, मार्गशीर्ष में 3 दिन और माथ में 3 दिन पानी बरसता है । अन्न का भाव सस्ता रहता है। गुड़, चीनी, घी, तेल, तिलहन का भाव वृछ तेज रहता है।
उन राभाद्रपद के प्रथम चरण में मार्गशीर्ष शुगलपक्ष में गर्भधारण हो तो गर्भधारण के 18वें दिन वर्ण होती है। उर्गा साभ आपाढ़ शुक्ल तृतीया गे होता है। वर्ष में 73 दिन वर्षा होती है । आपाढ़ में 6 दिन, धावण में 18 दिन, भाद्रपद में 18, आश्विन में 14 दिन, कार्तिक में 10 दिन, मार्गशीर्ष में 5 दिन और पीग में 2 दिन वर्षा होती है। द्वितीय चरण में गर्भ धारण होने पर 185वें दिन वर्षा आरम्भ होती है तथा वर्ष में तुज 66 दिन जल बरसता है। तृतीय चरण में गर्भ धारण होने पर 183वें दिन ही जल की वर्षा होने लगती है। यदि इसी नक्षत्र में आपाड़ या श्रावण में मेघ गर्भ धारण करे तो 7 वे दिन ही वर्षा हो जाती है । पतुर्थ चरण में गर्भ धारण करने पर ! 78वें दिन वर्षा आरम्भ हो जाती है तथा फसल भी अच्छी होती है । ज्याठ में उक्त नक्षत्र वे. उक्त चरण में गर्भ धारण हो तो ! |वें दिन बापा, आपाढ़ में गर्भधारण हो तो छठे दिन वर्षा, और श्रावण में गर्भधारण हो तो नीसरे दिन वर्षा आरम्भ होती है। रोहिणी नक्षत्र में गर्भधारण होने पर अच्छी वर्षा होती है तथा वर्ष में कुल 81 दिन जल बरराता है । आपाढ़ में 12 दिन, श्रावण में 16 दिन, भाद्रपद में 18 दिन, आश्विन में 14, कालिका में 5 दिन, मार्गजी में 7 दिन, पोप में 3 दिन और माघ में 6 दिन पानी बरसता है । फसल उत्तम होती है। गेहूँ की उत्पत्ति विशेष रूप से होती है।
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त्रयोदशोऽध्यायः
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि यात्रां 'मुख्यां जयावहाम् । निर्ग्रन्थदर्शनं तथ्यं पार्थिवानां जयैषिणाम् ॥1॥
अब निर्ग्रन्थ आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित एवं राजाओं को विजय और सुख देने वाली यात्रा का वर्णन करता हूँ !!! |
आस्तिकाय विनीताय श्रद्दधानाय धीमते ।
कृतज्ञाय सुभक्ताय यात्रा सिद्ध्यति श्रीमते ||2||
J
आस्तिक - लोक परलोक, धर्म, कर्म, पुण्य, पाए पर आस्था रखने वाले, विनीत, श्रद्धालु, बुद्धिमान्, कृतज्ञ भक्त और श्रीमान् की यात्रा सफल होती है || 2 ||
अहंकृतं नृपं क्रूरं नास्तिकं पिशुनं शिशुम् । कृतघ्नं चपलं भीरुं श्रीर्जहात्यबुधं शठम् ॥3॥
3
अहंकारी, क्रूर, नास्तिक, चुगलखोर, बालक, कृतघ्नी चपल, डरपोक और शठ नृप की यात्रा असफल होती है यात्रा में सफलता रूपी लक्ष्मी की प्राप्ति उपर्युक्त लक्षण विशिष्ट व्यक्ति को नहीं होती ।13।।
वृद्धान् साधून् समागम्य देवज्ञांश्च विपश्चितान् । ततो यात्राविधिकुर्यान् "नृपस्तान् पूज्य बुद्धिमान् ॥4॥
वृद्ध, साधु, दैवज्ञ – ज्योतिषी, विद्वान् का यथाविधि सम्मान कर बुद्धिमान् राजा को यात्रा करनी चाहिए || 4 ||
राज्ञा बहुश्रुतेनापि प्रष्टव्या ज्ञाननिश्चिताः । अहंकारं परित्यज्य तेभ्यो गृह्णीत निश्चयम् ॥5॥
अनेक शास्त्रों के ज्ञाता नृपति को भी अहंकार का त्याग कर निमित्तज्ञ से यात्रा का मुहूर्त ग्रहण करना चाहिए- ज्योतिषी से यात्रा का मुहूर्त एवं यात्रा के शकुनों का विचार कर ही यात्रा करनी चाहिए ||5||
ग्रहनक्षत्र तिथयो मुहूर्त करणं स्वराः ।
लक्षणं व्यंजनोत्पातं निमित्तं साधुमंगलम् ॥16॥
ग्रह, नक्षत्र, करण, तिथि, मुहुर्त, स्वर, लक्षण, व्यंजन, उत्पात, राष्धुमंगल आदि निमित्तों का विचार यात्राकाल में करना आवश्यक है ||
1. वामत्रसुखावहम् मुए 2 निव्यदर्शि तथा पाकियानां निर्माणाम्। 3. नुपस्तं मु० 14 । 5. उत्पाना मु !
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भद्रबाहुसंहिता
ग्यस्माद्देवासुरे युद्धे निमित्तं दैवतैरपि।
कृतं प्रमाणं तस्माद्वै विविध दैवतं मतम् ।।7।। देवासुर संग्राम में देवताओं ने भी निमित्तों का विचार किया था, अत: राजाओ को सर्वदा निश्चयपूर्वका निमित्तों की पूजा करनी चाहिए--निमित्तों के शुभा-शुभ के अनुसार यात्रा करनी चाहिए ॥7
हस्त्यश्वरथपादातं बलं खलु चतुर्विधम् ।।
निमित्ते तु तथा ज्ञेयं यत्र तत्र शुभाऽशुभम् ॥8॥ हाथी, घोड़ा, रय और पैदल इस प्रकार चार तरह की चतुरंग सेना होती है । यात्रा कालीन निमित्तों के अनुसार उक्त प्रकार की सेना का शुभाशुभत्व अवगत करना चाहिए ।।8।।
शनैश्चरगता एव हीयन्ते हस्तिनो यदा।
अहोरात्रान्यमाक्रोद्यु: तत्प्रधानवधस्मृतः ॥9॥ यदि कोई राजा ससैन्य शनिश्चर को यात्रा करे तो हाथियों का विनाश होता है। अहर्निश यमराज का प्रकोप रहता है तथा प्रधान सेना नायक का वध होता है ॥9॥
यावच्छायाकृतिरवहीयन्ते वाजिनो यदा।
विगनस्का विगलय: तत्प्रधानवधः स्मृतः ।।10॥ यदि घोड़ों की छाया, आकृति और हिनहिनाने की ध्वनि-आवाज हीयमान हो तथा वे अन्यमनस्या और अस्त-व्यस्त चलते हों तो सेनापति का वध होता है ॥100
'मेघशंखस्वरामास्तु हेमरत्नविभूषिताः ।
भछायाहीना: प्रकुर्वन्ति तत्प्रधानवधस्तथा ॥11॥ यदि स्वर्ण आभूषणों से युक्त धोड़े मेत्र के समान आकृति और शंख ध्वनि के समान शब्द करते हुए छायाहीन दिखलाई पड़ें तो प्रधान सेनापति के वध की । सूचना देते हैं । ॥
I. पूर्व च पाशात निमिता गगनैरपि। गाई पूजनीयाश्च निमित्ताः सततं नमः ।।71 2. . मु.। 3ामद : भु। 4 यथा मु०। 5. बधलया मुः। 6. धानमय वाया।. सम्बना भाव [.! 8. छायापहीणा कुवैलि पु०। 9. सदा मु०।
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प्रयोदशोऽध्यायः
177
शौर्यशस्त्र बलोरेता विख्याताश्च पदातयः ।
परस्परेण भिद्यन्ते तत्प्रधानवधस्तदा ॥12॥ यदि यात्रा काल में प्रसिद्ध पैदल सेना शौर्य, शस्त्र और शक्ति से सम्पन्न होकर आपस में ही झगड़ जाये तो प्रधान सेनापति के वध की सुचना अवगत करनी चाहिए ॥12॥
निमित्त लक्षवेतां चतुरंगां तु वाहिनीम् ।
निमित्त: स्थपतिवेद्यः पुरोधाश्च लो विदुः ॥1॥ चतुरंग सेना के गमन समय के निमित्तों का अवलोकन करना चाहिए। नैमित्तिवः, राजा, वैद्य और पुरोहिरा : चारों के लक्षणों को निम्न प्रकार ज्ञात करना चाहिए ॥ 1 311
चतुविधोऽयं विष्कम्भरतस्य बिम्बा: प्रकीर्तिताः ।
स्निग्धो जीमूतसंकाशः सुस्वप्न: चापविच्छमः ॥14॥ नमित्तिक, राजा, बैद्य और पुरोहित यह चार प्रकार का विष्कम्भ है, इसके बिम्ब-पर्याय स्निग्ध, जीमतसंकाश ..मेघों का सान्निध्य, सुस्वप्न और धनुषज्ञ है 140
नमित्तः साधुसम्पन्नो राज्ञः कार्यहिताय सः । संघाता पाधिवेनोक्ताः सथानस्थाप्यकोविदः ॥15॥ स्कन्धावारनिदेशेषु कुशल: स्थापको मतः । कायशल्यशलाकासु विधोन्मादज्वरेषु च ॥16॥ चिकित्सानिपुणः कार्य: राज्ञा वैद्यस्तु यात्रिकः । ज्ञानवानल्प वास्त्रीमान् "कांक्षामुक्तो 'यश: प्रियः ।।7।। मानोन्मानप्रभाधुक्तो पुरोधा गुणवांछितः । स्निग्धो गम्भीरघोषश्च सुमनाश्चाशुमान् बुत्रः ।।४।। छायालक्षणपुष्टश्च सुवर्ग: पुष्ट क: सुवाक। सबल: पुरुषो विद्वान् शोधश्च यति: शुचि: ।।।।
1. एवमेव जयं वग: म गा , प्रा. : 2. सपन. म. | 3 बह लोक हस्ननखित प्रति य नहीं है, ! 4 - मनः । 5. या न म । 6. साम्यो म । 2. सम म। म .. . ... ... ... शि . म. ।
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भद्रबाहुसंहिता
हिंस्रो त्रिवर्ण: पिंगो वा नीरोमा 'छिद्रजितः ।
रक्तश्मथ : पिगनेत्रो गौरस्ताम्रः पुरोहितः ॥20॥ शुभ लक्षणों में युक्त, राजा के हित कार्य में सलग्न, राजा के द्वारा प्रतिपादित योजनाओं को टित करने वाला, समता भाव स्थापित करने वाला और निमित्तों का ज्ञाता नगिनिक होता है।
छावनी-मैन्य-शिबिर बनाने में निपुण, शुद्ध-संचालक और समयज्ञ स्थपति राजा होता है।
शरीरमास्त्र, निदानशास्त्र, शल्यवर्म-- ऑपरेशन, सूचीकर्म-इन्जेक्शन, मळ, ज्वर आदि यो में प्रयोण और चिकित्सा कार्य में दक्ष वैद्य को ही राजा द्वारा गाया बाल में वैद्य निर्वाचित किया जाना वाहिए।
ज्ञानी, अल्प मापण कारोवाना अर्थात् मितभाषी, बुद्धिमान, सांसारिक आकांक्षाओं मे रहित. यश की कामना रखने वाला, गुणवान्, मानोन्मान प्रभायुक्त
सगान नाद वाला, स्निग्ध और गम्भीर स्वर-कोमल और स्निग्ध स्वर वाला, श्रेष्ठ नि बाला, बुद्धिमान्, गृप्ट शरीर वाला, सुन्दर वर्ण वाला, सुन्दर आकृति बाला, सुन्दर वचन वाला, बलवान्, विद्वान्, अक्रोधी -शान्त चित्त, जितेन्द्रिय, पवित्र, त्रिवर्ण --दिज, हिमक, दिगवणं, लोभरहित, छिद्र--चेचक के दाग रहित, लाल मंझ, पिंगल नेत्र, गौरवर्ण, ताभ्र-कांचन देह पुरोहित होता है ।। 15-2011
नित्योद्विग्नो नाहते युक्त: प्राज्ञः सदाहितः।
एवमेतान् यथोद्दिष्टान् सत्कर्मषु च योजयेत् ॥21॥ नित्य ही चिन्तित, राजा के हित कार्य में संलग्न, बुद्धिमान, सर्वदा हित चाहने वाला पुरोहित नैगित होता है । राजा को चाहिए कि वहपूर्वोक्त गुण वाले *मित्त, वैद्य और पुरोहित नो ही कार्य में लगाये ।।21।।
इतरेतरयोगेन न सिद्धयन्ति कदाचन ।
*अशान्तो शान्तकारो यो शान्तिपुष्टिशरीरिणाम् ॥22॥ इतरेतर योग-उपर्युक्त लक्षणों से रहित व्यक्तियों को कार्य में लगा देने पर मंग्राम सम्बन्धी यात्रा सफल नहीं होती । म ही व्यक्ति को नियुक्त करना साहिए, जो अशान्त को शान्त नार सके और प्रजा में शान्ति और पुष्टि- समद्धि स्थापित कर सके ॥22॥
___E. fitoपगत् म । 2 नगीन गया:: म॥ । 3. भागः पाकरण: शान्तःपुण्याभिचाणिग म. ।
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त्रयोदशोऽध्यायः
179
यदेवाऽसुरयुद्धे च निमितं दैवतैरपि ।
कृतप्रमाणं च तस्माद्धि द्विविधं दैवतं मतम् ॥23॥ देवासुर संग्राम में देवताओ ने निमित्तों को देखा था और उन्हें प्रमाणभूत स्वीकार किया था। अतएव निमित्त दो प्रकार के होते हैं- शुभ और अशुभ 11230
ज्ञानविज्ञान युक्तोऽपि लक्षणविवजितः ।
"न कार्यसाधको ज्ञेयो यथा चक्रो रथस्तथा ॥24॥ ज्ञान-विज्ञान ग सहित होने पर भी यदि नमित्त, पुरोहितादि उपर्युक्त लक्षणों से रहित हों तो बे कार्य-साधक नहीं हो सकते हैं । जिस प्रकार वक्ररथ - टेढ़ा रथ अच्छी लगे गमन करने में असमर्थ है, उसी प्रकार उपायुक्त लक्षणों से हीन व्यक्तियों ग यान होने पर राजा अपने कार्य के सम्पादन में असमर्थ रहता है ।।24।
यस्तु लक्षणसम्पन्नो ज्ञानेन च समायुतः ।
स 'कार्यसाधनो ज्ञेयो यथा सर्वागिको रथः ॥25॥ जो नृप उपर्युक्त लक्षणों से युक्त, ज्ञान-विज्ञान से महित व्यक्तियों को नियुक्त करता है, उगर सायं सफल हो जाते हैं । जिस प्रकार सर्वांगीण रथ द्वारा मार्ग जय करने में सुविधा होती है, उसी प्रकार उक्त लक्षणों से सहित व्यक्तियों के नियुक्त करने पर कार्य साधने में सफलता प्राप्त होती है ।।2 511
अल्पेनापि तु ज्ञानेन कर्मज्ञो लक्षणान्वित: ।
तद् विन्द्यात् सर्वमतिमान् राजकर्मसु सिद्धये ॥26॥ वार्य कृष्णव, भले ही अल्पज्ञानी हो, किन्तु उपर्युक्त लक्षणों से युक्त बुद्धिमान् व्यक्ति को ही राजकार्यों की सिद्धि के लिए नियुक्त करना चाहिए ।।2611
अपि लक्षणवान मुख्य: कंचिदर्थ प्रसाधयेत् । ___"न च लक्षणहीनस्तु 'विद्वानपि न साधयेत् ॥27॥
का लक्षणवाला व्यक्ति अल्पज्ञानी होने पर भी कार्य की सिद्धि कर सकता है। किन्तु लक्षण रहित विद्वान् व्यक्ति भी कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है ।।2714
1. सामन् यद् बनं देवनेगी म । 2. नमोऽपि मु० । 3. तं साधयायंगो मु.. । 4. मा. कायंगो मु. । 5. सिध्यान भ० । 6. जानन बलहीन तु म • 1 7 वेदानपि मु० ।
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एकादशोऽध्यायः
153
अछो वर्षा, सामान्य शोस, माय में बमपात, अन्न का भाव महंगा और व्यापारी वर्ग या धोबी, कुम्हार, नाई आदि के लिए फाल्गुन, चैत्र और वैशाख में ऋष्ट होता है। गुरुवार को मन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जिस दिन इसका दर्शन होता है, उस दिन के आठ दिन पश्चात् ही धोर बर्मा होती है। इस वर्षा से नदियों में बाढ़ आने की भी संभावना रहती है। व्यापारी वर्ग के लिए यह दर्शन उत्तम माना गया है। शुक्रवार को गन्ध्रनगर दिखलाई पड़े तो जनता को आनन्द, सुभिक्ष, परस्पर में सहयोग की भावना का विकास, धन-जन की वृद्धि एवं नागरिकों को सुख-शान्ति मिलती है। पानिवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो साधारण जनता को भी कष्ट होता है । वर्षा अच्छी होती है, पर असामयिक वर्षा होने के कारण जनता के साथ पशु वर्ग को भी कष्ट उठाना पड़ता है।
कात्तिक मास में मंगलवार को गन्ध्रनगर दिनलाई पड़े तो अग्नि का प्रकोप होता है, अनेक स्थानों पर आग लगने की घटनाएं मनाई गड़ती है। ब्यापार में घाटा होता है। देश में कुछ अशान्ति रहती है। पशुओं के लिए चारे का अभाव रहता है। बुधवार को गन्धर्वनगर दिखाई पड़े तो शीत का प्रकोष होता है । शहरों में भी ओल वरमते हैं : पशु और मनुष्यो को जगार कष्ट होता है। गुरुवार को गन्धर्व नगर दिखाई पड़े तो जनता की अपार कष्ट होता है। यद्यपि आर्थिक विकास के लिए इस प्रकार के मार्थनगर दिखलाई पड़ना उनम होता है। शुक्र को गन्धर्वनगर दिवलाई पड़े तो शान्ति रहती है । जनता में सहयोग बढ़ता है। औद्योगिक विकास के लिलाता है। शनिवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो सिंह, न्याय आदि हिरा पशुओं द्वारा जनता को कष्ट होता है। व्यापार के लिए इस प्रकार के गन्धर्यनगर का दिखलाई पड़ना शुभ नहीं है।
मार्गशीर्ष मास में मंगलवार के दिन गन्धर्व नगर दिलाई गई तो जनता को कष्ट, आगामी वर्ष उत्ता शर्मा, फरस अच्छी और बड़े पूंजीपतियों को नष्ट होता है। बुधवार को गन्धर्वनगर दिखना भी जनता को एट होता है। गुरुवार को गन्धर्वनगर मा दिउमाई पड़ना :छा होता है, देश का सर्वांगीण विकास होता है । शुक्रवार को गन्धर्वनगर का देखा जाना लाभ, गुख, आरोग्य
और शनिवार को देखने से हानि होती है। शनिवार की शाम को यदि पतिग दिशा में गन्धर्वनगर दिखलाई हे तो गदर होता है ! काई किसी को गूछता नहीं, मारकाट और लूटपाट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
पोरसाद में मंगलवार को बताईनमा दिन पड़े तो प्रजा को कपट, रोग और अग्निमय: बुधवार को दिनला ती पूर्ण म, धान्य का मात्र सा, सोना-चाँदी का भाव महंगा; शुक्रवार का दिखलाई हे तो आगामी वर्ष बनधार
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180
भद्रबाहुसंहिता
यथान्ध: पथिको भ्रष्ट: पथि विलश्यत्यनायकः ।
अनैमित्तस्तथा राजा नष्टे श्रेयसि क्लिश्यति ॥28॥ जिस प्रकार अन्धा गस्तागीर ले जाने वाले के ना रहने से च्युत हो जाने से कष्ट उठाता है उसी प्रकार नैमित्तिक के बिना राजा भी कल्याण के नष्ट होने से कष्ट उठाता है।12811
यथा तमसि चक्षुष्मान्न रूपं साधु पश्यति ।
अनैमित्तस्तथा राजा न श्रेयः साधु सास्यति ॥29॥ जिस प्रकार नेत्र वाला व्यक्ति भी अन्धकार में अच्छी तरह रूप को नहीं देख सकता है, उसी प्रकार नैमित्तिक से हीन राजा भी अच्छी तरह कल्याण को नहीं । प्राप्त कर सकता है ।।29॥
यथा वको रथो गन्ता चित्रं 'यति यथा च्युतम् ।
अनैमित्तस्तथा राजा न साधु'फलमीहते ।।300 जिग प्रकार वक्र—टेढ़े-मेढ़े रथ द्वारा मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति मार्ग से । च्युत हो जाता है और अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुंच पाता; उसी प्रकार नैमित्तिक से रहित राजा भी कल्याणमार्ग नहीं प्राप्त कर पाता है ।। 3011
चतुरंगान्वितो युद्धं कुलालो वतिनं यथा।
अविनष्ट न गृह्णाति जितं सूत्रतन्तुना ।।3111 जिस प्रकार कुम्हार बर्तन बनाते समय मृतिका, चाक, दण्ड आदि उपकरणों के रहने पर भी, वर्तन निकालने वाले धागे के बिना बर्तन बनाने का कार्य सम्यक् प्रकार नहीं कर सकता है, उसी प्रकार चतुरंग सेना से सहित होने पर भी राजा नैमित्तिक के बिना सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है ।।31॥
चतुरंगबलोपेतस्तथा राजा न शक्नुयात् ।
अविनष्टफलं भोक्तुं नैमित्तेन विजित: ।।321 चतुरंग गेना से युक्त होने पर भी राजा नैमित्तिक से रहित होने पर युद्ध के समग्रफन्न प्राप्त नहीं कर सकता है ।। 3211
तस्माद्राजा निमित्तझं अष्टांगकुशलं वरम् ।
विभ्याल प्रथमं प्रीत्याऽभ्यर्थयेत् सर्वसिद्धये ।।33॥ अतएव राजा गभी प्रकार की सिद्धि प्राप्त करने के अष्टांग निमित्त के ज्ञाता, J.. . । चन्दा मु. । 3. सेम:- म ।
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त्रयोदशोभ्यायः
181
. चतुर, श्रेष्ठ नैमित्तिक को प्रार्थना पूर्वक अपने यहाँ नियुक्त करें ।। 33।।
आरोग्यं जीवितं लाभं सुखं मित्राणि सम्पदः ।
धर्मार्थकाममोक्षाय तदा यात्रा नृपस्य हि ॥34॥ आरोग्य, जीवन, लाभ, सुख, सम्पत्ति, मित्र-मिला, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति जिस समय होने का योग हो, उसी समय राजा को यात्रा करनी पाहिए 1340
शय्याऽऽसनं यानयुग्मं हस्त्यश्व स्त्री-नरं स्थितम् ।
वस्वान्तस्वप्नयोधाश्च यथास्थानं स योक्ष्यति ।।35॥ शुभ-यात्रा से ही शय्या, आसन, सवारी, हाथी, घोड़ा, स्त्री, पुरुष, वस्त्र, योद्धा आदि यथासमय प्राप्त होते है । अर्मा म मा २ अच्छी वस्तुएं भी नष्ट हो जाती हैं । अतः समय का प्रभाव सभी वस्तुओं पर पड़ता है 1350
भृत्यामात्यास्त्रियः पूज्या राजा स्थाप्या: सुलक्षणा; ।
एभिस्तु लक्षण राजा लक्षणोऽप्यवसीदति ॥36।। मृत्य, अमात्य-प्रधानमन्त्री और स्त्रियों का यथोचित सम्मान करके इन्हें ': राज्य चलाने के लिए राजधानी में स्थापित करना चाहिए । इन उपर्युक्त लक्षणों से युक्त राजा ही लक्ष्य को प्राप्त करता है ।। 36।।
तस्माद् देशे च काले च सर्वज्ञानवतां वरम् ।
सुमना: पूजयेद् राजा नमित्तं दिव्यचक्षुषम् ।।371 अतएव देश और काल में सभी प्रकार के नानियों में श्रेष्ठ दिव्य चक्षुधारी नैमित्तिक का सम्मान राजा को प्रसन्न चित्त से करना चाहिए ।। 37।।
ने वेदा नापि चांगानि न विद्याश्च पथक पथक ।
प्रसाधयन्ति तानानिमित्तं यत् सुभाषितम् ॥38॥ निमित्तों के द्वारा जितने प्रकार के और जैसे कार्य सफल हो समान है, उस प्रकार के उन कार्यो को न वेद से सिद्ध किया जा सकता है, न बदांग से और न अन्य किसी भी प्रकार की विद्या से ।।38।।
अतीतं वर्तमानं च भविष्यद्यच्च किंचन । सर्व विज्ञायते येन तज्ज्ञानं नेतरं मतम् ।।.39॥
1. एषां लक्षण: म.
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भद्रबाहुसंहिता
अतीत- भूत, वर्तमान और भविष्यत् का परिजान निमित्तों के द्वारा ही किया जा सकता है, अन्य किसी शास्त्र या विद्या के द्वारा नहीं ॥39॥ स्वर्ग प्रीतिफलं प्राहुः सौख्यं धर्मविदो जनाः । तस्मात् प्रीतिः सखा ज्ञेया सर्वस्य जगतः सदा ॥40॥
182
धर्म के जानकार व्यक्तियों ने प्रेम का फल स्वर्ग और सुख बतलाया है। अतएव समस्त संभार के प्रेस को मित्र जानना चाहिए ||4|
स्वर्गेण तादृशा प्रीतिविषयैर्वापि मानुषः ।
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'यदेष्टः स्यान्निमित्तेन सतां प्रीतिस्तु जायते ॥ 41 मनुष्यों को स्वगं गं जैसी प्रीति होती है अथवा विषयों में भोगों में जैसी प्रीति होती है, उस प्रकार निमित्तों से सज्जनों की प्रीति होती है अर्थात् शुभाशुभ को ज्ञात करने के लिए निमियों की परम आवश्यकता है, अतः निमित्तों से प्रीति करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है 411
तस्मात् स्वर्गास्पदं पुण्यं निमित्तं जिनभाषितम् । पावनं परमं श्रीमत् कामदं च प्रमोदकम् 1242
अतएव जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा निरूपित निमित्त स्वर्ग के तुल्य पुण्यास्पद, परम पवित्र, इच्छाओं को पूर्ण करने वाले और प्रमोद को देने वाले हैं । 42 रागद्वेषौ च मोहं च वर्जयत्वा निमित्तवित् । देवेन्द्रमपि निर्भीको यथाशास्त्रं समादिशेत् ॥ 43॥
निमित्तज्ञ को राग, द्वेग और मोह का त्याग कर निर्भय होकर शास्त्र के अनुसार इन्द्र को भी यथार्थ बात कह देनी चाहिए ॥3॥
सर्वाण्यपि निमित्तानि अनिमित्तानि सर्वशः । "नमित्तं पृच्छतो याति निमित्तानि भवन्ति छ' ।। 440
सभी निमित्त और सभी अनिमित्तनैमितिक से पूछने पर निमित्त हो जात हैं । अर्थात् नैमित्तिक व्यक्ति अनिमित्तकों को निमित्त मानकर फलाफल का निर्देश करता है ।1441
यथान्तरिक्षात् पतितं यथा भूमौ च तिष्ठति । तथांगजनिता चेष्टं निमित्तं फलमात्मकम् ॥1451
1. यदि हटा नितिन 3 व 4 द 5. faaeth y 16 faini ye | 7. ₫ |
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त्रयोदशोऽध्यायः
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निमित्त तीन प्रकार के हैं-आकाश त पतित, भूमि पर दिखाई देने वाले और शरीर से उत्पन्न चेष्टाएं ।।45।।
'पतेन्निम्ने यशाप्यम्भो सेतु बन्धे च तिष्ठति।
'चेतो निम्ने तथा तत्त्वं तद्विद्यादफलात्मकम् ।।46॥ जिस प्रकार जल नीचे की ओर जाता है, पर पुल बाँध देने पर मन जाता है, उसी प्रकार मानव का मन भी निम्न बातों की ओर जाता है, किन्तु इन बातों को अफलात्मक...-फल रहित जानना चाहिए ।।46।।
"बहिरंगाश्च जायन्ते अन्तरंगाच्च चिन्तितम् ।
तज्ज्ञ: शुभाऽशुभं ब्र यानिमित्तज्ञानकोविदः ।।47।। अन्तरंग में विचार करने पर ही बहिरंग में विकृति आती है। अतः निमित्त ज्ञान में प्रवीण व्यक्ति को शुभाशुभ निमित्त का वर्णन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि वाह्य प्रकृति में विकार अन्तरंग कारणों से ही होता है, अतः बाह्य निर्मामलों में क्रिया वर्णन सत्य सिद्ध होता है ॥47।।
सुनिमित्तेन संयुक्तस्तत्परः साधवृत्तयः।
अदीनमनसंकल्पो भव्यादि लक्षयेद् बुधः ।।48॥ सुनिमित्तों को जानकर, साधु आचरण वाला व्यक्ति, मन को दृढ करता हुआ, शुभाशुभ फल का निरूपण कारे 11481!
कजरस्तु तदा नर्देत् ज्वलमाने हताशने।
स्निग्धदेशे ससम्भ्रान्तो राज्ञां विजयमावत् ॥4॥ स्निग्धा देश में यकायक अग्नि प्रज्वलित हो और हाथी म अंगा नारे ता गजा की विजय होती है ।।491
एवं हयवृषाश्चापि सिंहव्याघ्राश्च सस्वराः ।
नर्दयन्ति तु "सैन्यानि तदा राजा प्रमर्दति ॥5 इसी प्रकार घोड़ा, बैल, सिंह, व्याघ्र स्वरपूर्वक गुन्दर नाद या गजन करें तो राजा सेना को नुचलता है ।। 501
1. तथवा यथा निम्ने सेतुबन्धं च भाठा .. 12.45 H | 3 प॥ | 4. विन्द्यात् बाफनामा मु। 5. यह दानापमान मन नलाग । 6. विधिम् म.। 7. नदेधूनमा मु.। 8. frieमन iit _ । 9. गुस्थर: मु.। 10. सौम्बानि म ।
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भद्रबाहुसंहिता स्निग्धोऽल्पघोषो धूमोऽथ गौरवर्णो महानुजः ।
प्रदक्षिणोऽप्यवच्छिन्नः सेनानी विजयावहः ।।5।। यदि गमन काल में स्निग्धा, मन्द ध्वनि, धूम्रयुवता, गौरवर्णा, गीधी बड़ी शिखावाली अम्नि दाहिनी ओर से चारों ओर को प्रदक्षिणा करती हुई भी अविच्छिन्न! दिखलाई पड़े तो सेनानी की विजय होती है 115112
कृष्णो वा विकृतो रूक्षा वामावर्ती हुताशनः ।
होनाच्चिधूमबहलः स प्रस्थाने भयावहः ।।52।। यदि गमन समय में कृष्ण शिखाबाली, रूक्ष विकृति-बिकार वाली, अधिक धूम वाली अग्नि सेना की बायीं ओर दिनलाई पड़े तो भयप्रद होती है ।। 5211
सेनाग्रे हूयमानस्य यदि पीता शिखा भवेत् ।
श्यामाऽथवा यदा रक्ता पराजयति सा चभूः ।।53॥ यदि गमनकाल में सेना के आगे पीतवर्ण की अग्नि की ज्वाला धू-धू करती हुई दिखलाई पड़े, रक्त वर्ण की अथवा कृष्ण वर्ण की शिखा उपर्युक्त प्रकार की ही दिखलाई पड़े तो राना की पराजय होती हैं ।।53।।
यदि होत: पथे शीघ्र 'ज्वलत्स्फुल्लिगमग्रतः।
पार्श्वत: पृष्ठतो वाऽपि तदेवं फलमादिशत् ।।54॥ यदि गमन समय गाग में होता अर्थात् हवन करने वाले के आगे अम्निकण शीघ्रता से उड़ते हुए दिखलाई पड़ें, अथवा पीछे या बगल की ओर अग्निकण दिखलाई गड़े तो भी रोना की पराजय होती है ।154।।
यदि धूपाभिभूता स्याद् वातो भस्म निपातयेत् ।
आहूतः करूपते वाऽऽज्यं न स यात्रा विधीयते ।।5.5॥ यदि अग्नि धूमयुक्त हो और थायु के द्वारा इसकी भरम ... रास्त्र इधर-उधर उड़ रही हो अथवा अग्नि में आहुति रूप दिया गया ची कम्पित हो रहा हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिए ।।55॥
राजा परिजनो वानि कुप्यते मन्त्रशासने।
होतुराज्यविलोपे च तस्यैव वधमादिशेत् ॥6॥ राजा या परिजन गली में अनुशारान रोधित हों और हवन करनेवाले होता का घी नष्ट हो जाये तो उससी वध की गूचना समझनी चाहिए ।।56।।
1. जेह व
शुगमना; मु. ।
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प्रयोदशोऽध्यायः
185
यद्याज्यभाजने केशा भस्मास्थीनि पुनः पुनः ।
सेनाग्रे हूयमानस्य मरणं तत्र निर्दिशेत् ।।57।। यदि सेना के समक्ष हवन के धृतपात्र में केश, भस्म हड्डी पुनः-पुन: गिरती हों तो सेना के मरण का निर्देश करना चाहिए ।15
आयो होतु: पतेद्धस्तात् पूर्णपात्राणि वा भुवि ।
कालेन स्यादधस्तत्र सेनाया नात्र संशयः ।।58॥ यदि होता के हाथ से जल गिर जाये अथवा पूर्ण पात्र पृथ्वी पर गिर जाये तो कुछ समय में सेना का वध होता है, इसमें सन्दह नहीं है ।। 58।।
यदा होता तु सेनायाः प्रस्थाने स्खलते मुहुः ।
बाधयेद् ब्राह्मणान् भूमौ तदा स्ववधमादिशेत् ॥590 जब सेना के प्रस्थान में होता बार-बार स्खलित हो और पृथ्वी पर ब्राह्मणों को बाधा पहुंचाता हो तो अपने बध का निर्देश करता है ।। 59॥
धूमः 'कुणिपगन्धो वा पीतको वा यदा भवेत् ।
सेनाने हूयमानस्य तदा सेना पराजयः ।।601 यदि आमन्त्रित सेना के आगे हवन की अग्नि का धूम मुदा जैसी गन्ध वाला हो अथवा धूम पीले वर्ण का हो तो गना के पराजय की सूचना समझनी चाहिए 116011
मूषको नकुलस्थाले बराहो गच्छतोऽन्तरा।
धामावर्तः पतंगो वा राज्ञो व्यसनमादिशत् ॥6॥ न्यौला, मूषक और शूक र यदि पीछमी ओर आने मानिसलाई हे अथवा बायीं ओर पतंग - चिड़िया उड़ती हुई दिखलाई पड़े तो राजा की विपत्ति की सूचना समझनी चाहिए ।।1।।
मक्षिका वा पतंगो वा यद्वाऽप्यन्यः सरीसृपः ।
सेनाग्रे निपतेत् किञ्चिदयमाने वधं वदेत् ॥62।। मधुमयी, पतंग, सरीसृप-रेंगकर नलन बाला अन्न, सादि आमन्त्रित मेना के आगे गिरे तो वध होने की सूचना समझानी त्राहिए ।।621।
शुष्क प्रदाले यदा वष्टिश्चाप्यपवर्षति । ज्वाला धूमाभिभूता तु ततः संन्यो निवर्तले ॥6 |
!. कुणम ॥ 1 2. गते रात् मुर । 3. जागा- म ।
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भद्रबाहुसंहिता
शुष्क --सूखे काष्ठादि जलने लगे, कुछ-कुछ वर्षा भी हो और अग्नि की लौ । धूमयुक्त हो तो सेना लोट आती है ।। 63।।
जुह्वतो दक्षिणं देशं यदि गच्छन्ति चाचिषः ।
राज्ञो विजयमाचष्टे वामतस्तु पराजयम् ।।64।। यदि राजा के गमन समय में दक्षिण और हवन करती हुई अग्नि दिखलाई पड़े तो विजय और बायीं ओर उक्त प्रकार की अग्नि दिखलाई पड़े तो पराजय होती है ।।64।।
जुह्वत्यनुपसर्पणस्थानं तु यत् पुरोहितः ।
जित्वा शत्रून रणे सर्वान् राजा तुष्टो निवर्तते ।।6511 यदि पुरोहित ढालू स्थान पर यज्ञ करता हो अथवा जिधर राजा गमन कर रहा हो, उधर पुरोहित यज्ञ करता हो तो समरत शत्रुओं को जीत कर प्रसन्न होता हुआ राजा लौटता है ।।6 511
यस्य वा सम्प्रयातस्य सम्मुखो पृष्ठतोऽपि वा ।
पतत्युल्का सनिर्धाता वधं तस्य निवेदयत् ।।6।। प्रयाण करने वाले जिस राजा के सम्मुख या पीले अपंण करती हुई उल्का गिरे तो उस राजा का वध होता है ।। 66।।
सेना यान्ति प्रयातां यां व्यादाश्च जग पिसताः ।
अभोणं विस्वरा धोरा; सा सेना वध्यते परैः ।।671 घृणित मांसपटी जना- शेर, व्यात्र, गृह आदि जन् वा बार विकृत और 'भयंकर गब्द करते हुए प्रयाण करने वाली रोजाना अनुगमन य.र. तो रोना शत्रुओं द्वारा बध को प्राप्त होती है 1167।।
प्रयाण निपतेदुल्का प्रतिलोमा यदा चमः ।
निवर्तयति मासेन तत्र यात्रा न “सिध्यति ॥6॥ जव गेना के प्रयाग के समय विपरीत दिशा में उसकपात होता है. तन्द सेना एक महीने में लौट आती है और यात्रा सफल नहीं होती ।।6।।
छिन्ना भिन्ना प्रदृश्यत तदा सम्प्रस्थिता चमू: । निवर्तयेत सा शोघ्र न सा सिद्ध्यति कुत्रचित् ।।69॥
1 Marithai |दशा ।। | 2.
पागधा : ! 3 प्रभु
। यह म। 4. AE
मु.।
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त्रयोदशोऽध्यायः
यदि सेना के प्रयाण के समय उल्का छिन्न-भिन्न दिखलाई पड़े तो शीघ्र ही सेना लौट आती है और यात्रा सफल नहीं होती ॥69 ॥
यस्या: प्रयाणे सेनायाः सनिर्घाता मही चलेत् । न तया सम्प्रयातव्यं साऽपि वध्येत सर्वशः ||70|
187
जिस सेना के प्रयाण के समय घर्षण करती हुई स्त्री चले - भूकम्प हो तो उस सेना के साथ नहीं जाना चाहिए। क्योंकि उसका भी वध होता है ||70| अग्रतस्तु सपाषाणं तोयं वर्षति वासवः ।
सङ्ग्रामं घोरमत्यन्तं जयं राज्ञश्च शंसति ॥71॥
यदि सेना के आगे मेघ ओलों सहित वर्षा कर रहा हो तो भयंकर युद्ध होता है और राजा के जय लाभ में सन्देह समझना चाहिए || 7 ||
प्रतिलोमो यदा वायुः सपाषाणो रजस्करः । निवर्तयति प्रस्थाने परस्परजयावहः 17211
कंकड़-पत्थर और धूलि को लिये हुए यदि विपरीत दिशा का वायु चलता हो तो प्रस्थान करने वाले राजा को लौटना पड़ता है तथा परस्पर विजय लाभ होता है - दोनों को — पक्ष-विपक्षियों को जयलाभ होता है | 721
मारुतो दक्षिणो वापि यदा हन्ति परां चमूम् । 'प्रस्थितानां प्रमुखतः विन्द्यात् तत्र पराजयम् ॥73॥
यदि सेना के प्रयाण के समय दक्षिणी वायु बन रहा हो और यह सेना का बात कर रहा हो तो प्रस्थान करने वाले राजा की पराजय होती है 173
"यदा तु तत्परां सेनां समागम्य महाघनाः। तस्य विजयमाख्याति भद्रबाहुवचो यथा ॥74।।
यदि प्रयाण करने वाली सेना के चारों ओर बादल एकत्र हो जायें तो भद्रबाहु स्वामी के वचनानुसार उस सेना की विजय होती है |74||
हीनांगा जटिला बद्धा व्याधिताः पापचेतसः । षण्ढाः पापस्वरा ये च प्रयाणं ते तु निन्दिताः ॥75॥
प्रस्थान काल में ही होनांग व्यक्ति, बेड़ी आदि में बद्ध व्यक्ति, रोगी, गाप बुद्धि, नपुंसक, पाप स्वर - विकृत स्वर - तोतली बोली बोलने वाला, हकलाने
1. अस्थि प्रभु 3. महाजन: मु० । 4. पापाशय मुख ।
2. सुपर सेवा समय महाजनः गुण ।
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भद्रबाहुसंहिता
को
समझना चाहिए ||7|| नग्नं प्रव्रजितं दृष्ट्वा मंगलं मंगलाथितः । कुर्यादमंगलं यस्तु तस्य सोऽपि न मंगलम् ॥76॥
वाला आदि व्यक्ति यदि पियें तो
नम्न, दीक्षित मुनि आदि साधुओं का दर्शन मंगलार्थी के लिए मंगलमय होता है। जिसको साधु-मुनि का दर्शन अमंगल रूप होता है, उसके लिए वह भी मंगल रूप नहीं है ॥76॥
पीडितोऽपचयं कुर्यादाक ुष्टो वधबन्धनम् । ताडितो मरणं दद्याद् त्रासितो रुदितं तथा ॥77॥
यदि प्रयाण काल में पीड़ित व्यक्ति दिखलाई पड़े तो हानि, चीखता हुआ दिखलाई पड़े तो बध-बन्धन, ताड़ित दिखलाई पड़े तो मरण और रुदित दिखलाई पड़े तो त्रासित होना पड़ता है ॥77॥
पूजितः सानुरागेण लाभं राज्ञः समादिशेत् । तस्मात्तु मंगलं कुर्यात् प्रशस्त साधुदर्शनम् 1178
अनुराग पूर्वक पूजित व्यक्ति दिखलाई पड़े तो राजा को लाभ होता है, अतएव आनन्द मंगल करना चाहिए। यात्रा काल में साधु का दर्शन शुभ होता
0178
दैवतं तु यदा बाह्य राजा सत्कृत्य स्वं पुरम् । प्रवेशयति तद्राजा बाह्यस्तु लभते पुरम् ||790
जब राजा बाह्य देवता के मन्दिर की अर्चना कर अपने नगर में प्रवेश करता है तो बाह्य से ही नगर को प्राप्त कर लेता है ॥ 79
वैजयन्त्यो विवर्णास्तु" 'बाह्य राज्ञो यदाग्रतः । पराजयं समाख्याति तस्मात् तां परिवर्जयेत् ॥30॥
यदि राजा के आगे बहिर्भाग की पताका विकृत रंग बदरंगी दिखलाई पड़े
तो राजा की पराजय होती है, अतः उसका त्याग कर देना चाहिए |80||
सर्वार्थेषु प्रमत्तश्च यो भवेत् पृथिवीपतिः ।
हितं न शृण्वतश्चापि तस्य विन्द्यात् पराजयम् ॥81॥
जो राजा समस्त कार्यो में प्रमाद करता है और हितकारी वचनों को नहीं सुनता है, उसकी पराजय होती है ||81||
i.
2. सोत्तरामेन गुरु 3. प्रत्र । 4. रात्री बाह्य यदा प्रभु ।
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त्रयोदशोऽध्यायः
189
अभिद्रवन्ति यां सेनां विस्वरं मगपक्षिणः ।
श्वमानुषश्चगाला वा सा सेना वध्यते परः ॥४2॥ जिस सेना पर विकृत स्वर में आवाज करते हुए पशु-पक्षी आक्रमण करें अथवा कुत्ता, मनुष्य और शृगाल सेना का पीछा करें तो यह सना शत्रुओं के द्वारा वध को प्राप्त होती है 182।।
भग्नं दग्धं च शकटं यस्य राज्ञ: प्रयायिणः ।
देवोपसष्टं जानीयान्न तत्र गमनं शिवम् ।।83।। प्रस्थान करने वाले जिस राजा की गाड़ी---रथ, या अन्य वाहन अनाममात भग्न या दग्ध हो जाय तो उसे यह दैविक उपसर्ग समझना चाहिए और उसका गमन करना कल्याणकारी नहीं है ।। 831
उल्का वा विद्युतोऽभ्र वा कनका: सूर्यरश्मयः ।
स्तनितं यदि वा छिद्र सा सेना वध्यते परैः ॥841 यदि प्रयाण काल में उल्का, विद्य त्, अभ्र और सुर्ग को रवर्ण किरणें स्तनित कड़कती हुई अथवा सछिद्र दिखाई पड़ें तो रोना शत्रुओं ने द्वारा वध को प्राप्त होती है ।।84॥
प्रयातायास्तु सेनाया यदि कश्चिन्निवर्तते।
चतुष्पदो द्विपदो वा न सा यात्रा विशिष्यते ॥४॥ यदि प्रयाण करने वाली सेना से कोई चतुरपद---हाथी, घोड़े आदि पशु (या द्विपद---मनुष्य (या पक्षी) लौटने लगे तो उस यात्रा को शिष्ट-शुभकारी नहीं समझना चाहिए ।।851
प्रयातो दि वा राजा निपतेद् वाहनात क्वचित् ।
अन्यो वाऽपि गजाऽश्वी वा साऽपि यात्रा जुगुप्सिता॥86।। यदि प्रयाण करता हुआ राजा यकायक सवारी में गिर जाये अश्रया अन्य हाथी, घोड़े गिर जायें तो यात्रा को निन्दित समझना चाहिए ।।6।।
ऋव्यादाः पक्षिणो यत्र निलीयन्ते ध्वजादिषु ।
निवेदयन्ति ते राज्ञस्तस्य घोरं चमूवधम् ॥871 जिस राजा की सेना की ध्वजा पर मांसभक्षी पक्षी बंट जार्य तो उस राजा की सेना का भयंकर वध होता है ।।871
मुहुर्मुहुर्यदा राजा निवर्तन्तो निमित्ततः । प्रयात: परचक्रण सोऽपि वध्येत संयुगे॥४४॥
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भद्रबाहुसंहिता
वर्षा, आर्थिक कष्ट, आवास की समस्या और अन्न कष्ट, एवं शनिवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो राजा और प्रजा दोनों को अपार कष्ट होता है ।
माघ मास में मंगलवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो चैती फसल बहुत उत्तम, लोहा के व्यापार में पूर्ण लाभ, रबर या गोंद के व्यापार में हानि, राजनीतिक उपद्रव और अशान्ति, बुधवार को दिखलाई पड़े तो उत्तम वर्षा; सुभिक्ष, आर्थिक विकास और शान्ति, गुरुवार को दिखलाई पड़े तो सुख, सुभिक्ष और प्रसन्नता; शुक्रवार को दिखलाई पड़े तो शान्ति, लाभ और आनन्द एवं शनिवार को दिखलाई पड़े तो अपार कष्ट होता है । प्रातः काल शनिवार को इस महीने में गन्धर्व नगर का देखना शुभ होता है । उस प्रदेश में सुभिक्ष, सुख और शान्ति रहती है ।
फाल्गुन मास में मंगलवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो आषाढ़ से आश्विन तक अच्छी वर्षा होती है, गेहूं, धान, ज्वार, जौ, गन्ना के भाव में महँगी रहती है। यद्यपि कार्तिक के पश्चात् ये पदार्थ भी सस्ते हो जाते हैं। व्यापारियों, कलाकारों और राजनीतिज्ञों के लिए वर्ष उत्तम रहता है। बुधवार को गन्धर्वनगर दिखलाई देने में फाल में कमी, राज या अधिकारी शासक का विनाश, पंचायत में मतद एवं सोनके नाम तुला कोई दे तो पीले रंग की वस्तुओं का भाव सस्ता माल रंग की वस्तुओं का भाव महंगा और तिल, तिलहन आदि का भाव समर्थ, शुक्र को दिखलाई पड़े तो पत्थर, चूने के व्यापार में विशेष लाभ, जूट में घाटा और वर्षा समयानुसार एवं शनिबार को दिखलाई पड़े तो वर्षा अच्छी और फसल सामान्यतया अच्छी ही होती है ।
चैत्र मास में मंगलवार को सन्ध्या समय गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो नगर में अग्नि का प्रकोप, पशुओं में रोग, नागरिकों में कलह और अर्थहानि: बुधवार को मध्याह्न में दिखलाई पड़े तो अर्थविनाश, नागरिकों में असन्तोष, रसादि पदार्थों का अभाव और पशुओं के लिए चारे की कमी; गुरुवार को रात्रि में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता को अत्यन्त कष्ट व्यहों का प्रचार अधार्मिक जीवन एवं अर्थक्षति, शुक्रवार की दिखलाई पड़े तो चातुर्मास में अच्छी वर्षा, उत्तग फसल, अनाज का भाव सस्ता, घी, दूध की अधिक उत्पत्ति, व्यापारियों को दान एवं शनिवार को मध्यरात्रि या मध्य दिन में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता में और संघर्ष, मारकाट एवं अशान्ति होती हैं । अराजकता सर्व फैन जाती है।
वंशाख मास में मंगलवार को प्रातःकाल या अपराह्न काल में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो तुर्मास में अच्छी वर्षा और सुभिक्ष, बुधवार को दिखलाई पड़े तो व्यापारियों में मतभेद, आपस में झगड़ा और आर्थिक क्षति गुरुवार को
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भद्रबाहुसंहिता
जब किमी निमित्त कार्य के लिए राजा प्रयाण करने वाली सेना से लौट .. करके जाए तो शत्रु राजा के द्वारा यह गुद्ध में मारा जाता है ।।880
यदा राज्ञः प्रयातस्य रथश्च पथि भज्यते।
भग्नानि चोपकरणानि तस्य राज्ञो वधं दिशेत् ॥8॥ जव यात्रा करने वाले राजा का रथ भार्ग में भग्न हो जाये तथा उस राजा के क्षत्र, चमर आदि उपकरण भग्न हो जाये तो उसका वध समझना चाहिए ।।89।।
प्रयाणे पुरुषा वाऽपि यदि नश्यन्ति सर्वशः ।
सेनाया बहुशश्चापि हता देवेन सर्वशः ।।901 यदि प्रत्यान में - यात्रा में अनेक व्यक्तियों की मृत्यु हो तो भाग्यवश सेना में भी अनेक प्रकार की हानि होती है ।। 9011
यदा राज्ञः प्रयातस्य दानं न कुरुते जनः ।
हिरण्यव्यवहारेषु साऽपि यात्रा न सिध्यति॥9॥ यदि प्रयाण मारने वाले राजा क व्यक्ति प्रयाण काल में स्वर्णादिक दान न करें तो यात्रा सफल नहीं होती है ।1911।
प्रवरं घातयेत् भत्यं प्रयाणे यस्य पार्थिवः।
अभिषिञ्चेत् सुतं चापि चमस्तस्यापि बध्यते ॥92।। प्रयाणकाल में जिस राभा के प्रधान भृत्य गा घात हो और नृप उसके पुत्र को अभिषिक्त करे तो उसकी गना का वध होता है ।।92।।
विपरीतं यदा कुर्यात सर्वकार्य महर्म हुः ।
तदा तेन परिवत्ता सा सेना परिवर्तते ।।931 यदि प्रयाण काल में नृप बार-बार विपरीत कार्य करे तो सेना उसरो परित्रस्त होकर लौट आती है ।।93।।
परिवर्तेद् यदा वात: सेनाभध्ये बदा-यदा।
तदा तेन परिवस्ता सा सेना परिवर्तते ॥9411 रोना में जब वायु बार-बार सेना को अभिघातित और परिवर्तित करे तो सेना उसके द्वारा त्रस्त होकर लौट गती है ॥941।
1. यमामं चौपारण में । 2. शिध्यने भ० । 3. यदि [.|
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त्रयोदशः
विशाखारोहिणीभानु' नक्षत्रैरुत्तरंश्च या । पूर्वाह्णे च "प्रयाता वा सा सेना परिवर्तते ॥1951
विशाखा और रोहिणी सूर्य के नक्षत्र तथा उत्तरात्रय सूर्य नक्षत्रों के पूर्वाह्न में प्रयाण करने पर ना लौट आती है 9 511
पुष्येण मंत्र योगेन योऽश्विन्यां च नराधिपः । पूर्वाहणे विनर्याति वांछित स समाप्नुयात् ||196
पुष्य, अनुराधा और अश्विनी नक्षत्र में अपराह्नकाल में जो राजा प्रयाण करता है, वह इच्छित कार्य को पूरा कर लेता है अर्थात् उसकी इच्छा पूर्ण हो जाती है ||96||
दिवा हस्ते तु रेवत्यां वैष्णवे च न शोभनम् । प्रयाणं सर्वभूतानां विशेषेण महोपतेः ॥97॥
191
हस्त नक्षत्र में दिन में तथा रेवती और श्रवण नक्षत्र में प्रयाण करना सभी को अच्छा होता है, किन्तु राजाओं का प्रयाण विशेष रूप से अच्छा होता
119711
होने मुहुर्ते नक्षत्रे तिथों च करणे तथा ।
पार्थिवो योऽभिनिर्याति अचिरात् सोऽपि वध्यते ॥98 ||
हीन मुहूर्त, नक्षत्र, तिथि और करण में जो राजा अभिनिष्क्रमण करता है, वह शीघ्र ही वध को प्राप्त होता है ।198|
"यदाप्ययुक्तो मात्रयात्यधिको मारुतस्तदा । परैस्तद्वध्यते सैन्यं यदि वा न निवर्त्तते ॥9॥
यदि यात्राकाल में वायु परिमाण से अधिक तो सेना कौट आना चाहिए। यदि ऐसी स्थिति में रोना नहीं लौटती है तो सेना के द्वारा वध को प्राप्त होती है 11990
बिहारानुत्सवांश्चापि कारयेत् पथि पार्थिवः । स सिद्धार्थो निवर्तत भद्रबाहवचो यथा ॥100
यदि राजा मार्ग में बिहार और उराव करे तो सफल मनोरथ होकर नीटता है, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ||100॥
1.भ्यां तु नक्षतच यत् गुरु | 2 प्रभातम् मथुर्वित वा राजा यात्रामा गर्न
य निवर्तने मुल । 3 यथयदि देव निमु
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भद्रबाहुसंहिता
वसुधा वारि वा यस्य यानेषु प्रतिहीयते । वज्रादयो निपतन्ते ससैन्यो वध्यते नृपः ॥u1ou
यदि प्रयाण काल में पृथ्वी जल से युक्त हो अथवा यान - रथ, घोड़ा, हाथी आदि की सवारी में होनता हो- सवारियों के चलने में किसी तरह की कठिनाई आ रही हो अथवा बिजली आदि गिरे तो राजा का सेना सहित विनाश होता है ।101
सर्वेषां शकुनानां च प्रशस्तानां स्वरः शुभः । पूर्ण विजयामाख्याति प्रशस्तानां च दर्शनम् ॥10210
सभी शुभ शकुनों में स्वर शुभ शकुन होता है। श्रेष्ठ शुभ वस्तुओं का दर्शन पूर्ण विजय देता है || 021
·
फलं वा यदि वा पुष्पं ददते यस्य पादपः । अकालजं प्रयातस्य न सा यात्रा विधीयते ॥103
प्रयाण काल में जिरा नृप को असमय में ही वृक्ष फल या पुष्य दें, तो उस समय यात्रा नहीं करनी चाहिए ||103|
येषां निदर्शने किंचित् विपरीतं मुहुर्मुहुः । स्थालिका पिठरो वाऽपि तस्य
तद्वधमीहते ॥1041
प्रयाण काल में जिन वस्तुओं के दर्शन में कुछ विपरीतता दिखलाई पड़े अथवा बटलोई, मथानी आदि वस्तुओं के दर्शन हों तो उस राजा की सेना का वध होता है ||1041
"अचिरेणैव कालेन तद विनाशाय कल्पते ।
निवर्तयन्ति ये केचित् प्रयाता बहुशो नराः ॥10511
यदि गमन करने वाले अधिक व्यक्ति लौट कर वापस जाने लगें तो शीघ्र ही असमय में सेना का विध्वंस होता है । 1051
यात्रामुपस्थितोपकरणं तेषां च स्याद् ध्रुवं वधः । पक्वानां विरसं दग्धं 'सपिभाण्डो विभिद्यते ॥106॥ तस्य व्याधिभयं चाऽपि मरणं वा पराजयम् । " रथानां प्रहरणानांच ध्वजानामथ यो नृपः 11070
S
1. तुर्ग । 2. विरानं सुरू | 3. अनामयं । 4 दग्धषुमीहते 5 स्वपहरणं मध्यमं वो मुषः मु
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अयोदशोऽध्यायः
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'चिह्न कुर्यात् क्वचिन्नीलं 'मन्त्रिणा सह बध्यते ।
म्रियते पुरोहितो वाऽस्य छत्र वा पथि भज्यते ॥108।। जिनको यात्राकाल में उपकरण --अस्त्र-शस्त्रों का दर्शन हो, उनका वध होता है । पक्वान्न नीरस और जला हुआ तथा घृत का बर्तन फटा हुआ दिखलाई पड़े तो व्याधि, भय, मरण और पराजय होता है। रथ, अस्त्र-शस्त्र और ध्वजा में जो राजा नील चिह्न अंकित करता है, वह मन्त्री सहित वध को प्राप्त होता है। यदि मार्ग में राजा का छत्र भंग हो तो पुरोहित का मरण होता है ।।106.15311
जायते चक्षुषो व्याधिः स्कन्धवारे प्रयायिनाम्।
अनग्निज्वलनं वा स्थात् सोऽपि राजा विनश्यति ॥109॥ प्रयाण करने वालों के सैन्य-शिविर में यदि नेत्र रोग उत्पन्न हो अथवा विना अग्नि जलाये ही आग जल जाये तो प्रयाण करने वाले राजा का विनाश होता है ।।10911
द्विपदश्चतुःपदो वाऽपि सन्मुंचति विस्वरः।
बहुशो व्याधितार्ता वा सा सेना विद्रवं व्रजेत् ।।110॥ यदि द्विपद-मनुष्यादि, चतुष्पद-चौपाये आदि एक साथ विकृत शब्द करें तो अधिक व्याधि से पीड़ित होकर सेना उपद्रव को प्राप्त होती है ।।1100
सेनायास्तु प्रयाताया कलहो यदि जायते।
द्विधा त्रिधा वा सा सेना विनश्यति न संशयः ॥11॥ यदि सेना के प्रयाण के समय कलह हो और सेना दो या तीन भागों में बंट ___ जाये तो निस्सन्देह उसका विनाश होता है ।।।। ||
जायते चक्षुषो व्याधिः स्कन्धावारे प्रयायिणाम्।
अचिरेणव कालेन साऽग्निना दह्यते चमः ॥12॥ यदि प्रयाण करने वाली सेना की प्रॉम्ब में शिविर में ही पीड़ा उत्पन्न हो तो शीन ही अग्नि के द्वारा वह सेना विनाश को प्राप्त होती है ।।।। 2 ।।
व्याधयश्च प्रयातानामतिशीत लियर्ययेत्।। अत्युष्णं चातिरूक्षं च राज्ञो यात्रा न सिध्यति ॥11311
J. चित्रं म । 2. स च मम्धी न । 3. मायने रक्षा गा.पध्रःवरे प्रयाना . यह पंक्ति मुद्रित पनि में नहीं है ।
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भद्रबाहुसंहिता
arrein
यदि प्रयाण करने वालों के लिए व्याधिया उत्पन्न हो जायें तथा अति शीत । विपरीत--अति उष्ण या अति रूक्ष में परिणत हो जाये तो राजा की यात्रा सफल नहीं होती है ।।] ! 3॥
निविष्टो यदि सेनाग्निः क्षिप्रमेव प्रशाम्यति ।
उपवा निदन्तश्च भज्यते सोऽपि बध्यते ।।1141. यदि सेना की प्रज्वलित अग्नि शीघ्र ही शान्त हो जाये-बुझ जाये तो बाहर । में स्थित आनन्दित भागने वाले व्यक्ति भी बध को प्राप्त होते हैं ।।। 1411
देवो वा यत्र नो वर्षत् क्षीराणां कल्पना तथा।
विद्यान्महद्भयं घोरं शान्ति तत्र तु कारयेत् ॥1150 जहाँ वर्षा न हो और जल जहाँ केवल कल्पना की वस्तु ही रहे, वहाँ अत्यन्त घोर भय होता है, अतः शान्ति का उपाय करना चाहिए ।।। 15।।
दैवतं दीक्षितान् वृद्धान् पूजयेत् ब्रह्मचारिणः ।
ततस्तेषां तपोभिश्च पापं राज्ञा प्रशाम्यति ॥16॥ राजा को देवताओं, यतियों, वृद्धों और ब्रह्मचारियों की पूजा करनी चाहिए: क्योंकि इनके तप के द्वारा ही राजा का पाप शान्त होता है । 116॥
'उत्पाताश्चापि जायन्ते हस्त्यश्वरथपत्तिषु ।
भोजनेष्वप्नीकेष राजबन्धश्चमूबधः ॥17॥ यदि हाथी, घोड़े, रथ और पैदल मना में उगात हो तथा सेना के भोजन में भी उत्पात—कोई अदभुत बात दिखलाई पड़े तो राजा को कैद और मंना का वध होता है ।।1 1711
उत्पाता विकृताश्चापि दृश्यन्ते ये प्रयायिणाम्।
सेनायां चतुरङ्गायां तेषामौत्पालिकं फलम् ॥118|| प्रयाण करने वालों को जो उत्पात और दिवार दिखलाई पड़ते हैं, चतुरंग रोना में उनका औत्पाति फन्न अवगत करना चाहिए !!! 18||
भेरीशंखमदंगाश्च प्रयाणे ये यथोचिता:।
निबध्यन्ते प्रयातानां विस्वरा वाहनाश्च ये 1119॥ भेरी, शंख, मृदंग का अन्य प्रयाण-माल में योचित हो--न अधिक और न
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अयोदशोऽध्यायः
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कम तथा संनिकों के वाहन भी विकृत शब्द न गारें तो शुभ फाल होता है ।। । 19।।
यद्यग्रतस्तु प्रयायेत काकसन्यं प्रयायिणाम् ।
विस्वरं निभृतं वाऽपि येषां विद्यांच्चभूवधम् ॥1200 यदि प्रयाण करने वालों के आगे नागेना-कौओं की संक्ति गमन करे अथवा विकृत स्वर करती हुई काकपंक्ति लौटे तो रोना का वध होता है ।। 1200
राजो यदि प्रयातस्य गायन्ते ग्रामिका: परे।
चण्डानिलो नदी शुष्येत् सोऽपि बध्येत पार्थिवः ॥121॥ यदि प्रयाण करने वाले राजा के आगे नाग बासी नारियो गाना (ग्दन करती) गाती हों और प्रचण्ड वायु नदी को सुखा दे तो गजा के वध गी गुगना सगझनी चाहिए ।।12111
देवताऽतिथिभृत्येभ्योऽदत्वा तु भंजते यदा।
यदा भक्ष्याणि भोज्यानि तदा राजा विनश्यति ॥12231 देवता की पूजा, अतिथि का सत्कार और भत्यों को विना दिये गो भोजन करता है, वह राजा विनाश को प्राप्त होता है ।। 1 22।।
द्विपदाश्चतुःपदा वाऽपि यदाऽभीक्ष्णं रदन्ति वै।
परस्परं सुसम्बद्धा सा सेना बध्यते परैः ।।123॥ द्विपद-मनुष्यादि अथवा चतुष्पद - पशु आदिनापाथ परस्पर में सुगंगठित होकर आवाज करते हैं गर्जना करते है, तो गना ओ बाप बध को प्राप्त होती है ।।1 23।।
ज्वन्ति यस्य शस्त्राणि नमन्ते निष्क्रमन्ति वा।
सेनायाः शस्त्रकोशेभ्य: साऽपि सेना विनश्यति ।।।2411 यदि प्रयाण के समय सेना के अस्त्र-शस्त्र ज्वलन्त होने लगें अपने आप झुकने लगे अथवा शस्त्रकोश से बाहर निकलने लगे तो भी सेना का विनाशा होता है ॥124॥
नर्दन्ति द्विपदा यत्र पक्षिगो बा चतुष्पदाः।
अव्यादास्तु विशेषेण तत्र संग्राममादिशेत् ।।।25।। द्विपद पक्षी अथवा चतुष्पद चौपाये गर्जना करता हो अथवा विशेष रूप से मांसभक्षी पशु-पक्षी गर्जना करते हो तो संग्राम की सूचना समझनी
1. राम ।
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भद्रबाहुसंहिता
चाहिए ॥12511
विलोमषु च वातेषु 'प्रतीष्टं वाहनेऽपि च ।
शकुनेषु च दोप्तेषु युध्यतां तु पराजयः ।। 126॥ उलटी हवा चलती हो, वाह्न -सवारियां प्रदीप्त मालूम पड़ें और शकुन भी दीप्त हों तो युद्ध करने वाले की पराजय होती है ।।126॥
युद्धप्रियेषु हृष्टेषु नर्दस वृषभेषु च।
रक्तेषु चाभ्रजालेषु सन्ध्यायां युद्धमादिशेत् । 127॥ प्रयाण-काल में तगड़े, हट्टे-कट्ट एवं युद्धप्रिय (लड़ाकू) साँड़ों, बैलों आदि के गर्जना करने पर और सन्ध्याकाल में बादलों से लाल होने पर युद्ध की सूचना समझनी चाहिए ।।127!|
अभ्रषु च विवर्णेषु बढोपकरणेषु च।
दृश्यमानेषु सन्ध्यायां सद्यः संग्राममादिशेत् ॥128॥ ग्रद्ध उगारण . अग्न-शम्बादि मायामाज में वालों के विवर्ण दिगलाई देन पर शीघ्र ही युद्ध का निर्देश समझना चाहिए ॥12811
कपिले रक्तपीते वा हरिते च तले चमः।
स सद्य: परसैन्येन बध्यते नात्र संशयः ।।129।। यदि प्रयाण-काल में सेना कपिल वर्ण, हरित, रक्त और पीत वर्ण के बादलों के नीचे गमन करे तो सेना निस्सन्देह शीघ्र ही शत्रुगेना के द्वारा वध को प्राप्त होती है ।12911
काका गृध्राः शृगालाश्च कंका ये चामिप्रियाः।
एश्यन्ति यदि सेनायां प्रयातायां भयं भवेत् ।।1301 यदि प्रयाण करने वाली गना के समक्ष काक, गृद्ध, शृगाल और मांसप्रिय अन्य चिड़ियाँ दिखलाई पड़ें तो सेना को भय होता है 11 3011
उलूका वा विडाला वा मूषका वायदा भृशम् ।
वासन्ते यदि सेनायां निश्चित. स्वामिनो वधः ।।13।। यदि प्रयाण करने वाली राना में उल्लू, विडाल या मूषका अधिक संख्या में निवास करें तो निश्चित रूप से स्वामी का वध होता है ।। ! 31॥
1. दिनेषु, वाहिनाप गुरु । 2. नियतं सोऽदिता को वक्षः मु॥ ।
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त्रयोदशोऽध्याय:
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ग्राभ्या वा यदि वाऽरथा विका वसन्ति निर्भपम् ।
सेनायां संप्रयातायां 'स्वामिनोऽत्र भयं भवेत् ।।32॥ यदि प्रयाण करने वाली सेना में शहरी या ग्रामीण कौए निर्भय होकर निवास करें तो स्वामी को भय होता है ।।। 321
मथुनेन विपर्यासं यदा कविजातयः ।
रात्रौ दिवा च सेनायां स्वामिनो वधमादिशेत् ॥133॥ यदि प्रयाण करने वाली सेना में रात्रि या दिन में विजाति के प्राणी-पाय के साथ घोड़ा या गधा मथुन में विपर्यास-- उल्टी बिया करें, पुरुप का कार्य स्त्री और स्त्री का कार्य पुरुप करे तो स्वामी का वध होता है ।। 1 331।
चतुःपदानां मनुजा यदा कुर्वन्ति वाशितम् । __ मृगा वा पुरुषाणां तु तत्रापि स्वामिनो वधः ।।134॥ यदि चतुष्पद की आवाज मनुष्य करें अथवा पुरुषों की आवाज भृग.... पशु करें तो स्वामी का वध होता है 111 3411
एकपादस्त्रिपादी वा विचंगी यदि वाधिकः ।
प्रसूयते पशुर्यत्र यत्रापि सौपितको वधः ॥135॥ जहाँ एक गैर या तीन पैर वाला अथवा तीन सींग या सरो अधिक वाला पशु उत्पन्न हो तो स्वामी का वध होता है |!! 3511
अश्रपूर्णमुखादीनां शेरते च यदा भृशम् ।
पदान्विलिखमानास्तु या यत्य स बध्यते ।।।36॥ जिस गेना ने घोड़े अत्यन्त औरओं में गुन भरे लोक गायन करें अथवा ___ अपनी टाप रो जमीन को खोदें तो उनके राजा का कहना है ।।। 36।।
निष्कुट्यन्ति पादेर्वा भमौ बालान् किरना च।
प्रहृष्टाश्च प्रपश्यन्ति तत्र संग्राममादिशेत् ।। 137॥ जब थोड़े पैरों से धरती को कूटते हों अथवा भूमि में बनने वालों को गिरात हों और प्रसन्न-से दिखलाई पड़ते है। ता रांगा की सूचना समझनी चाहिए ।। 1 3711
न चरन्ति यदा ग्रामं न च पानं पिबन्ति वै।
श्वसन्ति वाऽपि धावन्ति विन्द्यादग्निभयं तदा ।।1381 ____!. सारियां।। मु.। 2 सौiii गुरु | 3. iii. | 4. गारिका पु. ।
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भद्रबाहुसंहिता
जब घोड़े घास न खायें, जल न पीयें, हांफते हों या दौड़ते हों तो गग्निभय समझना चाहिए ।।। 38|
कौस्मरेण मिलान मधुरेगा पुन: पुनः ।
हेषन्ते गवितास्तष्टास्तदा राज्ञो जयावहाः ।।139।। जब क्रौंच पक्षी स्निग्ध और मधुर स्वर से बार-बार प्रसन्न और गर्वित होता हुआ शब्द करे तो राजा के लिए जय देने वाला समझना चाहिए ।।। 39॥
प्रहेषन्ते प्रयातेषु यदा वादिननि:स्वनैः ।
लक्ष्यन्ते बहवो हृष्टास्तस्य राज्ञो ध्रुवं जयः ।।140॥ जिस राजा के प्रयाण करने पर बाजे शब्द करते हुए दिनलाई पड़ें तथा अधिकांश व्यक्ति प्रसन्न दिखलाई पड़ें, उस राजा की निश्चयतः जय होती है ।।।401
यदा मधुरशब्देन हेषन्ति खलु वाजिनः ।
कुर्यादभ्युत्थितं संन्यं तदा तस्य पराजयम् ।।141॥ जब मधुर शब्द करते हुए थोड़े हीराने की आवाज करें तो प्रयाण करने वाली शेना को पराजय होती है ।। 14 |||
अभ्युत्थितायां सेनायां लक्ष्यते यच्छुभाशुभम् ।
वाहने प्रहरणे वा तत् तत् फलं समीहते ।।। 42॥ प्रयाण करने वाली सेना के बाहन -- सवारी और प्रहर---अस्त्र-शस्त्र सेना में जितने शुभाणा शहुन दिखलाई पड़ें उन्ही के अनुसार फल प्राप्त होता है 11142।
सन्नाहिको यदा युक्तो नष्टसैन्यो बहिवजेत् ।
तमा राज्यप्रणाशस्तु अचिरेण भविष्यति ।।143॥ जब बनर से युक्त गना रति सेना क न होने पर बाहर चला जाता है तो शीघ्र ही राज्य का विनाश हो जाता है ।।!4311
सोम्यं बाह्य नरेन्द्रस्य हयमारुहते ह्यः । सेनायामन्यराजानां तदा मार्गन्ति नागरा: ।।14401
1. अगवा व मु. ।
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त्रयोदशोऽध्यायः
यदि राजा के उत्तर में घोड़ा घोड़े पर चढ़े तो उस समय नागरिक अन्य राजा की सेना में प्रवेश करते हैं- शरण ग्रहण करते हैं । 1441
अर्द्ध वृत्ता: ' प्रधावन्ति वाजिनस्तु युयुत्सवः । हेषमाना: प्रमुदितास्तदा ज्ञेयो जयो ध्रुवम् ॥145॥
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प्रसन्न हसते हुए युद्धोन्मुख घोड़े अर्द्धवृत्ताकार में जब दौड़ते हुए दिखलाई पड़ें तो निश्चय से जय समझना चाहिए ।। 145.
पादं पादेन भुक्तानि निःक्रमन्ति यदा हयाः । पृथग् पृथग् संस्पृश्यन्ते तदा विन्द्याद्भयावहम् ॥1461 जब घोड़े पैर को पैर से मुक्त करके चलें और पैरों का पृथक्-पृथक् स्पर्श हो तो उस समय भय समझना चाहिए ।। 146||
यदा राज्ञः प्रयातस्य पाजिक स
पथि च स्त्रियते यस्मिन्नचिरात्मा नो भविष्यति ||147||
जब प्रयाण करने वाले राजा के घोड़ों को सन्नद्ध करने वाला सई मार्ग में मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो राजा की शीघ्र ही मृत्यु होती है ।।। 47 ॥
शिरस्यास्ये च दृश्यन्ते यदा हृष्टास्तु वाजिन: । तदा राज्ञो जयं विन्द्यान्नचिरात् समुपस्थितम् ||148 ॥ जब घोड़ों के सिर और मुख प्रसन्न दिखलाई पड़े तो शीघ्र ही राजा की विजय समझनी चाहिए || 48 ||
"हयानां ज्वलिते चाग्निः पुच्छे पाणौ पदेषु वा । जघने च नितम्बे च तदा विद्यान्महद्भयम् ॥1491
यदि प्रयाण काल में घोड़ों की पूँछ, पांव, पिछले पैर, जघन और नितम्ब - पड़े तो अत्यन्त 'मय समझना चूतड़ों में अग्नि प्रज्वलित दिखलाई चाहिए ।11491
हेमानस्य दीप्तासु निपतन्त्यचषो मुखात् । अश्वस्य विजयं श्रेष्ठमूर्ध्वदृष्टिश्च शंसते ||150m
यदि ह्रींसते हुए थोड़े के मुख से प्रदीप्त अनि निकलती हुई दिखलाई पड़े तो
1. अर्धयुक्छः 2 पादेषु वा यदि श्येनाग्निस्था
|
धूमास्तदा''।
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एकादशोभ्यायः
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दिखलाई पड़े तो अनेक प्रकार के लाभ और सुख, शुक्रवार को दिखलाई पड़े तो समय पर वर्षा, धान्य की अधिक उत्पत्ति और वस्त्र-व्यापार में लाभ एवं शनिवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो सामान्यतया अच्छी फसल होती है। ___ गन्धर्वनगर सम्बन्धी फलादेश अवगत करते समय उनकी आकृति, रंग और सौम्यता या कुरूपता का भी ख्याल करना पड़ेगा। जो गन्धर्वनगर स्वच्छ होगा उसका फल उतना ही अच्छा और पूर्ण तथा कुरूप और अस्पाट गन्धर्वनगर का फलादेश अत्यल्प होता है ।
(तत्काल वर्षा होने के निमित्त वर्षा ऋतु में जिस दिन सूर्य अत्यन्त जोशीला, दुस्सह और धूत के रंग के समान प्रभावशाली हो उस दिन अवश्य वर्षा होती है। वर्षा काल में जिस दिन उदय के समय का सूर्य अत्यन्त प्रकाश के कारण देखा न जाय, पिघले हुए स्वर्ण के समान हो, स्निग्ध वैडूर्य मणि की-सी प्रभावाला हो और अत्यन्त तीन होकर तग नहा हो अथवा आकाश में बहुत ऊँचा चढ़ गया हो तो उस दिन खूब अच्छी वर्षा होती है । उदय या अस्त के समय सूर्य अथवा चन्द्रमा फीका होकर शहद के रंग के ममान दिखलाई पड़े तथा प्रचण्ड वायु चले तो अतिवृष्टि होती है। सूर्य की अमोध किरणें सन्ध्या के ममय निकली रहे और बादल पृथ्वी पर झुके रहे तो ये महावृष्टि के लक्षण समझने चाहिए । मुर्यपिण्ड से एक प्रकार की जो सीधी रेखा कभी-कभी दिखलाई देती है, वह अमोघ किरण कहलाती है 1 बिन्द्रमा यदि कबूतर और तोते की आंखों के सदृश हो अथवा शहद के रंग का हो और आकाश में चन्द्रमा का दूसरा विम्ब दिखनाई दे तो शीघ्र ही वर्षा होती है । चन्द्रमा के परिवेग चक्रवाक की आंखों के समान हो तो वे वृष्टि के सूचक होते हैं और यदि आकाश तीतर के पत्र के समान बादलों से आच्छादित हो तो वृष्टि होती है । चन्द्रमा के परिवेश हो, तारागण में तीव्र प्रकाश हो, तो वे वृष्टि के सूचक होते हैं 11 दिशाएँ निर्मल हों और आकाश काक के अण्डे की कान्तिवाला हो, वायु का गमन रुककर होता हो एवं आकाश गोनत्र की-सी कान्तिवाला हो तो यह भी बष्टि के आगमन का लक्षण है। रात में तारे चमकते हो, प्रातःकाल लाल वर्ण का सूर्य उत्य हो और बिना वर्षा के इन्द्रधनुष दिखलाई पड़े तो तत्काल वृष्टि समझनी चाहिए । प्रातःकाल इन्द्रधनुष पश्चिम दिशा में दिखलाई देता हो तो शीघ्र वर्षा होती है। नील रंग बाले बादलों में सूर्य के चारों ओर कुण्डलता हो और दिन में ईशान कोण के अन्दर बिजली चमकती हो तो अधिक वर्षा होती है । श्रावण महीने में प्रातःका न गर्जना हो और जल पर मछली का भ्रम हो तो अठारह प्रहर के भीतर पृथ्वी जल में पूरित हो जाती है। श्रावण में एक बार ही दक्षिण को प्रचण्ड हवा चले तो हस्त, चिया, स्वाती, मूल, पूर्वापाढ़ा, श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी इन नक्षत्रों के आने पर वर्षा होती है। रात में गर्जना
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भद्रबाहुसंहिता
विजय होती है । घोड़े का ऊपर को मुख किये रहना भी अच्छा समझा जाता
है 17501
श्वेतस्य कृष्णं दृश्येत पूर्वकाये तु वाजिन ! हन्यात् तं स्वामिनं क्षिप्रं विपरीते 'धनागमम् 11151।।
यदि घोड़े का पूर्व भाग श्वेत या कृष्ण दिखलाई पड़े तो स्वामी की मृत्यु शीघ्र कराता है । विपरीत परभाग- श्वेत का कृष्ण और कृष्ण का श्वेत दिखलाई पड़े तो स्वामी को धन की प्राप्ति होती है 115 111
वाहकस्य वधं विन्द्याद् यदा स्कन्धे यो ज्वलेत् । पृष्ठतो ज्वलमाने तु भयं सेनापतेर्भवेत् ।। 1521
जब घोड़े का स्वन्ध – कन्धा जलता हुआ दिखलाई पड़े तो सवार का वक्ष और पृष्ठ भाग ज्वलित दिखलाई पड़े तो सेनापति का वध समझना चाहिए ।।152।।
तस्यैव तु यदा धूमो निर्धाति प्रहेषतः । पुरस्यापि तदा नाशं निर्दिशेत् प्रत्युपस्थितम् 111530
यदि हृींसते हुए घोड़े का धुआँ पीछा करे तो उस नगर का भी नाश उपस्थित हुआ समझना चाहिए ||153॥
सेनापतिवधं विद्याद् वालस्थानं यदा ज्वलेत् । वीणि वर्षान्यनावृष्टिस्तदा तद्विषये भवेत् ।।15400
यदि घोड़े के वास्थान--- कस्वारस्थान जलने लगे तो सेनापति का वध समझना चाहिए। और उस देश में तीन वर्ष तक अनावृष्टि समझनी चाहिए ||15411
अन्तः पुरविनाशाय मेढ़ प्रज्वलते यदा ।
उदरं ज्वलमानं च कोशनाशाय वा ज्वलेत् ||155॥
यदि घोड़े का मेढू अण्डकोश स्थान जलने लगे तो अन्य पुर का विनाश और उदर के जलने से कोशनाश होता है | 1155
शेरते दक्षिणे पार्श्व हयो जयपुरस्कृतः । स्वबन्धशायिनश्चा हुर्जयमाश्चर्यसाधक: ।। [561
1. धागमम् भु. 2. वाचवास्थ मु० ।
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भद्रबाहुसंहिता
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हो और दिन में दण्डाकार बिजली चमकती हो और प्राची दिशा में शीतल हवा चलती हो तो शीघ्र ही वर्षा होती है । पूर्व दिशा में धूम्रवर्ण बादल यदि सूर्यास्त होने पर काला हो जाय और उत्तर में मेघमाला हो तो शीघ्र ही वर्षा होती है। प्रातःकाल सभी दिशाएं निर्मल हों और मध्याह्न के समय मर्मी पड़ती हो तो अर्द्धरात्रि के समय प्रजा के सन्तोष के लायक अच्छी वर्षा होती है। अत्यन्त वायु का चलना, सर्वथा वायु का न चलना, अत्यन्त गमीं पड़ना, अत्यन्त शीत पड़ना, अत्यन्त बादलों का होना और सर्वथा ही बादलों का न होना छ: प्रकार के मेघ के लक्षण बतलाये गये हैं । वायु का न चलना, बहुत वायु चलना, अत्यन्त गर्मी पड़ना वर्षा होने के लक्षण हैं। वर्षा काल के आरम्भ में दक्षिण दिशा में यदि वायु में है, बादल या चमकती हुई बिजली दिखलाई पड़े तो अवश्य बर्षा होती है। शुक्रवार के निकले हुए बादल यदि शनिवार तक यहरे रहें तो वे बिना वर्पा किये कभी नष्ट नहीं होते। उत्तर में बादलों का घटाटोप हो रहा हो और पूर्व से वायु चलता हो तो अवश्य वर्षा होती है । सायंकाल में अनेक तह वाले बादल यदि मोर, धनुग, लाल पुष्प और तोते के तुल्य हों अथवा जल-जन्त, माहरों एवं पहाड़ों के तुल्य दिखाई दें तो शीघ्र ही वर्षा होती है । तीतर के पंखो की-सी आभा वाले विचित्र वर्ण के मेव यदि उदय और अस्त के समय अयया रात-दिन दिखलाई दें तो शीघ्र ही बहुत वर्षा होती है। मोटे तहयाले बादलों से जब आकाश ढका हुआ हो और हवा चारों ओर से रुकी हुई हो तो शीघ्र ही अधिक वर्षा होती है।
घड़े में रखा हुआ जल गर्म हो जाय, सभी लता का गुग्न ऊँचा हो जाय, कबुम का-सा तंज चा और निकलता हो, पक्षी स्नान करते हो, गीदड़ सायंकाल में चिल्लाते हों, सात दिन तक नाकाश मेघाच्छन्न रहे, रात्रि में जुगनू जल के स्थान के समीप जात हों तो तकाल वृष्टि होती है। गोबर में कीटों का होना, अत्यन्त कठिन परिताप ना होना, तक्र-छाछ का खट्टा हो जाना, जल का स्वाद रहित हो जाना, मर्यालयों का भदि की और कुदना, विल्ली का पृथ्वी को खोदना, लोहनी जंग से दुर्गन्ध निकलना, पर्वत का काजल के समान वर्ण का हो जाना, कन्दराजों से भा' का निकलना, गिरगिट, कलाम आदि का वृक्ष की चोटी पर बढ़कर आकाश को स्थिर होकार देखना, गायों का सूर्य को देउमा, पशु-पक्षी
और युत्तों का पंगा और खरों द्वारा काम का नुजलाना, मवान की छत पर स्थित हो तर वृत्ते का आनाश को स्थिर होकर देखना, वगुलों का पंख फैलाकर स्थिरता रा बैठना, वृक्ष पर चढ़े हुए सर्प का चीत्कार शब्द होना, मेढकों की जोर की आवाज आना, चिड़ियों का मिट्टी में स्नान करना, टिटिहरी कार जल में स्नान करना, जातक का जोर से शब्द मारना, छोटे-छोटे सपों का वृक्ष पर चाहना, बकरी का अधिक समय तकः पवन की गति की ओर मुंह करके खड़ा
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रहना, छोटे पेड़ों की कलियों का जल जाना, बड़े पेड़ों में कलियों का निकल आना, बड़ की शाखाओं में खोखलों का हो जाना, दाढ़ी-मूंछों का चिकना और नरम हो जाना, अत्यधिक गर्मी से प्राणियों का व्याकुल होना, मोर के पंखों में भन भन शब्द का होना, गिरगिट का लाल आभायुक्त हो जाना, चातक-मोरसियार आदि का रोना, आधी रात में मुगों का रोना, मक्खियों का अधिक घूमना, भ्रमरों का अधिक घूमना और उनका गोबर की गोलियों को ले जाना, कसि के बर्तन में जंग लग जाना, वृक्षतुल्य लता आदि का स्निग्ध, छिद्र रहित दिखलाई पड़ना, पित्त प्रकृति के व्यक्ति का गाढ निद्रा में शयन करना, कागज पर लिखने से स्याही का न सूखना, एवं वातप्रधान व्यक्ति के सिर का घूमना तत्काल वर्षा का सूचक है ।) ___ वर्षा ज्ञान के लिए अत्युपयोगी सप्तनाड़ी चक्र --शनि, बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्रमा इनकी क्रम से चण्डा, समीरा, दहना, सौम्या, नीरा, जला और अमृता-ये सात नाड़ियां होती हैं।
कृत्तिका से आरम्भ कर अभिजित् सहित 28 नक्षत्रों को उपयुक्त सात नाड़ियों में चार बार घुमाकर विभक्त कर देना चाहिए। इस चक्र में नक्षयों का क्रम इस प्रकार होगा कि मृत्तिका से अनुराधा तक सरल क्रम से और मधा से धनिष्ठा तक विपरीत क्रम से नक्षत्रों को लिखे । सात नाड़ियों के मध्य में सौम्य नाड़ी रहेगी और इसके आगे-पीछे तीन-तीन नाड़ियो । दक्षिण दिशा में गई हुई नाड़ियाँ क्रूर कहलायेगी और उत्तर दिशा में गई हुई नाड़ियां सौम्य कहलायेंगी। मध्य में रहनेवाली नाड़ी मध्यनाड़ी कही जायेगी । ये नाड़ियाँ ग्रहयोग के अनुसार फल देती हैं।
दिशा
दक्षिण में निजन नाड़ी
मध्य
उनर में मजल नाई
चण्डा
| समीग
सौभ्या
नाही के नाम
नीरा । जन्मा
अमृता
स्वामी
शनि
गुरु या सूर्य
मंगल
सूर्य या पुरु
चन्द्रमा
नक्षत्र
कृतिका विशाखा
शहिलो | भगशिर । आद्रा पुनर्वसु । पुष्य प्राशय स्वाना | चित्रा | न नाभाल्गुनी | कागुनी
या | मूल | पूर्शवादा । पाशा | अभिनित ! श्रवण अश्विनी | वनी उनयभाद्र] पूर्वाभाद्रप | शम | निष्टा
अनुगधा
मर
सप्तनाडी चक्र द्वारा वर्षाजान करने की विधि-.जिस ग्राम में वर्षा का ज्ञान करना हो, उस ग्राम के नामानुसार नक्षत्र का परिज्ञान कर लेना चाहिए। अब
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मायासंहिता
इष्टग्राम के नक्षत्र को उपर्युक्त चक्र में देखना चाहिए कि वह किस नाड़ी का है।। यदि ग्राम-नक्षत्र की सौम्या नाड़ी---आर्द्रा, हस्त, पूर्वापाड़ा और पूर्वाभाद्रपद हो
और उस पर चन्द्रमा शुक्र के साथ हो अथवा प्राम-नक्षत्र, चन्द्रमा और शुक्र ये तीनों मौम्या नाड़ी के हों तथा उस पर पापग्रह की दृष्टि या संयोग नहीं हो तो अच्छी वर्षा होती है । 'पापयोग दृष्टि वाधक होती है । इस विचार के अनुसार चण्डा,समीरा और दहना नाड़ियाँ अशुभ हैं, शेष सौम्या, नीरा, जला और अमृता शुभ हैं। ___चक का विशेष फल · चण्डा नाही में दो-तीन से अधिक स्थित हुए ग्रह प्रचण्ड हवा चलाते हैं। समीरा नाट्री में स्थित होने पर वायु और दहना नाड़ी पर स्थित होने से ऊष्मा पैदा करते हैं । सौम्या नाड़ी में स्थित होने से समता करते हैं। नीरा नाड़ी में स्थित होने पर मेघों का संचय करते हैं, जला नाड़ी में प्रविष्ट होने से वर्षा करते हैं तथा वे ही दो-तीन में अधिक एकत्रित ग्रह अमृता नाड़ी में स्थित होने पर अतिवृष्टि करते हैं । अपनी नाड़ी में स्थित हुआ एक भी ग्रह उस नाड़ी का फल दे देता है। किन्तु मंगल राभी नाड़ियों में स्थित नाड़ी के अनुसार ही फल देता है । ग्रहों गुरु, मंगल और सूर्य के योग से धुआँ, स्त्री---चन्द्रमा और शुत्र और ग्रहों के योग ग वर्मा तथा केवल स्त्री ग्रहों के योग से छाया होती है, जिस नाड़ी में कर और सौभ्यग्रह मिले हुए स्थित हों उसमें जिरा दिन चन्द्रमा का गमन हो, उग दिन अली वर्षा होती है । यदि एक नक्षत्र में ग्रहों का योग हो तो उस कान में महावष्टि होती है । जब चन्द्रमा पिग्रहों से या केवल सौम्यग्रहों से विद्ध हो तव साधारण वर्गाहोती है तथा फसल भी साधारण ही होती है।
चन्द्रमा जिग ग्रह की नाड़ी में स्थित हो, उस ग्रह से यदि यह मुक्त हो जाये तथा क्षीण न दिग्वनाई देता हो तो वह अवश्य वर्मा करता है । तात्पर्य यह है कि शुक्ल पक्ष की पाली रो गृष्ण पक्ष की दशमी तक का चन्द्रमा जिस नाड़ी में हो और नाडी का स्वामी चन्द्रमा क गाथ धैठा हो या आदेता हो तो वह अवश्य वर्षा करता है। चन्द्रमा मौम्प एवं कर ग्रहों के गाय यदि अमृत नाड़ी में हो तो एक, तीन या सात दिन में दो, मात्र या मात बार वर्षा होती है। इसी प्रकार चन्द्रमा ऋ र और सौम्य ग्रहों ग युक्त हो और जला नाड़ी में स्थित हो तो इस योग से आधा दिन, एक पहर या तीन दिन तक वर्ग होती है । यदि सभी ग्रह अमृता नाड़ी में स्थित हों तो 18 दिन, जला नाड़ी में हो तो 12 दिन और नीरानाड़ी में हों तो 6 दिन तक वर्षा होती है। मध्य नाड़ी में गये हा सभी ग्रह तीन दिन तक वर्षा करते है । शेग नाड़ियों में गग हुए सभी ग्रह महावायु और दुष्ट वृष्टि करते हैं । अधिक शरग्रहों के भोग में निर्जला नाड़ियां भी जलदायिनी तथा क र ग्रहों के भोग से भाजल नादियाँ भी निर्जला बन जाती हैं । दक्षिण की तीनों नाड़ियों में गये हुए ग्रह अनावृष्टि की सचना दन हैं । और ये ही क्रूर ग्रह शुभ-ग्रहों से युक्त हों और
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उत्तर की तीन नाड़ियों में स्थित हों तो कुछ वर्षा कर देते हैं । जलनाड़ी में स्थित चन्द्र और शुक्र यदि क्रूर ग्रहों मे युक्त हो जाये तो वे इस ऋ र योग से अल्पवृष्टि करते हैं । जलनाड़ी में स्थित हुए बुध, शुक्र और बृहस्पति ये चन्द्रमा से युक्त होने पर उत्तम बर्षा करते हैं । जलनाड़ी में चन्द्रमा और मंगल आरूढ हों तो वे चन्द्रमा से समागम होने पर अच्छी वर्षा करते हैं । जल नाड़ी में चन्द्रमा और मंगल शनि द्वारा दृष्ट हों तो वर्षा की कमी होती है । गमन काल, संयोगकाल, वक्रमतिकाल, मागंगति काल. अस्त या उदयकाल में इन सभी दशाओं में जलनाड़ी में प्राप्त हुए सभी ग्रह महावष्टि करने वाले होते हैं । ___अक्षर क्रमानुसार ग्रामनक्षत्र निकालने का नियम-चू चे चो ला ... अश्विनी, ली लु ले लो :- भरणी, अई उप- कृतिका, ओ वा बी . रोहिणी, वे यो का की= मृगशिर, कूघ इछ= आर्द्रा, के को हा ही :पुनवंग, ह हे हो डा -: पुष्य, डी डू डे टो- आपनेषा, मा मी मू मे -- मघा, मो टा टी टू-: पूर्वाफाल्गुनी, टे टो पापी = उत्स राफाल्गुनी, पू पण ट... हस्त, "पो गरी= चित्रा, रू रे रो सा.. स्वाती, ती तू ते तो= विशाखा, ना नी न न :- अनुराधा, नो या यी यू:- ज्येष्ठा, ये यो भा भी- मूल, भू धा फा ढा:-:पूर्वापाढा, भ भो जा जी -:: उत्तराषाढ़ा, खी खू खे खो. यवण, गा गी गू गे--- धनिष्ठा, गो सा मी स = शतभिषा, से सो दा दी = पूर्वाभाद्रपद, दू थ झ ञः- उन राभाद्रपद, दे दो चा ची= रेवती।।
वर्षा के सम्बन्ध में एक आवश्यक बात यह भी जान लेनी चाहिए कि भारत में तीन प्रकार के प्राकृतिक प्रदेश हैं- अनप, जोगल और मिथ । जिस प्रदेश में अधिक वर्षा होती है, वह अनूप; कम वर्षा वाला जोगल और अल्प जल वाला मिश्न कहलाता है । मारवाड़ में मामूली भी अशुभ योग वर्षा को नष्ट कर देता है और अनुप देश में प्रवल अशुभ योग भी अल्प वर्षा कर ही देता है। जिस ग्रह के जो प्रदेश बतलाये गये हैं, वह ग्रह अपने ही प्रदेशों में वर्षा का अभाव का मद्भाव करता है।
ग्रहों के प्रदेश – सूर्य के प्रदेश-द्रविड़ देश का पूर्वाद्धं, नर्मदा और सोन नदी का पूर्वार्द्ध, यमुना के दक्षिण का भाग, इक्षुमती नदी, श्री जल और विन्ध्याचल के देश, चम्प, मुण्डू, चेदीदेश, कौशाम्बी, मगध, औष्ट गुट म, वंग, ननिग, प्रागज्योतिप, वर, किरात, मेडल, चीन, वाहीक, 'यवन, काम्बोज और शक हैं। __चन्द्रमा के प्रदेश-दुर्ग, आर्द्र, द्वीप, समुद्र, जलाशय, तुपार, शेम, स्त्रीगज, मरुकच्छ और कोशल है। ___ मंगल के प्रदेश-- नासिक, दण्डक, अश्मक, केरल, कुन्तल, कारण, आन्द्र, कान्ति, उत्तर पाण्ड्य, द्रविड, नर्मदा, मोन नदी और भीमरथी का पश्चिम अध भाग, निविन्ध्या, क्षिप्रा, बेत्रावती, वेणा, गोदावरी, मन्दाकिनी, तापी, महानदी,
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सात
यदि दक्षिण-दाहिनी, पार्श्व-ओर से घोड़ा शयन करे तो जय देने वाला और पेट की ओर से शयन करे तो आश्चर्यपूर्वक जय देता है 1115611
वामार्षशायिनश्चैव तुरङ्गा नित्यमेव च ।
राज्ञो यस्य न सन्देहस्तस्य मृत्यु समादिशेत् ॥15॥ यदि नित्य बायीं आधी करवट से घोड़ा शायन बारे तो निसन्देह उस राजा की मृत्यु की सूचना समझनी चाहिए ।। 15718
सौसप्यन्ते यदा नाग: पश्चिमश्चरणस्तथा।
सेनापतिवधं विद्याद् धदाउन्न च न भुजत 158 यदि हाथी पश्चिम की ओर पैर करके शयन करे तथा कोई अन्न नहीं खाये तो सेनापति का वध समझना चाहिए ।।।58॥
यवान्नं पादवारी वा नाभिनन्दन्ति हस्तिनः ।
यस्यां तस्यां तु सेनायामचिराद्वधमादिशेत् ॥1591 जिस सेना में हाथी अन्न, जल और तृण नहीं खात हों -त्याग कर चुक हों, उस सेना में शीघ्र ही वध होता है ।।15911
निपतन्त्यग्रतो यद्वै त्रस्यन्ति वा रुदन्ति वा।
निष्पदन्ते समुद्विग्ना यस्य तस्य वधं वदेत् ।। 1601 जिस राजा के प्रयाण काल में उसके आगे आकर दुःखी या रुदन करता हुआ व्यक्ति गिरता हो अथवा उद्विग्न होकर आता हो तो उस गा मा वध होता है ।।।60॥
ऋरं नदन्ति विषमं विस्वरं निशि हस्तिन: ।
दोप्यमानास्तु केचित्तु तदा अनावधं ध्रुवम् ॥16॥ यदि रात्रि में हाथी क्रूर, विषम, पोर और बिहार विहार स्वर वाली आवाज करें अथवा दीप्त–ताप में जानते हुए दिखलाई पडू लो मना का शीन बध होता है ।।।6111
गो-नागवाजिनां स्त्रोणां मुखाच्छोणिर्ताबन्दवः ।
द्रवन्ति बहशो यत्र तस्य राज्ञः पराजयः ।।162।। जिस राजा को प्रयाण-काल में गाय, हाथी, घोड़ा, और स्त्रियों के मुख पर
1. सदमा: पायवारी
मनालाही न
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भद्रबाइसंहिता
रक्त की बूंदें दिखलाई पड़ें उस राजा की पराजय होती है ॥1 6211
नरा यस्य विपद्यन्ते प्रयाणे वारणः पथि।
कपालं गृह्य धान्ति दोनास्तस्य पराजयः ॥16311 जिस राजा के प्रयाण-काल में मार्ग में उसके हाथियों के द्वारा मनुष्य पीड़ित हो और बे मनुष्य अपना सिर पकड़कर दीन होकर भागें तो उस राजा की पराजय होती है ।।। 6341
यदा धुनन्ति सोदन्ति निपतन्ति किरन्ति च ।
खादमानास्तु खिद्यन्ते तदाऽऽख्याति पराजयम् ।।1640 जिसके प्रयाण काल में थोड़े पंच संचालन अधिक करते हो, खिन्न होत हां, गिरत हो, दुःखी होत हो, अधिक लीद करते हों और घास खांत समय खिन्न होते हों तो व उसकी प |ी भूलये है .. !:411
हेषल्यभोक्षणमश्वास्तु विलिन्ति खुरंधराम् ।
नदन्ति च यदा नागास्तदा विन्द्याद ध्रुवं जयम् ।।1651 बाई बार-बार होगा ही, जुरों जगीन को मोदन हो और हाथी प्रसन्नता की चिया बारा हो तो आगो निगचित्त जय गमअनी चाहिए ।। ! 6511
पुष्पाणि पीतरक्तानि शुक्लानि च प्रदा गजा: ।
अभ्यन्तराग्रदन्तषु दर्शयन्ति यदा जयम् ।।160 यदि हाथी पीन, गत और श्वेता
भीती यांना के अग्रभाग में दिसलाना। मालूम हो । जमाना चाह! it] i. fit:
यदा मुंन्ति शुष्माभिर्नागा नादं पुन: पुन: ।
गरसैन्यौपघाताय तदा विन्द्याद् ध्र वमजयम् ॥1670 जब हाथी गुड । बार-बार नाद कारन हो तो गरगना माना के बिनाश मे. लिए प्रयाण करने वाले राजा को जय होती है ।।। 6 715
पादै: पादान विकन्ति तला बिलिन्ति च ।
गजास्तु यस्य सेनाय निरुध्यन्ते ध्र बं' परैः ।। भिम गना का हाथी परी द्वारा पं को खोने अथवा तल कमरा धरती को खोदें सो शत्रुन द्वारा नना का निरोध होता है ।।16811
I. वर
म |
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त्रयोदशोऽध्यायः
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मत्ता यत्र विपद्यन्ते न माद्यन्ते च योजिता: ।
नागास्तत्र वधो राज्ञो महाऽमात्यस्य वा भवेत् ॥16॥ जहाँ मदोन्मत्त हाथी विपत्ति को प्राप्त हों अथवा मत हाथियों की योजना में करने पर भी वे मद को प्राप्त न हों तो उस समय वहाँ मजा या महामात्य: महामन्त्री का वध होता है ।116911
यदा राजा निवेशेत भूमौ कण्टकसंकुले।
विषमे सिकताकोणे सेनापतिवधो ध्र वम् 1170 जब राजा कंटकाकीर्ण, विपम, बालु काचुरत भूमि में सना का निवास = करावे- सैन्य शिविर स्थापित करे तो मनापति र बध या निर्देश समझना चाहिए ।।17011
श्मशानगरियरजःको पनपनौ।
शुकवृक्षसमाकोणें निविष्टो' वधमीयते ॥17॥ श्मशान भूमि की हड्डियां जहां हो, धूलि युक्त, दग्ध वगरपति और शुष्क ___ वृक्ष वाली भूमि में संन्य शिविर की स्थापना की जाय तो वध होता है ।।17 |||
कोविदारसमाकीर्णे श्लेष्मान्तकमहाद्र मे।
पिलू-कालनिविष्टस्य प्राप्नुयाच्च चिराद् वधम् ।।172।। लाल कचनार वृक्ष से युक्त तथा गौद वाने व वृक्षों से युक्त और पीलू के वृक्ष के स्थान में सैन्य शिविर स्थापित किया जाये तो विलम्ब से वध होता है ।।1720
असारवृक्षभूयिष्ठे पाषाणतणकुत्सिते ।
देवतायतनाक्रान्ते निविष्टो बधमाप्नुयात् ॥1731 रेडी के अधिक वृक्ष वाले स्थान में अथवा पापाण-पत्थर और सिनने वाले स्थान में, कुत्सित-- -ऊंची-नीत्री खराब भूमि में, अथवा देवमन्दिर' की भूमि में यदि संन्य शिविर हो तो वध प्राप्त होता है ।।। 7311
अमनोज्ञैः फलैः पुष्पः पापपक्षिसमन्वित।
अधोमाग निविष्टश्च युद्धमिच्छति पार्थिवः ।।17411 कुरूप फल, गुग्ध से युक्त तथा पाणी -- मासाहारी पक्षियों से युक्त अक्षा के
I. निविशी मु० ।
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भद्रबाहुसंहिता
नीचे सैन्य पड़ाव करने वाला राजा युद्ध को इच्छा करता है 11:411
नीचैनिविष्टभपस्या नीचेभ्यो भयमादिशेत ।
यथा दृष्टेषु देशेषु तज्ज्ञभ्य: प्राप्नुयाद् वधम् 11.75 नीचे स्थानों में स्थित रहने वाले राजा को नीचों से भय होता है । तथानुसार देखे गये देशों में उनसे वध प्राप्त होता है ।। 175॥
यत् किचित् परिहीनं स्यात् तत् पराजयलक्षणम् ।
परिवृद्ध च यद् किंचिद् दृश्यते विजयावहम् ।।1761 जो कुछ भी कमी दिखलाई पड़े वह पराजया की सूचिका है और जो अधिकता दिखलाई पड़े वह विजय की सूचिता होती है ।। ! 76
दुर्वर्णाश्च दुर्गन्धाश्च कुवेषा व्याधिनस्तथा।
सेनाया ये नराश्च स्युः शस्त्रवध्या भवन्त्यथ ॥1771 बुरे रंग वाले, दुर्गन्धित, कुवेषधारी और रोगी सेना के व्यक्ति शस्त्र के द्वारा वध्य होते हैं 1117711
यथाज्ञानप्ररूपेण राज्ञो जयपराजयः।
विज्ञेयः सम्प्रयातस्य भद्रबाहुवचो यथा 178॥ इस प्रकार मे भद्रावाहु स्वामी के बचनानुसार प्रयाण करने वाले राजा की । जग-पराजय अवगत कर लेनी चाहिए ।।17811
परस्य विषयं लब्ध्वा अग्निदग्धा न लोपयेत् ।
परदारां न हिस्येत् पशन वा पक्षिणस्तथा॥17911 शत्रु के देश को प्राप्त करके भी उश अग्नि में नहीं जलाना चाहिए और न उस देश का लोप ही करना चाहिए । परस्त्री, पशु और पक्षियों की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए ।।17911
वसीकतेषु मध्येषु न च शस्त्रं निपातयेत्।
निरापराधचित्तानि नाददीत कदाचन ।।180॥ अधीन हार देशों में शरत्रपात प्रयोग नहीं करना चाहिए । निरपराधी व्यक्तियों को कभी भी काट नहीं देना चाहिए ।। 18011
1. भूपर : ० 2 अग्निफनए मवस्तु भाव
!
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त्रयोदशोऽध्यायः
देवतान् पूजयेत् वद्धान् लिगिनो ब्राह्मणान् गुरून् । परिहारेण नपती राज्यं मोदति सर्वतः ॥ 181॥
जो राजा देवता, वृद्ध, गुनि, ब्राह्मण, गुरु की पूजा करता है और समस्त बुराइयों को दूर करता है, वह सर्व प्रकार से आनन्दपूर्वक राज्य करता है । । 81 राजवंशं न वोच्छिद्यात् बालवृद्धांश्च पण्डितान् । श्रन्यायेनार्थान् समासाद्य सार्थो राजा विवद्ध ते 1182
T
किसी राज्य पर अधिकार कर लेने पर भी उस राजवंश का उच्छेद---.. विनाश नहीं करना चाहिए तथा बाल वृद्ध और पंडितों का भी विनाश नहीं करना चाहिए। न्यायपूर्वक जो धनादि को प्राप्त करता है, वहीं राजा वृद्धिगत होता है | 1821
धर्मोत्सवान् विवाहांश्च सुतानां कारयेद् बुधः । न चिरं धारयेद् कन्यां तथा धर्मेण वर्द्धते ।।183॥ अधिकार किये गये राज्य में धर्मोत्सव करे, अधिकृत राजा की कन्याओं का विवाह कराये शोर उसकी कन्याओं को अधिक समय तक रखे, क्योंकि धर्मपूर्वक ही राज्य की वृद्धि होती है 1831
कार्याणि धर्मतः कुर्यात् पक्षपात विसर्जयेत् । व्यसनैविप्रयुक्तश्च "तस्य राज्यं विवर्द्धते ।।1841
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धर्मपूर्वक ही पक्षपात छोड़कर कार्य करे और सभी प्रकार के व्यसनजुआ खेलना, मांस खाना, चोरी करना, परस्त्रीसेवन करना, शिकार खेलना, वेश्यागमन करना और मद्यपान करना इन व्यसनों में अलग रहे, उसका राज्य बढ़ता है | 18411
1
1. लिंगस्था
2 पहारं नृपनिदेद्यागजिनाम् दत्त राज्येन वर्धते । 4. सुखानां मु । चोरि-सुखप्रदः सु
शेंदते भू
यथोचितानि सर्वाणि यथा न्यायेन पश्यति । राजा कांति समाप्नोति परवेह च मोदते ॥185॥ यथोचित सभी को जो न्यायपूर्वक देखता है, वहीं राजकीति यश प्राप्त करता है और इह लोक और परलोक में आनन्द को प्राप्त होता है । 185
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। 3. न्यायेन स
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भद्रबाहुसंहिता
इमं यात्राविधि कत्स्नं योऽभिजानाति तत्त्वतः।
न्यायतश्च प्रयुंजीत् प्राप्नुयात् स महत् पदम् ॥1861 जो राजा इस यात्रा विधि को वास्तविक और सम्पूर्ण रूप से जानता है और न्यायपूर्वक व्यवहार करता है, वह महान् पद प्राप्त करता है 11 ! 8611
इति महामनीश्वरसकलानन्द महामुनिभद्रबाहुविरचिते
महानिमित्तशास्त्रे राजधावाध्याय: समाप्तः । विवेचन-प्रग्नत यात्रा प्रकरण में राजा महाराजाओं की यात्रा का निरूपण आचार्य ने किया है। कि अब गणतन्त्र भारत में राजाओं की परम्परा ही समाप्त हो चुकी है । अतः यहाँ पर सब सामान्य के लिए यात्रा सम्बन्ध को उपयोगी बातों पर प्रकाश डाला जायगा। सर्वप्रथम यात्रा के मुहूर्त के सम्बन्ध म कुल लिखा जाता है। क्योंकि समय के साभाशभत्व का प्रभाव प्रत्येक जड़ या चेतन पदार्थ पर पड़ता है। यात्रा के गहत के लिए शुभ नक्षत्र, शुभ तिथि, शुभ वार और चन्द्रवास के विचार में अतिरिक्त वारशूल, नक्षत्र शूल, समय शूल, योगिनी और राशि के क्रम मा विचार भी करना चाहिए ।
यात्रा के लिए नक्षत्र-विचार अश्विनी, पुनर्वसु, अनुगधा, मृगशिरा, पुष्य, रेवती, इस्त, श्रवण और धनिष्ठा नक्षत्र यात्रा के लिए उनमः रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, । उत्तराभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वापाहा, पूर्वाभाद्रपद, ज्येठा, मूल और शतभिषा ये नक्षत्र मध्यम एवं 'भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, आश्लेपा, मघा, चित्रा, स्वाति, विशाखा ये नक्षत्र यात्रा के लिए निन्य हैं।
तिथियों में द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादगी और त्रयोदशी शुभ । बताई गई हैं।
दिक्शूल और नक्षत्रशूल तथा प्रत्येक दिशा के शुभ दिन ज्येष्ठा नक्षत्र, सोमवार तथा अनिवार को पूर्व में, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र और गुरुवार को दक्षिण मः रोहिणी नक्षत्र और जुत्रवार को पश्चिम एवं मंगल तथा बुधवार को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उत्तर दिशा में यात्रा करना वजित है। पूर्व दिशा में रविवार, मंगलबार और गुरुवार; पश्चिम में शनिवार, सोमवार, बुधधार और गुरुवार : उन र दिशा में गुरुवार, रविवार, सोमवार और शुक्रवार एवं दक्षिण दिशा में बुधवार, मंगलवार, मोमवार, रविवार और शुक्रवार को गमन करना शुभ होता है । जो नक्षत्र का विचार नहीं कर सकते हैं वे उक्त
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त्रयोदशोऽध्यायः
शुभवारों में यात्रा कर सकते हैं। पूर्व दिशा में उपा काल में यात्रा वर्जित है । पश्चिम दिशा में गोधूलिकी यात्रा वर्जित है । उत्तर दिशा में अर्धरात्रि और दक्षिण दिशा में दोपहर की यात्रा वर्जित है ।
योगनीवास - विचार
नवभूम्य: शिववह्नयोऽक्ष विश्वेऽर्ककृताः शक्रस्यास्तुरंगा तिथयः । विदशोमा वराश्च पूर्वतः स्युः तिश्रयः समुखवाभगा च अस्ताः ॥ अर्थ-..- प्रतिपदा और नवमी को पूर्व दिशा में एकादशी और तृतीया को अग्निकोण, पंचमी और त्रयोदनी को दक्षिण दिशा में, चतुर्थी और द्वादशी को नैऋत्य कोण में, पष्ठी और चतुर्दशी को पश्चिम दिशा में, सप्तमी और पूर्णिमा को वायव्यकोण में द्वितीया और दशमी को उत्तर दिशा में एवं अमावस्या और अष्टमी को ईशान कोण में योगिनी का वास होता है। सम्मुख और बायें तरफ अशुभ एवं पीछे और दाहिनी ओर योगिनी शुभ होती है ।
चन्द्रमा का निवास
चन्द्रश्चरति पूर्वादों क्रमादिचतुष्टये । मेषादिवेष यात्रायां सम्मुखस्त्वतिशोभनः ॥
207
I
अर्थात् मेष, सिंह और धनु रामिका चन्द्रमा पूर्व में वृष, कन्या और मकर राशि का चन्द्रमा दक्षिण दिशा में, तुला, मिथुन और कुम्भ राशि का चन्द्रमा पश्चिम दिशा में एवं कर्क, वृश्चिक और मीन राशि का चन्द्रमा उनर दिशा में वास करता है ।
चन्द्रमा का फल
सम्मुखीनोऽर्थलाभाय दक्षिणः सर्वसम्पदे । पश्चिमः कुरुतं मृत्युं वामश्चन्द्रो धनक्षयम् ।।
अर्थ - - सम्मुख चन्द्रगा धन लाभ करने वाला; दक्षिण चन्द्रमा शुख-सम्पत्ति देने वाला; पृष्ठ चन्द्रमा शोक-सन्ताप देनेवाला और वाम चन्द्रमा धन हानि करने वाला होता है ।
राहु विचार
अष्टासु प्रथमाधेषु प्रहारार्धेप्वहनिशम् । पूर्वस्यां वामतो राहुस्तु तुर्थी व्रजेद्दिशम् ।।
अर्थ - राहु प्रथम अर्धमान में पूर्व दिशा में, द्वितीय अर्धमाग में वायव्य
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भद्रबाहुसंहिता कोण में, तृतीय अर्धमास में दक्षिण दिशा में, चतुर्थ अर्थमास में ईशानकोण में, पश्चम अर्धमास में पश्चिम दिशा में, 4.3 अर्धा में आग्नेय दिशा में, सपाम अर्धमास में उत्तर दिगा में और अरट म अर्धमास में नैऋत्यकोग में राहु का वास रहता है।
यात्रा के लिए राहु आदि का विचार जयाय दक्षिणो राहु योगिनी वामतः स्थिता।
पृष्ठतो द्वयमध्येतच्चन्द्रभा: सम्मुख: पुनः ।। अर्थ-दिशाल का बासी बोर रहना, राहु का दाहिनी ओर या पीछे की ओर रहना, योगिनी का बायीं ओर या पीछे की ओर रहना एवं चन्द्रमा का सम्मुख रहना यात्रा में गुभ होता है । द्वादश महीनों में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के कम से प्रतिपदा मे पूर्णिमा तक क्रम से सौख्य, क्लेश, भीति, अर्थागम, शून्य, निःस्त्रत्व, मित्रपात, द्रव्य-कलेण, दुःख, इटाप्ति, अर्थलाभ, लाभ, सोल्य. मंगन, विनलाभ, लाभ, द्रव्यप्राप्ति, धन, सौख्य, भीति, लाभ, मृत्यु, अर्थागाम, लाभ, कष्ट, द्रव्यलाभ, कष्ट, सौख्य, क्लेश, मुख, सौख्य, लाभ, कार्य सिद्धि, काट, क्लेश, प, धन-लाभ, मत्यु, लाभ, द्रव्य लाभ, शून्य, शून्य, मौम्य, मुत्यु, अत्यन्त कष्ट फल होता है। 13, 14 और 15 तिथि का फल 3.4 और 5 तिथि के फल समान जानना चाहिए।
तिथि चक्र प्रकार
"
मो.सा.का.च. . ज्ये. 11 . पूर्व । दक्षिण । पश्रिम
sip सौल्यं । फ्लेश | भीतिः । अपांग 2j3: सम्पम म्वम निःस्व | मित्रया:
| दुःखम् । इहालिः | जय
सौख्यं मालम | विसला
| दयादि धनम् । सौर भीतिः लाभः । मायुः । अयोग
कष्टम दव्यला | सुखम् ।
सौनयम खेश । सुखम् । सौख्य लाभः कार्यसि कष्टम । क्लेशः कष्टम् ः धनम
ल
......
استعلام عن المنبهات اداره کاله زيت
नाग
.
धनम
..
चन्पम् | सौख्यं मायः I
11
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यात्रामुहूर्त चक्र
अश्वि० पुन० अनु० भृ० पु० रे० ह० ५० ५० ये उत्तम हैं।
नक्षत्र
रो० उफा० उषा० उभा• पूफा० पूषा पूभा० ज्ये० मू० शत. ये मध्यम हैं।
भ० कृ० आ० आश्ले० म० चि. स्वा० वि० ये निन्द्य है।
| 2,3,5,7,10,11,12
चन्द्रवास चक्र
समयशल चक्र
प्रात:काल
पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर
-- ..-- - मेष. | मिथुन , वृप । कर्क ।
.-.--" ! सिंह | तुला | कन्या वृश्चिक
सायंकाल
---
पश्चिम - . .--.. | दक्षिण
मध्याह्नकाल
कुम्भ | मकर । मीन ।
उन र
अर्द्धरात्रि
दिक्शूल चक्र
। दक्षिण पश्चिम उत्तर
चं० श०
०
० शु... बुल
योगिनी चक्र
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भद्रबाहुसंहिता यात्रा के शुभाशुभत्व का गणित द्वारा ज्ञान शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा रो लेकर तिथि, वार, नक्षत्र इनके योग को तीन । स्थान में स्थापित करें और क्रमश: सात, आठ और तीन का भाग देने से यदि प्रथम स्थान में शून्य शेष रहे तो यात्रा करनेवाला दुःखी होता है । द्वितीय स्थान में शून्य बचने गे धन नाश होता है और तृतीय स्थान में शून्य शेप रहने से मृत्यु होती है। उदाहरण-कृष्णपक्ष की एकादशी रविवार और विशाखा नक्षत्र में भुवनमोहन राय यो यात्रा करनी है। अत: शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि तक गणना की तो 2 7 संख्या आई, रविवार को संख्या एक ही हुई और अश्विनी से विशाखा तक गणना की तो । 6 संख्या हुई। इन तीनों अंक का योग किया तो 27-1-1-1-16 = 44 हुआ। इसे तीन स्थानों पर रखकर 7,8 और 3 का भाग दिया। 44 : 7-6 लब्ध और 2 शेष; 44 : 8 ..5 लन्ध और 4 शेए; 44 : 3: 14 लब्ध और 2 शेष। यहां एक भी स्थान पर शुन्य शेष नहीं आया है। अत: फलादेश उत्तम है, यात्रा करता शुभ है।
घातक चन्द्र विचार । मेगराशि वालों को जन्म का, वृषराशि वालों को पांचवां, मिथुन राशि वालों को नौवा, कर्क राशि वालों को दूसरा, सिंह राशि वालों को छठा, कन्या राशि वालों को दशवां, तुला राशि वालों को तीसरा, वृश्चिक राशि वालों को सातवाँ, धनराशि वालों को चौथा, मकर राशि वालों को आठवां, कुम्भ राशि वालों को ग्यारहवां और मीन राशि वालों को बारहवाँ चन्द्र घातक होता है। यात्रा में घातक चन्द्र त्यक्त है।
घातक नक्षत्र कृतिका, चित्रा, शतभिषा, मघा, घनिष्ठा, आर्द्रा, मूल, रोहिणी, पूर्वाभाद्रपद, मत्रा, मुल और पूर्वाभाद्रपद ये नक्षत्र मेपादि बारह राणिवाले व्यक्तियों के लिए घातक है। किसी-किसी आचार्य का मत है कि मेष राशि वालों को कृत्तिका का प्रथम चरण, अपराशि वालों को चित्रा का दूसरा चरण, मिथुन राशि बालों को शतभिपा का तीसरा चरण, वापराशि वालों को मघा क तीसरा चरण, सिंहराणि वालों को धनिष्ठा का प्रथम चरण, कन्या राशि वालों को आदी या तीसरा चरण, तुला राशि वालों को मूल का दूसरा चरण, वृश्चिम राशि वालों को रोहिणी का चौथा चरण, धनराशि वालों को पूर्वाभाद्रपद का चौथा चरण, मकर राशि वालों को मघा का चौथा चरण, कुम्भ राशि वालों को मूल का चौथा चरण और मीन राशि वालों को पूर्वाभाद्रपद का तीसरा चरण त्याज्य है।
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घाततिथि विचार
वृष, कन्या और मीन राशि वालों को पंचमी, दशमी और पूर्णिमा घाततिथि हैं। मिथुन और कर्क राशि वाले व्यक्तियों को द्वितीया, द्वादशी और सप्तमी घाततिथियाँ हैं । वृश्चिक और मेष राशिवालों को प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी घात तिथि हैं | मकर और तुला राशि वालों को चतुर्थी, चतुर्दशी और नवमी घाततिथियाँ एवं धन, कुम्भ और सिंह राशिवाले व्यक्तियों के लिए तृतीया, त्रयोदशी और अष्टमी घात तिथियाँ हैं । इनका यात्रा में त्याग परम आवश्यक है ।
211
घातवार
P
मकर राशि वाले व्यक्तियों को मंगलवार घातक है नृप सिंह और कन्या राशि वालों को शनिवार मिथुन राशि वाले व्यक्ति के लिए सोमवार मे राशिवालों को रविवार, कर्क राशिवालों को बुधवार, धनु, मीन और वृश्चिक को शुक्रवार एवं कुम्भ और तुला राशिवालों को गुरुवार घातक है। इन घातक वारों में यात्रा करना वर्जित है ।
घातक लग्न
मेष,
वृष आदि द्वादश राशिवालों को क्रमशः मेष, वृष, कर्क, तुला, मकर, मीन, कन्या, वृधिचक, धनु, कुम्भ, मिथुन और सिंह लग्न घातक है । अतः यात्रामें वर्जित हैं।
राशि ज्ञात करने की विधि
,
चू, चे, चोला, ली, लू, ले लो और आ इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर अपने नाम के आदि का हो तो मेष राशि, ई, उ, ए, ओ, वा, वी, वू, वे और वो इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर अपने नाम का आदि अक्षर हो तो मिथुन राशि: ही, हू, हे, हो, डा, डी, डू, डे और हो इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर अपने नाम का ૐ आदि अक्षर हो तो कर्क राशि मा, मी, मू, मे, मो, टा, टी, टू और टे इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर नाम का आदि अक्षर हो तो सिंह राशि टो, पा, पी, पू, प, ण, ठ, पे और पो इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर नाम का आदि अक्षर हो तो कन्या राशि, रा, री, रू, रे, रो, ता, ती, तू और ने इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर नाम के आदि का अक्षर हो तो तुला राशि; तो, ना, नी, नू, ने, नो, या, यी और यू इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर नाम के आदि का अक्षर हो तो वृश्चिक राशि ये, यो, भा, भी, भू, धा, फा, ढा और मे इन अक्षरों में से कोई भी
1
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भद्रबाहुसंहिता
अक्षर नाम का आदि अक्षर हो तो धनु राशि भो, जा, जी, खी, ख स्खे खो, गा और गी इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर नाम के आदि का अक्षर हो तो मकर राशि; गू, ये, गो, सा, सी, सू, से, सो और दा इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर नाम का आदि अक्षर हो तो कुम्भ राशि एवं दी, दू, थ, झ, ञ, दे, दो, चा और ची इन अक्षरों में से कोई भी अक्षर नाम का आदि अक्षर हो तो मीन राशि होती है ।
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संक्षिप्त विधि
आला - मेष, उवा = वृप, काळा मिथुन, डाहा कर्क, माटा सिंह, पाठा... कन्या, राता : तुला, नोया वृश्चिक, मुधा फाढ, = मकर, गोसा : कुम्भ, दात्रा - मीन ।
==
उपर्युक्त अक्षर विधि पर से अपनी राणि निकाल घाततिथि घातनक्षत्र, घातवार और घातलग्न का विचार करना चाहिए ।
यात्राकालीन शकुन --- ब्राह्मण, घोड़ा, हाथी, फल, अन्न, दूध, दही, गो, सरसों, कमल, वस्त्र, वेश्या, बाजा, गोर, गया, नेवला, बंधा हुआ पशु, माँस, श्रेष्ठ वाक्य, फूल, ऊख, भरा कलश, छाता, मृतिका, कन्या, रत्न, पगड़ी, विना बंधा सफेद बैल, मंदिश, पुत्रवती स्त्री, जलती हुई अग्नि और मछली आदि पदार्थ यात्रा के लिए गमन करते हुए दिखलाई पड़ें तो शुभ शकुन समझना चाहिए। सोसा, काजल, धुला वस्त्र, अथवा धोये हुए वस्त्र लिये हुए धोबी, मछली, घृत, सिंहासन, रोदन रहित मुर्दा, ध्वजा, शहद, मेढा, धनुष, गोरोचन, भरद्वाज पक्षी, पालकी, वेदध्वनि, श्रेष्ठ स्तोत्र पाठ की ध्वनि मांगलिक गायन और अंकुश ये पदार्थ यात्रा के समय सम्मुख आवें और बिना जल का घड़ा लिये हुए आदमी पीछे जाता हो तो अत्युत्तम है ।
बांस स्त्री, चमड़ा, धान की भूसी, हाड़, सर्प, लवण, अंगार, इन्धन, हिजड़ा, बैठा लिये पुरुष, तेल, पागल व्यक्ति, चर्बी, औषध, शत्रु, जटावाला व्यक्ति, संन्यासी, तृण, रोगी, मुनि और बालक के अतिरिक्त अन्य नंगा व्यक्ति, तेल नगाकर बिना स्नान किये हुए, छूटे कण, जाति में पतिल, कान-नाक कटा व्यक्ति, सूखा, रधिर, रजस्वला स्त्री, गिरगिट, निज घर का जलना, विलावों का लड़ना और सम्मुख लोक यात्रा में अशुभ है । गेरू से रंगा कपड़ा. या इस प्रकार के वस्त्रों ने धारण करने वाला व्यक्ति, गुड़, छाछ, कीचड़, विधवा स्त्री, कुबड़ा बड़ाई, शरीर से वस्त्र गिर जाना, भेंगों की लड़ाई, काला अन्न, रूई, वमन, हिनी ओर गर्दभ शब्द, अतिक्रोध, गर्भवती, शिरमुण्डा, गीले वस्त्र वाला, दुष्ट न बोलने वाला, अन्धा और बहरा ये सब यात्रा समय में सम्मुख आयें तो अति नन्दित हैं ।
व्यक्ति,
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गोहा, जाहा, शूकर, सर्प और खरगोश का शब्द शुभ होता है । निज या पर के मुख से इनका नाम लेना शुभ है, परन्तु इनका शब्द या दर्शन शुभ नहीं है । रीछ और वानर का नाम लेना और सुनना अशुभ है, पर शव्द सुनना शुभ होता है । नदी का तैरना, भयकार्य, गृहप्रदेश और नष्ट तरतु का लेखना शुभ कोयल, छिपकली, पोतकी, शूकरी, रता, पिंगला, छछुन्दरि, मियारिन, कपोत, खंजन, तीतर इत्यादि पक्षी यदि राजा की यात्रा के समय वाम भाग में हो तो शुभ हैं। छिक्कर, पपीहा, श्रीकण्ठ, वानर और रुरुमग यात्रा समय दक्षिण भाग में हों तो शुभ है । दाहिनी ओर आये हुए मृग और पक्षी यात्रा में शुभ होते है । विषम संख्यक मृग अर्थात् तीन, पाँच, सात, नो, ग्यारह्, तरह, पन्द्रह, सत्रह, उन्नीस, इक्कीस आदि संख्या में ममों का झुण्ड चलते हए साथ दें तो शुभ है । यात्रा समय वायीं ओर गदहे का शब्द शुभ है। यदि सिर ऊपर दही को हण्डी रखे हुए कोई ग्वालिन जा रही हो और दही के कण गिरते हुए दिधलाई पड़े तो यह शकुन यात्रा के लिए अत्यन्त शुभ है । यदि दही की हण्डी काले रंग की हो और वह काले रंग के वस्त्र से आचादित हो तो यात्रा में आधी सफलता मिलती है। श्वेत रंग की हण्डी श्वेत यश आच्छादित हो तो पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। यदि रक्त वस्त्र से आच्छादित हो तो यश प्राप्त होता है, पर यात्रा में कठिनाइयाँ अवश्य सहन करनी पड़ती है । पीतवर्ण के वस्त्र से पचवादित होने पर धन लाभ होता है तथा यात्रा भी साफलतापूर्वक निविघ्न हो जाता है। हरे रंग का वस्त्र विजय को चना देता है तथा यात्रा करने वाले की मनोकामना सिद्ध होने की ओर संकेत करता है। यदि यात्रा करने समय कोई व्यक्ति खाली घड़ा लेकर सामने आये और तत्काल भरकर साथ-साथ वापस चले तो यह शकुन बाबा की सिद्धि के लिए अत्यन्त शुभकारक है। यदि कोई व्यक्ति भरा घड़ा लबार सामने आये और तत्काल पानी गिराकर बाली घड़ा लेकर चले तो यह शकून अगभ है, यात्रा की वाटिनाइयों के साथ धनहानि की सूचना देता है।
यात्रा समय में काक का विचार- यदि यात्रा के समय का बाणी बोलता हुआ वाम भाग में गमन करे तो सभी प्रकार के मनाराको मिद्धि होती है। यदि का क मार्ग में प्रदक्षिणा मारता हुया बायें हाथ आ जाये तो कार्य की सिद्धि, क्षेम, बुशल तथा मनोरथो की सिद्धि होती है। यदि पीर पोछ पाक मन्द रूप में मधुर शब्द कारता हुआ गमन कर अथवा शब्द करता हुआ उसी मोर मागं में आगे बढ़े, जिधर यात्रा के लिए जाना है, अथवा शब्द करता हुवा का। आग हरे वृक्ष की हरी डाली पर स्थित हो और जाने पैर में गरसक को जला रहा हो तो यात्रा में अभीष्ट फल की सिद्धि होती है। यदि गमन काल में माक हाथी के ऊपर बैठा दिखलाई पड़े या हाथी पर बजत हुए बाजों पर बैठा हुआ दिखलाई पड़े तो यात्रा में सफलता मिलती है, साथ ही धनधान्य, रावारी, भूमि आदि का
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लाभ होता है। यदि काक घोड़े के ऊपर स्थित दिखलाई पड़े तो भूमिलाभ, मित्रलाभ एवं धनलाभ करता है। देवमन्दिर, ध्वजा, ऊँचे महल, धान्य की राशि, अन्न के ढेर एवं उन्नत भूमि पर बैठा हुआ काक मुंह में सूखी खास लेकर चबा . रहा हो तो निश्चय यात्रा में अर्थ लाभ होता है। इस प्रकार की यात्रा में सभी प्रकार के सुख साधन प्रस्तुत रहत हैं । यह यात्रा अत्यन्त सुखकर मानी जाती है। आगे-पीछे काक गोबर के ढेर पर बैठा हो या दूध वाले–वट, पीपल आदि पर स्थित होकर बीट कर रहा हो अथवा मुँह में अन्न, फल, मूल, पुष्प आदि हों तो अनायास ही यात्रा की सिद्धि होती है । यदि कोई स्त्री जल का भरा हुमा कलश लेकर आये और उस पर काक स्थित होकर शब्द करने लगे तथा जल के भरे हुए घड़े पर स्थित हो काक शब्द करे तो स्त्री और धन की प्राप्ति होती है। यदि शय्या के ऊपर स्थित होकर काक शब्द वारे तो आप्तजनों की प्राप्ति होती है। गाय की पीठ पर बैठकर या दुवा पर बैठकर अथवा गाबर पर बंठकर काक चाच घिसता हो तो अनेक प्रकार के भोज्य पदाथों की प्राप्ति होती है। शान्य, दूध, दही, मनोहर अंकुर, पत्र, पुष्प, फल, हरे-भरे वृक्ष पर स्थित होकर काक बोलता जाय तो सभी प्रकार के इच्छित कायं सिद्ध होते है । वृक्षों के ऊपर स्थित होकर याक शान्त शब्द बोले तो स्त्रीप्रसंग हो, धन-धान्य पर स्थित होकर शान्त शब्द कर तो धन-धान्य का लाभ हो एवं गाय की पीठ पर स्थित होकर शब्द करे तो स्त्री, धन, यश और उत्तम भोजन की प्राप्ति होती है। ॐट की पीठ पर स्थित होकर शान्त शब्द कर, गदहे की पीठ पर स्थित होकर शान्त शब्द करे तो धनलाभ और सुख की प्राप्ति होती है। यदि शूकर, बैल, खाली घड़ा, मुर्दा मनुष्य या मुर्दा पशु, पापाग और सूखे वृक्ष की डाली पर स्थित होकर यानक शब्द करे तो यात्रा भ ज्वर, अहानि, चारा द्वारा धन का अपहरण एवं घात्रा में अनेक प्रकार के कष्ट हात है। यदि का दक्षिण की ओर गमन कर और दक्षिण की ओर ही शब्द बार, पीछ से सम्मुख आये, कोलाहल करताहों और प्रतिलोम गति करके पीठ पीछ की और चला जाय तो यात्रा में चोट लगती है, रक्तात होता है तथा और भी अनेक प्रकार कष्ट होत हैं। बलिभोजन करता हुआ काक बायीं ओर शब्द करता हो और वहाँ से दक्षिण की और चला आये एवं वाम प्रदेश में प्रतिलोम गमन करता हो तो यात्रा म अनेक प्रकार के विघ्न होते हैं । आर्थिक हानि भी होती ह । यदि गमनवाल म काक दक्षिण बोलकर पीठ पीछे की ओर चला जाय तो किसी की हत्या सुनाई पड़ती है। गाय की पूंछ या सर्प के बिल पर बैठा हुआ वाक दिखलाई पड़ता माग में सर्पदर्शन, नाना तरह के संघर्ष और भय होत है । यदि का आगाठोर शब्द करता हुआ स्थित हो तो हानि, रोग; पीठ पछि स्थित हो कठोर शब्द करे तो मृत्यु एवं खाली बैठकर शब्द कर रहा हो तो यात्रा सदा निन्दित है। सूख काट काट्रक को तोड़कर चोच क अग्रभाग में
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दवाकर रखा हो और बायें भाग में स्थित हो तो नृत्यु या नाना प्रकार के कष्ट होते हैं। यदि चोंच में काक हड्डी दवाये हो तो अशुभ फल होता है 1 वाम भाग में सूखे वृक्ष पर काक स्थित हो तो अतिरोग, खाली या तीखे वृक्ष पर बैठा हो तो यात्रा में कलह और कार्यनाश एवं काँटेदार वृक्ष पर स्थित होकर रूखा शब्द करे तो यात्रा में मृत्यु होती है।
मानशरण के वृक्ष पर स्थित काक कठोर शब्द करता हो तो यात्रा में धनक्षय, कुटुम्बी मरण एवं नाना तरह से अशुभ होता है । यदि छत पर बैठकर काक बोलता हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिए। इस शकुन के होने पर यात्रा करने से बज्रपात-बिजली गिरती है। यदि कड़े के ढेर पर या राख-भस्म के ढेर पर स्थित होकर काक शब्द करे तो कार्य का नाश होता है। अपयश, धनक्षय एवं नाना तरह के कष्ट यात्रा में उठाने पड़ते हैं। लता, रसी, कण, मुखी लकड़ी, चमड़ा, हड्डी, फटे-पुराने चिथड़े, वृक्षों की छाल, रुधिरयुक्त वस्तु, जलती लकड़ी एवं कीचड़ काक को चोंच में दिखलाई पड़े तो यात्रा में पापयुक्त कार्य करने पड़त हैं, यात्रा में कष्ट होता है, धनक्षय या धन की चोरी, अचानक दुर्घटनाएं आदि घटित होती हैं। आयुध, छत्र, धड़ा, हड्डी, वाहन, काप्ट एवं पाषाण चोंच में रखे हुए काक दिखलाई पड़े तो यात्रा करने वाले की मृत्यु होती है । एक पांव समेटकर, चंचल चित्त होकर जोर-जोर से बठोर शब्द करता हो तो काक युद्ध, झगड़े, मार-पीट आदि की सूचना देता है। यदि यात्रा करते समय काक अपनी बीट यात्रा करने वाले के मस्तक पर गिग दे तो यात्रा में विपत्ति आती है । नदी तट या मार्ग में काक तीव्र स्वर वोले तो अत्यन्त विपतिकी सूचना समझ लेनी चाहिए । यात्रा के समय में यदि का रथ, हाथी, घोड़ा और मनुष्य के मस्तक पर बैठा दौड़ पड़े तो पराजय, कष्ट, चोरी और बागड़े की सूचना समझनी चाहिए। शास्त्र, ध्वजा, त्रि पर स्थित होकर आकाश की ओर देख रहा हो तो यात्रा में सफलता मिलनी चाहिए। ___ यात्रा में उल्ल का विचार यदि यात्रा काल में उल्लू बायीं ओर दिग्बलाई पड़े तथा उल्लू अपना भोजन भी गाथ में लिये हो तो यात्रा सफल होती है। यदि उल्लू वृक्ष पर स्थित होकर अपना भोजन संचय करता हुआ दिग्यलाई पड़े तो यात्रा करने वाला इस यात्रा में अवश्य धन लाभ कर लौटता है। यदि गमन करने वाले पुरुष के वाम भाग में उल्लू का प्रगान्तमय शब्द हो जोर दक्षिण भाग में असम शब्द हो तो यात्रा में मफलता मिलती है। किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती है । यदि यात्रा कर्ता के बाग भाग में उल्लू शब्द करता हुआ दिखलाई पड़े अथवा बायीं ओर से उल्लू वा शब्द सुनाई पड़े तो यात्रा प्रशस्त होती है। यदि पृथ्वी पर स्थित होयर उल्लू शाद कर रहा हो तो धनहानि; आमाण में स्थित होकर शब्द कर रहा हो तो कलह; दक्षिण भाग में स्थित होकार द कर रहा
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हो तो कलह या मृत्युतुल्य कष्ट होता है। यदि उल्लू का शब्द तैजस और पवनयुक्त हो तो निश्चयत: यात्रा करने वाले की मृत्यु होती है। यदि उल्लू पहले बायीं ओर शब्द करे, पश्चात् दक्षिण की ओर शब्द करे तो यात्रा में पहले समृद्धि, सुख और शान्ति; पश्चात् कष्ट होता है । इस प्रकार के शकुन में यात्रा करने से कभीकभी मृत्यु तुल्य कष्ट भी भोगना पड़ता है।
नीलकण्ठ विचार--यदि यात्रा काल में नीलकण्ठ स्वस्तिक गति में भक्ष्य पदार्थों को ग्रहण कर प्रदक्षिणा करता हुआ दिखलाई पड़े तो सभी प्रकार के मनोरथा की सिद्धि होती है। यदि दक्षिण- दाहिनी ओर नीलकण्ठ गमन समय में दिखलाई पड़े तो विजय, धन, यश और पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। यदि नीलकण्ठ काक को पराजय करता हुआ सामने दिखलाई पड़े तो निर्विघ्न यात्रा की सिद्धि करता है। यदि वन मध्य में रुदन करता हुआ नीलकण्ठ सामने आये अथवा भयंकर शब्द करता हुआ या घबड़ाकर पाब्द कारता हा आगे आये तो यात्रा में विघ्न आत है । धन चोरी चला जाता है और जिस कार्य की सिद्धि के लिए यात्रा की जाती है वह सफल नहीं होता। यदि यात्राकाल में नीलकण्ठ मयूर के समान शब्द यार तो यशप्राप्ति, धनलाभ, विजय एवं निविघ्न यात्रा सिद्ध होती है । गमन करने वाले व्यक्ति क आग-आगे कुछ दूर तक नीलकण्ठ के दर्शन हो तो यात्रा सफल होती है । धन, विजय और यश प्राप्त होता है । शत्रु भी यात्रा में भित्र बन जाते है तथा व भी सभी तरह की सहायता करते हैं।
खंजन विचार. यदि यात्राकाल में खंजन पक्षी हरे पत्र, पुष्प और फल युक्त वृक्ष पर स्थित दिखलाई पड़े तो यात्रा सफल होती है; मित्रों से मिलन, शुभ कार्यों की सिद्धि एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। हाथी, घोड़ा के बँधने के स्थान म, उपवन, घर का समीप, देवमन्दिर, राजमहल आदि के शिखर पर खंजन बैठा हुआ राशन दिलाई पड़े तो यात्रा सफल होती है । दही. दुध, घृत आदि को मुख में लिये हुए, संजन पक्षी दिखलाई पड़े तो नियमत: लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यात्रा में इस प्रकार के शुभ शकुन मिलते हैं, जिनरा चित्त प्रसन्न रहता है तथा बिना किसी प्रकार के कष्ट क यात्रा सिद्ध हो जाता है। सहनों व्यक्ति सहायक मिल जान है । छाया माहित, सुन्दर, फल-पुप्ता युक्त वृक्ष पर खंजन पक्षी दिखलाई पड़े तो लक्ष्मी की प्राप्ति के साथ विजय, यश और अधिकारों की प्राप्ति होती है। खजन कादशन यात्रा काल भबहत ही उत्तम माना जाता है। गधा, ऊंट, श्वान की पीठ पर बजन पक्षी दिखलाई पड़े अथवा अणुनि और मन्द्रे स्थान पर बैठा हुआ खंजन दिखलाई पड़े लो यात्रा में बाधाएं आती है, धनहानि होती है और पराजय भी होती है।
तोता विचार.. दि गमान समय में दाहिनी ओर या परमुख तोता दिखलाई पड़े तथा वह मधुर शब्द कार रहा हो, बन्धन मुक्त हो तो यात्रा में सभी प्रकार
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से सफलता प्राप्त होती है । यदि तोता मुख में फल दबाये और बायें पैर से अपनी गर्दन खुजला रहा हो तो यात्र में बनवाया होती है । इति फल, पुष्प और पत्तों से युक्त वृक्ष के ऊपर तोता स्थित हो तो यात्रा में विजय, सफलता, धन और यश की प्राप्ति समझनी चाहिए। किसी विशेष व्यक्ति से मिलने के लिए यदि यात्रा की जाय और यात्रा के आरम्भ में तोता जयनाद करता हुआ दिखलाई पड़े तो यात्रा पूर्ण सफल होती है। यदि गमन काल में तोता बायीं ओर से दायीं ओर चला आये और प्रदक्षिणा करता हुआ-सा प्रतीत हो तो यात्रा में सभी प्रकार की सफलता समझनी चाहिए । यदि तोता शरीर को कँपाता हुआ इधर से उधर घूमता जाय अथवा निन्दित, दूषित और घृणित स्थलों पर जाकर स्थित हो जाय तो यात्रा की सिद्धि में कठिनाई होती है। मुक्त विचरण करने वाला तोता यदि सामने फल या पुष्प को कुरेदता हुआ दिखलाई पड़े तो धनप्राप्ति का योग समझना चाहिए। यदि तोता रुदन करता हुआ या किसी प्रकार के शोक शब्द को करता हुआ सामने आये तो यात्रा अत्यन्त अशुभ होती है। इस प्रकार के शकुन में यात्रा करने से प्राणघात का भी भय रहता है ।
चिड़िया विचार - यदि छोटी लाल मुनया सामने दिखलाई पड़े तो विजय, पीठ पीछे शब्द करें तो कष्ट, दाहिनी ओर शब्द करती हुई दिखलाई पड़े तो ह एवं बायीं ओर धन क्षय, रोग या अनेक प्रकार की आपत्तियों की सूचना देती है । जिस चिड़िया के सिर पर कलंगी हो, यदि वह सामने या दाहिनी ओर दिखलाई पड़े तो शुभ, बायीं ओर तथा पीठ पीछे उसका रहना अशुभ होता है। मुंह में चारा लिये हुए दिखलाई पड़े तो यात्रा में सभी प्रकार की सिद्धि, धन-धान्य की प्राप्ति, सांसारिक सुखों का लाभ एव अभीष्ट मनोरा की सिद्धि होती है यदि किसी भी प्रकार की चिड़ियाँ आपस में लड़ती हुई सामने गिर जायें तो यात्रा में कलह, विवाद, झगड़ा के साथ मृत्यु भी प्राप्त होती है। चिड़िया के परों का टूटकर सामने गिरना यात्राकर्ता को विपति को सूचना देता है। चिड़िया का लंगड़कर चलना और धूल में स्नान करना यात्रा में कष्टों की सूचना देता है।
मयुर विचार- यात्रा में मयूर का नृत्य करते हुए देखना अत्यन्त शुभ होता है । मधुर शब्द एवं नृत्य करता हुआ मयूर यदि यात्रा करते समय दिखलाई पड़े तो यह शकुन अत्यन्त उत्तम है, इसके द्वारा धन-धान्य की प्राप्ति, विजयप्राप्ति, सुख एवं सभी प्रकार के अभीष्ट मनोरथों की सिद्धिनेनी चाहिए। मथुर का एक ही झटके में उड़कर सूखे वृक्ष पर बैठ जाना यात्रा में विपत्ति की सूचना देता है ।
हामी विचार यदि प्रस्थान काल में हाथी रोड को ऊपर किये हुए दिखलाई गड़े तो यात्रा में इच्छाओं की मुर्ति होती है । यदि यात्रा करते समय हाथी का दाँत ही टूटा हुआ दिखलाई पड़े सो भय, कष्ट और मृत्यु होती है। गर्जना करता
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हुआ मदोन्मत्त हाथी यदि सामने आता हुआ दिखलाई पड़े तो यात्रा सफल होती है। जो हाथी पीलवान को गिराकर आगे दौड़ता हुआ आये तो यात्रा में कष्ट, पराजय, आर्थिक क्षति आदि फलों की प्राप्ति होती है।
अश्व विचार--यदि प्रस्थान काल में घोड़ा हिनहिनाता हुआ दाहिने पैर से पृथ्वी को खोद रहा हो और दाहिने अंग को खुजला रहा हो तो वह यात्रा में पूर्ण सफलता दिलाता है तथा पद-वृद्धि की सूचना देता है । घोड़े का दाहिनी ओर हिनहिनाते हुए निकल जाना, पूंछ को फटकारते हुए चलना एवं दाना खाते हुए दिखलाई पड़ना शुभ है । घोड़े का लेटे हुए दिखलाई पड़ना, कानों को फटफटाना, मल-मूत्र त्याग करते हुए दिखलाई पड़ना यात्रा के लिए अशुभ होता है।
गर्दभ विचार-...साय भाग में स्थितीश पर हुआ यात्रा में शुभ होता है। आगे या पीछे स्थित होकर गर्दभ शब्द करे तो भी यात्रा की सिद्धि होती है । यदि प्रयाण काल में गर्दभ अपने दांतो से अपने कन्धे को खुजलाता हो तो धन की प्राप्ति, सफल मनोरथ और यात्रा में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता है। यदि संभोग करता हुअा गर्दभ दिखलाई पड़े तो स्त्रीलाभ, युद्ध करता हआ दिखलाई पड़े तो वध-बंधन एवं देह या कान को फटफटाता हआ दिखलाई पड़े तो कार्य नाश होता है। खबर का विचार भी गर्दभ के विचार के समान ही है।
वृषभ विचार . प्रयाण कान में वृषभ बायीं ओर शब्द करे तो हानि, दाहिनी ओर शब्द करे और सींगों से पृथ्वी को बोदे तो शुभ; धोर शब्द करता हुआ साथसाथ चले तो विजय एवं दक्षिण की ओर गमन करता हुआ दिखलाई पड़े तो मनोरथ सिद्धि होती है । बल या मोड़ बायीं और आपर वायीं सींग से पृथ्वी को खोदे, बायीं करवट लेटा हुआ दिखलाई पड़े तो अजभ होता है। यात्रा काल में बल या मांड का बायीं ओर आना भी अशन कहा गया है। ____ महिष विचार--दो महिप सामने ल इसे हुए दिखलाई पड़े तो अनुभ, विवाद कलह और युद्ध की सूचना देते है । महिए का दाहिनी ओर रहना, दाहिने सोंग से या दाहिनी ओर स्थित होकर दोनों सींगों से मिट्टी का खोदना यात्रा में विजय कारक है । बल और महिग दोनों की छींक यात्रा के लिए यजित है। ___ गाय विचार .. गर्भिणी गाय, गभिणी भैस और गर्भिणी बकरी का यात्रा काल में सम्मुन या दाहिनी ओर आना शुभ है । रंभाती हुई गाय सामने आये और बच्चे को दूध पिला रही हो तो यात्रा काल में अत्यधिक भ माना जाता है । जिस गाय का दूध दुहा जा रहा हो, वह भी यात्रा काल भे शुभ होती है। रंभाती हुई, बरुचे को देखने के लिए उत्सुक, हर्षयुक्त गाय का प्रयाण कान में दिखलाई पड़ना शुभ होता है।
विडाल विचार यात्रा काल में दिल्ली रोती हुई, लड़ती हुई, छींकती हुई
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दिखलाई पड़े तो यात्रा में नाना प्रकार के कष्ट होते हैं । बिल्ली का रास्ता काटना भी यात्रा में संकट पैदा कराता है। यदि अकस्मात् बिल्ली दाहिनी ओर से बायीं ओर आये तो किचित् शुभ और बायीं ओर से दाहिनी ओर आये तो अत्यन्त अशुभ होता है । इस प्रकार का बिल्ली का आना यात्रा में संकटों की सूचना देता है । यदि बिल्ली चूहे को मुख में दबाये सामने आ जाय तो कष्ट, रोटी का टुकड़ा दबाकर सामने आये तो यात्रा में लाभ एवं दही या दूध पीकर सामने आये तो साधारणतः यात्रा सफल होती है । बिल्ली का रुदन यात्रा काल में अत्यन्त वजित है, इसमें यात्रा में मृत्यु या ततुल्य कष्ट होता है ।
फुसा विचार -- यात्रा काल में कुत्ता दक्षिण भाग से वाम भाग में गमन करे तो शुभ और कुतिया वाम भाग से दक्षिण भाग की ओर आये तो शुभ; सुन्दर वस्तु को मुख में लेकर यदि कुत्ता सामने दिखलाई पड़े तो यात्रा में लाभ होता है । व्यापार के निमित्त की गयी यात्रा अत्यन्त सफल होती है । यदि कुत्ता थोड़ी-सी दूर आगे चलकर, पुन, पीछे की ओर लौट आये तो यात्रा करने वाले को सुख, प्रसन्न कीड़ा करता हुआ कुत्ता सम्मुख आने के उपरान्त पीछे की ओर लौट जाय तो यात्रा करने वाले को धन-धान्य की प्राप्ति होती है। इस प्रकार के शकुन से यात्रा में विजय, सुख और शान्ति रहती है। यदि श्वान ऊँचे स्थान से उतरकर नीचे भाग में आ जाय तथा यह दाहिनी ओर आ जाये तो शुभकारक होता है । निर्विघ्न यात्रा की सिद्धि तो होती ही है, साथ ही यात्रा करने वाले को अत्यधिक सम्मान की प्राप्ति होती है । हाथी के बंधने के स्थान, घोड़ा के स्थान काय्या, आसन, हरी घास, छत्र, ध्वजा, उत्तम वृक्ष, घड़ा, इंटों के ढेर, चमर, ऊँची भूमि आदि स्थानों पर मूत्र करके कुत्ता यदि मनुष्य के आगे गमन करे तो अभीष्ट कार्यो की सिद्धि संगहो जाती है। यात्रा सभी प्रकार से सफल होती है । सन्तुष्ट, पुष्ट, प्रसन्न, रहित, आनन्दयुक्त, सोला सहित एवं कोड़ा सहित कुत्ता सम्मुख आये तो अभीष्ट कार्यों की सिद्धि होती है। नवीन अन्न, घृत, विष्ठा, गोवर इनको मुख में धारण कर दाहिनी ओर और बायीं ओर देखता हुआ श्वान सामने आयें तो सभी प्रकार से यात्रा सफल होती है। यदि श्वान आगे पृथ्वी को खोदता हुआ यात्रा करने वाले को देखे तो निस्सन्देह इस यात्रा से धन लाभ होता है । यदि कुत्तागमन करने वाले को आकर सूंघे, अनुलोम गति से आगे बड़े पैर से मरतक को खुजला तो यात्रा सफल होती है | स्वानगमनकर्ता के साथ-साथ बाथी और सुन्दर रमणी, धन और यश की प्राप्ति कराता है । श्वान जूता मुँह मे लेकर सामने आये या साथ-साथ चले, हड्डी लेकर सामने आये या गाथ-साथ चले केश, वल्कल, पाषाण, जीर्णवस्त्र, अगार, भस्म ईंधन, ठीकरा इन पदार्थों को मुंह में लेकर श्वान सामने आये तो यात्रा में रोग, कष्ट, मरण, धन हानि आदि फल प्राप्त होते । काष्ठ, पाषाण को कत्ता गृह में लेकर यात्रा करने वाले के सामन आये पूंछ,
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कान और शरीर को यात्रा करने वाले के सामने हिलावे तो यात्रा में धन हरण, कष्ट एवं रोग आदि होते हैं । यदि यात्रा करने वाला व्यक्ति किसी कुत्ता को जल, वृक्ष की लकड़ी, अग्नि, भस्म, केश, हड्डी, काष्ठ, सींग, श्मशान, भूसा, अंगार, शूल, पाषाण, विष्ठा, चमड़ा आदि पर मंत्र करते हुए देखे तो यात्रा में नाना प्रकार के कष्ट होते हैं ।
शृगाल विचार-जिस दिशा में यात्रा की जा रही हो, उसी दिशा में शृगाल या गाली का शब्द सुनाई पड़े तो यात्रा में सफलता प्राप्त होती है । यदि पूर्व दिशा की यात्रा करने वाले व्यक्ति के समक्ष शृगाल या शृगाली आ जाय और । वह शब्द भी कर रही हो तो यात्रा करने वाले को महान संकट की सूचना देती है। यदि सूर्य सम्मुख देखती हई शृगाली बायीं ओर बोले तो भय, दाहिनी ओर बोले तो कार्य हानि फल होता है। दक्षिण दिशा की यात्रा करने वाले व्यक्ति के दायीं ओर श्रृगाली शब्द करे तो यात्रा में सफलता की सूचना देती है। इसी दिशा के यात्री के आगे सूर्य की और मुंह कर शृगाली बाले सो मृत्यु की प्राप्ति होती है । पश्चिम दिशा को गमन करने वाले के सम्मुख शृगाली बोले तो किचित् हानि और सूर्य की ओर मुंह करके बोले तो अत्यन्त संकट की सूचना देती है। यदि पश्चिम दिशा के यात्री के पीठ के पीछे शृगाली शब्द करती हई चले तो अर्थनाश, बायीं ओर शब्द करे तो अर्थागम होता है। उत्तर दिशा को गमन करने वाले व्यक्ति के पीठ पीछे शृगाली मूर्य की ओर मुंह कर बोले तो यात्रा में अर्थहानि और मरण होता है । यदि यात्रा-काल में शृगाली दाहिनी ओर से निकलकर बाईं ओर चली जाय और वहीं पर शब्द करे तो यात्रा में सफलता की सूचना समझनी चाहिए । शृगाली शब्द की कारंगता और मधुरता के अनुसार फल में भी होनाधिकता हो जाती है।
पात्रा में छींक विचार छींक होने पर भी प्रकार के कार्यों को बन्द कर देना चाहिए। गमन साल में छोंक होने से प्राणों की हानि होती है । सामने छीन होने पर कार्य का नाश, दाहिने नत्र के पास छींक हो तो बार्य का निषेध, दाहिने कान के सम छीना हो तो धन का क्षय, दक्षिण कान के पास भाग में छोंक हो तो शत्रुओं की वृद्धि, बायें कान के पास छींक हो तो जय, बायें कान के पृष्ठ भाग की ओर छौंक हो तो भोगों की प्राप्ति, बायें नेत्र के आगे छींक हो तो धन लाभ होता है । प्रयाण काल में सम्मुख की ठों अत्यन्त अशुभकारक है और दाहिनी छींक धन नाश करने वाली है। अपनी लोक अत्यन्त अणुभकारक होती है ! ऊँचे स्थान की छींव मृत्युभय है, पीठ पीछे की छींक भी शुभ होती है। छींक वा विचार 'डाक ने दस प्रकार किया है--
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दक्षिन छीके धन ले दीजै, नैरित कोन सिहासन दीज।। पच्छिम छोंके मिठ भोजना, गेलो पलट वायब कोना ।। उत्तर छों के मान समान, सर्व सिद्ध ल कोन ईशान ।। पूरब छिवका मृत्यु हकार, अग्निकोन में दुःख के भार ।। सब के छिक्का कहिगेल 'डाक' अगने छिक्का नहिं करा काज ॥
आकाश छिक्के से नहाय, परम अन्द र नहि खाप ! अर्थात्--दक्षिण दिशा से होने वाली छींक धन हानि करती है, नैऋत्यकोण की छींक सिंहासन दिलाती है, पश्चिम दिशा की लीक मीठा भोजन और वायव्य
आठों दिशाओं में प्रहरानुसार छौंकफल बोधकचक्र
ईशान
आग्नेय
पूर्व | . लाभ
2. धनलाभ
1. हर्ष 2. नाश 3. व्याधि 4. मिश्रसंगम
I. लाभ | 2. पित्रदर्शन | 3. शुभवार्ता
4. अग्निभय
| 3. मित्रलाभ
! 4. अग्निभय
दक्षिण
1. लाभ
उत्तर 1. शत्रुभय 2. रिपुसंग 3. लाभ
यात्रा
2. मृत्यु भय 3. नाश
4. भोजन
4. बाल
नैऋत्य
वायव्यकोण 1. स्त्रीलाभ 2. लाभ
| पश्चिम ।।. दूरगमन
2. हर्ष ' 3. कलह
4. चौर
| 1. लाभ 2. मित्रभेट 3. शुभवात 4. लाभ
3. मित्रलाभ
4. दूरगमन
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भद्रबाहुसंहिता
कोण की छींक द्वारा गया हुआ व्यक्ति सकुशल लौट आता है। उत्तर को छीक मान-सम्मान दिलाती है, ईशान कोण की छींक समस्त मनोरथों की सिद्धि करती है । पूर्व की छींक मृत्यु और अग्निकोण की दुःख देती है । यह अन्य लोगों की छीन वा फल है । अपनी छींक तो मभी कार्यों को नष्ट करने वाली होती है। अतः अपनी छींक का सदा त्याग करना चाहिए। ऊँच स्थान की छींक में जो व्यक्ति यात्रा के लिए जाता है, वह पुनः वापस नहीं लौटता है। नीचे स्थान की छींक विजय देती है।
'वसन्त राज शाकुन' में दशों दिशाओं की अपेक्षा छींक के दस भेद बतलाये हैं। पूर्व दिशा में छींक होने से मृत्यु, अग्नि कोण में शोक, दक्षिण में हानि, नैऋत्य में प्रियसंगम, पश्चिम में मिष्ट आहार, वायव्य में श्रीसम्पदा, उत्तर में कलह, ईशान में धनागम, ऊपर की छींक में संहार और नीचे की छोंक में सम्पत्ति की प्राप्ति होती है । आठों दिशाओं में प्रहर-प्रहर के अनुसार छींक का शुभाशुभत्व दिखलाया गया है। छोंक फल-बोधक चक्र में देखें ।
चतर्दशोऽध्यायः
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि पूर्वकर्मविपाकजम् ।
'शुभाशुभतथोत्पातं राज्ञो जनपदस्य च ॥३॥ अब राजा और जनपद के पूर्वोपाजित शुभाशुभ कार्यो के फल से होने वाले उत्पातों का निरूपण करता हूँ।।1।।
(प्रकृतेयों विपर्यासः स चोत्पातः प्रकीर्तितः। ए दिव्याऽन्तरिक्षभौमाश्च व्यासमेषां निबोधत ॥2॥ प्रकृति के विपर्याग--विपरीत कार्य वः होने को उत्पात कहते हैं । ये उत्पात तीन प्रकार के होते हैं-दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम । इनका विस्तार मे वर्णन अवगत करना चाहिए ।।2।।
1. अभाऽमृभान गमापाता म. । 2. भ उत्पात मु।
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चतुर्दशोऽध्यायः
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यदात्युष्णं भवेच्छोते शीतमुष्णे तथा ऋतौ ।
तदा तु नवमे मासे दशमे वा भयं भवेत् ।।311 यदि शीत ऋतु में अधिक गर्मी पड़े और नीम प्रत में कड़ाके की सर्दी । पड़े तो उक्त घटना के नौ महीने या दग महीने के उपरान्त महान भय होता । है।
सप्ताहमष्ट रालं वा नवरात्रं दशाह्निकम् ।
यदा निपतते वर्ष प्रधानस्य वधाय तत् ॥4॥ यदि वर्षा सात दिन और आट रात अथवा नौ गवि और दश दिन तक हो तो प्रधान-राजा या मन्त्री का बध होता है । तात्पर्य यह है कि वार्या लगातार मान दिन और पाठ रात अर्थात दिन में पारा होगर आरती गत में मम लोग नौ रात और दम दिन अर्थान् । गत मे आरम होकर द प दिन समाप्त हो तो प्रधान का वध होता हे ।।411
पक्षिणश्च यदा मत्ताः पशवश्च पृग्विधाः ।
विपर्ययेण संसक्ता विन्द्याज्जनपदे भयम् ।।5।। यदि पक्षी मतपागल और पशु भिन्न स्वभाव के हो जाये तथा विपर्ययविपरीत जाति, गुणग, धर्म वालों का संयोग हो अर्थात् पशु-पक्षियों से मिलें, पक्षी पशुओं से अथवा गाय आदि पशु भी भिन्न मत्रभाव वालों ग संयोग करें तो राष्ट्र } में भय – आतंक व्याप्त हो जाता है ।।5।।
आरण्या ग्राममायान्ति बने गच्छन्ति नागराः । रुदन्ति चाथ जल्पन्ति तदापायाय कल्पते ।।6। "अष्टादशसु मासेषु तथा सप्तदशसु च।
राजा च म्रियते तत्र भयं रोगश्च जायते ॥17॥ जंगली पशु गांव में आयें और ग्रामीण पशु जंगल को जायें, सदन करें और घाब्द करें तो जनपद का पाप का उदय ममझना चाहिए। इस पाप के फल से . अठारह महीनों में या मबह महीनों में राजा का भरण होता है और उस जनपद में भय एवं रोग आदि उत्पन्न होते हैं। अर्थात उस जनपद में राभी प्रकार का कष्ट व्याप्त हो जाता है ।। 6-7।।
| वदा गवाय म. 12. प्रा.शम्य गाय 41 -दशम्य च।
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चतुर्दशोऽध्यायः
स्थिराणां कम्पसरणे चलानां गमने तथा । ७ ब्रयात् तत्र वधं राज्ञः षण्मासात् पुत्रमन्त्रिणः ॥8॥
स्थिर पदार्थ--जइ-चेतनात्मक स्थिर पदार्थ कांपने लगें—चंचल हो जायें और चंचल पदार्थों की गति रुक जाय----स्थिर हो जाये तो इस घटना के छः महीने के उपरान्न ग़जा एवं मंत्री पुत्र का वध होता है ।18।।
गे हम बार दो युद्धसामथे। स्थावराणां वधं विन्द्यात्रिमासं' नात्र संशयः ॥७॥ युद्धकाल में अकारण चलने, हगने और रोने-कलाने से तीन महीने के उागन्त स्थावर-वहां के निवासियों का निस्सन्देह यध होता है ।।9।।
पक्षिणः पशवो मा: प्रसूयन्ति विपर्ययात।
यदा तदा तु षण्मासाद् "भूयात् राजवधो ध्रुवम् ॥10॥ यदि पक्षी, पशु और मनुष्य विपर्यश-~-विपरीत सन्तान उत्पन्न करें अर्थात् पक्षियों के पशु या गनुष्य की आकृति की मन्तान उत्पन्न हो, पशुओं के पक्षी या मनुष्य की आकृति की मन्नान उतान्न हो और मनुष्यों के पशु या पक्षी की आकृति की सन्तान उतान्न हो तो इस घटना के छ: महीने उपरान्त राजा का बध होता है और उस जनपद में भय – आतंत्र व्याप्त हो जाता है ।। 100
विकृतः पाणिपादाद्यैर्घनश्चाप्यधिकत्तथा।
यदा त्वते प्रसूयन्ते क्षुद्भयानि तदादिशेत् ।।! विगत हाथ, पैर बाली अथवा न्युन या अधिक हाथ, गैर, सिर, आँख वाली सन्तान पशु-पक्षी और मनुष्य की उत्पन्न हो तो क्षुधा की पीड़ा और भय-आतंक आदि होने की सूचना अवगन करनी चाहिए !!"
षण्मासं द्विगुणं चापि परं वाथ चतुर्गणम।।
राजा च म्रियते तत्र भयानि च न संशयः ।।1211 जहाँ उक्त प्रकार की घटना घटित होती है, वहां छ: महीने, एक वर्ष और दो वर्ष के उपरान्त राजा की मृत्यु एवं निस्सन्देह भय होता है ||1211
मद्यानि रुधिरा स्थीनि धान्यांगारवसास्तथा। 'मधवान् वर्षले यत्र तत्र बिन्धात् महद्भयम् ॥13॥
I. गगा पि.. | 2 दाने.. | 3 दिन ५० 1 4 रथाश्रमक.म् मु.।। 5. पिये ) | ( । जबाबदा ग• I 7 inान वय विधानमश्मि
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चतुदंगोऽध्याय:
225 जहाँ मेघ मद्य, रुधिर, हली, अग्नि चिनगारियाँ और चर्वी की वर्षा करते है वहाँ चार प्रकार का भय होता है ।।।3।।
सरीसपा जलचरा: पक्षिणो द्विपदास्तथा।
वर्षमाणा जलधरात् तदाख्यान्ति महाभयम् ॥14॥ जहाँ मेघों से सरीसृप-रीढ बाले मादि जन्तु, जलचर-मेढ़क, मछली आदि एवं द्विपद पक्षियों की वर्षा हो, वहाँ घोर भय की सूचना समझनी चाहिए ।। 140
निरिन्धनो यदा चाग्निपरीक्ष्यते सततं पुरे।
स राजा नश्यते देशाच्छण्मासात परतस्तदा ॥15॥ यदि राजा नगर में निरन्तर विना धिन के अग्नि को प्रज्वलित होते हुए देखें तो वह राजा छ: महीने के उपरान्त उक्त घटना में छः महीने पश्चात् बिना को प्राप्त हो जाता है ।।। 511
दीप्यन्ते यत्र शस्त्राणि वस्त्राण्यश्वा नरा गजाः ।
वर्षे च म्रियते राजा देशस्य च महद्भयम् ॥16॥ जहाँ शस्त्र, वात्र, अश्य . घोड़ा, मनुष्य और हाथी अादि गलत हुए दिखलाई पड़ें वहाँ इस घटना के पश्चात् एक वर्ष में राजा का भरण हो जाता है और देश के लिए महान् भय होता है ।।। 611
चैत्य'वृक्षा रसान् यद्यत् "प्रत्रवन्ति विपर्ययात् ।
समस्ता यदि वा व्यस्तास्तदा "देशे भयं वदेत् ॥17॥ यदि चैत्यवृक्ष गुलर ब. वृक्षों के विपर्यय रम टपके अथवा चैत्यालय के समक्ष स्थित बृक्षों में में सभी मे या पृथवा-पृथक् वृक्ष में विपरीत रस टप अर्थात् जिस वृक्ष में जिस प्रकार का स निकलता है, उराग भिन्न प्रकार का रस निकले तो जनपद के लिए भय का आगमन सगझना चाहिए ।।।7।।
दधि क्षौद्रं तं तोयं दुग्धं रेतविमिश्रितम्।
'प्रस्त्रवन्ति यदा वृक्षास्तदा व्याधिभयं भवेत् ॥18॥ जब वृक्षों में दही, शहद, श्री, जल, दूध और वीरां मिश्रित रस निकले तव
सन्ति । । 2. वमंगाल हाद नाम : दाणम् न । 3. दीप्यते C 14. वृक्षामा । 5 भवन म । 6. प्रयागमन । 7. निपात मु०। 8 विदुः ग•i
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भद्रबाहुसंहिता
जनपद ने लिए व्याधि और भय समझना चाहिए ॥1811
रक्ते 'पुनभयं विन्द्यात् नीले अंष्ठिभयं तथा।
अन्येष्वेषु विचित्रेषु वृक्षेषु तु भयं विदुः ।।।9।। यदि लाल रंग का रस निकले तो पुत्र यो भय, नौल रंग का रस निकले तो गठों को भय, और अन्य विविध प्रकार का रस निकले तो जनपद को भय होता है ।।।9।।
विस्वर रवमानस्तु चैत्यवृक्षो 'यदा पतेत् ।
सततं भयमाख्याति देशजं पञ्चमासिकम् ॥2011 या य वक्ष- संल्यालय के समक्ष स्थित वृष्टा अथवा गल्लर का वृक्ष विकृत आवाज करता हुआ गिरे तो देश-निवासियों नोगत्र मामिक-पार महीनों के लिए भय होता है ।20।।
नानावस्त्रैः समाच्छन्ना दृश्यन्ते चैव यद् द्रमाः ।
राष्ट्र तद्भय विन्द्या विशेषेण तदा विषे ।।2।। यदि नाना प्रकार ने वरमो मे युक्त वृक्ष दिग्यलाई पढ़ें तो राष्ट्र के निवासियों को भय होता है तथा विशा कप से देश के लिए भय समझना चाहिए 1121||
शुक्लवस्त्रो हिजान् हन्ति रक्तः क्षत्रं तदाश्रयम् ।
पीतवस्त्रो यदा न्याधि तदा च वैश्यघातकः ॥22॥ यदि वन मनन यम्ब ग युक्न दिपलाई पड़े तो ब्राह्मणों का विनाश, रक्त वस्त्र से युक्त दिग्बला गड़े नो क्षत्रियों का विनाश और पीत नात्र से युक्त दिखलाई पड़े तो व्याधि उत्पन्न होती है और बंशया के लिए बिना गफ है ।।22।।
'नीलवरस्तथा श्रेणीन कपिलम्लेंच्छमण्डलम् ।
धूम्रनिहन्ति श्वपचान् चाण्डालानग्यसंशयम् ॥23॥ नील वर्ण र सम्व में गुका वृक्ष दिखलाई पड़े तो अश्रेणी-शूद्रादि निम्न वर्ग के व्यक्तियों का विनाश, कपिल वर्णन वान रों युवत दिखलाई पड़े तो म्लेच्छ-- पवनादिया विनाण, घ वर्ण के वस्त्र में युगात विम्बलाई गड़े तो भबपन-चाण्डाल डोमादि का विनाश होता है ॥? 311
1. शत्र ग.. | 2 पक्षे न. 3. विदुः । 4. मन: म० । 5.2 गयं समास्यानि म. । 6. या द ने मा. म. । 7. गोलबम्वो निहन्या शूद्रांच प्रभनिन्नरान् । पशाशिमयं चित्र निधणं: रवा भयंकर म. 1
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चतुर्दशोऽध्यायः मधरा: क्षोरवक्षाश्च श्वेतपुष्पफलाश्च ये।
सोम्यायां दिशि यज्ञार्थ जानीयात् प्रतिपुद्गलाः ।।2411 जो मधुर, श्रीर, श्वेत पुप और फलों मे युक्त वृक्ष उत्तर दिशा में होते हैं, वे यज्ञ के लिए उपात के फल की सूचना देने 1 अर्गन, उत्तर दिशा में मधुर, श्वेत पुस्प और फला गे युक्त और वा बाह्मणों के लिए उत्पात पी गुनना देत है ।।24।।
कषायमधुरस्तिक्ता उष्णवीविलासिनः ।
रक्तपुष्पफला: प्राच्यां सुदीर्घनृपक्षत्रयोः ।।25। कपाय, मधुर, तिात, 'जाणवीर्य, विलासी, लाल पुष्प और फल वाले वृक्ष पूर्व दिशा में बलवान् राजा और क्षत्रियों के लिए प्रतिपुदगल--उत्पातमुचक हैं ।।251
अम्ला: सलवणा: स्निग्धा; पीतपुष्पफलाश्च ये।
दक्षिण दिशि विज्ञेया वैश्यानां प्रतिपुद्गला: ॥26॥ आम्ल, लवणयुक्त, स्निग्ध, पीत हरूप और फल बाग वृक्ष दक्षिण दिशा में वैश्यों के लिए उत्पात सूचक हैं ।।26॥
कट कण्ट किनो रूक्षा: कृष्णपुष्यफलाश्च ये।
वामण्यां दिशि वृक्षाः स्युः शूद्राणां प्रतिद्गला: ॥27॥ कटु, कांटों वाले, मक्ष , काल रंग या फूल-फल बाले वृक्ष पश्चिम दिशा में शूद्रों के लिए उत्पात सूचक हैं 12711
"महान्तश्चनुरनाश्व गाहाश्चापि विश् ि ।
शनमध्य स्थिताः सत्त: स्थावरा प्रतिपुद्गला ॥28।। महान् चौकी, और विप का ग गाद गजबूत और वन में. मध्य में स्थित वृदा स्थावगें . यहाँ । विवामियों के लिए उत्पान गचा होने हैं ।।28।।
हस्वाश्च तयो यन्यं अन्ये जाता वनस्थ च ।
अचिरोद्भवकारा य यार्थिनां प्रतिपुद्गला: 1129॥ छोटे वृक्ष और जो अन्य वक्ष बन । अगा में पान हा हैं एवं गीत्र ही उत्पन्न हुए गांधों जैगा जिनका आधार है अर्थात जो छोटे है, याची - आक्रमण करने वालों के लिए उत्पात मचक हैं ।।29।।
1, फलाच न म । 2. क्षिणा | 3
नाव म्यागिः ।
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भद्रबाहुसंहिता ये विदिक्षु विमिश्राश्च 'विकर्मस्था विजातिषु ।
"प्रतिपुद्गलाश्च येषां तेषामुत्यातजं फलम् ॥॥ जो विदिशाओं में अलग-अलग हों तथा बिजाति--भिन्न-भिन्न जाति के वृक्षा में विवामस्थ--जिक कार्य पृथक्-पृथक हो वे जनपद के लिए उत्पात सूचक होने हैं। प्रति पुद्गल का तात्पर्य उत्पात में होने वाले फल की सूचना देना है। 500
श्वतो रसो द्विजान् हन्ति रक्तः क्षत्रनृपान् वदेत् ।
पीतो वैश्यविनाशाय कष्ण: शूद्रनिषूदये ॥३॥ यदि वृक्षों ग वा रग का क्षरण हो तो द्विज-ब्राह्मणों का विनाश, लाल रस गिरा हो तो क्षत्रिय र राजाओ ना बिना ग, पीला ग क्षरित हो तो बैंश्यों का विना और कृष्ण नाला रस क्षरित हो तो पुत्रों का विनाश होता है ।।311
पर नृपभयं शुधाव्याधिधनक्षयम् ।
एवं लक्षणसंयुक्ता: सावा: पुणुमहद्भयम् ॥3211 यदि श्यत, लत, पीत वीर कृष्ण वर्ण का मिश्रित रस क्षरित हो तो पर शासन और नृपति का भय, क्षुधा, रोग, धन का नाश और महान भय होता है ।। 3 2।।
कोटदष्टस्य वृक्षस्य व्याधितस्थ च यो रसः ।
विवर्ण: सवले गन्धं न दोषाय स कल्पते ।।3।। यदि कीड़ो द्वारा पायं गये गेगी वृक्ष का विकृत और दुर्गन्धित रस क्षरित होता है, तो उनका दोष नहीं माना जाता। अर्थात् रोगी वृक्ष के रस क्षरण का विचार नहीं दिया जाता ।।33॥
वृद्धा द्रमा स्रवत्याशु मरणे पर्युपस्थिताः ।
ऊर्दा: शुष्का भवन्त्यले तस्मात् ताल्लक्षयेद् बुधः ।।3411 मरण के लिए उरियर - जारित टूटकर गिरने वाले पुराने वृक्ष ही रस का धारण करते हैं। अगर को ओर ये सूख होत हैं। अतएव बुद्धिमान व्यक्तियों को इनका लक्ष्य करना चाहिए ।।34।।
यथा वृद्धो नरः कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति ।
तथा वृद्धोद्रमः कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति ॥35॥ Tithiगु । 2. पदालाच तु च वषां न तपा प्रतिपद गलाः ग० 1 3. गजा मु०। 4. निम्न्याश गुः ।
..
.-.
- ..
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चतुर्दशोऽध्यायः
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जैसे कोई वृद्ध पुरुष किसी निमित्त के मिलते ही मरण को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार पुराना वृक्ष भी रिपी निमित को प्राप्त होते ही विनाश को प्राप्त हो जाता है ।। 3511
इतरेतरयोगास्तु धादिरणनीतिः ।
वृद्धाबलोनमूलाश्च चलच्छैयश्चि साधयेत् !136॥ वृद्ध पुरुष और पुराने वृक्ष का परम्र में इतरतर--अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। अतः पुराने वृक्ष के उत्पाता में वृद्ध का फल तथा नवीन युवा वृक्षों स युवकः और शिशुओंग उत्पात निमिलक फल मात करना चाहिए तथा उल्लापात आदि के द्वारा भी निमितों का परि जान करना चाहिए ।।3 6!!
हसने रोदने नत्ये देवतानां प्रसपणे ।
महद्भयं विजानीयात् षण्मासाद्विगुणात्परम् ।। 37॥ देवताओं के हैंसने, रोने, नृत्य करने और चलन से छह महीन । तर एक वर्ष तक जनपद के लिए महान भय अवगता मरना राहिए ।।37112
चिलाश्चर्यसलिगानि निभोलन्ति वदन्ति वा ।
ज्वलन्ति च विगन्धीनि भयं राजवधोद्भवम् ॥38॥ विचित्र, आश्न कायं चिन गुप्त हो या प्रकट हो और हिगुट युक्ष सहसा जलने लगे तो जनपद य नौ र राजा का मरण होता है ।। 38।।
"तोयावहानि सहसा रुदन्ति च हसन्ति च ।
मारिवच्च वासन्ति तत्र विश्राद् महद्भयम् ॥3911
तोयावहानि नदियों सहमा गेनी और हंगी हुई दि पर्दै श्रा . मार्जार विती गमान गान आती हो तो महान भय माना चाह ।।39।।
वादित्रशब्दाः श्रयन्ते बेशं यस्मिन्न मानुषः ।
स देशो राजदण्डेन पोड्यते नाव संशयः ॥4॥ जिस देश में मनुग्य बिना किसी के बजाय भी बाज - बाबा सुगत हैं, यह देशश राजदण्ड में पीड़ित होता है, इसमें गदह नहीं है ।।400
तोयाबहानि सर्वागि वहन्ति धिरं यदा ।
पाठे माले समुद्भुते सामानः शोणिसाकुल: ।।।।।। जिस देश में दिन में 2 -सी घाग प्रत्याहित होती, दश मग
1. मम,म: गुणा !! | 2. imal2l1-14 . 1 3 11यमि
।
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भद्रबाहुसंहिता
घटना के छठे महीने में संग्राम होता है और पृथ्वी जल से प्लावित हो जाती । है॥4 ॥
चिरस्थायोनि तोयानि 'पूर्व यान्ति पय:क्षयम् ।
गच्छन्ति वा प्रतिस्रोत: परचकागमस्तदा ॥42॥ चिरस्थायी नदियों का जल जब पूर्ण क्षय हो जाय—सूख जाय अथवा विपरीत धारा प्रवाहित होने लगे तो पर शासन का आगमन होता है 11421
वर्धन्ते चापि शीयन्ते चलन्ति वा तदाश्रयात् ।
सशोणितानि दृश्यन्ते यत्र तत्र महद्भयम् ।।4।। जहाँ नदियाँ बढ़ती हों, विशीर्ण होती हो अथवा चलती हो और नत युक्त दिखलाई पडती हो, वहाँ महान भग मानना चाहिए ।।431
शस्त्रकोषात् प्रधावन्ते नदन्ति विचम्ति बा।
यदा रुदन्ति दोप्यन्ते संग्रामस्तेषु निदिशेत् ।।4।। जहाँ अस्त्र अपने कोश में बाहर निकलते हो, शब्द वारने हों, विचरण करते हों, रोते हो और दीप्त---चमकत हो, वहाँ संग्राम की सूचना समझनी चाहिए ।।441
यानानि वृक्षवेश्मानि धूभायन्ति ज्वलन्ति वा ।
अकालज फलं पुष्पं तत्र मुख्यो विनश्यति ॥45॥ जहाँ सबारी, वृक्षा और घर धूमाय माग–धुआँ गुका या जन्नत हुए दिखलाई पढ़ें अथवा वृक्षा में अगमय में फल, 'प्प उत्पन्न हो, मुख्य- प्रधान का नाश होता है 114511
भवने यदि श्रयन्ते गीतवादितनिस्वनाः ।
यस्य तद्भवनं तस्य शारीरं जायते भयम् ॥461 है जिनके घर में बिना किमी व्यक्ति के द्वारा गाये-बजाये जाने पर भी गीत, बादित्र का शब्द सना पड़ता हो, उगवः शारीरिक 'भय होता है 14511
'पुष्प पुष्पे निबध्येत फलेन च यदा फलम् । वितथं च तदा विधात् महजनपदक्षयम् ।।471
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. [ मान मन । का। पिता विन्द्यात्तगा
] न। १० । 2. [ A. जनगम । ।
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चतुर्दशोऽध्यायः
___जब पुटा में पृ८१ निबद्ध हो अर्थात् पुष्प में पुष्प की-सी उत्पनि हो अथवा फल में फल निबद्ध हो अर्थात फल में फन की उत्पत्ति हुई हो तो रात्र वितण्डावाद का प्रचार एवं जनपद का महान् विनाश होता है ।147||
चतुःपदानां सर्वेषां मनुजानां यदाम्बरे ।
अ यते व्याहृतं घोर तदा मुख्यो विपद्यते ॥480 जब श्राकाश में समस्त पणुओं और मनुष्यों का व्यवहार किया गया घार शब्द सुनाई पड़े तो मुखिया की मृत्यु होती है अथवा मुखिया विपनि को प्राप्त होता है ।। 481
निर्यात कम्पने भूमी 'शुष्कवक्षप्ररोहणे ।
देशवोहा मित्रानोमान्म यातात न जोवति ॥19॥ भूमि को अकारण नितिन और कम्पित होने तथा मधे बक्ष को पुन: हरे ही जाने से देश को पीड़ा समझनी चाहिए तथा वहाँ के मुखिया की मृत्यु होती है।।4911
यदा भूधरशृंगाणि निपतन्ति महीतले ।
तदा राष्ट्रभयं विन्द्यात् भद्रबाहुवचो यथा ॥501 जब अकारण ही पर्वतों भी चोटियां पथ्वीतल पर आकर गिर जायं, तब राष्ट्र भय समझना चाहिए, सा भद्रबाहु म्बानी का बचा है 11511!!
वल्मीकरयाशु जनने मनुजम्य निवेशने ।
अरण्यं विशतश्चैव तत्र विद्यान्महद भयम् ॥5॥ मनुष्यों नः निवास स्थान में चीटियां जल्दी ही अपना विल बनायें और नगर्ग से निकलकर जंगल में प्रथा करें तो राष्ट्र के लिए महान भय मानना चाहिए ।1511
महापिपीलिकावन्दं सन्द्रकाभत्यविप्लुतम् ।
तत्र तत्र च सर्व तद्राष्ट्रभङ्गस्य चादिशेत् ।।5211 जहाँ-जहाँ अत्यधिक चीटियाँ एयनित होकर झुण्ड-क-युगड बाकिर भाग रही हो, वहाँ-वहाँ सर्वत्र गट भंग का निवेश समझना चाहिए ।। 521:
if I पाणि
1. शुन- ? शिवगं गमि TET गया 11 मग विधान पहा ।
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भद्रबाहुसंहिता
प्रथमे मण्डले शुको यदास्तं यात्युदेति च ।
मध्यमा सस्यनिष्पत्ति मध्यम वषमुच्यते ॥14॥ यदि प्रथम माइन में शुक्र अस्त हो या उदित हो—भरणी, ऋतिका, रोहिणी और मृगशिरा नक्षत्र में शुक्र अस्त हो या उदित हो तो उस वर्ष मध्यम वर्षा होती है और फसल भी मध्यम ही होती है ।।। 41
भोजान् कलिंगानगांश्च काश्मीरान दम्युमालवान् ।
यवनान सौरसेनांश्च गोद्विजान् शबरान् दधेत् ॥15॥ भोज, कलिम, उंग, काश्मीर, पवन, मालव, सौरसन, गो, द्विज और अबरों का उअत प्रकार के शुक्र के अस्त और उदय से वध होता है ।।। 511
पूर्वत: "शोरका लगान् मागयो जयते नपः ।
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं मध्यदेशेषु 'जायते ।।16।। पूर्व में भीर और वलिंग को मागध नग जीतता है तथा मध्य देश में शुवृष्टि, क्षम और आरोग्य रहता है ।। 1611
यदा चान्ये तिरोहन्ति तत्रस्थभार्गवं ग्रहाः। "कुण्डानि अंगा वधय: क्षत्रिया: लम्बशाकुनाः ॥17॥ धामिका: शूरसेनाश्च, किराता मांससेवकाः ।
यवना भिल्लदेशाश्च प्राचीनाश्चीनदेशजा; 1180 यदि शक को अन्य ग्रह आछादिता ने हो नी विदर्भ और अंग देश के अयिय, नियादि पक्षियों का न होना है । धामिक रमन देशवानी, पस्याहारी, किमत, यवन, भिल्ल और चीन देशवासियों को नका की पीड़ा होने गीडित होना पड़ता है ।। 17-18।।
द्वितीयमण्डले शुक्रो यदास्तं यात्युदेति वा।
शारदस्योपघाताय विषमां वृष्टिमादिशत् ॥19॥ यदि हिताय माकन में अ क अम्त हो या उदित हो ता म रद् ऋतु में होनेवाली 'म-1 का उप पात होता है और वर्षा होनाधिक होती है ।। 1 911
अहिच्छत्रं च कच्छं च सूर्यावतं च पीडयेत् । 'ततोत्पातनिवासानां देशानां क्षयमादिशेत् 112011
112 R Aणाम प. 12 नः म । 3 गट' [ । 4 वशित भ..।। 'fiul : ini म. | मिण गुमनायव मनमकी। अनकण किगता महिलाब i!! .. सपाइन । 7. यह पवित मुद्रित प्रनि में नहीं है ।
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पंगटोमा
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अहिच्छत्र, कच्छ और सूर्यावतं को पीड़ा होती है। उत्पात वाले देशों का विनाश होता है ।। 2011
यदा वाऽन्ये तिरोहन्ति तत्रस्थं भार्गवं ग्रहाः । निषादा: 'पाण्डवा म्लेच्छा: संकुलस्थाश्च साधवः ।।2।। कौण्डजाः पुरुषादाश्च शिल्पिनो बर्बराः शकाः । वाहीका यवनाश्चैव मण्डूका: केकरास्तथा ।।2211 पाञ्चाला: कुरवश्चव पोड्यन्ते सयुगन्धराः ।
एकमण्डलसंयुक्ते भार्गव पीडिते फलम् ।।23।। यदि द्वितीय मण्डल स्थित शुक्र को अन्य ग्रह आच्छादित करें तो निपाद, पाण्डव, लच्छ, साधु, व्यापारी, कोण्डेय, पुरुषार्थी, शिल्ली, बर्ष र, शक, वाहीक, यवन, मण्डूक, कंकर, पांवाल, कोरव और मान्धा? आदि को पीड़ा होती है। यह एक मण्डला में स्थि । शुजा थे पीड़न का फल है ॥21-2311
तृतीये भण्डले शुक्रो यदास्तं यत्त्युदेति वा । तदा धान्यं सनिचयं पीड्यन्ते "न्यूहकेतवः ॥24॥ वाटधाना: कुनाटाश्च कालकूटश्च पर्वतः । ऋषय: कुरुपाञ्चालाश्चातुर्वर्णश्च पीड्यते ।।25।। वाणिजश्चैव कालज्ञः पण्या वासास्तथाऽश्मका: । अवन्तीश्चापरान्ताश्च सपल्याः सचराचरा: 126।। पीड्यन्ते भयेनाथ क्षुधारोगेण चादिताः ।
महान्तश्शवराश्चैव पारसीकास्सवावना: ॥27।। यदि तृतीय भण्डल में शुक्र उदय या अग्न' को प्राप्त हो गो धान्य और उसका समूह विनाश को प्राप्त होला है। मुख और धनं पीड़ित होते हैं । बाटधान, नुनाट, कालकूट पवन, ऋषि, यम, पांचाल और चावणं को पीड़ा होती है। व्यापारी, कुलीन, ज्योतिषी, दुकानदार, नमवासी-ऋषि-मुनि, अभिगी प्रदेश, अवन्ति दिवासी, उपान्तक. सोमम मी बगादि, हारमी, बानादिक भयभीत और पत्रक द्वारा पीड़ित होते है तथा क्षुधा की पीड़ा भी उठानी पड़ती है। शुक्र के स्नेह, संस्थान और वर्ण का द्वारा नापीड़न का भी विचार करना चाहिए ।।24-27।।
का [.. ! 2, टिका था । 3 [3. 5 । ५. । 1. वयानी गय। म । 7. 8 नाम्यान 14 14 । पु।
1 । भ. । 4. ना... | या सायंगण नादि।। मः ।
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भद्रबाहुसंहिता
चतुर्थे मण्डले शुक्रो कुर्यादस्त मनोदयम् । तदा सस्यानि जायन्ते महामेघाः सुभिक्षदाः ॥28॥ पुण्यशीलो जनो राजा प्रजानां मधुरोहितः । बहुधान्यां महीं विद्यादुत्तमं देववर्षणम् ॥29॥ "अन्तवश्चादवन्तश्च शूलकाः कास्यपास्तथा । बाह्य वृद्धोऽर्थवन्तश्च पीड्यन्ते सर्षपास्तथा ॥30॥ यदा चान्ये ग्रहा यान्ति 'रौरवा म्लेच्छसंकुलाः । टकणाश्च पुलित्याश्च किराताः 'सौरकर्णजाः 113 111 पोड्यन्ते पूर्ववत्सर्वे दुर्भिक्षण भयेन च । ऐवाको म्रियते राजा शेषाणां क्षममादिशेत् ॥ 3210 यदि चतुर्थ मण्ड में शुक्र का उदय या अत हो तो वर्षा मेव जल की अधिक वर्षा करते हैं, सुभिक्ष और फसल उत्तम उत्पन्न होती है । राजा, प्रजा और पुरोहित धर्म का आचरण करने वाले होते हैं। पृथ्वी में अनाज खूब उत्पन्न होते है तथा वर्षा भी उत्तम होती है । अन्धा, अवन्ती, मूलिका, वानिका और गर्न पीड़ा होती है। यदि शुक्र अन्य ग्रहां द्वारा आच्छादित हो तो म्लेच्छ, शिल्ली, पुलिन्द किरात, सौरकणंज और पूर्ववत् अन्य सभी भय और दुर्भिक्ष से पीड़ित होते हैं। इक्ष्वाकुवंशी राजा की मृत्यु होती है, किन्तु अवशेष सभी राजाओं की क्षेमकुशल बनी रहती है 1128-320
होती है,
यदा "तु पञ्चमे शुक्रः कुर्यादस्तमनोदयौ । अनावृष्टिभयं घोरं दुर्भिक्षं जनयेत् तदा ||3311 सर्वं श्वेतं तदा धान्यं कतव्यं सिद्धिमिच्छता । त्याज्या देशास्तथा चेमे निर्ग्रन्थः साधुवृत्तिभिः ॥34॥ स्त्रीराज्य ताम्रकर्णाश्च कर्णाटा: कमनोत्कटाः । बालकाश्च विदर्भाश्च मत्स्यकाशीसतस्कराः ॥1351 स्कीताश्च रामदेशाश्च सूरसेनास्तथैव च । जायन्ते वत्सराजाश्च परं यदि तथा हताः ॥36॥
1. 3. विश्व
ताः मुरु ।
रोहा 2.
गौरा
म्.."
चाप मुलिका
कार
5. सटक शिवन गु । 6 बा गुरु । 7. तद
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पंचदशोऽध्यायः
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क्षुधामरणरोगेभ्यश्चतुर्भागे भविष्यति ।
एषु देशेषु चान्येषु भद्रबाहुवचो यथा ॥37॥ यदि पंचम मण्डल में शु* 4) उदय या असा हा ता अनावृष्टि, दुनिया और भय उत्पन्न करता है । धन-धान्य की वृद्धि चाहने वानों को सभी श्वेत पदार्थ और अनाज खरीद लेना चाहिए और निर्ग्रन्थ साधुनों को इन देशों का त्याग कर देना चाहिए। स्त्री राज्य, ताम्रकर्ण, कर्णाटक, आमाम, बालीयः, विदर्भ, मत्स्य, काशी, स्फीत देश, गमदेश, सूरसेन, वत्सराज इत्यादि देशों में क्षुधा, मग्ण, रोग, दुभिक्ष आदि बा कष्ट होगा, इस प्रकार का भद्रबाह स्वामी का वचन है।।33-37।।
यदा चान्येऽभिगच्छन्ति तत्रस्थं भार्गव ग्रहाः। सौराष्ट्रा: सिन्धुसौवीराः मन्तिसाराश्च साधवः ॥3811 'अनार्या: कयौधेयाः सांदृष्टार्जुननायका:।
पोड्यन्ते तेषु देशेषु म्लेच्छो वै म्रियते नृपः ॥19॥ यदि पंचम मंडल में शुत्रः अन्य ग्रहों के द्वारा अभिभूत हो तो गौराष्ट्र, सिन्धु देश, सौवीर देग, मन्तिसा र देश, माधुजन, अनार्ग (या आगतं ) दग, कच्छ देश, सन्धि के योग्य हैं । पूर्व दिगा ये ग्वाभी भी सन्धिमारने के योग्य है । इन देशों से पीड़ा होती है तथा म्लेच्छ नप का मरण होता है ।। 38-39।।
यदा तु मण्डले यष्ठे कर्यादस्तमथोदयम् । शुकस्तदा प्रकुर्वीत भयानि तत्र शुद्भयम् ॥40॥ रसाः पाञ्चालबालीका गन्धाराश्च वोलकाः । विदर्भाश्च दशाश्च पीयन्ते नात्र संशयः ।।4।। द्विगुणं धान्यमर्पण नोत्तरं वर्षयेत् तदा।
क्षतैः शस्त्र च व्याधि च मूर्छयत् तादृशेन यत् ॥42।। यदि शुक्र छठे मंडल में अस्त या उदय को प्राप्त हो तो साधारण भयों को उत्पन्न करता है तथा यहाँ क्षुधा का भय होता है। वत्म, पांचाल, वाह्रीका, गान्धार, गबोलय, विदर्भ, दशाणं निस्सन्देह पीड़ा को प्राप्त होते हैं। अनाज का भाष दूना महंगा हो जाता है तथा उत्तरार्ध चातुर्मास में वर्षा भी नहीं होती है। शस्त्र, घात और मूर्जा इस प्रकार के शुक्र में होती है ।।40-4211
1. सुगप्दा: मु०। ५. आनतंकनया: गाम्बाठाश्चाजना जमाः । मु० ।
ग प्रिय ते ग | 4. वा । 5. गलिया, गुरु ।
3. प्ले
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भद्रबाहुसंहिता यदा चान्येऽभिगच्छन्ति तत्रस्थं भार्गवं ग्रहाः। हिरण्यौषधयश्चैव शौण्डिका दुतलेखका:॥43॥ काश्मीरा बर्बराः पौण्ड्रा भृगुकच्छा अनुप्रजाः।
पोड्यन्तेऽवन्तिमार देय त्रियो व पाया ।।4।। यदि अन्य ग्रह इस छठे मंडल में स्थित शुक्र के साथ संयोग करें तो हिरण्य, औषधि, मौण्डिन, दूतलेया, काश्मीर, वर्वर, गोण्ड, भट्टीच, अम्बन्तिक पीड़ित होते हैं और नृप का मरण होता है ।।43-4411
नागवीथीति विज्ञेया भरणो कृत्तिकाऽश्विनी।
रोहिण्यार्दा मृगशिरगजवीथीति निदिशेत् ।।4511 ऐरावणपथं विन्द्यात् पुष्याऽऽश्लेषा पुनर्वसुः । फाल्गुनौ च मघा चैव वृषवीथीति संज्ञिता ।।46।। गोदीथी रेवती चैव द्वे च प्रोष्ठपदे तथा। जरद गवपथं विन्याच्छवणे वसुवारुणे 147॥ अजवीथी विशाखा च चित्रा स्वाति: करस्तथा। ज्येष्ठा मूलाऽनुराधासु मृगवीथीति संज्ञिता ।।4।। अभिजिद् द्वे तथाषाढ वैश्वानरपथः स्मृतः ।
शकस्याग्नगताद्वर्णात् संस्थानाच फलं वदेत् ॥49।। अपिवनी, भरणी और कृतिका की संज्ञा नागवीथि; रोहिणी, मृगशिरा और आर्द्रा की गजवीथि: पुनर्वग, पुष्य और शाशलपा की मंशा परावतवीथि; पूर्वाफाल्गुनी, उन गफाल्गुनी और गघा वा मुंजा पीथिपूर्वाभाद्रपद, उन राभाद्रपद
और रेवती की गौवीथि; श्रवण, धनिष्ठा और मतभिषा थी जदगववोथि: हस्त, विशाम्बा और चित्रा को अजयोथि: ज्याठा, गुल और अनुराधा की मृगवीथि एवं पूर्वापाका, उत्तराषाढ़ा और स्वाति या अभिजित् नी वैश्वानर वीथि है । शुक्र के अग्रगत वर्ण और आकार में फल का निरूपण करना चाहिए ॥45-49।।
नज्जातप्रतिरूपेण जघन्योत्तममध्यमम् ।
स्नेहादिषु शुभं ब याद् ऋक्षादिषु न संशयः ॥50॥ तीन-तीन नक्षत्रों की एक-एक वीथि बतायी गयी है। इन नक्षत्रों में शुक्र के
जयाथीति निविणेत । मु.।
I. टायगे म. 12. मन्नानां वाहिनी चा 3. छ्या गवाणं न० 1 4. भयं देत् मु.।
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पत्रदशोऽध्याय
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गमन करने में जमन्य, उत्तम और २ माल होता है । पतला पक्ष में निस्सन्देह शुभाशुभ फल का प्रतिपादन करना चाहिए 1500
तिष्यो ज्येष्ठा तथाऽऽश्लेषा 'हरिणो मलमेव च।
हस्तं चित्रा मघाऽधाढ़े शुको दक्षिणतो व्रजेत् ॥5॥ पुष्य, आपा, ज्येष्ठा, मृगशिग, मूल, हस्त, चित्रा, मघा, पूर्वापाढा इन नक्षत्रों में शुक्र दक्षिण में गमन करता है 115 1 ।।
शुष्यन्ते तोयधान्यानि राजानः क्षत्रियास्तथा ।
उग्रभोगाश्च पीड्यन्ते धननाशो "विनायकः ।।52॥ दक्षिण मार्ग मा जब शक्र गमन करता है तो जल और अनाज के पोधे मूख जाते हैं तथा राजा, क्षत्रिय और महाजन पीडित होने हैं एवं धन का नाग होता है 1152।।
वैश्वानरपथो नामा यदा हेमन्तग्रोष्पयोः ।
मारुताऽग्निभयं "कुर्यात् 'वारी च चतुःषष्टिकाम् ॥5॥ जब हेमन्त और ग्रीम जानु में वैश्वानर वीथि ग शुक्र गमन वारता है तो वायु और अग्नि भय, मृत्यु आदि फल घटित होता है तथा एक आइक प्रमाण जल बरसाता है 153।।
एतेषामेव मध्येन यदा गच्छति भार्गवः ।।
विषम वर्षमाख्याति "स्थले बीजानि वापयेत् ।।54।। जब शुक्र इनके मध्य में गमन करता है तो सभी बाने विषम हो जाती हैं अर्थात् वर्ग निष्ट होता है। उस वर्ष बीज स्थान में बाना चाहिः ॥540
खारी द्वानिशिका जया मगवीथीति संजिता ।
व्याधयः त्रिषु विज्ञेयास्तथा चरति भार्गवे 1155।। जब शक मुगवीथि में विचरण करता है तब घान्य 32 वारी प्रमाण पन्न होते हैं और दैहिक, दैविक तथा भौतिक तीन प्रकार की व्याधियाँ अवगत करती चाहिए।551
एतेषां तु यदा शुक्रो बजत्युत्तरस्तथा। विषम वर्षमास्याति निम्ने बीजानि वापयेत् ।।56॥
___1. मध्य प..। 2 विनाशवः ग3. गुगः म 1 4. स्व। मु0 1 5. सर्व मु. । 6. बीजानि तु स्थान वपन म.। 7. गाव ग । ४. य:! ग. | 9. निम्ने वरत्तदा
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जव शुक्र उत्तर की ओर जाता है तो सभी वस्तुओं को विषम समझना चाहिए तथा निम्म स्थान में बीज बोना चाहिए 1156।।
कोद्रयाणां च बीजानां खारी बोशिका वदेत् ।
अजवीथीति विज्ञेया पनरेषा न संशयः ॥57॥ . यदि शुक्र अजवीथि में गमन करे जो निस्सन्देह कोद्रव बीज सोलह सारी प्रमाण उत्पन्न होते हैं ।।571
कृत्तिका रोहिणी चार्दा मघा मैत्रं पुनर्वसुः। स्वातिस्तथा विशाखास फाल्गुन्योरुभयोस्तथा 1580 दक्षिणेन यदा शुक्रो बजत्येतर्यदा समम् । मध्यम वर्षमाख्याति समे बीजानि वापयेत् ।।5।। निष्पद्यन्ते च शस्यानि मध्यमेनापि वारिणा।
जरगवपथश्चैव वारों द्वात्रिशिकां भवेत् ॥6॥ कृत्तिका, रोहिणी, आद्री, मघा, अनुराधा, गुनर्वस, स्वाभि, विशाखा, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी इस नक्षत्रों क साथ जब शुक्र दक्षिण की ओर गमन नारता है. तो मध्यम वर्प होता है तथा समभूमि में बीज बोने से अच्छी फसल होती है । कम वर्षा होने पर भी फसल उत्ता होती है तथा जगद्गवीथि से शुक्र का गमन होने पर द्वादश खारी प्रमाण धान्य की उत्पत्ति होती है ।। 5 3-60।।
एतेषामेव मध्येन यदा गच्छति भार्गवः ।
तवापि मध्यमं वर्ष मीपत् पूर्वा विशिष्यते ।।6।।। उपर्युनत नक्षत्रों के मध्य में जब शुक्र गमन करे तो मध्यम वर्ष होता है तथा पूर्वोक्त वर्ष की अपेक्षा कुछ उता रहता है 116 111
सर्व निष्पद्यते धान्यं न व्याधि पि चेतयः ।
खारी तदाऽष्टिका जैया गोदीथीति व संहिता ॥2॥ सभी प्रकार के धान्य उत्पन्न होन है, किसी भी प्रकार की महामारी और व्याधियां नहीं होती । इस गोवीथि में शुक्रन गभग ने आट खारी प्रमाण धान्य उत्पन्न होता है ।।621
एतेषामेव यदा शुको अजत्युत्तरतस्तदा । मध्यमं सर्वमाचष्टे तयो नापि व्याधयः ।।63॥
1. निष्पधने तथा शाम्यं मन्दनायथ वारिपाम। 2. घोर्थी मागगना।
हादशियः। म । 3. मा ।
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पंचदशोऽध्यायः
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जब उपर्युक्त नक्षत्रों में शुक्र उत्तर की ओर से गमन करता है तो मध्यम वर्ष होता है तथा महामारी और व्याधियों का अभाव होता है ॥63॥
निष्पत्तिः सर्वधान्यानां भयं चात्र न भूच्छति।
खारीचतुष्का विज्ञेया वृषवीथीति संजिता ॥640 जब वृण्वीथि में शुक्र गमन करता है तो सभी प्रकार के धान्यों की उत्पत्ति होती है, भय और आतंक का अभाव रहता है तथा चार खारी प्रमाण धान्य उत्पन्न होता है ।।6511
अभिजिच्छवणं चापि निष्ठावारुणे तथा। रेवती भरणी चैव तथा भाद्रपदाऽश्विनी 165।। निचयास्तदा विपद्यन्ते खारी विन्द्याच्च पञ्चिका।
ऐरावणपथो ज्ञेयोऽश्रेष्ठ एव प्रकीर्तितः ।।66॥ अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती, भरणी, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और अश्विनी इन नक्षत्रों में शक्र का गमन करना ऐरावणपथ गाना जाता है। इस मार्ग में गमन करने से समुदायों को विपत्ति होती है और पांच खारी प्रमाण उत्पन्न होता है ।।65-6611
एषां यदा दक्षिणतो भार्गव: प्रतिपद्यते ।
बहूदकं तदा विन्द्यात् महाधान्यानि वापयेत् ।।67।। उपर्युक्त नक्षत्रों में यदि शुक्र दक्षिण मार्ग से गमन करे तो अत्यधिक वर्षा होती है तथा स्थल में बीज बोने पर भी धाव्य की उत्पत्ति होती है 1167।।
जलजानि तु शोभन्ते ये च जीवन्ति बारिणा।
खारी तदाष्टिका ज्ञेया गजवीथीति संज्ञिता ॥681 जलचर जन्तु शोभित और आनन्दित होते हैं तथा इसमें बाट खारी प्रमाण धान्य और इराकी संज्ञा गजवीथि है ।168।।
एतेषामेव तु मध्येन यदा याति तु भार्गवः ।
स्थलेष्वप्तबोजानि जायन्ते निरुपद्रवम् ।।6।। जब शुक्र उपर्युक्त नक्षत्रों के मध्य में गमन करता है तो रथल में बोये गये वीज भी निर्विघ्न होते हैं ।।6911
1. एतेषां मु० । 2. महाधान्य स्थले योत मु। 3. स्थनेपानि बी नागि जायन्ते विपद्बम् मु०।
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भद्र बाहुसंहिता
निचयाश्च विनश्यन्ति खारी द्वाशिका भवेत् ।
दानशीला नरा हष्टा नागवीथीति संज्ञिता 1700 नागवीथि में शुक्र के गमन करने से समुदायों की हानि होती है तथा द्वादन खारी प्रमाण धान्य उत्पन्न होता है और मनुष्य दानशील होते हैं 117011
एवमेव यदा शुक्रो बजत्युत्तरतस्तदा।
स्थले धान्यानि जायन्ते शोभन्ते जलजानि वा 11711 जब शुक्र उपर्युक्त नक्षत्रों में उत्तर की ओर से नमन करता है तो स्थल में भी फराल उत्पन्न होती है और जलज जीव गोभिन होने हैं 117 11
सर्वोत्तरा नागवीथी सर्वदक्षिणतो ग्निजा।
गोवीथी मध्यमा ज्ञेया मार्गाश्चैवं त्रयः स्मृताः ।।72॥ नागवीथि गबगे उत्तर, वैश्वानर वीथि दक्षिण और गोबीथि मध्यमा होती है, इस प्रकार तीन प्रकार के मार्ग बतलाये गये ।।72।।
उत्तरेणोत्तरं विद्यान्मध्यमे मध्यम फलम् ।
दक्षिणे तु जघन्यं स्याद् सद्रबाहुवचो यथा।173।। उत्तरवीथि में गमन करने पर उत्तम कान, मध्यवीथि में गमन पारने पर मध्यम फल और दक्षिण में गमन करने पर जघन्य फल होता है, गेगा भद्रबाहु स्वामी का वचन है॥73।।
यत्रोदितश्च विचरेन्नक्षत्र भार्गवस्तथा।
नृपं पुरं धनं मुख्यं पशुं हन्याद् विलम्बकः ।।7411 निम्न प्रकार प्रतिपादित रविवारादि कर बागें में उक्त नक्षत्रों में जब शश गमन करता है तो राजा, नगर, धान्य, धन और मुम्ब नजओं का अविलम्ब नाश होता है अर्थात् श्रेष्ट वारों में उतर फल और कर धारा में गमन करने पर निकृष्ट फल प्राप्न होता है 112411
आदित्ये विचरेद् रोग मार्गेऽतुल्यामय भयम् । गर्भोपघातं कुरुते ज्वलनेनाविलम्वितम् 175॥ ईतिव्याधिभयं चौरान कुरुतेऽन्त:प्रकोपनम् । प्रविशन् भार्गव: सूर्ये जिह्म नाथ विलम्विना 1176॥
1. "टा ।2. पाव । 3. 1िधि-इदियह कि हर लिखित प्रनि में अधिक मिलती है।
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, पंचदशोऽध्यायः
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शुक्र के सूर्य में विचरण करने पर रोग, अत्यधिक भय, शीघ्र ही अग्नि के द्वारा गोपत्रात आदि फल घटित होते हैं, शुक्र के गूर्य में प्रवेश करने पर व्याधि, भय, दारुण प्रकोग आदि फल होते हैं ।।75-7611
प्रथमे भण्डले शुक्रो विलम्बी डमरायते। -पूर्वापरा दिशो हन्यात् पृष्ठे तेन विलम्बिना ।177।। यदि प्रथम मण्डल में शुक्र लम्बायमान होकर अधिक समय तक रहे तो पूर्व और पश्चिम दिशा में बात करता है 1770
द्वितीयमण्डले शक्रश्चिरगो मण्डलेरितः।
हन्याद्देशान धनं तोयं सकलेन विलम्बिना 11781 यदि द्वितीय मण्डल में शुक्र गुर्य से प्रेरित होकर अधिक समय तक रहे तो देशा के धन, जल एवं धान्य ना विनाश करता है ।।7811
तृतीये चिरगो व्याधि मृत्यु सृजति भार्गवः ।
चलितेन विलम्ोन मण्डलोक्ताश्च या दिशः 1791 यदि तृतीय मण्डल में शुभ अधिक समय तक बिचरण कर तो व्याधि और मृत्यु मण्डल की दिशा होती हैं अर्थात् तृतीय मान्न की जिस दिशा में अधिक समय तक शुक्र गमन करता है उस दिशा में व्याधि और मृत्यु फल घटित होते हैं ।।7911
चतुर्थे विचरन् शुक्रो 'शयी हत्यात् सुयानकान् ।
शस्यशेषं च सृजते निन्दितेन विलम्बिना ॥४॥ चतुर्थ मण्डल में शयनावस्थामा शुक्र के रहने ग अच्छे वाहनों का विनाश होता है तथा निन्दित विलम्बी शुक्र धान्य का विनाश करता है ।। 800
पञ्चमे विचरन् शुक्रो दुभिक्ष जनयेत् तदा।
'हन्याच्च मण्डलं देशं क्षोणेनाथ विलम्बिना ॥8॥ क्षीण और विलम्बी शुक्र यदि पंचम मण्डल में विचरण करे तो दुभिक्ष उत्पन्न होता है तथा उस मण्डल और देश का विनाश होता है 18311
यदा तु मण्डले षष्ठे भार्गवश्चिरगो भवेत्।
तदा तं मण्डलं देशं हन्ति लम्बेन पाशिना ।।821 जब पष्ठ मगडल में शुक्र अधिक समय तक गमन करता है तो लम्बायमान
]. राय। मु । 2. हन्यात भु।
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भद्रबाहुसंहिता
पाश के द्वारा उस भण्डल और देश का विनाश करता है ।। 820
होने चारे जनपदानतिरिक्ते नृपं वधेत् ।
समे तु समतां विन्द्याद्विषमे विषमं वदेत् ।।83॥ हीनचारहीन गतिवाला शुक्र जनपद का विनाश, अतिरिक्त-अधिक गतिवाला शुक्र नृप का वध, समगतियाला शुक्र समता और विषमगति वाला शुक्र विषमता करता है । अर्थात् शुक्र अपनी गति के अनुसार शुभाशुभ फल होता है ।1831
कृत्तिका रोहिणी चित्रां मैत्रमित्र तथैव च । वर्षास दक्षिणाद्याषु यदा चरति भार्गवः ।।४।। व्याधिश्चेतिश्च दवष्टितदा धान्यं विनाशयेत् ।
महार्घ जनमारिश्च जायते नात्र संशयः ॥5॥ __ कृत्तिका, रोहिणी, चित्रा, अनुराधा, विशाखा, इन नक्षत्रों में, दक्षिणादि दिशाओं में, वर्षाकाल में जब शुक्र गमन करता है, तब निम्न फल पाटित होते हैं । उक्त प्रकार के शुक्र में व्याधि, ईति, महामारी, अनावृष्टि या अतिवृष्टि, महंगाई, जनमारी एवं धान्य का नाश निस्सन्देह होता है। तात्पर्य यह है कि उक्त नक्षत्रों में जब शुक्र शीघ्र गति से गमन करता है या अधिक मन्दगति से गमन कारता है, तब उपर्युक्त अशुभ फल घटता है ।।84-85।।
एतेषामेव मध्येन मध्यमं फलमादिशेत्।
उत्तरेणोत्तरं विन्द्यात् सुभिक्ष क्षेममेव च ।।86॥ जब उपर्युक्त नक्षत्रों में शुक्र मध्यम गति से ममन करता है, तो मध्यम फल घटता है। उत्तर दिशा में शुक्र का गमन करने से सुभिक्ष और कल्याण होता है ।।86।।
मघायां च विशाखायां वर्षासु मध्यमस्थितः ।
तदा सम्पद्यते सस्यं समर्घ च सुखं शिवम् ।।870 वर्षाकाल में जय शुक्र मघा और विशाखा में मध्यम गति से स्थित रहता है तो धान्य को खूब उत्पत्ति होने के साथ वस्तुओं के भाव में समता, गुम्ब और कल्याण होता है ।18711
पुनर्वसुमाषाढां च याति मध्येन भार्गवः ।
'तदा सुवृष्टिञ्च विन्द्यात् व्याधिश्च समुदीर्यते ॥88॥ J. वभन्द्र म। 1 2. यह पंक्ति हनिश्चित प्रति में नहीं है ।
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पंचदशोऽध्यायः
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यदि पुनर्वगु और पूर्वाषाढ़ा में शुक्र मध्यम गति से गमन करे तो व्याधि और वर्षा सर्वत्र होती है ।।88॥
आषाढां श्रवणं चैव यदि मध्येन गच्छति ।
कुमारांश्चैव पोड्येताऽनार्याश्चान्तवासिनः ॥89॥ उत्तरापाढ़ा और श्रवण में जब शुक्र मध्यम गति से गमन करता है तो कुमार, अनार्य और अन्त्यजों को पीड़ा होती है 189।।
प्रजापत्यमाषाढां च यदा मध्येन गच्छति ।
तदा व्याधिश्च चौराश्च पीड्यन्ते वणिजस्तया॥9 रोहिणी और उत्तरापाद में जब शुक्र मध्यम गति से गमन करता है तो व्यापारी, रोगी और चोरों को पीड़ा होती है 1190।।
चित्रामेब विशाखां च याम्यमानॊ च रेवतीम् ।
मैत्रे भद्रपदां चैव याति वर्षति भार्गवः ॥911 चित्रा, विशाखा, भरणी, आर्द्रा, रेवती, अनुराधा और पूर्वभाद्रपद में जब शुक्र गमन करता है तो क्या हाता है ! 111
फल्गुन्यथ भरण्यां च चित्रवर्णस्तु भार्गवः ।
तदा तु तिष्ठेद् गच्छेद् तुवकं भाद्रपदं जलम् ॥92॥ जब विचित्र वर्ण का शुक्र पूर्वाफाल्गुनी और भरणी में गमन करता है या स्थित रहता है तो भाद्रपद मास में निश्चय से वर्षा होती है ।192।।
प्रत्यूषे पूर्वतः शुक्रः पृष्ठतश्च बृहस्पतिः । यदाऽन्योऽन्यं न पश्येत् तदा चक्र 'परिवर्तते ॥93।। धर्मार्थकामा लुप्यन्ते सम्भ्रमो वर्णसंकरः । नृपागां च समुद्योगो यतः शुक्रस्ततो जयः ॥940 अवष्टिश्च भयं घोरं दुर्भिक्षं च तदा भवेत् ।
आढकेन तु धान्यस्य प्रियो भवति ग्राहक: 1951 प्रातःकाल में पूर्व में शुक्र हो और उसके पीछे बृहस्पति हो और परस्पर में एक-दूसरे को न देत हो तो शासनाचक्र में परिवर्तन होता है; धर्म, अर्थ, काम लुप्त हो जाते हैं, वर्णसंकरों में आकुलता व्याप्त हो जाती है और राजाओं की
1. प्रा! | 2. व। शुव भाद्रपद अल म् गु० । 3. स म । 4. प्रयतैते मु० ।
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उद्योग में प्रवृत्ति होती है। क्योंकि जिस ओर शुक्र रहता है, उसी ओर जय होती है। तात्पर्य यह है कि जो नृपशु के सम्मुख रहता है, उसे विजय लाभ होता है । अनावृष्टि, घोर दुर्भिक्ष तथा एक आढक प्रमाण जल की वर्षा होने से धान्य ग्राहकों के लिए प्रिय हो जाते हैं अर्थात् अनाज का भाव महंगा होता 1193-9511
यदा च पृष्ठतः शुक्रः पुरस्ताच्च बृहस्पतिः । यदा लोकयतेऽन्योन्यं तदेव हि फलं तदा ॥96||
जव शुक्र पीछे हो और वृहस्पति आगे हो और परस्पर दृष्टि भी हो तो भी उपर्युक्त फल की प्राप्ति होती है ||9|
कृत्तिकायां यदा शुक्रः विकृष्य 'प्रतिपद्यते । ऐरावणपथे यद्वत् तद्वद् ब्रूयात् फलं तदा ॥970
यदि शुक्र कृतिका नक्षत्र में खिला हुआ-सा दिखलायी पड़े तो जो फलादेश शुक्र का ऐरावणवीथि में शुक्र के गमन करने का है, वही यहाँ पर भी समझना चाहिए |97 |
रोहिणीशकटं शुक्रो यदा समभिरोहति । चारूढाः प्रजा ज्ञेया महद्भयं विनिदिशेत् ॥98 ॥
पाण्ड्य केरलचोलारच 'चेद्याश्च " करनाटकाः । 'चेरा विकल्पकाश्चैव पीड्यन्ते तादृशेन यत् ॥9॥
यदि शुक्र कटाकार रोहिणी म आरोहण करें तो प्रजा शासन में आरूढ़ रहती है और महान् भय होता है । पाण्डव, केरल, चोल, कर्नाटक, चेदि, चेर और विदर्भ आदि प्रदेश पीड़ा को प्राप्त होते हैं 1198-99 ।।
प्रदक्षिणं यदा याति तदा हिंसति स प्रजाः ॥ उपघातं बहुविधं वा शुक्रः कुरुते भुवि ||oo
जब शुक्र दक्षिण की ओर गमन करता है तो प्रजा का विनाश एवं पृथ्वी पर नाना प्रकार के उपद्रव, उत्पात आदि करता है |1001
संव्यानमुपसेवानो "भवेयं सोमशर्मणः ।
सोमं च सोमजं चैव सोमपार्श्व च हिंसति ।10।।।
1 प्रतिदृश्यते । 2. ठा0 3. कन्याटका मूल 4. योग 3. भद्रेय गुरु ।
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बायीं ओर से शुक्र रमन करे तो सोर और पाप भागधारियों के लिए कल्याणप्रद होता है । सोम, सोग से उत्पन्न और सोमपार्श्व को हिंसा करता है 11010
वत्सा विदेह जिह्माश्च' बसा मद्रास्तथोरगा:।
पीड्यन्ते ये च तद्भक्ताः सन्ध्यानमारोहेत् यथा ।।102॥ ___ वत्स, विदेह, कुन्तल, बसा, मद्रा, उरगपुर आदि प्रदेश शुक्र के बायीं ओर ___ जाने पर पीड़ित होते हैं ।। 1 02।।
अलंकारोपघाताय यदा दक्षिणतो व्रजेत् ।
सौम्ये सुराष्ट्र च तदा वामगः परिसिति ।।10311 जर शुक्र दक्षिण की ओर से गमन करता है तो अलंकारों का विनाश होता है तथा वायीं ओर से गमन करने पर मुन्दर मुराष्ट्र का घात करता है ।।10311
आर्द्रा हत्वा निवर्तत यदि शुक्रः कदाचन ।
संग्रामास्तत्र जायन्ते मांसशोणितकमाः ॥७॥ यदि शुक्र आर्दी का घात कर परिवर्तित हो तो युद्ध होन है तथा पृथ्वी में रस्त और मास की बीचड़ हो जाती है ।। 104।
तैलिकाः 'सारिकाश्चान्तं चामुण्डामांसिकास्तथा ।
"आपण्डाः क्रूरकर्माण: पीड्यन्ते तादृशेन यत् ॥105॥ उवत प्रकार के शुक से होने में तेली, मैनिक, ऊंट, भंग तथा केंची आदि से कठोर क्रूर कार्य करने वाने पीड़ित होते हैं ।। 18511
दक्षिणेन यदा गच्छेद द्रोणमेधं तदा दिशेत् ।
वामगो रुद्रकर्माणि भार्गव: परिहिंसति ॥106॥ यदि आर्द्रा का घात कर दक्षिण की ओर शुक्र गमन करें तो एक द्रोण प्रमाण जल की वर्षा होती है और वायीं ओर शुक गमन करे तो रोद्रयाम -ऋ र कर्मों का विनाश होता है ।। 1061
पुनर्वसुं यदा रोहेद गाश्च गोजी विनस्तथा।
हासं प्रहासं राष्ट्र च विदर्भान दासकांस्तथा ॥107।। जब शुक्र पुनवंम् नक्षत्र में आरोहण करता है तो गाय और गोपाल आदि में 1. जिह पाश्न म । 2. भीमा । म । 3. गाय ने माने यशा म । 4 मोकाश्चांगा उष्ट्र। माहाकार पथ | P० । 5. पिण: म ।
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हास-परिहास, आमोद-प्रमोद होता है । विदर्भ और दासों को भी प्रसन्नता और । आमोद-प्रमोद प्राप्त होता है ।।। 0714
शम्बरान् 'पुलिन्दकाश्च श्वानषण्ढांश्च वल्कलान् ।
पीडयेच्च महासण्डान् शुक्रस्तादृशेन यत् ।। 1080 उक्त प्रकार का शुक्र भील, पुलिन्द, श्वान, नपुंसक, वल्कलधारी और अत्यन्त नपुंसकों को अत्यन्त पीड़ित करता है ।।10४॥
प्रदक्षिणे प्रयाणे तु द्रोणमेकं तदा दिशेत् ।
वामयाने तदा पोडां ब्र यात्तत्सर्वकर्मणाम् ॥109॥ पुनर्वसु का घातकर शुक्र के दाहिनी ओर से प्रयाण करने पर एक द्रोण प्रमाण जल की वर्षा कह्नी चाहिए और वायीं ओर से प्रयाण करने पर सभी कार्यों का घात कहना चाहिए ॥10911
पुष्यं प्राप्तो द्विजान् हन्ति पुनर्वसावपि शिल्पिनः ।
"पुरुषान् धर्मिणश्चापि पीड्यन्ते चोत्तरायणाः ॥10॥ पुष्य नक्षत्र को प्राप्त होने वाला उत्तरायण शुक्र द्विज, प्रजावान् और धनुष के शिल्पी और धार्मिक व्यक्तियों को पीड़ित करता है ।। 110।।
वङ्गा उत्कल-वाण्डाला: पार्वतेयाश्च ये नराः।
इक्षुमन्त्याश्च पीड्यन्ते आर्द्रामारोहणं यथा ॥11॥ जब शुकः आर्द्रा में आरोहण करता है तो वंगवासी, उत्कालवासी चाण्डाल, पहाड़ी व्यक्ति और इक्षुमती नदी के किनारे के निवासी व्यक्तियों को पीड़ा होती है ।।11111
'मत्स्यभागीरथीनां तु शुक्रोऽश्लेषां यदाऽऽहेत।
वामगः सजते व्याधि दक्षिणो हिसते प्रजा: 11120 जब शुक्र बायें जाता हुआ आश्लेषा में भारोहण करता है तो मत्स्यदेश और भागीरथी के तटनिवासियों को व्याधि होती है और दक्षिण से गमन करता हुआ आरोहण करता है तो प्रजा की हिसा होती है ।। 1 1 211
मघानां दक्षिणं पाश्वं भिनत्ति यदि भार्गवः । आढकेन तदा धान्यं प्रियं विन्धादसंशयम ॥11311
1, मांगल्याच भु.। 2. महामु मा । 3. प्राशा च धन सिगन: ग । 4. महा भु। 5. दुल- भु. । 6. यदा गु० । 7. पणी गोमरी पु. । . सुगति म । 9. हिंगन ।
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यदि शुक्र मघा नक्षत्र के दक्खिन भाग का भेदन करे तो आढक प्रमाण जल की वर्षा होती है और धान्य महंगा होता है |1113
विलम्बेन यदा तिष्ठेत् मध्ये भित्त्वा यवा मघाम् । आढकेन हि धान्यस्थ प्रियो भवति ग्राहकः 11141
जब मघा के मध्य का भेदन कर शुक्र अधिक समय तक रहता है तो आढक प्रमाण जल की वर्षा होती है और धान्य प्रिय होता - महंगा होता है । 114 मद्यानामुत्तरं पाश्वं भिनत्ति यदि भार्गवः ।
कोष्ठागाराणि पीड्यन्ते तदा धान्यमुपहसन्ति ॥1150
यदि मघा के उत्तर भाग का शुक्र भेदन करे तो धान्य के लिए हिंसा होती है और कोष्ठागार - खजांची लोग पीड़ित होते हैं ।।115॥
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प्राज्ञा महान्तः पीड्यन्ते ताम्रवर्णो यदा भवुः । प्रदक्षिणे विलम्बश्च महदुत्पादयेज्जलम् ॥116॥
जब शुक्र ताम्रवर्ण का होता है तो विद्वान् मनीषी व्यक्ति पीड़ित होते हैं और प्रदक्षिणा में शुकविलम्ब करे तो अत्यधिक वर्षा होती है || 1 ||
पूर्वाफाल्गुनीं सेवेत गणिका रूपजीविनीः ।
पीडयेद् वामगः कन्यामुग्रकर्माणं दक्षिण: ।1170
पूर्वाफाल्गुनी में शुक्र का बायीं ओर से आरोहण हो तो रूप से आजीविका करने वाली गणिकाएँ पीड़ित होती हैं और दाहिनी ओर से आरोहण हो तो उग्रकार्य करने वाले पीड़ित होते हैं 117
शबरान् प्रतिलिङ्गानि पीडयेदुत्तरां 'श्रितः । वामगः स्थविरान् हन्ति दक्षिणः स्त्रीनिपीडयेत् ॥ 18॥ उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में बायीं ओर से शुक्र आरोहण करे तो शबर, ब्रह्मचारी, स्थविर — निवासी राजा की पीड़ा होती है तथा दाहिनी ओर से आरोहण करने पर स्त्रियों को पीड़ा होती है 11118
काशांश्च रेवतोहस्ते पीडयत् भार्गवः स्थितः । दक्षिणे चोरघाताय वामश्चोरजयावहः ॥11॥
दाहिनी ओर में रेवती और हस्त नक्षत्र में शुक्र स्थित हो तो काश और चोरों का बात करता है और बांयी ओर से स्थित होने पर चोरों को जय लाभ देता है ॥19॥
1. धान्यार्थमुपहनिमुन । 2. सदा नृपा: मु० । 3. महान् भु० । 4. गत गुरु ।
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चित्रस्थः पीडयेत् सर्व विचित्रं गणितं लिपिम् । कोशलान् मेखलान् शिल्प द्यूतं कनक वाणिजान् ।। 1201
चित्रा नक्षत्र स्थित शुक्र गणित, लिपि, साहित्य आदि सभी का घात करता है | कला कौशल, छूत, स्वर्ण का व्यापार आदि को पीड़ित करता है । 1201 आरूढपल्लवान् हन्ति मारीचोदारकोशलान् । मार्जारनकुलांश्चैव कक्षमार्गे च पीड्यते ||121
चित्रा नक्षत्र पर आरूढ़ शुक्र पल्लव, सौराष्ट्र, कोशल का विनाश करता है और कक्षमार्ग में स्थित होने पर मार्जार- बिल्ली और नेवलों को पीड़ित करता है || 12 [ ||
चित्रमूलाश्च त्रिपुरा वातन्वतथापि ।
वामगः सृजते व्याधि दक्षिणो 'वणिकान् वधेत् ॥ 122 |
यदि वाम भाग से गमन करता हुआ शुक्र चित्रा के अन्तिम चरण में कुछ समय तक अपना विस्तार करे तो व्याधि की उत्पत्ति एवं दक्षिण और में गमन करता हुआ अन्तिम चरण में स्थित हो तो व्यापारियों का विनाश करता है 111221 स्वातौ दशार्णाश्चेति सुराष्ट्र चोपहसति ।
आरूढो नायकं हन्ति वामो 'वामं तु दक्षिणः ॥ 1231
स्वाति नक्षत्र में शुक्र गमन करे तो दणा और सौराष्ट्र की हिंसा करता है तथा बायीं ओर से आरूढ़ होने वाला शुक्र बायीं ओर के नायक और दाहिनी ओर से आरूढ़ होने वाला शुक्र दाहिनी ओर के नायक का वध करता है 132311 विशाखायां समारूढो 'वरसामन्त जायते ।
अथ विन्द्यात् महापीडां 'उशना स्रवते यदि 111240
यदि विशाखा नक्षत्र में शुक्र आरूढ़ हो तो श्रेष्ठ सामन्त उत्पन्न होते है और शुक्र आदि स्वण करे च्युत हो तो महा पीड़ा होती है ||12411
दक्षिणस्तु मृगान् हन्ति पश्चिमी पाक्षिणात् यथा । अग्निकर्माणि वामस्थो हन्ति सर्वाणि भार्गवः ||12511
दक्षिणस्थ शुक्र मृगों - पशुओं का विनाश करता है, पश्चिमस्थ पक्षियों का विनाश और वामस्थ समस्त अग्नि कार्यों का विनाश करता है ||25||
―
1. वाणिजम् मू । 2 सितोन्स रूक्षकोशलात् पु० । 3 चित्रचूलां पूरी मु 4. गणिक 5 बातेऽस्तु भु० । 6. शी भवेनमः 7. पीडयदुशास्था भू० । ४. रक्षिणरचलित व मु
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मध्येन प्रज्वलन गच्छन् विशाखामश्वजे नपम् ।
उत्तरोऽवन्तिजान् हन्ति स्त्रीराज्यस्थांश्च दक्षिणः ।।1261 यदि शुक्र प्रज्वलित होता हुआ उत्तर में विशाखा और अश्विनी नक्षत्र के मध्य से गमन करता है तो अवन्ति देश में उत्पन्न व्यक्तियों का घात एवं दक्षिण से गमन करता है तो स्त्री राज्य के व्यक्तियों का विनाश करता है ।। 1261
अनुराधास्थितो शुक्रो यायिनः प्रस्थितान् वधेत् ।
मर्दते च मियो भेदं दक्षिणे न तु बामगः ।।127॥ अनुराधा स्थित शुक्र यायी - आक्रमण करने के लिए प्रस्थान करने वालों के वध का संकेत करता है । यदि अनुराधा नक्षत्र का शुक्र मर्दन करे तो परस्पर में मतभेद होता है । यह फल दक्षिण की ओर का है, वायों और का नहीं 11127॥
मध्यदेश तु दुर्सिमा वायं मादुनये तरः ।
फलं प्राप्यन्ति चारेण भद्रबाहुवचो यथा ॥128॥ यदि अनुराधा नक्षत्र में शुक्र का उदय हो तो मध्य देश में दुभिक्ष और जय होती है । भद्रबाहु स्वामी का सा बचन है कि शुक्र का फल उसके विचरण के अनुसार प्राप्त होता है ।। 1 28।।
ज्येष्ठास्थः पीडयेज्येष्ठान 'इक्ष्वाकन गन्धमादजान ।
मर्दनारोहण "व्याधि मध्यदेशे 'ततो वधत् ।।129॥ ज्येष्ठा नक्षत्र में स्थित शुक्र इक्ष्वाकुवंश तथा गन्धमाशा गर्वत पर स्थित बड़े व्यत्रितयों को पीड़ित करता है । पदंन और आरोषणा ने बाला शुक्र विनाश करता है तथा मध्य देश ने मत-मतान्तों का निराकरण करता है 111291
दक्षिण: क्षमज्ज्ञेयो वामगस्तु भयंकरः।
"प्रसन्नवर्णो विमलः स विज्ञेयो "सुखंकरः ॥13011 दक्षिण वा ओर ग ज्याला नक्षत्र में गमन करने वाला गुक क्षेम करने वाला होता है और बायीं ओर में गमन करने वाला शुक्र भयंकार होता है तथा निर्मल श्रेष्ठवर्ण का शुक्र शुख सपना होता है 113011
हन्ति मूलफलं मूले 'कन्दानि च वनस्पतिम्।
औषध्योर्मलयं चापि माल्यकाष्ठोपजीविनः ॥13111 मूल नक्षत्र स्थित शुक्र वनस्पति को फल, मूल, कान्द, औषधि, चन्दन एवं
।. मु.। 2. ६४ानमा गनिमान् मु।। 3. हमि मु. । 4. मान वधेत म । 5. प्रशः । न । 6. गुलामहः मु० । 7. कन्धान य प ।
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भद्रवाइसंहिता चंदन-लकड़ी आदि के द्वारा आजीविका करने वालों का विनाश करता है। 13।।
यदाऽऽरुहेत् प्रमत कुटुम्बा भूश्च दुखिताः ।
कन्दमूलं फलं हन्ति दक्षिणो वामगो जलम् ॥32॥ दक्षिण की ओर से गमन करता हुआ शुक्र जब मूल नक्षत्र का आरोहण या प्रमर्दन करे तो कुटुम्ब, भूमि आदि दुःखित होती है, कन्द, मूल, फल का विनाश होता है और बायीं ओर से गमन करता हुआ जल का विनाश करता है ।।1321
'वामभूमिजलेचारं आषाढस्य: प्रपीडयेत् ।
शान्तिकारश्च मेघश्च तालोरारोह-मर्दने ॥133।।
पाढा नक्षत्र में स्थित शुक सभी भूमि और जलचर आदि को पीड़ा देता है और शुक्र के आरोहण और मर्दन करने से शान्तिकर जल की वर्षा होती हैं।1133॥
दक्षिण: स्थविरान् हन्ति वामगो भयमावहेत् ।
सुवर्णो मध्यम: स्निग्धो भार्गव: सुखमावहेतु ।।134॥ दक्षिण की ओर से गगन कर पूर्वापाढा नक्षत्र में विचरण करने वाला शुक्र स्थावरो-----निवासी राजाओं का घात करता है और बायीं ओर गमन करने वाला शुक्र भय उतान्न करता है तथा सुन्दर, स्निग्ध मध्यम से गमन करने वाला पाक सुख उत्पन्न करता है ।। 1 3411
यद्युत्तरासु तिष्ठेच्च पाञ्चालान् मालवत्रयान् ।
पीडयेन्मई येद्दोहा विश्वासाभेदकृत्तथा ॥135॥ यदि उत्तराढ़ा नक्षत्र में शुऋ स्थित हो तो पाञ्चाल तथा तीनों मालवों की पीडित. गदित, द्रोहित एवं विश्वास के कारण भद उत्पन्न करता है ।।। 35।।
अभिजित्स्थ: कुरून् हन्ति कौरव्यान् क्षत्रियांस्तथा।
"पशव: साधवश्चापि पीड्यन्ते रोह-मर्दने 1136॥ अभिजित् नक्षत्र पर जब शुक्र स्थित रहता है तो कौरवों तथा क्षत्रियों का मर्दन करता है तथा अभिजित् नक्षत्र में आरोहण और मर्दन करने पर शुक्र पशु और साधुओं को पीड़ित करता है ।। 1 3641
यदा प्रदक्षिणं गच्छेत् पञ्चत्वं कुरुमादिशेत् ।
वामतो गच्छमानस्तु ब्राह्मणानां भयंकरः ।।1371 इस नक्षत्र के लिए दक्षिण की ओर से जब शुक्र गमन करता है तो कुरुवंशी
1. भूमिजल परान मु. । 2. हातकेशांमध मरीश्च मु० ॥ ३. नद्यश्च म ।
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क्षत्रियों के लिए मृत्यु एवं बायीं ओर से जब गमन करता है तो ब्राह्मणों के लिए । भयंकर होता है ।।1371
सौरसेनांश्च मत्स्यांश्च श्रयणस्थ: प्रपोडयेत् ।
वंगांगमगधान् हन्यादारोहणप्रमर्दने ॥1381 यदि शुक्र श्रवण नक्षत्र में स्थित हो तो सौरसेन और मत्स्य देश को पीड़ित करता है । श्रवण नक्षत्र में आरोहण और प्रमर्दन करने से शुक्र बंग, अंग और मगध का विनाश करता है ।। 138।।
दक्षिणः श्रवणं गच्छेद् द्रोणमेघं निवेदयेत् ।।
वामगस्तूपघाताय नृणां च प्राणिनां तथा।।139॥ यदि दक्षिण की ओर से शुक्र श्रवण नक्षत्र में जाय तो एक द्रोण प्रमाण जल की वर्षा होती है और बायीं ओर मे गमन नारे तो मनुष्य और पाओ के लिए घातक होता है ।11 39॥
धनिष्ठास्थो धनं हन्ति समृद्धाश्च कुटुम्बिनः ।
पाञ्चालान् सूरसेनांश्च मत्स्यानारोहमर्दने ।।1401 यदि धनिष्ठा नक्षत्र में शुक्र गमन करे तो समृद्धशाली, धनिक कुटुम्वियों के धन का अपहरण करता है । धनिष्ठा नक्षत्र के आरोहण और मर्दन करने पर शुक्र पाञ्चाल, सूरसेन और मत्स्य देश का विनाश करता है ।।14011
दक्षिणो धनिनो हन्ति वामगो व्याधिकृद् भवेत् ।
मध्यग: सुप्रसन्नश्च सम्प्रशस्यति भार्गवः ॥141॥ दक्षिण की ओर गमन करने वाला शुक्र धनिकों का विनाश और बायीं ओर से गमन करने वाला शुक्र व्याधि करने वाला होता है । मध्य से गमन करने वाला शुक्र उत्तम होता है तथा सुस्न और शान्ति की वृद्धि करता है ॥14 11
शलाकिनः शिलाकृतान् वारुणस्थ: प्रहिसति ।
कालकूटान् कुनाटांश्च न्यादारोहमर्दने ।।1421 शतभिषा नक्षत्र में स्थित शुक्र शलाकी और शिलाकृतों की हिमा करता है। इस नक्षत्र में आरोहण और मर्दन करने वाला शुक्र कालकूट और कुनाटों की हिंसा करता है ।। 1420
दक्षिणो नोचकर्माणि हिंसते नीचकमिणः ।
वामगो दारुणं व्याधि ततः सृजति भार्गवः ।।143॥ दक्षिण से गमन करने वाला शुक्र नीच कार्य और नीच कार्य करने वालों का
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हन्यादश्विनीप्राप्त: सिन्धुसौवीरमेव च ।
मत्स्यांश्च कुनटान रूढो मर्दमानश्च हिंसति ॥150॥ अश्विनी नक्षत्र में स्थित शुक्र सिन्धु और सौवीर देश का विनाश करता है। इस नक्षत्र का आरोहण और मर्दन करने से शुक्र मत्स्य और कुनटों का पात करता है।।150
अश्वपण्योपजीविनो दक्षिणो हन्ति भार्गवः।
तेषां व्याधि तथा मृत्यु सृजत्यथ तु 'वामगः। दक्षिणस्थ भार्गव-शुक्र अश्व-घोड़ों के व्यापारी और दुकानदारों का घात करता है और वामग शुक्र उनके लिए व्याधि और मृत्यु करता है ॥15॥
भत्यकरान् यवनांश्च भरणीस्थ: प्रपीडयेत्।
किरातान् मद्रदेशानामाभोरान्मर्द-रोहणे ॥15॥ भरणी स्थित शुक्र भृत्य कर्म करने वालों एवं यवनों-मुसलमानों को पोड़ा करता है। इस नक्षत्र का मर्दन और रोहण करने वाला शुत्र किरात, मद्र और आभीर देश का पात करता है ।115211
प्रदक्षिणं प्रयातश्च द्रोणं मेघ निवेदयेत्।
वामयः संम्प्रयातस्य रुद्रकर्माणि हिंसति ॥153॥ इस नक्षत्र मे दक्षिण की ओर गया शुक्र एक द्रोण प्रमाण मेघों को वर्षा करता है और बायीं ओर गया शुक्र रुद्र कार्यों का विनाश करता है ।। 15311
एवमेतत् फलं कुर्यादनुचारं तु भार्गवः ।
पूर्वत: पृष्ठतश्चापि समाचारो भवेल्लघुः ।।154॥ __ इस प्रकार शुक्र अपने विचरण का फल देता है। पूर्व से और पीछे में शुक्र के गमन का संक्षिप्त फल वाहा गया है।।15411
उदये च प्रवासे च ग्रहाणां कारणं रविः।
प्रवासं छादयन्कुर्यात् मुञ्चमानस्तथोदयम् ।।155॥ ग्रहों के उदय और प्रवाग में कारण सूर्य है । यहाँ प्रवास का अभिप्राय ग्रहों के अस्त होने गहै । जब सूर्य ग्रहों को अच्छादित कारता है तो यह उनका अस्त कहा जाता है और जव छोड़ता है तो उदय माना जाता है। 1 55।।
1. भार्गवः मु. । 2. समाचार तु यल्लघुः मु० ।
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भद्रबाहुसंहिता
प्रवासाः पञ्च शुक्रस्य पुरस्तात् पञ्च पृष्ठतः । मार्गे तु मार्गसन्ध्याश्च वर्क वीथीसु निर्दिशेत् ||156 ||
शुक्र के सम्मुख और पीछे पाँच-पाँच प्रकार के अस्त हैं । मार्गी होने परं सन्ध्या होती हैं तथा दकी का कथन भी वीथियों में अवगत करना चाहिए ।।15611 त्रैमासिक: प्रवासः स्यात् पुरस्तात् दक्षिणे पथि । पञ्चसप्ततिर्मध्ये स्यात् पञ्चाशीतिस्तथोत्तरे |11570 चतुविशत्यहानि स्युः पृष्ठतो दक्षिणे पथि । मध्ये पञ्चदशाहानि षडहान्युत्तरे पथि ॥158|
दक्षिण मार्ग में शुक्र का सम्मुख वैमासिक अस्त है, मध्य में 75 दिनों का और उनर में 85 दिनों का अस्त होता है। दक्षिण मार्ग में पीछे की ओर 24 दिनों का, मध्य में पन्द्रह दिनों का और उत्तर मार्ग में 6 दिनों का अस्त होता है 11157 1581
:1
ज्येष्ठानुराधयोश्चैव द्वौ मासौ पूर्वतो विदुः असते बुधैः ॥15911
ज्येष्ठा और अनुराधा में पूर्व की ओर से द्विमास - दो महीनों की ओर पश्चिम से आठ रात्रि की सन्ध्या विद्वानों द्वारा प्रतिपादित की गयी है ।। 59
मूलादिदक्षिणो मार्गः फाल्गुन्यादिषु मध्यमः ।
उत्तरश्च भरण्यादिर्जघन्यो मध्यमोऽन्तिमौ ॥16031
गुलादि नक्षत्र में दक्षिण मार्ग, पूर्वाफाल्गुनी आदि नक्षत्रों में मध्यम और भरणी आदि नक्षत्र में उत्तर मार्ग होता है । इनमें प्रथम मार्ग जघन्य है और अंतिम दोनों मध्यम हैं 111601
वामो वदेत यदा खारों विशकां त्रिशकामपि । करोति नागवीयस्थो भार्गवश्चारमार्गगः ।।1611
नागवीथि में विचरण करने वाला बागगत शुक्र दश, बीस और तीस खारी अन्न का भाव करता है ।11610
विशका त्रिशका खारी चत्वारिंशतिकाऽपि वा । वामे शुक्रे तु विज्ञेया गजवीथीमुपागते ।।162।।
1 द्विभाग 12 कामोऽथ दशा सुरु | 3. मागंतः मु० ।
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पंचदशोऽध्यायः
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गजवीथि में विचरण करने वाला बाम शुक्र बीस, तीस और चालीस खारी प्रमाण अन्न का भाव करता है ।।1621
ऐरावणपथे त्रिशच्चत्वारिंशदथापि वा।
पंचाशीतिका ज्ञेया खारी तुल्या तु भार्गवः ।।16311 ऐरावणवीथि में विचरण करने वाला शुक्र तीस, चालीस और पचासी खारी । प्रमाण अन्न का भाव करता है ।। 163॥
विशका त्रिशका खारी चत्वारिंशतिकाऽपि वा।
व्योमगो वोथिमागम्य करत्यण भागवः ॥1॥ वीस, तीम और चालीस स्वारी प्रमाण अन्न का भाव व्योमबीथि में ममा करने वाला शक्र करता है ।।16411
चत्वारिंशत् पंचाशद् वा पष्टि' वाऽथ समादिशेत् ।
जरदगवपथं प्राप्ते भार्गवे खारिसंज्ञया ।।165॥ जरद्गव वीथि को प्राप्त होने वाला शुक्र चालीग, पत्राम और साठ खारी प्रमाण अन्न का भाव करता है ।। 1 6511
सप्तति चाथ वाऽशोति नति वा तथा दिशेत् ।
अजवीथीगते शुक्रे भद्रबाहुवन्नो यथा ॥166॥ अजवोधि को प्राप्त होने वाला शुक्र सनर, अम्मी अथवा नन्य खारी प्रमाण अन्न का भाव करता है, ऐमा भद्रबाहु बरामी का बचन है !!! 66.6।।
विशत्यशीतिका खारि तिकामप्ययथा दिशेत् ।
मगवीयोमुपागम्य विवर्णो भार्गवो यदा।।1671 जब शक्र विवर्ण होकर मृगवीथि को प्राप्त करता है तो बीम, अस्सी अथवा सो खारी प्रमाण अन्न का भाव होता है। 16711
विच्छिन्नविषमणालं न च पुष्पं फलं यदा।
वैश्वानरपर्थ प्राप्तो यदा वामस्तु भार्गव: ।।16811 जब वाममश्च गुरु वैश्वानर वीथि में गमन करता है तब कमन्न का डण्ठल, विसपत्र, पुल और फल उहाल नहीं होते हैं ।। 1.६।।
.
: मार्ग, विणता वा
1. सामगो पर । ?. काग न गागं च पु. । 3 दा भया ।
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भद्रबाहुसंहिता
अनुलोमो विजयं ब्रूते प्रतिलोमः पराजयम् ।
उदयास्तमने शुक्रो बुधश्च कुरुते तथा ।।1691 शुक्र और बुध अनुलोम उदय, अस्त को प्राप्त होने पर विजय करते हैं और प्रतिलोम उदय, अस्त को प्राप्त होने पर पराजय ।।16911
मार्गमेकं समाश्रित्य सभिक्षक्षेमदस्तथा ।
उशना दिशतितरां सानुलोमो न संशयः ।।1700 शुक्र सीधी दिशा में एक-सा ही गमन करता है तो निस्सन्देह मुभिक्ष और कल्याण देता है ।।17011
यस्य देशस्य नक्षत्रं शुक्रो हत्याहिकारगः ।
तस्मात् भयं परं विन्द्याच्चतुर्मासं न चापरम् ।।1710 वित होकर शुक्र जिस देश के नक्षत्र का घात करता है, उस देश को, उस घातित होने वाले दिन से चार महीने तक भय होता है, अन्य कोई दुर्घटना नहीं घटती है ।।7।।
शुक्रोदये ग्रहो याति प्रवासं यदि कश्चन ।
क्षेमं सभिक्षभाचष्टे: सर्ववर्षसमस्तदा ।11721 शुक्र के उदय होने पर यदि कोई ग्रह अस्त हो जाय तो मुभिक्ष, कल्याण और गमयानुकूल यचाट वर्षा होती है राधा बर्ष भर एक-मा आनन्द रहता है ।। 1720
बलक्षोभो भवेच्छ्यामे प्रत्यः कपिलकृष्णयोः ।
नोले गवां च मरणं रूक्षे वृष्टिक्षय: क्षुधा ।।।73॥ यदि शुक्र ग्याभवर्ण का हो तो बल अब्ध होता है । पिंगन और कृष्ण वर्ण का शुक्र हो तो मृत्यु, नीलवर्ण ना होने पर मायों का भरण और रूक्ष होग पर बर्षा का माश तथा शुधा को बना का मुच होता है ।।1 731
वाताक्षिरोगो मामिष्ठं पोते शुक्र ज्वरो भवेत् ।
कृष्णे विचित्रे वर्णे च क्षयं लोकस्य निर्दिशेत् ।।17411 शुक्र के मंजिष्ट वर्ण होन पर बात और अक्षिरोग, पीतवर्ण होने पर ज्वर और विचित्र का वर्ण होने पर लोग का भय होता है ।। 1 74।।
I. तया जिसमाया: प.। 2. मारमान १० । 3. गहना 3. तु • I
नया प० ।
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पंचदशोऽध्यायः
नमस्तृतीयभव आहे त्वरित का नक्षत्राणि च चत्वारि 'प्रवासमारुहश्चरेत् ॥175
जब शुक्र शीघ्र ही आकाश के तृतीय भाग का आरोहण करता है तब चार नक्षत्रों में प्रवाम अस्त होता है ।। 175 ।।
एकोनविंशदृक्षाणि मासानष्टौ च भार्गवः । चत्वारि पृष्ठतश्चारं प्रवासं कुरुते ततः 11176
जब शुक्र आठ महीनों में उन्नीस नक्षत्रों का भोग करता है, उस समय पीछे के चार नक्षत्रों में प्रयास करता है ||17611
द्वादशकोनविंशद्वादशाहं सेव भार्गवः । एकैकस्मिश्च नक्षत्रे चरमाणोऽवतिष्ठति ॥177
शुक्र एक नक्षत्र पर घारह दिन, दस दिन और उन्नोग दिन तक विचरण करता है ।। 177।।
वक्रं याते द्वादशाहं समक्षेत्रे दशाह्निकम् । शेषेषु पृष्ठतो विन्द्यात् एकविंशमहोनिशम् ॥11783
वक्र मार्ग में भी होने पर शुक्र को बारह दिन और राम क्षेत्र में दस दिन एक नक्षत्र के भोग में लगते हैं। पीछे की ओर गमन करने में उन्नीस दिन एक नक्षत्र के भोग में व्यतीत होने है 17SH
.
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पूर्वतः समचारेण पंच पक्षेण भार्गवः ।
'दा करोति कौशल्यं भवावचो यथा ॥1179।।
पूर्व में गमन करता हुआ शुरु गाँव पक्ष अर्थात् 75 दिनों में कोशल करता है, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।। [79।।
तत: पंचदशक्षण सञ्चरत्ना पुनः । एभिर्मासैस्ततो जयः प्रवास पूर्वतः परम् ॥18॥
इसके पश्चात् पन्द्रह नक्षत्र चलता है और हटता है। इस प्रकार छः महीनों में पुनः प्रधान को प्राप्त हो जाता 11800
द्वाशीत चतुराशीति पडशीति च भार्गवः । भक्तं समेषु भागेषु प्रवासं कुरुते समम् ।।sin
1. वासस्याण. पु. 2. ČENÚ, E15 qzmegmes H-16. 99: 401
3० । 4. पनाह
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भद्रबाहुसंहिता
82, 84 और 86 दिनों में समान भाग देने पर शुक्र का समान प्रवास आ जाता है ।।18 11
द्वादशाहं च विशाहं दशपंच च भार्गवः ।
नक्षत्रे तिष्ठते त्वेवं समचारेण पूर्वत: ।।8।। बारह दिन, जीम दिन और पन्द्रह दिन शुक्र एक नक्षत्र पर पूर्व दिशा से वित्त गण करने पर निवास करता है ।। 1 8211
पाशं वातं रजो धर्म शीतोष्णं वा प्रवर्षणम् ।
विधुदुल्काश्च कुरुते भार्गवोऽस्तमनोदये ।।४।। शुक्र का अम्ल होगा धुनि, बर्षा, धूम, गर्मी और ठण्डक का पड़ना, विद्युत्पात और उल्कापात आदि फलों को बारता है ।। 83।। सितकुसुमनिभस्तु भार्गव: प्रचलति वीथीषु सर्वशो यदा वै । घटगृहजलपोतस्थितोऽभूद् बहुजलकन्च तत: सुखदश्चारु ॥18401
श्वेत गृहपों के मामान वर्ण वाला शुत्र वीथियों में गमन करता है, तो निश्चय से ग़भी ओर व जलवृष्टि होती है तथा वर्ष सुस्व देने वाला और आनन्ददायी व्यतीत होता है ।। 1 8411
अत ऊदध्वं प्रवक्ष्यामि चक्रं चारं निबोधत ।
भार्गवस्य समासेन तथ्यं निर्ग्रन्थभाषितम्।।। 85।। इसके पश्चात् शुक्र के बकचार र निमाण मांक्षेप में किया जाता है, जैमा कि निम्रन्थ मुनियों ने वर्णन किया है ।।। 8.51
पूर्वेण विशऋक्षाणि पश्चिमेकोनविंशतिः ।
चरेत प्रकतिचारेण समं 'सीमानिरीक्ष्योः 1186॥ .. गीमा निगक्षण में स्वाभाविक गति से पूर्व में वीस नक्षत्र और पश्चिम में उन्नीरा नक्षत्र गमन करता है ।।186
एकविशं यदा गत्वा याति विशतिमं पुनः ।
भार्गवो स्तमने काले तद्वकं विकृतं भवेत् ।। 187।। अस्त काल में इक्कीसवें नम लक गहुँचकर शक एनः बीसवे नक्षत्र पर आता है, इसी लौटने की गति को उमा विकृत वक्र कहा जाता है ।। 187।।
J. बंदणदः , 10; 2. पन म | 3. नानिम्कियो: म ।
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भद्रबाहुसंहिता
दिति तु यदा गत्वा पुनरेकोनविंशतिम् ।
आयात्यस्तमने काले वायव्यं बक्रमुच्यते ।।19411 जब शुक्र अस्तकाल में बीमवें नक्षत्र पर जाकर पुन: उन्नीसवें नक्षत्र पर लौट आता है तो उसे वायव्यवक्र कहते हैं ।। 19411
वायुवेगसमां विन्द्यान्महीं वातसमाकुलाम् ।
क्लिष्टामल्पेन जलेन अनेनान्येन सर्वशः ।।195॥ उक्त प्रकार के वायव्यवक्र में पृथ्वी वायु से परिपूर्ण हो जाती है तथा वायु का ओर अत्यधिक रहता है, अल्प वर्षा होने से पृथ्वी जल से परिपूर्ण हो जाती है तथा अन्य राष्ट्र के द्वारा प्रदेश आक्रान्त हो जाता है ।। 195।।
एकविति यदा गत्वा पुनरेकोनविंशतिम् ।
आयात्यस्तमने काले भस्म तद् वक्रमुच्यते ।।196।। अस्त काल में यदि शुक्र इक्कीसवें नक्षत्र पर जाकर पुन: उन्नीसवें नक्षत्र पर. लौट आता है तो उस भस्मवक्र कहते हैं ।। 196il
ग्रामाणां नगराणां च प्रजानां च दिशो दिशम्।
नरेन्द्राणां च चत्वारि भस्मभूतानि निदिशेत् 11197॥ इस प्रकार के बक्र में ग्राम, नगर, प्रजा और राजा ये चारों भस्मभूत हो जाते हैं अर्थात् बह वक्र अपने नामानुसार पल देता है ।। 1971
एतानि पंच वक्रानि कुरुते यानि भार्गवः ।
अतिचारं प्रवक्ष्यामि फलं यच्चास्य किचन ॥18॥ इस प्रकार शुक्र वा पाँच-पांच वनों का निरूपण किया गया है। अब अतिचार के किंचित् फलादेश के साथ वर्णन किया जाता है ।। 198।।
यदातिक्रमते चारमुशना दारुण फलम् ।
तदा सृजति लोकस्य दुःखरलेशभयावहम् ।।199।। यदि शुक्र अपनी गति बार अतिक्रमण को तो यह उसका अतिचार कहलाता है, इसका फल संसार को दुःख, कलश, भय आदि होता है । 1990
तदाऽन्योन्यं तु राजानो ग्रामांश्च नगराणि च । समयुक्तानि बाधन्ते नष्टयम-जयाथिनः ।।2001
1. जटा मालयन बानगुरू | 2, धावाना पु० । 3. नाष्टक म ।
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पंचदशोऽध्यायः
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शुक्र के अतिचार में राजा ग्राम और नगर धर्म से च्युत होकर जय की अभि। लाषा से परस्पर में दौड़ लगाते हैं अर्थात् परम्पर में संघर्षरत होते हैं ।1200।
धर्मार्थकामा लुप्यन्ते जायते वर्णसंकरः ।
शस्त्रेण संक्षयं विन्द्यान्महाजनमतं तदा ॥201॥
राष्ट्र में धर्म, अर्थ और काम लुप्त हो जाते हैं और सभी धर्म भ्रष्ट होकर | वर्णसंकर हो जाते हैं तथा शस्त्र द्वारा क्षत्र-विनाश होता है 1120 111
मित्राणि स्वजना: पुत्रा गुरुद्वथ्या जनास्तथा।
जहाँत प्राणवांश्च कुरुते लाशेन यत् ॥2021 शुक्र के अतिचार में लोगों की प्रवृनि इस प्रकार की हो जाती है जिसमें वे आपस में द्वेष-भाव करने लगते हैं तथा fra, गुटम्बी, पुत्र, भाई, गुरु आदि भी द्वेष में रत रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि अपने वर्ग-जाति मर्यादा एवं प्राणों का त्याग कर देने हैं । तात्पर्य यह है कि दुराचार की प्रवृत्ति बढ़ जाने से जाति-मर्यादा का लोप हो जाता है 12721
विलीयन्ते च राष्ट्राणि भिक्षण भयेन च ।
चक्र प्रवर्तते दुर्ग भार्गवस्यातिचारत: ।1203। शुक्र के अतिचार में दुभिक्ष और भय ग गाद विलीन हो जाते हैं और दुर्ग के ऊपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा होती है नया यह अन्य चक्र शासन के अधीन हो जाता है।1203॥
तत: श्मशानभूतास्थिकृष्णभूता मही तदा।
वसा-धिरसंकुला कागधसमाकुला ।।204।। पृथ्वी भगान भूमि वन जानी है, गर्नाओं की भ म रो करण हो जाती है तथा मांम, रुधिर और चर्बी ग युक्त होने के कारण काका, गाल और गृद्धा या युक्त हो जाती है 11 2040
वाण्युक्तानि सर्वाणि फलं यच्चातिचारकम् ।
वक्रचार प्रवक्ष्यामि पुनरस्तमनोदयात् ।।205।। जो फल सभी प्रकार के वनों का बहा गया है, वह अतिचार में भी घटित होता है । अब अस्त काल में पुनः वक्रचार का निरूपण करते हैं ।। 20511
1. जहान्स गुरु ।
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भद्रबाहुसंहिता
वैश्वानरपथं प्राप्त: पूर्वतः प्रविशेद यदा।
षडशीति तदाऽहानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ।। 206॥ जब शुक्र वैश्वानरपथ में पूर्व की ओर से प्रवेश करता है तो 86 दिनों के पश्चात् पीछे की ओर दिखलाई पड़ता है ।।206।।
मगवीथीं 'पन प्राप्त: प्रतापदि गति !
चतुरशीति तदाऽहानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ।।207॥ ___ यदि शुक्र मगवीथि को दुबारा प्राप्त होकर अस्त हो तो 84 दिनों के पश्चात् पीछे की ओर दिखलाई पड़ता है ।।207॥
अजवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं यदि गच्छति ।
अशोति पडहानि तु गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ।।20811 यदि शुभ अजीथि को पुनः प्राप्त कर अस्त हो तो 86 दिनों के पश्चात् पीछे की ओर दिखलाई पड़ता है ।।208||
जरदगवपथप्राप्त: प्रवास यदि गच्छति ।
सप्तति पंच वा हानि गत्वा दश्वेत पृष्ठतः ।1209।। यदि शुक जरगवय को प्राप्त होकर प्रवास कर तो 75 दिनों के पश्चात् पीछे की ओर दिखलाई पड़ता है ।। 209॥
गोवीथों समनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा। ___ सप्तति तु तदाऽहानि गत्वा दृश्येत पृष्ठत: 1210॥ गावीथि को प्राप्त होकर शुत्र प्रवास करे तो 70 दिनों के पश्चात् पो की ओर दिखलाई पड़ता है ।। 2 1 UR
वृषवीथिमनुप्राप्त: प्रवासं कुरुते यदा।
पंचष्टि तदाऽहानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ।।211।। पवीथि को प्राप्त होकर शुक्र प्रवास करे तो 6 5 दिनों के पश्चात् पीछे की ओर दिउलाई पड़ता है ।1 21 1।।
एरावणपथं प्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा।
ष्टि तु स तदा हानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ॥22॥ रावणवीशि को प्राप्त हो कर प्रवामा करे तो 60 दिनों के पश्चात् पीछे
अया।
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पंचदशोऽध्याय:
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__ की ओर दिखलाई पड़ता है ।।2 1211
गजवीथिमनुप्राप्त: प्रवासं कुरुते यदा।
पंचाशीति तदा हानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ।।213।। गजवीथि को गुन. प्राप्त होकर शुक्र प्रवास करे तो 85 दिनों के पश्चात् पीछे की ओर दिखलाई पड़ता है ।12 1311
नागवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा।
पंचपंचाशत्तदाहानि गत्वा दृश्येत षष्ठतः ॥2141 नागीथि को पुनः प्राप्त होनार शुक्र प्रवास करे तो 55 दिनों के पश्चात् पीछे ___ की ओर दिखलाई पड़ता है 112 1 411
वैश्वानरपथं प्राप्त: प्रवासं कुरुते यदा।
चतुविशत्तदा हानि मत्वा दृश्येत पूर्वतः ।।215॥ वैश्वानर पप्राप्त होपार शुक्र प्रवास करे तो 24 दिनों के पश्चात् पूर्व __की ओर दिखलाई पड़ता है ॥21511
मगवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा।
द्वाविंशति तदाहानि गत्वा दृश्येत पूर्वत: ॥216।। शुक्र जन मृगवीथिको पुन: प्राप्त होकर अस्त हो ता 22 दिनों के पश्चात पूर्व की ओर दिलाई गढ़ता है ।। 2 16॥
अजवोथिमनुप्राप्त: प्रवासं कुरुते यदा।
तदा विशतिरात्रेण पूर्वतः प्रतिदृश्यते 12 171 ___ शुत्रा जब अजमाथि को पुनः प्राप्त होणार अस्त हो तो 24 जिया काचा पूर्व की ओर उदय होता है ।121710
जरदगवपथं प्राप्तः प्रवासं करुते यदा ।
तदा सप्तदशाहानि गत्वा दृश्येत पूर्वतः ॥218॥ अब शुक्र जरद्गवपक्ष को प्राप्त हो कार. अस्त होता है तो 1 7 दिनों के पश्चात् पूर्व की और उदय होता है ॥218॥
गोवीथीं समनुप्राप्त. प्रवास कुरुते यदा।
चतुर्दशदशाहानि गत्वा दृश्येत पूर्वतः ।।219।। गोत्रीथि को प्राप्त होकर जब अस्त होता है तो बौयह दिनों पश्नान पूर्व की और उदय होता है ।।2 1911
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भद्रबाहुसंहिता
वृषवीथिमनुप्राप्त: प्रवासं कुरुते यदा।
तदा द्वादशरात्रेण गत्वा दृश्येत पूर्वत: ॥220॥ वृषवीथि को प्राप्त होकर जब शुक्र अस्त होता है तो 12 गत्रियों के पश्चात् पूर्व की ओर उदय होता है ।।220।
ऐरावणपथं प्राप्त: प्रवास कुरुते यदा।
तदा स दशरात्रेण पूर्वत: प्रतिदृश्यते ॥22॥
रावणवीधि को प्राप्त होकर जब शुक्र अन्त होता है तो 10 रात्रियों के पश्चात् पूर्व की ओर उदय को प्राप्त होता है । 2.2 111
गजवीथिमनप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा ।
अष्ट रानं तदा गत्वा पर्वत: प्रतिदृश्यते ॥2221 गजवीय को प्राप्त होकर यदि शुक्र अस्त हो तो अप्ट रात्रियों के पश्चात् पूर्व की ओर उदय को प्राप्त होता है ॥22211
नागवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं कुरुते यदा।
षडहं तु तवा गत्वा पूर्वत: प्रतिदृश्यते ।।2231 जब नागवीथि को पुन: प्राप्त होकर शुक्र अस्त हो तो 6 दिनों के पश्चात् पूर्व की ओर उदय को प्राप्त होता है 122311
एते प्रवासाः शुक्रस्य पूर्वतः पृष्ठतस्तथा ।
यथाशास्त्रं समुद्दिष्टा वर्ण-पाको निबोधत 12 241 शुक्र के ये प्रवाग अस्त पूर्व और पृष्ठ में यथाशास्त्र प्रतिपादित किये गये हैं । इसके वर्ण का फाल निम्न प्रकार ज्ञात करना चाहिए 112241
शुक्रो नोलश्च कृष्णश्च पीतश्च हरितस्तथा।
कपिलश्चाग्निवर्णश्च विजेय: स्यात् कदाचन ।।225।। शुक्र के नील, कृष्ण, पीस. हरित, कपिल- पिंगल वर्ण और अग्नि वर्ण होत है ।।225।।
हेमन्ते शिशिरे रक्त: शुक्रः सूर्यप्रभानुगः ।
पीतो वसन्त-ग्रीष्मे च शुक्ल: स्यान्नित्यसूर्यत: ॥?26।। हेमन्त और शिशिर ऋतु में शुक्र का साम वर्ग मयं की कान्ति के अनुसार होता है तथा वमन्त और ग्रीष्म में पीत वर्ण एवं नित्य सूर्य की कान्ति से शुक्र का शुल्क वर्ण होता है ॥2260
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पंचदशोऽध्याय
अतोऽस्य यथाभावा विपरीता भयावहाः । शुक्रस्य भयदो' लोके कृष्णे नक्षत्रमण्डले 1227
उपर्युक्त प्रतिपादित वर्णों में यदि विपरीत व शुक्र का दिखलाई पड़े तो भय प्रद होता है। शुक्र का कृष्णनक्षत्र मण्डल में प्रवेश करना अत्यन्त भयप्रद है । अर्थात् जिस ऋतु में शुत्र का जो वर्ण बतलाया गया है, उसे विपरीत वर्ण का दिखलाई पड़ना अशुभ फल सूचक होता है । 227।।
पूर्वोदये फलं यत् तु पच्यतेऽपरतस्तु तत् । शुक्रस्यापरतो यत्तु पच्यते पूर्वतः फलम् 11228।।
299
शुक्र के पूर्वोदय का जो फन हैं वही पश्चिमोदय में घटित होता है तथा शुक्र के मोदका जो फल है, वहीं पूर्वोदय में भी घटित होता है 11228 एवमेवं विजानीयात् फल-पाकी समाहितः । कालातीतं यदा कुर्यात् तदा घोरं समादिशेत् ॥ 2291 इस प्रकार शुक के फल चाहिए। जब शुक्र के उदय में कालातीत हो – विलम्ब हो तो अत्यन्त कष्ट होता है ॥2291 सवकचारं यो वेत्ति शुक्रवारं स बुद्धिमान् । श्रमणः स सुखं याति क्षिप्रं देशमपीडितम् ॥2300
को
जोश्रमण - मुनि शुक्र के चार, वक्र, उदय, अतिचार आदि को जानता है, वह बुद्धिमान् पीड़ित देश में विहार कर शीघ्र ही सुख प्राप्त करता है ।12301 यदाऽग्निवर्णो रविसंस्थितो वा वैश्वानरं मागंसमाश्रितश्चः। तदाभव शंसति सोऽजनि जातं तज्जातजं साधयितव्यमन्यतः ॥231॥
अत्र शुन अभिवर्थ हो अथवा सूर्य के अंशकला पर स्थित हो अथवा वैश्वानर वीथि में स्थित हो तो अग्नि का भय रहता है तथा अग्नि से उत्पन्न अन्य प्रकार के उपद्रवों को भी सम्भावना रहती है || 2311
इति सकलमुनिजनानन्दकन्दोदय महामुनिश्रीभद्रबाहुविरचिते महानिमितशास्त्रे भगत्रिलोकपतिर्दव्यगुरोः शुक्रस्य चाः समाप्तः ||15||
विवेचन - शुक्रोदय विचार – शुक्र का अश्विनी, मृगशिर, रेवती, हस्त, पुण्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण और स्वाति नक्षत्र में उदय होने से सिन्धु, गुर्जर,
1. चतुरा मु । 2. श्रिस्य 3. A
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भद्रबाहुसंहिता कर्वट प्रदेशों में खेती का नाश, महामारी एवं राजनीतिक संघर्ष होता है । शुक्र का उक्त नक्षत्रों में उदय होना नेताओं, महापुरुषों एवं राजनीतिक व्यक्तियों के लिए शुभ नहीं है । पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वापाढ़ा, पुर्वाभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाहा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी और भरणी इन नक्षत्रों में शुक्र का उदय होने से, जालन्धर और सौराष्ट्र में दुभिक्ष, विप्रह-गेवर्ष एवं गालिग, स्त्री राज्य और मरुदेश में मध्यम बर्षा और मध्यम फसल उत्पन्न होती है। घी और धान्य का भाव सम्पूर्ण देश में भूत पर होता है। शिका. II, आश्लेषा, विशाखा, शतभिषा, चित्रा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और मूल नक्षत्र में शुक्र का उदय हो तो गुर्जर देश में पुद्गल का भय, दुभिक्ष और द्रव्यहीनता; सिन्धु देश में उत्पात, मालब में संघर्ष आसाम, बिहार और दंग प्रदेग में भय, उत्पात, वर्षाभाव एवं महाराष्ट्र, द्रविड़ देश में गमिक्ष, समय पर बर्षा होती है। शुक्र का उक्त नक्षत्रों में उदय होना अच्छा माना जाता है। सम्पूर्ण देश का भविष्य की दृष्टि में आनारा, भरणी, विशाखा, पूर्वाभाद्राद और उत्तराभाद्रपद इन नक्षत्रों का उदय अशुभ, दुभिक्ष, हानि एवं अशान्ति करने वाला है। अवशार मभी नक्षत्रों का उदय शु एवं मंगल देने वाला
___ शुकास्त विचार..-अश्विनी. मृगशिर, हस्त, रेवती, पृष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण और स्वाति नक्षत्र में गुजा ना अस्त हो तो इटली, रोम, जापान में भूकम्प का भय: वर्धा, श्याम. चीन, अमेरिका में मुख-शान्ति; का, भारत में साथ राम शान्ति रहती है। देश के अन्तर्गत कारण, लाट और सिन्ध प्रदेश में अल्प वर्षा, सामान्य धान्य की उत्पति, उत्तर प्रदेश में अत्यल्प बाई, अकाल, दिई प्रदेश में विग्रह, गुजर देश में गमिक्ष, बंगाल में लाल, पहारी र आमाम में साधारण य, मध्या पिली उपजती है। भारत के उगल पन महीना का अन्न महंगा विकाता है, पश्चात् कुछ मरता हो जाता है। धी, जूट आदि पदार्थ सरत होत हैं। प्रजा को नु की प्राप्ति होती है । सभी लोग अमन-चन न. माथ निवास करते हैं । कृत्तिवा, मया. आपनपा. विशाखा, शतभिषा, चित्रा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और मूल नक्षत्र में भुना अस्त हो नो हिन्दुस्तान में विग्रह, मुसलिम राष्ट्रो में शान्ति एवं उनकी उन्नति, इंगलैंगर और अमेरिका में समता, भीन में मुभिक्ष, वर्मा में उना सल एवं हिन्दुस्तान गाधारण फसन्न होती है । मिथ देश के लिए इस प्रकार नाशकास्व भयोगमादक होता है, न का अभाव होन ग जनता को अत्यधिक होता है। समस्थल और सिन्ध देश में सामान्यतया भिक्ष होता है। मित्र राष्ट्रा के लिए उस प्रकार जुस अनिष्टकार है। भारत के लिए सामान्यतया अच्छा है । बर्षाभाव होने कारण देश में आन्तरिक अशान्ति रहती है तथा देश में सबका खानों की उन्नति होती है। गया में शुकास्त होकर विशात्रा में उदय को प्राप्त कर तो देश ६ लिए सभी तरह ग भयोलगादक होता
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पंचदशोऽध्यायः
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है। तीनों पूर्वा-पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वाषाढ़ा, उत्तरफाल्गुनी, उत्तरापाढ़ा, उत्तराभाद्रपद-रोहिणी और भरणी नक्षत्रों में शुक्रवा अस्त हो तो पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, विन्ध्यप्रदेश के लिए गुभिक्षदायत्रः, किन्तु इन प्रदेशों में राजनीतिक संघर्ष, धान्य भाव सस्ता तथा उक्त प्रदेशों में गेग उत्पन्न होते है । बंगाल, आसाम और बिहार, उड़ीसा के लिए उक्त प्रकार का शुभास्त शुभकारक है। इन प्रदेशों में धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती है। धन-धान्य की गनित दिगत होती है । अन्न का भाव सस्ता होता है। शुक्र का भरणी नक्षत्र पर अस्त होना पशुधों के लिए अशुभकारक है। पशुओं में नाना प्रकार के रोग फैलगे हैं तथा धान्य और तृण दोनों का भाव महंगा होता है। जनता को वाट होता है, राजनीति में परिवर्तन होता है । शुक्र का मध्यरात्रि में अस्त होना तथा आश्लेषाविद्ध मघा नक्षत्र में शुक्र का उदय और अस्त दोनों ही अशुभ होते हैं : इग प्रकार की स्थिति में जनसाधार] को भी कार होता है। ____ शुक के ममन की नौ वीथियाँ है ...नाग, गज, शिवत, वृषभ, गो, जन्दगव, मग, अज और दहन-वैश्यानर, ये वीथियां अग्विनी आदि नीन-तीन नक्षयों की मानी जाती हैं । विगी-विमी के मन में स्वाति, भरणी और वाति का नक्षत्र में नागवीथि होती है। गज, ऐगवत और वपम नामर वीथियों में रोहिणी से उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र तक तीन-तीन बीथियां हुआ करती है तथा अश्विनी, रेवती, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में गोत्री थि है। श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र में जगद्गवः बीथि: अनुराधा, ज्याठा और मूल नक्षत्र में मुगवीथि; हस्त, विशाखा और चित्रा नक्षत्र में अजबीथि 1 यूपढ़ा और दागपादा में दहन वीथि होती है। शुक्र का भरणी नक्षत्र में उनरमार्ग, पूर्वाफाल्गुनी रो मध्यममार्ग
और पूर्वागाठा में दक्षिणमार्ग माना जाता है। जब उन रवीथि में शुक्र अस्त या उदय को प्राप्त होता है, तो प्राणियों के सुख सम्पत्ति और धन-धान्य की वृद्धि करता है। मध्यम वीथि में रहने में शुक्र मध्यम फल देता है और जनन्य या दक्षिण वीथि में विद्यमान शुक्र कष्टप्रद होता है । आर्द्रा नक्षत्र मे आरम्भ करके मृगशिर तक जो नौ वीथियाँ हैं, उनमें णुनः का उदय या अस्त होने में यथानम में अत्युत्तम, उत्तम, ऊन, सम, मध्यम, रन, अधग, कष्ट और काटतम फल उत्पन्न होता है। भरणी नक्षत्र से लेकर चार नक्षत्रों में जो मण्डल- बीथि हो, उसकी प्रथम वीथि में शुक्र या अस्त या उदय होने में मुभिक्ष होता है, किन्तु अंग, बंग, कलिंग और वाली। देश में भय होता है । आर्द्रा में लेकर चार नक्षत्रा-आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य
और आपलेपा इन चार नक्षत्रों के मण्डल में शुक्र का उदय या अस्त हो तो अधिक जल की वर्षा होती है, धन-धान्य सम्पत्ति वृद्धिंगत होती है। प्रत्येक प्रदेश में शान्ति रहती है, जनता. में सौहार्द्र और प्रेम का संचार होता है । यह द्वितीय मण्डल उनम माना गया है। अर्थात शुक्र का भरगी से मृगशिरा नक्षत्र तक प्रथम
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भद्रबाहुसंहिता
विनाश करता है तथा वाम ओर से गमन करने वाला शुक्र भयंकर रोग उत्पन्न करता है || 14311
यदा भाद्रपदा सेवेत् धूर्तान् दूतांश्च हिंसति । मलयान्मालवान् हन्ति मर्दना रोहणे तथा ।। 1440
पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में स्थित शुक्र धूर्त और दूतों की हिंसा करता है तथा मर्दन और आरोहण करने वाला शुक्र मलय और मालवानों की हिंसा करता है ।।।44।। दूतोपजीविनो वैद्यान् दक्षिणस्थः प्रहिसति ।
वामगः स्थावरान् हन्ति भद्रबाहुवचो यथा ||1450
दक्षिस्य शुक्र दौत्य कार्य द्वारा आजीविका करने वालों और वैद्यों का घात करता है तथा वामस्थ शुक्र स्थविरों की हिंया करता है, ऐसा भद्रवाह स्वामी का वचन है ।। 1451।
उत्तरां तु यदा सेवेज्जलजान् हिंसते सदा । वत्सान् वाह्लोकगान्धारानारोहणप्रमर्दने ॥146
उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में स्थित एक जलज- -जलनिवासी और जल में उत्पन्न प्राणियों का घात करता है। इस नक्षत्र में आरोहण और प्रमर्दन करने वाला शुक्र वत्स्य वाचक और गान्धार देशों का विनाश करता है || 14611
1
1
दक्षिणे स्थावरान् हन्ति वामनः स्याद् भयंकरः । 'मध्यगः सुप्रसन्नश्च भार्गवः सुखमावहेत् ||1470
होता
दक्षिणस्थ शुक्र स्थावरों का विनाश करना है और वामग शुक्र भयंकर है । मध्यग शुक्र प्रसन्नता और सुख प्रदान करता है । 147 ।। भयान्तिकं नागराणां नागरांश्चोप हिंसति ।
भागवो रेवतीप्राप्तो दुःप्रभश्च कृशो यदा ॥148॥
रेवती नक्षत्र को प्राप्त होने वाला शुक्र नागरिक और नगरों के लिए जय और आतंक करने वाला है ।। 148 ।।
मर्दनारोहणं हन्ति नाविकानथ नागरान् ।
दक्षिणो गोपकान् हन्ति चोत्तरो" भूषणानि तु ।। 149
रेवती नक्षत्र को मर्दन और आरोहण करने वाला शुक्र नाविक और नागरिकों की हिंसा करता है। दक्षिणस्थ शुक्र गोपों का घात करता है और उत्तरस्थ भूपणों का विनाश करता है || ! 49 |
1. मध्यमः " 1 2. उत्तरे मु
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भद्रबाहुसंहिता महापिपीलिकाराशिविस्फुरन्ती विपद्यते ।
उह्यानुत्तिष्ठते यत्र तत्र विन्द्यान्महद्भयम् ॥3॥ जहाँ अत्यधिक चींटियों का समूह विस्फुरित- काँपते हुए मृत्यु को प्राप्त हो और उह्य-क्षत-विक्षत-घायल होकर स्थित हो, वहीं महान् भय होता है ।। 53||
श्वश्वपिपीलिकावन्दं निम्नवं विसर्पति ।
वर्ष तन्त्र विजानीयाभद्रबाहुवचो यथा ॥540 जहाँ चीटियाँ रुप बदल कर--पंख बाली होकर नीचे से ऊपर को जाती हैं, वहां वर्षा होती है, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।।5411
राजोपकरणे भग्ने चालते पतितेऽपि वा।
क्रव्यादसेवने चैव राजपीडां समादिभेत् ।।5511 ___राजा क उपकरण-छत्र, चमर मुगुट आदि के भग्न होने, चलित होने या गिरने गे तथा मांसाहारी के द्वारा सेवा करने में राजा पीड़ा को प्राप्त होता है।।550
वाजिवारणयानानां मरणे छेदने दुते ।
परचक्रागमात् विन्धादुत्पातजो जितेन्द्रियः ॥56॥ घोडा, हाथी आदि सवारियों के अचानक मरण, घायल या छेदन होने से जितेन्द्रिय उत्पात शास्त्र के जानने वाले को परशासन का आगमन जानना चाहिए 15611
क्षत्रिया: पुष्पितेश्वत्ध ब्राह्मणाश्चाप्युदुम्बरे।
वैश्या: प्लक्षज्य पीड्यन्ते न्यग्रोधे शूद्रवस्यवः ।।57॥ असमय में पीपल के पेड़ के पुगित होने से ब्राह्मणों को उम्बर के वृक्ष के पुषित हनि ग क्षत्रियों को, पाकर वृक्ष के गुपित होने से वंश्यों को और वट वृक्ष के पुषित होने से शुदों को पीड़ा होती है 1157।।
इन्द्रायुधं निशिश्वेतं विप्रान् रक्तं च क्षत्रियान् ।
निहन्ति पीतकं वैश्यान् कृष्णं शूद्रभयंकरम् ।।58।। गधि में इन्द्रधनुप यदि श्वेत रंग का हो तो ब्राह्मणों को, लाल रंग का हो तो क्षत्रियों को, नीले रंग का हो तो वैश्यों को और काले रंग का हो तो शुद्रों को भयदायक होता है ।। 5811
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चतुर्दशोऽध्यायः
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मज्यते नश्यते तत्तु कम्पते शीर्यते जलम् ।
चतुर्मासं परं राजा म्रियते भज्यते तदा ।।591 पदि इन्द्रधनुष भग्न होता हो, नष्ट होता हो, काँपता हो और जल की वर्षा करता हो तो राजा चार महीने के उपरान्त मृत्यु को प्राप्त होता है, या आघात । को प्राप्त होला है 1159।।
"पितामहर्षय: सर्वे सोमं च क्षतसंयुतम् ।
त्रैमासिकं विजानीयादुत्पातं ब्राह्मणेषु वै ॥6॥ पिता, महर्षि तथा चन्द्रमा यदि क्षत-विक्षत दिखलाई पड़े तो निश्चय से — ब्राह्मणों में त्रैमासिक उत्पात होता है ।।6।।
रूक्षा विवर्णा विकृता यदा सन्ध्या भयानका ।
मारौं कुर्युः सुविकृतां पक्षत्रिपक्षकं भयम् ।।6।। यदि सन्ध्या रुक्ष, विकृत और विवश हो तो नाना प्रकार के विकार और मरण को करने बाली होती है तथा एक पक्ष या तीन पक्ष में भय की प्राप्ति भी होती है ।।61।।
यदि वैश्रवणे कश्चिदुत्पातं समुदीरयेत् ।
राजनश्च सचिवाश्च पञ्चमासान् स पोडयेत् ॥62॥ यदि गमन समय में ... राजा को युद्ध के लिए प्रस्थान करते समय कोई उत्पात दिखलाई पड़े तो गाजा और मन्त्री को गांच महीने तक कष्ट होता है 11620
यदोत्पातोऽयमेकश्चिद दश्यते विकत: क्वचित् ।
तदा व्याधिश्च मारी च चतुर्मासात् परं भवेत् ॥63॥ यदि कहीं कोई विकृत उत्थान दिग्वलाई पड़े तो इस उत्पात-दर्शन के चार ____ महीने के उपरान्त व्याधि और मरण होता है ।। 63।।
यदा चन्द्र वरुणे बोत्यात: कश्चिदुदीर्यते । मारक: सिन्धु-सौवीर-सुराष्ट्र-वत्सभूमिषु ॥6411 भोजनेषु' भयं विन्ध्रात् पूर्वे च म्रियते नृपः । पञ्चमासात् परं विन्धान भयं घोरभुपस्थितम् ॥65॥
1.4 4 वाघमंग म् 1 2. म् म । 3 44 बरवणे चपन कश्चिदुपात: समुदायत । 4. भाग च म ।
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भद्रबाहुसंहिता
यदि चन्द्रमा या वरुण में कोई उत्पात दिखलाई पड़े तो सिन्धु देश, सौवीर देश, सौराष्ट्र -- गुजरात और वत्सभूमि में मरण होता है। भोजन सामग्री में भय रहता है और राजा का गरण पूर्व में ही हो जाता है । पाँच महीने के उपरान्त वहाँ घोर भय का संचार होता है अर्थात भय व्याप्त होता है 464-6511
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रुद्र े च वरुणे कश्चिदुत्पातः समुदीयते ।
सप्तपक्षं भयं विन्द्याद् ब्राह्मणानां न संशय: 16611
शिवजी और वरुणदेव की प्रतिमा में यदि किसी भी प्रकार का उत्पात दिखलाई पड़े तो वहाँ ब्राह्मणों के लिए सात पक्ष अर्थात् तीन महीना पन्द्रह दिन) का भय समझना चाहिए, इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है ॥66॥ इन्द्रस्य प्रतिमायां तु यद्युत्पातः प्रदृश्यते ।
संग्रामे त्रिषु मासेषु राज्ञः सेनापतेर्वत्र: 1167
यदि इन्द्र की प्रतिमा में कोई भी उत्पात दिखलाई पड़े तो तीन महीने में संग्राम होता है और राजा या सेनापति का बध होता है ||67 ॥
यद्युत्पातो बलन्देवे तस्योपकरणेषु च ।
महाराष्ट्रान् महायोद्धान् सप्तमासान् प्रपीडयेत् ॥68॥
यदि बनदेव की प्रनिया या उसके उपकरणों – छत्र, चमर आदि में किसी भी प्रकार का उत्पात दिखलाई पड़े तो सात महीनों तक महाराष्ट्र के महान् योद्धाओं को पीड़ा होती है ||४||
वासुदेवे यत्पातस्तस्योपकरणेषु च ।
चक्रारूढाः प्रजा ज्ञेयाश्चतुर्मासान् वधो नृपे ||65
वासुदेव की प्रतिमा उसके उपकरणों में किसी भी प्रकार का उत्पात दिखलाई पड़े तो प्रजा चकारूद - पड्यन्त्र में तल्लीन रहती है और चार महीनों में राजा का वध होता है 69 ||
प्रद्युम्ने वा उत्पातो गणिकानां भयावहः । 'कुशीलानां च द्रष्टव्यं भयं चेद्वाऽष्टमासिकम् ॥701
प्रद्युम्न की मूर्ति में किसी प्रकार का उत्पात दिखलाई पड़े तो वेश्याओं के लिए अत्यन्त भय कारक होता है और कुगील व्यक्ति के लिए आठ महीनों तक भय बना रहता है ॥7॥
1. later
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चतुर्दशोऽध्यायः
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यदार्यप्रतिमायां तु किञ्चिदुत्पातजं भवेत् ।
चौरा मासा त्रिपक्षाद्वा बिलीयन्ते 'रुदन्ति वा॥711 यदि सूर्य की प्रतिमा में कुछ उत्पात हो तो एक महीन या तीन पक्ष - डेढ । महीने में चोर विलीन हो जात-नष्ट हो जाते हैं या विलास करते हुए दु ख को ( प्राप्त होते हैं 171॥
यद्युत्पातः श्रियाः कश्चित् त्रिमासात् कुरुते फलम् ।
वणिजां पुष्पबोजानां वनितालेख्यजीविनाम् ॥721 यदि लक्ष्मी की मूर्ति में उत्पात हो तो इम उत्पात का फल तीन महीने में प्राप्त होता है और वैश्य .. व्यापारी वर्ग, पुष्प, बीज और लिवनार आजीविका करने वालों की स्त्रियों को करट होता है ।।721
बीरस्थाने श्मशाने च यथुत्पात: समोर्यते ।
चतुर्मासान् क्षुधामारी पांड्यन्त च अतस्ततः ।।73|| वीरभूमि या श्मशानभूमि में यदि उगान दिखलाई पड़े तो चार महीने तक क्षुधामारी-भुखमरी से इधर-उधर की गभस्त जनता पारित होती है ।1731
यद्युत्पाता: प्रदृश्यन्ते विश्वकर्माणमाश्रिताः ।
पीड्यन्ते शिल्पिना सर्व पञ्चमासात्परं भयम् ।।7411 यदि विश्वका में किसी भी प्रकार का रूपात दिसलाई पड़े तो सभी १ शिल्पियों को पीड़ा होती है और नम उत्पात के पांच महीने के अगन्न ।य होता । है 17411
भद्रकाली विकुर्वन्ती स्त्रियो हन्तीह सुबताः ।
आत्मानं वृत्तिनो ये च पण्मासात् पीडयेत् प्रजाम् ।।75॥ यदि भदकाली की प्रतिमा म यिार उत्तानो नो गुवला स्त्रियों का __नाश होता है और इस उत्पान के छः महीन अचान प्रजा का पीला होती है 11751
इन्द्राण्याः समुत्पातः कुमाय: परिपीडयेत्।
त्रिपक्षादक्षिरसेगेण कक्षिकर्णशिरोज्वरैः ॥7611 यदि इन्द्राणी की मूलि में उत्पात हो तो मारिमा को तीन पक्ष- देह महीने के उपरान्त नेत्ररोग, कुदिक्षरीग, कर्णरोग, निररोग और जबर की पीड़ा से पीड़ित होना पड़ता है -कष्ट होता है ।17 (6।
I जI-TH. 2. अनयम... | 3 भाग। मुः ।
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भद्रबाहसंहिता
धन्वन्तरे समुत्पातो वैद्यानां स भयंकरः ।
पाण्मासिकविकारांश्च रोगजान जनयेन्नृणाम् ।।77॥ धन्वन्तरि की प्रतिमा में उत्पात हो तो वैद्य को अत्यन्त भयंकर उत्पात होता है और छ: महीने तक मनृत्र्यों को विकार और रोग उत्पन्न होते हैं ।।770 )
जामदग्न्ये यदा रामे विकार: कश्चिदीर्यते ।
तापसांश्च तपाढ्यांश्च विपक्षण जिघांसति ।।78॥ परशुराम या न द्र की पलिग में विखलाई पड़े तो तपस्वी और तप आरम्भ करने वालों का तीन पक्ष में विनाश होता है ।। 7811
पञ्चविंशतिरात्रेण कवन्धं यदि दृश्यते ।
सन्ध्यायां भयमाख्याति महापुरुषविद्रवम् ।।79॥ यदि गन्ध्या कान में कबन्ध धड़ दिखलाई पड़े तो पच्चीस राश्रियों तक भय रहता है तथा किसी महापुरुप का विद्रवण-विनाश होता है ।। 79।।
सुलसायां यदोत्पात: षण्मासं सपिजीविनः ।
पीड़येद् गरुडे यस्य वासुकास्तिकभक्तिषु ॥8॥ यदि सुलसा की मूलि में उत्पात दिखलाई पड़े तो सर्पजीवियो—रापहरों आदि को छः महीनों तक पीड़ा होती है और गरुढ़ को गति में उत्तात दिखलाई पडे तो वासुकी में श्रद्धाभार और भक्ति करन वालों को काट होता है 118 |
भूतेषु यः समुत्पात: सदैव परिचारिकाः ।
मासेन पोडयेत्त निग्रंथवचनं यथा ॥8॥ भातों की प्रति में उत्पात दिग्गुनाई गई तो परिचारिकाओं दागियों को । सदा पीड़ा होती है और इस उत्पात-दर्शन र एक महीने तक अधिव, पीडा रहती है, ऐसा निन्थ गुरा का वचन है 118।।।
अर्हत्सु वरुणे रुद्र ग्रहे शुक्र नपे भरेत् । पञ्चालगुरुशुक्रषु पावकेषु पुरहिते ॥82।। वाते नी वासुभद्र च विश्वकर्मप्रजापती ।
सर्वस्य तद् विजानीयात् वक्ष्ये सामान्यज फलम् ॥४॥ अहंत प्रतिमा, वरुणप्रतिमा, रुद्रप्रतिमा, गूर्यादिग्रहों की प्रतिभाओं, शुक्रप्रतिमा, द्राणप्रतिगा, इन्द्रप्रतिमा, अग्निपुरोहित, वायु, अग्नि, समुद्र, विश्वकर्मा,
1. सदनमाया
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चतुर्दशोऽध्यायः
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मिसुधा
प्रजापति की प्रतिमाओं के विकार उनात का फल सामान्य ही अवगत करना चाहिए ।।82-83॥
चन्द्रस्य वरुणस्यापि रुद्रस्य च वधषु च ।
समाहारे यदोत्पातो राजानमहिषोभयम् ॥8411 चन्द्रमा, वरुण, शिव और पार्वती की प्रतिमाओं में उत्पात हो तो राजा को , पट्टरानी को भय होता है 18411
कामजस्यः यदा भार्या या वान्या: केवला: स्त्रियः ।
कुर्वन्ति किञ्चिद् विकृतं प्रशनस्त्रीषु तद्भयम् ॥85।। यदि कारदेव बो र ती रति की प्रतिमा अथवा किसी भी रात्री की प्रतिमा में उत्पात दिखलाई गने तो प्रधान रियों में भय ना रांचार होता है ।।85।।
एवं देशे च जातौ च कुते पाण्डिभिक्षुषु ।
तज्जातिप्रतिरूण स्वैः स्वदेवै: शुभ वदेत् 186॥ इस प्रकार जाति, देश कुल और धर्म की उपासना आदि के अनुमान अपनेअपने आराध्य देव की प्रतिमा के विकार उत्पात में अपना-अपना शुभाशुभ फल ज्ञात करना चाहिए 1861
उद्गच्छमानः सविता पूर्वतो विकतो यदा।
स्थावरस्य विनाशाय पृष्ठतो यायिनाशनः ।।87॥ ___यदि उदय होता हुआ गूयं पूर्व दिशा में -- सम्भावित उत्पात युक्त दिखलाई । पड़े तो स्थावर---निवासी राजा श्री पीछे की ओर विकृत दिखलाई पड़े तो : यायी -आक्रामक राजा के विनाश का गुचक होता है ।। 8711
हेमवर्णः सुतोयाय मधुवों भयंकरः।।
शुक्ले च सूर्यवणऽस्मिन् सुभिक्षं क्षममेव च ॥४४॥ यदि उदयकालीन गूर्य स्वर्ण वर्ण का हा तो जल की वर्षा, मध वर्ण का हो तो । लाभप्रद और शुगल वर्ण का हो तो भिक्ष और कल्याण की गचना देता है. 118811
हेमन्ते शिशिरे रक्त: पीतो ग्रीष्मवसन्तयोः ।
वर्षासु शरदि शुक्लो विपरीतो भयंकरः ।।891 हमन्त और शिशिर ऋतु में लाल वर्ण, ग्रीष्म और वसन्त ऋतु में पीत एवं ।
1. न महासजसूनपान गाय महिपाय च।2. का यायम |
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भद्रबाहुसंहिता
वर्ग और शरद में शुक्ल वर्ण का सूर्य शुभप्रद है, इन वर्षों से विपरीत वर्ण हो तो भयप्रद है ।। 8911
दक्षिणे चन्द्रशृग तु यदा तिष्ठति भागवः ।
अभ्युद्गतं तदा राजा बलं हन्यात सपार्थिवम् ॥900 • यदि चन्द्रमा के उदय काल में चन्द्रमा के दक्षिण शृग पर शुक्र हो तो ससैन्य राजा का विनाश होता है 11910॥
चन्द्रगे यदा भीमो- विकृतस्तिष्ठतेतराम ।
भशं प्रजा विपद्यन्ते कुरव: पार्थिवाश्चला: ।। 111 यदि चन्द्रशृग पर विकृत मंगन स्थित हो तो पजा को अत्यन्त काट होता है और पुरोहित एवं राजा चंचल हो जाते है ।19. ||
शनैश्चरों यदा सौभ्यशृंगे पर्य पतिष्ठति ।
तदा वृष्टिभयं घोरं दुभिक्षं प्रकरोति च ॥92॥ यदि चन्द्रग पर शनैश्चर हो तो वर्षा का भय होता है और भयंकर दुर्भिक्ष होता है 1920
भिनत्ति सोम मध्येन ग्रहेष्वन्यतमो यदा।
तदा राजभयं विन्यात् प्रजाक्षोभ च दारुणम् ॥93।। जब को भी ग्रह चन्द्रमा न मा दिन नारता है तो गज'भय होता है और प्रजा को दारूण क्षोभ होना ।।93।।
राहणा गृह्यते चन्द्रो यस्य नक्षत्रजन्मनि ।
रोग मृत्युभयं वापि तस्य कुर्यान्न संशयः ॥940 जिस व्यक्ति के जन्म नक्षत्र पर गह चन्द्रमा का ग्रहण करे-चन्द्रग्रहण हो तो रोग और मत्य भय निम्मन्देश होता है, 1194।।।
फरग्रहयतश्चन्द्रो गृह्यने दृश्यतेऽपि वा।
यदा क्षुभ्यन्ति लामन्ता राजा राष्ट्र च घोड्यते ॥951 क्रूर ग्रह युगल चन्द्र गा गहन माग ग्रहीत या दाट हो तो राजा और सामन्त शुब्ध होते हैं और गठनो पीड़ा होती है ।195॥
1. प्रभाकर प.। 2. भीमान बिक अगम् मु.। 3. प्रजास्तन मु । ०
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चतुर्दशोऽध्यायः
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लिलेत सोमः 'शृंगेन भौमं शुक्र गुरूं यथा।
शनैश्न जातिं पद्धयानि तदा दिशेत् ॥6॥ चन्द्रशृग के द्वारा पंगल, शुक्र और गुण या स्पर्ण हो तथा शनैश्चर आधीन किया जा रहा हो तो छ प्रकार के भय होन है 1961
यदा बृहस्पत्तिः शुक्र भिदथ विशेषतः ।
पुरोहितास्तदाऽमात्याः प्राप्नुवन्ति महद्भयम् ।।97॥ यदि बृहस्पति-- गुरु, शुक्र का शेदन करे तो विशेष रूप से पुरोहित और मन्त्री महान भा को प्राप्त होते हैं 1197 ।।
ग्रहा: परस्परं यत्र भिन्दन्ति प्रविन्ति वा।
तत्र शस्त्रवाणिज्यानि बिन्धादविपर्ययम् ।।8।। यदि ग्रह कार में भेदन करें अथवा प्रवेग को प्राप्त हों तो शस्त्र का अर्थविपर्यय --विपरीत हो जाता है अर्थात् वहीं गुम होते है ।19811
स्वतो गृहमन्यं श्वेतं प्रविशंत लिवित् तदा।
ब्राह्मणानां मिथो भेद मिथः पीडां विनिदिशेत् ।।99॥ यदि श्वेत वणं का सह–चन्द्रमा, शुरु ग्येत वर्णनों ग्रहों का स्पर्श और प्रवेश करे तो ब्राह्मणों में परमार मतभेद होना है तथा परम्पर में पीड़ा का भी प्राप्त होते हैं 100
एवं शेषेषु वणेषु स्ववणश्चारयेद् ग्रहः ।
वर्णतः स्वभयानि स्युस्तद्युतान्युपलक्षयेत् ११६ ११ इमी प्रकार बत या कराह रक्त वर्ण ग्रहों का पर्ण और प्रवेश नारें तो क्षत्रियों को, पीन वणं . ग्रा. पीत वर्ण के ग्रहों का और प्रवेश करे तो वैश्यों को एवं कृष्ण वर्ण , यह कृष्ण वर्ण के ग्रहों का पर्श ओर प्रवेश करें तो शुद्रों को 'अय, गोडा या उनमें परमार मनभेद होता है। ज्योतिषशास्त्र में मुष को रक्तवर्ण, चन्द्रमा को श्वेतवर्ण, मंगल ग्रनवर्ण, बुध को श्यामवर्ग, गुरू को पीनवर्ण, शुक्र को ध्यान गौर वर्ण, शनिको कागवणं, राह को कृष्णावणं और कनु को कृष्णवर्ण माना गया है || i 1000
श्वेतो ग्रहो यदा पीतो रक्तकृष्णोऽथवा भवेत् । सवर्ण विजयं कुर्थात् यथास्वं वर्णसंकरम् ॥101॥
1. गिणाम्
।
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भद्रबाहुसंहिता
यदि श्वेतग्रह पीत, रत्रत अथवा कृष्ण हो तो जाति के वर्गानुसार विजय प्राप्त कराता है अर्थात् रक्त होने पर क्षत्रियों की, पीत होने पर वैश्यों की और कृष्णवर्ण होने पर शूद्रों की विजय होती है । मिश्रितवर्ण होने से वर्णसंकरों की विजय होती है ।। ।। ] ||
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उत्पाता विविधा ये तु ग्रहाऽवाताश्च दारुणाः । उत्तराः सर्वभूतानां दक्षिणा ' मृगपक्षिणाम् ||1020
अनेक प्रकार के उत्पात होने हैं, इनमें ग्रघात - ग्रहयुद्ध उत्पात अत्यन्त दाण हैं । उत्तर दिशा का पहचात समस्त प्राणियों को कष्टप्रद होता है और दक्षिण का ग्रहात केवल पशु-पक्षियों को कष्ट देता है || 102 ||
करंक शोणितं मांसं विद्युतश्च भयं वदेत् । दुभिक्षं जनमारि च शीघ्रमाख्यान्त्युपस्थितम् 1103॥
अस्थिपंजर, रक्त, मांग और बिजली का उत्पात भय की सूचना देता है तथा जहाँ यह उत्पात हो वहाँ दुर्भिक्ष और जनमारी शीघ्र ही फैल जाती है || 103 || शब्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते । सेनापतिरमात्यश्च राजा राष्ट्र च पीड्यते ॥11041
अकारण भयंकर सब्द के द्वारा जब पृथ्वी काँपने लगे तथा सर्वत्र शोरगुल व्याप्त हो जाय तो मनापति मन्त्री राजा और राष्ट्र को पीड़ा होती है || 04
फले फलं यदा किंचित् पुण्ये पुष्पं च दृश्यते । गर्भाः पतन्ति नारीषां युवराजा च वध्यते ॥13051
यदि फल में फल और गुप्प में पुण दिखलाई पड़े तो स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं तथा युवराज का वध होता है |110511
नर्तनं जल्पनं हासमुत्कीलननिमीलने ।
"देवाः यत्र प्रकुर्वन्ति तत्र विन्द्यान्महद्भयम् ॥106॥
जहाँ देवों द्वारा नाचना, बोलना, हँसना, कोलना और पलक झपकना आदि क्रियाएं की जायें; वहाँ अत्यन्त भय होता है ।
पिशाचा यत्र दृश्यन्ते देशेषु नगरेषु वा ।
अन्यराजो भवेत्तव प्रजानां च महद्भयम् 11071
1. मुग गिणाम् भुए। 2. दिवा
2
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चतुर्दशोऽध्यायः
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जहाँ देश और नगरों में पिणाचं दिसलाई पड़ें वहां अन्य व्यक्ति राजा होता है तथा प्रजा को अत्यन्त भय होता है ।।। 07।।
भमियंत्र नभो याति विशति वसुधाजलम् ।
दृश्यन्ते वाऽम्बरे देवास्तदा राजाधो अनार ।। it! जहाँ पृथ्वी आकाश की ओर जाती हुई मालूम हो अथवा पाताल में प्रविष्ट होती हुई दिखलाई पड़े और आमाण में देव दिखलाई पड़े तो वहाँ राजा का वध निश्चयतः होता है || 1080
धूमज्वाला रजो भस्म यदा मुञ्चन्ति देवताः ।
तक्षा तु म्रियते राजा मूलतस्तु जनक्षयः ।। 1 9911 यदि देव धम, ज्वाला, धुलि और भस्म - राग्न की वर्षा करें ना राजा का । मरण होता है तथा मुला में मनुष्यों का भी विनाश होता है ।। 109||
अस्थिमांस: पशूनां च भम्पनां निनधैरपि।
जनक्षयाः प्रभूतास्तु विकृते वा नृपवधः ।।1100 यदि पशुओं की हड्डियां और मांस तथा भरम का समूह आकाश से बरसे तो अधिक मनुष्यों का विनाश होता है। अथवा उन्नत वस्तुओं में विकार- उत्पात होने पर राजा का बध होता है ।। 1 2010
विकृताकृति-संस्थाना जायन्ते यत्र मानवा: ।
तव राजवधो यो विकृतेन सुन बा ॥1॥ जहाँ मनुष्य विकृत आकार वाले और विचित्र दिखलाई पहें वहाँ राजा का वघ होता है अथवा विकृत दिखलाई पडन ग मुख क्षीण होता हैं ।! ! | !"
वधः सेनापतेश्चापि भयं दुभिक्षमेव च।
अग्नेर्वा हाथवा वृष्टिस्तदा स्थानात्र संशयः ॥12॥ यदि आकाश भ. अग्नि की बर्षा हो तो मेनानि का धर, भय और दुभिक्ष ___ आदि फल घटित होत हैं, इसमें सन्देह नहीं है ।।: 1 2||
द्वारं शस्त्रगृहं वेशम राझो देवगृहं तथा।
धुमायन्दै यदा राजस्तदा मरणनादिशत् ।।।।3।। देवमन्दिर या गजा के महल द्वार, गम्यागार, दासान या रामदे में घरं दिखलाई 'गड़े तो गजा वा मरण होता है ।।।13।।
1. मागविगगुना 4
. प
न ।
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भद्रबाहुसंहिता
परिधाऽर्गला कपाट द्वारं रुन्धन्ति वा स्वयम् ।
पुररोधस्तदा विन्द्यान्नगमानां महद्भयम् ॥।।4।। यदि स्वयं ही बिना किसी के बन्द विय वडा, सांकल और द्वार के किवाड़ बन्द हो जायं नो पुरोहित और वेद के व्याख्याताओं को महान् भय होता है ।।। 1411
यदा हारेण नगरं शिवा प्रविशते दिवा ।
वास्यमाना विकृता वा तदा राजवधो ध्रुवम् ॥11511 यदि दिन में गियापिन-.-गीदड़ी नगर के द्वार में विकृत या सिक्त होकर प्रविगट हो तो गजा व बध होता है ।।। 15
अन्तःपुरेषु द्वारेषु विष्णुमित्रे तथा पुरे।
अट्टालकेऽथ हट्टषु मधु लीनं विनाशयेत् ।। 16॥ __ यदि मियारिन अन्त गुर, हार, नगर, तीर्थ, अट्टालिका और बाजार में प्रवेश करे तो गुख का विनाश करती है ।। 1 1 6॥
धूमकेतृहतं मार्ग शुक्रश्चरति वै यदा।
तदा तु सप्तवर्षाणि महान्तमनयं वदेत् ॥17॥ यदि शत्र भ्रमकत द्वारा आक्रान्त मार्ग में गमन करे तो सात वर्षों तक महान अन्याय-अकल्याण होता रहता है ।। || 71
गुरुणा पहनं गाई यदा भौम: प्रपद्यते।
भयं तु सार्वजनिकं करोति बहुधा नृणाम् ।।।।8।। यदि बृहस्पति के द्वारा प्रनाडित मार्ग में मंगल गमन बरे तो सार्वजनिक भय होता है तथा अधिकतर मनुष्यों को भय होता है ।। ||8||
भौमेनापि हान गाई यदा सौरिः प्रपद्यते।
तदाऽपि शूद्रचौराणामन्यं कुरुते नृणाम् ॥119॥ मंगल के द्वारा प्रताडित मार्ग में गनेश्वर गमन करे तो शुद्र और नोरों का। अकल्याण होता है ।।।।9।।
सोरेण तु हतं मार्ग 'वाचस्पतिः प्रपद्यते। भयं सर्वजनानां तु करोति बहुधा तदा ।।120॥
I. बा
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चतुर्दशोऽध्यायः
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यदि जनैश्वर के द्वारा प्रताडित मार्ग में बृहस्पति गमन करें तो सभी मनुष्यों
को भय होता है ||12|
राजदीपो निपतते भ्रश्यतेऽधः कदाचन ।
षण्मासात पंचमासाद्वा नृपमन्यं निवेदयेत् ॥ 12 ॥
यदि राजा का दीपक अकारण नीचे गिर जाय तो छः महीने या पाँच महीने में अन्य राजा होने का निर्देश समझना चाहिए 1112 111
'हसन्ति यत्र निर्जीवाः धावन्ति प्रवदन्ति च । जातमात्रस्य तु शिशोः सुमहद्भयमादिशत् ।।122
जहाँ निर्जीव - जड़ पदार्थ हँगने हों, दौड़ते हो और बातें करने हों वहाँ उत्पन्न हुए समस्त बच्चों को महान भय का निर्देश समझना चाहिए ।। 12211 निवर्तते यदा छाया परितो वा जलाशयान । प्रदृश्यते च दैत्यानां सुमहद्भय' मादिजेत् ||123।।
यदि जलाशय - तालाब, नदी आदि के चारों ओर में छाया लौटती हुई दिखलाई गई तो दैत्यों के महान भय का निर्देश समझना चाहिए 1123
अद्वारे द्वारकरणं कृतस्य च विनाशनम् । हस्तस्य ग्रहणं वाऽपि तदा
त्पातलक्षणम् 11124॥
अद्वार में जहाँ हार करने योग्य नहीं बहाँ द्वार करना, किये हुए कार्य का - विनाश करना और नष्ट वस्तु को ग्रहण करना उत्पात का लक्षण है ।। 124 "यजनोच्छेदनं यस्य ज्वलितांगमथाऽपि वा ।
स्पन्दते वा स्थिरं किंचित् कुलहानि तदाऽऽदिशेत् ॥ 125॥
यदि किसी के बजन – पूजा, प्रतिष्ठा, यज्ञादि का स्वयंमंत्र उच्छेद - विनाश हो अथवा अंग प्रज्वलित होते हो अथवा स्थिर वस्तु में चंचलता उत्पन्न हो जाय तो कुलहानि समझनी चाहिए ।।1251
देवज्ञा भिक्षवः प्राज्ञाः सात्रवश्च पृथग्विधाः । परित्यजन्ति तं देशं ध्रुवमन्यत्र शोभनम् 1112611
दैवज्ञ - ज्योतिषियों भिक्षुओं
मनीषियों और साधुओं को विभिन्न प्रकार
के उत्पात होने वाले देश को छोड़कर अन्यत्र निवारा करना ही श्रेष्ठ होता
u1260
निर्जीवन 4. लक्षणम् 15. वजने छायं वस्त्र ।
जस2 1 3. जलाया भु
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भद्रवाहगंहिता
युद्धानि कलहा बाधा विरोधारिविवृद्धयः ।
अभीषणं यत्र वर्तन्ते देश परिवर्जयेत् ।। 127।। युद्ध, कलह, बाधा, विरोध एवं शत्रुओं की वृद्धि जिरा देण में निरन्तर हो उस देश का त्याग कर देना चाहिए || 27।।
विपरीता यदा छाया दृश्यन्ते वृक्ष-वैश्मनि ।
यदा ग्रामे पुरे वाऽपि प्रधानवधमादिशेत् ।।28। ग्राप और नगर में जब वृक्षा और घर की छाया विगत.. जिस समय पूर्व में छाया रहती हो, म राय पश्चिम में और जब पश्चिम में रहती हो तब पूर्व में . हो तो प्रधान का बध होता है ।।।28।।
महावक्षो यदा शाखामुत्करां मुञ्चते द्रुतम् ।
भोजकस्य वधं बिन्धात् सणां वधमादिशेत् ।।1291 महावा जय कारण ही अपनी गावा कोलीन ही गिराना है तो भोजयः सपेग का बर होता है तापों का भी बध होता है 11123||
पांशवष्टिस्तोल्का च निर्याताश्च सदारुणाः ।
यदा पतति युगपद नन्ति राष्ट्र मनायकम् ।।13011 c- धुलि की वर्षा, पात, भयंकर याना -विद्य त्पात एक साथ हों तो राष्ट्रनायक का विनाश होगा है ।। 1 3111
रसाश्व विरसा यत्न नायकस्य च दूषणम् ।
तुलामानाम हसनं राष्टनाशाय तद्भवेत् ॥13111 जब अकारण ही ग.भिम विकृत रख धाले हों तो नायक में दोप लगता है तथा तराजू में हंगन गगाट का नाश होता है ।।। 3 10
शकलातिपदि चन्द्रं समं भवति मण्डलम् ।
भयंकर तदा तस्य नृपस्याय न संशयः ।।132॥ यदि नल पनिषदा को चन्द्रमा के दोनों शृग मान दिलाई पड़े.- समाम माऊल हो तो निम्मद शाजा . जिा भयाकी वाला होता है ।1 1 3 2।
समाभ्यां यदि शृंगाभ्यां यदा दश्येत चन्द्रमाः।
धान्यं भवेत् तदा न्यनं मन्दवृष्टि विनिदिशेत् ॥133॥ यदि गी दिन दोनों ग यमान दिखलाई पड़े तो अता की उपज कम होती है, और वरिष्ट भी होनी है। यहाँ विणगता यह है कि आपाढ़ शुक्ला प्रतिपदा
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चतुर्दशोऽध्यायः
245 _ को चन्द्रमा के शृगों का अवलोकन करना चाहिए ।। ! 33||
वामशृंगं यदा वा स्यादुन्नत' दृश्यते भृशम् ।
तदा सृजति लोकस्य दारुणत्वं न संशयः ।।1341। यदि चन्द्र का वायां शृग उम्मन मालूम हो तो लोक में दारुण भय का संचार होता है, इसमें संजय नहीं है ।। | 3-411
अवस्थितं नणां पापं तिर्यकस्थं राजमन्त्रिणाम् ।
अधोगतं च वसुधां सर्वां हन्यादसंशयम् ।। १35॥ ऊध्वंस्थित चन्द्रमा मनग्यों के पाप का, तिपय गजा और मन्त्री के पास } का, अधोगत समस्त पृथ्वी के पा. निरान्दह विनाश करता है ।। 1 3 511
शरलं रक्ते भयं पीते धूसे दुभिक्षांवद्रवे।
चन्द्र सदोदिते ज्ञेयं भद्रबाहुवची यथा ।।136।। चन्द्रमा यदि : सवर्ण का सदिस हो तो गन्ध वा भव, तिवर्ण का हो तो । दुर्भिक्ष का भय और धूम्नवर्ण होने पर भागय का सूचक होता है, सा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।। | 3611
दक्षिणात्परतो दष्ट: चौरतभयंकरः ।
अपरे तोयजोवानां वायव्ये हन्ति वै पदम् ।।137॥ यदि दक्षिण की और शृप पा रस्तवर्णादि नि बनाई गई तो चोर और दुत . को भयकारी होता है, पूर्व को जोर दिसलाई 'हे ना जल-जन्तुओं का और वायव्य । दिशा की ओर दिलाई पढ़े तो लोग मा विना गा हाना ।। 371
भववदत्स च लगेषु या.घु प्रवदासु च ।
वाहनेष च हण्टेषु विन्द्याद्भयमुपस्थितम् ।।138 शिवलिगों में विवाद होने पर, रावारियों में भाला' होने पर और वाहनों में प्रसन्नता दिखलाई पड़न पर महान भय होता
उर्व वषो अदा नदत् तदा प्याच्च भयंकरः ।
ककदं चलते वापि तदापि स भयंकर: ।1139॥ यदि बैल --गांड ऊपर नो मह ार गर्जा बरे ना त्यान भयंकर होता है और वह अपन ककुद (कुब्ब) को चंबल करे तो भी भयंकर मालिना चाहिए ।।। 39।।
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भद्रबाहुसंहिता
व्याधय: प्रबला यत्र मात्यगन्धं न वायते।
आहूतिपूर्णकुम्भाश्च विनश्यन्ति भयं वदेत् ।।। 400 जहाँ व्याधियां प्रबन्न हों, माल्यगन्ध न मालूम पड़ती हो और आहूतिपूर्ण कलश-मंगल-कलश बिनाग को प्राप्त होत हों, वहीं भय होता है ।।140॥
नववस्त्र प्रसंगेन ज्वलते मधुरा गिरा।
अरुन्धती न पश्येत स्वदेहं यदि दर्पण ॥14॥ - यदि नबीन वस्त्र अकारण जन आध और मधुर वचन मुंह में निकले, अरुन्धती तारा दिखलाई नगड़े तो महान् भय अवगत करना चाहिए अर्थात् मृत्यु की सूचना गमलनी चाहिए ।। 14 ||
न पश्यति स्वकार्याणि परकार्यविशारदः । मैथुने यो निरक्तश्च न । सेवति मैथुनम् ।।1420 न मिचित्तो भूतेषु स्त्री वृद्धं हिसते शिशुम्।
विपरीतश्च सर्वत्र सर्वदा स भयावहः ।।। 43॥ जा परयं में तो ग्त हो, र स्व कार्य का मोबन न करता हो, मैथुन में संलग्न रहा पर भी भवन का गबन न करना हो, गित्र में जिगवा चिन आसक्त नहीं हो और जो ग्त्री, वृद्ध और गिःगुओं की हिमा करता हो तथा स्वभाव और प्रकृति में विपरीत जितन भी कार्य है, सब याद हैं ।।।42-14311
अभीक्ष्णं चापि सुप्तस्य निरुत्साहाविलम्बिनः ।
अलक्ष्मीपूर्णचित्तस्य प्राप्नोति स महद्भयम् ।।।4411 जो निरन्तर गोने वाला है निम्त्याही है और धा ग रहित है, उग महान् गय की प्राप्ति होती है । 14-1||
ऋज्यादा शकु। यत्र बहशो विकृतस्वनाः ।
तत्रंन्द्रियार्थविणा' श्रिया हीनाश्च मानवा: 11145।। नहीं मांगना १४ी अत्यधिवा दिन स्वर बाल हों वहां मना इन्द्रियों के अर्थो को ग्रहण करने काका में हान ना माग गति होत हैं। अर्थात् वहाँ अज्ञातना और निर्धनता नियम करती है ।। [4511
निपात द्रमश्छिन्नो 'स्वप्नेकामयलक्षणम् । रत्नानि यस्य नश्यन्ति बहश: प्रज्वन्ति वा ।।1461
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जो व्यक्ति स्वप्न में निर्भय होकर कटे हुए ऐड़ को गिरते देखता है, उसके __.रत्न नष्ट हो जात हैं अथवा बहुमूल्य पदार्थ अग्नि लगने से जल जाते हैं 11461
क्षीयते वा म्रियते वा पंचमासात् परं नपः।
गजस्यारोहणे यस्य यदा दन्तः प्रभिद्यते ।।1471 जब हाथी पर सवारी करते समय, हाथी के दांत टूट जाएँ तो सवारी करने वाला राजा पांच महीने के उपरान्त क्षय या मरण को प्राप्त हो जाता है ।147।।
दक्षिणे राजपीडा स्यात्सेनायास्तु वधं वदेत् । मूलभंगस्तु यातारं करिकानं नृपं वदेत् ॥148।।
मध्यमंसे गजाध्यक्षमग्रजे स पुरोहितम् । बिडाल-नकुलोलूक-काक-कंकसमप्रभः ॥14911 यदा भंगो भवत्येयां तदा ब्र यादसत्फलम् । शिरो नासाग्रकण्ठेन सानुस्वारं निशंसनैः ।।1501
भक्षितं संचितं यच्च न तद् ग्राह्यन्तु वाजिनाम् । नाभ्यंगतो महोरस्क: कण्ठे वृत्तो यदेरितः ।।51॥ 'पार्वे तदा भयं ब्र यात् प्रजानामशुभंकरम्।
अन्योन्यं समुदीक्षन्ते हेष्यस्थानगता ह्या: ।।52॥ यदि दाहिना दांत टूटे सो गजपीड़ा और गना का बध तथा गूल दाँतों का भंग होना गमन करने वाले राजाओं के लिए पुरोच और 'भय देने वाला है ।। 148॥
मध्य में टूटने पर ग गाध्यक्ष और पुरोहित को भय होता है।
बिडाल, नकुल, उनक, पाक और बगुला दन्त का भंग हो तो असत् फल होता है 11149
धोद्रों के सिर, नासाग्र भाग और कंट के द्वारा सानुस्वार शब्द होने से गंचित भोजन भी ग्राह्य नहीं होता ।
जब छाती तानकर घोड़ा नाभि मे कण्ट तरः अकड़ता हुआ शब्द करे तब वह समीपस्थ प्रजा को अशुभवारी और भयप्रद होता है ।।15।
यदि धोडा हींसते हुए आग में देखें तो प्रजा को 'भय होता है ।।! 5211
1 मध्यम गजायाम सदचानना ना गन्धन
गा । 2. गाभार्थी । 3. गरिः । 4. म पाश्व |
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भद्रबाहुसंहिता
शयनासने परीक्षा ग्राममारों वदेत् ततः ।
सन्ध्यायां सुप्रदीप्तायां यदा सेनामुखा ह्या: ।।153।। यदि सन्ध्याकाल में घोड़े सेना के सम्मुख हींसते हों अथवा शयन और आसन की परीक्षा करके अशुभ होते हो तो ग्राममारी का निर्देश करना चाहिए ।।15311
वासयन्तो विभेषन्तो घोरात् पादसमुद्धताः ।
दिवसं यदि वा रात्रि हेषन्ति सहसा या: ॥15411 यदि घोड़े पैरों से मिट्टी उखाड़ते हुए डगते हों या स्वयं डरकर छिप रहें हों। तो भय समझना चाहिए । दिन अथवा रात्रि में घोड़ों का अकस्मात् हींसना भी भय का निर्देशक है।।1540
सन्ध्यायां सुप्रदीप्तायां तदा विन्द्यात् पराजयम् ।
'उन्मुखा रुदन्तो वा दीनं दीनं समन्ततः॥15॥ यदि सन्ध्याकाल में घोड़े कार को मुंह किये हुए रोते हो या दीन होकर चारों ओर भमण करते हो तो पराजय गमलना चाहिए ।। 1 55।।
"हया यत्र तदोत्पातं निहिशेद्राजभत्यवे ।
विच्छिद्यमाना हेषन्ते यदा रूक्षस्वरं हया: ॥156॥ जब घोड़े कक्ष स्वर और टूटी-फूटी आवाज में हीसते हो तो वे अपने इस उत्पात द्वारा गाया की मृत्यु की सूचना में ।। 156!।
खरवभीमनादेन तदा विधात् पराजयम् ।
उत्तिष्ठन्ति निषोदन्ति विश्वसन्ति भ्रमन्ति च ।।1571 जब घोड़े गायों के समान तीन स्वर में रेजें और उठे-बैठे तथा भ्रमण करें तो पराजय समझाना नाहिए ।।। 57||
रोगार्ता इव हेन्ते तदा विन्यात पराजयम् ।
ऊर्ध्वमुखा विलोकन्ते विन्द्याज्जनपदे भयम् ।।158 यदि रोग से पीड़ित हुए क गभान हीसा हो तो पराजय समझना चाहिए और अर्ध्वमन्य रेंके तो जनपद ना भर होता है । 1 58।।
शान्ता प्रहष्टा धर्मार्ती विधान्ति यदा याः । बानां वीक्ष्यमाणाहते न ते ग्राह्या विषश्चितैः ॥15॥
.. ..... || पाहा. TH: . . | | ग|| 'पां: । नहीं है, 2151.1 IN Ii HT: : 3 : माकप गर्व गा पा नहीं है!
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चतुर्दशोऽध्यायः जब घोड़े शान्त, प्रसन्न और काम से पीड़ित होकर विचरण करें और स्त्रियों के द्वारा देखे जाते हों तो विद्वानों को उनका शुभाशुभत्व नहीं लेना चाहिए ।। 1 59॥
मूत्रं पुरीषं बहुशो विलुप्ताङ्गा प्रकुर्वतः।
हेमन्ते दीन निद्रास्तिदा कुर्वन्ति ते जयम् ।।1601 यदि घोड़े विलुप्तांग होवार अधिक मूत्र और लीद करें और निद्रा से पीड़ित होकर हीसे तो जय को सूचना देते हैं ।। 6010
स्तम्भयन्तोऽथ लांगूलं हेषन्तो दुर्मदो हया: ।
मुहुर्च हुने जम्मको तथा भय पंत ।। 6111 __ पूछ को स्तम्भितं धारते हुए खिन्न होता। घोड़े हींसें और बार-बार भाई लें तो शस्यमय कहना चाहिए ।। 61॥
यदा विरुद्धं हेषन्ते स्वल्पं विकृतिकारणम् ।
दोपसर्गो व्याधिर्वा सद्यो भवति रात्रिजः ।।1621 यदि घोड़े वित कारणों के होने पर विपरीत हींगत हों तो रात्रि में उत्पन्न होने वाली व्याधि या उपमर्ग शीत्र ही होत ह ।।16 211
भूम्यां ग्रसित्वा ग़ासं तु हेषन्ते प्राङमुखा यदा।
अश्वारोधाश्च बद्धाश्च तदा क्लिश्यति क्षुद्भयम् ।।163॥ पृथ्वी में में एकाध कौर घास साकार यदि पूर्व की ओर गुग्यकार पोरे हींसे तो क्षुधा में क्लेश और भय की सूचना देते हैं ।। : (631
शरीरं केसरं पुच्छं यदा ज्वलति वाजिनः ।
परचक्र प्रयातं च देशभंगं च निदिशेत् ।।641 यदि घोड़ों के शरीर, पूंछ और रामधार जलने लगे तो परमागन का आगमन और देशभंगा की सूचना समझनी चाहिए | Ithi |!
यदा वाला प्रक्षरन्ते पुच्छ चटपटायते ।
वाजिनः सःलगा वा तदा विद्यान्महद्भयम् ॥165।। यदि बाारण लोगों के बाल टूट: निलों, पूंछ चट-चट करने लगे और उनके शारीर निग निमन में तो नत्यश्चित. मग मर जाना चाहिए | 1 6 511
हेमन्ते तु तदा राज्ञः पूर्वाल्हे नाग-वाजिनः ।
तदा सूर्यग्रहं विन्ध्रादपराले तु चन्द्रजम् ।।1661 यदि दोपहर में पहले राजा का हाथी, गोडे हीमने लगे तो सूर्य ग्रह और दोपहर
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भद्रबाहुसंहिता
के बाद हींसने लगें तो चन्द्रग्रह समझना चाहिए ।।। 661
शुष्कं काष्ठं तणं वाऽपि यदा संदंशते हयः ।
हेषन्ते सूर्यमुट्ठीक्ष्य तदाऽग्निभयमादिशेत् ॥167॥ सूखे काठ, तिनके आदि खात हुए घोड़ें मूर्य की ओर मुंह कर हीसन लगे तो । अग्निभय समझना चाहिए ।। 16711
यदा शेवालजले वाऽपि भग्नं कृत्वा मुखं याः ।
धन्ते विकृता यत्र तदाप्यग्निभयं भवेत् ।।168।। जब घोड़े शेवाल युक्त जल में मुंह डुबाकर होंगे तो उस समय भी अग्निभय । समझना चाहिए ।। 16811
उल्कासमाना हेषन्ते संदृश्य दशनान् हयाः ।
संग्रामे विजयं क्षेमं भत: पुष्टि विनिर्दिशेत् ॥16911 जब उल्का के समान दांत निकालते हुए घोड़े हीमें तो स्वामी ने लिए संग्राम में विजय, क्षेम और पुष्टि का निर्देश करते है ।।1691
प्रसारयित्वा ग्रीवां च स्तम्भपित्वा च वाजिनाम् ।
हेषन्ते विजयं वयात्संग्रामे नात्र संशयः ॥1701 गर्दन को जरा-गा झुकावर टेही करम स्थिर कर ग गाडे होकर जब घोड़े । होस तो संग्राम में निम्मन्देह विजय की प्राप्ति होती है।।। 7011
श्रमणा ब्राह्मणा बृद्धा न पूज्यन्ते यथा पुरा।
सप्तमासात् परं यन्त्र भयमाख्यात्युस्थितम् ।।17111 जिस नगर में मण, ब्राह्मण और वृद्धों की पूजा नही की जाती है उस नगर में सात महीने २ः उपरान्त भय उपस्थित होता है ।। 1 7 ।।
अनाहतानि तर्याणि नर्दन्ति विकृतं यदा ।
षष्ठे मासे नृपो वध्य: भयानि च तदाऽऽदिशेत् ।।172॥ जय बाविना यमाय ही विकृतबोर सन्द करें तो छठे महीन में राजा का वध होता है और वहाँ भय भी होता है ।। 1720
कृत्तिकास यदोत्पातो दीप्तायां दिशि दश्यले ।
आग्नेयी वा समाश्रित्य त्रिपक्षाग्नितो भयम् ॥173|| यदि पूर्व निगा में कृत्तिका नपत्र में उत्पात दिलाई गहे अथवा आग्नेय
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कोण में उत्पात दिखलाई पड़े तो तीन पक्ष-डेढ़ महीने में अग्नि का भय होता है।11731
रोहिण्यां तु यदा घोषो निर्वातो यदि दश्यते ।
सर्वाः प्रजा: प्रपोड्यन्ते पण्मासात्परतस्तदा ।।17411 यदि रोहिणी नक्षत्र में विना बायु के शब्द सुनाई पड़े तो इस उत्पात के छ: महीने पश्चात् सारी प्रजा को पीड़ा होती है !! 17411
उल्कापात: सनिर्धातः सवातो यदि दृश्यते।
रोहिण्यां पञ्चमासेन कुर्याद धोरं महद्भयम् ।।175।। ___ यदि रोहिणी नक्षत्र में घर्पण और वायु महित उन्मापात हो तो पांच महीने में घोर भय होता है ॥1751
एवं नक्षत्र शेषेषु यद्युत्पाता: पृथग्विधाः ।
देवतार्जनलीनं च प्रसाध्यं भिक्षुणा सदा ॥176॥ इसी प्रधार अन्य नक्षत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार मा उत्पात दिशुदाई गड़े तो भिक्षुओं को देवपूजा द्वारा उग उस्मात के अनिष्ट पल को दूर वारना चाहिए। अर्थात् उत्पान की शान्ति पूजा-पाट वारा करनी चाहिए।।। 7611 . वाहनं महिषों पुत्रं बलं सेनापति पुरम् ।
पुरोहितं नृपं वित्तं घ्नन्त्युत्पाताः समुच्छ्रिताः ॥177॥ उत्पन्न हुए विभिन्न प्रकार का उत्पात मबाग, ना, रानी, पुत्र, मेनापति, पुरोहित, अमात्य, राजा और धन आदि का विनाश करता है ।। 17710
एषामन्यतरं हित्वा निर्वति यान्ति ते सदा ।
परं द्वादशरात्रेण सद्यो नायिता पिता॥178॥ जो व्यक्ति इन उत्पातों में से किसी भी उत्पात की अवहेलना करते हैं, वे बारह गलियों में ही कष्ट को प्राप्त करने हैं तथा उगयो युटुम्ब मरिना या अन्य कोई मृत्यु को प्राप्त होता है।। 1781
यत्रोत्पाताः न दृश्यन्ते यथाकालमुपस्थिताः ।
तेन सञ्चयदोषेण राजा देशश्च नश्यति ।।17911 जहाँ यथा ममय उपस्थित हुए उत्पातों को नहीं देखा जाता है, वहाँ उत्पाता के द्वारा मंचित दोर से राजा और दंन दोनों का नाश होता है ॥179।।
नमन गर ।
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भद्रबाहुसंहिता देवान् प्रजितान् विप्रास्तस्माद्राजाऽभिपूजयेत् ।
तदा शाम्यति तत् पापं यथा साधुभिरीरितम् ॥1800 उत्ात से उत्पन्न हुए दोष की शान्ति के लिए देव, दीक्षित मुनि और ब्राह्मण-वती व्यक्तियों की पूजा करनी चाहिए। इससे जिस पाप से उत्पात । उत्पन्न होते हैं. वह मुनियों के द्वारा उपदिष्ट होनार शान्त हो जाता है ।। 1800
यत्र देशे समुत्पाता दृश्यन्ते भिक्षभिः क्वचित् ।
ततो देशादतिक्रम्य बजेयुरन्यतस्तदा ।।181।। गुनियों को जिस देश में कहीं भी उत्पात दिखलाई पड़े उस देश को छोड़कर अन्य देश में चना जाना चाहिए 1118111
चित्त सिभिक्षे देशे निरुत्पाते प्रियातिथौं।
बिहरन्ति सुखं तत्र भिक्षयों धर्मचारिणः ।।1821 धन-धान्य से परिपूर्ण, गभिक्ष युगत, निरुपद्रय और अतिथि सत्कार करने वाल देश में धर्माचरण करने वाले साधु सुखपूर्वक विहार करते हैं ।।। 82॥
इति मकलमुनिजनानन्दमहामुनीश्वरभद्रबाहुविरचिते निमित्तशास्त्रे सकलश भाऽशुभयाख्यानविधान कथने चतुर्दशः परिच्छेदः समाप्त: 11411
विवेचन-स्वभाव के विपरीत हा उपास है। ये जगात तीन प्रकार के होने हैं.-.दिव्य, अन्तरिक्ष और भीम 1 देव-प्रतिमा बाग मिग इतालों की सूचना मिलती है, वे दिव्य बना है । गानों का विधारा निर्धात, पवन, विन्य पान, गावरावं इमाणादि अन्ना है। मभूति पर चल एवं स्थिर दार्थी का विपी E] गें दिगन्दायी पहना गौन उत्पात है। प्राचार्य ऋपिपत्र में दिव्य गालों का धन का हुआ बताया है कि ताका प्रतिमा का छा भंग होना, हार-गाँव, स्तन, भामगन का भंग होचा अशुभमुचक है। जिग दे गा नगर में प्रनिनागी बिर या चलिन न हो जाये तो उस देश या नगर में लाभ होता है। घर भंग होने में प्रयासक या अन्य मिमी नेता की मृत्यु, ग्य टने ग राजा रण जिग नगर गं रथ टूटता है, उस नगर में छ: महीने के पाया। मन किन्न की प्राप्ति होती है। नगर में जहामारी, घोरी, दक्ती या अशुभ काम: गहीनो के भीतर ही है। मामला भंग होने रा सीमारे या पांच महीने में गत आती है। उप प्रदेश के शासक या शासन परिवार मिसी की मृत्यु होती है। नगर में धन-जन की हानि होती है । प्रतिमा
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के हाथ भंग होने में तीसरे महीने में और नाय भा होने से सातवें महीने में ___ कष्ट होता है। हाथ और पाँव के भंग होने का फल नगर के साथ नगर के प्रशासक,
मुखिया एवं पंचायत के प्रागुम् को भी भोगना पड़ना है। प्रतिमा का अचानक भंग होना अन्यन्त अगा है । यदि रखी हुई प्रतिमा स्वयमेव ही मध्यान या प्रात:काल में भंग हो जाये तो उस नगर में तीन महीने के उपरान्त महा रोग या संशामक लेग फैलते हैं। विजेपासना, पलंग एवं इनफ्युएंजा की उत्पत्ति होती है । पशुओं में भी भेग उत्पन्न होता है।
यदि स्थिर प्रतिभा अपने स्थान मे हरयार दुराली जगह पहुँच जाय या चलती हुई मालूम पड़े तो सोगरे गहीने अचानक विपनि आती है। इस नगर या प्रदेश के प्रमुख अधिकारीको मृत्यु तुल्य काट गोगना पड़ता है । जगसाधारण जो भी आधि-गाधिजन्य काट उठाना पता है। यदि गतिमा विहामन मे नीचे उतर आये अथवा मिशन में नीचे गिर जाये तो उग प्रदेश के प्रसन्न की मृत्यु होती है । उस प्रदेश में बाल, महामारी और बांगाव रहता है। यदि उपयुक्त उत्पात लगातार सात दिया गन्द्र दिन तक हो तो निश्चात प्रतिपादित पाल की प्राप्ति होती है। यदि का दिन 3ास हो र गान्त हो गया तो पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता है। यदि प्रतिमा जोग निवालकर पाई दिनों तक रोती हुई दिखलाई गई तो नगर में ग्रह पटना घटती है, उग नगर अत्यन्त उपद्रव होता है। प्रशासक और प्रशाम्यों में वागड़ा होता है। धन-धान्य की क्षति होती है। चोर और डायना पद्रव अधिक बढ़ता है। मंत्राग, मारकाट एवं गंगा की स्थिति बढ़ती जाती है। प्रतिमा का रोना गजा, मन्त्री या पि.मी महान् नेता की मृत्यु का सूचना; हंगना पारम्प विद्वेष, संरगं कलह कानुनमः; चलना और कांपना योगाती, गंध, कलाई, चिपा, आदमी पाट एवं गोला।र चक्कर काटना भय, बिदेश, सम्मान हानि या देगी धन- जन-हानि का गुना है। प्रतिमा का हिलना सथा रंग बदलना अनिष्टसूच ।। एवं तीन महीनों में नाना प्रकार के काटों का मन बगत करना चाहिए। प्रतिमा ना! पनी जना अग्निभय, चोरभय एवं महामार्ग का सूचक है। धुओं सहित प्रतिमा ग पसीना नियाले तो जिरा प्रदेश में यह घटना घटित होती है, उसके गौ कोग की दुरी जनारों ओर धन-जन की क्षति होती है। अतिवृष्टि या अनाकृष्टि के कारण जनता को महान् कष्ट होता है।)
तीर्थकर की प्रतिमा म पसीना निकनमा धामि विद्वेष एवं शंपर की गुचना देता है । गुनि और श्रावक दोनों पर किसी प्रकार की विपन्न जाती है नथा दोनों को विधर्मियों द्वारा जपनग महान करना पड़ता है। अकान और अवर्षण की स्थिति भी उत्तपन्न हो जाती है। यदि किसी प्रतिभा 'मीना निकले तो ब्राह्मणों को काट, वे की प्रतिभा ग पसीना निकल तो वैश्यों को ट, कामदेव
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की प्रतिगा से पसीना निकले तो अममम की हानि, कृष्ण की प्रतिमा से पसीना निकले तो सभी जातियों को कष्ट; सिद्ध और बौद्ध प्रतिमाओं से धुआँ सहित पसीना निकले तो उभ प्रदेश के ऊपर महान् कष्ट, चण्डिका देवी की प्रतिमा से पसीनां निवाले तो स्त्रियों को काट, वाराही देवी श्री प्रतिमा म पनीना निकले तो हाथियों का ध्वंस: नागिन देवी की प्रतिमा ध्रुओं सहित पसीना निकले तो - गर्भनाश; राम की प्रतिमा ग पमीना निकले तो देश में महान् उपद्रव, जूट-पाट, धननाश; मीता या पार्वती की प्रतिमा में यमीना निकले तो नारी-समाज को महान कप्ट एवं मूर्य की प्रतिगा पसीना निकले तो संसार को अत्यधिक वट और उपद्रव गहन करने पही हैं। यदि तीर्थकर की प्रतिमा भग्न हो और उममें अग्नि की जाट या रक्त की धारा निकलती हुई दिखलायी बड़े तो संसार में मार-काट निश्चय होती है। आपम में मार-काट हुए बिना किसी को शान्ति नहीं मिलती है। किसी भी देव की प्रतिमा का भंग होना, फुटना वा हँसना चलना आदि अशुभ कारक है । उक्त क्रियाएं एक माताह तक लगातार होती हो तो निश्चय ही तीन महीने के भीतर अनिट का माल मिलता है। ग्रहों की प्रतिमा, नौबीस शासनदेवों एवं शासनदेवियों की प्रतिमाएं, क्षेत्रपाल और दिवालों की प्रतिमाएं इनमें उक्त प्रकार की विकृति होने से व्याधि, धनहानि, मरण अनेक प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। देव कुमार, देवकुमारी, देववनिता एवं देवदूतों के जो विकार उत्पन्न होते हैं, वे समाज में आने । प्रकार की हानि पहुंचाते हैं। देवों के प्रसाद, भवन, चैत्यालय, वेदिका तोरण, कंतू आदि न जाने या बिजली द्वारा अग्नि प्राप्त होने से उग देश में अत्यन्त अनिष्टकर क्रियाएँ होती हैं। उक्त क्रियाओं का फल छ: महीने में प्राप्त होता है। 'भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों के प्रति विपर्यय में लोगों को नाना प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है। )
आकाश में अरामय में इन्द्रधनुष दिखलायी गड़े तो प्रजा को कष्ट, बर्षाभाव और धनहानि होती है। इन्द्रधनुष का वर्षा वन में होना ही शुभसूचक पाना जाता है, अन्य ऋतु में अणभमुच राहा गया है। आकाश से रुधिर, मांस, अस्थि और चर्बी की वर्षा होने से संग्राम, जनता को गय, महामारी एवं प्रशाराकों में मतभेद होता है। धान्य, सवर्ण, बल्लाल, पृय और फल की वर्षा हो तो उस नगर का विनाश होता है, जिगमें गह पटना घटती है। जिग न मर में कोयल और धूलि की वर्षा होती है, उम नगर का विनाश होता है। बिना बादल के आकाश रो अलों का गिरता, बिजली का तहनना था किना गर्जन के अस्मात् बिजली का गिरना उस प्रदेश के लिए गयोपादक है तथा नाना प्रकार की हानियाँ होती हैं। किसी भी व्यक्ति को शान्ति नहीं मिल सकती है निर्मल गुयं में गया दिखलायी न दे अथवा विकृत ज्ञया दिलायी द तो देश में महाभय होता है। जब दिन या
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रात में मेधहीन आकाश में पूर्व या पश्चिम दिशा में इन्द्रधनुष दिखलायी देता है, तब उस प्रदेश में घोर गिक्ष पड़ता है। जब आ:शि में प्रतिध्वनि हो, तयंतुरई बी ध्यान गुमाई दे एवं आया , सालर का शब्द सुनाई पड़े तो दो महीने तर. महाध्वनि में प्रजा पीडित रहती है। आकाश में किसी भी प्रकार का अन्य उत्पात दिखलाई पड़े तो जनता को काट, व्याधि, मृत्यु एवं संघर्षजन्य दुःस्व उठाना पड़ता है।
दिन में धूलि का यरसार, गत्रि के समय मेघविहीन आकाश में नक्षत्रों का नाश या दिन में नक्षत्रों का दर्शन होना मंघर्ष. मरण, भय और धन-धान्या विनाश सूचक है । आकाश का विना बादलों के रंग-बिरंग होना, विकृत आकृति और संस्थान का होना भी अगभसूचक है। जहाँ छः गहीना तक लगातार हर महीनं उल्का दिखलाई देती है, वहाँ मनुष्य कारण होता है । सफेद और घूधर रंग की उलाएं पुण्यात्मा रह जाने वाले व्यक्तियों को बाट हुँचाती है । पंचरंगी उल्का महामारी ओर इश्वर-उधर टकरावर नाट होने वाली उल्या देश में उपद्रव उत्पन्न करती है । अन्तरिक्ष निमिमां का विचार करते समय पुश्त विद्य पात, उल्कात आदि का विचार अवश्य कर लेना चाहिए।
भूमि पर प्रकृति विश्र्धयः उत्सात दिग्युलाई पहें तो अनिष्ट समझना चाहिए। ये उत्पात जिग म्यान में दिखलाई देते हैं, अनिष्ट फल उभी जगह घटित होता है अम्य-स्त्रा का जलना, उन शब्द होना, जलने समय अग्नि से शब्द होना तथा इधन में बिना जलाये अग्नि का जल जाना अनिष्टसूचक हैं। इस प्रकार के उत्पात में पिगी आ.पीय की मृत्यु होती है। अगाय में वृक्षों में फल-फूल बा आना, वृक्षों ना मना, रोना, दुध निकलना आदि उत्पात धनक्षय, शिशुओं में गंग नथा जापग मा झगडा होने की सूचना देते हैं । वक्षों ग मद्य निकाल तो वाहनों का नाम, धिर निकालने में संग्राम, शहद नियालन से रोग, तेल निकलने में 'भय गोरगन्धित पदार्थ निकलने में पजुक्षम होता है। अंगुर मूख जाने से थी और जान का नाश, रोगहीन वृक्ष अकारण गुस्न जाग तो मना का विनाश और अलक्षय, आप ही वृक्ष खड़ा होकर उठ बेटे नो देव या गाय, समय में फल फूलों का आना प्रशासन और तामाका बिनाग, वृक्षों । ज्वाला और धुआं निकले तो मनुष्यों का क्षय होता है। वृक्षों में गाय के जैसा गन्द निकलता हुआ मुनाई पड़े तो अत्यन्त अशुभनारी होता है। इस मनुष्यों में अनेक प्रकार की बीमारियां फैलती हैं, जगता में अनेक प्रकार रो अशान्ति आती है।
जमल आदि नाक काल में दो या तीन फल की उत्पनि हो अथवा दो फूल या फल दिखायी पड़ें तो जिस जगह यह घटना घटित होती है, वहां के प्रशासका का मरण होता है । गिरा सामान के खेत में यह विपिन दिखलाई पड़ता है, उमकी भी मृत्यु होती है। जिग गाँव में यह उत्पात दिखलाई पड़ता है, उस गांव में
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धन-धान्य के विनाश के साथ अनेक प्रकार का उपद्रव है। फल-फूलो में विकार का दिखलाई पड़ना, प्रकृति विरुद्ध फल-फूलों का दृष्टिगोचर होना ही उस स्थान की शान्ति को नष्ट करने वाला तथा आपस में संघर्ष उत्पन्न करने वाला है। शीत और ग्रीप्भ में परिवर्तन हो जाने से अर्थात् शीत ऋतु में गर्मी और ग्रीष्म ऋतु में मत पड़ने से अथवा सभी ऋतुओं में परस्पर परिवर्तन हो जाने से दैवभय, राजभय, रोगभय और नाना प्रकार के कष्ट होते हैं। यदि नदियाँ नगर के निकटवर्ती स्थान को छोड़कर दूर हटकर बहने लगें तो उन नगरों की आबादी घट जाती है, वहीं अनेक प्रकार के रोग फैले हैं। यदि नदियों का जल विकृत हो जाय, वह रुधिर, तेल, घी, शहद आदि की गन्ध और आकृति के समान बहुता हुआ दिखलाई पड़े तो भय, अशान्ति और धनअय होता है। कुओं से धूम 'निकलता हुआ दिखलाई पड़े, कुआँ का जल स्वयं ही खोलने लगे, रोने और गाने का शब्द जब से विकले तो महावारी फैलती है। जन का रूप न गन्ध और स्पर्श में परिवर्तन हो जाय तो भी महानारी की सूचना समझना
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स्त्रियों का प्रसव विकार होना, उनके एक साथ तीन-चार बच्चों का पैदा होतो, उत्पन्न हुए बच्चों की आकृति पशुओं और पक्षियों के समान हो तो जिस कुल में यह घटना घटित होती है, उस कुल का विनाश उस गाँव या नगर में महामारी, अवर्षण और अशान्ति छूती है। इस प्रकार के उत्पात का फल छह महीने से लेकर एक वर्ष तक प्राप्त होता है। घोड़ी, ऊँटनी, मेस, गाय और हथिनी एक साथ दो बच्चे पैदा करें तो उनकी मृत्यु हो जाती है तथा उस नगर में मारकाट होती है । एक जाति का पशु दूसरे जाति के पशु के साथ मैथुन करे तो अमंगल होता है। दो बैल परस्पर में स्तनपान करें तथा कुत्ता गाय के बछड़े का स्तनपान करे तो महान् अमंगल होता है। पशुओं के विपरीत आचरण से भी अनिष्ट की आशंका समझनी चाहिए। यदि दो स्त्री जाति के प्राणी आपस में मंथुन करें तो
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रथ, मोटर, बहली आदि की सवारी बिना चलाये चलने लगे और बिना किसी खराबी के चलाने पर भी न बने तथा सवारियाँ चलाने पर भूमि में गड़ जायँ तो अशुभ होता है। बिना बजाये तुम्ही का शब्द होने लगे और बजाने पर बिना किसी प्रकार की खराबी के तुम्ही शब्द न करे तो उससे परत का आगमन होता है अथवा शासक का परिवर्तन होता है। नेताओं में मतमंद होता है और वे आपस में झगड़ते हैं। यदि वन स्वयं ही गांय-सांय की विकृत ध्वनि करता हुआ चने तथा पवन से घोर दुर्गन्ध आती हो तो भय होता है, प्रजा का बिना होता है तथा दुर्भिक्ष भी होता है 1 घर के पालतू पक्षिण बन जायें और बनैले पक्षी निर्भय होकर पुर में प्रवेश करें, दिन में चरने वाले रात्रि में अथवा रात्रि के चरने वाले दिन में प्रवेश करें तथा दोनों सख्याओं में मृग और पक्षी मण्डल बाँधकर एकत्र
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257 हों तो भय, मरण, महामारी एवं धान्य ना विनाश होता है। सूर्य की ओर मुंह कर गीदड़ रोयें, कबूतर या उल्न दिन में राजभवन में प्रवेश करे, प्रदोष के समय मुर्गा शब्द करे, हेमन्त आदि ऋतुओं में कोयल बोले, आकाश में बाज आदि पक्षियों का प्रतिलोम मण्डल विचरण करे तो भयदायी होता है। घर, चैत्यालय और द्वार गर अकारण ही पक्षियों का झुण्ड गिरे तो उग घर या चैत्यालय का बिनाश होता है। यदि कुत्ता हड्डी लेकर घर में प्रवेश करे तो रोग उत्पन्न होने की सूचना देता है । पशुओं की आवाज मनुष्यों के समान भालूम पड़ती हो तथा वे पशु मनुष्यों के समान आचरण भी करें तो उस स्थान पर पोर संकट उपस्थित होता है । रात में पश्चिम दिशा की ओर कुना शब्द करत हों और उनके उन त में शृगाल शब्द करें अर्थात् 'पहले कुत्ता बोलें, पश्चात् मा अनम:-
S I शुमार हर प्रकार शब्द करें तो उस नमर का विनाश छ: महीने के बाद होने लगता है और तीन वर्षों तक उस नगर पर आपत्ति आती रहती है । भवाम्। हए बिना पृथ्वी फट जाय, बिना अग्नि ने धुआँ दिनलाई पड़े और बालक गण मार-पीट का बल देलते हुए कहें-मार डालो, पोटो, इराका विनाश कर दो तो उस प्रदेश में भूव.म्प होने की सूचना समझनी चाहिए । बिधा बनाये किमी गावित या घर की दीवारों पर गेरू के लाल चिह्न या कोयन से काल चित्र बन जायें तो उस घर का पांच महीन में विनाश हो जाता है । जिस घर में अधिक म.श्यां जाल। बनाती हैं उस घर में कलह होती है 1 गांव या नगर के बाहर दिन में शृगाल और उल्लू शब्द करें तो उस गाँव के विनाश की सूचना समलनी चाहिए । वर्षा कान में पृथ्वी का काँपना, भूकम्प होना, बादलों की आकृति का अदल जाना, पर्वत और घरों वा चलायमान होना, भयंकर शब्दों का चारों दिशाओं में सुनाई पउना, गुम हुए वृक्षों में अंकुर का निकल आना, इन्द्रधनुष का काले रूप में दिखलाई पड़ना एवं श्यामवर्ण की विद्युत का गिरना भय, मत्यु और अनावृष्टि का गुचा है। जब वर्षा-ऋतु में अधिक वर्षा होने पर भी पृथ्वी मूखी दिखलाई पड़े, तो उस वर्ष दुर्भिक्ष की स्थिति समझनी चाहिए। ग्रीष्मऋतु में आकाश में बादल दिखलाई पड़ें, बिजली कड़या और चारों और वर्षा ऋतु की बहार दिनलाई पड़े तो भान तथा महामारी होती है । वर्षी ऋतु में तेज हवा चले और त्रिकोण या चौकोर ओले गिरें तो उग वर्ष अवाल की आशंका समझनी नाहिए । यदि गाम, बारी, घोडी, हथिनी और स्त्री के विपरीत गर्भ की स्थिति हो तथा विपरीत सन्तान प्रसव पर तो राजा और प्रजा दोनों के लिए अत्यन्त काट होता है। ऋतुओं में प्रस्थानावि: विकार दिखलाई पड़े तो जगत् में पीड़ा, भय, संघर्ष आदि होते हैं। यदि आकाण में लि, अग्नि और धुआँ की अधिकता दिखलाई पड़े तो दुभिक्ष, चोरों का उपद्रव एवं जनता में अशान्ति होती है।
(रोग-सूचक उत्मात--चन्द्रमा कृष्ण वर्ण का दिखलाई दे तथा तागएं
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विभिन्न वर्ण की टूटती हुई मालूम पड़े तथा सूर्य उदयकाल में कई दिनों तक लगा तार काला और रोता हुआ दिखलाई पड़े तो दो महीने उपरान्त महामारी का प्रकोप होता है। बिल्ली तीन बार कर चुप हो जाय तथा नगर के भीतर आकर शृगाल - सियार तीन बार रोकर चुप हो जाय तो उस नगर में भयंकर हैजा फैलता है। उल्कापात हरे वर्ष का हो, चद्रमा भी हरे वर्ण का दिखलाई पड़े तो सामूहिक रूप में ज्वर का प्रकोप होता है। यदि सूखे वृक्ष अचानक हरे हो जाएँ तो उस नगर में सात महीने के भीतर महामारी फैलती है। चूहों का समूह सेना बनाकर नगर के बाहर जाता हुआ दिखलाई पड़े तो प्लेग का प्रकोप समझना चाहिए। पीपल वृक्ष और वट वृक्ष में असमय में गुण फन्न आवे तो नगर या गाँव में पांच महीनों के भीतर संक्रामक रोग फैलता है, जिसमे सभी प्राणियों को कष्ट होता है । गोधा मेढक और मोर रात्रि में भ्रमण करें तथा श्वेता एवं गृद्ध घरों में घुस आयें तो उस नगर या गाँव में तीन महीने के भीतर बीमारी फैलती है। काक मैथुन देखने से मास में मृत्यु होती है । धन-धान्य नाशसुचक उत्पात वर्षा ऋतु में लगातार सात दिनों तक जिस प्रदेश में ओले बरसते हैं, उस प्रदेश के धन-धान्य का नाश हो जाता है। रात या दिन उल्लू किसी के घर में प्रविष्ट हो। बोलने लगे तो उस व्यक्ति की सम्पति छ: महीने में विलीन हो जाती है। घर के द्वार पर स्थित वृक्ष रोने लगें तो उस घर की सम्पति विलीन होती है, घर में रोग एवं कष्ट फैलते हैं । अचानक घर की छत के ऊपर स्थित होकर श्वेत काक पांच बार जोर-जोर से काँव-काँव करे, पुनः चुप होकर तीन बार धीरे-धीरे कांव-कांव करें तो उस घर की सम्पत्ति एक वर्ष में विलीन हो जाती है। यदि यह घटना नगर के बाहर पश्चिमी द्वार पर घटित हो तो नगर की सम्पत्ति विलीन हो जाती है। नगर के मध्य में किसी व्यन्तर की बाधा या व्यन्तर का दर्शन लगातार कई दिनों तक हो तो भी नगर की श्री विलीन हो जाती है । यदि आकाश में दिन भर धूल चरगती रहे तेज वायु चले और दिन भयंकर मालूम हो तो उस नगर की सम्पत्ति नष्ट होती है, जिस नगर में यह घटना घटती है। जंगल में गयी हुई गायें मध्याह्न में ही रंभाती हुई लौट आयें और वे अपने बछड़ों को दूध पिलायें तो सम्पति का विनाश समझना चाहिए। किसी भी नगर में कई दिनों तक संघर्ष होता रहे, वहाँ के निवासियों में मेलमिलाप न हो तो पाँच महीनों में समस्त सम्पत्ति का विनाश हो जाता है। वरुण नक्षत्र का केतु दक्षिण में उदय हो तो भी सम्पत्ति का विनाश समझना चाहिए। यदि लगातार तीन दिनों तक प्रातः सन्ध्या बाली, मध्याह्न सन्ध्या नीली ओर सायं सन्ध्या मिश्रित वर्ण की दिखलाई पड़े तो भय आतंक के साथ द्रव्य विनाश की भी सुचना मिलती है। सन को निरभ्र आकाश मे ताराओं का अभाव दिखलाई पड़े या ताराएँ टूटती हुई मालूम हो तो रोग और धननाश दोनों फल प्राप्त होते
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हैं । यदि ताराओं का रंग भस्म के समान मालूम हो, दक्षिण दिशा रुदन करती हुई और उत्तर दिशा हँगती हुई-सी दिसनाई पड़े तो धन-धान्य का विनाश होता है । पशुओं की बाणी यदि मनुष्य के समान मालम हो तो धन धान्य के विनाश के साथ संग्राम की सूचना भी मिलती है । कबूतर आग्ने पंखों को बटकता हुआ जिस घर में उल्टा गिरता है, और अकारण ही मृत जैसा हो जाता है, उम घर की सम्पत्ति का विनाश हो जाता है । यदि गांद या नगर के बीस-पच्चीस नंगे बच्चे धूलि में खेल रहे हों, और वे अकस्मात् 'नष्ट हो गया 'नगट हो गया' इन शब्दों का व्यवहार करें तो उस नगर में सम्पनि रूठकर चली जाती है । रथ, मोटर, इक्का, रिक्शा, साइकिल आदि की सवारी पर चढ़ते ही कोई व्यक्ति पानी गिरात हुए दिखलाई पड़े तो भी धननाश होता है। दक्षिण दिशा की ओर मे शृगाल का रोते हुए नगर में प्रवेश करना धनहानि वा गचक है । ___वाभिाव सूचक उत्पात-गोपग ऋतु में आकाश में इन्द्रधनुष दिखलाई गरे, माघ मास में गर्मी पड़े तो उस वर्ष वर्ण नहीं होती है । वर्षा ऋन के आगमन पर कुहासा छा जाये तो उस वर्ष वर्षा या अभाव जानना चाहिए । आगद गहीन के प्रारम्भ में इन्द्रधनुष का दिखलाई पड़ना भी वर्गाभाव मुनता है । मपं वा छोड़कर अन्य जाति के प्राणी सन्तान का भक्षण करें तो वर्णाभाय और घोर मिक्ष की सूचना समझनी नाहिए । यदि चुहे लड़ते हुए दिखलाई पड़े, रात के समय श्वेत धनुष दिग्वलाई दे, सूर्य में छेद मालूम पह, चन्द्रमा टूटा हुआ-मा दिग्बलाई पड़े, धूलि में चिड़ियाँ स्नान करें और सूर्य के अन्त होते समय सूय के पास ही दूसरा उद्योतवाला मूर्य दिखाई दे तो वभाव होता है तथा प्रजा को कष्ट उठाना पड़ता है।
___ अग्निभय मुचक उत्पात-गवे काठ, तिनया, घाम आदि का भक्षण कर । घोड़े सूर्य की ओर मुंह यार हीमा लमें तो दोन महीना में नगर में अग्नि का प्रकोप
होता है। घोड़ों का जाल में हींसना गायों का अग्नि चाटना, या ग्लाना, सूग्य वृक्षों का स्वयं जल उठना, पत्रकार यालाही मग स्वायं धुआं निगलना, लड़कों का आग से खेल बरना, या खलने-जलते बच्चे स ग भाग ले जायें, पक्षी आकाश में उड़ते हुए अकस्मात् गिर जायें तो उस गांच या नगर में पांच दिन लेकर तीन महीने तक अग्नि या प्रकोप होता है।
राजनीतिक उपद्रव सूचक-जिस रवान गर मनुप्य गाना गा रहे हो, बहाँ गाना सुनने के लिए यदि घोड़ी, हथिनी. कृतियाँ एका हा तो गजनीतिक उपद्रव हात हैं। जहां बच्चे खेलन-खेलते आपस में लड़ाई कारें, क्रोध झगड़ा आरम्भ करें वहाँ युद्ध अवश्य होता है तथा राजनीति के मुखियों में आपस में फूट पड़ जाने में देश की हानि भी होती है । विना बैला का हल यदि आप में आग खड़ा होकर नाचन लगे तो परचक्र - जिग पार्टी का शासन है, उसग विपरीत पार्टी का शासन होता
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भद्रबाहुसंहिता है । शासन प्राप्त पार्टी या दल को पराजित होना पड़ता है। शहर के मध्य में कुत्ते । ऊंचे मुंह कर लगातार आठ दिन तक भूकते दिखलाई पड़ें तो भी राजनीतिक झगड़े उत्पन्न होते हैं । जिस नगर या गाँव में गोदड़, कुत्ते और चूहा बिल्ली को मार । लगायें, उस नगर या गाँव में राजनीति को लेकर उपद्रव होते हैं । उसमें अशान्ति इस घटना के बाद दस महीने तक रहती है। जिस नगर या गाँव में मूखा वृक्ष स्वयं ही उखड़ता हुआ दिखलाई पड़े, उस नगर या गांव में पार्टीबन्दी होती है। नेताओं और मखियों में परस्पर वैमनस्य हो जाता है, जिससे अत्यधिक हानि होती है । जनता में भी फट हो जाने से राजनीति की स्थिति और भी विपण हो जाती है। जिस देश में बहुत मनुष्यों की आवाज सुनाई पड़ें, पर बोलने वाला कोई नहीं दिखलाई दे उम देश या नगर में पांच महीनों तक अशान्ति रहती है । रोग बीमारी का प्रयोग भी बना रहता है। यदि सन्ध्या ममय गीदड़, लोमड़ी किसी नगर या ग्राम के चारों ओर मदन करें तो भी राजनीतिमः झंझट रहता है।
वैयक्तिक हानि-लाभ सूचक उत्पात · यदि कोई व्यक्ति बाजों के न बजाने पर भी लगातार सात दिनों तक माजों की नि गने नो चार महीने में उसकी मत्यु तथा धनहानि होती है। जो अपनी नाक वा प्रभाग पर मक्खी के न रहने पर भी मनखी बैठी हुई देखता है, उसे व्यापार में चार महीन तक हानि होती है। यदि प्रातःकाल जागने पर हाथों की हथेलियों पर दृष्टि पड़ जाय तथा हाथ में कालश, ध्वजा और छत्र यों ही दिखलाई पड़ें तो उसे सात महीने तक धन का लाभ होता है तथा भावी उन्नति भी होती है। कहीं गन्ध के साधन न रहने पर भी सुगन्ध मालग पड़े तो भित्रों में मिनरप, शान्ति एवं व्यापार में लाभ तथा सुख की प्राप्ति होती है । जो व्यनित स्थिर चीजों को चलायभान और चञ्चल वस्तुओं को स्थिर देखता है, उसे व्याधि, मणभय एवं धननाण के कारण कष्ट होता है । प्रात काल यदि आप काला दिखलाई पड़े और मुर्य में अनेक प्रकार के दाग दिखलाई दें तो उस व्यक्ति को तीन महीने के भीतर रोग होता है।
सुख-दुःख को जानकारी के लिए अन्य फलादेश
नेत्रस्फरण - ओख पाकने का विशेष फलादेश दाहिनी आंग्य का नीचे का कान के पास ना हिम्सा फड़पाने ग हानि, नीचे या मध्य । हिस्सा फड़कान में भय और नाक के पास वाली नीच का हिस्सा फड़कने से धनहानि, जात्मीय को काट या मृत्यु. क्षय आदि फल होते हैं। इसी आँख का ऊपरी भाग अर्थात् बरोनी का कान के निवास बाला हिस्स। फड़कने से सुख, मध्य का भाग फनाड़ने से धनलाभ और ऊपर ही नाम के पाग वाला भाग फड़कने से हानि होती है । बायों आँख का नीचे वाला भाग नाक का पारा का फड़कने से सुख, मध्य का हिस्सा फड़कने से भंग और कान के पास वाला नीचे का हिस्सा फड़कने स सम्पत्ति-लाभ होता है । बरौनी
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चतुर्दशोऽध्यायः अंगस्फुरण फल-अंग फड़कने का फल
स्थान
फल
स्थान
फल्न
स्थान
फल
पस्तक स्फुरण | पृथ्वी लाभ | वक्षःस्फुरण विजय । | कण्ट स्फुरण आश्चर्य लाभ
तलाट स्फुरण | स्थान लाभ । हृदय स्फुरण | वांछित सिद्व ग्रीचा स्फुरण | रिए भग । कन्या स्फुरण | भोग समद्धि | कटि स्फुरण प्रमोद बन्न पृष्ट रफुरण | युद्ध पराजय | घूमध्य स्फुरण | सुख प्राप्ति कटिपार्श्व स्फु. | प्रीति कपोल रण | वसंग-।। प्रामि प्रयुग्म स्फुरण | महान् सुख मामि स्फुरण स्त्रीनाथ मुख स्फुरण मित्र प्रालि कपाल स्फुरण शुभ आंत्रक स्फुरण | कोशवृद्धि वाह स्फुरण मधुर भोजन नेत्र स्फुरण
!भा सफरणः न पानि | ना रणधगम नेत्रकोण स्फुरण | लक्ष्मी लाभ | कुक्षि स्फुरण | सुप्रीति लाग वरितदेश स्फुरण | अभ्युदय नेवसीय प्रिय समागम | उदर स्फुरण को मामि उरमाणात लाभ नित्रपक्ष स्फुरण | सफलता, लिंग स्फुरण स्त्रीलाम जानु !
सनसम्मान | गुदा मरण थाह. प्राप्ति |चा स्फ. ५ | Mাশি মাHি | नेत्रपक्ष पलक | मुकदमें में | वृषण स्फुरण प्राभि | दोपरि पुरण | स्थान-नाभ
स्फुरण विजय औक्षण | प्रियनर ला | पादतल भाग | नृपत्व नेत्रकोपा देश | कलत्र लाम | नु स्फुरण ।
पाद स्फुर" अलाग
भय
नासिका स्फुरण | प्रीति सुख हस्त स्फुरण सद
द्रव्यलाभ
पल्लीपतन और गिरगिट आरोहग फलबोधक चक्र
स्थान
ग्थान
स्थान
बहुधन
शिरलाभ ललाट वग्दर्श-मध्य राज्यसंयध उत्तसंग्र | F-1A B. नवन.11 नासायाधि दक्षिण के. आयुवृद्धि वामकर्ण नेत्र चिनमामि नमा लामभुजा रागभय कंठशत्रुनाश स्तयि दुर्भाग्य बदामनाभ पृण्देश जानुस् शुभागम |गंधा शुभ हस्तद्वय वस्त्रलाप का विजय
प्रालि करिमा सवारी दक्षिा कर, घन वाभनि
घनाभ नामिका मिछान्न लाभ मणिबंध नाश बंध कामनाभ | सागपाद नाश
भोज गुल्फ वचन केशान्त म यक्षिणपाद | गयन
적
स्वीनाश दाग पण
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भद्रबाहुसहिता
का नाक के पास बाला भाग फड़कने से भय, मध्य का हिस्सा फड़कने से चोरी या , धनहानि और कान के पास बाला हिस्सा फड़कने से कष्ट, मृत्यु अपनी या किसी आत्मीय की अयदा अन्य किसी भी प्रकार की अशुभ मचना समझना चाहिए। साधारणतया स्त्री की वायीं ओम का फड़कना और पुरुष की दाहिनी आँख का फड़कना शुभ माना जाता है, पर विशेष जानने के लिए दोनों ही नेत्रों के पृथकपृथक भागों के फड़कने का विचार करना चाहिए।
पैर, जंघा, घुटने, गुदा और कमर पर छिपकली गिरने से बुरा फल होता है, अन्यत्र प्रायः शुभ फल होता है। पुरुषों के बार्य अंग का जो फल बतलाया गया है, उसे स्त्रियों के दाहिने भाग तथा पुरुषों के दाहिने अंग के फलादेश को स्त्रियों के बायें भाग का फल जानना चाहिए । छिपकली के गिरने से और गिरगिट के ऊपर चढ़ने मे बराबर ही फल होता है । संक्षेप में बतलाया गया है कि-- यदि पतति च पल्ली दक्षिणांग नराणां, स्वजनजनविरोधो वामभागे च लाभम् । उदरशिरसि कण्ठे पृष्ठभागे र मृत्यु; धारचरणहृदिस्थे सर्वशीस्यं मनुष्यः ।। __ अर्थात् दाहिने अंग पर पल्ली पतन हो तो आत्मीय लोगों में विरोध होता है और वास अंग पर पल्ली के गिरने से लाभ होता है। पेट, शिर, कण्ठ, पीठ पर पल्ली के गिरने में मत्य तथा हाथ, पांव और छाती पर गिरने से सब सुख प्राप्त होते हैं।
गणित द्वारा पल्ली पतन के प्रश्न का उत्तर
'तिथिप्रहरसंयुक्ता तारकावारमिश्रिता। नभिस्तु हद् भानं शेष ज्ञेयं फलाफलम् ॥ धातं नाणं तथा लाभं कल्याणं जयमंगले।
उत्साहहानी मृत्युञ्च छिक्का पलनी च जाम्युनः ।।' अर्थात् जिस दिन जिरा प्रहर में पल्लीपतन हुआ हो-छिपकली गिरी हो उस दिन की तिथि शुक्ल प्रतिपदा में गिनकर लेना, प्रातःकाल से प्रहर और अश्विनी में पता के नक्षत्र तक लेना अर्थात् तिथि संख्या, नक्षत्र संख्या और प्रहर संख्या को योग कर देना, इम योग में नौ का भाग देने पर एक. शेप में घात, दो में नाश, तीन में लाभ, चार में कल्याण, पाँच में जय, छ: में मंगल, सात में उत्साह, आठ में हानि और नौ शष में मृत्यु फल कहना चाहिए । उदाहरण-- रामलाल के कार चैत्र कृष्ण द्वादशी को अनुराधा नक्षत्र में दिन में 10 बजे छिपकली गिरी है। इसका फल गणित द्वारा विचार करना है, अतः तिथि संख्या 27 (फाल्गन शुस्ला ! में मंत्र कृष्ण द्वादशी तक), नक्षत्र संम्ट्या 17 (अश्विनी से अनुराधा तक), प्रहर संख्या 2 (प्रात.काल सूर्योदय से तीन-तीन घंटे का एक-एक
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पंचदशोऽध्यायः
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प्रहर लेना चाहिए) अत: 27-1-17; 2 = 46:9-5 ल. और शेष । आया । यहाँ उदाहरण में एक गए रहा है, अत: इसका फ.२ धात होता है । अर्थात् किसी दुर्घटना का शिकार यह व्यक्ति होगा।
पल्ली-पतन का फलादेश इस प्रकार का भी मिलना है कि प्रात:काल से नकार मध्याह्न काल तक पल्लीपतन होने में विशेष अनिष्ट, मध्यान से सायंकाल तक पल्लीपतन होने से साधारण अनिष्ट और सन्ध्याकाल में उप गन्त पल्ली-पतन होने गे फलाभाव होता है । किमी-कमी का यह भी मत है कि तीनो बालों की सन्ध्याओं में पल्ली-पतन होने ग अधिक अनिष्ट होता है । इसका फल विसी-नकिसी प्रकार की अशुभ घटना का घटित होना है। दिन में सोमवार को पल्लीपतन होने मे साधारण फल, मंगलवार को पल्ली-पतन का विशेष फल, बुधवार को पल्ली-पतन होने से शुभ फल की वृद्धि तथा अशुभ फल की हानि, गुरुवार को पल्ली-पतन होने में शुभ फल IT अधिक प्रभाव तथा अणुभ पाल गाधारण, शुत्रबार को पल्ली-तिन होन नमामान्य मादेन, समिती पतन होग ग अशुभ फल की पृद्धि और गुभ फल की हानि एवं रविवार को पल्ली-पतन होन ग शुभ फल भी अशुभ फल के रूप में परिणत हो जाता है । पल्ली-पतन ना अनिष्ट पाल तभी विशप होता है, जब शनि या रविवार को भग्णी या आश्लेषा नक्षत्र में चतुर्थी या नवमी तिथि को मन्ध्याकाल में पल्ली -छिपकली गिरती है । इसका फल मृत्यु की सूचना या विमी आत्मीय की मृत्यु-सूचना अथवा किसी मुकद्दमे की पराजय की सूचना समझनी चाहिए ।
पञ्चदशोऽध्यायः
अथात: सम्प्रवक्ष्यामि ग्रहवारं जिनोदितम् ।
तत्रादित: प्रवक्ष्यामि शुक्रवार निबोधत ॥1 अव जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित ग्रहाचार का निरूपण करता हूँ। इसमें सबसे पहले शुक्राचार का वर्णन किया जा रहा है ।।१।।
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भद्रबाहुसंहिता
भूतं भव्यं भवष्टिमवृष्टि भयमग्निजम् ।
जयाऽजयोरुजं चापि सर्वान् सृजति भार्गवः ।।2।। भूत-भविष्य फल, वृष्टि, अवृष्टि, भय, अग्निप्रकोप, जय, पराजय, रोग, धन-सम्पत्ति आदि समस्त फल का शुक्र निर्देशक है ।। 214
नियन्ते वा प्रजास्तत्र वसधा "वा प्रकम्पते।
दिवि मध्ये यदा गच्छेदर्धरात्रेण भार्गव: ॥3॥ जब अर्धरात्रि का समय शुक्र आकाश में गमन करता है, तब प्रजा की मृत्यु होती है और पृथ्वी कम्पित होती है |3||
दिवि मध्ये यदा दृश्येच्छुक्रः सूर्यपथास्थितः ।
सर्वभूतभयं कर्या हिशेषादर्णसंकरम् ॥4॥ सूर्य गथ में स्थिर होकर सूर्य के साथ रहकर शुक्र यदि आकाश के मध्य में दिखलाई पड़े तो समस्त प्राणियों की भय करता है तथा विशेष रूप से वर्णसंकारों के लिए भयप्रद है ।।411
अकाले उदित: शुक्र: "प्रस्थितो वा यदा भवेत् ।
तदा विसांवत्सरिक ग्रीडा वपेत्सरसु वा ॥5॥ यदि असगय में शुक्र उदित या अस्त हो तीन वर्षों तक ग्रीष्म और शरद् ऋतु में ईति – प्लेग या अन्य महामारी होती ।।।।
गुरुभार्गवचन्द्राणां रश्मयस्तु यदा हताः।
एकाहमपि दीप्यन्ते तदा विन्द्याद्भयं खल ॥6॥ यदि बृहस्पति. मुझ और नन्द्रमा किरणे वातित होत र एक दिन भी । दीप्त हों तो अत्यन्त भय समझना चाहिए 116।।
भरण्यादीनि चत्वारि चतुनक्षत्रकाणि हि।
षडेव मण्डलानि स्थुस्तेषां नामानि लक्षयेत् ॥7॥ भरणी नक्षत्र को आदि कर तार-चार नक्षत्रों के छः मण्डल होत हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार अवगत करना चाहिए ।। 711
सर्वभूतहितं रक्तं परुषं रोचनं तथा। ऊर्ध्व चण्डं च तीक्ष्णं च "निरुक्तानि निबोधत ॥8॥
भवता
1 अर्याय शु. 12 च । 3. निनादी !दा। विसांवत्सरिक ग्रीष्म शारद नियत ।। | 4. Inानि यत् म.. ॥
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पंचदशोऽध्यायः
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समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाले रक्त, परुप, दीप्तिमान, ऊर्ध्व, चण्ड और तीक्ष्ण ये छ: मण्डल है। नाम के अनुसार उसका अर्थ अवगत करना चाहिए 11811
___चतुष्कं च चतुष्कञ्च पञ्चकं त्रिकमेव च।
पञ्चकं षट्कभिज्ञेयो भरण्यादी तु भार्गव: ॥9॥ भरणी स चार नक्षत्र. गरणी, कृत्तिका, रोहिणी और मृगशिरा का प्रथम मण्डल; आर्दा स चार नक्षत्र–आर्द्रा, पुनर्व, पुष्य और आश्लेषा का द्वितीय मण्डल; पधा से पांच नक्षत्र : मधा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त और चिया का तृतीय मण्डल; स्वाति में तीन नक्षत्र-स्वाति, विशाखा और अनुराधा का चतुर्थ भाल; ज्येष्ठा ग पांच नक्षत्र -बाठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तरमपाढा और श्रवण का पंचम मगइन एवं धनिष्ठा से छः नक्षत्र · धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा. भाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती का पाठ मण्डल होता है । इन मण्डला नाग वामश: रक्त, परुय, रोचन, ऊध्वं, चण्ड और तीक्ष्ण है ।।9।।
प्रथमं च द्वितीयं च मध्यमे शुक्रमण्डले।
तृतीयं पञ्चमं चैव मण्डले साधुनिन्दिते ।।10। शुक्र के प्रयम और द्वितीय मण्डल आयाम है तथा तृतीय और पचम साधुओं के द्वारा निन्दित हैं ।। 100
चतुर्थ चैव पष्ठं च मण्डलें प्रवरे स्मृते।
आधे द्वे मध्यमे विधानिन्दिते त्रिकपञ्चमे || चतुर्थ और पाठ मल उत्तम है । आदि का प्रथम और द्वितीय मध्यम हैं तथा तृतीय और पंचम निन्दित हैं || III
श्रेष्ठे चतुर्थषष्ठं च मण्डले भार्गवस्य ह।
शुक्लपक्ष 'प्रशस्येत् सर्वेष्वस्तमनोदये ।। 12॥ शुक्ल पक्ष में अनुदित--अस्त शुक्र के चौथे और छठे माल की प्रशंसा की गयी है ॥ 1211
'अथ गोमूत्रगतिमान् भार्गवो नाभिवर्षति ।
विकृतानि च वर्तन्ते सर्वमण्डलदुर्गतौ ।।3।। यदि बक्रगति शुक्र हो तो या नहीं होती है । चौथे और यष्ठ के अतिरिक्त अन्य सभी मण्डलों में रहने वाला शुभ विकृत-उत्पातकारक होता है ।। 13।।
। यह लांकः मुद्रित
प्र बना ।
हा । 2. तु
। 3. प्रशान्त गु| 1. अनो
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भद्रबाहुसंहिता
मण्डल, आर्द्रा मे आश्लेषा तक द्वितीय मण्डल और मघा से चित्रा नक्षत्र तक तृतीय मण्डल होता है। तृतीय मण्डल में शुक्र का उदय और अस्त हो तो वृक्षों का विनाश, शवर-शूद्र, पुण्ड, द्रविड, शुद्र, वनबासी, शू लिक का विनाश तथा इनको अपार कष्ट होता है । शुक्र का चौथा मण्डल स्वाति, विशाखा और अनुराधा इन नक्षत्रों में होता है। इस चतुर्य मण्डल में शुक्र के गमन करने से ब्राह्मणादि वर्गों को विल धन लाभ, यश लाभ और धन-जन की प्राप्ति होती है । चौथे मण्डल में शुक्र का अस्त होना या उदय होना मभी प्राणियों के लिए सुस्वदायक है । यदि चौथे मण्डल में किसी क्रूर ग्रह द्वारा आक्रान्त हो तो इक्ष्वाकुवंशी, आयन्ती के नागरिका, शरमेन देश के वासी लोगों को अपार कष्ट होता है। यदि इस मण्डल में ग्रहों का युद्ध हो, शुत्र. क्रूर नहीं द्वारा पगस्त हो जाय तो विश्व में भय और आतंक व्याप्त हो जाता है। अनेक प्रकार की महामारियाँ, जनता में क्षोभ, असन्तोष एवं अनेक प्रकार के संघर्ष होते हैं। ज्येष्ठा, मूल, पूर्वापाटा उत्त माद और श्रवण इन पाँच नक्षत्रों का पांचवां मण्डल होता है । इस पंचम मण्डल में शुक्र. के गमन करने मे क्षुधा, चोर, रोग, आदि की बाधाएं होती है। यदि क्रूर ग्रहों द्वारा पंचम मण्डल आन्त हो तो कामी, अश्मक, मत्स्य, वाफदेवी और अवन्ती देश वाले व्यक्तियों को साथ आभीर जाति, लि, 4-2 से, सो , हिन्धु और सौनीर देशवासियों का विनाश होता है । गान्त या क्रूर ग्रहाविष्ट शुक्र इस पंचम मण्डल में रहने से जनता में असन्तोग, घृणा, मात्सर्थ और नाना प्रकार के कष्ट उत्पन्न व.रता है । धनिष्टा, मतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती
और अश्विनी इन छ: नक्षरों का छठा भगइल है। यदि ग्रूर ग्रह इस मण्डल में निवास करता हो और उसके साथ शुक्र भी संगम बार तो प्रजा को प्राथिका कष्ट रहता है। छठे मण्डल में शुभ का युद्ध यदि किसी शुभ ग्रह के साथ हो तो धनधान्य की ममृद्धि; कृर ग्रह के साथ हो तो धन-धान्य का अभाव तथा पर शुभ ग्रह और एक क्रूर ग्रह हो तो जनता को साधारणतया सुख प्राप्त होता है। वर्षा समयानुसार होती है, जिससे की फमाल उत्पन्न होती है । शास्त्रमान और चारधात का कष्ट होता है। 'छठे मण्डल में शुक्र शुभ ग्रह का सहयोगी होकर अस्त हो तो प्रजा में शान्ति और सुख का संचार होता है।
न मण्डली में शुक्र-गमन का निहंगा किया गया है । ग्वाति और ज्येष्ठा नक्षत्र वाले भगडल पश्चिम दिशा में होने में अभमान होता है 1 भरादि नक्षत्र वाला मण्डल पूर्व दिशा में हो तो अत्यन्त शय होता है। ऋतिका नक्षत्र को भेद कर शुक्र गमन करे तो नदियों में बाढ़ आती है, जिस नदीमागियों को महान् कष्ट होता है। रोहिणी नक्षत्र का शुक्र गदन परे तो महामारी पड़ती है। भृगशिग नक्षत्र का भेदन करे तो जल या धान्य का नाश, आद्रा नक्षत्र का गंदन करने से कौशल और कलिंग का विनाश होता है, पर वृष्टि अत्यधिक होती है और
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फसल भी उत्तम उत्पन्न होती है । पुनर्वसु नक्षत्र का शुक्र 'भेदन करे तो अश्मक
और विदर्भ प्रदेश के रहने वालों को अनीति से क.प्ट होता है, अवशेष प्रदेशों के निवासियों को नष्ट होता है | पुष्य नक्षत्र का भेदन करने से सुभिक्ष और जनता में सुख-शान्ति रहती हैं । आश्लेषा नक्षत्र में शुक्र का गमन हो तो सर्पभय रोगों की उत्पत्ति एवं दैन्यभाव की वृद्धि होती है। मघा नक्षत्र का भेदन कर शुक्र गमन करे तो सभी देशों में शान्ति और सुभिधा होत हैं। पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का शुक्र भेदन कर आमे चले तो शवर और पुलिन्द जाति के लिए सुखकारक होता है तथा कुरुजांगल देश ने निवासियों के लिए कष्टप्रद होता है। शुक्रना इस नस को भेदन करना बंग, आसाम, बिहार, उत्तरप्रदेश के निवासियों के लिए शुभ है। शुक्र की उक्त स्थिति में धन-धान्य की समृद्धि होती है । यदि हस्त नक्षत्र का शुक्र भेदन करे तो कलाकारों को कष्ट होता है। चित्रा नक्षत्र का भेदन होने से जगत् में शान्ति, आर्थिक विकास एवं पशु म पनि की वृद्धि होती है। इस नक्षत्र का शुक्र सहयोगी ग्रहों के साथ भेदन करता हुआ आगे गमन करे तो वालिंग, बंग और अंग प्रदेश में जनता को मधुर वस्तुओं का कष्ट होता है। जिन देशों में गन्ना की खेती अधिक होती है, उन देशों में गन्ना की फसल मारी जाती है । स्वाति नक्षत्र में मात्र के आने से वर्षा अच्छी होती है। देश की स्थिति पर-राष्ट्रनीति की दृष्टि में अच्छी नहीं होती। विदेशों के साथ संवर्ष करना होता है तथा छोटी-छोटी बातों को लेकर आपस में मतभेद हो जाता है और सन्धि तथा मित्रता की बातें पिछड़ जाती हैं। व्यापारियों के लिए भी शुरू की उक्त स्थिति अच्छी नहीं मानी जाती। लोहा, गुड़, अनाज, घी और मशाल के व्यापारियों को शक्र की उक्त स्थिति में घाटा उठाना पड़ता है । तल, तिलहन एवं सोना-चाँदी के व्यापारियों को अधिक लाभ होता है । विशाखा नक्षत्र का भेदन कर शुक्र आगे की ओर बढ़े तो सुवृष्टि होती है, पर चोर-डाकुओं का प्रकोप दिनों-दिन बढ़ता जाता है । प्रजा में अशान्ति रहती है । यद्यपि धन-धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती है, फिर भी नागरिकों की शान्ति भंग होने की आशंका बनी रह जाती है। ____ अनुराधा का भेदन कर शुक्र गमन करे तो क्षत्रियों को कष्ट, व्यापारियों को लाभ, कृषकों को साधारण कष्ट एवं कलाकारों को सम्मान की प्राप्ति होती है। ज्येष्ठा नक्षत्र का वन कर शुक्र या गमन करने से सन्ता, प्रशासन में मतभेद, धन-धान्य की समद्धि एवं आर्थिक विकास होता है। मूल नक्षत्र का भेदन कर शुक्र ये गमग करने से वैद्यों को पीड़ा, डॉक्टरों को कष्ट एवं वज्ञानिकों को अपने प्रयोगों में असफलता प्राप्त होती । पूर्वाषाढा का भेदन कर शुक्र के गमन करने से जल-जन्तुओं को कट, नाव और स्टीमरों के डूबने का भय, नदियों में बाढ़ एवं जन-साधारण में आतंक व्याप्त होता है। उत्तापाढा नक्षत्र का भेदन करने से व्याधि, महामारी, दूषित ज्वर का प्रकोप, हैजा जैसी संक्रामक
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भद्रबाहुसंहिता
व्याधियों का प्रसार, चेचक का प्रकोप एवं अन्य संक्रामक दुधित बीमारियों का प्रसार होता है। श्रवण नक्षत्र का भदन कर शुक्र अपने मार्ग में गमन करे तो कर्ण सम्बन्धी रोगों का अधिक प्रसार और धनिष्ठा नक्षत्र का भेदन कर आगे चल तो आंग्य की बीमारियां अधिक होती हैं। शुक्र की उक्त प्रकार की स्थिति में साधारण जनता को भी कष्ट होता है । व्यापारी वर्ग और कृपक वर्ग को शान्ति
और सन्तोष की प्राप्ति होती है । वर्षा समयानुसार होती जाती है, जिसमे कृषक वर्ग को गरम शान्ति मिलती है। राजनीतिक उथल-पुथल होती है, जिसस साधारण जनता में भी आतंत्र व्याप्त रहता है । जतभिषा नक्षत्र का दिन बार गुम गमन वारे तो क्रूर काम करने वाले व्यक्तियों को वारट होता है। उग नक्षत्र का भेदन मुभ ग्रह के साा होने में गुभ फल और कर ग्रह च, साथ होने में अशुभ फल होता है । पूर्वाभाद्रप का भदन करने में जुबा खेलने बालों को काट, जनगमादाद का भदन बरन रा फल-पृषों की वृद्धि और रेवती न भवन नरज ग येना का विनाश होता है 1 अग्विनी नार में भदन करने में शकर के गाय संयोग मारे तो जनता को जाट और सभ ग्रह का संयोग याने तो लाभ, मरिन और आनन्द की प्राप्ति होती है । भरणी नक्षत्र का मदन करने में जनता को गाधारण वाट होता
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी, अमावस्या, अस्टमी तिथि को शक का उदय या अस्त हो तो पृथ्वी पर अत्यधि का जन्न की बनी होती है। अनान की उत्पत्ति खूब होती है । यदि गुरु और शुक्र पूर्व-पश्चिम में परस्पर सातवीं राशि में स्थित हों तो रोग और 'भय से प्रजा पीदिन रहती है, वृष्टि नहीं होती । गुम, बुध, मंगल और शनि ये ग्रह यदि गक्र के प्रांग के मार्ग में चलें तो वायु का प्रयोग, मनुष्यों में संघर्ष, अनीति औराचार की प्रति, उकापात और बिद्यपात गजनता में कण्ट तथा अनेक प्रकार के रोगों की वृद्धि होती है। यदि शनि शुभस आग गमन करे तो जनता को करट, वर्षा भाव और बुभिक्ष होता है। यदि मंगल शुक्र में आगे गमन करता हो तो भी जनता में विरोध, विवाद, शास्त्राय, अग्निपथ, चोरभय होने में नाना प्रकार में काट सहन करने पड़ते हैं। जनता में गभी प्रकार की अशान्ति रहती है। शुक्र के आगे मार्ग में वृहस्पति गमन करना हो तो समस्त मधुर पदार्थ सस्ते होते हैं। शुक्र के उदय या अस्तकाल में शुक्र के आगे जब बुध रहता है तब वर्षा और रोग रहते हैं। पित्त से उत्पन्न ग तथा कार-कामलादि रोग उत्तपन्न होने हैं 1 संन्यामी, अग्निहोत्री, वैच, नृत्य से आजीविका करने वाले; अश्व, गौ, वाहन, पीले वर्ण के पदार्थ विनाश को प्राप्त होते हैं । जिस समय अग्नि के समान शुक्र का वर्ण हो तब अग्निभय, रस्तवर्ण हो तो शस्त्र गोप, कांचन के समान वर्ण हो तो गौरव वर्ण के व्यक्तियों को व्याधि उत्पन्न होती है। यदि शुक्र हरित और कपिल वर्ण हो तो दमा और ग्रांसी का गेग अधिक उत्पन्न होता है।
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पंचदशोऽध्यायः
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भस्म के समान रूक्ष वर्ण का शुक्र देश को सभी प्रकार की विपत्ति देने वाला
होता है। स्वच्छ, स्निग्ध, मधुर और गुन्दर कान्सिवाला शुक्र नुभिक्ष, शान्ति, __नीरोगता आदि फलों को देने शला है। शुक्र का अस्त रविवार को हो तथा उदय पानिवार को हो तो देश में बिनाश, संघर्ष, चेचक बा विशेष प्रकोप, महामारी, घान्य का भाव भंगा, जनता में क्षोभ, आनंक एवं घृत और मुड़ का भाव सस्ता होता है। ___शुक्रवार को शुक्र अस्त होकर शनिवार को उदय को प्राप्त हो तो गभिक्ष, शान्ति, आथित विकाग, पशु सम्पत्ति का विचारा, समय पर वर्मा, कलाकौशल की यदि एवं क्षेत्र के गहीने में वीभारी पड़ती है। श्रावण में मंगलवार को शुभास्त हो और इगी महीने में शनिवार को उदय हो तो जनता में परस्पर संघर्ष, मेताओं में मतभेद, फसल की क्षति, खून-खराया, जहां-तहां उपद्रव एवं वर्षा भी साधारण होती है। भाद्रपद मास में गुरुवार को शुक्र अस्त हो और गुरुवार को ही शुक्र का उदय आश्विन मास में हो तो जनता में संक्रामक रोग पहनते हैं।
आश्विन मास में शक्र वृधवार को अस्त होकर मोमवार को उदय को प्राप्त हो तो सुभिक्ष, धन-धान्य की वृद्धि, जनता में साहस यन्त-कारखानों की वृद्धि होती है। बिहार, बंगाल, आसाम, उत्कल आदि पूर्वीय प्रदेशों में वर्षा यथेष्ट होती है। दक्षिण भारत में फगल अनाली नहीं होती, खेती में अनेक प्रकार के रोग लग जाते हैं, जिससे उत्तम फसल नहीं होती । कानिक माम में शुक्रास्त होकर पीप में उदय को प्राप्त हो तो जनता को साधारण कष्ट, माघ में कठोर जाड़ा तथा पाला पड़ने के कारण फसल नष्ट हो जाती है । गार्गशीर्ष में शुक्र का अस्त होन। अशुभ सूचक
____ पाप गाग में शुक्रास्त होना अच्छा होता है, धन-धान्य की समृद्धि होती है । माघ मास में शुक्र अस्त होकर फाल्ान में उदय को प्राप्त हो तो फमल आगामी वर्ष अच्छी नहीं होती । फाल्गुन और चैत्र माग में शक या अरत होना मध्यम है। वैशाख में शुक्रास्त होकर आपाढ़ में उदय हो तो दुभिक्ष, महामारी एवं सारे देश में उथल-पुथल रहती है । राजनीतियः उलट-फेर 'मी होते रहते है । ज्येष्ट और आपाढ़ के शुक्र ना अस्त होना अनाज की कमी वा सूचक है ।
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षोडशोऽध्यायः
अतः परं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभविचेष्टितम् ।
यच्छ त्वाऽवहितः प्राज्ञो भवेन्नित्यमतन्द्रितः ॥1॥ अब शुक्रचार के पश्चात् शनि-चार के अन्तर्गत शनि की शुभाशुभ चेष्टाओं का वर्णन किया जाता है, जिसको सुनकर विद्वान मुग्नी हो जाते हैं ।। 111
प्रवासमुदयं वक्र गति वर्ण फलं तथा।
शनैश्चरस्थ वक्ष्यामि 'शुभाशुभविचेष्टितम् ।।2।। पूर्वाचार्यों के मतानुसार शनि के अस्त, उदय, वक्र, गति और वर्ण के शुभाशुभ फल का वर्णन करता हूं ॥2॥
प्रवासं दक्षिणे मार्ग मासिकं मयमे पुनः।
दिवसाः पञ्चविंशतिस्त्रयोवितिरुत्तरे ।।3।। दक्षिण मागं में शानि का अस्त एन महीने का प्रस्ट और मध्याम पच्चीस दिन का होता है और उत्तर में तेईस दिन का 113।।
चारं गतश्च यो भूय: सन्तिष्ठते महाग्रहः ।
"एकान्तरेण वक्रेण भौमवत् कुरुते कलम् ।।411 जब शनि पुनः नार – गमन करता हुआ स्थिर होता है और एनान्तर वक्र को प्राप्त करता है तो भीम- मंगल के नमान फलादेश उत्पन्न होता है ।।4।।
संवत्सरमुपस्थाय नक्षत्रं विप्रमुञ्चति ।
सूर्यपुत्रस्ततश्चैव "द्योतमान: शनैश्चर: ॥5॥ शनि प्रजाहित की कामना भ मंवत्सर की स्थापना के लिए नक्षत्र का त्याग करता है ।।5।।
२ नक्षवे यदा सौरिक्षण चरते यदा।
राजामन्योऽन्यदश्च शस्त्रकोपञ्च जायते ॥6॥ जब शनि एक बप में दो नक्षत्र प्रमाण गमन करता है तो राजाओं में परस्पर मतगद होता है और शरवोप होता है ।।6।।
दुर्गे भवति संवासो मर्यादा च विनश्यति ।
वृष्टिश्च विषमा ज्ञेया व्याधिकोपश्च जायते ॥7॥ उपर्युक्त प्रकार ना शनि की स्थिति में शत्रु के भय और आतंया के कारण
J, यशाचदनपूवंश: ग. | 2 एनरेगा ग' ! 3. प्रजानां हिकायमा पु० | .
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पोडशोऽध्यायः
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दुर्ग में निवास करना होता है । मर्यादा नष्ट हो जाती है । वर्षा विषमा-हीनाधिक होती है और रोगादि फैलते हैं ।।7।।
यदा तु त्रीणि चत्वारि नक्षत्राणि शनैश्चरः ।
मन्दवृष्टि च भिक्षं शस्त्रं व्याधि च निदिशेत् ॥8॥ जब शनि एक वर्ष में तीन या चार नक्षत्र प्रमाण गमन करता है तो मन्दवृष्टि, दुभिक्ष, शस्त्रगोड़ा और रोगादि होते हैं ।।8।।
चत्वारि या यदा गच्छेन्नक्षत्राणि महाद्युतिः ।
तदा युगान्तं जानीयात् यान्ति मृत्युमुखं प्रजा: ॥9॥ यदि शनि एक वर्ष में चार नक्षत्रों का अतिक्रमण करे तो युगान्त समझना चाहिए तथा प्रजा मृत्यु के मुख में चली जाती है ॥9॥
उत्तरे पतितो मार्गे यथेषो नीलता ब्रजेत् । स्निग्धं तदा फलं ज्ञेयं नागर जायते तदा ॥101 रतिप्रधाना मोदन्ति राजानस्तुष्टभूमयः ।
क्षमा मेघवती विन्धात सर्वबीजप्ररोहिणीम् ।।11॥ उत्तर मार्ग में गमन करता हुआ शनि नीलवर्ण और स्निग्ध हो तो उसका फल अच्छा होता है । गरागी व्यक्ति आमोद-प्रमोद करते हैं. गजा सन्तुष्ट होते हैं और पृथ्वी पर सभी प्रकार के बीजों को उत्पन्न करने वाली वर्षा होती है॥10-110
मध्यमे तु यदा मार्गे कुर्यादस्तमनोदयौ।।
मध्यम वर्षणं सत्यं सुभिक्षं क्षेममेव च ॥12॥ यदि शनि मध्यम मार्ग में अस्त और उदय को प्राप्त हो तो मध्यम वर्मा, मुभिक्ष, धान्य की उत्पनि कल्याण होता है।।12।।
दक्षिणे तु यदा मार्ग यदि स नीलतां व्रजेत् ।
नागरा यायिनश्चापि पीड्यन्ते च भटागणा: ।।13।। यदि दक्षिण मार्ग में गमन करता हुआ शानि नीलवर्ण को प्राप्त हो तो नागरिक ओर यायो अर्थात् आक्रमण करने वाले दोनों ही योजागण पीड़ा को प्राप्त होते हैं ।।।3।।
1. भटजा : मः।
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भद्रबाहुसंहिता
गोपालं वर्जयेत् तत्र दुर्गाणि च समाश्रयेत्।
कारयेत् सर्वशस्त्राणि बीजानि च न वापयेत् ।।1411 उक्त प्रकार की शनि की स्थिति में गोपाल -- गोपुर, नगर को छोड़कर दुर्ग का आप्रय ग्रहण करना चाहिए, शस्त्रों की संभाल एवं नवीन शस्त्रों का निर्माण करना चाहिए और वीज बोने का कार्य नहीं कारना चाहिए ।। 1 411
प्रदक्षिणं तु ऋक्षस्य यस्य याति शनैश्चरः।
स च राजा विवर्धेत सुभिक्षं क्षेममेव च ॥15॥ शनि जिस नक्षत्र की प्रदक्षिणा करता है, उस नक्षत्र में जन्म लेने वाला राजा वृद्धिंगत होता है । सुभिन्न और कल्याण होता है ।। 15॥
अपसव्यं नक्षत्रस्य यस्य याति शनैश्चरः।
स च राजा विपद्येत दुभिक्षं भयमेव च ।।16॥ शनि जिस नक्षत्र के अपसव्य दाहिनी ओर गमन करता है, उस नक्षत्र में : उत्पन्न हुआ राजा विपत्ति को प्राप्त होता है तथा दुविक्ष और विनाश भी होता है ।।1611
चन्द्र: सौरि यदा प्राप्त: परिवेषेण रुन्द्धति।
अवरोधं विजानीयान्नगरस्य महीपतेः ॥17॥ जब चन्द्रमा शनि को प्राप्त हो और परिवेष को द्वारा अवरुद्ध हो तो नगर और राजा का अवरोध होता है अर्थात किसी अन्य राजा के द्वारा डेरा डाला जाता है ॥17॥
चन्द्र: शनैश्चरं प्राप्तो मण्डलं वाऽनुरोहति ।
यवनां सराष्ट्रां सौवीरां वारुण भजते दिशम् ।।1।। चन्द्रमा शनि को प्राप्त होकर मण्डल पर आरोहण करे तो यवन, सौराष्ट्र, सौवीर उत्तर दिशा को प्राप्त होते हैं ।।। 811
आना: सौरसेनाश्च दशार्णा द्वारिकास्तथा ।
आवन्त्या अपरान्ताश्च यायिनश्च तदा नृपाः ॥19॥ उपर्युक्त स्थिति में आनर्त, सौरसेन, दशार्ण, द्वारिका और अवन्ति के निवासी राजा यायी अर्थात् आक्रमण कारने बाले होते हैं ।।1911
1. सध्यत पु० । 2. गोरेयां म० । 3. दारणां च मजेशाग मु० ।
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षोडशोऽध्याय:
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यदा वा युगपद् युक्तः सौरिमध्येन नागरः। तदा भेदं विजानीयान्नागराणां परस्परम् ॥20॥ महात्मानश्च ये सन्तो महायोगापरिग्रहाः ।
उपसगं च गच्छन्ति धन-धान्यं च बध्यते ॥21॥ । जव चन्द्रमा और प्रति दोनों एक साथ हो तो नागरिकों में रूपर मतभेद | होता है । जो महात्मा, मुनि और साधु अपरिग्रही विचरण करते हैं, वे उपसर्ग को प्राप्त होते हैं तथा धन-धान्य को हानि होती है ।। 20-21॥
देशा महान्तो योधाश्च तथा नगरवासिनः । | ते सर्वत्रोपतप्यन्ते बेधे सौरस्य तादृशे ॥22॥ | शनि के उक्त प्रकार के वेध होने पर देश, बड़े-बड़े राधा तथा नगरनिवासी । सर्वत्र सन्तप्त होत हैं ।।2241
ब्राह्मी सौम्या प्रतीची च वायव्या च दिशो यदा।
वाहिनी यो जयेत्तासु नृपो दैवहतस्तदा ॥23॥ - पूर्व, उत्तर, पश्चिम और वायव्य दिशा की सेना को जो नृप जीतता है, वह भी भाग्य द्वारा आहत होता है 112.311
कृत्तिकासु च यद्याकिविशाखासु बहस्पतिः ।
"समस्तं दारुणं विन्द्यात् 'मेघश्चात्र प्रवर्षति ।।2411 जब कृषि का नक्षत्र पर शनि और विशाखा पर बृहस्पति रहता है तो चारों - ओर भीषण भय होता है और यहां वर्षा होती है 1124।।
कोटा: पतंगाः शलभा वृश्चिका सुषका शुकाः ।
अग्निश्चौरा इलीयांसस्तस्मिन् वर्षे न संशयः ॥25॥ इस प्रकार की स्थिति वाले वर्ष में कोट, पतंग, पलभ, बिच्छू, चूहे, अग्नि, शुभ और नोर निम्सन्देह बलवान होते हैं अर्थात् आजका प्रकोप बढ़ता है ।।25।।
श्वेते समिक्षं जानीयात् पाण्ड-लोहितके मयन् ।
पोतो जनयते व्याधि शस्त्रकोपञ्च दारुणम् ॥26॥ शनि के श्वेत रंग का होने में मृभिक्ष, पाण्डु और लोहित रंग का होने पर मय एवं पीतवर्ण होने पर व्याधि और भयंकर शस्त्रकोप होता है 1126।।
1. अन्याय मिद जानीमान म. | 2. गमन्मान
! 3. चम। 4. नया मृल।
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भद्रबाहुसंहिता कृष्णे शुष्यन्ति सरितो वासवश्च न वर्षति ।
स्नेहबानत्र गृह्णाति रूक्षः शोषयते प्रजा: ॥27॥ शनि के कृष्णवर्ण होने पर नदियां सूख जाती हैं और वर्षा नहीं होती है। स्निग्ध होने पर प्रजा में सहयोग और हक्ष होने पर प्रजा का शोषण होता है ।।27।।
सिंहलानां किरातानां मद्राणां मालवैः सह । द्रविडानां च भोजानां कोंकणानां तथैव च ॥28॥ 'उत्कलानां पुलिन्दानां पल्हवानां शकैः सह। यवनानां च पौराणां स्थावराणां तथैव च ॥29॥ "अंगानां च कुरूणां च दृश्यानां च शनैश्चरः ।
एषां विनाशं कुरुते यदि युध्येत संयुगे 1300 यदि शनि का युद्ध हो तो सिंहल, किरात, मद्र, मालव, द्रविड़, भोज, कोंकण उत्याल, पुलिन्द, पल्हन, शवा, यवन, अंग, कुरु, दृश्यपुर के नागरिकों और राजाओं का विनाश करता है। 23-
यस्मिन् यस्मिस्तु नक्षत्रे कुर्यादस्तमनोदयौ ।
तस्मिन् देशान्तरं द्रव्यं 'हन्यात् चाथ विनाशयेत् ॥3॥ जिस-जिस नक्षत्र पर शनि अस्त या उदय को प्राप्त होता है, उस-उस नक्ष वाले द्रव्य देश एवं देशवासियों का विनाश करता है |13|1|
शनैश्चरं चारमिदं च भूयो यो वेत्ति विद्वान निभतो यथावत स पूजनीयो भुवि लब्धकीत्तिः सदा महात्मेब हि दिव्यचक्षुः ॥32
जो विद्वान् यथार्थ रूप से इस शनैश्चर चार (गति) को जानता है, वह अत्यन पूजनीय है, संसार में सीनि का धारी होता है और महान् दिव्यदृष्टि को प्राप कार सभी प्रकार के फलादेशों में पारंगत होता है ।। 32।। इति सकलमनिजमानन्दकन्दोदयमहामुनिश्रीभद्रबाहुविरजिते महानमित्तिकशास्
शनैश्चरचार: बोडशोऽध्यायः परिसमाप्तः ।।16।। विवेचन - शनि के अपराशि पर होने से धान्यनाश, तेलंग, द्राविड़ और
IHAirनां • 1 2. 'परमान! . । 3. अयानां सुणां च स्पूनां न , म 4. गिना ये गु: । 5. मा; गु. । .. सामजिनामन्दकाद इयाद गुजि प नहीं है।
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षोडशोऽध्यायः
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देश में विग्रह; पाताल, नागलोक, दिशा-विदिशा में विद्रोह, मनुष्यों में क्लेश, वैर, घन का नाश, अन्न की महंगाई, पशुओं का नाश, एवं जनता में भय-आतंक रहता है। मंपराशि का शनि आधि-व्याधि उत्पन्न करता है। पूर्वीय प्रदेशों में वर्षा अधिक और पश्चिम के देशों में वर्या कम होती है । उत्तर दिशा में फसल अच्छी होती है । दक्षिण के प्रदेशों में आपसी विद्रोह होता है । वृष राशि पर शनि के होने: , पास, लोहा, लवण, तिल, गुड़ महंगे होते हैं तथा हाथी, घोड़ा, सोना, चाँदी सस्ते रहते हैं । पृथ्वी मण्डल पर शान्ति का साम्राज्य छाया रहता है। मिथुन राशि के शनि का फल सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति है। मिथुन के शानि में वर्षा अधिक होती है । कर्क राशि के शनि में लोग, तिरस्कार, धननाश, कार्य में हानि, मनुष्यों में विरोध, प्रशासकों में द्वन्द्व, पशुयों में महामारी एवं देश के पूर्वोत्तर भाग में बर्या की भी कमी रहती है। सिंह राशि के शनि में चतुरुपद, हाथी घोड़े आदि का विनाश, युद्ध, भिक्ष, रोगों का आतंक, समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों में कलेश, म्लच्छा में संघर्ष, प्रजा को सन्ता', धान्य का अभाव एवं नाना प्रकार से जनता को अनान्ति रहती है। कन्या के शनि म काश्मीर देश का नाश, हाथी और घोड़ों में रोग, सोना-चांदी-रत्न का भाव सस्ता, अन्न की अच्छी उपज एवं घतादि पदार्थ भी प्रय र परिमाण में उत्पन्न होते हैं 1 तुला के शनि में धान्य भाव तेज, पृथ्वी में व्याकुलता, पश्चिमीय देशों में क्लेश, मुनियों को शारीरिक कष्ट, नगर और ग्रामों में शेगोत्पत्ति, वनों का विनाश, अल्प वर्षा, पवन का प्रकोप, चोर-डाकुओं का अत्यधिक भय एवं धनाभाव होते हैं। तुला का शनि जनता को कष्ट उत्पन्न करता है, इनमें धान्य की उत्पत्ति अच्छी नहीं होती।
वृश्चिक राशि का शनि में राजकोप पक्षियों में युद्ध, भूकम्प, भघों का विनाश, मनुष्यों में कलह, वाइयों का विनाग, शत्रुओं को कलेय एवं नाना प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती है । वृश्चियः के अनि में चेचक, हैजा और क्षय रोग का अधिक प्रसार होता है । काम-श्याम की बीमारी भी बृद्धिगत होती है 1 धनराशि के शनि में धन-धान्य की समृद्धि समयानुकूल वर्मा, प्रजा में शान्ति, धर्मवृद्धि, विद्या का प्रचार, कलाकारों का सम्मान, देश में कला-कौशल की उन्नति एवं जनता में प्रसन्नता का प्रसार होता है। प्रजा को सभी प्रकार के गुल प्राप्त हात हैं, जनता में हर्ष और आगन्द की लहर व्याप्त रहती है। मकार के अनि में सोना, चाँदी, ताँबा, हाथी, घोड़ा, बैल, गुन, मापास आदि पदाथी म भाव महंगा होता है 1 खेती का भी विनाश होता है, जिसम अन्न की उपज भी अच्छी नहीं होती है। रोग के कारण प्रजा का विनाश होता है तथा जनता में एक प्रकार की अग्नि का भय व्याप्त रहता है, जिसमें अशान्ति दिखलाई पड़ती है। कुम्भ राशि के शनि में धन-धान्य की उत्पत्ति दूध होती है । वो प्रचुर परिमाण में और गभग्रानुकूल होती है। विवाहादि उत्तम मांगलि। कायं पृथ्वी पर होत रहने हैं, जिसमें जनता
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भद्रबाहुसंहिता
में हर्ष छाया रहता है । धर्म का प्रचार और प्रसार सर्वत्र होता है। सभी लोग सन्तुष्ट और प्रसन्न दिखलाई पड़ते हैं । मीन के शनि में खेती का अभाव, नाना प्रकार के भयानक रोगों की उत्पत्ति, वर्षा का अभाव, वृक्षों का भी अभाव, पवन का प्रचण्ड होना, तूफान और भूकम्पों का आना, भयंकर महामारियों का पड़ना, सब प्रकार से जनता का नाश और आतंकित होना एवं धन का नाश होना आदि फल घटित होते है।
सभी राशियों में तुला और मीन के शनि को अनिष्टकर माना गया है। मीन का शनि धन-जन की हानि का है और फसल को चौपट करने वाला माना जाता है । यदि मीन के शनि के साथ कर्क राशि का मंगल हो तथा इन दोनों के पीछे सूर्य गमन कर रहा हो तो निश्चय ही भयंकर अकाल पड़ता है । इस अकाल में धन-जन की हानि होती है, देश में अनेक प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न हो जाने से भी जनता को कष्ट होता है । वस्तुएं भी महंगी होती हैं । व्यापारी वर्ग को भी मीन के शनि म लाभ नहीं होता । व्यापारी वर्ग भी अनेक प्रकार से कष्ट उठाता है। अन्नाभाव के कारण जनता में बाहि-त्राहि उत्पन्न हो जाती है ।
नि का उदय विचार–प में शनि उदय हो तो जलवृष्टि, मनुप्या में सुख, प्रजा में शान्ति, धार्मिक विचार, समर्थता, उत्तम फसल, खनिज पदार्थों की उत्पत्ति अत्यधिक, सेवा की भावना, सहयोग और सहकारिता के आधार पर देश का विकास, विरोधियों को पराजय, एवं सर्वसाधारण में सुख उत्पन्न होता है । वृष राशि में शनि के उदय होने स तृण-काष्ठ का अभाव, घोड़ों में रोग, अन्य पशुओं म भी अनेक प्रकार के रोग एवं साधारण वर्षा होती है । मिथुन में उदय होने से प्रचुर परिमाण म बर्षा, उत्तम फसल, धान्य-माल सस्ता एवं प्रजा सुखी होती है।
कर्क राशि में शनि के उदय होन से वर्षा का अभाव, रसो की उत्पत्ति में कमी, वनों का अभान, घी-दूध-चीनी की उत्पत्ति में कमी, अधर्म का विकास एवं प्रशासकों में पारस्परिक अशान्ति उत्पन्न होती है । कन्या में शनि का उदय हो तो धान्य नाश, अल्प वर्षा, व्यापार में लाभ और उत्तम वर्गों के व्यक्तियों को अनेक प्रकार का कष्ट होता है। तुला और वृश्चिक राशि में शनि का उदय हो तो महावृष्टि, धन का विनाश, चोरों ना उपद्रव, उत्तम खेती, नदियों में बाढ़, नदी या समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों के निवासियों को कष्ट एवं गेहूं की फसल का अभाव था कभी रहती है । धनु राशि में शनि का उदय हो तो मनुष्यों में अस्वस्थता, रोग, स्त्री और बालकों में नाना प्रकार की बीमारी, धान्य का नाश और जनसाधारण में अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों का विकास होने से सभी को कष्ट उठाना पड़ता है। मकर में शनि का उदय हो तो प्रशासकों में संघर्प, राजनीतिक उलट-फेर, चौपायों को कष्ट, तृण की कमी, वर्षा साधारण रूप में होना एवं लोह का भाव महंगा होता है। कुम्भ राशि में शनि का उदय हो तो
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षोडशोऽध्यायः
अच्छी वर्धा, साधारणतया धान्य की उत्पत्ति, व्यापार में लाभ, कृषक और व्यापारी वर्ग में सन्तोष रहता है। देश का आर्थिक विकास होता है। नयी-नयी योजनाएं बनायी जाती हैं और सभी कार्यरूप में परिणत करायी जाती हैं। मीन राशि में शनि का उदय होना अल्प वर्षा कारक, अल्प धान्य की उत्पत्ति का सूचक एवं चोर, डाकुओं की वृद्धि की सूचना देता है। शनि का कर्क, तुला, मकर और मीन राशि में उदय होना अधिक खराब है । अन्य राशि में शनि के उदय होने से अन्न की उत्पति अच्छी होती है। देश का व्यापार विकसित होता है और देश वासियों को साधारण कष्ट के सिवा विशेष कष्ट नहीं होता है। रोग महामारी का प्रसार होता है, जिससे सर्व साधारण को कष्ट होता है ।
शनि अस्त का विचार - मेष में शनि अस्त हो तो धान्य का भाव तेज, वर्षा सण, जनता में असन्तोष परस्पर फूट. मुकद्दमों की वृद्धि और व्यापार में लाभ होता है। वृष राशि में शनि अस्त हो तो पशुओं को कष्ट, देश के पशुधन का बिनाश, पशुओं में अनेक प्रकार के रोग, मनुष्यों में संक्रामक रोगों की वृद्धि एवं धान्य की उत्पत्ति साधारण होती हैं। मिथुन राशि में शनि अस्त हो तो जनता को कष्ट, आपसी विद्वेष, धन-धान्य का विनाश, चैत्र के महीने में महामारी एवं प्रजा में अशान्ति रहती है। कर्क राशि में शनि अस्त हो तो कपास, सूत, गुड़, चांदी, घी अत्यन्त महंगे, वर्षा की कभी, देश में अशान्ति तथा नाना प्रकार के धान्य की महंगाई और कलिंग, ढंग, अंग, विदर्भ, विदेह, कामरूप, आसाम आदि प्रदेशों में वर्षा साधारण होती है । कन्या राशि में शनि के अस्त होने से अच्छी वर्षा, मध्यम फसल, अन्न का भाव महँगा, धातु का भाव भी महँगा और चीनीगुड़ की उत्पत्ति मध्यम होती है । तुला राशि में शनि का उदय हो तो अच्छी वर्षा, उत्तम फसल, जनता में सन्तोष और सभी प्रदेशों के व्यक्ति सुखी होते है । व्यापक रूप से वर्षा होती है । वृश्चिक राशि में शनि के अस्त होने से अच्छी वर्षा, फसल में रोग, टिड्डी-लभादि का विशेष प्रकोप, धन की वृद्धि, जनता में साधारणतया शान्ति और सुख होता है। धनु राशि में शनि के अस्त होने से स्त्रीबच्चों को कष्ट, उत्तम वर्षा, उत्तम फसल उत्तम व्यापार और जनसाधारण में सब प्रकार से शान्ति व्याप्त रहती है। मकर राशि में शनि के अस्त होने से गुख, प्रचण्ड पवन, अच्छी वर्षा, अच्छी फसल, व्यापार में कमी, राजनीतिक स्थिति म परिवर्तन एवं पशुधन की वृद्धि होती है। कुम्भ राशि में शनि के अस्त होने से शीत प्रकोप, पशुओं की हानि एवं मध्यम फसल होती है। मीन राशि में शनि के उत्पन्न होने से अधर्म का प्रचार, फसल का अभाव एवं प्रजा को कष्ट होता है ।
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नक्षत्रानुसार शनिफल -अवण, स्वाति, हस्त, आर्द्रा, भरणी और पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में शनि स्थित हो तो पृथ्वी पर जलवृष्टि होती है, सुभिक्ष,
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भद्रबाहसंहिता
समर्घता-वस्तुओं के भाव में समता और प्रजा का विकास होता है। उक्त नक्षत्रों का शनि मनोहर वर्ण का होन ग और अधिक शान्ति देता है तथा पूर्वीय प्रदेशों के निवासियों को अर्थलाभ होता है ! पश्चिम प्रदेशों के नागरिकों के लिए उक्त नक्षत्रों का शनि भयावह होता है । चोर, डाकुओं और गुण्डों का उपद्रव बढ़ जाता है । आश्लेगा, शतभिषा और ज्येष्ठा नक्षत्रों में स्थित शनि सुभिक्ष, सुमंगल और समयानुकूल न करता है । इन नक्षत्रों में शनि के स्थित रहने रा वर्षा प्रचुर परिमाण में नहीं होती। समस्त देश में अल्प ही वृष्टि होती है । मूल नक्षत्र में शनि के विचरण करने से क्षुधामय, शत्रु भय, अनावृष्टि, परस्पर संघर्ष, मतभेद, राजनीतिका उलट-फेर, नेताओं में झगड़ा, व्यापारी वर्ग को कष्ट एवं स्त्रियों को व्याधि होती है।
अश्विनी नक्षत्र में शनि के विचरण करने मु अश्व, अश्वारोही, कवि, वैद्य और मन्त्रियों को हानि उठानी पड़ती है। उक्त नक्षत्र का शनि बंगाल में सुभिश्न, शान्ति, धन-धान्य की वृद्धि, जनता में उत्साह, विद्या का प्रचार एवं व्यापार की उत्पत्ति, करने वाला है 1 आसाम और बिहार के लिए साधारणत: सुखदायी, अल्प वृष्टिवारक एवं नेताओं में मतभेद उत्पन्न करन वाला, उत्तर प्रदेश, मायण और महाराष्ट्र को गिा गुशिलका बाढ़ के कारण जनता को साधारण कष्ट, आथिक विकास एवं धान्य की उत्पत्ति का सुचक है 1 मद्रास, कोचीन, राजस्थान, हिमाचल, दिल्ली, पंजाब और विन्ध्य प्रदेश के लिए साधारण ष्टिकारक, सुभिक्षोतमादक और आर्थिक विकास करने वाला है। अवशष प्रदेश के लिए सुखोत्यादया और मुभिक्षकारक है। अश्विनी नक्षत्र के शनि में इंग्लैण्ड, अमेरिका और रूस में आन्तरिक अशान्ति रहती है । जापान में अधिक 'भूकम्प आते हैं तथा अनाज की कमी रहती है । वाद्य पदार्थों का अभाव मुदूर पश्चिम के राष्ट्रों में रहता है । भरणी नक्षण का पनि विशेष रूप से जल-यात्रा करने वालों को हानि पहुंचाता है। नर्तक, गाने-बजाने वाले एवं छोटी-छोटी नावों द्वारा आजीविका करने वालों को कष्ट देता है 1 कृतिका नक्षत्र का शनि अग्नि से आजीविका करने वाल, क्षत्रिय, मंनिय और प्रशासक वर्ग के लिए अनिष्टकर होता है।
रोहिणी नक्षण में रहने वाला यानि उत्तरप्रदेश और पंजाब के व्यक्तियों को काट देता है। पूर्व और दक्षिण के निवासियों के लिए गुख-शान्ति देता है । जनता में ब्रान्ति उत्पन्न करता है। समस्त देश में नयी-नयी बातों की गाँग की जाती है। शिक्षा और व्यवसाय के क्षेत्र में उन्नति होती है। मृगशिर नक्षत्र में पानिक विचरण करने से याजत्र, यजमान, धमात्मा और शान्तिप्रिय लोगों को कष्ट होता है । इस नक्षत्र पर शनि के रहने से रोगों को उत्पत्ति अधिक होती है तथा अग्निभय और शस्यभय व गवर बना रहता है । आर्द्रा नक्षत्र पर शनि के रहने रातली, धोबी, रंगरज और चारों को अत्यन्त कष्ट होता है, देश के सभी भागों में
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षोडशोऽध्यायः
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सुभिक्ष होता है। वर्षा उत्तम होती है, व्यापार भी बढ़ता है, विदेशों से सम्पर्क स्थापित होता है। पुनर्वसु नक्षत्र में शनि के रहने में पंजाब, सौराष्ट्र, सिन्धु और मौवीर देश में अत्यन्त पीड़ा होती है। इन प्रदेशों में वर्षा भी अल्प होती है तथा महानगी नाकारा जाता को मात दोना है ! पुष्य नक्षत्र में शनि के रहने से देश में सुकाल, उत्तम वर्षा, आपसी मतभेद, नेताओं में संघर्ष एवं निम्न श्रेणी के व्यक्तियों को कष्ट होता है । पूर्व प्रदेशों के लिए उक्त नक्षत्र का शनि शान्ति देने वाला, दक्षिण प्रदेशों में सुभिक्ष करने वाला, उत्तर प्रदेशों में धन-धान्य की वृद्धि करने वाला एक पश्चिम प्रदेश के व्यक्तियों के लिए अशान्तिकारक होता है। उक्त नक्षत्र का शनि राभी मुस्लिम राष्ट्रों में अशान्ति उत्पन्न करता है तथा अमेरिका में आन्तरिक कलह होता है। रूस की राजनीतिक स्थिति में भी परिवर्तन आना है । आगा नक्षत्र का शनि भषों को कष्ट देता है तथा सों द्वारा आजीविका करने वालों को भी कष्ट ही देता है । इस नक्षत्र पर शनि का रहन में जापान, वर्मा, दक्षिण भारत और युगोस्लाविया में भूका अधिक जाते है। इन पूकम्पा द्वारा धन-जन की पर्याप्त हानि होती है। भारत के लिए उक्त नक्षत्र का अनि उसम नहीं है। देश में समयानुकल वर्षा भी नहीं होती है, जिसमें फसल उत्तम नहीं होती।
उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का शनि गुड़, लबण, जल एवं फलों के लिए हानिकारक होता है । उक्त शनि में महाराष्ट्र, मद्रास, दक्षिणी भारत के प्रदेश और बम्बई क्षेत्र के लिए नाश होता है। इन राज्यों का आर्थिक विकास होता है, कलाकीगन की वृद्धि होती है । हस्त नक्षत्र में जानि रिश्रत हो तो शिल्पियों को कष्ट होला है 1 कुटीर उद्योगों के विकास में उक्त नक्षत्र के गानि में अनेक प्रकार की आधाएं जाती हैं। चित्रा नक्षत्र में शनि हो तो ग्थियों, नलित बाला के कलाकार एवं अन्य कोगन प्रकृति वालों को कष्ट होता है । इस नक्षत्र में गनि ना रहने से नमस्त भारत में व अच्छी होती है, फराल भी अच्छी उतान होनी है। दक्षिण वा प्रदेशा में आपसी मत मंद होने में कुछ अशान्ति होती है। स्वाति नक्षत्र में शनि हो तो, नर्तव., सारथी, ड्रायर, जहाज मंचालक, दूत एवं स्टीमों के चालकों को याधियां उत्पन्न होती है। देश में शान्ति और मुभिक्ष त्पन्न होते हैं। विशाग्या नक्षत्र या शनि रंगा र व्यापारियों के लिए उत्तम है । लोहा, अब तथा अन्य प्र तिनिज पदार्थो के व्यापारियों ने लिए अच्छा होता है। अनुराधा नक्षत्र
का शनि माश्मीर के लिए अरिष्टकारक और बार भारत में लिए मध्यम है । इस नक्षत्र में शदि में सती अच्छी होती है और वर्षा भी अच्छी ही होती है । इस नक्षत्र का शनि में बर्तन बनाने का कार्य करने वाले, बागड़े का कार्य करने वाले यन्त्रों में विघ्न उत्पन्न होता है । जूट और चीनी के व्यापारियों के लिए यह बहुन अच्छा होता है। ज्येष्ठा नक्षत्र का शनि अप्ठ वर्ग और पुरोहित वर्ग के लि!
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भद्रबाहसंहिता
उत्तम नहीं होता है । अवशेष सभी श्रेणी के व्यक्तियों के लिए उत्तम होता है । मूल नमान का पनि काशी, अयोध्या और आगरा में अशान्ति उत्पन्न करता है । यहाँ संघर्ष होते हैं तथा उक्त नगरों में अग्नि का भी भय रहता है। अक्शेष सभी प्रदेशों के लिए उत्तम होता है । पूर्वाषाढा में शनि के रहने से बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्यभारत के लिए भयकारक, अल्प वर्षा सूचक और व्यापार में हानि पहुंचाने वाला होता है । उत्त राषाढा नक्षत्र में शनि विचरण करता हो तो यवन, शावर, भिल्ल आदि पहाड़ी जातियों को हानि करता है । इन जातियों में अनेक प्रकार के रोग फैल जाते हैं तथा आगरा में भी संघर्ष होता है । श्रवण नक्षत्र में विचरण करने से शनि राज्यपाल, राष्ट्रपति, मुख्यमन्त्री एवं प्रधानमन्त्री के लिए हानिकारक होता है। देश के अन्य यगों के व्यक्तियों के लिए कल्याण करने वाला होता है।
धनिष्ठा नक्षत्र में विचरण करने वाला शनि धनियों, श्रीमन्तों और ऊँचे दर्जे न. व्यापारियों के लिए हानि पहुंचाता है। इन लोगों को व्यापार में घाटा होता है । गनभिषा और पूर्वाभाद्रपद में शनि के रहने में पण्य जीवी व्यक्तियों को विघ्न होता है। उक्त नक्षत्र के शनि में बड़े-बड़े व्यापारियों को अच्छा लाभ होता है। उत्तगभापद में शनि का रहने में पागल का नाग, निक्ष, जनता को नष्ट, शम्भय, अग्निभय एवं देश के सभी प्रदेशों में अशान्ति होती है । रेवती नक्षत्र में मनि के विचरण करने में फमला अभाव, अलावा, रोगों की भरमार, जनता में विद्वेष-ईया एवं नागरिकों में अमाहयोग की भावना उत्पन्न होती है । राजाओं में विरोध उत्पन्न होता है । ____ गुम के विशाखा नक्षत्र में रहने पर नि यदि कृत्तिका नक्षत्र में स्थित हो तो प्रजा को अत्यन्त पीड़ा दुर्भिक्ष और नागरिकों में भय पैदा होता है । अनेक वर्ण का शनि देश को कष्ट देता है, देश ने विकास में विधन करता है । श्वेत वर्ण का शनि होने पर भारत के सभी प्रदेशों में शान्ति, धन-धान्य की वृद्धि एवं देश का सर्वांगीण विकास होता है।
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सप्तदशोऽध्यायः
वर्ण गति च संस्थानं मार्गमस्तमनोदयौ । 'व फलं प्रवक्ष्यामि गौतमस्य निबोधत ||1||
बृहस्पति के वर्ण, गति, आकार, मार्गी, अस्त, उदय, चक्र आदि का फलादेश भगवान् गौतम स्वामी द्वारा प्रतिपादित आधार पर निरूपित किया जाता है । । ॥
मेचकः कपिलः श्यामः पीतः मण्डल-नीलवान् । स्वतश्च प्रवश्च न प्रशस्तडितस्तदा ॥2॥
बृहस्पति का मैचक, कपिल - विंगल, ज्याम, पीत, नील, खत और धूम्रवर्ण का मण्डल शुभ नहीं है ॥12॥
मेचकश्चेन्मृतं सर्वं वसु पाण्डु विनाशयेत् ।
पीतो व्याधि भयं शिष्टे धूम्राभः सृजते जलम् ॥3॥
यदि बृहस्पति का मण्डल मेचक वर्ष का हो तो मृत्यु पाण्डु वर्ण का हो तो धन-नाश, पीतवर्ण का हो तो व्याधि और धूम्रवर्ण का होने पर जन-वृष्टि होती है ॥3॥
उपसर्पति मित्रादि पुरतः स्त्री प्रपद्यते ।
त्रि- चतुभिश्च नक्षत्रं स्त्रिभिरस्तमनं व्रजेत् ॥4॥
जब बृहस्पति तीन-चार नक्षत्रों के बीच गमन करता है या तीन नक्षत्रों में अस्त को प्राप्त होता है तो स्त्री-पुत्र और मित्रादि की प्राप्ति होती है ||4|| कृत्तिकादि भगान्तश्च मार्गः स्यादुत्तरः स्मृतः ॥ अर्थमादिरपाप्यन्तो मध्यमो मार्ग उच्यते ॥5॥
कृत्तिका से पूर्वाफाल्गुनी तक कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिर, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुण्य, आपा, मघा और पूर्वाफाल्गुनी इन नौ नक्षत्रों में बृहस्पति का उत्तर गार्ग तथा उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल और पूर्वाषाढ़ा इन नी नक्षत्रों में उसका मध्यम मार्ग होता है ||5||
विश्वादिसमयान्तश्च दक्षिणो मार्ग उच्यते । एते बृहस्पतेर्मार्गा नव नक्षत्रास्त्रयः ||6||
1. गौतमस्थामि यथावदनुपूर्वशः मु । 2. पाण्डु स मु । 3. धूम्राभश्च सुजेज्जलम् ० ।
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भद्रवाहुसंहिता
उत्तगपाड़ा गे भरणी तवा- उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिपा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभा: पद, रेवती. अश्विनी भी रोग - पक्षों में गृहस्पति का दक्षिण मार्ग होता है । इस प्रकार बहस्पति के नो-नौ नक्षत्रों के तीन मार्ग बतलाये गय हैं ।।6।।
मूलमुत्तरतो याति स्वाति दक्षिणतो ब्रजेत् ।
नक्षत्राणि तु शेषाणि समन्तादक्षिणोत्तरे॥7॥ उत्तर में मूल को और दक्षिण में स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है तथा दक्षिणोत्तर रो शेष नक्षत्रों को प्राप्त करता है ।।7।
मूषके तु यदा ह्रस्वो मूल दक्षिणतो व्रजेत् ।
दक्षिणतस्तदा विन्द्यादनयोर्दक्षिणे पथि ॥४॥ जब फैन लब होकर दक्षिण से मुल नक्षत्र की ओर जाता है तो वृहस्पति और केतु दोनों ही दक्षिण मार्ग बाले कह जाते हैं ।।8।।
अनावृष्टिहता देशा 'बुमुक्षाज्वरनाशिताः ।
चक्रारूढा प्रजास्तत्र बध्यन्ते जात-तस्कराः ॥9॥ इन दोनों के दक्षिण मार्ग में रहने म अनावृष्टि-बी का अभाव होता है, जिसमे देश पीमित होते हैं । नेज ज्वर में अनेक व्यक्तियों की मृत्यु होती है प्रजा गासन में आरूढ रहती है और वर्णसंकरों का वध होता है ।।9।।
यदा चोत्तरतः स्वाति दीप्तो याति बृहस्पतिः।
उत्तरेण तदा विन्द्याद दारुणं भयमादिशेत् ।।10। जब बृहस्पति दीप्त होकर उत्तर की ओर गे स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है तो उस समय उनर देश में दारुण भय होता है ।1 1011
लुप्यन्ते च क्रिया: सर्वा नक्षत्रे गुरुपीडिते।
दस्यवः प्रबला जया न च बीजं प्ररोहति ।।1। गुरु के द्वारा नक्षत्र के पीड़ित होने पर सभी क्रियाओं का लोप होता है, चोरों को रमित यकृती है और बीज उत्पन्न नहीं होता है ।। ||
दक्षिणेन तु वक्रेण पञ्चमे पञ्च मुच्यते। उत्तरे पञ्चके पञ्च मागं चरति गौतमः ॥12॥
1. हायर विनाशिताः मुर। 2. भकाश: मु । 3. यायाद् मृ ।
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सप्तदशोऽध्यायः
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वृहस्पति के दक्षिण व पांच मार्गों में पञ्चम मार्ग वक्र गति द्वारा पूर्ण किया जाता है और उत्तर के गाँच मार्यो में नम मार्ग मार्गी गति द्वारा पूर्ण किया उजा है ।। 1 211
हस्वे भवति दुभिक्षं निष्प्रभे व्याधि भयम् ।
विवणे पापसंस्थाने मन्दपुष्प-फलं भवेत् ।।। गुरु के हस्व मार्ग में गमन करने पर दुभिक्ष, निष्प्रभ में गमन करने पर व्याधि और भय, तथा विवर्ण और पाप संस्थान मर्ग में गमन करने पर अलप फल और पुष्प उत्पन्न होते हैं ।।13।।
प्रतिलोमोऽनुलोमो वा पञ्च संवत्सरो यदा।
नक्षत्राण्युपसर्पेण तदा सृजति दुस्समाम् ।।141 वृहस्पति अपने पाँच संवत्सरों में नक्षत्रों का प्रतिलोम और अनुलोय रूप में। । गमन करता है तो दृष्काल को उत्पत्ति होती है अर्थात् प्रजा को काट होता है।14।।
सस्य नाशो अनावष्टि'मत्युस्तीवाश्च व्याधयः ।
शस्त्रकोपोऽग्नि मूळ च षड्विध मूर्छने भयम् ॥15॥ बृहस्पति को उक्त प्रकार की स्थिति में धान्य नाश, अनावृष्टि, तीवकोध, रोग, शस्त्रकोप, अग्नि कोष एवं मुळ आदि भय उत्पन्न होते हैं ।। 1 511
सप्ता, दि वाऽष्टाध षडधं निष्प्रभोदितः । पञ्चा चावार्ध च यदा संवत्सरं चरेत् ।।16।। सङग्रामा रोरवास्तत्र निर्जलाश्च बलाहका: ।
श्वतास्थी पृथिवी सर्वा भ्रान्ताक्षस्नेहवारिभिः ॥17॥ जब बृहस्पति संवत्सर, परिवत्सर, इदाबासर, अनुवत्सर और इद्वत्सर इन पांच संवत्सरों में में संवत्सार नाम के वर्ष में विचरण कर रहा हो, नया साढ़े तीन नक्षत्र, चार नक्षत्र, तीन नक्षत्र, हाई नक्षत्र और आधे नक्षत्र पर निष्प्रभ उदित हो तो संग्राम. निरादर, मघों का निजल होना, पृथ्वी का प्रवत हड्डियों से युक्त होना; क्षुधा, गेग और कुवायु मान के द्वारा असा होना आदि फल प्राप्त होते हैं 1116-17।।
1. मन्युः । 2. निन्दा
मेघाच सोहना म 3. भाग्नः सुधागे: यूवा सुभिः,
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भद्रबाहुसंहिता
पुष्यो 'यदि द्विनक्षत्रे सप्रभश्चरते समः । षड् भयानि तदा हत्वा विपरीतं सुखं सृजेत् ॥18॥ नृपाश्च विषमच्छायाश्चतुर्ष वर्तते हितम् ।
सुखं प्रजा: प्रमोदन्ते स्वर्गवत् साधुवत्सला: ॥19॥ जब वृहस्पति पुप्यादि दो नक्षत्रों में गमन करता है, तब छ: प्रकार के भयों का विनाश कर सुख उत्पन्न करता है। राजा भी आपस में प्रेम-भाव से निवास करते हैं. प्रजा मुख और आनन्द प्राप्त करती है तथा पृथ्वी स्वर्ग के समान साधुवत्मान्य हो जाती है ।। 1 8-1911
विशाखा कृत्तिका चैव मघा रेवतिरेव च । अश्विनी श्रवणश्चैव तथा भाद्रपदा भवेत् ॥20॥ बदकानि जानीयात् तिष्ययोगसमप्रभ ।
फाल्गुन्येव च चित्रा च वैश्वदेवश्च मध्यमः ॥21॥ जय बृहस्पति विशाखा, कृत्ति वा, मश, रेवती, अश्विनी, श्रवण, पूबांभाद्रपद इन नक्षत्रों में गमन करता है तो गुरु-पुष्य योग के समान ही अत्यधिक जल की वर्मा समझनी चाहिए । पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा और उत्तर पाढा इन नक्षत्रों में बृहस्पति के गगन करने पर मध्यम फल जानना चाहिए ।।20-21।।
ज्येष्ठा मूलं च सौम्यं च जघन्या सोमसम्पदा। कृत्तिका रोहिणी मूत्तिराश्लेषा हृदयं गुरुः ।।22।। आप्यं ब्राह्य च वैश्वं च नाभि: पुष्य-मघा स्मृताः।
एतेषु च विरुद्धषु ध्रुवस्य फलमादिशेत् ॥23॥ ज्याठा, मूल ओर पूर्वापाढ़ा नक्षत्रों में बृहस्पति गमन करे तो जघन्य गुखसम्पनि की प्राप्ति होती है । कृत्तिका तथा रोहिणी, मूत्ति और आश्लेषा, बृहस्पति का हृदय है। पूर्वगाढ़ा, अभिजित, उत्तरागाढा, पुष्य और मघा उसकी नाभि मानी गयी है। इन नक्षत्रों में तथा इनसे विपरीत नक्षत्रों में फल का निरूपण करना चाहिए ॥22-23।।
द्विनक्षत्रस्य चारस्य यत् पूर्व परिकीर्तितम् । एवमेवं तु जानीयात् षड् भयानि समादिशेत् ॥24॥
1. या
मु
!
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सप्तदशोऽध्यायः
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दो-दो नक्षत्रों का ममन जो पहले कहा गया है, उन्हीं के अनुसार छः प्रकार के भयों का परिज्ञान करना चाहिए 12411
इमानि यानि बीजानि विशेषेण विचक्षणः ।
व्याधयो मूतिघातेन हृद्रोगो हृदये 'महत् ।25।। जो बीजभूत नक्षत्र हैं, उनके द्वारा मनीषियों को फलादेश ज्ञात करना चाहिए। यदि बृहस्पति के मुत्ति नक्षत्रों-कृत्तिका और रोहिणी -का घात हो तो व्याधियाँ-नाना प्रकार की बीमारियाँ और हृदय नक्षत्र का घात हो तो हृदय रोग उत्पन्न होते हैं ।।250
पुष्ये हते हतं पुष्पं फलानि कुसुमानि च। आग्नेया मूषका: सर्पा दाघश्च शलभा: शुकाः ॥26॥ ईनमश्च पहाभानो जाले न नहा स्मृताः ।
स्वचक्रमोतयश्चैव परचक्र निरम्बु च ।।271 पुष्य नक्षत्र का घात होने पर पुष्प, फल और पल्लवों का विनाश, अग्नि, मूषक-चूहे, सर्प, जलन, शलभ (टिड्डी), शुक का उपद्रव, इति–महामारी, धान्यघात, स्वशासन में मित्रता, और परशासन में जलाभाब आदि फल घटित होते है ।।26-270
अत्यम्बु च विशाखायां सोमे संवत्सरे विदुः ।
शेष संवत्सरे ज्ञेयं शारदं तत्र नेतरम् ।।28।। अमहन या सौम्य नाम के संवत्सर में जब विशाखा नक्षत्र पर बृहस्पति गमन करता है, तो अत्यधिक जल की वर्षा होती है ! शेष संवत्सरों में केवल पोप संवत्सर में ही अल्प जल की वर्षा समझनी चाहिए, अन्य वर्षों में वह भी नहीं 11 2811
माघमल्पोदकं विन्द्यात् फाल्गुने दुर्भगा: स्त्रियः ।
चैत्रं चित्रं विजानीयात् सस्यं तोयं सरीसपा: ।।29॥ बृहस्पति जिस मास के जिस नक्षय में उदय हो, उम नक्षत्र के अनुसार ही महीने के नाम के समान वर्ष का भी नाम होता है। माघ नाम के वर्ष में अला वर्पा होती है, फाल्गुन नाम के वर्ष में स्त्रियों का दुर्भाग्य बढ़ता है। चत नाम के वर्ष में धान्य, जल की वर्षा विचित्र रूप में होती है तथा सरीसृपों की वृद्धि होती है 11291
1.हले मु० ।
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भद्रबाहुसंहिता
वैशाखे नृपभेदश्च पूर्वतोयं विनिविशेत् । ज्येष्ठा मूले जलं पश्चाद् मित्र भेदश्च जायते ॥30॥
वैशाख नामक वर्ष में राजाओं में मतभेद होता है और जल की वर्षा अच्छी होती है । ज्येष्ठ नामक वर्ष में जो कि ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र के मासिक होने पर आता है, अच्छी वर्षा वियों और नोटा है उँटा
प्राषाढ़े तोपसंकीर्ण सरीसृपसमाकुलम् । श्रावणे दंष्ट्रिणश्चौरा व्यालाश्च प्रबलाः स्मृताः ॥31॥
आषाढ़ नामक वर्ष में जल की कमी होती है. पर कहीं-कहीं अच्छी वर्षा होती है और सरीसृपों की वृद्धि होती है। श्रावण नामक वर्ष में दाँत बाले जन्तु चौर, सर्प आदि प्रबल होते हैं 113 11
संवत्सरे भाद्रपदे शस्त्रको पाग्निमूर्च्छनम् । सरीसृपाश्चाश्वयुजि बहुधा वा भयं विदुः 11321
भाद्रपद नामक वर्ष में शस्त्रकोप, अग्निभय, मुर्च्छा आदि फल होते हैं और आश्विन नामक संवत्सर में सरीसृपों का अनेक प्रकार का भय होता है || 320 (कार्तिक संवत्सर में शकट द्वारा आजीविका करने वाले अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण एवं क्रम-विक्रय करने वालों को कष्ट होता है ।)
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एते संवत्सराचोक्ताः पुष्यस्य परतोऽपि वा । 'रोहिण्यार्द्रास्तथाश्लेषा हस्तः स्वातिः पुनर्वसुः ॥33॥
बृहस्पति के इन वर्षों का फल कहा गया है; रोहिणी के अभिघात से प्रजा सभी प्रकार से दुःखित होती है ॥33॥
अभिजिच्चानुराधा च मूलो वासववारुणाः । रेवती भरणी चैव विज्ञेयानि बृहस्पतेः ।। 14
अभिनित्, अनुराधा, मूल, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती और भरणी ये नक्षत्र बृहस्पति के हैं अर्थात् इन नक्षत्रों में बृहस्पति के रहने से शुभ फल होता है || 34 || कत्तिकायां गतो नित्यमारोहण प्रमर्दने । रोहिण्यास्त्वभिघातेन प्रजाः सर्वाः सुदुःखिताः ॥35॥
कृतिका नक्षत्र में स्थित बृहस्पति जब आरोहण और प्रमर्दन करता है और रोहिणी में स्थित होकर अभियात करता है तो प्रजा को अनेक प्रकार का कष्ट
1. रोहित्यभिघातेन प्रजा ग्रर्थाः सुदुःखिताः ।
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सप्तदशोऽध्यायः
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होता है ।। 3511
शस्त्रघातस्तथाऽऽीयामाश्लेषायां विषादभयम्।
मन्दहस्तपुनर्वसोस्तोयं चौराश्च दारुणा: ।।36॥ आर्द्रा के घातित होने पर बृहस्पति शास्त्र घात, आश्नेषा में स्थित होने पर विषादभय तथा हस्त और पुनर्वसु में घातित होने पर मन्द वर्षा और भीषण चौर्यभय उत्पन्न करता है ।। 36।।
वायव्ये वायवो दृष्टा रोगदं वाजिनां भयम् ।
अनुराधानुधाते च स्त्रीसिद्धिश्च प्रहीयते।37॥ स्वाति नक्षत्र में स्थित बृहस्पति के घातित होने पर वायव्य दिशा में रोग उत्पन्न करता है, घोड़ों को अनेक प्रकार का भय होता है, अनुराधा नक्षत्र के धातित होने पर स्त्री-प्रेग में कमी आती है 113711
तथा मलाभिघातेन दुष्यन्ते मण्डलानि च।
वायव्यस्याभिघातेन पोड्यन्ते धनिनो नराः ॥३४॥ मूल नक्षत्र के घातित होने पर मण्डल-प्रदेशों को आ.प्ट होता है. दोष लगता है और विशाखा नक्षत्र के अभिघातित होने पर धनिक व्यक्तियों को पीड़ा होती है ।।38।।
वारुणे जलजं तोयं फलं पुष्पं च शुष्यति ।
अकारान्नाविकांस्तोयं पीडयेद्रवती हता ॥39॥ शतभिषा के अभिघातिस होने पर केगल, जल, फल, गुप इत्यादि सुख जाते हैं। उत्तरा भाद्रपद के अभिवातित होने पर नाविक और जल-जन्तुओं को गीड़ा तथा जल का अभाव और रेवती नक्षत्र के अभिवातित होने पर पीड़ा होती है ।। 39।।
वामं करोति नक्षत्रं यस्य दीप्तो बृहस्पतिः । लब्ध्वाऽपि सोऽथं विपुलं न भुजीत कदाचन ॥4॥ हिनस्ति बीजं तोयञ्च मृत्युदा भरणी यथा।
अपि हस्तगतं द्रव्य सर्वथैव विनश्यति ।।4।। दीप्त बृहस्पति जिस व्यक्ति के बायीं ओर नक्षत्र को अभियातित करता है; वह व्यक्ति विपुल सम्पत्ति को प्राप्त वा रके भी उसका भोग नहीं कर सकता है,
1. मैती-गु । 2. यह एलोव मुदिन पनि में नहीं है ।
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भद्रबाहुसंहिता
तथा बीज और जल का विनाश करता है और यम के समान मृत्युप्रद होता है। हाथ पर रखा हुआ धन भी विनाश को प्राप्त होता है ।।40-4 .।।
प्रदक्षिणं तु नक्षतं यस्य कुर्यात् बृहस्पतिः ।
यायिनां विजयं विन्द्यात् नागराणां पराजयम् ।।42॥ बृहस्पति जिस व्यक्ति के दाहिनी और नक्षत्र को अभिधातित करता है, वह व्यक्ति यदि यायी हो तो विजय और नागरिक हो तो पराजय पाता है ।14211
प्रदक्षिणं तु कुर्वीत सोमं यदि बृहस्पतिः।।
नागराणां जयं विन्द्याद् यायिनां च पराजयम् ॥43॥ यदि वृहस्पति चन्द्रमा की प्रदक्षिणा करे तो नागरिकों की विजय और . यायियों की पराजय होती है 1143||
उपघातेन चक्रेण मध्यगन्ता बृहस्पतिः ।
निहन्याद् यदि नक्षत्रं यस्य तस्य पराजयम् ।।4।। उपघात चक्र के मध्य में स्थित होकर बृहस्पति जिस व्यक्ति के नक्षत्र का धात बारता है, उसी का पराजय होता है ।।44।।
बहस्पतेर्यदा चन्द्रो रूपं संछादयेत् भशम्।
स्थावराणां वधं कुर्यात् पुररोधं च दारुणम् ॥45॥ जब बृहस्पति के रूप मा चन्द्रमा आच्छादन करे तो स्थावरों का वध होता है और नगर का भयंतार अबरोध होता है, जिससे अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं 114511
स्निग्धप्रसन्नो विमलोऽभिरूपो महाप्रमाणो द्युतिमान् स पीतः। गुरुयंदा चोतरमार्गचारी तदा प्रशस्त: 1प्रतिबद्धहन्ता॥46॥
यदि बस्पति स्निग्ध, प्रसन्न, निर्मल, सुन्दर, कान्तिमान, पीतवर्ण, पूर्ण आकृति वाला और युवावस्था वाला उत्तरमार्ग में विचरण करता है तो शुभ होता है और प्रतिपक्षियों का विनाश करता है ।।4611
इति श्रीसकलमनिजनानन्दमहामुनिभद्रबाहुविरचिते परमनैमित्तिकशास्त्र
बृहस्पतिचार: सप्तदशः परिसमाप्तः ।।171
1. प्रनिपक्ष- म०।
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सप्तदशोऽध्यायः
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विवेचन- मास के अनुसार गुरु के राशि-परिवर्तन का फल -- यदि कात्तिक मास में गुरु राशि परिवर्तन करे तो गरयो को ऋष्ट, शस्त्र-अस्त्रों का अधिक निर्माण, अग्निभय, साधारण वर्षा, समर्घता, मालिकों को कष्ट, द्रविड़ देशवासियों को शान्ति, सौराष्ट्र के निवासियों को साधारण कन्ट, उत्तरप्रदेश वासियों को सुख एवं धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती है। अगहन में गुरु के राशि परिवर्तन होन से अल्प वर्षा, कृषि की हानि, परस्पर में युद्ध, आन्तरिक संघर्ष, देश के विकास में अनेक रुकावट एवं नाना प्रकार के संकट आते हैं। बिहार, बंगाल, आसाम आदि पूर्वीय प्रदेशों में वर्षा अच्छी होती है तथा इन प्रदेशो में कृषि भी अच्छी होती है। उत्तर प्रदेश, पंजाब और सिन्ध में वर्षा की कमी रहती है, फसल भी अच्छी नहीं होती है । इन प्रदेशों में अनेक प्रकार के सांघर्ष हात है, जनता में अनेक प्रकार की पार्टियां तैयार होती है तथा इन प्रदेशों में महामारी भी फैलती हैं। चचक का प्रकोप उत्त प्रदेग, मध्यप्रदेश, और राजस्थान में होता है। पौष मास में बृहस्पति के राशि परिवर्तन से गुभिक्ष, आवश्यकतानुसार अच्छी वर्षा, धर्म की वृद्धि, क्षेम, आरोग्य और गन्नु का विकास होता है। भारतवर्ष के सभी राज्यों क लिए यह बृहस्पति उत्तम माना जाता है । पहाड़ी प्रदेशों की उन्नति और अधिक रूप में होती है । माघ मास में गुरु के राशि परिवर्तन से सभी प्राणियों को सुख-शांति, मुभिक्ष, आरोग्य और समयानुकूल प्रथेष्ट वर्षा एवं सभी प्रकार से कृषि का विकास होता है । ऊसर भूमि में भी अनाज उत्पन्न होता है। पशुओं का विकास और उन्नति होती है । फाल्गुन मास में गुरु के राशि-परिवर्तन होन म स्त्रियों को भय, विधवाओं की संख्या की वृद्धि, वर्मा का अभाव अथवा अला बर्षा, ईति-भीति, फसल की मी एवं हैजे या प्रकोप व्यापक रूप से होता है। बंगाल, राजस्थान
और गुजरात में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। चैट में गुरु का राशिपरिवर्तन होने में नारियों को मन्तान-प्राप्ति, गुभिक्ष, उत्तम वर्गा, नाना व्याधियों की आशंकाय संगार में राजनीति परिवर्तन हात है। जापान, जगन, अमेरिका, इंगलैण्ड, रूस, चीन, श्याम, बर्मा, आस्ट्रेलिया, मलाया आदि म मनमुटाव होता है 1 राष्ट्रा म भदनीति कार्य करती है। गुटबन्दी का कार्य आरम्भ हो जाने से परिवर्तन व चिह्न मग दृष्टिगोचर होने लगते है । वैशाख मास में गुरु का राशिपरिवर्तन हान सं धर्म की वृद्धि, भिक्ष, अच्छी वो, व्यापारिक उन्नति, देश का आर्थिक विकास, दुष्ट-गुण्डे-बोर आदि का दमन, सज्जनों को पुरस्कार एवं वाद्यान्न का भाव ना होता है । घी, मुड़, धीनी आदि का भाव भी सस्ता रहता है। अत प्रकार के गुझ में फलों की फसल में कमी आती है। समयानुकल यथेट वर्षा होती है। जूट, तम्बाकू और लोह का उत्पादन अधिक होता है । विदेशी से भारत का मैत्री सम्बन्ध बढ़ता है तथा सभी मैत्री सम्बन्धों में आग बढ़ना चाहत है। ज्यादा में गुरु के सशि-परिवर्तन होच स धर्मात्माजना को कष्ट,
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भद्रबाहुसंहिता
धर्मस्थानों पर विपत्ति, सत्क्रिया का अभाव, वर्षा की कमी, धान्य की उत्पत्ति में कमी एवं प्रजा में अनेक प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और पंजाव राज्य में सूखा पड़ता है, जिससे इन राज्यों की प्रजा को अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। उक्त मास में घुरु का राशिपरिवर्तन कलाकारों के लिए मध्यम और योद्धाओं के लिए श्रेष्ठ होता है । आषाढ़ मास में बृहस्पति का राशि परिवर्तन हो तो राज्य वालों को क्लेश, मुख्य मन्त्रियों को शारीरिक कष्ट, इति-भीति, वर्षा का अवरोध, फसल की क्षति, नये प्रकार की क्रान्ति एवं पूर्वोत्तर प्रदेशों में उत्तम वर्षा होती है। दक्षिण के प्रदेशों में भी उत्तम वर्षा होती है । मलवार में फसल में कुछ कमी रह जाती है। गेहूं, धान, जो और मक्का की उपज सामान्यतया अच्छी होती है। श्रावण मास में गुरु का राशिपरिवर्तन होने से अच्छी वषां, सुभिक्ष, देश का आर्थिक विकास, फल-फूलों की वृद्धि, नागरिकों में उत्तेजना, क्षेम और आरोग्य फैलता है । भाद्रपद और आश्विन मास में गुरु के राशि परिवर्तन होने से क्षेम, श्री, आयु, आरोग्य एवं धन-धान्य की बुद्धि होती है । समयानुकूल अच्छी वर्षा होती है । जनता को आर्थिक लाभ होता तथा सभी मिलकर देश के विकास में योगदान करते हैं ।
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I
द्वादश राशि स्थित गुरुफल – मेष राशि में बृहस्पति के होने से चैत्र संवत्सर कहलाता है | इसमें खूब वर्षा होती है, सुभिक्ष होता है। वस्त्र, गुड़, तांबा, कपास, मूंगा आदि पदार्थ मस्ते होते हैं। घोड़ों को पीड़ा, महामारी, ब्राह्मणों को कष्ट, तीन महीनों तक जनसाधारण को भी कष्ट होता है । भाद्रपद मास में गेहूं, चावल, उड़द, घी, मस्त होते हैं, दक्षिण और उत्तर में खण्डवृष्टि होती है । दक्षिणोत्तर प्रदेशों में दुर्भिक्ष, दो महीने के पश्चात् वर्षा होती है । कार्तिक और मार्गशीर्ष मास में कपास, अन्न, गुड़ महंगा होता है, घी का भाव सस्ता होता है, जूट पाट का 'भात्र महंगा होता है। पौय मास में रसों का भाव महँगा, अन्न का भाव सस्ता, गुड़घी का भाव कुछ महँगा होता है। एक वर्ष में यदि बृहस्पति तीन राशियों का स्पर्श करे तो अत्यन्त अनिष्ट होता है ।
वृष राशि में गुरु के होने से वैशाख में वर्ष माना जाता है। इस वर्ष में वर्षा अच्छी होती है, फसल भी उत्तम होती है। गेहूं, चावल, मूंग, उड़द, तिल के व्यापार में अधिक लाभ होता है। श्रावण और ज्येष्ठ इन दो महीनों में सभी वस्तुएं आभप्रद होती हैं। इन दोनों महीनों में वस्तुएँ खरीदकर रखने से अधिक लाभ होता है । कार्तिक, माघ और वैशाख में घी का भाव तेज होता है | आषाढ़, श्रावण और आश्विन में अच्छी वर्षा होती है, भादों के महीने में वर्षा का अभाव रहता है। रोग उत्पत्ति इस वर्ष में अधिक होती है। पूर्व प्रदेश में भलेरिया, संचक, निमोनिया, हैजा आदि रोग सामूहिक रूप में फैलते हैं। पश्चिम के प्रदेशों में सूखा होने से बुखार का अधिक प्रसार होता है। आपाढ़ नास में बीजवाले अनाज महँगे
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और अवशेष सभी अनाज सस्ते होते हैं । गुड़ का भाव फाल्गुन से महंगा होता है और अगले वर्ष तक चला जाता है। घी का भाव घटता-बढ़ता रहता है । चौपायों को कष्ट अधिक होता है। श्रावण और भाद्रपद दोनों महीनों में पशुओं में महामारी पड़ती हैं, जिससे मवेशियों का नाश होता है ।
मिथुन राशि पर वृहस्पति के आने से ज्येष्ठ नामक संवत्मर होता है। इसमें बालकों और घोड़ों को रोग होता है, वायु-वर्षा होती है । 'पाय, अत्याचार और अनीति की वृद्धि होती है । चोरभय, शस्त्रभय एवं आतंना व्याप्त रहता है । सोना, चांदी का बाजार एक वर्ष तक अस्थिर रहता है, व्यापारियों को इन दोनों के व्यापार में लाभ होता है। अनाज का भाव वर्ष के आरंभ में महंगा, पश्चात् सरना होता है । न मोह, मिर्ग, पीपल, सरसों का भाव कुछ तेज होता है । कक राशि पर गुरु के रहने से आपाहास्य संवत्सर होता है। इस वर्ष में कार्तिक और फाल्गुन में सभी प्रकार के अनाज तेज होते है, अल्प वर्षा, दुभिक्ष, अशान्ति और रोग फैलते हैं। सोना, चाँदी, रेशम, तांबा, मूंगा, मोती, माणिक्य, अन्न आदि का भाव कुछ तेज होता है; पर अनाज, गुड़ और धी का भाव अधिक तेज होता है । शीतकाल की संचित की गयी वस्तुओं को बर्पा काल में बचने में अधिक लाभ होता है 1 सिंह राशि का बृहस्पति श्रावण संवत्सर होता है। इसमें वर्षा अच्छी होती है, फसल भी उत्तम होती है। थी, दूध और रमों की उत्पनि अत्यधिक होती है। फल-पुष्पों की उपज अच्छी होने में विश्व में शान्ति और रख दिखलाई पड़ता । है । धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती है 1 नये नेताओं की उत्पति होने रा देश का नेतृत्व नये व्यक्तियों के हाथ में जाता है, जिसम देश की प्रगति ही होती है । व्यापारियों के लिए यह वर्ष उनम होता है। सभी वस्तुओं के व्यापार में लाभ होता है । सिंह . गुरु में होन पर चौपाय महंग होत है । मोना, चांदी, घी, तल, गेहूँ, चावल भी महंगा ही रहता है । चातुमास में वर्षा अच्छी होती है । मासिक और पीप में अनाज महंगा होता है, अब शेष महीनों में अनाज का भाव सस्ता रहता है। सोना-चांदी आदि धातुएँ कार्तिक म पाव तक महंगी रहती हैं, अवशेष महीनों में कुछ भाव नीचे गिर जाते हैं । यो सोने के व्यापारियों के लिए यह वर्ष बहुत अच्छा है। गुड़, चीनी के व्यापार में पाटा होता है । वैशाख माग से थावण मास तक गुड़ का भाव कुछ तेज रहता है, अबशेष महीनों में समर्धता रहती है। स्त्रियों के लिए यह वृहस्पति अच्छा नहीं है, स्त्रीधर्म सम्बन्धी अनेक बीमारियां उत्पन्न होती हैं तथा कन्याओं का चचक अधिनःनिकलनी हैं। सर्वसाधारण मानन्द, उत्साह और हर्प की लहर दिखलाई पड़ती है।
कन्या राशि के मुरु में गासवत्सर होता है। इसमें कात्तिक से वैशाख तक सुभिक्ष होता हैं। इस संवत्सर में संग्रह किया गया अनाज वैशाख में दूना लाभ देता है । वर्ष साधारण होती है और फसल भी साधारण ही रहती है । तुला राशि
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के बृहस्पति में आश्विन वर्ष होता है । इसमें घी, तेल सस्ते होते हैं । मार्गशीर्ष और पौष में धान्य का संग्रह करना उचित है। मार्गशीर्ष से लेकर चैत्र तक पांचों महीनों में लाभ होता है । विग्रह-लड़ाई और संघर्ष देश में होने का योग अवगत करना चाहिए। रस संग्रह करने वालों को अधिक लाभ होता है । वृश्चिक राशि का बृहस्पति होने पर कात्तिक संवत्सर होता है। इसमें खण्डवृष्टि, धान्य की फसल अल्प होती है। घरों में परस्पर वैमनस्य आठ महीनों तक होता है। 'भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक महीनों में महंगाई हो जाती है। सोना, चांदी, कांसा, तांबा, तिल, घी, श्रीफल, कपास, नमक, श्वेत वस्त्र महंगे बिकते हैं । देश के विभिन्न प्रदशा में संघर्ष होते हैं, स्त्रियों को नाना प्रकार के कष्ट होते हैं । धनु राशि के बृहस्पति में मार्गशीर्ष संवत्सर होता है। इसमें वर्षा अधिक होती है। सोना, चांदो, अनाज, कपास, लोहा, कांसा आदि सभी पदार्थ सस्त होते हैं। भागशापं स ज्यष्ठ तयाँ धो कुछ महंगा रहता है। चौपायों से अधिक लाभ होता है, इनका मूल्य अधिक बढ़ जाता है। मकर क गुरु में पाप सवत्सर होता है, इसमें
पामाव आरदुमक्ष होता है। उत्तर और पाश्चम में खुण्ड वृष्टि होती है तथा पूर्व और दक्षिण म दुभिक्ष | धान्य का भाव महंगा रहता है । कुम्म क गुरु में माघ सबत्सर हाता है। इसम सुभिक्ष, पर्याप्त वर्षा, धामिक प्रचार, धातु और अनाज सस्त होत है। माव-फाल्गुन में पदार्थ सस्त रहते हैं । वैशाख में वस्तुओं के भाव कुछ तज हा जात है। मीन क गुरू में फाल्गुन सवत्सर होता है। इसमें अनेक प्रकार के रोगा का प्रसार, साधारण वर्षा, सुभिक्ष, गेहूँ, चीनी, तिल, तेल और गुड़ का भाव तेज होता है। पौष मास में कष्ट होता है। फारगन और चैत्र के महीने में बीमारियां फैलती हैं। दक्षिण भारत और राजस्थान के लिए यह वर्ष मध्यम है। पूर्व के लिए वर्ष उत्तम है, पश्चिम के प्रदेशों के लिए वर्ष साधारण है।
वृहस्पति के वक्री होने का विचार–भप राशि का बृहस्पति वक्री होकर मीन राशि का हो जाय तो आषाड़, श्रावण में गाय, महिप, गधे और ऊंट तज हो जाते हैं। चन्दन, सुगन्धित तेल तथा अन्य सुगन्धित वस्तुएं महंगी होती हैं । वृष राशि का गुरु पांच महीने वक्री हो जाय तो माय-बैल आदि चौपाने, वर्तन आदि तेज होत हैं। सभी प्रकार क धान्य का संग्रह करना उचित है । मवेशी में अधिक लाभ होता है। मिथुन राशि का गुरु वक्री हो तो आठ महीने तक चौपाये नज रहते हैं 1 मार्गशीर्ष आदि महीनों में सुभिक्ष, सब लोग स्वस्थ लेकिन उत्तर प्रदेश
और पंजाब में दुमाल की स्थिति आती है । कर्क राशि का गुरु यदि वक्री हो तो घोर दुभिक्ष, गृहयुद्ध, जनता में संघर्ष, राज्यों की सीमा में परिवर्तन तथा घी, तेल, चीनी, कपास के व्यापार में लाभ एवं धान्य भाव भी महेंगा होता है। सिंह राशि के गावकी होने से गुभिक्ष, आरोग्य और सब लोगों में प्रसन्नता होती है। धाल्य क मंग्रहों में भी लाभ होता है। कन्या राशि के गुरु के वक्री होने से अल्प लाभ,
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मुभिक्ष, अधिक वर्षा और प्रजा आमोद-प्रमोद में लीन रहती है। तुला राशि के गुरु के वक्री होने से बर्तन, सुगन्धित वस्तुएं, कपास आदि पदार्य महंगे होते हैं । वृश्चिक राशि का गुरु वक्री हो तो अन्न और धान्य या संग्रह करना उचित होता है। गेहूं, चना आदि महंगे होते हैं । धनु राशि का मुरु वक्री हो तो सभी प्रकार के अनाज सस्ते होते हैं । मकर राशि के गुरु के वक्री होने से धान्य सस्ता होता है और आरोग्यता की वृद्धि होती है। यदि कुम्भ राशि का गुरु वक्री हो तो मुभिक्ष, कल्याण, उचित वर्षा एवं धान्य भावे सम रहता है। वर्षान्त मे वस्तुओं के भाव कुछ महंगे होते हैं । मीन राशि का गुरु वक्री हो तो धनक्षय, चोरों से भय, प्रशासकों में अनबन, धान्य और ररा पदार्थ महंगे होते हैं । लवण, कपास, घी और तल में चौगुना लाभ होता है। मीन के गुरु का वक्री होना धातुओं के भावों में भी तेजी लाता है तथा सुवर्णादि सभी धातुएं महंगी होती हैं।
गुरु का नक्षत्र भोग विचार–जव गुरु कृत्ति का, रोहिणी नक्षत्र में स्थित हो उस समय मध्यम वृष्टि और मध्यम धान्य उपजता है। मृगशिरा और बाद में गुरु के रहने में यथेष्ट वर्गा, मुभिक्ष और धन-धान्य की वृद्धि होती है । पुनर्वगु, पुष्य और आश्लेषा में गुरु हो तो अनावृष्टि, घोरभय, दुर्भिक्ष, लूट-पाट, संघाई और अनेक प्रकार के रोग होते हैं। भत्रा और पूर्वाफाल्गुनी में गुरु के होने में गुभिक्ष, क्षेम और आरोग्य होते हैं। उन राफाल्गुनी और हस्ता में गुरु स्थित हो तो वर्षा अच्छी, जनता को मुख एवं सर्व क्षेम-आरोग्य व्याप्त रहता है। चित्रा और स्वाती नक्षत्र में गश हो तो श्रेष्ठ धान्य, उत्तम व नशा जनता में आमोद-प्रमंन्द होते हैं। विभाग्वा और अनुराधा में गुप के होने में मध्यम वर्ग होती है और फसल भी मध्यम ही होती है। ज्याठा और मूल में गुरु हो तो दो महीने के उपरान्त खण्डवृष्टि होती है। पूर्वापाढ़ा और उमा राहा में गुरु हो तो तीन महीनों तक लगातार अच्छी वर्ग, क्षेम, आरोग्य और पृथ्वी पर सुभिक्ष होता है। श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्र में गुरु हो तो सुभिक्ष के गाथ श्राव्य महंगा होता है । पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपद में गुरु का होना अनावृष्टि का सूचक है। रेवती, भरणी और अश्विनी नक्षत्र में गुरु के होने से मुभिक्ष, धान्य की अधिक पति एवं शान्ति रहती है । मृगशिरा में पांच नक्षत्रों में गुरु शुभ होता है । गुः तीन्न गशि हो और शनि वत्री हो तो विश्व में हाहाकार होने लगता है।
गुरु के उदय का फलादेश मेष राशि में गुरु का उदय हो तो दुभिक्ष, भाण, संकट, पापारिक दुर्घटनाएं होती हैं । बृप में उदय होगगुभिश्न, भगि-रत्न महंग होता है । मिथुन में उदय होने से वेश्याओं को कष्ट, कलाकार और व्यापारिय। को भी पीड़ा होती है। कर्क में उदय होने से अलावृष्टि, मृत्यु एवं धान्य भाव तेज होता है । गिह में उदय होनस भभयानुकल यथेट बार्गा, गुभिक्ष पब नदियों की वादस जन-साधारण में कष्ट होता है। कन्या राशि में गुरु के उदय होने
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बालकों को कष्ट, साधारण वर्षा और फसल भी अच्छी होती है । तुलाराशि में गुरु के उदय होने से काश्मीरी चन्दन, फल-पुष्प एवं सुगन्धित पदार्थ महँगे होते हैं वृश्चिक राशि में गुरु के उदय होने से दुर्भिक्ष, धन-विनाश, पीड़ा, एव अल्प वर्षा होती है ।
धनु राशि और मकर राशि में गुरु का उदय होने से रोग, उत्तम धान्य, अच्छी वर्षा एवं द्विजातियों को कष्ट होता है। कुम्भ राशि में गुरु के उदय होने से अतिवृष्टि, अनाज का भाव महेंगा एवं मीन राशि में गुरु के उदय होने से युद्ध, संघर्ष और अशान्ति होती है | कार्तिक मास में गुरु के उदय होने से थोड़ी वर्षा, रोग, पीड़ा, मार्गशीर्ष में उदय होने से सुभिक्ष, उत्तम वर्षा पीप में उदय होने से नोरोगता और धान्य की प्राप्तिः माघ-फाल्गुन में उदय होने से खण्डवृष्टि, चैत्र में उदय होने से विचित्र स्थिति, वैशाख - ज्येष्ठ में उदय होने से वर्षा का निरोध; आपाढ़ में उदय हो तो आपस में मतभेद, अन्न का भाव तेज श्रावण में उदय हो सो आरोग्य, सुख-शान्ति, वर्षा भाद्रपद मास में उदय होने से धान्यनाश एवं आश्विन में उदय होने में सभी प्रकार से सुख की प्राप्ति होती है।
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गुरु के अस्त का विचार - मेप में गुरु अस्त हो तो थोड़ी वर्षा; बिहार, बंगाल, आसाम में सुभिक्ष, राजस्थान, पंजाब में दुष्काल बृष में अस्त हो तो दुर्भिक्ष दक्षिण भारत में अच्छी फसल, उत्तर भारत में खण्डवृष्टि, मिथुन में अस्त हो तो घृत, तेल, लवण आदि पदार्थ महेंगे, महामारी के कारण सामूहिक मृत्यु, अल्प वृष्टि, कर्क में हो तो सुभिक्ष, कुशल, कल्याण, क्षेम; सिंह में अस्त हो तो संघर्ष, राजनीतिक उलट-फेर धन का नाश कन्या में अस्त हो तो क्षेम, शुद्ध. सुभिक्ष, आरोग्य, तुला में पीड़ा, द्विजों को विशेष कष्ट, धान्य महंगा; वृश्चिक में अस्त हो तो नेत्ररोग, धनहानि, आरोग्य, शस्त्रभय धनु राशि में अस्त हो तो भय, आतंक, संगादि मकर राशि में अस्त हो तो उड़द, तिल, मूंग आदि धान्य महेंगे: कुम्भ में अस्त हो तो प्रजा को कष्ट, गर्भवती नारियों को रोग एवं मीन राशि मे अस्त हो तो सुभिक्ष, साधारण वर्षा, धान्य भाव सस्ता होता है ।
गुरु का क्रूर ग्रहों के साथ अस्त या उदय होना अशुभ होता है । शुभ ग्रहों के साथ अस्त या उदय होने से गुरु का शुभ फल प्राप्त होता है । गुरु के साथ शान्ति और मंगल के रहने से प्रायः सभी वस्तुओं की कमी होती है और भाव भी उनके होते हैं। जब गुरु के साथ शनि की दृष्टि गुरु पर रहती है, वर्षा कम होती है और फमल भी अल्प परिमाण में उपजती है ।
सब
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अष्टादशोऽध्यायः
गति प्रवासमुदयं वर्ण ग्रहसमागमम् ।
बुधस्य सम्प्रवक्ष्यामि फलानि च निबोधत ॥1॥ बुध के प्रवास--अस्त, उदय, वर्ण, ग्रहयोग का वर्णन करता हूं, उनका फल निम्न प्रकार अवमत करना चाहिए ॥1॥
सौम्या विमिश्रा: संक्षिप्तास्तीवा घोरास्तथैव च ।
दुर्गावगतयो ज्ञेया बुधस्य च विचक्षणः ।।2।। स.म्या, विभिधा, संक्षिप्ता, तीत्रा, छोरा, दुर्गा और पापा ये सात प्रकार की बुध की गतियाँ विद्वानों ने बतलायी हैं ॥2॥
सौम्यां गति समुत्याय 'त्रिपक्षाद् दश्यते बुधः । विमिश्रायां गतौ पक्षे संक्षिप्तायां षडूनके ।।3।। तीक्ष्णायां दशरात्रेण घोरायां तु षडालिके।
पापिकायां त्रिरात्रेण दुर्गायां सम्यगक्षये ।।4।। सौम्या गति में बुध तीन पक्ष अर्थात् 45 दिन तक देखा जाता है । विमिया गति में दो पक्ष अर्थात् तीस दिन, संक्षिप्ता गति में चौबीस दिन, तीक्ष्णा गति में दस रात, घोरा में छः दिन, पापा गति में तीन रात और दुर्गा में नौ दिन तक बुध दिखलाई पड़ता है । तात्पर्य यह है कि बुध की सीम्यगति 45 दिन, विमिथा 30 दिन, संक्षिप्ता 24 दिन, तीक्ष्णा मा तीत्रा 10 दिन, घोरा 6 दिन, पा१1 3 दिन और दुर्गा 9 दिन तक रहती है ।।3-4।।
सौम्याः विमिश्राः संक्षिप्ता बधस्य गतयो हिताः।
शेषा: पापा: समाख्याता विशेषेणोत्तरोत्तरा: ।।5।। बुध की सौम्या, विमिना और संक्षिप्ता शातियाँ हितकारी हैं, शप सभी गतियाँ ___ पाप गनि कहलाती हैं तथा विशेष रूप में उत्तर-इत्तर की गतियाँ राप हैं ।।5।।
नक्षत्रं शकबाहेन जहाति समचारताम् ।
एषोऽपि नियतश्चारो भय कुर्यादतोऽन्यथा ॥6॥ यदि बुध मगान स्प मे गमन करता हुआ शक वाहन के द्वारा स्वाभाविक गति से नक्षत्र का त्याग करे तो यह बुध या नियत चार कहलाता है, इसके विपरीत गमन करने से भय होता है ।।6।।
IIपक्ष मु. । 2. समायर 1. म. ।
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भद्रबाहुसंहिता
नक्षत्राणि चरेत्पञ्च पुरस्तादुत्थितो बुधः ।
ततश्चास्तमित: षष्ठे सप्तमे दृश्यते परः ।।711 सम्मुख उदय होकर बुध पाँच नक्षत्र प्रमाण गमन करता है, छठे नक्षत्र पर अस्त होता है और सातवे पर पुनः दिखलाई पड़ता है ।।7।।
उदित: पृष्ठत: सोम्यश्चत्वारि चरति ध्रुवम् ।
पञ्चमेऽस्तमितः षष्ठे दृश्यते पूर्वतः पुनः ॥॥ पृष्ठतः उदिन होकर बुध चार नक्षत्र प्रमाण गमन करता है, पांचवें नक्षत्र पर अस्त होता है और छठे पर गुनः दिखलाई पड़ता है ।।811
चत्वारि षट् तथाऽष्टौ च कुर्यादस्तमनोदयौ ।
सौम्यायां तु विमिश्रायां संक्षिप्तायां यथाक्रमम् ॥9॥ मोम्या, विभिक्षा और संक्षिप्ता गति में क्रमश: चार, छ: और आठ नक्षत्रों पर अस्त और उपप को बुध प्राप्त होता है ।।५।।
नक्षत्रमस्य चिह्नानि गतिभिस्लिसाभयंदा ।
पूर्वाभि: पूर्णसस्यानां तदा सम्पत्तिरुत्तमा ॥10॥ उस तीनों गलियों में जब बुध नक्षत्रों को पुनः ग्रहण करता है तो पूर्ण रूप से । धान्य की उत्पत्ति होती है और उनम सम्पत्ति रहता है ।। 10।।
बुधो ग्रदोत्तरे मार्ग सुवर्णः पूजितस्तदा।
मध्यमे मध्यमो ज्ञेया जघन्यो दक्षिणे पथि ।।1।। पूर्वोतर मार्ग में बुध अन्द्र वर्ण बालों द्वारा पूजित होता है अर्थात उत्तम फलदायक होता है। गध्य में मध्य और दक्षिण मार्ग में जघन्य माना जाता है ।।1।।
वसु कुर्थादतिस्थलो ताम्र: शस्त्रप्रकोपनः ।
"अतश्चारुणवर्णश्च बुधः सर्वत्र पूजितः ॥12॥ अनिल बुध धन वृद्धि मारता है, ताम्रवणं का बुध शास्त्र काप करता है, गुम और अम्ण वर्ण का बुध सर्वत्र पूजित–उत्तम होता है 111211
पृष्ठत: पुरलम्भाय पुरस्तादर्थवृद्धथे।
स्निग्धो रूक्षो बुधो ज्ञेय: सदा सर्वत्रगो बुधः ॥13॥ बुध का पीछे रहना नगर-प्राप्ति निग, सामने रहना अर्थ-वृद्धि के लिए और और बुध गदा सवंर गएन । रने वाला होता है ।।।3।।
नु.:It . । 2. अ... |
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अष्टादशोऽध्यायः
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गुरो: शुक्रस्य भौमस्य वीथीं विन्द्याद् यथा बुधः ।
दीप्तोऽतिरूक्ष: सङ ग्रामं तदा घोरं निवेदयेत् ॥14॥ जब बुध ग्रह गुरु, शुक्र और मंगल की वीथि को प्राप्त होता है तब अत्यन्त हक्ष और दीप्त होता है, अत: घोर संग्राम होता है ।।14।
भार्गवस्योत्तरा' वीथीं चन्द्रशृङ्ग च दक्षिणम् । बुधो यदा निहन्यात्तानुभयोदक्षिणापथे ।।।5।। राज्ञां चक्रधराणां च सेनानां शस्त्रजीविनाम् ।
पौर-जनपदानां च क्रिया काचिन्न सिध्यति ।।।6।। यदि शुक्र उत्तरा-वीथि में हो और चन्द्रशृग दक्षिण की ओर हो तथा उनको दक्षिण मार्ग में बुध घातित करे तो राजा, चक्रधर ..- शासक, सेना, शस्त्र में आजीविका करने वाले, पुरवासी और नागरिकों की कोई भी किया सिद्ध नहीं होती है ।। 15-16॥
शुक्रस्य दक्षिणां वीथौं चन्द्रशृंगमधोत्तरम् ।
भिन्द्याल्लिखेत् तदा सौम्यस्ततो 'राज्याग्निजं भयम् ॥17॥ शुक्र यदि दक्षिण बीथि में हो और चन्द्रग नीचे की ओर उत्तर तरफ हो तथा बुध इनका भेदन कर स्पर्श करे तो उस समय राज्य और अग्नि का भय होता है ।॥17॥
यदा बुधोऽरुणाभ: स्यादुर्भगो वा निरीक्ष्यते ।
तदा स स्थावरान् हन्ति ब्रह्म-क्षत्रं च पीडयेत् ॥18॥ जब बुध अरुण क्रान्ति वाला हो अथवा दुर्भग कुरूप दिखलाई पड़ता हो तो स्थावर-नागरिकों का विनाश करता है और ब्राह्मण और क्षत्रियों को पीड़ित करता है ।। 18।।
चान्द्रस्य दक्षिणां वीथों भिन्दा तिष्ठेद् यो ग्रहः। रूक्षः स कालसंकाशस्तदा चित्रविनाशनम् ॥19॥ चित्रमूत्तिश्च चित्रांश्च शिल्पिनः कुशलांस्तथा।
तेषां च बन्धनं कुर्यात् मरणाय समोहते ॥20॥ जब कोई ग्रह बुध की दक्षिण वीयि का भेदन करे तथा वह रूक्ष दिखलाई
1. श्चोत्तरी मु० । 2. -जान• गु० । 3. शुत्रस्तु मु० । 4. रोग: ग्नि 5 गयम मु । 5. स्यादुञ्चगो वा मु०।
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पड़े तो शिल्पकला एवं चित्रकला का विनाश होता है । चित्र, मूर्ति, कुशल मूर्तिकार और चित्रकारों का बन्धन और विनाश होता है ! अर्थात् उक्त प्रकार की स्थिति में ललित कलाओं और ललित कलालों का निर्माताओं का विनाश एवं मरण होता है ।।19-2011
भित्त्वा पदोत्तरां वीथों दारुकाशोऽवलोकयेत् । सोमस्य चोत्तरं शृंगं लिखेद् भद्रपदां वधेत् ॥21॥ शिल्पिनां दारुजीवीना तदा षापमासिको भयः ।
अकर्मसिद्धिः कलहो मित्र भेव: पराजयः ॥22॥ यदि बुध उत्तरा वीथि का भेदन कर काष्ठ-तृण का अवलोकन करे एवं चन्द्रमा के उत्तर शृंग का स्पर्श करे तथा पूर्वा भाद्रपद का वेध करे तो काष्ठजीवी शिल्पियों को छः महीने में भय होता है । अकार्य की सिद्धि होती है । कलह, मित्रभेद और पराजय आदि फल घटित होते हैं 1121-221॥
पीतो यदोत्तरां बीथीं गुरुं भित्वा प्रलीयते। तदा चतुष्पदं गर्भ कोशधान्यं बुधो वधेत् ॥23॥ वैश्यश्च शिल्पिनश्चापि गर्भ मासञ्च सारथिः ।
सो नयेद्भजते मासं भाद्रबाहुवचो यथा 12410 पीत वर्ण का बुध उत्तरा वीथि में बृहस्पति का भेदन कर अस्त हो जाय तो चौपाये, गर्भ, खजाना, धान्य आदि का विनाश करता है। उक्त प्रकार की बुध की स्थिति से वैश्य और गिल्पियों को दामण भय होता है । यह भय एक महीने तक रहता है, ऐसा भद्रवाह स्वामी का वचन है ।। 23-2411
विभ्राजमानो रक्तो वा बुधो दृश्येत कश्चन ।
नागराणां स्थिराणां च दीक्षितानां च तद्भयम् ।।25।। यदि नभी शोभित होने वाला रक्त वर्ण का बुध दिखलाई पड़े तो नागरिक, स्थिर और दीक्षित--साधु-मुनियों को भय होता है ।।25।।
कृत्तिकास्वग्निदो रक्तो रोहिण्यां स क्षयंकरः।। सौम्ये रौद्रे तथाऽऽवित्ये पुष्ये सर्प बुधः स्मृतः ॥26॥ पितदैवं तथाऽऽश्लेषां कलु यदि "दृश्यते । पितृ स्तान् विहंगांश्च सस्यं स भजते मयः ॥27॥
1. वयः मु० । 2. शिल्पिनां चापि भर्ष भयनि दाराम मु० । 3. सेवते मु० ।
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कृत्तिका में लाल वर्ण का बुध हो तो अग्नि प्रकोप करने वाला, रोहिणी में हो तो क्षय करने वाला होता है ! और यदि मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा इन नक्षत्रों में कलुषित बुध हो तो पितर और विहंगमों तथा घान्य को लाभ होता है ।।2 6-27॥
बुधो विवर्णो मध्येन विशाखां यदि गच्छति ।
ब्रह्म विगाहामा जला लो न संशयः ॥28॥ यदि विवर्ण वुध विशाखा के मध्य से गमन करे तो ब्राह्मण और क्षत्रियों का विनाश होता है, इसमें सन्देह नहीं है 11281
मासोदितोऽनुराधायां यदा सौम्यो निषेवते ।
पशुधनचरान् धान्यं तवा पोडयते भृशम् ॥29॥ जब मामोदित बुध अनुराधा में रहता है तो पशुधन को अत्यधिक कष्ट देता है और धान्य की हानि होती है ।।29।।
श्रवणे राज्यविभ्रशो ब्राह्म ब्राह्मणपीडनम् ।
धनिष्ठायां च वैवयं धनं हन्ति धनेश्वरम् 1130॥ विकृत वर्ण वाला बुध यदि श्रवण नक्षत्र में हो तो राज्य नष्ट होता है, अभिजित् में हो तो ब्राह्मणों को पीड़ा होती है और धनिष्ठा में हो तो धनिकों का और घन का विनाशक होता है ।।3011
उत्तराणि च पूर्वाणि याम्यायां दिशि हिसति ।
धातुवादविदो हन्यात्तज्ज्ञांश्च परिपीडयेत् ॥31॥ ___ यदि वुध दक्षिण मार्ग में तीनों उत्तस-उत्तरा फाल्गुनी, उत्तरापाढा और उत्तराभाद्रपद तथा तीनों पूर्वा-पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वापाढा और पूर्वाभाद्रपद का घात करे तो धातुबाद के ज्ञाताओं को पीड़ा होती है 113 1॥
ज्येष्ठायामनुपूर्वेण स्वाती च यदि तिष्ठति ।
बुधस्य चरितं घोरं महादु:खदमुच्यते ॥32॥ यदि ज्येष्ठा और स्वाति में बुध रहे तो उसका यह घोर चरित अत्यन्त कष्ट देने वाला होता है 1132॥
उत्तरे त्वनयोः सौम्यो यदा दृश्येत पृष्ठतः । पितृदेवमनुप्राप्तस्तदा मासमुपग्रहः ॥33॥
1. मूकान्धवधिचिव मु.1 2, यदि मु० । 3. महाज निक मुक ।
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जब सोम्य बुध उत्तर में इन दोनों नक्षत्रों में- ज्येष्ठा और स्वाति में पृष्ठतः -पीछे से दिखलाई पड़े तथा मथा को प्राप्त हो तो एक महीने के लिए उपग्रह अर्थात् कष्ट होता है || 33॥
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पुरस्तात् सह शुक्रेण यदि तिष्ठति सुप्रभः । बुधो 'मध्यगतो चापि तदा मेघा बहूवकाः ॥34॥
सम्मुख शुक के साथ बेष्ठकाण्डिमा बुध रहे तो उस समय अधिक जल की वर्षा होती है ॥34॥
दक्षिणेन तु पार्श्वेण यदा गच्छति दुष्प्रभः । तदा सृजति लोकस्य महाशोकं महद्भयम् ॥35॥
यदि बुरी कान्ति बाला बुध दक्षिण की ओर से गमन करे तो लोक के लिए अत्यन्त भय और शोक उत्पन्न होता है 1135 1
धनिष्ठायां जलं हन्ति वारुणे जलदं वधेत् । वर्णहीनो यदा याति बुधो दक्षिणतस्तदा ॥36॥
यदि वर्णहीन बुध दक्षिण की ओर से धनिष्ठा नक्षत्र में गमन करे तो जल का विनाश और पूर्वाषाढा में गमन करे तो मेघ को रोकता है ||361
तनुः समार्गो यदि सुप्रभोऽजितः समप्रसन्नो गतिमागतोन्नतिम् । यदा न रूक्षो न च दूरगो बुधस्तदा प्रजानां सुखमूजितं सृजेत् ॥37॥
ह्रस्व, मार्गी, गुकान्ति बाला, समाकार, प्रसन्न गति को प्राप्त बुध जत्र न
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रूक्ष होता है और न दूर रहता है, उस समय प्रजा को सुख-शान्ति देता है || 37 |
इति ग्रन्थो भद्रबाहुके निमितं बुधचारो नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥18॥
विवेचन बुध का उदय होने से अन्न का भाव महंगा होता है । जव बुध उदित होता है उस समय अतिवृष्टि, अग्नि प्रकोप एवं तूफान आदि आते हैं । श्रवण, धनिष्ठा, रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र को मदित करके बुध के विचरण करने से रोग, भय, अनावृष्टि होती है। आर्द्रा से लेकर मधा तक जिस किसी नक्षत्र में बुध रहता है, उसमें ही शस्त्रपात, भूख, भय, रोग, अनावृष्टि और सन्ताप से जनता को पीड़ित करता है । हस्त से लेकर ज्येष्ठा तक छः नक्षत्रों में बुध विचरण करे तो मवेशी को कष्ट, सुभिक्ष, पूर्ण वर्षा, तेल और तिलहन का भाव महँगा
1. सुतेकाले मु० 12 ओ महद्भयंकर गु
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होता है। बंगाल, आसाम, बिहार, बम्बई, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, में सुभिक्ष, काश्मीर में अन्न कष्ट, राजस्थान में दुष्काल, वर्षा का अभाव एवं राजनीतिक उथल-पुथल समस्त देश में होती है। जारान में चावल की कमी हो जाती है । रूस और अमेरिका में खाद्यान्न की प्रचुरता रहने पर भी अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं । उत्तर फाल्गुनी, कृतिका, उत्तराभाद्रपद ओर भरणी नक्षत्र में बुध का उदय हो या बुध विचरण कर रहा हो तो प्राणियों को अनेक प्रकार की सुख-मुविधाओं की प्राप्ति के साथ, धान्य भाव सस्ता, उचित परिमाण में वर्या, सुभिक्ष, व्यापारियों को लाभ, चोरों का अधिक उपद्रव एवं विदेशों के साथ सहानुभूति-पूर्ण सम्पर्क स्थापित होता है। पंजाब, दिल्ली और राजस्थान राज्यों की सरकारों में परिवर्तन भी उक्त बुध की स्थिति में होता है । घी, गुड़, सुवर्ण, चाँदी तथा अन्य खनिज पदार्थों का मूल्य बढ़ जाता है। उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में बुध का विवरण वारना देश के सभी वर्गों और हिस्सों के लिए सुभिक्षप्रद होता है । द्विजों को अनेक प्रकार के लाभ और सम्मान प्राप्त होते हैं । निम्न श्रेणी के व्यक्तियों को भी अधिकार मिलते हैं तथा सारी जनता सुख-शान्ति के साथ निवास करती है । यदि बुध अश्विनी, शतभिषा, मूल और रेवती नक्षत्र का भेदन करे तो जल-जन्तु, जल आजीविका मारने वाले,
जबसे उत्पन्न पदार्थों में नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं। पूर्वाषाढ़ा और पूर्वाभाद्राद इन तीन नक्षत्रों में में किमी एक में शुक्र विच ण करे तो संसार को अन्न की कमी होती है। रोग, तस्कर, शस्त्र, अग्नि आदि का भय और आतंक व्याप्त रहता है । विज्ञान नये-नये पदार्थों की शोध और खोज करता है, जिससे अनेक प्रकार की नयी बातों पर प्रकाश पड़ता है। पूर्वापाढ़ा नक्षत्र में बुध का उदय होने से अनेक राष्ट्रों में संघर्ष होता है तथा बैमनस्य उत्पन्न हो जान गं अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति परिवर्तित हो जाती है । उक्त नक्षत्र में बुध का उदय और विचरण करना दोनों ही राजस्थान, मध्यभारत और सौराष्ट्र के लिए हानिकारक है । इन प्रदेशों में वृष्टि का अवरोध होता है। भाद्रपद और आश्विन माम में साधारण वर्षा होती है। कार्तिक मास के आरम्भ में गुजरात और बम्बई क्षेत्र में वर्षा अचछी होती है। राजस्थान के मन्त्रिमण्डल में परिवर्तन भी उक्त ग्रह स्थिति के कारण होता है।
पराशर के मतानमार बघ का फलादेश-परापार में बंध की सात प्रकार की गतियाँ बसलाई है.-प्राकृत, विमिश्र, संक्षिप्त तीक्ष्ण, योगान्त, घोर और पाप 1 स्वाति, भरणी, रोहिणी और नि। । नक्षत्र में वा स्थित हो तो इस गति को प्राकृत नहीं है । बुध की यह गति 40 दिन तक रहती है, इगमें आरोग्य, वृष्टि, धान्य की वृद्धि और मंगल होता है । प्राकृत गति भारत के पूर्व प्रदेशों के लिए उतम होती है। इस गति में गमन करने पर बुध बुद्धिजीवियों के लिए उत्तम होता है। बाला-कौशन्न की भी वृद्धि होती है । देश में नबीन कल-कारखाने
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स्थापित किये जाते हैं । अनाज अन्ना नान्न होता है, वर्षा भी अच्छी होती है । कलिंग-उड़ीसा, विदेह - मिथिला, काशी, विदर्भ देश के निवासियों को सभी प्रकार के लाभ होते हैं। मरुभूमि राजस्थान में सुभिक्ष रहता है, वर्षा भी अच्छी होती है । फसल उत्तम होने के साथ मवेशियों को कष्ट होता है । मथुरा और शूरसेन देशवासियों का आर्थिक विकास होता है। व्यापारी वर्ग को गाधारण लाभ होता है । सोना और चाँदी के सट्टे में हानि उठानी पड़ती है । जूट का भाव बहुत ऊंचा चढ़ जाता है, जिससे व्यापारियों को हानि होती है।
मृगशिरा, आर्द्रा, मघा और आश्लेषा नक्षत्र में बुध के विचरण करने को मिथा गति कहते हैं । यह गति 30 दिनों तक रहती है । इस गति का फल मध्यम है। देश के सभी राज्यों और प्रदेशों में सामान्य वर्ग, उत्तम फराल, रस पदार्थों को कमी, धातुओं के मूल्य में वृद्धि एवं उच्च वर्ग के व्यक्तियों को ग़भी प्रकार से मुख प्राप्त होता है । बुध की मिथा गति मध्यप्रदेश एवं आसपाम के निवासियों के लिए अधिक शुभ होती है। उक्त राज्यों में उत्तम वृष्टि होती है और फसल भी अच्छी ही होती है । पुण्य, पुनवंगु, पूर्वा फाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में संक्षिप्त गति होती है। यह गति 22 दिनों तक रहती है। इस गति का फल भी मध्यम ही है पर विशपता यह है कि इस गति के होने पर घी, तेल पदार्थों का भाव महंगा होता है। देश के दक्षिण भाग के निवासियों को साधारण काट होता है। दक्षिण में अन्न की फसल अच्छी होती है। उत्तर में गुड़, चीनी और अन्य मधुर पदार्थों की उत्पत्ति अच्छी होती है । कोयला, लोहा, अभ्रक, ताँबा, सीसा भूमि से अधिक निकलता है। देश का आर्थिक विकास होता है । जिस दिन से बुध उक्त गति आरम्भ व.रता है, उमी दिन स लकर जिस दिन यह गति समाप्त होती है, उस दिन तक देश में मुभिक्ष रहता है । देश के सभी राज्यों में अन्न और वस्त्र की कमी नहीं होती। आसाम में बाढ़ आ जाने से फसल नष्ट होती है। बिहार के वे प्रदेश भी कष्ट उठाते हैं, जो नदियों के तटवर्ती है। उत्तर प्रदेश में सब प्रकार से शान्ति व्याप्त रहती है । पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, ज्येष्ठा, अश्विनी और रेवती नक्षत्र में बुध की गति तीक्ष्ण कहलाती है। यह गति 18 दिन की होती है । इस गति के होने में वर्षा का अभाव, दुष्काल, महामारी, अग्निप्रकोप और शस्त्रप्रकोप होता है । मुल, पूर्वापाढा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में बुध के विचरण करने से वध की योगान्तिका गति कहलाती है। यह गति 9 दिन तक रहती है। इस गति का फल अत्यन्त अनिष्टकार है। देश में रोग, शोक, झगड़े आदि के साथ वर्षा का भी अभाव रहता है। श्रावण मास में साधारण वर्षी होती है, इसके पश्चात् अन्य महीनों में वर्षा नहीं होती है । जब तक बुध इस गति में रहता है, तब तक अधिक लोगों की मृत्यु होती है । आकस्मिक दुर्घटनाएँ अधिक घटती हैं । श्रवण, चित्रा, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र में शुक्र के रहने से उसकी
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घोर गति कहलाती है । यह गति 15 दिन तक रहती है । जब बुध इस गति में गमन करता है, उस समय देश में अत्याचार, अनीति, चोरी आदि का व्यापक रूप गे प्रचार होता है । उत्तर प्रदेश, पंजाब, बंगाल और दिल्ली राज्य के लिए यह गति अत्यधिक अनिष्ट करने वाली है । वध के इम गति में विचरण करने से
आर्थिक क्षति, किसी बड़े नेता की मृत्यू, देश में अर्थ-संकट, अन्नाभाव आदि फल घटित होते हैं । हस्त, अनुराधा या ज्येष्ठा नक्षत्र में बुध के विचरण करने से पापा गति होती है । इस गति के दिनों की संख्या 11 है । इग़ गति में बुध के रहने से अनेक प्रकार की हानियाँ उठानी पड़ती हैं । देश में राजनीतिक उलट-फेर होते हैं। बिहार, आसाम और मध्यप्रदेश के मन्त्रिमण्डल में परिवर्तन होता है।
देवल के मत से फलादेश—देवल ने वध की चार गतियाँ बतलाई हैं - ऋज्वी, वक्रा, अतिवका और विकला। ये गतियाँ क्रमश: 30, 24, 12 और 6 दिन तक रहती हैं । ज्वी गति प्रजा के लिए हितकारी, वक्रा में शस्त्रभय, अतिवना में धन का नाश, और विकला में भय तथा रोग होते हैं। पौष, आषाढ़, श्रावण, वैशाख और माघ में बध दिग्वलाई दे तो संसार को भय, अनेक प्रकार के उलात एवं धन-जन की हानि होती है। यदि उपत मासों में बुध अस्त हो तो शुभ होता है। आश्विन या कार्तिक मास में बुध दिखलाई दे तो शस्त्र, रोग, अग्नि, जल और क्षुधा का भय होता है। पश्चिम दिशा में बुध का उदय अधिक शुभ फल करता है तथा पूरे देश को शुभकारक होता है । स्वर्ण, हरित या सस्यक मणि के समान रंग वाला बुध निर्मल और स्वच्छ होकर उदिन होता है, तो सभी राज्यों और देशों के लिए मंगल करने वाला होता है।
एकोनविंशतितमोऽध्यायः
चारं प्रवास वर्ण व दोस्ति 'काष्ठांति फलम्।
वकानुवनामानि लोहितस्य निबोधत ॥1॥ मंगल के चार, प्रवास, वर्ण, दीप्ति, काष्ठ, गति, फन, वन और अनुवक आदि का विवेचन किया जाता है।!।
1. कार्ट गति म ।
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चारेण विति मासानष्टौ वऋण लोहितः ।
चतुरस्तु प्रवासेन समाचारेण गच्छति ॥2॥ मंगल का चार बीस महीने, बक्र आठ महीने और प्रवास चार महीने का होना है ।।2।।
अनुजुः परुष: श्यामो ज्वलितो धूमवान् शिखी।
विवर्णो वामगो व्यस्तः ऋद्धो ज्ञेयस् तदाशुभ: ॥3॥ वक्र, कठोर, श्याम, ज्वलित, धूमवान, विवगं, क्रुद्ध और वायों ओर गमन करने वाला मंगल (सदा) अशुभ होता है ॥3॥
यदाऽष्टौ सप्त मासान् वा दीप्त: पुष्टः प्रजापतिः ।
तदा सृजति कल्याणं शस्त्रमी तु निदिशेत् ।।4।। यदि प्रजापति-पंगल आठ या सात महीने नव दीप्त और पुष्ट होकर निवास वारे तो नाल्याण होता है तथा शस्त्रमोह उत्पन्न होता है ।1411
मन्ददीप्तश्च दृश्येत् यदा भोमो चलेत्तदा ।
तदा नानाविधं दुःखं प्रजानामहितं सृजेत् ॥5॥ जब मंगल मन्द और दीप्त दिखलाई पड़े, चचल हो, उस समय प्रजा के लिए नाना प्रकार के दुःख और अहित करता है ।।5।।
ताम्रो दक्षिणकाष्ठस्थः प्रशस्तो दस्युनाशनः ।
ताम्रो यदोत्तरे काष्ठे तस्य दस्योस्तदा हितम्।।6।। यदि ताम्र वर्ण का मंगल दक्षिण दिशा में हो तो शुभ होता है, और चोरों का नाश करनेवाला होता है । यदि ताम्र वर्ण का मंगल उत्तर दिशा में हो तो चोरों का हित करनेवाले होता है ।।6।।
रोहिणों स्यात् परिक्रम्य लोहितो दक्षिणं व्रजेत् ।
सुरासुराणां "जानानां सर्वेषामभयं वदेत् ॥7॥ यदि रोहिणी को परिक्रमा करके मंगल दक्षिण दिशा की ओर चला जाय तो देव-दानव, मनुष्य सभी को अभय की प्राप्ति होती है ।।7।।
क्षत्रियाणां विषादश्च दस्यूनां शस्त्रविभ्रमः । गावो गोष्ठ-समुद्राश्च विनश्यन्ति विचेतसः ॥४॥
I. गदा म० । 2. न नेजान मु० । 3. मागगां भु।
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यदि रोहिणी नक्षत्र पर मंगल की कुचेटा दिखलाई पड़े तो गाय, गोणाला ____ और समुद्र का विनाश होता है ।।8।।
स्पशेल्लिखेत् प्रमद् वा रोहिणीं यदि लोहितः।
तिष्ठले दक्षिणो वाऽपि तदा शोक-भयंकर: ।।9।। यदि मंगल रोहिणी नक्षत्र का स्पर्श गरे, भेदन करे और प्रमर्दन करे अथवा दक्षिण में निवास करे तो भयंक र गोय की प्राप्ति होती है ।।9।।
सर्वद्वाराणि दृष्ट्वाऽसौ विलम्ब यदि गच्छति ।
सर्वलोकहितो जेयो दक्षिणोऽसन् लोहितः ॥10॥ यदि दक्षिण मंगल सभी चारों को देखता हुआ बिलम्ब स ममन करे तो समस्त लोक का हितकारी होता है ।12 (1।।
पञ्च वकाणि भोमस्य तानि भेदेन द्वादश ।
उष्णं शोयनुवं व्यानं लोहित लोहमुद्गरम् ॥1॥ मगल के पांध वय होत हैं और पद की अपेक्षा बारह वक्र नहे गये हैं । उष्ण, शोषमुग्न, ख्याल, लोहित और लोह मुद्गर--- पाँच प्रधान वक्र हैं || 1111
उदयात् सप्तमे ऋक्ष नवमे वा ष्टमेऽपि वा।
यदा भौनो निवर्तेत तदुष्यं वक्रामुच्यते ।।1।। जब मंगल का उदय मालवें, आठवें या नवें नक्षत्र पर हुआ हो और वह लोट ___ कर गमन करने लगे तो उस उष्ण वक्र कहते हैं ।। 1211
सुवष्टिः प्रबला जया विष-कीटानिमूर्छनम् ।
ज्वरो जनक्षयो वापि तज्जातानां च विनाशनम् ।।13।। इस उष्ण वक्र में वर्ग अच्छी होती है । विप, कीट और अग्नि की वृद्धि होती है। उधर फैलता है । ननाव भी होता है तथा जनता को कष्ट होता है ।। 1 311
एकादशे यदा भौमो द्वादशे दशमेऽपि वा । निवर्तत तदा वक्र तच्छाबमुखमुच्यते ॥14॥ अपोऽन्तरिक्षात् पतितं दूषयति तदा रसान् । ते सृजन्ति रसान् दुष्टान् नानाव्याधींस्तु भूतजान् ॥15॥
1. स न म ।
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यह
शोष
शुष्यन्ति वै तडागानि सरांसि सरितस्तथा । बीजं न रोहिते तत्र जलमध्येऽपि वापितम् ||16 जब मंगल दशवे, ग्यारहवें और बारहवें नक्षत्र से लोटता है तो मुख वक्र कहलाता है | इस प्रकार के चक्र में आकाश से जल की वर्षा रस दूषित हो जाते हैं तथा रसों के दूषित होने से प्राणियों को नाना प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती है । जल-वृष्टि भी उक्त प्रकार के वक्र में उत्तम नहीं होती है, जिससे तालाब सूख जाते हैं तथा जल में भी बोने पर बीज नहीं उगते हैं। अर्थात् फसल की कमी रहती है ।114 - 16||
होती है,
त्रयोदशेऽपि नक्षत्रे यदि वाऽपि चतुर्दशे ।
निवर्तेत यदा भीमस्तद् वक्रं व्यालमुच्यते ॥17॥
पतंगाः सविषाः कोटाः सर्पा जायन्ति तामसाः । फलं न बध्यते पुष्पे बीजमुप्तं न रोहति ॥18॥
यदि मंगल चौदहवें अथवा तरहवें नक्षत्र से लौट आये तो यह उसका व्यालवक्र कहलाता है | पतंग - टोड़ी, विषैले जन्तु, कीट, सर्प आदि तामस प्रकृति के जन्तु उत्पन्न होते हैं, पुष्प में फल नहीं लगता और बोया गया बीज अंकुरित नहीं होता है ।117-18।।
यदा पञ्चदशे ऋक्षं षोडशे वा निवर्तते । लोहितो लोहितं वक्रं कुरुते गुणजं तदा ॥19॥ देश - स्नेहाम्भसां लोपो राज्यभेदश्च जायते । संग्रामाचात्र वर्तन्ते मांस- शोणितकर्दमा: 2011
जब मंगल पन्द्रहवें या सोलहवें नक्षत्र से लौटता है, तब यह लोहित वक्र कहा जाता है । यह गुण उत्पन्न करने वाला है। इस वक्र के फलस्वरूप देश, स्नेह, जल का लोग हो जाता है, राज्य में मतभेद उत्पन्न हो जाता है तथा युद्ध होते हैं, जिससे रक्त और मांस की कीचड़ हो जाती है ।119-20 ।।
यदा सप्तदशे ऋक्षे पुनरष्टादशेऽपि वा । प्रजापतिनिवर्तत तद् वक्रं लोहमुद्गरम् ॥21 निर्दया निरनुक्रोशा लोहमुद्गरसन्निभाः । प्रणयन्ति नृपा दण्डं क्षीयन्ते येन तत्प्रजाः ॥22॥
जब मंगल सत्रहवें या अठारहवें नक्षत्र से लौटता है तो लोहमुद्गर क्र कहलाता है । इस प्रकार के वन में जीवधारियों की प्रवृत्ति निर्दय और निरंकुश
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हो जाती है तथा राजा लोग प्रजा को दण्डित करते हैं, जिसमें प्रजा का क्षय होता है ॥2 1-221
धर्मार्थकामा हीयन्ते विलीयन्ते च दस्यवः ।
तोय-धान्यानि शुष्यन्ति रोगमारी बलीयसो॥3॥ उक्त प्रकार के बक में धर्म, अर्थ और काम नष्ट हो जाते हैं और वोरा का लोप हो जाता है। जल और धान्य मुख जात हैं तथा रोग और महामारी बढ़ती है ॥23॥
वक्रं कृत्वा यदा भौमो विलम्बन गति प्रति ।
वक्रानुवक्रयो?रं मरणाय समीहते' ।।240 यदि मंगल वक्र गति को प्राप्त कर दिलम्बित गति हो तो यह वक्रानुवक कहलाता है । वक्र और अनुवक का फल भरणप्रद होता है 1124।।
कृत्तिकादीनि सप्तेह वणांगाकश्चरेत् ।
हत्वा दा दक्षिणस्तिष्ठत् तत्र वक्ष्यामि यत् फलम् ॥25॥ यदि मंगल वक्र गति द्वारा कृत्तिकादि सात नक्षत्रों पर गमन करे अथवा घात कर दक्षिण की ओर स्थित रहे तो उसका फल निम्न प्रकार होता है 12511
साल्वांश्च सारदण्डांश्च विप्रान क्षत्रांश्च पीडयेत् ।
मेखलांश्चानयोरं मरणाय समीहते ॥26॥ मत प्रकार का मंगल सावदेश, मार दण्ड, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वणों को निस्सन्देह घार काट देता है ॥26॥
मघादीनि च सप्तव यदा वक्रेण लोहितः ।
चरेद् विवर्णस्तिष्ठेद् वा तदा विन्द्यान्महद्भयम् ॥27॥ यदि मयादि सात नक्षत्रों में वत्र गंगल विचरण करे अथवा विकृत वर्ण होकर निवास करे तो महान् च होना हे 1127॥
सौराष्ट्र-सिन्धु-सौवीरान् प्रासीलान् द्राविडांगनाम् । पाञ्चालान् सौरसेनान् वा बालीकान् नकुलान् वधेत् ॥28॥ मेखलान वाऽभ्यवन्त्यांश्च पार्वतांश्च नपैः सह । जिघांसति तदा भौमो ब्रह्म-क्षत्र विरोधयेत् ॥29॥
माह- म । 2. - पाना
।
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उक्त प्रकार के मंगल के फलस्वरूप सौराष्ट्र,सिन्धु, सौवीर, द्राविड़, पांचाल, सौरसेन, बाह्नीक, नकुल, ग्खला, आवन्ति, पहाड़ीप्रदेशवासियों और राजाओं का विनाश होता है और ब्राह्मण-क्षत्रियों का विरोध होता है 1128-29।।
मैत्रादीनि च सप्तव यदा सेवेत लोहितः । वक्रेण 'पापगत्या वा महतामनयं वदेत् ॥30॥ राजानश्च विरुध्यन्ते 'चातुर्दिश्यो विलुप्यते।
कुरु-पाञ्चालदेशानां मूर्च्छते तद् भयानि च ॥31॥ पदि मंगल अनुराधा आदि सात नक्षत्रों का भोग करे अथवा बक्रगति हो पापगति से विचरण करे तो अत्यन्त अनीति होती है । राजाओं में युद्ध होता है, चारों वर्ण लुप्त हो जाते हैं; कुरु-पंचाल देशों में भय और मूर्छा रहती है ।। 30-310
धनिष्ठादीनि सप्तैव यदा वक्रेण लोहितः । सेवेत 'क्रुजुगत्या वा तदापि स जुगुप्सितः ॥32॥ धनिनो जलविप्रांश्च तथा चैव हयान् गजान् ।
उदीच्यान् नाविकांश्चापि पीडयेल्लोहितस्तदा ॥33॥ यदि मंगल बक्र गति से धनिष्ठा आदि सात नक्षत्रों का भोग करे अथवा
गति से गमन करे तो बह निन्दित होता है । धनिक, जलजन्तु, घोड़ा, हाथी, उत्तर के निवासी और नाविकों को पीड़ा देता है ।। 32-331
भौमो वक्रेण युद्ध वामवीयीं चरते हि 'त:।
तेषां भयं विजानीयाद येषां ते प्रतिपुद्गलाः ॥34॥ जन मंगल वक्र होकर युद्ध में वाम बीथि में गमन करता है तो जनता के लिए भय होता है ।। 3 411
क्रूर: क्रुद्धश्च ब्रह्मघ्नो यदि तिष्ठेद् ग्रहै: सह । परचकागम विन्द्यात् तासु नक्षत्रवीथिषु ॥35॥ धान्यं तथा न विक्रेथ संश्रयेच्च बलीयसम् ।
चिनुयात्तुषधान्यानि दुर्गाणि च समाश्रयेत् ।।36॥ क्रूर, क्रुद्ध और ब्रह्मघाती होकर मंगल वदि जन्य ग्रहों के साथ उन नक्षत्र
I am [.। 2. भानु । 3. बाम मु. | y 1 TT P• । 7. म ।
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बौथियों में रहे तो परशामन का आगमन होता है। इस प्रकार की स्थिति में धान्य-अनाज नहीं चेचना चाहिए, बलवान् का आश्रय लेना तथा धान्य और भूसा का संग्रह करके दुर्ग का आश्रय लेना चाहिए 1135-360
उत्तराफाल्गुनों भौमो पदा लिखति वामतः ।
यदि वा दक्षिगं गच्छेत् ' धान्यस्यार्थो महा भवेत् ।।37॥ जय मंगल उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र को वाम भाग से स्पर्श करता है अथवा दक्षिण की ओर गमन करता है तो धान्य--अनाज बहुत महंगा होता है ।। 37 !!
यदाऽनराशं प्रविशन्मध्ये न च लिखेत्तथा।
मध्यमं तं विजानीयात् तदा भीमविपर्यये ।।38॥ यदि मंगल अनुराधा में मध्य में प्रवेश करे, स्पर्श न करे तो गध्यम होता है और विपर्यय प्रवेश करने पर विपरीत फल होता है ।138॥ स्थूल: सुवर्णो द्युतिमांश्च पीतो रक्त: 'सुमागों रिपुनाशनाय ।
मोमः प्रसन्न: सुमनः प्रशस्तो भवेत् प्रजानां सुखदस्तदानीम् ॥3॥ स्थूल, स्वर्ण, कान्तिमान्, मुकर, गीत, खत, मुमार्गमामी, वान्त, प्रसन्न, समगामी, बिलम्बी मंगल प्रजा की मुख-शान्ति और धन-धान्य देने वाला है ।।39॥
इति निर्गन्यभद्रबाहुक निमित्तं अंगारकचारो नाम
एकोनविंशतितमोऽध्यायः ।।1911 विवेचन -भीम का द्वादश राशियों में स्थित होने का फल... गप गशि में मंगल स्थित हो तो सभी प्रकार ने अनाज महेंगे हीन है । म आला होती है तथा धान्य श्री तात्ति भी अप होती है। पूर्वीय प्रदेशों में या साधारणतया अचनी होती है; उतरीय प्रदेशों में ग्नुण्डष्टि, पश्चिमीय प्रदेशों में वर्षा का अभाव या अत्यल्प तथा दक्षिणीय प्रदेशों में साधारण वृष्टि होती है। मा राशि । मंगल जनता में भय और आतंत भी उत्पन्न करता है। चा राशि में मंगल नः स्थित होने से साधारण वृष्टि देश मभी भागों में होती है । नना, चीनी और गुड़ का भार तुछ महंगा होता है। महामारी के कारण मनुष्या की मृत्यु होती है 1 बंगाल के लिए मंगल व उमस स्थिति अधिक भयावह होती है । मंगल की उक्त स्थिति बर्मा, श्यान, चीन और जापान के लिए राजनीतिक दृष्टि से उथल-पुथल करन
] गुमागंन मुश्री प्रजना प.! ना ।. प्रसन्न गगगा नी नाम मुखः प्रजानाम् भु।
र [.
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भंद्र बाहुसंहिता
वानी होती है । नेताओं में मतद, भट और कलह रहने से जनसाधारण को मी कष्ट होता है । बांग्लादेश के लिए वृप का मंगल अनिष्टप्रद होता है। खाद्यान्न का अभाव होने के साथ भयंकर बीमारियाँ भी उत्पन्न होती हैं । मिथुन राशि में मंगल के स्थित होने से अच्छी वर्षा होती है। देश के सभी राज्यों और प्रदेशों में सुभिक्ष, शान्ति, धर्माचरण, न्याय, नीति और सच्चाई का प्रसार होता है। अहिंसा और सत्य का व्यवहार बढ़ने से देश में शान्ति बढ़ती है। सभी प्रकार के अनाग सगघं रहते हैं। सोना, चाँदी, लोहा, तांग, काँसा, पीतल आदि खनिज धातुओं के व्यापार में साधारण लाभ होता है। पंजाब में फसल बहुत अच्छी उपजती है। फल और तरकारियाँ भी अच्छी उपजती है। कर्क राशि में मंगल हो तो भी शुभिक्ष और उत्तम बर्षा होती है। उत्तर प्रदेशा में काशी, कान्नौज, मथुरा में उत्तम फरास नहीं होती है, अवशेष स्थानों में उत्तम फसल उपाती है । सिंह राशि में मंगल के रहने से सभी प्रकार ने धान्य महंगे होते है। वर्षा भी अनजी नहीं होती। राजस्थान, गुजरात, मध्य भारत में साधारण वर्षा होती है । भाद्रपद मास में भर्ग का योग अत्यल्प रहता है। आश्विन मास वर्षा और फराल के लिए उत्तम गने जाते हैं। सिंह राशि के नंगल में क्रूर कार्य अधिन होते हैं, युद्ध और सार्थ अधिक होता है। राजनीति में परिवर्तन होता है। साधारण जनता को भी काट होता है। आजीविका साधनों में कमी आ जाती है । कन्या २f के मंगल में वृण्वप्टि, धान्य रास्त, थोड़ी वर्मा, देश में उपद्रव, क्रूर कार्यो में प्रवृत्ति, अनीति और अत्याचार का व्याप, ए से प्रचार होता है । बंगाल और पंजाब में नाना प्रकार के पाय होते हैं। महामारी का प्रकोप आसाम और बंगाल में होता है। उत प्रदेश और मध्यप्रदेश के लिए कन्या गशि का मंगल अछा होता है। तुला राशि न: मंगल में किसी बड़े नेता या व्य वित की मृत्यु, अमन-शान की वृद्धि, माग में यचारों का विशेष उपद्रव, अराजकता, धान्य का पात्र महंगा, रस का भाव रास्ता और सोना-चाँदी का भाव कुछ महंगा होता है । गापारियों को हानि उठानी पड़ती है । वृश्चिक राशि के मंगल में पारण यापा, मध्यम माम, देश का आर्थिक विकास, ग्रामों में अनेक प्रकार की बीमारियों का प्रयोग, पहाड़ी प्रदेशों में दुकाल, नदी के तटवर्ती प्रदेशों मुभिक्ष, नतालों में संबटन की भावना, विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध का विकास, राजनीति में उथल-पुथल एवं पूर्वीय देशों में महामारी फैलती है । धनु राशि में मंगल में सामानुकल यथेष्ट वर्ग, मुनिक्ष, अनाज का भाब सस्ता, दुग्ध-वा आदि पदार्थों की कमी, चीनी-गुट्ट आदि मिष्ट पदों की बहुलता एवं दक्षिण : प्रदेशों में उत्पात होता है । मकर राशि मंगल में धान्य पीड़ा, फायल में अनेक रोगा की उत्पनि, मवेशी को बष्ट, चारे का अभाव, व्यापारियों का असा लाभ, पश्चिम के व्यापारियों को हानि; गहें, गुड़ और मशाले के मूल्य
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में दुगुनी वृद्धि एवं उत्तर भारत के निवासियों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है । कुम्भ के मंगल में खण्डवृष्टि, मध्यम फसल, खनिज पदार्थो की उत्पत्ति अत्यल्प, देश का आर्थिक बिकास, धार्मिक वातावरण यी वृद्धि, जनता में सन्तोष और शान्ति रहती है। मीन राशि के मंगल में एकः महीने तक समस्त भारत में सुख-शान्ति रहती है। जापान के लिए मीन राशि का मंगल अनिष्टप्रद है, वहाँ मन्त्रिमण्डल में परिवर्तन, नागरिकों में सन्तोष, खाद्यान्ना की कमी एवं अर्थ-संकट भी उपस्थित होता है। जर्मन के लिए मीन रशिया मंगल शुभ होता है। रूस और अमेरिका में ५२: महानुभाव इसी मंगल में होता है । मीन राशि का मंगल धान्यों की उत्पत्ति के लिए उत्तम होता है । स्वनिज पदार्थो की कमी इसी मंगल में होती है। कोयला का भाव ऊंचा उठ जाता है। पत्थर, सीमेण्ट, चूना आदि के मुख्य में भी वृद्धि होती है । मीन शणि का मंगल जनता के स्वास्थ्य के लिए नाम नहीं होता। ___ नक्षत्रों के अनुसार मंगल का फल.... अश्विनी नक्षत्र में मंगल हो तो क्षति, पीड़ा, तण और अनाज का भाव तेज होता है। समस्त भारत में एक महीने के लिए अशान्ति उत्पन्न हो जाती है। चौपायों में रोग उत्पन्न होता है। देश में हलचल होती रहती है 1 सगी लोगों को किसी-न-विमी प्रकार का नष्ट होता है । भरणी नक्षत्र में मंगल हो तो ब्राह्मणों को पीडा, गादों में अनेक प्रकार के कष्ट, नगरों में महामारी का प्रकोप, अन्नाभाव तेज और रस पदाथों का भाव सस्ता होता है। प्रवेणी के मूल्य में वद्धि हो जाती है तथा चार के अभाव में भवेणी को कष्ट भी होता है । कुत्ति । नक्षत्र में मगन्न क होने में तपस्वियो । पीड़ा, देश में उपद्रव, अराजकता, बीरिया की वृद्धि, अनंतिर.ता एवं भ्रष्टाचार का प्रसार होता है । रोहिणी नक्षत्र में मंगल के रहने में यक्ष और पयशी यो कष्ट, कपास
और मूत के व्यापार में लाभ, धान्य का भाव मस्ता होता है। मंगगिर नक्षत्र में मंगल हो सो कपास का नाश, जप वस्तुओं की अनही उत्पनि होती है। इस नक्षत्र पर मंगल के रहन से दश का आर्थिक विकास होता है। उन्नति के लिए विये गये सभी प्रयास सफल होते हैं। तिल, तिलहना की कामी रहती है तथा भैगों के लिए यह मंगल बिना कारक है । आर्द्रा नक्षत्र में मंगल य. रहने में जल की वर्मा, मुभि और धान्य का भाव गाता होता है। पुनर्वसु नक्षत्र में मंगल का रहना देगा का लिए मध्यम फलदायक है । बुद्धिजीवियों के लिए यह मंगन उत्तम होता है। शारीरिक श्रम करने वालों को मध्य म रहता है । रोना में प्रविष्ट हुए व्यक्तियों का लिए अनिष्टकर होता है। प्य नक्षत्र में स्थित मंगल से चोर भय, शस्त्र'भय, अग्निभय, राज्य को शक्ति । लास, रोगों का विकास, धान्य का अभाव, मधुर पदार्थों की कमी एवं चोर-गुण्डा का उत्पात अधिक होने लगता है । आपलेषा नक्षत्र में मंगल क स्थित रहन से शस्त्रधात, धान्य II नाश, वर्षा का अभाव, बिमैले जान्नों का
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भद्रबाहुसंहिता
प्रकोप, नाना प्रकार की व्याधियों का विकास एवं हर तरह से जनता को कष्ट होता है । मघा में मंगल के रहने से तिल, उड़द, मंग का विनाश,मवेशी को कष्ट, जनता में असन्तोष, रोग की वृद्धि, वर्षा की कमी, मोटे अनाजों की अच्छी उत्पत्ति तथा देश के पूर्वीय प्रदेशों में सुभिक्ष होता है। पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों में मंगल के रहने से खण्डवृष्टि, प्रजा को पीड़ा, तेल, घी के मूल्यों में वृद्धि, थोड़ा जल एवं मवेशी के लिए कष्टप्रद होता है । हस्त नक्षत्र में तृणाभाव होने से चारे की कमी बराबर बनी रह जाती है, जिससे मवेशी को कष्ट होता है । चित्रा में मंगल हो तो रोग और पीड़ा, गेहूँ का भाव तेज; चना, जो और ज्वार का भाव कुछ सस्ता होता है। धर्मात्मा व्यक्तियों को सम्मान और शक्ति की प्राप्ति होती है। विश्व में नाना प्रकार के संकट बढ़ते हैं। स्वाति नक्षत्र में मंगल के रहन से अनावृष्टि, विशाखा में कपास और गहूँ की उत्पत्ति कम तथा इन वस्तुओं का भाव महंगा होता है । अनुराधा में मुभिक्ष और पशुओं को पीड़ा, ज्येष्ठा में मंगल हो तो थोडा जल और रोगों की वृद्धि; मूल नक्षत्र में मंगल हो तो ब्राह्मण
ओर क्षत्रियों को पीडा, तृण और धान्य का भाव तेज, पूर्वापाढ़ा या उत्तराषाढ़ा में मंगल हो तो अच्छी वर्धा, पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण, दूध की वृद्धि, मधुर पदार्थों की उन्नतिः श्रवण गे धान्य की माधारण उत्पत्ति, जल की वर्षा, उड़द, मूंग आदि दाल चाल अनाजों की कमी तथा इनके भाव में तेजी; धनिष्ठा में मंगल के होने से देश की प्यूब मद्धि, सभी पदार्थों का भाव सस्ता, देश का आर्थिक विकास, धन-जन की वृद्धि, पूर्व और पश्चिम ब. सभी राज्यों में गुभिक्ष, उत्तर के राज्यों में एक महीने :लिअर्थसंगाट, ए में सुध-शान्ति, कला-कौशल का विकास. मगिया की बति और सभी प्रकार ग जनता को मुख; शतभिषा में, मंगल के होने कीट, तंग, टीटी, मूष आदि . अधिक प्रकोप, धान्य की अच्छी उत्पनि : पूर्वाभाद्रपद में मंगल का होने से तिल, वस्त्र, गुपारी और नारियल के भाव नेज होते हैं । दक्षिण भारत में अनाज का भाव महँगा होता है। उत्तराभाद्रपद में मंगल के होने में भिक्ष, वर्षा की कमी और नाना प्रकार के देशवामियों को 2 एवं रेवती नक्षत्र में गंगल के होन गं धान्य की अच्छी उत्पत्ति, सुन्ध, सुभिक्ष, यथेष्ट वर्गा, ऊन और कपास की अनछी उपज होती है। रेवती नक्षत्र का गंगल कामीर, हिमाचल एवं अन्य पहाड़ी प्रदेशों के निवासियों के लिए उत्तम होता है।
मंगल का किगी भी राशि पर वक्री होना तया अनि और मंगल का एक ही राशि पर कनी होना अत्यन्त अशुभनारक होता है। जिस राशि पर उक्त ग्रह वक्री होते है उस राशि वाले पदार्थों का भाव महंगा होता है तथा उन वस्तुओं की कभी भी हो जाती है।
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विंशतितमोऽध्यायः
राहुचारं प्रवक्ष्यामि क्षेमाय च सुखाय च ।
द्वादशाङ्गविद्भिः प्रोक्तं निग्रन्थस्तत्ववेदिभिः ।। द्वादशांग के बेना निर्गन्य मुनियों के द्वारा प्रतिपादित राहुयार को बाल्याण और सुख के लिए निरूपण करता हूं 1111
श्वेतो रक्तश्च पीतश्च विवर्णः कृष्ण एव च।
ब्राह्मण क्षत्र-वैश्यानां विजाति-शूद्रयोर्मत:।12।। राहु का श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण नामशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के लिए शुभाशुभ निरिक माने गये है ।
षमासान् प्रकृतिज्ञेया ग्रहणं वारिक भयम् । त्रयोदशानां मासानां पुर रोधं समादिशेत् ।।3।। चतुर्दशानां मासानां विन्ध्राद् वाहनजं भयम्। अथ पञ्चदशे मासे बालानां भयमादिशत् ॥4॥ षोडशानां तु मासानां महामन्त्रि भयं वदेत् । अष्टादशानां मासानां विन्द्याद् राज्ञस्ततो भयम् ।।5।। एकोनविंशकं पर्वविशं कृत्वा नृपं वर्धत् ।
अत: परं च यत् सर्व विन्द्यात् तत्र कलि मुवि ॥6॥ राहु की प्रकृति छः महीने तया. ग्रहणा एक वर्ग त भत्र उत्पन्न करता है। विकृत ग्रहण से तेरह महीने तमा नगर का अवरोध होता है, चौदह महीने तर वाहन का भय और पन्द्रह महीने तक स्त्रियों को भय होता है। सोलह महीने तक महामन्त्रियों को भय, अठारह महीने त राजाओं को भय होता है । उन्नीस गहीन या बीस महीने तक राजाओं के वध की संभावना रहती है। इससे अधिक गाय तक फल प्राप्त हो तो पृथ्वी पर कलियुग का ही प्रभाव जानना चाहिए ।।3-611
पञ्चसंवत्सरं घोरं चन्द्रस्य ग्रहणं परम् ।।
विग्रहं तु पर विन्द्यात् सूर्यद्वादशवाधिकम् ।।7।। चन्द्रग्रहण के पश्चात् पाँच वर्ष संकट के और सूर्यग्रहण के बाद बारह वर्ष संकट के होते हैं 117॥
यदा प्रतिपदि चन्द्रः प्रकृत्या विकृतो भवेत् । अथ भिन्लो विवर्णो वा तदा झंयो ग्रहागमः ।।8।।
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भद्रबाहुसंहिता जब प्रतिपदा तिथि को चन्द्रमा प्रकृति रो विवृत हो और भिन्न वर्ण का हो तो ग्रहागम जानना चाहिए ।।8।।
लिखेद् रश्मिभिर्भूयो वा यदाऽऽच्छायेत भास्करः ।
पूर्वकाले च सन्ध्यायां ज्ञेयो राहोस्तदाऽऽगमः ॥9॥ यदि सूर्य किरणों के द्वारा स्पर्श करे अथवा पूर्वकाल की सन्ध्या में सूर्य के द्वारा आच्छादन हो तो राहु का आगम समझना चाहिए ॥9॥
पशु-ज्याल-पिशाचाना सर्वतोऽपरदक्षिणम् ।
तुल्यान्यभ्राणि वातोल्के यदा राहोस्तदाऽऽगमः ।।101 राहु के आगमन होने पर पशु, सर्प, पिशाच आदि दक्षिण से चारों ओर दिखलाई पड़त हैं तथा रामान मेध, वायु और उल्कापात भी होता है ॥10॥
सन्ध्यायां तु यदा शीतं अपरेसासनं ततः ।
सूर्यः पाण्डुश्चला भूमिस्तदा ज्ञेयो ग्रहामम: ।111॥ जय राध्या में शोत हो. अन्य ममय में उष्णता हो, सूर्य पाण्डवणं हो, भूमि नल हो तो ग्रहागम समझना चाहिए ।।11।।
सरांसि सरितो वक्षा वल्ल्यो गुल्म-लतावनम् ।
सौम्यभ्रांश्चवले वृक्षा राहोशंयस्त दाऽऽगम: ।12।। तालाब, नबी, वृक्ष, लता, वन, सौम्य कान्तिवाल हों और वृक्ष चंचल हों तो राहु ना आगम समझना चाहिए ।।।2।।
छादयेच्चन्द्र-सूर्यो च यदा मेघा सिताम्बरा ।
सन्ध्यायां च तदा ज्ञेयं राहोरागमनं ध्रुवम् ॥13॥ जब सन्ध्याकाल में आकाश में मेघ चन्द्र और सूर्य को आच्छादित कर दें, तव राह का आगमन समलना चाहिए 1113।।
एतान्येव तु लिङ्गानि भयं कुर्य रपणि ।
वर्षासु वर्षदानि स्युभद्रबाहुवचो यया ।।4।। वत चिह्न अपर्व-पूर्णिमा और अमावास्या से भिन्न नाल में भय उत्पन्न करते हैं। वर्षा में ऋतु वर्षा करने वाले होते है, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ||40
!. शोधायचंचले मु०12. गिताम्बरे ४० ।
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विंशतितमोऽध्यायः
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शुक्लपक्षे द्वितीयायां सोमशृगं 'तदा प्रभम् ।
स्फुटिताग्रं द्विधा वाऽपि विन्द्याद् राहोस्तदाऽऽगमम् ॥15॥ जव शुक्ल पक्ष की द्वितीया में चन्द्रग प्रभावान् हो अथवा उसग के टूटकार दो हिस्मे दिखलाई पड़ते हों, तब गहु का आगमन समझना चाहिए ।।1।।
चन्द्रस्य चोत्तरा कोटी द्वे शृंगे दृश्यते यदा।
धूम्रो विवर्णो ज्वलितस्तदा राहोघंवागमः ॥16॥ जब चन्द्रमा की उत्तर कोटि में दो शृग दिखलाई पड़ें और चन्द्र धात्र, विकृत वर्ण और ज्वलित खिलाई पडे. उग समय निश्चय में गह का आगम जानना चाहिए | till
उदयास्तमने भूयो यदा यचोदयो रवौ।
इन्द्रो वा यदि दृश्येत तदा ज्ञेयो ग्रहागमः।।।।। जब उदय या अस्तकाल में पुन: पुन: गुर्य और चन्द्रमा दिन्टा पड़े तब ग्रहागम ग़मन्नना चाहिए 11 17।।
कबन्धा-परिघा मेघा धुद रक्ताद जनः !
उदगच्छमाने दृश्यन्ते सूर्ये राहोस्तदाऽऽराम: ॥18॥ जब मेघ कबन्ध, परिघ के आनार के हों तथा सूर्य में ध्या , धूम और रक्त वर्ण की इनियमान दिखलाई पड़े तब राहु का आगमन समाना चाहिए ।।।8।।
मार्गवान् महिलाकारः शकटस्थो यदा शशी।
उद्गच्छन् दृश्यतेऽष्टम्यां तदा यो ग्रहागमः ॥19॥ जव अष्टमी को चन्द्रमा मागी, महिलाकार, रोहिणी नक्षत्र में फटा-टूटा-सा दिखलाई पड़े तब ग्रहागम गमझना चाहिए 11 1911
सिंह-मेषोष्ट्र-संकाश: परिवेश यदा शशी।
अष्टभ्यां शुअलपक्षस्य तदा ज्ञेयो प्रहागमः ॥2011 जब शुक्ल पक्ष की अष्टमी को चन्द्रमा का परिवेग सिंह, मंग और ऊँट नं. समान मालूम पड़े, तब ग्रहागग समझना चाहिए ॥2011
श्वेतके सरसङ्काश रक्त-पीतोऽष्टमो यदा। यदा चन्द्र: प्रदृश्येत तदा याद् ग्रहागमः ॥21॥
1. यद। शुभम् म । 2. गिग मु० । 3. कधी ग।
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भद्रबाहुसंहिता
यदि अष्टमी में चन्द्रमा श्वेतवर्ण, केमररंग या रक्त-पीत दिखलाई पड़े तो । ग्रहागम कहना चाहिए ।12।।
उत्तरतो दिश: श्वेत: पूर्वतो रक्तकेसरः। दक्षिणतोऽथ पीताभ: प्रतीच्या कृष्ण केसरः ।।2।। तदा गच्छन् गृहीतोऽपि क्षिप्रं चन्द्र: प्रमुच्यते।
परिवषो दिन चन्द्र विमर्देत विमुञ्चति ॥23॥ जब दिशा उत्तर मात, पूर्व से लत-मर, दक्षिण में पीतवर्ण और पश्चिम गे कृष्ण-पीत हो तो राहत द्वारा चन्द्र कता ग्रहण किये जाने पर भी गोत्र ही छोड़ दिया जाता है । चन्द्रमा में दिन का परिवेष होने पर गहु द्वारा रिमदित होने पर भी चन्द्रमा मीत्र ही कोड़ा जाता है ।।22-23।।
द्वितीयायां यदा चन्द्रः श्वेतवर्णः प्रकाशते ।
उद्गच्छमान: सोमी वा तदा गृह्यत राहणा ॥2411 अदि नन्दगा द्वितीया में श्वेतवर्ण का शोभित हो अथवा उड़ता हुआ । चन्द्रमा हो तो वह राह के द्वारा ग्रहण किया जाता है ।2411
ततीयायां यदा सोमो विवर्णो दृश्यते यदि।
पूर्वराने तदा राहुः पौर्णमास्यामुपक्रमेत् ॥25॥ यदि तृतीया में चन्द्रमा विवर्ण-विकृत वर्ण दिग्वलाई गड़े तो पूर्णमासी की। पूर्ण गत्रि में राहु द्वारा ग्रस्त होता है अर्थात् ग्रहण होता है ।।25।।
अष्टम्यां तु यदा चन्द्रो दृश्यते रुधिरप्रभः।
पौर्णमास्यां तदा राहुरधरानमुपक्रमेत् ।।26॥ यदि अष्टमी को चन्द्रमा रधिर के समान लाल प्रभा का दिखलाई पड़े तो गुणंभागी की अर्धरात्रि में राहु द्वारा ग्रस्त होता है -- ग्राह्य होता है ।।25।।
नवम्यां तु यदा चन्द्र. परिवेश्य तु सुप्रभ: ।
अर्धरात्रपक्रम्य तदा राहुरुपक्रमेत् ॥27॥ यदि नवमी तिथि को सुप्रभा बाल चन्द्रमा का परिवेप दिखलाई पड़े तो पूर्ण मागी में अर्धगत्रि के अनन्नर राह द्वारा चन्द्र ग्रस्त होता है अर्थात् अर्धरात्रि के पएचात् ग्राह्य होता है ।27।।
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विशतितमोऽध्यायः
कृष्णप्रभो यदा सोमो दशम्यां परिविष्यते । पश्चाद् रात्रं तदा राहुः सोमं गृह्णात्यसंशय: 11 28 ||
यदि दशमी तिथि को कृष्णवर्ण की प्रभा वाले चन्द्रमा का परिवेष दिखलाई पड़े तो पूर्णमासी को चन्द्रमा राहु द्वारा निस्सन्देह आधीरात कश्चात् श्रण किया जाता है |12811
परिवेषते
1
अष्टम्यां तु यदा सोमं श्वेता तदा परिघं वे राहुविमुञ्चति न संशयः ॥29॥
अष्टमी तिथि को श्वेतवर्ण की आभा का चन्द्रमा का परिविप दिखलाई पड़े राहु परिष को छोड़ता है, इसमें गन्देह नहीं है 1129।।
तो
कनकाभो पदाsध्म्यां परिवेषेण चन्द्रमाः । अर्धा तदा कृत्वा राहुरुद्गिरते पुनः ॥30॥
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यदि अष्टमी तिथि को स्वर्ण के समान कान्ति बाले चन्द्रमा का परिवेष दिखलाई पड़े तो पूर्णमासी को राहु उसका अर्धग्राम करके छोड़ देता है |130 परिवेषोदयोऽष्टम्यां चन्द्रमा रुधिरप्रभः ।
सर्वप्रास तथा कृत्वा 'राहुस्तञ्च विमुञ्चति ॥31॥
अष्टमी तिथि को परिवेष में ही चन्द्रमा का उदय हो और चन्द्रमा रुधिर के समान कान्तिवाला हो को राहु पूर्णमासी तिथि को चन्द्रमा का सर्वग्रास करके छोड़ता है 113111
2 कृष्णपीता यदा कोटिर्दक्षिणा स्याद्ग्रहः सितः । पीतो यदष्टम्यां कोटी तदा श्वेतं ग्रहं वदेत् ॥1321
जब अष्टमी तिथि को चन्द्र की दक्षिणकोटि कृष्णगोत होती है तो ग्रहण श्वेत होता है तथा पीली कोटिग होने पर भी श्वेत ग्रहण होता है 113211 दक्षिणा मेचकाभा तु कपोतग्रह्मादिशेत् ।
कपोतमेचकाभा तु कोटी ग्रहमुपानयेत् ॥33॥
यदि चन्द्रमा की दक्षिण कोटि दक्षिण शृंग मंचक आभा वाला हो तो कपोत रंग का ग्रहण होता है और कपोतमेचक आभा होंगे पर ग्रहण का भी वैसा रंग होता है ॥33॥
| द्र म० 12 म
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भद्रवाहसंहिता
पीतोत्तरा यदा कोटिर्दक्षिण: रुधिरप्रभः । कपोतग्रहणं विन्द्यात् पूर्व पश्चात् सितप्रभम् ॥34||
यदि अष्टमी तिथि को चन्द्रमा की उत्तर को कोटि- किनारा लाल हो और दक्षिण का किनारा रुधिर जैसा हो तो गोत रंग के ग्रहण की सूचना समझनी चाहिए तथा अन्त में श्वेत प्रभा समझनी चाहिए || 34 ||
पीतोत्तरा यदा कोटिर्दक्षिणा रुधिरप्रभा । कपोतग्रहणं विन्द्याद् ग्रहं पश्चात् सितप्रभम् ॥35॥
यदि चन्द्रमा का उपरी किनारा पीना और दक्षिणी रुधिर के समान कान्ति बाला होलो गोत रंग का ग्रहण पाना चाहिए तथा अन्तिम समय में श्वेत प्रभा समझनी चाहिए 1135॥
यतो भ्रस्तनितं विन्द्यात् मारुतं करकाशनी ।
रुतं वा श्रूयते किञ्चित् तदा विन्याद् ग्रहागभम् 113611 जब बादल गर्जना करे, वायु, जले और बिजली गिरे तथा किसी प्रकार का शब्द सुनाई पड़े तो ग्रहागम होता है 1136।।
मन्दक्षीरा यदा वृक्षाः सर्वदिक् कलुषायते' | कीडते च यदा बालस्ततो विन्द्याद् ग्रहागमम् ॥37॥
जब वृक्ष अल्प क्षीर वाले हों, सभी दिशाएँ कनुपित दिखलाई पड़े, और ऐसे समय में बालवा सेवते हो तो उस समय ग्रहागम जानना चाहिए । यहाँ सर्वत्र ग्रह से तात्पर्य 'ग्रहण' से है |13711
ऊर्ध्व प्रस्पन्दते चन्द्रश्चित्रः संपरिवेष्यते ।
कुरुते मण्डलं स्पष्टस्तदा विन्द्याद् ग्रहागमम् ॥38॥
यदि चन्द्रमा ऊपर की ओर स्पन्दित होता हो, विचित्र प्रकार के परिवेष से वेष्टित स्पष्ट मंडलाकार हो तो ग्रहण का आगमन समझना चाहिए ||3811 यतो विषयघातश्च यतश्च पशु-प -पक्षिणः । तिष्ठन्ति मण्डलायन्ते ततो विन्द्याद् ग्रहागमम् ॥39॥ यदि देश का आपात हो और पशु-पक्षी मण्डलाकार होकर स्थित हों तो ग्रहण का आगमन समझना चाहिए 1139 ॥
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विशतितमोऽध्यायः
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पाण्डुर्वा द्वावलीढो वा चन्द्रमा यदि दृश्यते ।
व्याधितो होनरश्मिश्च यदा तत्वे निवेशनम ।।4।। यदि चन्द्रमा पाण्डु या द्विगुणित निगला हुआ दिग्युलाई पड़े, व्यथित और हीन किरण मालूम पड़े तो चन्द्रग्रहण होता है 11401
'ततः प्रबाध्यते वेषस्ततो विन्द्याद ग्रहागमम् ।
यतो वा मुच्यते वेषस्ततश्चन्द्रो विमुच्यते ॥41।। जिम परिवप में चन्द्रमा प्रवाहित हो, उमरो ग्रहण होना है और जिगम चन्द्रमा छोड़ा जाय उससे चन्द्रमा मुक्त होता है ।।4।।
गृहीतो विष्यते चन्द्रो वपमावव विष्यते ।
यदा तदा विजानीयात् षण्मासाद ग्रहणं पुनः ॥42।। अब चन्द्रग्रहण के समय चन्द्रमा अगला फटा-टा न्योए प्रकाट करे तो छ: महीन पानात पुन: चन्द्रग्रहण समझना चाहिए 1421
प्रत्युद्गच्छति आदित्यं यदा गृह्य त चन्द्रमाः ।
भयं तदा विजानीयात् ब्राह्मणानां "विशेषतः ॥4311 सूर्य की और जाते हुए चन्द्रमा का ग्रहण हो तो ब्राह्मणों के लिए विशेष भय समझना चाहिए ।।4311
प्रातरासेविते चन्द्रो दश्यते कनकप्रभः ।
भयं तदा विजानीयादमात्यानां विशेषतः ॥ जब प्रातः कान में चन्द्रमा वर्ण की आभा वाला मानम हो तो भय होता है ___ और विणेप प ग अमात्या ये निग भय---- आजक होता है ।।4411
मध्याह्न तु यदा चन्द्रो गृहाते कनकप्रभः ।
क्षत्रियाणां नृपाणां च तदा भयमुपस्थितम् ॥5॥ मध्याह्न में नादि चन्द्रमा कलाप्रा मालग हो तो क्षत्रिय और यात्रा के ग्निा भय होता है 11451
'यदा मध्यनिशायां तु राहुणा गृह्यते शशी। भयं तदा विजानीयात् वैश्यानां समुपस्थितम् ।।46॥
I. क्या ।। गु. 1 2 ! मु.। 3. प्रायनगम मु.। 4. उपस्थिता पु. । 5. !! रमे दामो गह। राणादन मा । 6. यावते अदि मध्याम ।
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भद्रबाहुसंहिता
जब मध्य रात्रि में राहु चन्द्रमा को ग्रस्त बारता है तब वैश्यों के लिए भय होता है ।।461
नोचावलम्बी सोमस्तु या गृह्येत राहुणा ।
सूप्पाकारं तदाऽऽनत मरुकच्छं च पीडयेत् ॥471 नीच राशिस्य चन्द्रमा -वृश्चिक राशिस्थ चन्द्रमा को जब राहु ग्रस्त करता है तो सूकिार, आनर्त, मरु और कच्छ देशो को पीड़ित करता है ।। 47।।
अल्पचन्द्रं च द्वीपाश्च म्लेच्छाः पूर्वापरा द्विजाः।
दीक्षिताः क्षत्रियामात्या: शूद्रा: पीडामवाप्नुयुः ॥48॥ यदि अपनन्द्र का ग्रहण हो तो म्लेम आदि द्वीप, पूर्व-पश्चिम निवासी द्विज, मुनि-मान, क्षत्रिय, अमात्य और शूद्र पीड़ा को प्राप्त होते हैं ।।48।।
यतो राहुप्रंसेच्चन्द्र' ततो यात्रां निवेशयेत् ।
दृते जिलो माजा यशो सम्हाद् भयम् ॥4॥ जब राहु द्वारा चन्द्रग्रहण होता है तो यात्रा में मकावट राम चाहिए। चन्द्रग्रहण के दिन यात्रा करने वाला व्यषित यों ही वापस लौट जाता हैं, अतः यात्रा में भय है 1149||
गृहणीयादेकमासेन चन्द्र-सूर्यो यदा तदा।
रुधिरवर्णसंसक्ता सङ्ग्रामे जायते मही॥500 जब एक ही महीने में चन्द्रग्रहण और मूर्य ग्रहण दोनों हों तो पृथ्वी पर युद्ध होता है और पृथ्वी रक्तरंजित हो जाती है ।154://
चौराश्च शायिनो म्लेच्छा नन्ति साधूननायकान् ।
विरुध्यन्ते गणाश्चापि नपाश्च विषये चरा: ।।5।। उक्त दोनों ग्रहणों के होने पर वे चोर, यावी, नन्छ, नेतृत्वविहीन साधुओं का घात करते हैं तथा देश-बिशेष में दूत, राजा और गों को रोक लिया जाता है।1511
यतोत्साहं तु हत्वा तु राजानं निष्क्रमते शशी।
तदा क्षेमं सुभिक्षञ्च मन्दरोगांश्च निदिशेत् ।।52।। चन्द्रमा पहले राहु को परास्त कर निकल आये तो क्षेम, गुभिक्ष तथा रोगो की मन्दता होती है ।। 5211
]. यह लीक मुद्रित प्रति में नहीं है।
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विशतितमोऽध्यायः
पूर्वं दिशि तु यदा हत्वा राहुः निष्क्रमते शशी । रूक्षो वा होनरश्मिर्वा पूर्वी राजा विनश्यति ॥ 1530
जब राहु पूर्व दिशा में चन्द्रमा का नंदन कर निकले और चन्द्रमा रूक्ष तथा हीन किरण मालूम पड़े तो पूर्व देश के राजा का विनाश होता है |1531 दक्षिणदिने गर्भ दाक्षिणात्यांश्च पीडयेत् । उत्तराभेदने चैव नाविकांश्च जिघांसति ॥54॥
दक्षिण दिशा में गर्भ के न होने से दाक्षिणात्य - दक्षिण निवासियों को कष्ट और उत्तर रा का होने से नाविको का घात होता है |54|| निश्चल: सुप्रभः कान्तो यदा निति चन्द्रमाः । राक्षां विजय-लाभाय तदा ज्ञेयः शिवशंकरः ॥5॥ निम्बल और सुन्दर कान्ति बालाचन्द्रमा जब से निकलता है तो राजाओं को जगनाम और राष्ट्र में सर्वशान्ति होती है ।15511 एतान्येव तु लिगानि चन्द्र ज्ञेयानि धीमता । कृष्णपक्ष यदा चन्द्रः शुभ वा यदि वाऽशुभः ||56|
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उपर्युक्त चिह्नों को चन्द्रमा में अवगत कर बुद्धिमान् व्यक्तियों को शुभाशुभ जानना चाहिए। जब चन्द्रमा कृष्ण पक्ष में शुभ या अशुभ होता है तो उसके अनुसार फल घटित होता है ॥5॥
उत्पाताश्व निमित्तानि शकुतं लक्षणानि च । पर्वकाले यदा सन्ति तदा राहो वागमः 1157
जब पूर्व में उत्पात, निमित, अकुत और लक्षण घटित होते हैं, तन लय से राहु का आगमन राहु द्वारा ग्रहण होता है 15711
रक्तो राहुः शशी सूर्यो हन्युः क्षत्रात् सितो द्विजान् । पोतों वैश्यान् कृष्णः शूद्रान् द्विवर्णास्तु जिघांसति ॥58||
जन लाल रंग के राहु, सूर्य और चन्द्रमा हो तो क्षत्रियों का हनन, श्वेत वर्ण के होने पर द्विजों का इनन, पीतवर्ष के होने पर वैश्यों का हनन और कृष्ण वर्ण के होने पर शूद्र और वर्णसरों का हनन होता है |58 ।।
चन्द्रमा: पीडितो हन्ति नक्षत्रं यस्य यद्यतः । रूक्षः पापनिमित्तश्च विकृतश्च विनिर्गतः ॥59
1. सूर्य । 2. ग
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भगवाहुसंहिता
रूक्ष, पाप निमित्तक, विकृत और पीड़ित चन्द्रमा निकल कर जिस नक्षत्र का घात करता है, उस नक्षत्र वालों का अशुभ होता है !1591
प्रसन्न: साधुकान्तश्च दृश्यते सुप्रभः शशी।।
यदा तदा नृपान् हन्ति प्रजा पोत: सुवर्चसा 11601 जब ग्रहण से छूटा हुआ चद्रमा प्रसन्न, सुन्दर कान्ति और सुप्रभा वाला दिखलाई पड़े तो राजाओं का घात करता है । पीत और तेजस्वी दिखलाई पड़े तो प्रजा का घात करता है !601
राज्ञो राहु: प्रवासे यानि लिगान्यस्य पर्वणि।
यदा गच्छेत् प्रशस्तो वा राजराष्ट्रविनाशनः ॥6॥ पर्व काल में-पूर्णिमा के अस्त होने पर राहु के जो चिह्न प्रकट हों, उनमें वह प्रगस्त दिखलाई पड़े तो राजा और राष्ट्र का विनाश होता है ।। 61।। '
यतो राहुप्रमथने ततो यात्रा न सिध्यति ।
प्रशस्ता: शकुना यत्र सुनिमित्ता सुयोषितः ॥62॥ शुभ शकुन और श्रेष्ठ निभित्तों के होने पर भी राहु के प्रमथन-अस्थिर अवस्था में रहने पर यात्रा सफल नहीं होती है ।।62।।
राहुश्च चन्द्रश्च तथैव सूर्यो यदा सवर्णा न परस्परघ्नाः । काले च राहुभेजते रवीन्टू तदा सुभिक्षं विजयश्च राज्ञः ।।6।। राहु, सूम और चन्द्र जब सवर्ण हों और परस्पर मात न करें तथा समय पर सूर्य और चन्द्रमा का गहुँ योग यारे नो राजाओं की विजय होती है और राष्ट्र में सुभिक्ष होता है 116 3!!
इति नन्थे भद्रबाहु के निमित्त संहिते राहुचारो नाम विशतितमोऽध्यायः ।।20।।
विवेचा--- द्वादश राशियों के भ्रमणानुसार राहुफल –जिरा वर्प राहु मीन राशि में रहता है. उस वर्ष बिजली का भय रहता है । सैकड़ों व्यक्तियों की मृत्यु बिजली के गिरने में होती हैं । अन्न की कमी रहने से प्रजा को कष्ट होता है। अन्न में दूना-तिगुना लाभ होता है । एक वर्ष तक दुभिक्ष रहता है, तेरहवें महीने में गुभिक्ष होता है। देश में गृहकलह तथा प्रत्येक परिवार में अशान्ति बनी रहती है । यह मीन राशि का राहु बंगाल, उड़ीसा, उत्तरी बिहार, आसाम को छोड़
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विशतितमोऽध्यायः
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अवशेष मागी प्रदेशों के लिए भिक्षकारक होता है । अन्न की कमी अधिक रहती है, जिमग प्रजा को भनमी का कष्ट तो सहन करना ही पड़ता है साथ ही आपस में संघर्ष और लूट-पाट होने के कारण अशान्ति रहती है । मीन राशि के राहु के माय गनिनी हो तो निश्चयत भारत को दुभिक्ष का मामना करना पड़ता है। दाने-दाने के लिए महताज होना पड़ता है। जो अन्न का संग्रह कर के रखते है, उन्हें भी काट उठाना पड़ता है। कुम्भ राशि में राहु हो तो मन, रात, कावास, जूट आदि के मंत्रा में लाभ रहता है। राह के साथ मंगल हो तो फिर जट के व्यापार में निगुना-चौगुना लाभ होता है । व्यापारिक सम्बन्ध भी सभी लोगों के बढ़ते जान हैं । काम, रूई, मूत, बग्न, जूट, मन, 'पाटादि से बनी वस्तुओं के मूल्य में महंगी आती है। मा गमि में राहु और मंगल के आरम्भ होते ही छ: महीनों तक उक्त बम्नुओं का संग्रह करना चाहिए। मानवें महीन में बेच देने से लाभ रहता है।
शुम्भ राशि के रा में वर्षा माधारण होती है, मल भी मध्य में होती है तथा धान्य के व्यापार में भी लाभ होता है। माद्यान्नों की कमी गजस्थान, बम्बई, गुजगत, मध्य प्रदेश एवं उड़ीसा में होती है। बंगाल में भी खाद्यान्नी की कमी
आती है, पर कान की स्थिति नहीं आन पाती । पंजाब, निहार और मध्य भारत में उनम मल उपजाती है। भारत में कुम्भ राशि का राहु खपवृष्टि भी करता है । अनि के माथ गह अम्भ गणि में स्थिति रहे तो प्रजा के लिए अत्यन्त कष्ट कारक हो जाता है। भिक्ष य. गाय खून-त्रियां भी कराता है । यह संघर्ष और युद्ध का कारण होता है । विदेशी स मम्मकभी बिगड़ जाता है, सन्धियों का महत्त्व समाप्त हो जाता है । जापान और वर्ग में बयान को भी नहीं रहती है। चीन के साथ उक्त राहु की स्थिति में भारत का गंत्री सम्बन्ध न होता है । मकर राशि में गह में रहने में ग़न, शाम, मई, बत्र, जूट, मन, पाट आदि का संग्रह तीन महीनों तक करना बाहि पथि महीने में तुरा बस्तुओं के बनने से तिगुना लाभ होता है । ऊनी, रेशमी और सूती वस्त्रों में पूरा लाभ होता है। मकर का राहु गुड़ में हानि कराता है तथा नीनी और चीनी के निमित वस्तुओं के व्यापार में भी पर्याप्त हानि होती है। ग्यामान की स्थिति छ गुधर जाती है, पर कुम्भ और मकर राशि के राह मे सामानों की कमी रहती है । मकर राशि के गह के साथ शनि, मंग-न या मयं में रहने में वस्त्र, जूट और कपास या मूत में पंचगुना लाभ होता है। वर्षा भी साधारण ही हो पाती है, फसल माधारण रह जाती है, जिराम देश में अन्न का मकट बना रहता है। मयभारत और गजस्थान में अन्न की कमी रहती है. जिग वहां के निवामियों के लिए वष्ट होता है। धनु राशि के राहु में मवेशी के व्यापार में अधिक लाभ होता है। घोड़ा, बन्चर, हाथी एवं सवारी के गामान माटर, साईकल, रिक्शा आदि में भी अधिक लाभ होता है। जो व्यक्ति मवेशी का सचय तीन महीनों तक करवा चौथ महीने में मवेशी को
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भद्रबाहुसंहिता
बेचता है, उसे चौगुना तक लाभ होता है। मशीन के वे पार्टस जिनसे मशीन का सीधा सम्बन्ध रहता है, जिनके बिना मशीन का चलना कठिन ही नहीं, असंभव है, ऐसे पार्टस के व्यापार में लाभ होता है। जनसाधारण में ईर्ष्या, उद्वेग और वैमनस्य का प्रसार होता है ।
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वृश्चिक राशि में राहु मंगल के साथ स्थित हो तो जूट और वस्त्र के व्यवसाय में अधिक लाभ होता है। वृश्चिक राशि में राहु के आरम्भ होने के पाँच महीनों तक वस्तुओं का संग्रह करके छठे महीन में वस्तुओं के बेचने से दुगुना - तिगुना लाभ होता है। खाद्यान्नों का उत्पादन अच्छा होता है तथा वर्षा भी उत्तम होती है। आसाम, बंगाल, बिहार, पंजाब, पाकिस्तान, जापान, अमेरिका, चीन में उत्तम फसल उत्पन्न होती है। अनाज के व्यापार में साधारण लाभ होता है । नारियल, सुपाड़ी और आम इमली आदि की फसल साधारण होती है । वस्त्र-व्यवसाय के लिए उक्त प्रकार का राहु अच्छा होता है । तुला राशि में राहू स्थित हो तो दुर्भिक्ष पड़ता है, खण्डवृष्टि होती है । अन्न, घी, तेल, गुड़, चीनी आदि समस्त खाद्य पदार्थों की कमी रहती है। मवेशी को भी कष्ट होता है तथा मवेशी का मूल्य घट जाता है। यदि तुला राशि में राहु उसी दिन आये, जिस दिन तुला की सक्रान्ति हुई हो, ता भयकर दुष्काल पड़ता है। देश के सभी राज्यों और प्रदशों में खाद्यान्नों की कमी पड़ जाती है। तुला राशि के राहु के साथ शनि, मंगल का रहना और अनिष्टकार होता है | पंजाब, बंगाल और आसाम में अन्न की कभी रहती है, दुष्काल के कारण सहस्रो व्यक्ति भूख से छटपटा कर अपने प्राण गंवा बैठते है | कन्या राशि का राहु होने से विश्व में शान्ति होती है । अन्न और वस्त्र का अभाव दूर हो जाता है। लाँग, पीपल, इलायची और काली मिर्च के व्यवसाय में मनमाना लाभ होता है । जब कन्या राशि का राहु आरम्भ हो उस समय से लेकर पाँच महीना तक उक्त पदार्थों का संग्रह करना चाहिए, पश्चात् छठे महीने में उन पदार्थों को बेच देने से अधिक लाभ होता है । चीनी, गुड़, वी और नमक का व्यवसाय में भी साधारण लाभ होता है। सोना, चांदी के व्यापार में कन्या के राहु के छः महीने के पश्चात् लाभ होता है । जापान, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैण्ड, चीन, रूरा, मिस्र, इटली आदि देशों में खाद्यान्नों की साधारण कमी होती है | वर्मा में भी अन्न की कमी हो जाती है। सिंह राशि का राहु होने से सुभिक्ष होता है। सांठ, धनिया, हल्दी, काली मिर्च, संधा नमक, पीपल आदि वस्तुओं के व्यापार में लाभ होता है, अन्न के व्यवसाय में हानि होती है। गुड़, चीनी और घी के व्यवसाय में समर्थता रहती है। तल का भाव तेज हो जाता है | सिंह का राहु राजनीतिक स्थिति को शुद्ध करता है। देश में नये भाव और नये विचारों की प्रगति होती है । कलाकारों को सम्मान प्राप्त होता है तथा कला का सर्वागीण विकास होता है । साहित्य की उन्नति होती है | सभी देश शिक्षा और संस्कृति में
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प्रगति करते हैं । कर्क राशि के राहु में सोना, चाँदी, तांबा, लोहा, गेहूँ, चना, नी, ज्वार, बाजरा आदि पदार्थ रास्ते होते हैं तथा सुरिक्ष और गुष्टि होती है । जनता में सुख-शान्ति रहती है। यदि कर्क राशि के राहु के साथ गुह हो तो राजनीतिक प्रगति होती है। देश का स्थान अन्य देशों के बीच श्रेष्ठ माना जाता है । पंजाब, बंगाल, बिहार महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश दिल्ली और हिमाचल प्रदेश के लिए यह सहु बहुत अच्छा है । इन स्थानों में वर्षा और फसल दोनों ही उत्तम होती है । आसाम में बाढ़ आने के कारण अनेक प्रकार की बठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं । जट के व्यापार में साधारण लाभ होता है। जापान में फगल बहुत अच्छी होती है; किन्तु भूकम्प आने का भय गर्वदा बना रहता है । कर्क राशि का राहु चीन और रूस के लिए उत्तम नहीं है, अवशेष सभी राष्ट्रों के लिए उत्त। है। मिथुन राशि के राह में भी मनी पदार्थ सम्ो होते हैं । अन्नादि पदार्थों की उत्पत्ति भी अच्छी होती है। तथा सभी देशों में माल 'हता है। वृष राशि में राहु में अन्न की कुछ पानी पड़ती है। बी, तेल, तिलहन, चन्दन, कार गरनूरी, गहूं। जो. चना, चाबन, ज्वार, मक्का, बाजा, उड़द, अरहर, मंग, गड़, चीनी आदि दार्थों के संचय में लाभ होता है : मेा राशि के ह ।
य ही माम में सर्व और चन्द्रग्रहण हो तो निचयत. दुभिक्ष पड़ता है । बंगाल, बिहार, आसाम और उत्तर प्रदेश में उनम वर्षा होती है, दक्षिण भारत में मध्यम वर्ग तथा अवशेष प्रदेशों में वर्षा का अभाव या अल्प बर्ग होती है। यदि सह के साथ शनि और मंगल हो तो वर्षा का अभाव रहता है । अनाज की उत्पत्ति भी साधारण ही होती है । देश में खाद्यान्न संकट होने में बुरा अशान्ति रहती है। निम्न श्रेणी के व्यक्तियों को अनेक प्रकार के नष्ट होते हैं।
राहु द्वारा होने वाले च सग्रहण का फल--मेग गशि में चन्द्र ग्रहण हो तो मनुष्यों को पीड़ा होती है । पहाड़ी प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, दक्षिण भाग्न, महाराष्ट्र आन्त्र, वर्मा आदि प्रदेशों के निवासियों को अनेक प्रकार की बीमारियों का सामना करना पड़ता है। मेष राशि के ग्रहण में शूद्र और वाणगंग को अधि। कट होता है । लाल रंग के पदार्थों में लाभ होता है। वा रात्रि के ग्रहण में गोप, मवेशी, गथि, शीपन्त, धनिव. और श्रेष्ठ व्यक्तियों को होता है। इस ग्रहण
फगल माधारण होती है, वर्षा भी मध्यम ही होती है मनिज पदार्थ और भागाला की उतानि अधिक होती है । गायों की संख्या घटती है, जिसंग धी, दुध कमी होने लगती है । राजनीतिक दृष्टि में उथल-पृथल होती है । सहण पड़ा के एक महोने के उपरान्त नेताओं में मनमुटाब आरम्भ होता है तथा गो प्रदान गरिन भण्डालों में परिवर्तन होता है। मिथम राशि पर एन्द्रग्रहण में साथ यदि गुर्य ग्रहण भी हो तो कलाकारों, शिल्पियों, वेण्या श्रा, ज्योतिपियोंगी प्रसार अन्य व्यवमाथियों को शारीरिक कष्ट होता है । इटली, मित्र, ईरान आदि दशा म,
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भद्रबाहु संहिता
विशेषतः मुस्लिम राष्ट्रों में अनेक प्रकार से अशान्ति रहती है । वहाँ अन्न और वस्त्र की कभी रहनी है तथा गृट याना भी जान होती है। उद्योग-धन्धों में रुकावट उत्पन्न होती है । वर्मा, चीन, जापान, जर्मन, अमेरिका, इंगलैण्ड और रूस में शान्ति रहती है । यद्यपि इन देशों में भी अर्थमंगाट बढ़ता हुआ दिखलाई पड़ता है, फिर भी शान्ति रहती है। भारत के लिए भी उक्त राशि पर दोनों ग्रहनों का होना अहितकारक होता है । कन्क राभि पर चन्द्रग्रहण हो तो गर्दभ और अहीरों को काट होता है। बाली, नागा तथा अन्य पहाड़ी जाति के व्यक्तियों के लिए भी पर्याप्त नष्ट होता है । नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं तथा आर्थिक संकट भी उनके सामने प्रस्तुत रहता है । यदि इसी राशि पर सूर्य ग्रह्ण भी हो तो क्षत्रियों को बाट होता है । संनिया तथा अम्ब ग ब्यबसाय करने वाले व्यक्तियों को पीला होती है । चोर और डायों के लिए अत्यन्त मय होता है। गिह राशि के ग्रहण में वनवासी दुःखी होत हैं, गजा और साहुतारों का धन क्षय होता है । कृषकों को भी मानसिक चिन्ताएं रहती हैं। फसान अच्छी नहीं होती तथा फसल में नाना प्रकार के रोग नग बाल हैं। टिड्डी, मुगों या भय अधिक रहता है। बाटार कार्यो ग आजीविका अर्जन करने वालों को लाभ होता है । व्यवमागियों को हानि उठानी पड़ती है। कन्या आणि क ग्रहण में शिल्पियों, कवियों, साहित्यकारों, गायों एवं अन्य ललित कलाकारों को यात वाट ‘हता है। आर्थिक संबाट रहने में उान प्रकार के व्यवसानियों को काट होता है। छोटे-छोटे दुकानदारों को भी अनेक प्रकार के कष्ट होने हैं । बंगाल, आसाम, बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बम्बई, दिल्ली, मद्रास और मध्य प्रदेश में फसल साधारण होती है । आसाम में अन्न की कमी रहती है नया पंजाब में भी अन्न का भाव महेंगा रहता है । यदि कन्या राशि पर चन्द्रग्रहण नाथ मूर्यग्रहण भी हो तो नमा, लंका, श्याम, चीन
और जापान में भी अन्नी कामी पड़ जाती है। बाप सापार में अधिक लाभ होता है । जूट, मन, रेशम, काग, ई और पाट के भाव ग्रहणों के दो महीन के पश्चात् अधिक बढ़ जाते है। मिट्टी वा नल, पेट्रोल, कोयना आदि पदार्थों की कमी पड़ जाती है । यदि कन्या राशि के चन्द्र ग्रहण पर मंगल या गनि की दृष्टि हो तो अनाजों की और अधिक कमी पड़ जाती है । तुला राशि पर चन्द्र ग्रहण हो तो साधारण जनता में भगताप होता है 1 गहुँ, गह, चीनी, घी और नल का भाव तेज होता है। व्यापारियों को लिए यह ग्रहण अच्छा होता है, उन्हें व्यापार में अच्छा लाभ होता है । पंजाब, त्रावणकोर, कोचीन, मलावार को छोड़ अवयप भारत में अपछी वपां होती है 1 इन प्रदेशों में फसल मी अच्छी नहीं होती है । पशुओं को काट होता है तथा बिहार और उत्तर प्रदेश के निवासियों को अनेक प्रकार की बीगारिया का सामना करना पता है। धी, गड, चीनी, काली मिर्च, पीपल, सोंठ, धनिया, हल्दी आदि पदार्थो का भाव भी महंगा होता है । लोह के
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व्यवसायियों को दुना लाभ होता है। सोना चार चाँदी में नागार में साधारण लाभ होता है। तांदा और पीपल के भाव अधिक तज होते हैं । अस्त्र-शस्त्र तथा मशीनों का मूल्य भी बढ़ता है। बश्चिक राशि पर चन्द्रग्रहण हो तो गभी वर्ण के व्यक्तियों को कष्ट होता है। पंजाब निवासियों को हैजा और चेचक का प्रकोप अधिक होता है। बंगाल, बिहार और आसाम में विषले ज्वर के कारण सहनों व्यक्तियों की मृत्यु होती है। सोना, चांदी, मोती, माणिक्य, हीरा, गोमेद, नीलम आदि रत्नों के सिवा साधारण पापाण, सीमेण्ट और चना के भाव भी तेज होते हैं । बी. गुड़ और चीनी का भाव मस्ता होता है। यदि वृश्चिक राशि पर चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण दोनों हों तो वर्षा की कमी रहती है । फमाल भी सभ्य रूप से नहीं होती है, जिसमें अन्न की कमी पड़ती है। धन राशि पर चन्द्रग्रहण हो तो वैद्य, डॉक्टर, व्यापारी, पोडों एवं यवनों को शारीरिक कष्ट होता है। धन राशि २ ग्रहण में देश में अर्थसबाट व्याप्त होता है, फाल उत्तम नहीं होती है । पुनिज पदाथ, बना और अन्न सभी की कमी रहती है 1 फल और तरकारियों की की क्षति होती है । यदि इसी राशि पर सूर्यग्रहण हो और शनि से दृष्ट हो तो अटक मु कटक तर तथा हिमालय कन्याकुमारी तक बदंगों में आर्थिक संकट रहता है। राजनीति में भी उथल-पुथल होती है । कई गज्यों के मन्त्रिमानों में परिवर्तन होता है । मकर राशि पर चन्द्रग्रहण हो तो नट मन्त्रवादी, कवि, लग्यक और छोटे-छोटे व्यापारियों को शारीरिक कष्ट होत हैं । कुम्भ राशि पर ग्रहण होन ग अमीरों को काट तथा पहाड़ी व्यक्तियों को अनेक प्रकार काष्ट होन है। आसाम में 'भका भी होता है। अग्निभय, शस्त्र'भय और नीराय सममा दंगकी विपन्न गाना है। मीन राशि पर चन्द्रग्रहण होने ग अलजन्न, जग भाजीविना करने वाल, नावित यं अन्य इसी प्रकार का व्यक्तियों को पीड़ा होती है ।
नक्षत्रानुसार चन्द्र ग्रहण का फल- अग्विनी नक्षत्र में चन्द्रग्रहण हो सो दान वाले अनाजमंग उन द, चना अरहर आदि महें, भरणी में ग्रहा हो तो ग्यत वस्त्र का व्यवसाय में तीन माग में लाभ; कपाग, म.ई, गुज, जूट, आदि में दार महीनों में ला और ऋतिका में हो तो गुवणं, चाँदी, प्रवाल, मुस्ता, माणिाय में लाभ होता है 1 उक्त दिनों का नक्षत्रों में ग्रहण होने स धर्पा माधारणत. अनछी होती है। प्रष्टि के कारण थिमी प्रदेश में वर्षा अच्छी और किसी में नम होती है। रोहिणी नक्षः भ ग्रहण होने पर मागास, रू. जूट और पाट क संग्रह में नाम; मृगशिरा नक्षत्र में ग्रहण हो तो लाग्य, रंग एवं क्षार पदार्थों में लाभ; आद्रां में ग्रहण हो वो भी. गुड़ और चीनी आदि पदार्थ महंग; गुनर्वग नक्षत्र में ग्रहण हो तो नेल, तिलग, मगफली और चना में लाभ; पुष्य नक्षत्र में ग्रहण हो तो महूं, चायन जी श्रीन वार आदि अनाजों में लाभ; मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तमहालगना और हस्त, इन चार नक्षत्रों में ग्रहण हो ना कना, गेहूँ, गुड़ और जी म लाभ; चित्रा में
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भद्रबाहुसंहिता
ग्रहण होने से सभी प्रकार के धान्यों में लाभ, स्वाति में ग्रहण होने से तीसरे, पांचवें और नौवें महीने में अन्न के व्यापार में लाभ; विशाखा नक्षत्र में ग्रहण होने से छठे महीने में कुलथी, काली मिर्च, चीनी, जीग, धनिया आदि पदार्थों में लाभ अनुराधा में नौवें महीने में बाजरा, सरसों आदि में लाभ, ज्येष्ठा नक्षत्र में ग्रहण होने से पांचवें महीने में गुट्ट, जीनी मिली यादि पदार्थों में लाभ; मूल नक्षत्र में ग्रहण होने से चावलों में लाभ ; पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में ग्रहण होने से वस्त्र व्यवसाय में लाभ; उत्तराषाढा नक्षत्र में ग्रहण होने से पांचवें मास में नारियल, सुपाड़ी, काजू, किसमिस आदि फलों में लाभ; श्रवण नक्षत्र में ग्रहण होने से मवेशियों के पागार में लाभः घनिष्ठा नक्षत्र में ग्रहण होने से उड़द, मूंग, मोठ आदि पदार्थों में व्यापार में लाभ; शतभिषा नक्षत्र में ग्रहण होने चना में लाभ, पूर्वाभाद्र पद में ग्रहण होने से पीड़ा, उत्तराभाद्रपद में ग्रहण होने से तीन महीनों में नमक, चीनी, गुड़ आदि पदार्थों के व्यापार में विशेष लाभ होता है।
विद्ध फल- - राहु का नि । बिद्ध होना भय, रोग, मृत्यु, चिन्ता, अग्नाभाव एवं अशान्ति मूनक है। मंगल में विद्ध होने पर राह जनक्रान्ति, राजनीति में उथल-पुथल एवं युद्ध होते हैं । बुध या शुक्र में विद्ध होने पर राहु जनता को सुखशान्ति, आनन्द, आमोद-प्रगोद, अभय और आरोग्य प्रदान करता है। चन्द्रमा से राहु विद्ध होने पर जनता को महान् बाप्ट होता है । प्रत्येक ग्रह का बिद्ध रूप सप्तमलासा या पंचशलाका चक्र में जानना चाहिए ।
एकविंशतितमोऽध्यायः कोणजान पापसम्भूतान् केतून वक्ष्यामि ज्योतिषा।
मृदवो दारुणाश्चैव तेयामासं निबोधत !!|| पाप के काम कोण में उत्पन्न हुए कंतुओं का ज्योति के अनुसार वर्णन कम्गा । मदु और दाहण होन के अनुसार उनका पल समझना चाहिए ।। | ।।
एकादिषु शतान्तेषु वर्षषु च विशेषतः ।
केतवः सम्भवन्त्येवं विषमाः पूर्वपापजाः ।। एकादि गौ वर्षों में पूर्व पाए थे. उदय से बिषम फैनु उत्पन्न होता है। इन
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एकाविशतितमोऽध्यायः
365 विषम केतुओं का फल विषम ही होता है ।। 2 ।।
पूर्वलिङ्गानि केतुनामुत्पाता: सदृशाः पुनः।
ग्रहा' अस्तमनाश्चापि दृश्यन्ते चापि लक्षयेत् ॥3॥ केतुओं के पूर्व चिह्न उत्पात के समान ही है, अतः ग्रहों के अस्तोदय को देख कर और लक्ष्यकर कल कहना चाहिए 11 3 ।।
शतानि चैव केतूनां प्रवक्ष्यामि पृथक् पृथक् ।
उत्पाता यादृशा उक्ता ग्रहास्तमनान्यपि ॥4।। संकड़ों केतुओं का वर्णन गृथक-पृथक किया जायगा। ग्रहों ने अस्तोदय तथा जिस प्रकार के उत्पास बहे गये हैं, उनका वर्णन भी वैसा ही किया जाएगा ! 11
अन्यस्मिन् केतुभवने यदा केतुश्च दृश्यते।
तदा जनपदव्यूहः प्रोक्तान् देशान् स हिसति ॥5॥ यदि अन्य यनुभवन में केतु दिखलाई पड़े तो जनता प्रतिपादित देणों का घात करती है ।। 511
एवं इक्षिणतो बिन्यानोपना न!
कृत्तिकादियमान्तेषु नक्षत्रेषु यथाक्रमम् ॥6॥ इस प्रकार कृतिका नक्षत्र गे भरणी तक दक्षिण, पश्चिम और जनर इन दिशाओं में नक्षत्रों में क्रमशः समझ लेना चाहिए ।। 6 ॥
ध्र म्र: क्षद्रश्च यो ज्ञेयः केतुरंगारकोऽग्निपः।
प्राणसंबास पाणी स प्राणी संशयो तथा 17॥ केतु, अंगारक और गह धूम्र वर्ण और क्षुद्र दिखलाई पड़ें तो प्राणों का संकट और अनेक प्रकार के समय उत्पन्न होते हैं ।। 7॥
त्रिशिरस्के द्विजमयम् अरुणे युद्धमुच्यते ।
अरश्मिके नपापायो विरुध्यन्ते परस्परम् ॥४॥ यदि तीन सिर वाला कोतु दिखलाई पड़े तो द्विजों को भय; अरुण केतु दिखनाई पड़े तो युद्ध और किरण रहित केतु दिखलाई पड़े तो राजा और प्रजा में परस्पर विरोध पैदा करता है।॥8॥
विकते विकतं सर्व क्षीणे सर्वपराजयः ।
शृंगे शृंगिवधः पाप: कन्धे जनमृत्युदः ॥9॥३ 1. गृहाम्तममानना • ! 2. नानारियं - म० । 3. विधिले विभिन्न मा मिली राई गजयम् १० ।
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भद्रबाहुसंहिता
रोगं सस्यविनाशञ्चः दुस्कालो मृत्युविद्रवः ।
मासं लोहितकं ज्ञेयं फल मेवं च पञ्चधा ॥10॥ विक्षिल-यदि विकृत केतु दिखलाई पड़े तो प्रजा में फूट और क्षीण केनु दिखलाई पड़े तो पराजय, संपुर्ण शृगाकार दिखलाई पड़े तो सींगवाले पशुओं का बध और कबन्ध्र · घड़-आकार दिखलाई पड़े तो मनुष्यों की मृत्यु होती है। इस प्रकार के केतु में रोग उत्पन्न होते हैं, धान्य -फसल का विनाश होता है, अकाल पड़ता है. मृत्यु-उपद्रव होते है एवं पृथ्वी मांस बार खून से भर जातो है, इस प्रकार पांच प्रकार का फल होता है 19-1011
मानुष: पशु-पक्षीणां समयस्तापसक्षये।
विषाणी दष्ट्रिधानाय सस्थघाताय शंकरः ॥1॥ उपर्युक्त प्रकार का केतु पशु-पक्षियों के लिए मनुष्यों के समान दुःखोत्पादक, तपस्वियों को क्षय करने के लिए समय के समान, दंष्ट्री- दांत से काटने वाले व्याघ्रादि के लिए विपयुक्त मादि के समान और फसल का विनाश करने के लिए कद्र के समान है |||1|
अंगारकोऽग्निसंकाशो धमकेतुस्तु धूमवान् ।
नीलसंस्थानसंस्थानो वैडूर्यसदृशप्रभः ।।12।। अग्नि के तुल्य केनु अंगारक, धूम्रवर्ण का कंतु धूमकेतु और बैडूर्यमणि के समान नीलवर्ण का केनु नीलसंस्थान है ।।।211
कनकाभा शिखा यस्य स केतु: कनक: स्मत:।
यस्योवंगा शिखा शुक्ला स केतुः श्वेता उच्यते ।।13।। जिन बानुली शिया कनक के समान कान्ति बाली है वह गातु कनकप्रश और जिस नातु के ऊपर की शिला शुक्ल है वह केनु श्वेत कहा जाता है ।।। 311
त्रिवर्णश्चन्द्रवद् वृत्तः समसर्पवदंकुरः ।
त्रिभिः शिरोभिः शिशिरो गुल्मकेतुः स उच्यते॥4॥ तीनवणं वाना एवं चन्द्रमा के समान गोन केतु समसवांकुर नाम का होता है, तीन गिर वाला बातु शिशिर कहलाता है और मुल्म के ममान के गुल्मकेतु कहलाता है ।।। 40
1. 14. T A. 12 काना मु. 13 नानी-I. 14. अग्न म । 5. म.6. - तु । गगवत् ।। ।
न
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एकविंशतितमोऽध्यायः
विक्रान्तस्य शिखे दोप्ते ऊध्वं च प्रकीर्तिते । ऊर्ध्वमुण्डा शिखा यस्य स खिली केतुरुच्यते ॥15॥
जिस केतुकी शिखा दीप्न हो वह विकास संजक, जिसकी शिखा ऊपर हो वह ऊर्ध्वमुण्डा शिखा वाला केतु खिली कहा जाता है
150
शिले विषाणवद् यस्य स विषाणी प्रकीर्तितः । व्युच्छिद्यमानो भीतेन रूक्षा च क्षिलिका शिखा ॥16॥
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जिसकी मिखा विषाण के समान हो वह विवाणी तथा भय से रूक्ष और फैनी हुई विसावाला केतु व्युच्छिद्यमान कहा जाता है ।। 6 ।।
शिखाश्चतस्त्रो ग्रोवार्ध कबन्धस्य विधीयते । एकरश्मिः प्रदीप्तस्तु स केतुर्दीप्त उच्यते ॥17
जिसकी आधी गर्दन हो और शिखा चारों ओर व्याप्त हो यह संबन्ध नाम का केतु और एक किरण वाला प्रदीप्त केतु दीप्त कहा जाता है ||17||
शिखा मण्डलवद् यस्य स केतुमंण्डली स्मृतः । मयूरपक्षी विज्ञेयो हसन: प्रभयात्पया || gu
जिस केतुकी शिखा मण्डल के समान हो वह मण्डली और अल्प कान्ति से प्रकाशित होने वाला केतु मयूरपक्षी कहा जाता है | 18 ||
श्वेतः सुभिक्षदो ज्ञेयः सौम्यः शुक्लः शुभार्थिषु । कृष्णादिषु च वर्णेषु चातुर्वर्ण्य विभावयेत् ॥19॥
श्वेतवर्ण का केतु गुभिक्ष करने वाला सुन्दर और शुक्लवर्ण का केतु शुभ फल देने वाला और कृष्ण, गीत, रक्त और शुक्लवर्ण के केतु में चारों वर्णों का शुभा शुभ जानना चाहिए ।।19।।
केतोः समुत्थितः केतुरन्यो यदि च दृश्यते । क्षुच्छस्व-रोग-विघ्नस्था प्रजा गच्छति संक्षयम् 11200
केतु में से उत्पन्न अन्य के खिलाई पड़े तो अधा. शरत्र, रोग, विघ्न आदि पीडित प्रजा क्षय को प्राप्त होती है | 200
एते च केतवः सर्वे धूमकेतुसमं फलम् । विचार्य वीथिभिश्चापि प्रभाभिश्च विशेषतः ॥ 21 ॥
उपर्युक्त सभी केतु धूमकेतु के समान फल देने वाले हैं तथापि इनका विशेष
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भद्रबाहुसंहिता विचार वीथि, प्रभा और वर्ण आदि के अनुसार करना चाहिए ।।21।।
यां दिशं केतवोचिभिर्धमयन्ति दहन्ति च ।
तां दिशं पीडयन्त्येते क्षुधाये: पोडनैभृशम् ॥22॥ जिस दिशा को केतु अग्निमयी किरणों के द्वारा धूमित करते हैं और जलाने हैं, वह दिशा क्षुधा, रोमादि के द्वारा अत्यन्त पीड़ित होती है ।।22॥
नक्षत्रं यदि वा केतुर्ग्रहं वाऽप्यथ धूमयेत् ।
तत: शस्त्रोपजीवीनां स्थावरं हिसते ग्रहः ।।23।। यदि कोतु वि.पी नक्षत्र था ग्रह को अभिमत वारे तो शास्त्र में आजीविका करने वाले एवं स्थावरों की हिंमा होती है ।।23॥
स्थावरे धुपिते तज्ज्ञा यायिनो यात्रिधूपनें ।
*शनरी भिनाजातीन सारमोकांस्तथैव च ॥2411 ___ स्थावर और यात्रियों के धूभित होने पर शवर, भिल्ल और पारसियों को पीड़ित होना पड़ता है ।।24।।
शुक्रं दीप्त्या यदि हन्याभूमकेतुरुपागतः ।
तदा सस्यं नृपान् नागान् दैत्यान् शूरांश्च पीडयेत् ॥2511 यदि धूमोतु अपनी दीप्ति से शुक्र को घातित करे तो धान्य, राजा, नाग, दत्य और शूरवीरों नो पीड़ा होती है ।।25।।
शुकानां शकुनानां च वृक्षाणां चिरजीविनाम् ।
शकुनि-ग्रहपीडायां फलमेतत् समादिशेत् ॥26॥ शुकुनि ग्रह की पीड़ा में शुक, 'पक्षी चिर और वृक्षों का पीड़ा कारक फन्न काहना चाहिए 12611
शिशुमारं यदा केतुरुपागत्य प्रधुमयेत् ।
तदा जलचरं तोयं वृद्धवक्षांश्च हिसति ॥27॥ जब केतु णिशुमार-संस नामक जलजन्तु को धूमित करता है तब जलचर, जल और वृद्ध वृक्षों का घात होता है ॥27॥
सप्तर्षीणामन्यतमं यदा केतु: प्रधुमयेत् । तदा सर्वभयं विन्द्यात् ब्राह्मणानां न संशयः ।।28।।
1. जीयापच स्थायश्च म मिति, पु.। 2. पापिन था म्. । 3. प्राप्नुवयनमान् जोतन मनंग: पपीडिता. मु०।
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यदि केतु सप्त ऋषियों में से किसी एक को प्रभूमित करे तो ब्राह्मणों को सभी प्रकार का भय निस्सन्देह होता है 112811
I
बृहस्पति यदा हन्याद् धूमकेतुरथाचिभिः । वेदविद्याविदो वृद्धान् नृपांस्तज्ज्ञांश्च हिंसति ॥ 291.
जब धूम्रकेतु अपनी तेजस्वी किरणों द्वारा बृहस्पति का घात करता है, तब वेदविद्या के पारंगत वृद्ध विद्वान् और राजाओं का विनाश होता है ||2911 एवं शेषान् ग्रहान् केतुर्यदा हन्यात् स्वरश्मिभिः । ग्रहयुद्धे यदा । प्रोक्तं फलं तत्तु समादिशेत् ॥30॥
इस प्रकार अन्य शेष ग्रहों को अपनी किरणों द्वारा केतु घातित करे तो जो फल गृहयुद्ध का बतलाया गया है, वहीं कहना चाहिए ||3011
नक्षत्रे पूर्वदिग्भागे यदा केतुः प्रदृश्यते ।
तदा देशान् दिशामुग्रां भजन्ते पापदा नृपाः ॥31॥
यदि पूर्व दिग्भागवाले नक्षत्र में केतु का उदय दिखलायी पड़े तो पानी राजा देश, दिशा और ग्राम का विनान करता है ॥31॥
बंगानंगान् कलिगांश्च मगधान् काशनन्दनात् । पट्टचावांश्च कौशाम्बी घेणसारं सदाहवम् ॥321 तोसलिंगान् सुलान् नेद्रान् माऋदामलवांस्तथा । कुनटान् सिथलान् महिषान् माहेन्द्र पूर्वदक्षिणः 113311 वंणान् विदर्भमालांश्च अश्मकांश्चैव छर्वणान् । द्रविडान् वैदिकान् दार्द्रा कलांश्च दक्षिणापथे ॥34॥ कोंकणान् दण्डकान् भोजान् गोमान् 'सूर्यारकाञ्चनम् । किष्किन्धान् वनवासांश्व लंका हन्यात् स नैरुतैः ॥35॥
वंग, अंग, कलिंग, गंगध, काश, नन्द, पट्ट, कौशाम्बी, धेनुसार, तोस, लिंग, सुल, नेद्र, माक्रन्द, मालत्र, कुनट, सिथल, महिप, माहेन्द्र, वेण, विदर्भ, मान और दक्षिणापथ के अश्मक छण, द्रविड़, वैदिक, दाद्र कल, कोकण, दंडक, भोज, गोमा, सूर्पर, कंचन, किष्किन्धा वनवास और लंका इन देशों का विनाश उपर्युक्त प्रकार का केतु करता है 1132-3511
1. तदा गु० । 2. निम्मु० ।
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भद्रबाहुसंहिता अंगान सौराष्ट्रान्। समुद्रान भरुकच्छादसेरकान् ।
शृवान् हृषिजलरुहान् केतुहन्याद्विपथगः ॥360 यदि विगथम -कुमार्ग स्थित केतु हो तो अंग, गौराष्ट्र, समुद्र, भरुकच्छ, अमेरयः, नव, हृषिकेश आदि देशों का बिनाग करता है 11 36।।
काम्बोजा रामगान्धारान् आभीरान यवरच्छकान् । चैत्रसोनयकाल सिन्धुनहामन्ययुवायुज. 1371 बालीकान बीनविषयान पर्वताश्चाप्यदुस्वरान् ।
सोधेयं कुरुवैदेहान केतुर्हन्याद्यदुत्तरान ॥38॥ केन उत्तर दिशा में स्थित वाम्बोज, सभगान्धार, आभीर, यवरच्छय, चत्रगौशेय, मिन्छ, बाढीक, वीन विषय, पहाड़ी प्रदेश, गोन्धेय, बुरु, विदेह आदि देशों का मारा करता है ।। 37-38।।
चर्मासुवर्ण कलिगान किरातान् बर्बरान द्विजान् ।
वैदिस्तमिलिन्दांश्च हन्ति स्वात्यां समुच्छितः ॥391 पानी में दिन के चर्मकार, स्वर्णकार, कलिग देश वासी, किरात, व जातियां, जि. वैदियः, भील. पुलिन्द आदि जातिमा का वध होता है ।। 39 ।।
सदशा: केतवो हन्दुस्तासु मध्ये वधं वदेत।
व्याधि शस्त्र क्षुधा मृत्यु परचक्रं च निदिशेत् ।।400 पदृश कोन पास कारन हैं तथा व्याधि, शस्त्र, क्षुधा, मृत्यु और परमामन की गुचना देते है ।।400
न काले नियता केतुः न नक्षत्रादिकस्तथा।
आकरिमको भवत्येव कदाचिदुदितो ग्रहः ।।4।। कनु न उदयास का गमय निश्चित नहीं है और नक्षत्रा, दिशा आदि भी अनिश्चित ही हैं । अगस्मान् कदाचिर ग्रह का उदय हो जाता है ।14111
पत्रिंशत् तस्य वर्षाणि प्रवासः परमः स्मृतः ।
मध्यम: सप्तविशं तु जघन्यस्तु वयोदश ।।4211 बात का 36 वर्ष का उष्ट प्रबारा, 27 वर्ष का मध्यम प्रवाम और तेरह वर्ष का जापना प्रत्याग होता है ।।4241
1.
ना ग । 2. गान्यां मु । 3. वेण मर ।
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एते प्रयाणा! दृश्यन्तं येऽन्ये तीवभयादत ।
प्रवासं शुक्रवच्चास्य विन्द्यादुत्पातिकं महत ।।4।। उक्त प्रयाण या भय के अतिरिक्त अन्य प्रयाण केतु के दिखलायी पड़ते हैं। शुक्र के रामान केतु का प्रवास की अरान्त उतपात कारक होता है ।।43!!
धूमध्वजो धूमशिखो धूमाचिधूमतारकः । विकेशी विशिखश्चैव मयूरो विद्धमस्तक: ॥44॥ महाकेतुश्च श्वेतश्च केतुमान केतुवाहनः । उल्काशिखश्च जाज्वल्य: प्रज्वाली चाम्बरीषक: ॥45॥ हेन्द्रस्वरो हेन्द्रकेत: शुक्लवासोऽन्यदन्तकः । विद्युत्समो विद्युल्लतो विद्युविद्यत्स्फुलिंगकः ।। 46।। चिक्षणो ह्यरुणो गुल्म: कबन्धो ज्वलितांकरः । तालोश: कनकश्चैव विक्रान्तो मांसरोहितः ।।47।। वैवस्वतो धूममाली महाचिश्च विधमितः ।
दारुणा: केतको ह्य ते भय मिच्छन्ति दारणम् ।48।। धूमश्वज, धमशिन, धूमाचि, भ्रमतार, विकणी, चिनिय, मयुर, विद्धमलाक, महाकेत, गवत, केतुमान, वेन वान, ल्याशिन, जाज्वल्या, ज्वानी, अम्बरीएक, हेन्द्रस्वर, हेन्द्रकेतु, शकलयाम, अन्य दसक, विद्यमग, बिलात, विद्युत्, विध स्फुलिगक, विक्षण, अण, गुल्म, कबन्ध, ज्वलितांगर, नानीण, कनक, विकान्त, मानहित, वैवस्वत, धाप मानी, महाचि, विधगिन और दाग ये केत दारुण भय उत्पन्न करने वाले हैं ।। 44-48।।
जलदो जलकेतुश्च जलरेणुसमप्रभः ।
रूक्षो वा जलवान शीघ्र विप्राणां भयमादिशेत् ।।३।। जलद, जन्नकेत, जामगा. मश. जनवान केनु गीन ही बाह्मणा को भग का निर्देश करता है ।14911
शिखो शिखण्डी विमलो विनाशी धुमशासनः। विशिखानः शताचिश्च शालकेतुरलक्तकः ।। 500 घतो घृताचिश्च्यवनश्चित्र पुष्पविदूषणः । विलम्बी विषमोऽग्निश्च वातको हसन: शिखी ॥51॥
1. प्रायेणए । 2. वाम्बा
न. : 3. Ti
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भद्रबाहुसंहिता
कुटिल कड़वखिलंगः कुचित्रगोऽथ निश्चयो । नामानि लिखितानि च येषां नोक्तं तु लक्षणम् ॥52॥
शिखी, शिखण्डी, विमल, विनाशी, धूमशासन, विशिखान, शताचि, शालकेतु अलवतक, घृत, घृताचि, च्यवन, चित्रपुण, विदूषण, विलम्बी, विषम, अग्नि, वातकी हसन, शिखी, कुटिल, कवखिलंग, कुचित्र इत्यादि केतुओं के नाम लिखे गये हैं, जिनके लक्षण का निरूपण नहीं किया गया है 1150-520
येऽन्तरिक्षे जले भूमौ गोपुरेऽट्टालके गृहे । वस्त्राभरण-शतेषु ते उत्पाता न केलयः ||530
जो केतु आकाश, जल, भूमि, गोपुर, अट्टारी, घर, वस्त्र, आभरण और शस्त्र में दिखायी पड़ते हैं, वे उत्पात नहीं करते |53|
दीक्षितान 'अर्हदेवांश्च आचार्यांश्च तथा गुरून् । पूजयेच्छान्तिपुष्ट्यर्थं पापकेतुसमुत्थिते ॥54॥
गुरु,
पाकेकी शान्ति के लिए मुनि आचार्य, तीर्थन की पूजा करनी चाहिए ||54|1
दीक्षित साधु
पौरा जानपदा राजा श्रेणीनां प्रवरा: नराः । 'पूजयेत् सर्वदानेन पापकेतुः समुत्थिते ||55||
और
पुरवासी, नागरिक, राजा, ब्राह्मण श्रेष्ठ व्यापारी आदि व्यक्तियों को दानपूजा का कार्य अवश्य करना चाहिए। अशुभ केतु दान-पूजा द्वारा प्रीति को प्राप्त होता है |55
यथा हि बलवान् राजा सामन्तैः सारपूजितः । नात्यर्थ बाध्यते तत्तु तथा केतुः सुपूजितः 11561
जिस प्रकार बलवान् राजा सामन्तों के द्वारा नेत्रित होने पर शान्त रहता है किसी भी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचाता। उसी प्रकार दुष्ट केतु भी जिस पाप के उदय से कष्ट पहुँचाता है, उस पान की शान्ति भगवान् की पूजा से हो जाती है, वह पाप कष्ट नहीं पहुँचाता है |56||
सर्पदष्टो यथा मन्त्रैरगदैश्च चिकित्स्यते । केतुदष्टस्तथा लोकैर्दान " जापैश्चिकित्स्यते 11571
1. श्च । 2. पितृदेवांश्च विशत् भूतान् वनीपकान् मु । 3. चिप्राश्च वणिजां नराः । 4. दाग-पूजां ध्रुवं कुयु केनोः श्रीतिकारोऽन्वाः गुरु। 5 वर्षो दष्टो यदा मुर | 6. जी गु
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एकविंशतितमोऽध्यायः
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जिस प्रकार सर्प के द्वारा काटा गया व्यक्ति मन्त्र और औषधि से स्वास्थ्य लाभ करता है, उसकी चिकित्सा मन्त्र और औषधि है, उसी प्रकार दुष्ट केतु की चिकित्सा दान-पूजा है । तात्पर्य यह है कि अशुभ केतु पापोदय से प्रकट होता है, पाप शान्त होने पर अशुभ केतु स्वयमेव शान्त हो जाता है । गृहस्थ के लिए पाप शान्ति का उपाय जप-तप के अलावा दान-पूजन ही है 115711 य: केतु चारमखिल यथावत्'
प पुवा रात्र। स केतुदग्धांस्त्यजते हि देशान् प्राप्नोति यूजां च नरेन्द्रमूलात्।।58।।
जो बुद्धिमान श्रमण-मुनि समस्त केतु चार को यथावत् अध्ययन करता है 'वह केतु के द्वारा पीड़ित प्रदेशों का त्यागकर अन्यत्र गगन करता है, और राजाओं मे पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ।।58!!
इति नग्रंन्थे भद्रबाहुके निषित एकविंशतितमोध्याय: ।। 211
विवेचन-- केतुओं के भव और स्वरूप---केतु मूनवः तीन प्रकार हैंदिव्य, अन्तरिक्ष और भौम । वज, शस्त्र, गह, यक्षा आश्व और हस्ती आदि में जो केतुरूप दर्शन होता है. वह अन्तरिक्ष मेनु नक्षत्रों में जो दिखलायी देता है उस दिन्यकेतु हैं और इन दोनों के अतिरिक्त अन्य क्ष भीमकत है ! तुओं की कुल संख्या एक हजार या एक सौ एक है । कानु का फलादेश, उम्मकः उदय, अस्त, अवस्थान, सत और धूम्रता आदि के द्वारा अवगत किया जाता है। पातु जिराने दिन तक दिखनायो देता है, उतने माग तक उमः न मा पनिपा होता है । जो गानु निमंच, चिकना, सरल, सविर और क्लवर्ग होकर उदिा होता है, वह मुभिक्ष और सुखदायक होता है । इसके विपरीत रूपवान का शुभदायक नहीं होते, परन्तु उनका नाम धूमकेनु होता है। विशेषत: इन्द्रधनुष के समान अनेकः रंगवाले अथवा दो या तीन चोटी वाले केनु अगन्त अशुभकारक होता है। हार, मणि या सुवर्ण के समान रूप धारण करने वाले और चोटीदार कन यदि पूर्व या पश्चिम में दिखायी दें तो सूर्य से उत्पन्न कहलाते है और इनकी संख्या पच्चीस है। तोता, अग्नि, दुपहरिया का फूल, लाख या रक्त के समान जो केनु अग्निकोण में दिखलायी दें, तो व अग्नि से उतान्न हुए माने जाते हैं और इनकी संख्या पच्चीस है। पच्चीस बंतु टेढ़ी चोटी वाले, स्खे और कृष्ण वर्ण होकर दक्षिण में दिखलाई पड़ते हैं, ये यम से उत्पन्न हुए मान गये हैं। इनके उदय होने में पारी पड़ती है। दर्पण के समान मो न आकार वान, शिया रहित, किरण युनत और राजन जल के समान काक्षि वाल जो वाईम के ईशान दिशा में दिखलानी पड़तव श्री
J. न
भ..
. प.- गुयगत मु.।
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भद्रबाहुसंहिता
से उत्पन्न हुए हैं। इनके उदय से दुर्भिक्ष और भय होता है । चन्द्रकिरण, चाँदी, हिम, कुमुद या कुन्दपुष्प के समान जो सीन केतु हैं, ये चन्द्रमा के पुत्र हैं और उत्तर दिशा में दिखलाई देते हैं। इनके उदय होने से सुभिक्ष होता है। ब्रह्मदण्ड नामक युगान्तकारी एक केतु ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ है । यह तीन चोटी वाला और तीन रंग का है, इसके उदय होने की दिशा का कोई नियम नहीं है। इस प्रकार कुल एक सी एक केतु का वर्णन किया गया है । अवशेष 899 केतुओं का वर्णन निम्न प्रकार है
शुक्रतनय नामक जो चौरासी केतु हैं, वे उत्तर और ईशान दिशा में दिखलायो पड़ते हैं, ये बृहत् शुक्लवर्ण, तारकाकार, चिकने और तीव्र फल गुक्त होते हैं । शनि के पुत्र गाठ केतु हैं, ये कालिमान्, दो शिखा वाले और कनक संज्ञक है, इनके उदय होने से अतिकष्ट होता है। चोटीहीन, चिकने, शुक्लवर्ण, एक तारे के समान दक्षिण दिशा के आश्रित पेठ विकच नामक केतु बृहस्पति के पुत्र है | इनका उदय होने से पृथ्वी में लोग पाप हो जाते हैं। जो कंतु माफ दिखायी नहीं दंत सूक्ष्म, दीर्घ शुक्लवर्ण, अनिश्चित दिशावाले तरकर संज्ञक हैं | ये बुध के पुत्र कहलाते हैं । इनकी ग़ख्या 51 है और ये पाप फ ब रक्त या अग्नि के समान जिनका रंग है, जिनकी तीन शिखाएं है, तारे के समान हैं, इनकी गिनती साठ है। ये उत्तर दिशा में स्थित है तथा ककु नामक मंगल के पुत्र हैं, ये सभी पान फल देने वाले है। नाममधीय नामक वैती तु जो राहु के पुत्र हैं तथा चन्द्रसूर्यगत होकर दिखलायी देते है। उनका फल अत्यन्त शुभ होता है। जिनका शरीर ज्वाला की माला से युक्त हो रहा है, मेगो बीम केतु अति विश्व होते हैं । इनका फल बनने हुए कार्यो को बिगाड़ना कष्ट पहुंचाना आदि है।
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श्यामवणं, घर के समान व्यास चिराग बास पवन से उत्पन्न केतुओं की संख्या गतहत्तर है । इनके उदय होने से भय और का प्रसार होता है। तारापुञ के समान आकार वाले प्रजापति युक्त आठ केतु है, उनका नाम गयक है । इनके उदय होने से कान्ति का प्रसार होता है। विश्व में एक नया परिवर्तन दिखलायी पड़ता है। चौकोर आकार वाले ब्रह्म सन्तान नामक जो बेतु हैं, उनकी संख्या दो सौ नार है। इन केतुओं का फल वर्गाभाव और अन्नाभाव उत्पन्न करना है | लता के गुच्छ के समान जिनका आकार है, ऐसे बत्तीस केन नामक जो केतु हैं, वे वरुण के पुत्र है। इनके उदय होने से जलाभाव, जलजन्तुओं को कष्ट एवं जल में आजीविका करने वाले कष्ट प्राप्त करते हैं। कवन्ध के समान आकार वाले छियानवे बबन्ध नामक न्तु है, जो कालयुक्त को गये है। ये अत्यन्त भयंकर दुखदायी ओर कुरूप है। बड़ेबड़े एक तारेदारी केतु है, में विदिष समुत्पन्न है । इनका उदय भी कटकर होता है। मधु सुरंगन और विदर्भ नगरी के लिए उक्त केतु अशुभाकरना होता है।
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एकविंशतितमोऽध्याय:
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शुओं की संख्या का योग निम्न प्रकार है
25-1-25-1-25 4-22+3+-1 - 101; 84-1-61-1-65151-160+33.f. 120+ 77-+8+ 204432+96 19=899%; इस प्रकार कुल 899 +101--1000
जो केतु पश्चिम दिशा में उदय होते हैं, उतर दिशा में फैलने हैं, बड़े-बड़े स्निग्धमूर्ति हैं उनको वसाकेतु कहते हैं, इनके उदय होने में मारी पड़ती है और मुभिक्षा होता है। सूक्ष्म, या चिकने वर्ण के केनु उत्तर दिशा से आरम्भ होकर पश्चिम तक फैलते हैं, उनके उदय से क्षुधाभय, उलट-पुलट और मारी फैलती है । अमावस्या के दिन आनाश के पूर्वार्द्ध में सहल र श्मि केतु दिवनायी देता है, उसका नाम कपाल केतु है। इसके उदय होने में क्षुधा, मारी, अनावृष्टि और रोगभय होता है। आकाग के पूर्व दक्षिण भाग में ग्न के अग्रभाग के समान कपिश, रक्ष, ताम्रवणं की किरणों में शुन्ध जो का आकाश के तीन भाग तक गमन करता है, उसको रोद्र वेनु नाहते हैं, इसका फल कापान वान व समान है । जो धूम्रनेन पश्चिम दिशा में उदय होता है, नक्षिण की ओर एक अंगुल ऊंची शिखा करके युक्त होता है और उत्तर दिशा की तरफ क्रमानुसार बढ़ता है, उसन। चलपेतु कहते हैं । यह चलकेतु क्रमशः दीर्घ होकर यदि उत्तर धव, सप्तपि मंडल या अभिजित् नक्षत्र को स्पर्श करता हुआ आकाश वा एका भाग में जाकर दक्षिण दिशा में अस्त हो जाय, तो प्रयाग से लेकर अवन्ती सका प्रदेश में दुभिक्ष, रोग एवं नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं। मध्यरात्रि में आकाश के पूर्वभाग में दक्षिण के आगे जो न दिशानायी दे, उसको धूमन पहने है। जिस वे का आनार गाड़ी के जुग ममान है, ब... युग परिवर्तन : गाय मात दिन तक दिग्बलायरी पड़ता है। धूमकेन यदि अनिमः दिनों तर. दिखलायी दे तो दश वर्ष तक शस्त्रप्रकोप लगातार बना रहता है और नाना प्रकार के संताप पूजा की देता रहता है 1 प्रवत नामक नेतु यदि जटा द. समान आकार बाला, रूखा, नापिशवर्ण और आमाण के तीन भाग तक जाकर लौट आये तो प्रजा का नाश होता है। जो नेतु धूम्रवर्ण की चोटी से युक्त होकर कृत्तिता नक्षत्र को स्पर्श कर, उसको रामकेतु कहते हैं। इसका फल श्वेत नामक सन्तु के समान है । ' नामक प्रकार का केनु है इसका आकार, वर्ण, प्रमाण स्थिर नहीं हैं। यह दिव्य , अन्तरिक्ष और भौम तीन प्रकार का होता है। यह स्निग्ध और अनियत फल देता है। जिभ काम की कान्ति कुमुद के समान हो, चोटी पूर्व की ओर फैल रही हो. इसे कुमुद मन वाहत हैं। यह बराबर दस वर्ष तक मुभिक्ष देने वाला है। जो कतु म तारक समान आकार वाला हो और पश्चिम दिशा में नीन बंदी न लगाना दिलाया द उसका नाम मणिकंतु है। स्तन पर दबाव देने में जिस प्रकार दुध को धारा निकलती है, उसी प्रकार जिसी किरणे छिटकती है, यह काम नगी प्रकार
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भद्रबाहुसंहिता
का है । इस कोतु के उदय से साढ़े चार मास तक सुभिक्ष होता है तथा छोटेबड़े सभी प्राणियों को कष्ट होता है। जिस केतु की अन्य दिशाओं में ऊंची शिखा हो तथा पिछले भाग में चिकना हो, वह जलकेतु कहलाता है । इसके उदय होने से नौ महीने तक शान्ति और मुभिक्ष रहता है । सिंह की पूंछ के समान दक्षिणावर्त शिखावाला, स्निग्ध, सूक्ष्मतारा युक्त पूर्व दिशा में रात में दिखलायी देने वाला भवकेतु है । यह भवकेतु जितने मुहूर्त तक दिखलायी देता है, उतने मास तक सुभिक्ष होता है । यदि रूक्ष होता है, तब मरणान्त कराने वाला माना जाता है । फुव्वारे के समान किरण बाला, मृणाल के समान गौरवर्ण केतु पश्चिम दिशा में रात भर दिखलायी दे तो सात वर्ष तक हर्ष सहित सुभिक्ष होता है । जो केतु आधी रात के समय तक शिवाराव्य, अभ्य की-सी कान्तिवाला, चिकना दिखलायी देता है, उसे आवतं कहते हैं । यह वेनु जितने क्षण तक दिखलायी देता है उतने मास तक सुभिक्ष रहता है। जो धूम्र या ताम्रवर्ण की शिखा वाला भयंकर है और आकाश के तीन भाग तक को आक्रमण करता हुआ मन के अग्र भाग पं. ममान आकार वाला होर सन्ध्याकाल में पश्चिम की जोर दिखलायी दे उसे संवर्त कानु कहते हैं । यह केतु जितने मुहूर्त तक दिखलायी देता है, उतने वर्ष तक शस्त्राघात से जनता को कष्ट होता है । इस केतु के उदय काल में जिसका जन्म-नक्षत्र आक्रान्त रहता है, उसे भी कष्ट होता है। जिस-जिस नक्षत्र को पं.तु, आधूमित करे या स्पर्श करे, उस-उस नक्षत्र वाल देश और व्यक्तियों को पीड़ा होती है। यदि केतु की शिखा उल्का से मंदित हो तो शुभफल, गृवृष्टि एवं नुभिक्ष होता है ।
केतुओं का दिशेष फल
जलकत पश्चिमान लिखा वाला होता है। रिनाच तक अस्त होने में जब नौ महीने समय शेष रह जाता है. तब यह पश्चिम में उदय होता है । यह नो महीने तक मुभिक्ष, क्षेम और आरोग्य करता है तथा अन्य ग्रहों के मन दोगों को नष्ट करता है ।
मिशीतकेतु-जल के कन्ति गति में आग 18 वर्ष और 14 वर्ष के अन्तर पर ये केतु उदय होत हैं । कमि, शंख, हिम, रक्त, वृशि, काम, बिसर्पण और शीत ये आठ अमृत में पैदा हुए सहज केतु हैं | इनके उदय होने से सुभिक्ष और क्षेग होता है।
भटकेतु और भवफेतु--कमि आदि शीत पर्यन्त थे, आठ केतुओं के चार के समाप्त हो जाने पर तारा के रूप एक रात में भटकेतु दिदायी देता है । यह भटकातु पूर्व दिशा में दाहिनी ओर पूमी हुई बन्दर की पूंछ की तरह दिखा वाला. स्निग्ध
और कृनिकाय; गुग्छ, को तरह पुरुष तारा प्रमाण का होता है । यह जितने मुहूर्त तक स्निग्ध दी बता रहता है इतन महीना तक सुभिक्ष करता है । रूक्ष होगा
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एकविंशतितमोऽध्यायः
तो प्राणों का अन्त करने वाला और रोग पैदा करने वाला होगा ।
ओद्दालक केतु श्वेत केतु, ककेतु औद्दालक और श्वेत केतु इन दोनों का अग्रभाग दक्षिण की ओर होता है और अर्द्धरात्रि में इनका उदय होता है । ककेतु प्राची प्रतीची दिशा में एक साथ युगाकार से उदय होता है। औद्दालक और श्वेतकेतु सात रात तक स्निग्ध दिखायी देते हैं। केतु कभी अधिक भी दिखता रहता है | वे दोनों स्निग्ध होने पर 10 वर्ष तक शुभ फल देते हैं और रूक्ष होने पर शस्त्र आदि से दुःख देते हैं । उहालक केतु एक सौ दस वर्ष तक प्रवास में रहकर भटकेतु की गति के अन्त में पूर्व दिशा में दिखायी देता है |
पद्मकेतु - श्वेतकेतु के फल के अन्त में श्वेतपद्मकेतु का उदय होता है । पश्चिम में एक रात दिखायी देने पर यह मात वर्ष तक आनन्द देता रहता है। काश्यप श्वेतकेतु - काय तनो रूक्ष, ज्याब ओर जटा की-मो आकृति का होता है। यह आकाश के तीन भाग को आक्रमण करके वासी चोर लोट जाता है। यह उन्हाश शिखी 115 वर्ष तक प्रवागित रहकर महज पद् की गति के अन्त में दिखायी देता है। यह जितने महीने दिखायी दे उतने ही वर्ष सुभिक्ष करता है। किन्तु राध्य देश के आय का और औदीच्यों का नाश करता है ।
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—
आयत कंतु केतु के समाप्त होने पर पश्चिम में अर्द्धरात्रि के समय शंख की आभावाला आवकेनुदित होता है । यह केतु जितने गुहूतं तक दिखायी दे, उतने ही महीने गुभिक्ष करता है। यह गदा संसार में यज्ञोत्सव करता है । रश्मि केतु - काश्यप के समान यह किंतु फल देता है। यह कुछ धूम्रवर्ण की शिखा के साथ कृतिका के पीछे दिखायी देता है। विभावसु गे पैदा हुआ यह गण्म के सो वर्ष प्रोषित हार व केतु की गति के अन्त में कृत्तिका नक्षत्र के समीप दिखायी देता है।
वसाकेतु, अस्थिकेतु, शस्त्रकेतु धगान् गन्त सिग्ध सुभिक्ष आर महामारीप्रद होता है। यह 130 वर्ष बागित रहकर उत्तर की और लम्बा होता हुआ उदित होता है। बरातेतु के समान अस्थिकेतु हो तो क्षुद् यावह होती है ( भुखमरी पडती है ) । पश्चिम में गातु की समानता का दीखा हुआ शस्त्रकेतु महामारी करता है।
कुमुदकंतु- कुमुद की आभावाला, पूर्व की तरफ शिखा बाला, स्निग्ध और दुग्ध की तरह स्वच्छ कुमुदन पश्चिम में साकेतु की गति के अन्त में दिखायी देता है। एक ही रात में दिखायी दिया हुआ यह मुभिक्ष और दस वर्ष तक गुहृद्भावा करता है, किन्तु पान्चान्य देशों में कुछ रोग उत्पन्न करता है। कपाल किरण कपाल कपाची दिशा में अभावस्या के दिन आकाश के मध्य में धूम्र किरण की शिखावाला होकर रोग, वृष्टि, भुख बार
हुआ
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भद्रबाहुसंहिता
मृत्यु को देता है । यह 1 25 वर्ष प्रवास में रहकर अमृतोत्पन्न कुमुद केतु के अन्त में तीन पक्ष से अधिक उदय में रहता है । जितने दिन तक यह दीखता रहता है उतने ही महीनों तक इसका फल मिलता है। जितने मास और वर्ष तक दीखता है, उस तान पक्ष अधिक फल रहता है।
मणिकेतु - यह मणिकेतु, दूध की धारा के गमान स्निग्ध शिखादाला श्वन रंग का होता है । यह रात्रि भर एक प्रहर तक सूक्ष्म तारा के रूप में दिखायी देता है । कपाल केतु की गति के अन्त में यह मणिकेतु पश्चिम दिशा में उदित होता है और उस दिन में साढ़े चार महीने तक मुभिक्ष करता है।
कलिकिरण रौद्र केतु -(किरण)----कलिकिरण रौद्रकेतु वैश्वानर वीथी के पूर्व की ओर उदित होकर 30 अंश ऊपर चढ़कर फिर अस्त हो जाता है। यह 300 वर्ष 9 महीने तम. प्रवास में रहकर अमृतोत्पन्न मणिवा की गति के अन्त में उदित होता है । इगकी शिखा तीक्ष्ण, रूखी, घमिन्न, तांबे की तरह लाल, शन्न
। आकृति वाली और दक्षिण की ओर झुकी हुई होती है। इसका फल तेरहवें महीन होता है । जिसने महीन ग्रह दिखायी देता है उतने ही वर्ष नना इसका भय समाना नाहिए । उतने वर्षों तक भूख, अनावृष्टि, महामारी आदि रोगों से प्रजा को दुःख होता है ।
संवन केतु-यह संवर्तकेतु 1008 वर्ष तक प्रवास में रहार पश्चिम में सायंकाल के ममय आकाश के तीन अंशोंका आफमग करके दिखायी देता है। घून वणं के शूल की-सी यान्ति बाला, रूग्छी शिखावाला वह भी रात्रि में जितने मृहूर्त तक दिखायी दे उतने ही वर्ष सनः अनिष्ट करता है। इसका उदय होने से अवृष्टि, दुर्भिक्ष, ग, यो गा कोप होता है और राजा लोग स्वचक्र और परनकम दुखी होते हैं । यह संवर्त केतु जिस नक्षत्र में उदित होता है और जिस नक्षत्र में अस्त होता है नया जिम छोड़ता है अथवा जिसे समर्श करता है उसके आश्रित देशों का नाश हो जाता है।
प्रवकेतु-यह वक अनियत गति और धर्म का होता है। मभी दिशाओं में जहां-तहाँ नाना आकृति का दीख पड़ता है । य, अन्तरिक्ष का भूमि पर स्निग्ध दिखायी दे तो शुभ और गृहस्थों के गृहांगण में तथा राजाओं के, सेना के किसी भाग में दिखायी देन ग विनाशकारी होता है । ___ अमृतकेतु जिन्न, भट, पद्म, आवर्त, कुमुद, मणि और गंवर्त—ये सात केतु प्रकृति में ही अमृतोत्पन्न माने जाते हैं ।
बष्टकेतु फल – जो दुष्टातु है वे काम से अभिबनी आदि 27 नक्षत्रों में गये हुए देशों के नरेगों का नाश करते हैं। विवरण अगले पृष्ठ पर देखें।
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नक्षत्र
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
मृगनिर
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
भया
देश
27 नक्षत्रों के अनुसार दुष्ट केतुओं का घातक फल
अश्मक देश धानक
किरात मीलों का घातक
उमा प्रदेश का प्रातक
शूरसेन का घातक
उशीनर (धार) वा घातक
जनजा जी (तिरहुत प्रान्त) घातक अश्मक का घातक
नगध
असिक
"
3.
अंग (वैद्यनाथ ने भुवनेश्वर तक )
-2
का धानक
पूर्वाफाल्गुनी पाण्ड्य (दिल्ली) का वातक
उमरा फा
हस्त त्रिना
अवन्ति (उज्जैन प्रान्त) दण्डक (नासिक पंचवटी) कुरुक्षेत्र का घानक
2
17
नक्षत्र
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मल
पूर्वाषाढ उत्तरापाई
श्रवण
धनिष्ठा
ਧਰਮਿ
युवा भार
इनग भार
देश
कम्बोज (कश्मीर) का घातक
अवध का घातक
पुण्ड्र (मिथिला का क्षेत्र) का घातक कान्यकुब्ज (कन्नौज) का घातक
महक तथा आन्ध्र का घातक
काशी का घातक
अर्जुनायक, यौधेय, शिवि एवं चेदि घातक कैकेय (सतलज के पीछे और व्यास
के आगे का प्रान्त) का घातक पंचनद (पंजाब) मिहल ( सीलोन )
बंग (बंगाल प्रान्त) नैमिय
"
"
25
"
किरात (भूटान और आसाम के क्षेत्र का घातक
एक विशतितमोऽध्यायः
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भद्रबाइसंहिता
जितने दिनों तक ये दीखते हैं, उतने ही महीनों तक और जितने महीनों तक दीखें उतने ही वर्षों तक इनका फल मिलता है। जब ये दीखें तो उसके तीन पक्ष आगे फल देते हैं । जिन केतुओं की शिखा उल्का से ताडित हो रही हो वे केतु हण, अफगान, चीन और चोल से अन्यत्र देशों में श्रेयस्कर होते हैं । जो केतु शुक्ल, स्निग्धतनु, हस्व, प्रसन्न, थोड़े समय ही दीखने वाला सीधा हो और जिसके उदित होने से दृष्टि हुई हो वह शुभ फलदायी होता है।
चार प्रकार के भूकम्प ऐन्द्र, वाण, वायव्य और आग्नेय होते हैं, इनका कारण भी राहु और केतु का विशेष योग ही है । जब राहु ने सातवें मंगल, मंगल से पांचवें बुध और बुध से चौथे चन्द्रमा होता है. उस समय भूकम्प होता है ।
स्वाती,चित्रा, उत्तरा माल्गुनी, हस्त, मृगशिरा, अश्विनी, पुनर्यमु.-इन नक्षत्रों में अग्नि केतु या संवतं तु दिखलायी पड़े तो भूकम्प होता है। पुण्य, कृत्तिया, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी और मगा इन नक्षत्रों का आग्नेय माडल बहलाता है । अब कोलक या आग्नेय केनु इस मान में दिखनायी देन है तो भूकम्प होने का योग जाता है। .ग. ल. भि, औदाजा, पद्म और रविरश्मि बन्नु जब प्रका गमान होकर किसी भी मध्य रात्रि में उदित होते हैं, तो उसके तीन मप्ताह में भयंार भूकम्प पूर्व देशों में तथा हलमा भूकम्प पश्चिम क देशों में आता है। बमाकनु और कपालकनु यदि प्रतिपदा तिथि को रात्रि का प्रथम प्रहर में दिनुलायी पड़े तो भी भूकम्प आता है । भुकम्पों के प्रधान निमित्त केतुओं का उदय है। यों तो ग्रहयोग से गणित द्वारा भवाम्म का समय निकाला जाता है, किन्तु भर्चगाधारण जब भी नोतुओं के उदय के निरीक्षण मात्र में, आकाशदर्शन से ही, भकमा का रिज्ञान कर सकता है।
द्वाविंशतितमोऽध्यायः
सर्वग्रहेश्वर: सूर्य: प्रवासमुदयं प्रति ।
तस्य चारं प्रवक्ष्यामि तन्निबोधत तत्त्वतः ।। सभी ग्रहों का स्वामी सूर्य है। इसके प्रवाम, उज्य और चार का वर्णन करता हूँ, इन्हें यथार्थ समझना चाहिए ॥1॥
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द्वाविंशतितमोऽध्यायः
सुरश्मी रजतप्रख्यः स्फटिकाभो महाद्युतिः । उदये दृश्यते सूर्यः सुभिक्षं नृपतेहितम् ||2||
1
यदि अच्छी किरणों वाला, रजत के समान कान्तिवाला, स्फटिक के समान निर्मल, महान् कान्तिवाला सूर्य उदय में दिखलाई पड़े तो राजा का कल्याण और सुभिक्ष होता है ॥2॥
रक्तः शस्त्रप्रकोपाय भयाय च महार्घदः । नृपाणामहितश्चापि स्थावराणां च कीर्त्तितः ॥ ३ ॥
लाल वर्ण का सूर्य शस्त्रकोप करता है, भय उत्पन्न करता है, वस्तुओं की महंगाई कराता है और स्थावर - तद्देश तिवासी राजाओं का अहित कराने वाला होता है ||3||
पीतो लोहितरश्मिश्च व्याधि-मृत्युकरो रविः । विरश्मिर्धूमकृष्णाभः क्षुधातं सृष्टि रोगदः ॥4॥
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गीत और लोहित--पीली और लाल किरणवाला सूर्य व्याधि और मृत्यु करने वाला होता है | धूम और कृष्ण वर्ण वान सूर्य क्षुधा पीड़ा भुखमरी और रोग उत्पन्न करने वाला होता है । (यहाँ सूर्य के उक्त प्रकार के वर्णों का प्रातःकाल सूर्योदय समय में ही निरीक्षण करना चाहिए. उसी का उपर्युक्त फल बताया गया है ) 11411
कबन्धेनाssवृतः सूर्यो यदि दृश्येत प्राग् दिशि । बंगानंगान् कलिगांश्च काशी- कर्णाट-मेखलान् ॥5॥ मागधान् कटकालांश्च कालवक्रोष्ट्रकणिकान् । महेन्द्रसंवृतोयान्द्रास्तदा। हन्याच्च भास्करः ॥6॥
यदि उदयकाल में पूर्व दिशा में कबन्ध - धड़ से ढका हुआ सूर्य दिखलायी पड़े तो बंग, अंग, कलिंग, काशी, कर्नाटक, मेखल, मगध, कटक, कालव क्रोष्ट्र, कणिक, माहेन्द्र, आन्ध्र आदि देशों का घात करता है ।15-611
कबन्धो वामपीतो वा दक्षिणेन यदा रविः । चविलान् मलयानुड्रान् स्त्रीराज्य वनवासिकान् ॥7॥ किष्किन्धाश्च कुनाटांश्च ताम्रकर्णास्तथैव च । स वक्र चक्र क्रूरांश्च कणपांश्च स हिंसति ॥8॥
1. महेन्द्रमंश्रितानुद्रां पु० ।
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भद्रबाहुसंहिता
जब मूर्य में दक्षिण या बायीं ओर पीतवर्ण का कबन्ध दिखलायी पड़े तो । चविल मलय, उड़. स्त्री राज्य और बनवामी, किष्किन्धा, कुनाट, ताम्रकर्ण, वक्रचक्र, क्रूर और कुणों का घात करता है ।। 7-81
अपरेण च कवन्धस्तु दृश्यते द्युतितो यदा। युगन्धरायणं मरुत्-सौराष्ट्रान कच्छगरिजान् ॥७॥ कोंकणानपरान्तांश्च भोजांश्च कालजीविनः ।
अपरांस्तांश्च सर्वान् वै निहन्यात् तादृशो रविः ॥10॥ यदि पश्चिम की ओर छ तिमान् कबन्ध दिखलायी पड़े तो युगन्धरायण, मरुत्, गौराष्ट्र, कच्छ, गरिक, कोंकण, अपगन्त राष्ट्र, भोज, कान जीवी इत्यादि राष्ट्रों बाद बात करता है ।। 9-10||
उत्तरे उदयोऽर्कस्य कबन्धसदशस्तदा। क्षुद्रकामालवाहीकान् सिन्धु-सौवारदर्दुरान् ॥1॥ काश्मीरान दरवांश्चैव पहलवान मागधांस्तथा ।
साकेतान् कोशलान् काञ्चीमहिच्छत्रं च हिसति ।।12।। अदि नबन्ध के समान उत्तर में सूर्य का उदय हो तो वह क्षुद्रक, मालव,. सिन्धु, गौकीर, दर्दर, काश्मीर, नदपहब, मगध, गावेत, बाल, काञ्ची और अहिच्छत्र का धात करता है ।।।I-I 2||
कबन्धमुदये भानोयंदा मध्ये प्रदश्यते।
मध्यमा मध्यसाराश्च पीड्यन्ते मध्यदेशजाः ।।133 यदि मुर्य के मध्य में कयन्ध्र का उदय दिखलायी गड़े तो मध्य देश में उत्पन्न व्यक्तियों का पास होता है ।। 1 3।।
नक्षत्रमादित्यवर्णो यस्य दृश्येत भास्करः।
तस्य पीडा भवेत् पुंसः प्रयत्नेन शिवः स्मृतः ॥14॥ जिम कावित के नक्षत्र पर रक्तवर्ण दिखलायी पड़ता है, उस व्यक्ति को पीड़ा होती है और बड़े अन्न के पश्चान कल्याण होता है ।। 1 411
स्थालीपिठरसंस्थाने सुभिक्षं वित्तदं नृणाम् । वित्तलाभस्तु राज्यस्य मृत्युः पिठरसंस्थिते ॥15॥
1. पदमा लिबान सन्ति मिभु-गौयी रमान म । 2. शुभ म । 3. गुणी मुर
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द्वाविंशतितमोऽध्यायः
यदि थालीपिठर गोल थाली और मूढ़े के आकार में सूर्य उदयकाल में दिखलायी पड़े तो मनुष्यों को मुभिक्ष और धन-लाभ करानेवाला है। राज्य के लिए भी धनलाभ करानेवाला होता है । पीढ़ा के समान सूर्य दिखलायी पड़े तो मृत्युप्रद होता है ||| 50
सुवर्णवर्ण वर्ष वा मासं वा रजतप्रभ । शस्त्रं शोणितवत् सूर्या दाघो वैश्वानरप्रभे ||16||
स्वर्ण के समान रंग का सूर्य उदयकाल में दिखलायी पड़े या रजत के समान वर्ण का सूर्य दिखलायी पड़े तो वर्ष या मास सुखमय व्यतीत होते हैं। रक्त वर्ण के समान सूर्य दिखलायी पड़े तो शस्त्र पीड़ा और अग्नि के समान दिखलायी पड़े तो दग्ध करनेवाला होता है 6
श्रृंगी राज्ञां विजयदः कोश- वाहनवृद्धये ।
चित्र: सत्यविनाशाय भयाय च रविः स्मृतः ॥17॥
श्रृंगी वर्ण का रवि राजाओं के लिए विजय देने वाला, कोश और वाहन की वृद्धि करने वाला होता है | चित्रव का रवि धान्य का विनाश करता है और भयोत्पादक होता है ।17।।
अस्तंगते यदा सूर्य चिरं रक्ता वसुन्धरा । सर्वलोकभयं विन्द्यात् तदा वृद्धानुशासने |18
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जब सूर्य के अस्त होने पर पृथ्वी बहुत समय तक रक्तवर्ण की दिखायी पड़े तो सर्वलोक को भय होता है
उदयास्तमने ध्वस्ते' यदा वै कहते रविः ।
महाभयं तदानीके सुभिक्षं क्षेममेव च 19
उदय और अस्तकाल को जब सूर्य ध्वस्त करे तो सेना में महान भय होता है तथा सुभिक्ष और कल्याण होता है || 19 |
एतान्येव तु लिंगानि पर्वण्यां चन्द्र-सूर्ययोः ।
तदा राहुरिति ज्ञेयो विकारश्च न विद्यते ||201
यदि चन्द्रमा और सूर्य के पूर्वकाल - पूर्णमासी या अमावस्या में उक्त चिह्न दिखलायी पड़े तो राहु समझना चाहिए, इसमें विकार नहीं होता है ॥20
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भद्रबाहुसंहिता शेषमीत्पातिकं प्रोक्तं विधानं भास्करं प्रति।
ग्रहयुद्धे 'प्रवक्ष्यालि सर्वगत्या च साधयेत् ॥2॥ अवशेष मूर्य का प्रौपातिक विधान समझना चाहिए। ग्रहयुद्ध का वर्णन कामगा, उनकी सिद्धि गति आदि ग करनी चाहिए ||21||
इति भद्रबाहुविरचिते निमित्त शास्त्र आदित्याचारो नाम
द्वाविंशतितमोऽध्यायः ।। 2241
विवेचन - पुर्वाषाढ़ा, उन राषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अजिबनी, भरणी, यत्तिका, आर्द्रा, पुनर्वस, पृष्य, आश्लेषा और भया ये 1 4 नक्षत्र 'चन्द्र नक्षत्र एवं पूर्वाभादद, शतागपा, मगशिरा, रोहिशी, पूर्वाफाल्गुनी, उतराकासगुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा और मुल में 13 नक्षत्र गय नक्ष' प्रहलाते हैं। यदि सूर्ण नक्षत्रों में चन्द्रमा और चन्द्रनक्षों में गुर्य हो तो वर्षा होती है। चन्द्र नक्षत्रों में यदि मूर्य और चन्द्रमा दोनों हों तो अल्पष्टि होती है, किन्तु यदि गुयं नाव पर सूर्य-चन्द्रमा दोनों हों तो वृष्टि नहीं होती । सुर्ग नक्षत्र पर मर्य ने आने में वायु चलती है, जिमसे वायु-दोष के कारण वर्षा नहीं होती। चन्द्रमा नन्द्र नक्षत्रों पर रहे तो केबल वादल आच्छादित रहते हैं. वर्मा नहीं होती । कर्क संक्रान्ति के दिन रविवार होने से 10 विश्वा, सोमवार होने से 20 विण्या, मंगलवार होने से 8 विश्वा, बुधवार होने से 12 विश्वा, गुभवार होने में १९ विश्वा, शुक्रवार होने से भी 18 विश्वा और शनिवार होने से 5 विश्वा वर्मा होती है। शक संक्रान्ति के दिन शनि, रवि, बुध और मंगलवार होने में अधिक वृष्टि नहीं होती, शेप वारों में सुवृष्टि होती है । चन्द्रमा के जलराशि पर स्थित होने पर मूर्य कर्क राशि में आये तो अच्छी वर्षा होती है। मेष, वृष, मिथुन और मीन राशि पर चन्द्रमा के रहते हुए यदि सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट हो तो 100 आढया वर्षा होती है। कर्क संक्रान्ति के समय धनुष और सिंह राशि पर चन्द्रमा के होने से 50 आढक बर्षा होती है । मकर और कन्या राशि पर, चन्द्रमा के रहने से 25 आढक वर्षा एवं तुला, वृश्चिका, कुम्भ और कर्क राशि पर चन्द्रमा के होने से साढ़े 12 आहक प्रमाण वर्षा होती है । कर्क राशि में प्रविष्ट होते हुए सूर्य को यदि वृहस्पति पूर्ण दृष्टि से देखे अथवा तीन चरण दृष्टि से देखें तो अच्छी वर्षा होती है। श्रावण के महीने में यदि कर्क संक्रान्ति के समय मेघ खुब छाये हों तो सात महीने तक मुभिक्ष होता है और अच्छी वर्षा होती है । मंगल के दिन सूर्य की कर्क संक्रान्ति और शनिवार को मकर संक्रान्ति
1 च वक्ष्यामि मु० ।
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द्वाविंशतितमोऽध्यायः
और शनिवार को मकर संक्रान्ति का होना शुभ नहीं है। स्वाति, ज्येष्ठा, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा इन नक्षत्रों के पन्द्रहवें मुहूर्त में मकर राशि या सूर्य के प्रविष्ट होने से अशुभ फल होता है । पुनर्वगु, विशाखा, रोहिणी और तीनों उत्तरा नक्षत्रों के चौथे या पांच गुह में सूर्य प्रवेश करे तो शुभ फल होता है। सूर्य की संक्रान्ति के दिन से ग्यारहवें, पच्चीसवें, चयेि या अठारहवें दिन अमावस्या का होना सुभिक्ष सुचक है । यदि पहली संक्रान्ति का नक्षत्र दूसरी संक्रान्ति में आवे तो शुभ फल होता है, किन्तु उस नक्षत्र से दुगरे, तीसरे, चौथे और पांचवें नक्षत्र शुभ नहीं होते ।
सूर्य की संक्रान्तियों के अनुसार फलादेश मेप की संक्रान्ति के दिन तुला राशि का चन्द्रमा हो तो छः महीने में धान्य की अधिकता करता है। सभी प्रदेशों में सुभिक्ष होता है । बंगाल और पंजाब में चावल, गेहूं की उपज अधिक होती है। देश के अन्य सभी भागों में भी मोटे धान्यों की उत्पत्ति अधिक होती है । मेष संक्रान्ति प्रातःकाल होने पर शुभ, मध्याह्न में होने से निकृष्ट और सन्ध्याकाल में होने से अतिनिकृष्ट फल होता है। मेष संक्रान्ति रात्रि में प्रविष्ट हो तो साधारणतः अशुभ फल होता है | यदि संक्रान्ति काल में अथिती नक्षत्र क्रूर ग्रहों द्वारा विद्ध हो तो अशुभ फल होता है। राष्ट्र में अनेक होते हैं की भी कमी रहती है। मेप संक्रान्ति कर्क संक्रान्ति और मकर संक्रान्ति का फल एक वर्ष तक रहता है । यदि ये तीनों संक्रान्तियाँ अशुभ वार, अशुभ घटियों में आती हैं, तो देश में नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं। शनिवार को मेष संक्रान्ति पड़ने से जगत् में अशान्ति रहती है। चीन और रूस में अन्न आदि पदार्थों की बहुलता होती है । पर आन्तरिक अशान्ति इन राष्ट्रों में भी बनी रहती है।
वृष की संक्रान्ति में वृश्चिक राशि चन्द्रमा के रहने से चार महीने तक अन्न लाभ होता है । सुभित्र और मान्ति रहती है। खाद्यान्नों की बहुलता सभी देशों और राष्ट्रों में रहती है। काशी, कन्नोज और विदर्भ में राजनीतिक संघर्ष होता है । वृप की संक्रान्ति बुधवार को होने से श्री के व्यापार में लाभ होता है । शुक्रवार को कूप की संक्रान्ति हो तो रसपदार्थों की महंगी होती है । शनिवार को इस संक्रान्ति के होने से अन्न का भाव तेज होता है। मिथुन की संक्रान्ति को धनु का चन्द्रमा हो तो तिल, तेल, अन्न संग्रह करने से चौथे महीने में लाभ होता है | यदि चन्द्रमा क्रूर ग्रह सहित हो तो लाभ के स्थान में हानि होती है । कर्क को संकान्ति में मकर का चन्द्रमा हो तो दुर्भिक्ष होता है। इस योग के चार महीने के उपरान्त अनि भी निर्धन हो जाता है। सभी की आर्थिक स्थिति बिगड़ती जाती है। ट्रेन के कोने-कोने से अन्न की आवश्यकता प्रतीत होती है । जिन राज्यों, प्रदेशों और देशों में अच्छा अनाज उपजता है, उनमें भी अन्न की कमी हो जाने से अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। कन्या की संक्रान्ति होने पर मीन
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भद्रवासीहता
के चन्द्रमा में भंग होता है। उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और दिल्ली राज्य में अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं । बम्बई और मद्रास में अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । तुला की संक्रान्ति में मेप का चन्द्रमा हो तो पाँच महीने में व्यापार में लाभ होता है। अन्न की उपज साधारण होती है। जूट, सूत, कपास और सन की फसल साधारण होती है। अतः इन वस्तुओं के व्यापार में अधिक लाभ होता है। वृश्चिक की संक्रान्ति में वृषराशि का चन्द्रमा हो तो तिल, तेल तथा अन्न का संग्रह करना उचित है। इन वस्तुओं के व्यापार में अधिक लाभ होता है। धनु की संक्रान्ति और मिथुन के चन्द्रमा में पाँच महीने तक अन्न में लाभ होता है । भकर की मंत्रान्ति में कर्क का चन्द्रमा हो तो फुलटाओं का विनाश होता है | काम, श्री सूत में पाँचवें मारा में भी लाभ होता है। कुम्भ को संक्रान्ति में सिंह का चन्द्रमा हो तो सीधे महीने में अन्न लाभ होता है। मीन की संक्रान्ति में कन्या का चन्द्रमा होने पर प्रत्येक प्रकार के अनाज में लाभ होता है। अनाज की कमी भी साधारणतः दिखायी पड़ती है, किन्तु उस कमी को किसी प्रकार पूरा किया जा सकता है। जिस बार की संक्रान्ति हो, यदि उसी बार में अमावस्या भी पड़ती हो तो यह खर्पर योग कहलाता है। यह योग सभी प्रकार के धान्यों को नष्ट करनेवाला है । यदि प्रथम संक्रान्ति को शनिवार हो, दूसरी को रविवार तीसरी को सोमवार, चौधी को मंगलवार, पाँचवों को बुध, छठी को गुरुवार, गातवीं को शुक्रवार आठवीं को शनिवार, नौवीं को रविवार, दसवीं को सोमवार, ग्यारहवीं को मंगलवार और बारहवीं संक्रान्ति को बुधवार हो तो खर योग होता है। इस योग के होने से भी धन-धान्य और जीवजन्तुओं का विनाश होता है। यदि कार्तिक में वृश्चिक की संक्रान्ति रविवारी हो तो श्वेत रंग के पदार्थ महंगे, कलेच्छों में रोग-विपत्ति एवं व्यापारी वर्ग के व्यक्तियों को भी कष्ट होता है। चैत्र मास में मेघ की संक्रान्ति मंगल या जनिवार की हो तो जन्न का भाव तेज, गेहूं, चने, जी आदि नमस्त धान्यों का भाव तेज होता है। सूर्य का क्रूर ग्रहों के साथ रहना, या क्रूर ग्रहों से विद्ध रहना अथवा क्रूर ग्रहों के साथ सूर्य का वेध होना, वर्षा, फसल धान्योत्पति आदि के लिए अशुभ है। शुर्य यदि मृदु संज्ञक नक्षत्रों का भोग कर रहा हो, उस समय किसी शुभ ग्रह की दृष्टि गुर्य पर हो तो, इस प्रकार की संक्रान्ति जयत् में उथलपुथल करती है। सुभिदा और वर्षा के लिए यह योग उत्तम है । यद्यपि संक्रान्ति मात्र के विचार से उत्तम फल नहीं घटता है, अतः ग्रहों का सभी दृष्टियों से विचार करना आवश्यक है ।
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त्रयोविंशतितमोऽध्याय:
मासे-मासे समुत्थानं यन्त्र यो' पश्येत् बुद्धिमान् ।
वर्ण-संस्थानं रात्रौ तु ततो ब्रूयात् शुभाशुभम् ॥1॥ जो बुद्धिमान् व्यक्ति रात्रि में प्रत्येक महीने में चन्द्रमा के वर्ण, संस्थान, प्रमाण आदि का दर्शन करता है, उसके लिए शुभाशुभ का निरूपण करता
स्निग्धः श्वेतो विशालश्च पवित्रश्चन्द्रः शस्यते।
किञ्चिदुत्तरशृङ्गश्च दस्यून हन्यात् प्रदक्षिणम् ॥2॥ स्निग्ध, श्वेतवर्ण, विमानाकार और पवित्र चन्द्रमा प्रशमित- अच्छा माना जाता है । यदि चन्द्र गा का शुग .. पिनारा कुछ उत्तर की ओर उठा हुआ हो तो । दस्युओं का घात करता है ।।।।
अश्मकान् भरतानुडान काशि-कलिंगमालवान् ।
दक्षिणद्वीपवासांश्च हन्यादुत्तरशृङ्गवान ।। उत्तर गवाना चन्द्रमा अश्मका, भरत, इड, काशी, कलिंग, मालव और दक्षिणद्वीपवासियों का बात करता है ।।3।।
क्षत्रियान् यवनान् बाह्रोन् हिमवच्छृङ्गमास्थितान् ।
युगन्धर-कुरून् हन्याद् ब्राह्मणान् दक्षिणोन्नतः ॥4॥ दक्षिणोन्नतशृग चन्द्र क्षत्रिय, यवन, बाहीक, हिमाचल के निवागी, युगन्धर __और गुर निवासियों तथा ब्राह्मणों का बात वारता है ।।4।।
भस्माभी नि:प्रभो रूक्ष: श्वेतशृङ्गोऽतिसंस्थितः।
चन्द्रमा न प्रशस्येत सवर्णभयंकरः ॥5॥ भन्म के समान आभा बाला, निष्प्रभ, रू, श्वेत और अति उन्नत पवाला चन्द्रमा प्रशंस्य नहीं है; क्योंकि यह गभी वर्ण बालों को भय उत्पन्न करता है ।। 51 )
शबगन् दण्डकानुडान् मद्रांश्च द्रविडांस्तथा। श्द्रान् महासनान वृत्यान् समस्तान सिन्धुसागरान् ।।6। आनन्मिलकीरांश्च कोंकणान् प्रलयम्बिनः । "रोमवृत्तान् पुलिन्द्रांश्च मारुश्वभ्र च कच्छजान् ॥7॥
1. पश्य
भ० । 2. गमा म..।
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भद्रबाहुसंहिता
प्रायेण हिंसते देशानेतान् स्थूलस्तु चन्द्रमाः ।
समे शृंगे च विद्वेष्टी तथा यात्रा न योजयेत् ॥8॥ स्थल चन्द्रमा शबर, दण्डका, उड़, मन्द्र, द्रविड, शूद्र, महासन, वृत्य, सभी समुद्र, आनर्त, मलकीर, कोकण, प्रलयम्बिान, रोमवृत्त, पुलिन्द, मरुभूमि और कच्छ
आदि देशों वा घात करता है । यदि चन्द्रमा का समान शृग हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिए ।।6-811
चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी विवर्णो विकृतः शशी।
यदा मध्येन व पास पाधि हान्ति मालवम् ॥9॥ जन्न चतुर्थी, पञ्चमी और साठी तिथि को चन्द्रमा विकृत, बदरंग दिखलाई पड़े अथवा वह मध्य में गमन करता हो तो गालव नृप का विनाश करता है ।19॥
काञ्चों किरातान् द्रमिलान शाक्यान लुब्धास्तु सप्तमी।
कुमारं युवराजञ्च चन्द्रो हन्यात् तथाऽग्टमी 1101 मप्तमी और अष्टमी का विकृत चन्द्रमा कांची, किरात, मिल, शाक्य, लुब्धय एवं कुमार और युवराजों का विनाश करता है 11101
नवमी मन्त्रिणश्चौरान अध्वगान वरसन्निभान ।
दशमी स्थविरान हन्यात् तथा वै पार्थिवान प्रियान ॥11॥ नवमी का विकृत चन्द्रमा मन्त्री, चोर, पथिक और अन्य श्रेष्ठ लोगों का तथा दशमी का विकृत चन्द्र स्थविर राजा और उनकी प्रिया का विनाश करता
एकादशो भयं कुर्यात ग्रामीणांश्च तथा गवाम् ।
द्वादशो राजपुरुषांश्च वस्त्रं सस्यं च पीडयेत् ॥2॥ एकादशी का विकृत चन्द्रमा ग्राण और गायों को भय मारता है तथा द्वादशी का चन्द्रमा राजपुरुष-राजकर्मचारी, वस्त्र और अनाज का घात करता है ।।12।।
त्रयोदशी-चतुर्दश्योभयं शस्त्रं च मूर्च्छति ।
संग्रामः संभ्रमश्चैव जायते वर्णसंकरः ।।।३॥ त्रयोदशी और चतुर्दशी ना विकृत चन्द्रमा भयोपदक, शम्त्रकोप और . मूर्छा करता है । संग्राभ----युद्ध और आकुलता व्याप्त होती है और वर्णमंकर पंदा
होते हैं ।। ! 3।।
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अयोविंशतितमोऽध्याय:
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नृपा भूत्यैविरुध्यन्ते राष्ट्र चौरविलुण्ठ्यते ।
पूर्णिमायां हते चन्द्र ऋक्षे वा विकृतप्रभे ॥14॥ पूर्णिमा में चन्द्रमा द्वारा घात नक्षत्र पर चन्द्रमा के स्थित होने पर अथवा विकृत प्रभा बाले चन्द्रमा के होने पर राजा और सेवकों में विरोध होता है तथा चोरों के द्वारा राष्ट्र लूटा जाता है ।।4।।
हस्वो रुक्षश्च चन्द्रश्च श्यामश्चापि भयावहः ।
रिमा शुक्लो हिमांश्चन्द्रो मावृद्धये ॥15॥ हस्त्र, रूक्ष और काला चन्द्र भयोत्पादया है तथा स्निग्ध, शुक्ल और सुन्दर । चन्द्र मुखोत्पादक तथा समृद्धिकारक होता है 111511
श्वेतः पीतरच रश्तश्च कृष्णश्चापि यथाक्रमम् ।
सुवर्णसुखदश्चन्द्रो विपरीतो भयावहः ।।16। मवेत, पोत, रक्त और कृष्ण बामणादि बागें वर्गों के लिए मुखद यथाक्रम । होता है और सुवर्ण ---गुदा चन्द्र सभी के लिए सुखद है । इसके विपरीत चन्द्र ) भयावह होता है ।।16।।
चन्द्र प्रतिपदि योऽन्धो ग्रहः प्रविशतेऽशुभः।
संग्रामो जायते तत्र सप्तराष्टविनाशनः ॥17॥ यदि प्रतिपदा तिथि को चन्द्रमा में अन्य अशुभ ग्रह प्रविष्ट हो तो गयंकर मांनाम होता है तथा सात राष्ट्रों का विनाश होता है ॥1711
द्वितीयायां तृतीयायां गर्भनाशाय कल्पते।
चतुया च सुधाती च मन्दवृष्टिञ्च निदिशेत् ।।18॥ अदि सितीया, तृतीया तिथि को चन्द्रमा में अन्य अशुभ ग्रह प्रविष्ट हो तो गर्भनाश करने वाला होता है । चतुर्थी तिथि में प्रवेश करे तो बात और मन्दवृष्टि करने वाला होता है ।।1 811
पञ्चभ्यां ब्राह्मणान सिद्धान दीक्षितांश्चापि पीडयेत् ।
यवनाय धर्मभ्रष्टाय षष्ठ्यां पीडां बजन्स्यत: ॥19॥ पञ्चमी तिथि में चन्द्रमा में कोई अशुभ ग्रह प्रवेश करे तो ब्राह्मण, सिद्ध और दीक्षिता को पीडा तथा पप्ठी तिथि में कोई अशुभ ग्रह प्रवेश कर तो धर्मरहित, यवन आदि को कष्ट होता है ॥19॥
। मही श्रीपा। भ० 1 2. आर मगा गु० ।
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भद्रबाहुसंहिता
'महाजनाश्च पीड्यन्ते क्षिप्रमैक्षुरकास्तथा । इतयश्चापि जायन्ते सप्तम्यां सोमपीडने 112011
सप्तमी तिथि को चन्द्रमा के घातित होने पर महाधनिक, नाई, धोवी, कृषक आदि को पीड़ा होती है और ईतियां बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं ||20|| faaivarचन्द्रः स्त्रीणां राजा निषेवते ।
कपिलोऽपि दक्षिणे मार्गे विन्द्यादग्निभयं तथा 2 ||21||
किसी अन्य अशुभ ग्रह द्वारा और परिचय - रोहित आदि का राजा पति चन्द्रमा सेवन किया जाय तथा कपिल विगलवर्ण का चन्द्रमा दक्षिण मार्ग में भी दिखलायी पड़े तो अग्निभय होता है ॥21॥
सन्ध्यायां कृत्तिका ज्येष्ठां रोहिणी पितृदेवताम् । चित्रां विशाखां मैवं च चरेद् दक्षिणतः शशी ।। 22 ।।
सन्ध्या में कृतिका, ज्येष्ठा, रोहिणी, मधा, चित्रा, विशाया और अनुराधा का चन्द्रमा दक्षिण मार्ग से विचरण करता है 1122।।
सर्वभूतभयं विन्द्यात् तथा घोरं तु मांसिकम् सस्यं वर्षं वर्धयते चन्द्रस्तद्वद् त्रिपर्ययात् ॥ 231
चन्द्रमा के विषय होने पर समस्त प्राणियों को भय होता है तथा धान्य और वर्षा की वृद्धि होती है || 23 |
रेवती- पुष्ययोः सोमः श्रीमानुत्तरगो यदा । महावर्षाणि कल्पन्ते तदा कृतयुगे यथा ॥24॥
जब चन्द्रमा रेवती और पुष्य नक्षत्र में उत्तर दिशा में गमन करता है, उस समय कृतयुग के समान महाचर्ष होती है ||24||
गोवोथीमजवीथ वा वंश्वातरपथं तथा ।
विवर्ण: सेवते चन्द्रस् 'तदाऽल्पमुदकं भवेत् ॥25॥
जब विव चन्द्रमा गोवीथि, अजवीथि या वैश्वानर पक्ष में गमन करता है, तब अलग जल-वृष्टि होती है ||25||
गजवीथ्यां नागवीथ्यां सुभिक्षं क्षेममेव च । सुप्रभे प्रकृतिस्थे च महावर्ष च निदिशेत् 11260
। महाधनाश्व । 2.
3. As 14 na gor
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त्रयोविंशतितमोऽध्यायः
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जब सूप्रभ प्रकृतिस्थ चन्द्रमा गजदीथि, नामवीथि में गमन करता है, तब सुभिक्ष, कल्याण और महावर्षी होती है ।126।।
वैश्वानरपथं प्राप्ते चतुरङ्गस्तु दृश्यते।
सोमो विनाशकृल्लोके तदा वाऽग्निभयङ्करः ॥27॥ जब चतुरंग चन्द्रमा वैश्वानर पय में गमन करता हुआ दिखलायी पढ़ता है तब लोग का विनाश होता है अथवा भयंकर अग्नि का प्रकोप होता है ।।27।।
अजवीथीमागते चन्द्र क्षत्तषाग्निभयं नणाम् ।
विवर्णो होनरशिपर्वा भद्रबाहुवचो यथा ।।28।। विवर्ण या हीन रशिमवाला चन्द्रमा अजनीशि में गमन करता हुआ दिन लायी पड़े तो मनुष्यों को क्षुधा, तुपा और अग्नि का भय रहता है. एमा भनाइ स्वामी का वचन है 112814
गोवीथ्यो नागवीश्यां च चतुर्थ्यां दृश्यते शशी।
रोगशस्त्राणि वैराणि वर्षस्य च विवर्धयेत् ।।29।। जब चन्द्रमा चतुर्थी तिथि में गोत्रीय या नागवीथि में गमन करता हुआ दिग्बलायी गड़े तब उस वर्ष रोग, स्त्र और शत्रुता वृद्धिंगत होती है ।। 29।।
एरावणे चतुप्रस्थो महावर्ष स उच्यते ।
चन्द्रः प्रकृतिसम्पन्न: सुरश्मि; श्रोरिवोज्ज्वलः ॥30॥ यदि चन्द्रमा प्रकृति मम्पन्न, गुन्दर किरण वाला, गुन्दर श्री क ग़मान उज्ज्वल चतुष्पयशावत मार्ग में दिखलाई पड़े तो बह पहा काम होता है ।। 3011
श्यामच्छिद्रश्च पक्षादौ यदा दश्यते य: सितः ।
नन्द्रमा रौरवं घोरं नृपाणां कुरुते तदा ॥३॥ जब चन्द्रमा काला और छिन्द्र गुक्त प्रथम पक्ष-कृष्ण पक्ष में दिखलायी गई। तो उस सगय मनुष्यों में चोर संघर्ष होता है ।। 31।।
धनुमा यदि तुल्यः स्यात् पक्षादौ दृश्यते शशी।
ब्रूयात् पराजयं पृष्ठे युद्धं चैव बिनिदिशेत् ॥32॥ यदि प्रथम पक्ष में चन्द्रमा धनुष के तुल्य दिखलायी पड़े तो पराजय हे और पीले युद्ध होता है ।। 32।।
1. शव प० । 2
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भद्रबाहुसंहिता
वैश्वानरपथेऽष्टम्यां तिर्यक्स्थो वा भयं वदेत्' । परस्परं विरुध्यन्ते नृपाः प्रायः सुवर्चसः ॥33
यदि अष्टमी तिथि को वैश्वानर मार्ग में तिर्यक् चन्द्रमा हो तो शक्तिशाली, तेजस्वी राजाओं में युद्ध होता है 1331
दक्षिणं मार्गमाश्रित्य वध्यन्ते प्रवरा नराः । चन्द्रस्तूत्तरमार्गस्थः क्षेम-सोभिक्षकारकः ॥ 341
यदि चन्द्रमा दक्षिण मार्ग में हो तो बड़े-बड़े व्यक्तियों का पत्र होता है, और उत्तर मार्ग में स्थित रहने वाला चन्द्रमा क्षेम और सुभिक्षा करने वाला होता 113411
चन्द्रसूयों विशृङ्गौ तु मध्यच्छिद्र हतप्रभ । युगान्तमिव कुर्वन्तां तदा यात्रा न सिद्ध्यति ॥35॥
चन्द्रमा और सूर्य विगत श्रृंग, मध्य छिद्र, कान्ति रहित हो तो युगान्त - प्रलय के समान कार्य करते हैं, उस समय यात्रा अच्छी नहीं मानी जाती है || 35 कनक्षत्र गतौ कुर्यात् तद्वर्णसंकरम् ।
विनाशं तत्र जानीयाद् विपरीते जयं वदेत् ॥36॥
एक नक्षत्र पर स्थित होकर जहाँ सूर्य और चन्द्र कर्णसंकर-वर्णमिश्रण करें, वहाँ विनाश समझना चाहिए । विपरीत होने पर जय होती है || 36 || बहुवोदयको वाऽथ ततो भयप्रदो भवेत् ।
मन्दधाते फलं मन्दं मध्यमं मध्यमेन तु । ॥37॥
शीघ्र उदय को प्राप्त होने वाला चन्द्रमा भयप्रद होता है। मन्दपात होने पर मन्दकल और मध्यम में मध्यमफल होता है || 37 |
चन्द्रमाः सर्वघातेन राष्ट्रराज्य भयंकरः । तथापि नागरान् हन्यात् यदा ग्रहसमागमे ॥38॥
सर्ववात के द्वारा चन्द्रमा सम्पूर्ण राष्ट्र और राज्यों के लिए भयंकर होता है । जब चन्द्रमा अन्य ग्रह के साथ समागम करता है तो नागरिकों का विनास करता
01380
नागराणां तदा भेदो विज्ञेयस्तु यादिनामपि विज्ञेयं यदा युद्धं
1. 42 ea o 13. 14 g
पराजयः । परस्परम् ॥39॥
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अयोविशतितमोऽध्यायः
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जब चन्द्रमा का अन्य किसी ग्रह के साथ युद्ध होता है, तब नागरिकों में परस्पर फूट रहती है और यायियों-आक्रमिकों की पराजय होती है ।। 39।।
भार्गव:' गुरवः प्राप्तो पुष्यभिश्चित्रया सह।
शकस्य चापरूपं च ब्रह्माणसदृशं फलम् ।।40॥ यदि इन्द्रधनुष के समान सुन्दर चन्द्रमा पृप्य और चित्रा नक्षत्र के साथ शुक्र ( और गुरु-बृहस्पति को प्राप्त करे तो ब्राह्मण रादृशा फरल होता है ।140।।
क्षत्रियाश्च भुवि भ्याता: कौशाम्बी देवतान्यपि।
पीड्यन्ते तद्भक्ताश्च सङग्रामाश्च गुरोर्वध. 141।। उक्त प्रकार की नन्द्रमा की स्थिति में भूमि में प्रसिद्ध कौशाम्बी आदि क्षत्रिय तथा उनके भक्त पीड़ित होते हैं और युद्ध होते हैं जिससे गुरुजनों की हिंसा होती है ।।4।।
पशवः पक्षिणी वैद्या महियाः शबराः शकाः। सिंहला द्रामिला: काचा बन्धुकाः पलवा नृपाः ॥42।। पुलिन्द्रा: कोंकणा भोजाः कुरवो वस्यवः क्षमाः ।
शनैश्चरस्य घातेन घोड्यन्ते यवन: सह ।।43॥ चन्द्रमा के द्वारा शनि के पातित होने से पशु, पक्षी, बैद्य, महिए --भैंस, शबर, शक, सिहल, द्वामिल, काच, बन्धुवा, "लव नृप, पुनिन्छ, कोंकण, भोज, कुरु दस्यु, क्ष ना आदि प्रदेशवासी पवनों च माथ गीड़ित होत है । 42-43।।
यस्य यस्य च नक्षत्रमेकशो द्वन्द्वशोऽपि वा।
ग्रहा वामं प्रकुर्वन्ति तं तं हिंसस्ति सबंश: ।।4411 जिस-जिस नक्षत्र को अकला प्रह या दो-दो ग्रह वा-बायी ओर करे, उसउस नक्षत्र का घात गभी ओर म क रन हैं || :4।।
जन्मनक्षत्रधातेऽथ राज्ञो यात्रा न सिद्ध्यति ।
नागरेण हतश्चारुप: स्वपक्षाय न यो भवेत् ॥45॥ यदि कोई गया जन्मनक्षेत्र के धातित होन पर यात्रा करे तो उसकी यात्रा सफल नहीं होती है। जो नगरवासी स्वपक्ष में नहीं होते हैं, उनके द्वारा अपघात होता है ।।451
1. म्या
। 2. प्रा ना मुबशाम म। 3. देवता f1 [ |
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भद्रबाहुसंहिता
राजा 'चावनिजा गर्भा नागरा दारुजीविनः । गोवा गोजीविनश्चापि धनुस्सङ ग्रामजीविनः ॥146॥ तिलाः कुलस्था माषाश्च माषा मुद्गाश्चतुष्पदाः । पीड्यन्ते बुधघातेन स्थावरं यश्च किञ्चन ॥47॥
चन्द्रमा के द्वारा बुध के घातित होने से राजा, खान से आजीविका करने वाले, नागरिक, काठ में आजीविका करने वाले, गोप, गायों से आजीविका करने वाले, धनुष और सेना से आजीविका करने वाले, तिल, कुलथी, उड़द, मूंग, चतुष्पद और स्थावर पीड़ित होते हैं ||46-47||
कनकं मणयो रत्नं शकाश्च यवनास्तथा ।
गुजरा' पल्लवा मुख्याः क्षत्रिया मन्त्रिणो बलम् ॥48 ॥ स्थावरस्य वनीकाकुनये सिंहला नृपाः । वणिजां वनशख्यं च पीड्यन्ते सूर्यघातने ॥ 490
सूर्य के पास से कनक - सोना, मणि, रत्न, शक, यवन, गुहार, पल्लव आदि मुख्य क्षत्रिय, मन्त्री, सेना, स्थावरों के अन्तर्गत सिहल, वणिज और वनशाखा वाले पीड़ित होते हैं । 48-4911
पौरेयाः शूरसेनाश्च शका बालकदेशजाः ।
मत्स्याः कच्छाश्च वस्याश्च सौवीरा गन्त्रिजास्तथा ॥50॥
पीडयन्ते केतुघातेन ये च सत्वास्तथाश्रयाः । निर्धाता पापवर्ष वा विज्ञेयं बहुशस्तथा ॥51॥
केतु घात द्वारा पुरवासी, शूरमेन, बा, मत्स्य, कच्छ, वत्स्य, सौवीर गन्धि आदि देश वाले पीड़ित होने है तथा यह अनेक प्रकार से संत्रमय पाप बर्ष रहता है |50 51
पाण्ड्याः केरलाश्चोला: सिंहलाः सार्विकास्तथा । "कुनपास्ते तथार्याश्व मूलका वनवासका 52 किष्किन्धाश्च कुनाटाश्च प्रत्यग्राश्च वनेचराः । रक्तपुष्पफलांश्चैव रोहिभ्यां सूर्य-चन्द्रयोः 11530 पाण्ड्य केरल, चोल, सिंहल, साविक, कुनप, विदर्भ, वनवासी, किकिन्धा, कुनाट, वनचर, सतपुल और फल आदि विकृत सूर्य और चन्द्र के संयुक्त होने से
1. या नाधविजा । 2 गुहारा 3. सोधिका गुरु । 4. कुपारते मु० ।
भु..
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त्रयोविंशतितमोऽध्यायः
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पीड़ित होते हैं 1152-531
एवं च जायते सर्व करोति विकृति यदा ।
तदा प्रजा विनश्यन्ति भिक्षण भयेन च ।।54॥ इस प्रकार चन्द्रमा के विकृत होने से दुर्भिक्ष और भय द्वारा प्रजा का विनाश होता है ।।54।।
अर्धमासं यदा चन्द्र ग्रहा यान्ति विदक्षिणम् ।
तदा चन्द्रो जयं कुर्याम्नागरस्य महीपते: ॥5॥ जब चन्द्रमा आधे महीने -पन्द्रह दिन का हो और उस समय अन्य ग्रह दक्षिण की और गमन करे तो चन्द्रमा नागरिव और राजा को विजय देता है ।। 55।।
होयमानं यदा चन्द्र ग्रहा: कुर्वन्ति वामतः ।
तदा विजयमाख्यान्ति नागरस्य महीपतेः ।। 56।। जब चन्द्रमा क्षीण हो रहा हा - कृष्ण पक्ष में ग्रह चन्द्रमा को बायों और करत हो तो नागरिक और राजा की विजय होती है ।।56।।
गति-मार्गाकृति-वर्णमण्डलायपि वीथयः ।
चारं नक्षत्रचारांश्च ग्रहाणां शुक्रवद् विदुः ।।57।। ग्रहों की गति, मार्ग, आकृति, वर्ण, अपन, वीथि, चार और नक्षत्र चार आदि शुत्र के समान समझना चाहिए ।। 57।।
चन्द्रस्य चारं चरतोऽन्तरिक्ष सुचारदुश्चार समं प्रचारम् ।
चर्यायुत: खचरसुप्रणीतं यो बेद भिक्षुः स चरेन्नपाणाम् ।।58।। चन्द्रमा क. आनाग में विचरण करने पर मुन्नार और दुश्मार दोनों होते हैं । जो भिक्षु प्रसन्नतायुक्त चन्द्रमा की चयां वो जानता है, वह भिक्षु राजाओं के मध्य में विहार करता है ।।581
इति नर्ग्रन्थं भद्रवा के निमित्तं चन्द्रचार संजो नाम वयोनिशोऽध्यायः ।। 2311
विवेचन -गाठा, मल, पूर्वाषाका और उत्तरापाला नक्षत्र के दाहिने भाग में चन्द्रमा हो तो बीज, जल और धन की हानि होती है। अग्निभय विशेष उत्पन्न होता है । जब विशाखा और अनुराधा नक्षत्र के दायें भाय में चन्द्रमा रहता ।
I. चन्द्र गुरु
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है तब पाप चन्द्रमा कहलाता है। पाप चन्द्रमा जगत् में भय उत्पन्न करता है, परन्तु विशाखा, अनुराधा और मघा नक्षत्र के मध्य भाग में चन्द्रमा के रहने से शुभ फल होता है। रेवती से लेकर मृगशिरा तक छ नक्षत्र अनागत होकर मिलते हैं, आर्द्रा से लेकर अनुराधा सक बारह नक्षत्र मध्य भाग में चन्द्रमा के साथ मिलते हैं तया ज्येष्ठा से लेकर उत्तराभाद्रपद तक नौ नक्षत्र अतिक्रान्त होकर चन्द्रमा के साथ मिलत हैं । यदि चन्द्रमा का शृंग कुछ ऊंचा होकर नाव के समान विशालता को प्राप्त गरे तो नाविकों को कष्ट होता है । आधे उठे हुए चन्द्रमा शृग को लांगल कहते हैं, उसमे हलजीवी मनुष्यों को पीड़ा होती है। प्रवन्धवों, शासकों और नेताओं में परस्पर मैत्री सम्बन्ध बढ़ता है तथा देश में मुभिक्ष होता है। चन्द्रमा काम आधी उठा हुक्षा हो तो उसे दुष्ट लांगसग कहते हैं। इससा फन पाण्ड्य, बेर, नोल आदि राज्यों में पारस्परिक अनक्य होता है । इस प्रकार के गृग के दर्शन में बर्षा ऋतु में जलाभाव होता है तथा ग्रीष्म ऋतु में सन्ताप होता है।
यदि ग़ान भाव में चन्द्रमा । उदय हो तो पहले दिन की तरह सर्वत्र मुभिक्ष, आनन्द, आमोद-प्रमोद, वर्षा, हर्प अपदि होत है। दण्ड के समान चन्द्रमा के उदय होने पर काय, बैलों को पीड़ा होती है और यजा लोग उग्र दण्डधारी होते हैं। यदि धनुग के साकार का चन्द्रमा उदय हो तो युद्ध होता है, परन्तु जिस ओर उभ धनप की मौी रहती है, उस देश की जय होती है । यदि पदग दक्षिण और उत्तर में फैला हुआ हो तो भकम्प, महागारी आदि फल उत्पन्न होते हैं 1 कृषि के लिए उका प्रकार का चन्द्रमा अच्छा नहीं माना गया है । जिस चन्द्रमा शाग नीच को मुख यि हुए हो से आवर्तित रहते हैं, शाम मवेशी को कष्ट होता है । घास की उनि कम होती है तथा हरे चारे का भी अभाव रहता है । यदि चन्द्रमा के चारों और अति गोलाबार रेखा दिखलायी दे तो 'कूण्ड' नामक शृग होता है। इस प्रकार के ग से देश में अशान्ति फैलती है तथा नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं। यदि चन्द्रमा काग उत्तर दिशा की ओर कुछ ऊँचा हो तो धान्य की वृद्धि होती है, बपी भी उत्तम होती है । दक्षिण की ओर शृग के कुछ अंच रहने मे वर्षा का अभाव, धान्य की कमी एवं नाना तरह की बीमारियां फैलती हैं।
एक ग बाला, नीचे की ओर गुना वासा, गहीन अथवा सम्पूर्ण नये प्रचार का चन्द्रमा देखन से देखने वालों में से फिगी की मत्यु होती है । वैयक्तिक दृष्टि से भी उस प्रकार के चागों का देखना अनिष्टकार माना जाता है । यदि आकार में छोटा चन्द्रमा दिनबाई गड़े तोदुशिक्ष, मृत्यु, दोग आदि अनिष्ट फन घटते हैं तथा बड़ा चन्द्रमा दिखलाई पड़े तो मुभिक्ष होता है । मध्यम आकार के चन्द्रमा के उदय हात स प्राणियों को शुधा की वेदना सहन करनी पड़ती है । राजाओं,
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प्रशासकों एवं अन्य अधिकारियों में अनेक प्रकार के उपद्रव होने से संघर्ष होता रहता है । देश में अशान्ति होती है तथा नये-नये प्रकार के झगड़े उत्पन्न होते हैं । चन्द्रमा की आकृति विशाल हो तो धनिकों के यहाँ लक्ष्मी यी वृद्धि, स्थूल हो तो सुमिन, रमणीय हो तो उत्तम धान्य उपजते हैं । यदि चन्द्रमा के शृग को मंगल ग्रह ताड़ित करता हो तो कुत्सित राजनीतिज्ञों का विनाश, य येष्ट बर्मा, पर फसल की उत्पत्ति का अभाव और शनि ग्रह के द्वारा चन्द्र ग आहत हो तो शस्यमय
और क्षुधा का भय होता है । बुध द्वारा चन्द्रमा के शृग को आहत होने पर अनावष्टि, भिक्ष एवं अनेक प्रकार के संकट आते है 1 शुक्र हा नन्द्रग का दन होने से छोटे दर्जे के शासन अधिकारियों में वैमनस्य, भ्रष्टाचार और अनीति का सामना करना पड़ता है। जब गद्वानन्द्रग छिन्न होता है, तब किगी महान नेता की मत्यु या विश्व के किसी बड़े राजनीतिजी मत्यु होती है।
कृष्ण पक्ष में चन्द्रम का ग्रहां द्वारागीट न हो तो गध, यवन, पुजिन्द, नेपाल, मर, चार छ, मुरत, मद्रास, पंजाब, यी र कुलूत, पुष्णानन्द और उशीनर प्रदेश में सात महीनों तक रोग व्या रहता है। शुक्ल पक्ष में ग्रहों द्वारा चन्द्रग का छिन्न होना अधिक अशुभ नहीं होता है।।
यदि दुध द्वारा चन्द्रमा का दिन होता हो तो मगध, मथुरा और वेणा नदी के किनारे बसे हुए देशों को पीड़ा होती है। कोतु द्वारा चन्द्रमा पीड़ित होता हो तो अमंगल, व्याधि, दुर्भिक्ष और शास्त्र में आजीविका करनेवालों का विनाश होता है । चोगे को अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने पड़ते हैं। राहु या केतु से ग्रस्त चन्द्रमा के ऊपर उल्का गिरे तो अशान्ति रहती है। यदि भस्मतुल्य रूखा, अरुणवर्ण, किरणहीन, ग्यामवर्ण, कम्पायमाग चन्द्रमा दिखलाई दे तो क्षधा, संग्राम, रोगोत्पत्ति, चोरभय और स्त्रभय आदि होते हैं। कुमुद, मृणाल और । हार के समान शभ्रवर्ण होर तन्द्रमा नियमानुसार प्रतिदिन घटता-बढ़ता है तो । सभिक्ष, शान्ति और सुवृष्टि होती है । प्रजा आनन्द के साथ रहती है तथा सन्तान का विनाश होकर पूर्णतया णानि छा जाती है।
द्वादश राशियों के अनुसार चन्द्ररल-मेग गशि में चन्द्रमा में रहने गराभी धान्य महँगे; वप में चन्द्रमा के होने में चना तेज, मनुष्यों की मृत्यु और चोर भय; मिथुन में चन्द्रमा के रहने मे वीज बोने में प्रफलता, उत्तम धान्य की उत्पत्ति; कर्क में चन्द्रमा के रहने म वर्षा; सिंह में रहने मे धान्य का भाव महँगा; वान्या में रहने में खण्डवृष्टि, सभी धान्य मस्ते: तुन्ना में चन्द्रमा के रहने से थोड़ी वर्षा, देशभंग और मार्गभय: वृश्चिक में चन्द्रमा के रहन में मध्यम वर्मा, ग्रानाश, उपद्रव, उत्तम धान्य की उत्तान; धनु राशि में चन्द्रमा मे रहने से उत्तम वर्मा, मुभिक्ष और शान्ति; मकर राशि में चन्द्रमा के रहने में धान्य नाश, फसल में नाना प्रकार के रोग, मुमा-टिड्डी आदि का भय, कुम्भ राशि में चन्द्रमा के रहते ग अल्प
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वर्षा, धान्य का भाव तेज, प्रजा में भय एवं मीन राशि में चन्द्रमा के रहने से सुखसम्पत्ति और सभी प्रकार के अनाज सस्ते होते हैं । वंशाग्य या ज्येष्ठ में चन्द्रमा का उदय उत्तर की ओर हो तो सभी प्रकार के धान्य सस्ते होते हैं। मेघ का उदय एवं वपंण उत्तम होता है।
ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को सूर्यास्त के समय ही चन्द्रमा दिखलाई पड़े तो वर्ष पर्यन्त मुभिक्ष रहता है । चन्द्रमा का शृग उत्तर की ओर हो तो सुभिक्ष और दक्षिण की ओर होने में दुर्भिक्ष तथा मध्य का रहने से मध्यम फल देनेवाला होता है। कृतिका, अनुराधा, ज्येष्टा, चित्रा, रोहिणी, मघा, मृगशिर, मूल, पूर्वापाढ़ा, विशाखा ये नक्षत्र चन्द्रमा के उत्तर मार्ग वाले कहलाते हैं । जब चन्द्रमा अपने उत्तर मार्ग में गमन गरता है तो मुनिक्ष, सुबर्ण, शान्ति, प्रेम, और सौन्दर्य का प्रसार होता है। जनता में धर्माचरण का भी प्रसार होता है। दक्षिण मार्ग में चन्द्रमा का वितरण कारमा अशुभ माना जाता है । शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन मेष राशि में चन्द्रमा का उदय हो तो ग्रीटम में धान्य भाव तेज होता है।
वष में उदय होने से उद्द, तिला, मंग, अगम आदि का भाव तेज होता है। मिथुन में कपास, सूत, अट आदि का प्राव महंगा होता है। कर्क राशि के होने में अनावृष्टि, तथा कहीं-कहीं मुण्डव प्टि; सिंह राशि में चन्द्रमा के उदय होने मे धान्य भाव तेज होता है। सोना-चाँदी आदि का भाव भी महंगा होता है । कन्या में चन्द्रमा का उदय होने से पशुओं का विनाश, राजनीतिक पार्टियों में मतभेद, संघर्ष होता है। तुला राशि के चन्द्रमा में उदय होने मा व्याधि, व्यापारियों में विरोध बृश्चिक राशि के चन्द्रमा में धान्य की उत्पनि, धनु और गकार में चन्द्रमा का उदय होने में दान वाले अनाज का भाव महंगा .म्भ राशि में चन्द्रमा का उदय होने से तिल, तेन. तिलहन, उड़द, मूंग, मटर आदि पदार्थों का भाव तेज और मीन राशि में चन्द्रमा के उदय होने में सुभिक्ष, आरोग्य, क्षेम और समृद्धि होती है।
__ उदय काल में प्रकाशमान, उज्ज्वल चन्द्रमा दर्शक और राष्ट्र की शक्ति का? विकास करता है। यदि उदयकाल में चन्द्रमा रयतवर्ण का मन्द प्रकाश युक्त मालूम | पड़े तो धन-धान्य का अभाव होता है ।
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चतुविशतितमोऽध्यायः
अथात: संप्रवक्ष्यामि ग्रहयुद्धं यथा तथा।
जन्तूनां जायते' येन तूर्ण जय-पराजयौ ।।।। अब ग्रहयुद्ध का वर्णन करता है। इसन द्वारा प्राणियों की जय-पराजय का ज्ञान होता है ॥11॥
गुरुः सौरश्च नक्षत्रं बुधार्कश्चैव नागराः ।
केतुरंगारकः सोडो राहुः शुक्रश्च यायिनः ।।2।। गुरु, शनि, बुध और गुर्य नागर नंश एवं न. अंगारक, चन्द्र, राह और शुक्र यायी संशक हैं ।।2।।
श्वेतः पाण्डश्त्र पीतश्च कपिलः पद्मलोहितः ।
वर्णास्तु नागरा ज्ञेया ग्रहयुद्धे विपश्चितैः ।। नयुद्ध में श्वेत, पागड, पीन, कपिल, लोहेनवर्ण मनीषियों पारा नागरिक संज्ञक जानना चाहिए ।। 310
कष्णों नीलश्व श्यामश्च कपोतो भस्मसग्निभः ।
वर्णास्तु यायिनो ज्ञेया ग्रहयुद्धे विपश्चित: ।।4।। कृष्ण, नील, पयाम, कपोत और भस्म के ममान वर्ण ग्रहयुद्ध में विद्वानों द्वारा । यायी कहे गये हैं ।।4।।
उल्का ताराऽशनिश्चैव विद्युतोऽभ्राणि मारुतः ।
विमिश्रको गणो जेयो वधायैव शुभाशुभे ।।5।। गृहयुद्ध द्वारा शुभाशुभ अवगत करने में उल्का, तास, अशनि, धिष्ण्य, विद्य त्, अभ्र और मारुतको मिथयोणक जानना चाहिए । उल्का, तारा, अशनि, विद्य त्, अभ्र तथा मारत ये विमिध संज्ञक हैं और युद्ध के शुभाशुभ फल में ये वधकारक होते है ।।5।।
नागरस्यापि यः शीघ्नः स यायोत्यभियोधते ।
मन्दगो यायिनोऽधस्तान्नागरः संयुगे भवेत् ॥6॥ नगर में जो शीघ्रगामी है, उम यायी कहते हैं, इस प्रकार यायी की अपेक्षा युद्ध में मन्द-गति होने से नागर नीच कोटि का कहलाता है ।।6।।
1. ज्ञायते मु० । 2. जयस्तुणं पराजयः पृ० । 3. यगिनी मु० । 4. स्पर मुः। 5. • निद्धिष्ण्यं मु.। 6. समसिको गणो मु। 7. वधस्यापि मु.। 8. नादुरेस्य लियः मु०। 9. संयायोग्य मु।
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भद्रबाहुसहिता
नागरे तु हते विन्द्यान्नागराणां महद्भयम् ।
एवं यायिवधे जयं यायिनां तन्महद्भयम 17॥ नगर संज्ञक ग्रहों के युद्ध होने या घातित होने का नागारको नो महान् भय होता है एवं यायो ग्रहों के युद्ध होने पर यात्रियों—आक्रमकों के लिए महान् भय होता है ॥7॥
ह्रस्वो विवो रुक्षश्च श्यामः कान्तोऽपसव्यगः ।
विरश्मिश्चाप्यरश्मिश्च हतो जयो ग्रहो युधि ॥8॥ युद्ध में विकृत र शिम या अलग रश बाला ग्रह रव, वित्रण, रूक्ष, श्याम, कान्त, अपव्य दिशा में रहने - - छातिन !! माना । अनि पर और हानि कारने वाला होता है ।18।।
स्थलः स्निग्ध: सुवर्णश्च सुरश्मिश्च प्रदक्षिणः ।
उपरिष्टात् प्रकृतिमान् ग्रहो जयति तादृशः ॥७॥ स्थूल, स्निग्छ, सुन्दर, अच्छी रगियों वाला, प्रदक्षिण, ऊपर रहने वाला और कान्तिमान् ग्रह जटर को प्राप्त होता है ।1911
उल्काक्यो 'हतान हन्यु गरान् संयुगे ग्रहान् ।
नागराणां तदा विन्द्याभयं धोरमुपस्थितम् ।।100 जब युद्ध में नागर ग्रह नमादि के द्वारा यातित हों तो नागरिकों को अत्यन्त भय होता है ।। 100
यायिनो वामतो हत्यग्रहयद्धे विमिश्रकाः।
पीड्यन्ते भौमपीडायां भयं सर्वत्र संयुगे ॥1॥ युद्ध में यदि विभिनयः- उल्का, तारा, अननि आदि के द्वारा यायो संज्ञक ग्रह करायीं और से पीड़ित किये जायें तो भी पीडा टान पीड़ित होत हैं 11 | 1 ||
सौम्यजातं तथा विप्राः सोम नक्षत्र-राशयः । उदीच्याः पार्वतीयाश्च पाञ्चलाद्यास्तथैव च ॥12॥ पोड्यन्ते सोमघातेन नभो धूमाकुलं भवेत् ।
तन्नामधेयास्तद्भक्ता: सर्व पोड्यन्ते तान्समान् ॥1॥ पदि चन्द्रभा के द्वारा ग्रह पीड़ित हो और आकाश धूम व्याप्त हो तो
1. हा मु।।
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चन्द्रनामधारी, चन्द्रभक्त तथा इन्हीं के समान अन्य व्यक्ति पीड़ित भी होते हैं तथा ब्राह्मण, चन्द्रनक्षत्र और चन्द्र राशि वाल, उदीच्य और पांचाल भी पीड़ित होते हैं ।। 12-1311
वर्बराश्च किराताश्च पुलिन्दा मिलास्तथा। मालवा मलया बंगा: कलिंगाः पार्वतास्तथा ॥14॥ 'सूर्यकाश्च सुराः क्षुद्रा: पिशावा वनवासिनः ।
तन्नामधेयास्तद्भक्ता: पीड्यन्ते राहुघातने ॥15॥ गह के पात में बर्बर, किरात, पुलिन्द, मिल, मालच, मलय, वंग, कलिंग, पार्वत, मुर्गक, देव, क्षुद्र, पिशाच, वनबासी, गहु नाभधा, और राहु भात व्यक्ति पीड़ित होते है।।14-1511
यायिनः ख्यातया: सस्यः सोरठाः द्रविडास्तथा। अंगा बंगाः कलिगाश्च सोरसेनाश्च क्षत्रिया: ।।16।। बोराश्चोग्राश्च भोजाश्च यज्ञे चन्द्रश्च साधवः ।
पीड्यन्ते शुक्रधातन संग्रामश्चाकुलो भवेत् ।।17।। शुक्र घात ---सुद्ध से यायो, यणम्बी. शाल्व, विक, अंग, बंग, कलिंग, सौरसेन अत्रिय, बीर, उग्र, भोग, माधु, चन्द्रवंशी पीड़ित होते हैं तथा युद्ध और न्यायलिता प्राप्त होती है ।। 16-1711
श्वेत: श्वेतं ग्रहं यत्र हन्यात् सुवर्चसा यदा।
नागनणा मिथो दो विप्राणां तु भयं भवेत् ॥18॥ जब श्वेत ग्रहवेत ग्रह को अपनी शक्ति द्वारा घातित करे तब नागरिकों में परम्पर भेद एवं ब्राह्मणों को भय होना है ।। 18।।
लोहितो लोहितं हन्यात यदा ग्रहसमागमे ।
नागराणां" यो मेद: क्षत्रियाणां' भवं भवेत् ॥19॥ ग्रहयुद्ध में यदि लोहिल ग्रह लोहित ग्रह का प्रात करे तो नागरिकों में परस्पर भेद एवं मित्रों को भय होता है ।।1911
पीतः धोतं यदा हयाद् ग्रहं ग्रहसमागमे । वैश्यानां नागराणां च मिथो भेदं तदाऽदिशेत् ॥20॥
पंकन मु. 12 मन्दिा बगिल था । 3. गृ मा मु.। 4. बाइ ममानों पु. । 5. नागणां 7 निविणे . 16. शधिग्र [णा ग" | 7. नामां तु निदि णेन मु. ।
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भद्रबाहुसंहिता
ग्रहयुद्ध में यदि पीतवर्ण का ग्रह पीतवर्ण के ग्रह का पात करे तो वैश्य और नागरिकों में आपस में मतभेद होता है ।। 2011
कृष्णः कृष्णं यदा हन्यात् ग्रहं ग्रहसमागमे ।
शद्राणां नागराणाञ्च मिथो भेदं तदादिशेत् ॥2॥ ग्रहयुद्ध में कृष्णवर्ण का ग्रह कृष्णवर्ण के ग्रह का घात करे तो शुद्र और नागरिसों में परस्पर मतभेद होता है ॥2141
श्वेतो नीलश्च पीतश्च कपिलः पद्मलोहितः।
विपद्यते यदा वर्णो नागराणां तदा भनम् ॥22।। श्वेत, नील, गीत, कपिल और पद्म-लोहित वर्ण के ग्रह गय युद्ध करते हैं तो नागरिकों को भग होता है ॥22॥
श्वेतो वात्र यदा पाण्डुग्रह सम्पद्यते स्वयम् ।
यापिनां विजयं ब्रूयाद् भद्रबाहुवचो यथा ॥23॥ श्वेत वर्ग का ग्रह जब पाण्डुवर्ण के ग्रह के साथ युद्ध करता है, तब यायियों की विजय होती है, गभा भद्रबाहु स्वामी का वाचन है ।। 23।।
कृष्णो नीलस्तथा श्यामः कापोतो भस्मसन्निभः ।
विपद्यते यदा वर्णो न तदा धायिनो भयम् ॥24॥ कृष्ण, नील, ग्याम, कापोत और भस्मक मुल्य आभा वाला ग्रह जब युद्ध करता है तब यात्रियों को भय नहीं होता है ।। 24।।
एवं शिष्टेषु वर्णषु नागरेषु विचारतः ।
उत्तरमुत्तरा वर्णा यायिनामपि निदिशेत् ।।25।। अविशिष्ट अर्गा के नागरिक ग्रहां में विचार करने उत्तर वर्ण के ग्रह यायियों की नर विजय प्रकट करते है॥25॥
रक्तो वा यदि वा नीलो ग्रहः सम्पद्यते स्वयम्।
नागराणां तदा विन्द्यात् जयं वर्णमुपस्थितम् ॥26॥ रक्त या नोन ग्रह जब स्वयं विपनि को प्राप्त हो-युद्ध करे तो नागरिकों की विजय होती है 11260
1. अनयं पारागिन कर || दन् मu |
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चतुर्विशतितमोऽध्याय:
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नोलाद्यास्तु यदा' वर्णा उत्तरा उत्तरं पुनः । नागराणां विजानीयात् निम्रन्थे ग्रहसंयुगे ॥27॥ ग्रहो ग्रहं यदा हन्यात प्रविशेद् वा भयं तदा।
दक्षिणः सर्वभूतानामुत्तरोऽण्डजपक्षिणाम् ।।28। ग्रहयुद्ध में यदि नीलादि वर्ण वान्ने ग्रह उत्तर दिशा में युद्ध करें तो नागरिकों का अधिक होता है, गोशा निग्य आनाया का वचन है। यदि दक्षिण से ग्रह ग्रह का पात करे अथवा ग्रह ग्रह में प्रवेश करे तो समस्त प्राणी, अण्डज और पक्षियों को अहितक' होता है 1127-28।।
ग्रही गुरु-बुधौ विन्द्यादुत्तरद्वारमाश्रितो। शुक्र-सूर्यों तथा पूर्वा राहु-भौमौ च दक्षिणाम् ॥29॥ अपरां चन्द्र-सूर्यौ तु मध्ये केतुमसंशयम् ।
क्षेमंकरो ध्रुवागां च यायिनां च भयंकरः ॥3011 उनर द्वार में स्थित होकर गरु और बुध युद्ध करें. पूर्व में स्थित होकर शुक्र और सूर्य, दक्षिण में स्थित होकर राहु और मंगला, पश्चिम में चन्द्र और सूर्य एवं मध्य में गनु युद्ध करें तो निवागियों के लिए कल्याणप्रद और. यायियों के लिए भयंकर होता है 129-3011
अहश्च पूर्वसन्ध्या च स्थावरप्रतिपुद्गलाः ।
रात्रिश्चापरसन्ध्या च यायिनो प्रतिपुद्गलाः ॥31॥ दिन और पूर्व सन्ध्या स्थाविरा-- निवासियों के लिए प्रतिपुद्गल तथा रात्रि और अपर सन्ध्या याथियों के लिए प्रनिपुद्गल हैं ।।3।।
रोहिणी च ग्रहो हन्यात द्वौ वाऽथ बह दोऽपि वा।
अपग्रहं तदा विन्द्याद् भय वाऽपि न संशय: ।।32॥ यदि मोहिणी नक्षत्र को एक ग्रह, दो ग्रह या बढ़त ग्रह हनन करें-घात करें तो अपग्रह होता है और भय एवं आतंक भी ध्याप्त रहता है, इसमें सन्देह नहीं है ।।3211
शुक्र: शंखनिकाशः स्यादीषत्पीतो बृहस्पतिः । प्रवालसदृशो भौमो बुधस्त्वरुणसन्निभः ॥33॥
।.ये अर्गा म ।
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भद्रबाहुसंहिता शनैश्चरश्च नीलाभ: सोमः पाण्डुर उच्यते।
बहुवर्णो रवि: केतू राहुनक्षत्र एव च ॥3411 शुक्र शंख वर्ण के सभान, बृहस्पति कुछ पीला, मंगल प्रवाल के समान और बुध नरुण के समान, शनैश्चर नौल, चन्द्रमा पाण्डु, रवि-केतू अनेक वर्ण एवं राह नक्षत्र के रामान वर्ण वाला होता है ।।33-3411
उदकस्य प्रभुः शुक्रः सस्यस्य च बृहस्पतिः । लोहितः सुख-दुःखस्य पोतुः पुष्प-फलस्य च ॥35॥ बुधस्तु बल-वित्तानां सर्वस्य च रविः स्मृतः।
उदकानां च दल्लीनां शशांकः प्रभुरुच्यते ।।360 जल का स्वामी शुत्र, मान्य का स्वामी बृहपति, सुख-दुख का स्वामी मंगल, फन्न-पुष्प का स्वामी नेत, बल-धन का स्वामी , सभी वस्तुओं का स्वामी सूर्य एवं लताओं और वृक्षा का स्वामी चन्द्रमा है ।। 35-3611
धान्यस्यार्थ तु नक्षत्रं तथाऽर: शनि: सर्वशः।
प्रभुः सुख-दुःखस्य सर्व होते विदत् ।।37॥ धान्य के लिए जो नक्षत्र होता है. उमममी तरह से स्वामी राहु है, और मुख-दुःस का स्वामी शनि है । ये ग्रह त्रिदण्डवत् होते हैं ।।3।।
वर्णानां संकरो बिन्धाद् द्विजातीनां भयंकरम ।
स्वपक्षे परपक्षे च बातुवयं विभावयेत् ॥38॥ जब ग्रहों का युद्ध होता है तो वर्गों का सम्मिश्रण, द्विजातियों को भय तथा स्वपक्ष और परपक्ष में चातुर्वण्र्य दिखलायी पड़ता है 11 3811
वात: श्लेष्मा गुरुजेयश्चन्द्रः शुक्रस्तथैव च।
वातिको केतु-सौरी तु पैत्तिको भीम उच्यते ।।39॥ चन्द्र, शुक्र और गुरु बात और कफ प्रकृति बान है, बेनु और शनि भी वात प्रकृति वाले है तथा मंगल पित्त प्रकृति वाला है ।।391
पित्तश्लेष्मान्तिक: सूर्यो नक्षत्नं देवता भवेत्।
राहुस्तु भौमरे विज्ञेयौ प्रकृती च शुभाशुभौ ।।4।। सूर्य पित्त श्लेग्मा-पित्त-कफ प्रवृति वाला है । यह नक्षत्रों का देवता होता है । राहु और मंगल शुभाशुभ प्रकृति वाले हैं ।।4011
i. दोकामना पु । 2. निश्च म० । 3. निगरात म । 4. दानिको बुध - मु.।
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चतुर्विंशतितमोऽध्याय:
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आर्यस्तमादितं पुष्यो धनिष्ठा पोष्णवी च भत्।
केतु-सूयौँ तु वैशाखौ राहुवरुणसम्भवः ॥1॥ उत्तरा फाल्गुनी, पुनर्वसु, पुष्य, धनिष्ठा, हस्त ये चन्द्रादि ग्रहों के नक्षत्र है, केतु और सूर्य के विशाखा नक्षत्र और राह का शतभिसा नक्षत्र है ।14 1 ।।
शुक्र: सोमश्च स्त्रीसंज्ञा शेषास्तु पुरुषा ग्रहाः।
नक्षत्राणि विजानीयान्नामभिर्देवतैस्तथा ।।421 शुक्र और चन्द्रमा स्त्री मंजक हैं, भेष ग्रह पुरुष संज्ञक हैं । नक्षत्रों का लिगा उनके स्वामियों के लिग के अनुसार अवगत करना चाहिए ।।211
ग्रहयुद्धमिदं सर्व य: सम्यगवधारयेत् ।
स विजानाति निग्रंत्यो लाकस्य तु शुभाशुभम् ।।43॥ जो निग्रन्थ भनी मांति पूर्ण पहयुद्ध को मानता है, वा लोक का शुभाशुभन्य को जानता है ।।43॥
इति नग ये भद्रबाहु के निमित ग्रहयुद्धो नाम चतुर्विशतितमोऽध्यायः ॥2411
विवेचर - प्रहयुद्ध के चार मंद है --भेद, उल्लेख, अंगुमदद और अपभव्य 1 भेदयुद्ध में वर्ग का नाश, मुहद और नीनों में मंद होता है । उल्लन युद्ध में शस्त्रभय, मन्त्रिविरोध और दुर्भिक्ष होता है । अंश गर्दन युद्ध में राजाओं में युद्ध, यास्त्र, रोग, भन से पीड़ा और अवमर्दन होता है तथा अपनत्र युद्ध में राजा गण युद्ध करते हैं । गूर्य दोपहर में आकन्द होता है. पूर्वाह्न में पीर ग्रह तथा अपराह्न में यायी आह आनन्द संजक होते हैं । वृध, गूग और पनि ये सदा पौर हैं। चन्द्रमा नित्य आऋन्द है । फतु, मंगल, राहु और कमायी है । इन ग्रहों कहत होने से आक्रन्द, पायी और पौर नमानुगार नाश को प्राप्त हो है, जयी होने पर स्वर्ग को जय प्राप्त होती है। पौरग्रह से पौरग्रह के टकराने पर पुरयासी गण और पौर राजाओं का नाश होता है 1 इस प्रकार यापी और माकन्द ग्र, या पीर और यायो ग्रह परस्पर हत होने पर आन-अपने अधिकारियों को कष्ट कर देता है । जो ग्रह दक्षिण दिशा में रखा, कम्पायमान, टेढा, क्षुद्र और किसी ग्रह से ढंका हुआ, विकराल, प्रभाहीन और विवर्ण दिखलायी पड़ता है, वह पराजित कहलाता है। इससे विपरीत लक्षण वाला ग्रह जयी कहलाता है । वर्षा काल में सूर्य के आगे मंगल के रहने से अनावृष्टि, शुक्र के आगे रहने से वर्मा, गुरु के आगे रहने से गर्मी और बुध के आगे रहने से वायु चलती है : सूर्य-मंगल, शनि-मंगल और गुरु-मंगल
1. च भूत् मु० । 2. कारस्न पु• ।
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भद्रबाहुसंहिता
के संयोग से अवर्षा होती है। बुध-शुक्र और गुरु-बुध का योग अवश्य वर्ग करता है । क्रूर ग्रहों से अदृष्ट और अयुत बुध और शुक्र एक राशि में स्थित हों और यदि उन्हें बृहस्पति भी देखता हो तो वे अधिक महावृष्टि के देने बाले होते हैं । क्रूर ग्रहों से अदृष्ट और अयुत (भिन्न) बुध और बृहस्पति एक राशि में स्थित हों और यदि शुक्र उन्हें देखता हो तो वे अधिक अच्छी वर्षा करते हैं । कर ग्रहों से अदृष्ट और अयुत (भिन्न और शक एकत्र स्थित हो और यदि बुध उन्हें देखता हो तो वे उत्तम वर्षा करते है। शुत्रा और चन्द्रमा या मंगल और चन्द्रमा यदि एकः राशि पर स्थित हो तो सर्वत्र बर्षा होती है और फसल भी उत्तम होती है। सूर्य के सहित वृहस्पति यदि एक राशि पर स्थित हो तो जब तक वह अस्त न हो जाय, तब तक वर्षा का योग समझना चाहिए । शनि और मंगल का एक राशि पर होना महावृष्टि का कारण होता है। इस योग के होने से दो महीने तक वर्षा होती है, पश्चात् वर्षा में रुकावट उत्पन्न होती है । सौम्य ग्रहों से अदष्ट और अयुत शनि और मंगल यदि एक स्थान पर स्थित हों तो वायु का प्रकोप और अग्नि का भय होता है।
एक राशि या एक ही नक्षत्र पर राह और मंगल आ गायें तो दोनो वर्या का नाश करते हैं। गुरु और शुक्र यदि एकत्र स्थित हो तो असमय में वर्षा होती है। सयं स आगे शक या बुध जायें तो वर्षा काल में निरन्तर होती रहती है । मंगल के आगे सूर्य की गति हो तो वह वर्षा को नहीं रोकता है । विन्तु सूर्य के आग मंगल हो तो वर्षा को तत्काल रोक देता है। बृहस्पति के आगे शुक्र हो तो वह अवश्य वृष्टि करता है; किन्तु शुत्र ने आगे वृहस्पति हो तो वा का अवरोध होता है । बुध के आधे शुक्र वा होने से महावृष्टि और शुक्र के आगे बुध के होने पर अल्प वृष्टि होती है । यदि दोनों के मध्य में सूर्य या अन्य ग्रह आ जाये तो वर्षा नहीं होती। अनिश्चित मार्ग में गमन करता हआ चूध यदि मात्र को छोड़ दे तो सात दिन या पाँच दिन तक लगातार वर्षा होती है : उदय या अस्त होता हुआ बुध यदि शुक्र से आगे रहे तो शीत्र ही वर्पा पैदा करता है। जल नाड़ियों में आने पर यह अधिक फल देता है । बुध, बृहस्पति और शुक्र ये तीनो ग्रह एक ही राशि पर स्थित हों और कर ग्रहों से अदृष्ट और अयुत हो तो इन्हें महावृष्टि करने वाल समझने चाहिए । शनि, मंगल और शुभ तीनों एक राशि पर स्थित हों और गुरु इन्हें देखता हो तो निस्सन्देह ना होती है । मूर्य, शुक्र और बुध इनके एक राशि पर होने में अल्पवष्टि होती है । मयं, शर और बहस्पति के एक राशि पर रहने से अतिष्टि होती है । शनि, शक्र और मंगाल के एकत्र होते हुए गुरूस देखे जाने पर साधारण वर्षा होती है । शनि, राहु और पंमल ये तीनों एक राणि पर स्थित हो तो ओम के साथ वर्षा होती है । सभी ग्रह एक ही राशि पर आ जायें तो दभिक्ष. अवर्षा और रोग द्वारा कष्ट होता है। शुक्र, मंगल, शनि और बृहस्पति ये ग्रह
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एक स्थान पर स्थित हो, तो वर्षा रोक देते हैं । उयत ग्रह स्थिति में देश में अन्न का भी अभाव हो जाता है । धान्य भाव महंगा विकता है। मई, वापास, जूट, सन आदि का भाव नी तेज होता है । बिहार में भूकम्प होने की स्थिति आती है। जापान और वर्मा में भूकम्प होते हैं। मंगल, बुध, गुरु और शुक के एक स्थान पर स्थित होने से रजो वृष्टि होती है । दुभिक्ष; अन्न, घी, गुड़, चीनी, सोना, चांदी, माणिक्य, मंगा आदि पदार्थों का भाब भी तेज ही होता है। नगर और गांवों में अशान्ति दिखलायी पड़ती है। बिहार, आसाम, उड़ीमा, बांगलादेश, प. बंगाल आदि पूर्वी क्षेत्रों में साधारण वी और माघारण ही फसल होती है। पंजाब, दिल्ली, अजमेर, राजस्थान और हिमालय प्रदेश की सरकारों के मन्त्रिमण्डल में परिवर्तन होता है। इटली ईरान, अरब, मिना इत्यादि मुस्लिम राष्ट्रों में भी खाद्यान्न की कमी होती है। उक्त राष्ट्रों की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति विगड़ती जाती है। गंगल, शक, णांन आरसह ये ग्रह यदिक गशि पर आ जायें तो मेघ काभी वर्पा नहीं करते; दुगक्ष होता है, धान्य और गुम्य दोनों ही प्रकार के अनाजों की कमी होती है तथा इनके मंग्रह में अनेक प्रकार का लाभ होता है। मंगल, बृहस्पति, शुक्र और शनि ये ग्रह एक साथ बैठे हों तो वर्षा का अभाव होता है। इन ग्रहों के युद्ध गं व्यापारियों को भी नष्ट होता है। कागज, कपड़ा, रशम , चीनी के व्यापार में घाटा होता है। मोटे अनाजों के भाव बहुत ऊँचे बढ़ते हैं, जिसमे खरीदने वालों की संख्या घट जाती है। फिर भी देश में शान्ति रहती है । सूर्य, गुरु, पानि, शुत्र और राहु इन ग्रहों के एक साथ रहने से मघ वर्षा नहीं करते हैं और सब धान्यों का भाव महंगा रहता है। चार वा पाँच ग्रहों के एक माथ रहने से अधिक जल की वर्षा या मही गधिर नावित हो जाती है । बुध, गुरु, शुक्र, सूर्व और चन्द्रमा इन ग्रहों के एक स्थान पर होने । नेता निणा में जनता का विनाश होता है। दुभिक्ष, अन्न और मवेशी का अभाव होता है । उक्त ग्रह स्थिति वर्मा, लका, दक्षिण भारत, मद्राम, महाराष्ट्र इन प्रदेशों के लिए अत्यन्त अशुभकारखा है। उक्त प्रदेशों में अन्न का अभाव बडे उग्र और व्यापक रूप में होता है।
पूर्वीय प्रदेशों -बिहार, बंगाल, आसाम में वर्षा की कमी तो नहीं रहती किन्तु फसल अच्छी नहीं होती है। उक्त प्रदेशों में राजनीतिक उलट-फेर भी होते हैं । हैजा, प्लेग जैसी संक्रामक बीमारियां फैलती हैं । घरेला यद्ध देश के प्रत्येक भाग में आरम्भ हो जाते हैं । पंजाब की स्थिति बिगड़ जाती है, जिससे वहाँ शान्ति स्थापित होने में कठिनाई रहती है। विदेशों के साथ भारत का सम्पर्क बढ़ता है। नये-नये व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं। देश के व्यापापियों की स्थिति अन्त्री नहीं रहती है। छोटे-छोटे दुकानदारों को लाभ होता है। बडे-बडे व्यापारियों की स्थिति बहुत खराब हो जाती है । खनिज पदार्थों की उत्पत्ति बढ़ती है। कानाकौशल का विकास होता है । देश के कलाकारों को सम्मान प्राप्त होता है। साहित्य
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भद्रबाहुमंहिता
की उन्नति होती है। नवीन साहित्य के सृजन के लिए वह उत्तम अवसर है । यदि परम्परानुसार ग्रहों के आगे सौभ्य ग्रह स्थित हो तो वर्षा अच्छी होती है, साथ ही देश का आर्थिक विकास होता है और देश के नये मन्त्रिमण्डल का निर्वाचन भी होता है। धारा सभाओं और विधान सभा के सदस्यों में मतभेद होता है | विश्व में नवीन वस्तुओं का अन्वेषण होता है, जिससे देश की सांस्कृतिक परम्परा का पूरा विकास होता है। नृत्य, गान और उसी प्रकार के अन्य कलाकारों को साधारण सम्मान प्राप्त होता है। यदि शुक्र, शनि, मंगल और बुध खे ग्रह बृहस्पति से युत या दृष्ट हों तो सुभिक्ष होता है, वर्षा साधारणतः अच्छी होती है । दक्षिण भारत में फसल उत्तम उपजती है । सुपाड़ी, नारियल, चावल, एवं गुड़ का भाव तेज होता है। जब क्रूर ग्रह आपस में युद्ध करते हैं तो जन-साधारण में भय, आतंक और हिंसा का प्रभाव अंकित हो जाता है। शुभ ग्रहों का युद्ध शुभ फल देता है ।
पंचविंशतितमोऽध्यायः
नक्षत्रं ग्रहसम्पत्या कृत्स्नस्यार्थं शुभाशुभम् । तस्मात् कुर्यात् सदोत्थाय नक्षत्रग्रदर्शनम् ॥
समस्त तेजी-मन्दी नक्षत्र और ग्रहों के शुभाशुभ पर निर्भर करती है, अत: सर्वदा प्रातः उठकर नक्षत्रों और ग्रहों का दर्शन करना चाहिए ||
सर्वे यदुत्तरे काष्ठे ग्रहाः स्युः स्निग्धवर्चसः । तदा वस्त्रं च न ग्राह्यं सुसमासाम्यमर्धताम् ॥21
यदि स्निग्ध, तेजस्वी ग्रह उत्तर दिशा में हो तो वस्त्र नहीं लेना चाहिए: क्यों कि वस्त्रों के मूल्य में समता रहती है, मूल्य में च-बढ़ी नहीं होती ॥2
क्षीरं क्षौद्र यवाः कंगुरुदाराः सस्यमेव च । दौर्भाग्य चाधिगच्छन्ति नंवा निचया यद्बुधः ॥३॥
दूध, मधु, जौ, गुरु, धान्य आदि पदार्थ बुध की स्थिति के अनुसार तेज और
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पचविंशतितमोध्यायः
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मन्दे होते हैं । अर्थात् उस्त पदार्थों की स्थिति बुध पर आथित है ।।3।।
पष्टिकानां विरागाणां द्रव्याणा' पाण्डुरस्य च ।
सन-कोद्रव-कंगनां नीलाभानां शनैश्चरः ।।। साठिका चावल, श्वेतरंग से भिन्न अन्य रंग के पदार्थ, मन, कोद्रव, कंगन और समस्त नील पदार्थ शनैश्चर के प्रतिपुद्गल हैं ॥६॥
यव गोधूम-बीहोगा शुक्लधान्य-मसूरयोः ।
शूलीनां चैव द्रव्याणां शुक्रस्य प्रतिपुदालाः ॥5॥ जौ, गहूँ, चावट, ज्वेत रंग के अनाज, मसूर, गूलर आदि पदाथं शुक्र के प्रति पुद्गल है ।।51
मधु-सपि:-तिलानाञ्च क्षीराणां च तथंव च ।
कुसुम्भस्यातसीनां च गर्भाणां च बुधः स्मृतः ।।6।। मधु, धी, तिल, दूध, पुष्प, केसर, तीसी, गर्भ आदि बुध के प्रतिपुद्गल हैं ।।6।।
कोशधान्य सर्षपाश्च पीतं रक्तं तथाग्निजम्।
अंगारकं विजानीयात् सर्वेषां प्रतिपुद्गलाः ॥7॥ कोश, धान्य, सपंप, पीत-रक्त वर्ण के पदार्थ, अग्नि में उत्पन्न पदार्थ मंगल के प्रतिगुद्गल हैं !17|
महाधान्यस्य महतामिक्षणां शर-वंशयोः ।
गुरूणां मन्दपोतानामयो यो बृहस्पतिः ॥8॥ मोटे धान्य, इक्ष, बंश नया बड़े-बड़े मन्द पोले पदार्थ बृहस्पति के प्रतिपुद्गल है ।।81
मुक्तामणि-जलेशानां सूर-सौ वीर-सोमिनाम् ।
शृषिणामुदकानां च सौम्यस्य प्रतिपुद्गला: ॥9॥ नुक्ता-मणि, जल उदान्न पदार्थ, सोमलता, वर या अन्य सुटे पदार्थ, कांजी, गी पदार्थ और समस्त जलीय पदार्थ पन्द्रमा के प्रति पुदगल है 11911
उद्भिजानां च जन्तूनां कन्द-मूल फलस्य च । उष्णवीवियाकस्य रवस्तु प्रतिगुद्गलाः ॥10॥
1. पाय ॥12. !
. । 3. मालाना भु । 4.
निजग म ।
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भद्रबाहुसंहिता
पृथ्वी के उत्पन्न हुए पदार्थ, कन्दमूल, फल और उष्ण पदार्थ सूर्य के प्रति पुद्गल हैं। यहां प्रतिपुद्गल शब्द का अर्थ उस ग्रह की स्थिति द्वारा उक्त पदार्थों की तेजी - मन्दी जानने का रूप है 1110
410
नक्षत्रं भार्गवः सोमः शोभेते सर्वशो यथा ।
यथा द्वारं तथा विन्द्यात् सर्ववस्तु यथाविधि ॥1॥
किसी भी नक्षत्र में शुक्र और चन्द्र सर्वां रूप में कोशित हो तो उस नक्षत्र के द्वार, दिशा और स्वरूप आदि के द्वारा वस्तुओं की तेजी - मन्दी कही जाती है । ] ॥
विवर्णा यदि सेवन्ते ग्रहा व राहुणा समम् । दक्षिणां दक्षिणे मार्गे वैश्वानरपथं प्रति ॥12॥
गिरिनिम्ने च निम्नेषु नदी - पल्वलवारिषु । एतेषु वापयेद् बीजं स्थलवज्जं यथा भवेत् 11330 मल्लजा मालवे देशे' सौराष्ट्र सिन्धुसागरे । एतेष्वपि तथा मन्दं प्रियमन्यत् प्रसूयते ॥14॥
यदि भरणी नक्षत्र में राहु के साथ अन्य ग्रह विकृत वर्ग के होकर स्थित हों तथा दक्षिण मार्ग में वैश्वानर पथ के प्रति गमनशील हो तो स्थल -- नीरस भूमि को छोड़कर पर्वत की ऊंची-नीची तलहटी, नदियों के तट एवं पोखरों में बीज बोना चाहिए। काली मिरच मालव देश, गुजरात, समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों में मन्दी होती है। इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुएँ महंगी होती हैं ।।12-1400
कृत्तिका - रोहिणीयुक्ता बुध-चन्द्र-शनैश्चराः । यदा सेवन्ते सहितास्तदा विन्द्यादिदं फलम् ॥15॥ आयविकं गुडं तेल कार्पासो मधुसर्पिषी । सुवर्ण रजते मुद्गाः शालयस्तिलमेव च || 16: स्निग्धे याम्योत्तरे मार्गे पञ्चद्रोणेन शालयः । दशादकं पश्चिमे स्थात् दक्षिणे तु षडाढकम् ॥17॥
जय बुध, चन्द्र और शनैश्चर वे तीनों एक साथ कृत्तिका विद्ध रोहिणी का योग करें तब घृरा, गुड़, तेल, कपारा, मधु, स्वर्ण, चांदी, मूंग, शाली चावल, तिल आदि पदार्थ महंगे होते है । यदि उक्त ग्रह स्निग्ध दक्षिणोत्तर मार्ग में गमन करते
1. मल्लवा मलबी राष्ट्र मुख्य । 3. गवन सुरु |
Εξυ
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हों तो धान्य का भाव पाँच द्रोण प्रमाण होता है । पश्चिम में दश आढक भोर दक्षिण में छः आढक प्रमाण होता है ।।। 5-1711
उत्तरेण तु रोहिण्यां चतुष्कं कुम्भ मुच्यते।
दशकं प्रसंगतो विन्यात् दक्षिणेन च तुर्दशम् ॥18॥ यदि उत्तर में रोहिणी हो तो चतुष्क कुम्भ कहा जाता है । इससे दश आढक और दक्षिण में होने से चौदह आढक प्रमाण गाली का भाव कहा गया है ॥18॥
नक्षतस्य यदा गच्छेद दक्षिणं शुक्र-चन्द्रमाः।
सुवर्ण रजतं रत्नं कल्याणं प्रियतां मिथ: 1119॥ जब शुक और चन्द्रमा कृतिका विद्ध रोहिणी नक्षत्र के दक्षिण में जाथें तब स्वर्ण, चाँदी, रन और धान्य महँग होते हैं ।। 19॥
धान्यं यत्र प्रियं विन्द्याद्गावो नात्यर्थदोहिनः ॥
उत्तरेण यदा यान्ति नैतानि चिनुयात् तदा ॥20॥ जब उक्त ग्रह कृनिका विश रोहिणी नक्षत्र के उत्तर में जायें तो धान्य महंगा होता है, गायें दोहने के लिए प्राप्त नहीं होती हैं अर्थात् महेंगी हो जाती हैं।।20।।
उत्तरेण तु पुष्यस्य यदा पुष्यति चन्द्रमाः । भौमस्य दक्षिणे पावें मघासु यदि तिष्ठति ॥21॥ मालदा माल वैदेहा यौधेयाः संज्ञनायकाः ।
सुवर्ण रजतं वस्त्रं मणिम क्ता तथा प्रियम् ॥22॥ जब चन्द्रमा उत्तर में पुष्य नक्षत्र का भोग करता है तथा मधा में रहकर मंगल का दक्षिण में भोग करता है, तब काली मिर्च, नमक, मोना, चांदी, वस्त्र, मणि, मुरता एवं मशाले के पदार्थ गहग होते हैं ।।21-22॥
चन्द्रः शको गुरुभौंमो मघानां यदि दक्षिण।
वस्त्रं च द्रोणमेघं च निदिशेन्नात्र संशयः ॥23।। चन्द्र, शुत्रा, गुरु और मंगल अदि मघा के दक्षिण में हो तो वस्त्र महंग होते है और मेघ द्रोण प्रमाण वर्षा करल है, इसमें मन्देह नहीं है ॥2311
आरहेद बालिवद्वापि' चन्द्रश्चैव यथोत्तरम् । ग्रहैयु क्तस्तु (वर्षति तदा कुम्भं तु पञ्चकम् ॥24॥
। .. | 3.
| ग.: । 4.
लश्च दापी ज भ चन
मक । 2. ५ यसन म !
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भद्रबाहुसंहिता पदि ग्रहमुक्त चन्द्रमा उतर दिशा में आरोहण करे या उत्तर का स्पर्श करे तो पांच कुम्भ प्रमाण जल की वर्षा होती है अर्थात् खूब जल बरसता है 12.41
राहुः केतुः शशी शुको भौमश्चोत्तरतो यदा। सेवन्ते चोत्तरं द्वारं यान्त्यस्तं वा कदाचन ॥25॥ निवृत्ति चापि कुर्वन्ति भय देशेषु' सर्वशः । बहुतोयान् समान् विन्द्यान् महाशालींश्च यापयेत् ॥26॥ कार्पासास्तिल-माधाश्च सपिश्चात्र प्रियं तथा ।
आशु धान्यानि वर्धन्ते योगक्षेमं च हीयते ॥27॥ जब राहु, केतु, चन्द्रमा, शुक्र और मंगल उतर में उत्तर द्वार का सेवन करें अथवा अस्त को प्राप्त हों अथवा स्त्री हो तो सभी देशों में भय होता है । अधिक जल की वर्षा होती है और चावल भी खूब बाया जाता है । कपास, तिल, उड़द, घी महंगा होता है । वपां की अधिकता के कारण बावड़ी-तालाबों का जल योन ही बढ़ता है, जिससे योग-क्षेम-गुजर-बसर में कमी आती है 125-27।।
चन्द्रस्य दक्षिणे पार्वे भार्गवो वा विशेषतः । उत्तरांस्तारकान् प्राप्य तदा विन्द्यादिदं फलम् ।।28।। महाधान्यानि पुष्पाणि हीयन्ते चामरस्तदा ।
कार्पास-तिल-माषाश्च सपिश्चवार्घते तथा ॥29॥ यदि शुक्र चन्द्रमा के दक्षिण भाग में हो अथवा विशेष रूप से उत्तर के नक्षत्रों को प्राप्त हुआ हो तो महाधान्य गह, जौ, धान, चना आदि और पुष्पा-केसर, लवंगादि की कमी होती है अर्थात् उक्त पदार्थ नहेंगे होते हैं । कपास, तिल, उड़द और धी की धद्धि होती है, अत: ये पदार्थ मस्त होते हैं ।।28-2911
चित्राया दक्षिणं पाश्र्व शिखरी नाम तारका।
तयेन्दुदि दृश्येत तदा बीजं न वापयेत् ॥30॥ निभा नक्षत्र के दक्षिण पार्व में गिखरी नाम की तारिका है। यदि चन्द्रमा का उदय इग तालिका में दिखलाई पड़े तो बीज नहीं बोना चाहिए 131
गवास्त्रेण हिरण्येन सुवर्ण-मणि-मौक्तिकः ।
महिध्यजादिभिवस्र्धान्यं क्रीत्वा निवापयेत् ॥३॥ चन्द्रमा की उक्त स्थिति में गाय, अस्त्र, चाँदी, सोना, मणि, मुक्ता, महिष
1
ग । 2. वा
. 3. 4, शुभाया मु. ।
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पंचविशतितमोऽध्यायः
भी
अजा-बकरो और वस्त्र आदि नहीं चाहिए। ता यह है कि चन्द्रमा की उपर्युक्त स्थिति में अन्न उत्पन्न नहीं होता है; अतः सभी वस्तुओं से अनाज खरीद कर उसका संकलन करना चाहिए 113
चित्रायां तु यदा शक्रश्चन्द्रो भवति दक्षिणः । षड्गुणं जायते धान्यं योगक्षेमं च जायते ॥13211
जब चित्रा नक्षत्र में दक्षिण की ओर शुक्र युक्त चन्द्रमा हो तो छः गुना अनाज उत्पन्न होता है और योगक्षेम - गुजर-बसर अच्छी तरह से होती है ॥32॥ इन्द्ररग्निदेवसंयुक्ता यदि सर्वे ग्रहाः कृशाः । अभ्यन्तरेण मार्गस्थास्तारका यास्तु वाद्यतः ॥ 331 कंगु-दार- तिला मुद्गाश्चणकाः वष्टिकाः शुकाः । चित्रायोगं न सर्पेत चन्द्रमा उत्तरो भवेत् ॥34॥
संग्राह्यं च तदा धान्यं योगक्षेमं न जायते । अल्पसारा भवन्त्येते चित्रा वर्षा न संशय ॥1351
यदि सभी कमजोर ग्रह विशाखा नक्षत्र में युक्त होकर अभ्यन्तर मार्ग से बादल की ओर की ताराओं में स्थित हों और चन्द्रमा उत्तर होकर चित्रा में स्थित हो, तो कंगु, तिल, मूंग, चना, साठी का चावल आदि धान्यों का संग्रह करना चाहिए । उक्त प्रकार के योग में योगक्षेप में भोजन छाजन में भी कमी रहती है । वर्षा अल्प होती है, इसमें सन्देह नहीं है 1133-3511
विशाखामध्यगः शुक्रस्तोयदो धान्यवर्धनः । समर्थ यदि विज्ञेयं दशद्रोणक्रयं वदेत् ॥36॥
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यदि विशाखा नक्षत्र के मध्य में शुक्र का अस्त हो तो धान्य की उपज अच्छी होती है, अनाज का भाव सम रहता है । दश द्रोण प्रमाण खरीदा जाता है । 36 ।। यायिनी चन्द्र शुक्र तु दक्षिणामुत्तरो तदा ।
तारा - विशाखयो छतिस्तदाऽर्धन्ति चतुष्पदाः ॥37॥
जब यायी चन्द्र और शुक्र दक्षिण और उत्तर में हों और विशाखा की ताराओं काघात हुआ हो तो चौपायों की वृद्धि होती है ॥37॥
दक्षिणेनानुराधायां यदा च व्रजते शशी ।
अप्रभश्च प्रहीणश्च वस्त्रं द्रोणाय कल्पयेत् ॥38॥
1. युक्त: मु० 1 2. बाह्यत. भु. 3. न मु । 4. वर्गा भु ।
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भद्रबाहुसंहिता
निष्प्रभ और हीन चन्द्रमा दक्षिण मार्ग से अनुराधा में गमन करता है तो वस्त्र महंगे होते हैं |13811
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ज्येष्ठा-मूलौ यदा चन्द्रो दक्षिणं व्रजतेऽप्रभः । तवा सस्यं च वस्त्रं च अर्थश्चापि विनश्यति ॥39 प्रजानामनयो घोरस्तदा जायन्ति तामस । मस्तकयस्थ वस्त्रस्य न यन्ति तां प्रजाम् ॥40॥
जब प्रभार हित चन्द्रमा दक्षिण में ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र में आता है, तब धान्य, वस्त्र और अर्थ का विनाश होता है। उक्त प्रकार की चन्द्रमा की स्थिति में प्रजा में अन्न और वस्त्र के लिए हाहाकार हो जाता है तथा वस्त्र खरीदने में प्रजा की हानि भी होती है ।39-40 ।।
मूलं मन्देव सेवन्ते यदा दक्षिणतः शशी । प्रजाति: सर्वधान्यानां आढका तु तदा भवेत् ॥41॥
जब चन्द्रमा दक्षिण से मन्द होता हुआ मूल नक्षत्र का सेवन करता है तब सभी प्रकार के धान्यों की उपज खूब होती है और वर्षा आउक प्रमाण होती 4410
कृत्तिकां रोहिणी चित्रा पुण्या श्लेषा पुनर्वसून् । व्रजति दक्षिणश्चन्द्रो दशप्रस्थं तदा भवेत् ॥142
जब दक्षिण चन्द्रमा कृतिका, रोहिणी, पुष्य, आश्लेषा, पुनर्वसु में गमन करता है, तत्र दश प्रस्थ प्रमाण धान्य की विक्री होती है अर्थात् फसल भी उत्तम होती है ||42||
मघां विशाखां च ज्येष्ठाऽनुराधे मूलमेव च । दक्षिणे व्रजते शुक्रश्चन्द्र े तदाऽऽदकमेव च ॥14॥
शुक्र और चन्द्र के दक्षिण में मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, अनुराधा और मूल में गमन करने पर आढक प्रमाण धान्य की बिक्री होती हूं अर्थात् फसल कम होती 114311
कतिको रोहिणी चित्रां विशाखां च मघां यदा । दक्षिणेन ग्रहा यान्ति चन्द्रस्त्वाढकविक्रयः 1441
जब ग्रह दक्षिण से कृत्तिका, रोहिणी, चित्रा, विशाखा और मघा नक्षत्र में
1. शोधार्थ पू० । 2. जायति पु० 1 3. चैव मु
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पंचविंशतितमोऽध्यायः गमन करते हैं तो आढक प्रमाण वस्तुओं की बिकी होती है ।। 441
गुरु: शुक्रश्च भौमश्च दक्षिणा: सहिता यदा ।
प्रस्थत्रयं तदा वस्त्रैर्यान्ति मृत्युमुखं प्रजाः ।।451 जब गुरु, शुक्र और मंगल दक्षिण में स्थित हों तब धान्य की बिक्री तीन प्रस्थ की होती है और वस्त्र के लिए प्रजा मृत्यु के मुख में जाती है अर्थात अन्न और वस्त्र का अभाव होता है ।।4511
उत्तरं भजते मार्ग शुक्रपृष्ठं तु चन्द्रमा: ।
महाधान्यानि वधंन्ते कृष्णधान्यानि दक्षिणे ।।46।। जब शुक्र उत्तर मार्ग में आगे हो और चन्द्रमा के पीछे हो तब महाधान्यों की वृद्धि होती है । यदि यही स्थिति दक्षिण मार्ग में हो तो काले रंग के धान्य वृद्धिंगत होते हैं 1146॥
दक्षिणं चन्द्रशृंगं च दातरं देत् ।
महाधान्यं तदा वृद्धि कृष्णधान्यमयोत्तरम् ।।47।। यदि चन्द्रमा का ग दक्षिण की ओर बढ़ता दिखलायी गड़े तो महाधान्य गेहूँ, चना, जो, चावल आदि की वृद्धि होती है तथा उत्तर शृग की वृद्धि होने पर काले रंग के धान्य बढ़ते हैं ।।471
कृत्तिकानां मघानां च रोहिणीनां विशाखयोः ।
उत्तरेण महाधान्यं कृष्ण धान्यञ्च दक्षिणे ॥48॥ कृत्तिका, मघा, रोहिणी और विशाखा के उत्तर होने से महाधान्य और दक्षिण होने से कृष्ण धान्य की वृद्धि होती है 148।।
यस्य देशस्य नक्षत्रं न पीडयते यदा यदा।
तं देशं भिक्षव: स्फीता: संश्रयेपुस्तदा तदा ॥19॥ जिन-जिन देशों के नक्षत्र ग्रहों के द्वारा जब-जब पीड़ित .-घातित न हों तबतब भिक्षओं को उन देशों में प्रसन्न चित्त होकर जाना चाहिए और यहाँ शान्तिपूर्वक विहार करना चाहिए ।। 49॥
धान्यं वस्त्रमिति ज्ञेयं तस्यार्थं च शुभाशुभम् । ग्रहनक्षत्रान् सम्प्रत्य कथितं भद्रबाहुना ॥10॥
1. प्रस्थक्रयं वदा बस्बान्ति मु0 1 2. धान्नं तु मु० ।
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पदबाहसंहिता
ग्रह और नक्षत्रों के शुभाशुभ योग से धान्य और वस्त्रों के भावों की तेजीमन्दी को भद्रबाहु स्वामी ने कहा है ।।50।।
इति नन्थे भद्रबाहुनिमित्त मंग्रहयोगाधकाण्डो नाम पंचविंशतितमोऽध्यायः 12511
विवेचन-तेजी-मन्दी जानने के अनेक नियम हैं। ग्रहों की स्थिति, उनका मार्गी होना या वक्री होना तथा उनकी ध्रुवाओं पर से तेजी-मन्दी का ज्ञान करना, आदि प्रक्रियाएं प्रचलित हैं। इस संहिताग्रन्थ में ग्रहों की स्थिति पर से वस्तुओं की तेजी-मन्दी का साधारण विचार किया गया है। बारह महीनों की तिथि, वार, नक्षत्र के सम्बन्ध मे भी तेजी-मन्दी का विचार 'वर्ष प्रवोध' नामक अन्ध में विस्तार से किया गया है। यहाँ संक्षेप में कुछ प्रमुम योगों का निरूपण किया जायगा।
द्वादश पूर्णमासियों का विचार - चैत्र की पूर्ण गाणी को निर्मल आकाश हो तो किसी भी वस्तु से लाभ की सम्भावना नहीं रहती है। यदि इस दिन ग्रहण, भूकम्प, विद्य त्पात, उल्कापात, केतूदय और वृष्टि हो लो धान्य' का संग्रह करना चाहिए। गेह, जौ, चना, उडद, मंग, होना गाँदी दिन में इस पूणिमा के सातवें महीने के उपरान्त लाभ होता है। वैशाखी पूर्णिमा को आकाश के स्वच्छ रहने पर सभी वस्तुएं लीन महीनों तक सस्ती होती हैं। गेहूं, चना, वस्त्र, सोना आदि का भाव प्राय: गम रहता है। बाजार में अधिक घटा-बढ़ी नहीं होती। यदि इस पूणिमा को चन्द्र परिवेष, उल्लागात, विद्य त्पात, भूकम्प, वृष्टि, केतूदय या अन्य किसी भी प्रकार का उत्पात दिखलाई पड़े तो धान्य के साथ कपास, बस्य, रूई आदि पदार्थ तेज होते हैं। जूट का भाव भी ऊँचा उठता है । गेहूं, मूंग, उड़द, चना का संग्रह भाद्रपद मास में ही लाभ देता है। सभी प्रकार के अन्नों का संग्रह लाभ देता है। चावल, जो, अरहर, कांगुनी, कोदो, मक्का आदि अनाजों में दुगुना लाभ होता है। सोने, चांदी, माणिक्य, मोती इन पदार्थों का मूल्य कुछ नीचे गिर जाता है। वैशाखी पूर्णिमा की मध्यरात्रि में जोर से बिजली चमके
और थोड़ी-सी वर्षा होकर बन्द हो जाय तो आगामी माघ मास में गुड़ के व्यापार में अच्छा लाभ होता है। अनाज के संग्रह में भी लाभ होता है। इस पूर्णिमा के प्रातःकाल सूर्योदय के समय बादल दिखलायी पड़े तथा आकाश में अन्धकार दिखलायी पड़े तो अगहन महीन में घी और अनाज में अच्छा लाभ होता है । यो तो सभी महीनों में उक्त पदार्थों में लाभ होता है किन्तु घी, अनाज और गुड़चीनी में अच्छा लाभ होता है । वैशाखी पूर्णिमा को स्वाति नक्षत्र का चतुर्थ चरण हो तथा शनिवार या रविवार हो तो उस वर्ष यापारियों को लाभ के साथ हानि भी होती है। बाजार में अनेक प्रकार की घटा-बड़ी चलती हैं। ज्येष्ठ
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पंचविंशतितमोऽध्यायः
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पूर्णिमा को आकाश स्वच्छ हो, वादलों का अभाव रहे, निर्मल चाँदनी वर्तमान रहे तो मुभिक्ष होता है, साथ ही अनाज में साधारण लाभ होता है। बाजार सन्तुलित रहता है, न अधिक ऊंचा ही जाता है और न नोचा ही। जो व्यक्ति ज्येष्ठ पूर्णिमा की उपत स्थिति में धान्य, गुड़ का संग्रह करता है, वह भाद्रपद और आश्विन में लाभ उठाता है। गेहूँ, चना, जी, तिलहन में पौष के महीने में अधिक लाभ होता है । यदि इस पूणिमा को दिन में मेघ, वर्षा हो और रात में आकाण स्वचल रहे तो व्यापारियों को माधारण लाभ होता है तथा मार्गशीर्ष, माघ और फाल्गन में वस्तुओं में हानि होने की सम्भावना है। रात में इस तिथि को बिजली गिरे, उल्कापात हो, भूकम्प हो, चन्द्र का पग्नि दिखलाई गहे. इन्द्रधनुष लाल या काले रंग का दिखलाई पड़े तो अनाज का संग्रह करना चाहिए। इस प्रकार नी स्थिति में अनाज में कई मुना लाभ होता है । गोना, चांदी के मूल्य में माधारण तेजी आती है। ज्याठी पूर्णिमा को मध्य रात्रि में चन्द्र परिवेप उदास-सा दिखलाई पड़े और स्थार रह-रहकर बोलें तो अन्नसंग्रह की सूचना समदाना चाहिए। चारे का भाव भी तेज हो जाता है और प्रत्येक वस्तु मलाम होता है। घी का भाव कुछ सस्ता होता है तथा तेल की कीमत भी गस्ती होती है। अगहन और पौष मास में सभी पदामों में लाभ होता है। काम का महीना नाम लिए उतम है । यदि ज्याठी पूर्णिमा को चन्द्रोदय या चन्द्रास्त गम्य उल्लापात हो और आकाश में अनेक रंग-बिरंगी तागाएं चमकती हुई भूमि पर गिरें तो सभी प्रकार के अनाजों में तीन महीने के उपरान्त लाभ होता है। तांबा, पीतल, यांसा
आदि धातुओं में और मयाले में कुछ त्राटा भी होता है। ___ आपाढी पूर्णिमा को आकाश निर्मल और उबन्न चाँदनी दिवसायी पड़े तो सभी प्रकार के अनाज पांच महीने के भीतर तंज होते हैं। नानिक महीने में ही अनाज में लाभ होना प्रारम्भ हो जाता है । गोन का भाव माघ के महीन ग महंगा होता है । सट्टे के व्यापारियों को साधारण लाभ होता है। मृत, बापदा और जूट के व्यापार में लाभ होता है; किन्तु इन वस्तुओं का व्यापार अस्थिर रहता है, जिगसे हानि होने की भी गम्भावना रहती है। यदि आपाही गिगा को मध्य रात्रि के पश्चात आकाश लगातार निर्मन रहे तथा मध्य गनिन; गहल आकाश मेघानान्न रह तो ती फमन पं. अनाज में लाभ होता है। अगहनी और भदई फराल के अनाज में लाभ नहीं होता । गाधारणतया बस्तुओं भाव ऊँन आने हैं। घी, ग्ड, लेन, नांदी, बारदाना, गुवार, मटर आदि वनक्षी का रुम भी नेजी नी ओर रहता है । शेयर के बाजार में भी हीनाधिक-पटर-ट्री होती है। लोहा, रबर इन पदार्थों में बनी बस्तुओं की व्यापार में लान होने की गम्भावना अधिया रहती है। यदि आपाढी पूर्णिमाको दिन भर बा हो और गत में चांदनी न निकले, बुवा-बूंदी होती हो तो अनाज में लाभ होने की सम्भावना नहीं
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भद्रबाहुसंहिता
है। केवल सोना, चांदी और गुड़ के व्यापार में अच्छा लाभ होता है। गुड़, चीनी में कई गुना लाभ होता है । यदि इसी पूर्णिमा को बुध वक्री हुआ हो तो छ: महीने तक सभी पदार्थों में तेजी रहती है। जो पदार्थ विदेशों से आते हैं, उनका भाब अधिक तेज होता है। स्थानीय स्तरन्न पदार्थों का भाव अधिक तेज होता है। श्रावणी पूर्णिमा को आकाश निमंल हो तो सभी वस्तुओं में अच्छा लाभ होता है। यदि इस दिन स्वच्छ चाँदनी आकाश में व्याप्त दिखलाई पड़े तो नाना प्रकार के रोग फैलते हैं तथा लाल रंग की सभी वस्तुओं में तेजी आती है। गेहूं और चावल की कमी रहती है। जिस स्थान पर श्रावणी के दिन चन्द्रमा स्वच्छ तथा काले छेदवाला दिखलाई पड़े, उस स्थान में दुर्भिक्ष के साथ खाद्यान्न की बड़ी भारी कमी हो जाती है, जिसमें सभी व्यक्तियों को कष्ट होता है। लोहा, चांदी, नीलम आदि बहुमूल्य पदार्थों का भाव भी तेज होता है 1 भाद्रपद मास की पूर्णिमा निर्मल होने पर धान्य का संग्रह नहीं करना चाहिए 1 यदि यह पूर्णिमा चन्द्रोदय से लेकर चमास्तम निर्म मामला नहीं होता है तथा खाद्यान्नों की कमी भी नहीं रहती है । सोना, चांदी, शेयर, चीनी, गुड़, घी, किराना, वस्त्र, जून, कपास आदि पदार्थ समर्थ रहते हैं। इन पदार्थों के भावों में अधिक ऊंच-नीच नहीं होती है। घटा-बढ़ी का कारण शनि, शुक्र और मंगल हैं। यदि हम पूर्णिमा के नक्षत्र को इन तीनों ग्रहों द्वारा वेधा जाता हो, या दो ग्रहों द्वारा देधा जाता हो तो सभी पदार्थ महंग होते हैं । और तो और मिट्टी का भाव भी महंगा होता है। जिन पदार्थों की उत्पत्ति मशीनों के द्वारा होती है, उन पदार्थों में कार्तिक मास में महंगाई होना आरम्भ होता है । आश्विन पूर्णिमा के दिन आकाश स्वच्छ, निर्मल हो तो धान्य का संग्रह करना अनुचित है। क्योंकि वस्तुओं में लाभ होने की सम्भावना ही नहीं होती है। आकाश में मेघ आच्छादित हों तो अवश्य संग्रह करना चाहिए, क्योंकि इस खरीद में चैत्र के महीने में लाभ होता है।
कानिक पूर्णिमा को मेघायल होने पर अनाज में लाभ होता है। चीनी, गुड़ और धी में हानि होती है। यदि यह पूर्णिमा निर्मल हो तो सामान्य तथा मभी वस्तुओं का भाव स्थिर रहता है। व्यापारियों को न अधिक लाभ ही होता है और न अधिक पाटा ही। मार्गशीर्ष और पौष को पूर्णिमा का फलादेश भी उपर्युक्त कातिक पूर्णिमा के तुल्य है। माघी पुणिमा को बादल हों तो धान्य खरीदने से मानवें महीने में लाभ होता है और पाल्गुनी पूर्णिमा को बादल हों, उल्कागात या विध पात हो तो धान्य में नातवें महीने में अच्छा लाभ होता है । घी, चीनी, गुड़, कपास, रूई, जूट, मन और पाट के व्यापार में लाभ होता है । माघी और फाल्गुनी इन दोनों पूणिमाओं के स्वच्छ होने पर सोने के व्यापार में लाभ होता है।
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पंचविशतितगोऽध्यायः
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भौम ग्रह की स्थिति के अनुसार तेजी-मन्दी का विचार-जब मंगल मार्गी होता है, तब रूई मन्दी होती है। मेष राशि का मंगल मार्गी हो तो मवेशी सस्ते होते हैं । वप का मंगन मार्गी हो तो कई तेज होकर मन्दी होती है तथा चांदी में पटा-बढ़ी होती है। मिथुन और कर्क रागि के मामी मंगल का पाला तेजी-मन्दी के लिए नहीं है। सिंह का मंगल मार्गी होने पर एक माग तक अलमी और गले में तेजी रहती है। कन्या का मंगल मार्गी हो तो की, अलमी, गेह, तेल, तिलहन आदि पदार्थ तज होकर गन्दे होते हैं । तुला का मंगल मार्गी होने पर गजगत और कच्छ में धान्य भाव को महंगा करता है; वृश्चिक का मंगल पार्टी होने पर चौपायों में लाभ वारता है । धनु का मंगल मार्गी होने पर धान्य सस्ता करता है। मसर का मंगल मार्गी हो तो पंजाब तथा बंगाल में धान्य का भाव रोज होता है। पुम्भ का मंगल मार्गी होने पर सभी प्रकार ने धान्य ससे होते है और मीन के मंगल में भी धान्य ना भाव सस्ता ही रहता है। मेष और वपिच के बीच राशियों में मंगल के रहने पर दो मारा तक धान्य भाव तेज रहता है। जिस महीने में सभी ग्रह बकी हो जायें, उस पास में अधिक महँगाई होती है । मीन में मंगन के वक्री होने पर धान्य और की सेज; कुम्भ मे वत्री होने पर धान्य गस्त और ची, तेल आदि तेज; मबार में मंगल का वक्री होने से लोहा, मगीनरी, विशु दयन्त्र, गेहूँ, अलसी आदि पदार्थ तंज होते है। कर्क राशि में मंगल के बकी होने में गई और शलमी में घटा-बढ़ी होती रहती है। जिस राशि में मगन बनी होता है, उस राशि के धान्यादि अवश्य तेज होते हैं। माघ अथवा पाल्गुन में चरण पक्ष की । 2.3 तिथि को मंगल के बकी होने पर अन्न का गंग्रह करना चाहिए । इग गंग्रह में 15 दिनों के बाद ही चौगुना लाभ हो जाता है । जिस मास में पूर्णिमा के दिन चर्या होती है, उस मास में गेहूं, घी और धान्य चज होत हैं।
वन्ध ग्रह की स्थिति से जी-मन्त्री विगर मेष रागि में त्रुध के रहने से सोना महंगा होता है। 17 दिन में गाय, बैल आदि पशु की काहानि होती है। मोती, जवाहरात भी ज होते हैं। वागशि पं. ध में मभी यसाओं में साधारण घटा-बढ़ी ; मिथुन राशि का बुध में मभी प्रकार अनाम रास्त्र; रेक के बुध में अफीम का भाव तंज होता है 1 मिह गालि के वृध में धान्य सामाव सा रहता है, खट्ट पदार्थ, देवदार तंज होते हैं और ! 8 दिन में गुन, वस्त्र, रेलवे . स्लीपर, माधारण लबाड़ी का भात्र तेज होता है । कन्या राशि में बुध रहने में छः महीन तक सोना, चीनी तग होते हैं, पश्चात मन्द हो जाता है। तुला राशि बुध में धान्य महगे, वृश्चिक राशि बुध में ची' और अफीम महगी, भानु न में अफीम महँगी, मकर के बुध में समभाव, गुमा के बध में धान्या में पटा-बही और मीन के वुध में कई अलसी मथी, लीग भी तेज होनी है। काल्गुन और आगाढ़ महीनों में बुध का उदय होने श धान्य, घी और लाल पदार्थ मंहग होत है। पूर्व में
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भद्रबाहुसंहिता
बुधोदय होने पर 25 दिन के बाद रुई में 10 प्रतिशत तेजी आती है और पश्चिम में बुधोदय होने पर रूई, कागास, सुत आदि में सस्ती आती है। मार्गशीर्ष में बुधोदय हो तो कई नेज होती है । पूर्व दिशा में बुध का अस्त होने से 33 दिनों में धान्य, घृतानि गन्दे होते है किन्तु एई में 15 प्रतिशत की तेजी आती है । पश्चिम में बुध के अरत होन म 15 दिन में सई 10 प्रति मत तक सस्ती होती है । मेष राशि से लेकर सिंह गशि तक बुद्ध ने मार्गी होने में कपड़ा, चावल, हाथी, घोड़ा आदि पदार्थ सरने होने हैं। कन्या और तुला में बुध ये मार्गी होने से चन्दन, गुत, घृत, चीनी, अलमी भादि पदार्थ मोजोन हैं ! पति में बुरे होने से एरण्ड, धिनीला और मूंगफली तेज हो जायगी । कुम्भ और मीन में बुद्ध ने पार्टी होने से गोना. सुपारी, गरमों, मोठ, लाख, कपड़ा, नु, खाँध, तल और मूंगफली आदि पदार्थ राज होते हैं।
गुरु की स्थिति का फलादेश वृष राशि में गय के रहने में घी और धान्य का भाव अत्यन्त तेज होता है । मिथुन राशि में मुह व रहने गे रूई. तांबा, चांदी, नारियल, तल, सत, अफीम पदार्थ पहले तेज, पपचात मन्दे होते हैं। कर्क राग्नि में गरु के रहने में सभी पदार्थ महंगे होते हैं। सिंह में बहस्पति के रहने गे गेह, घी तेज और कन्या में रहने ग ज्वार, मूंग, मोठ, चावल, घृत, तैला, सिंघाड़ा छ: महीने के बाद गंज, रुई तीन-चार महीने में तंज तथा चाँदी मन्दी होती है । वृश्चिक राशि के गर्भ में सभी वस्तुएं तेज होती हैं । धनु राशि के गुरु में गहूं, चावल, जो आदि अन्न महंग: तैल, गुड़, पद्य सस्ते होते हैं । मबार राशि में गुरु के रहने से तीन महीने महंगी पश्चात् मन्दी आती है। मीन राशि के गुम में सभी वस्तुएँ तेज होती है। महक अस्त होने के 31 दिन बाद रूई में 10-200 रुपये की मन्दी आती है। फाल्गन मास में गरू अस्त हो तो धान्य तज और रूई में 10-20 रूपये की मन्दी आती है। गुरु वा बक्री होने पर मुभिक्ष, धान्य भाव सस्ता, धातु, रुई, केसर, वागुर आदि पदार्थ सस्ते होन हैं। गुरु के मार्गी होने से चांदी, सरगों, रूई, चावल, घी में निरन्तर घटा-पढ़ी होती रहती है।
शुक्र को स्पिति का फलादेश—गप के शुक्र में सभी धान्य महये, वृष के शुक्र में अनाज महेंगा, मई, मन्दी और अफीम नेज; मिथुन के शुभ में रूई मन्दी, अफीम तेज; यार्क में शुक्र में सभी वस्तुएं महंगी, भाई का भाव विशेष तेज; सिंह के शक में लाल रंग के पदार्थ महँग, कन्या में सभी धान्य महंगे, तुला व शुक्र में अफीम रोज; वृश्चिक यः शक्र में अनाज मरता; धनु के शुक्र में धान्य महंगे, मकर के शुक्र में 20 दिन में सभी अन्न महंगे, कुम्भ एवं गौन के शुक्र में अनाज सस्ते होते है । सिंह का शत्र, तुना का मंगल, ककं का गर जब आता है, अब अन्न महंगा होता है।
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पंचविंशतितमोऽध्यायः
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शुक्र-उदय के दिन नक्षत्रानुसार फल
अश्विनी में शुक्र के उदय होने पर जौ, तिल, उड़द का भाव तंज होता है। भरणी में शुक्र का उदय होने से तृण, धान्य, तिल, उद्र, चावल, गेहूँ का भाव तंज होता है। कृतिका में शुक्र उदय होने से सभी प्रकार के अन्न सस्त होते हैं । रोहिणी में सापता, मृगशिरा में धान्य महेंगे, आर्दा म अल्पवृष्टि होने में महंगाई, पुनर्वगु में अन्न का भाव महँगा, पुष्य में धान्य भाव अत्यन्त महेंगा तथा आश्लपा से अनुराधा नक्षत्र तक शुधात उदय होन ग तृण, अन्न, नाष्ट, चतुष्पद आदि सभी पदार्थ महंगे होते हैं।
शु और शनि जब दोनों राशि पर बन्द हो तो सब अनाज तेज होव हैं । शुक्र बरी हो तो ममी अबाज मन्द तथा, धृत, जल व होता है । शुक्र के मार्गी होने पर 5 दिनों के उपरान्त सोना, चांदी, मोती, जवाहा आनि महँग होते हैं।
शनि का फलादेश... अनि के उदय के तीन दिन बाद ५.६ जना होती है । मूंग मशाले, चावल, गहें केमात्रा में -बड़ी होती है । अपनी प्रार नक्षत्र में शनि बनी हो तो वर्ष त गी; धान्य और चौगायों का मूल्य बढ़ जाता है। मकान र बनी होकार नपा पर जब गुम आता है तो गहूँ, घृत, शाल, प्रवाल राज होरा हैं । ज्येष्ठा पर वही होकर अनुराधा पर शनि आता है तो मभी वस्तुएँ नेज होती है। उत्तरापाहा गर बकी होकर पूर्वापाहा पर आता है तो सभी बस्तुओं में अत्यधिक घटा-बढ़ी होती है । गुरु और शनि देशनों एक साथ बनी हो और शनि 10/11 राशि का हो तो गहूँ, तिन, तेल आदि पदार्थ 9 महीने तक तंज होते हैं। शनि के वक्री होने के तीन महीने उपरान्त गहूँ, चावल, मूंग, ज्वार, धान्य, खजूर, जायफल, पी, हल्दी, नील, धनियां, जीरा, मेथी, अफीम, घोड़ा आदि पदार्थ ताज और सोना, चाँदी, गणि, माणिक्य आदि पदार्थ मन्दै एवं नारियल, पाली, लवंग, तिल, तल आदि पदार्थों में घटा-बड़ी होती रहती है । शनि मार्गी हो तो दो भाग मनल, हींग, मिचं मशाले को तेज और अफीम, मई सूत, वस्त्र आदि पदार्थों को मन्दा करता है। यदि शनि कृत्तिका, रोहिगी, मृगशिरा, आर्द्रा, गुनर्वसु, पुष्य और आगलपा नक्षत्र में वक्री हो तो सभी वस्तुएं माहँगी होती है।
तेजी-मन्दी के लिए उपयोगी पंचवार का फल-जिस महीने में पांच रविवार हो उस महीन में राज्यलय, महामारी, बोना आदि पदार्थों में जो होती है। किसी भी महीन में पांच सोमबार होने स सम्पूर्ण पथार्थ मन्द, घृता-ताल-धान्य क भाव मन्दे रही है । पाँध मंगलबार होने में अग्नि-भय, वर्ग का निरोध, अफीग गन्दी तथा धान्याभाव घटता बढ़ता रहता है। पांच बुधवार होने । पी, गट्ट, खां आदि रस तेज होन ह हई, बांदी घट-बटकर अन्त में तेज होती है । पाँच गुरुवार होने से सोना, गोशाल, सूत, कपड़ा, चावल, चीनी आदि पदाचं मन्द होत ह । गांच
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भद्रबाहुसंहिता
शुक्रवार होने से प्रजा की वृद्धि, धान्य मन्दा, लोग सुखी तथा अन्य भोग्य पदार्थ सस्ते होते हैं, पाँच शनिवार होन से उपद्रव, अग्निभय, नशीले पदार्थों में मन्दी, धान्यभाव अस्थिर और तेल महंगा होता है। लोहे का भाब पांच शनिवार होने से महंगा तथा अस्त्र-शस्त्र, मशीन के वन-पों का भाव पांच मंगल और पांच गुरु होने गे महंगा होता है।
संवानिः के वारों का फल रविवार को संक्रान्ति का प्रवेश हो तो राजविग्रह, अनाज मंहगा तेल, घी, लि आदि पदार्थों का संग्रह करने से लाभ होता है। सोमवार सो मंकान्ति का प्रवेश हो तो अनाज महंगा, प्रजा को मुख; घृत, तेल, गुड़, चीनी आदि नंबह में तीसरे महीने लाभ होता है। मंगलवार को रांगान्ति प्रवा करे तो धी, नल, धान्य आदि पदार्थ तेज होते हैं। लाल वस्तुओं में अधिक तेजी आदि मानी है तथा सभी वस्तुओं के संग्रह में दूसरे महीने में लाभ होता है। बुधवार को गंक्रान्ति का प्रवेश होने पर श्वेत बस्त्र, श्वेत रंग के अन्य पदार्थ महंग तथा नील, बाल और ग्याष रंग के पदार्थ दुसरे महीने में लाभप्रद होते हैं। गुरुवार को संक्रान्ति का प्रवेश हो तो प्रजा सुखो, धान्य सस्ते; गुड़, खांड़ आदि मधुर पदार्थों में दो महीने के उपरान्त - होमी : मदरसे संकान्ति प्रविष्ट हा तो सभी वस्तुएं सास्ती, लोग सुखी-सम्पन्न, अन्न यी अत्यधिक उत्पत्ति, पीली वस्तुएं, श्वेत वस्त्र नेज होते हैं और तल गुड़ का संग्रह में चौथ भास में लाभ होता है । शनिवार को साभान्ति के प्रविष्ट होने से धान्य तंज, प्रजा दुखी राजविरोध, पशुओं को पीला, अन्न गाण तथा अन्न या भाव भी नज होता है।
जिस वार के दिन संक्रान्ति का प्रवेश हो, उसी वार को उस मास में अमावास्या हो, तो खप्पर योग होता है। यह जीवों का और धान्य का नाश करने वाला होता है । इस योग में अनाजों में घटा-बढ़ी चलती रहती है । ___पहली मंशान्ति गनिवार को प्रविष्ट हुई हो, इसरा आगे वाली दूसरी संक्रान्ति रविवार को प्रविष्ट हुई हो और तीसरी आंग वाली मंगलवार को प्रविष्ट हो तो खपर योग होता है। यह योग अत्यन्त कष्ट देने वाला है। ___ मकर संक्रान्ति का फल---पोप महीने में मकर संक्रान्ति रविवार को प्रविष्ट हो तो धान्य कामुल्य दुगुना होता है । शनिवार को हो तो तिगुना, मंगल के दिन प्रविष्ट हो तो चौगुना धान्य का मूल्य होता है। बुध और शुक्रवार को प्रविष्ट होगे से समान भाव और गुरु तथा सोमवार को हो तो आधा भाव होता है।
___ शनि, रधि और मंगल के दिन मकर संक्रान्ति का प्रवेश हो तो अनाज का भाव तज होता है। यदि माघ और नाक संक्रान्ति का रवि, मंगल और शनिवार को प्रवेश हो तो अनाज महंगा, पति-भीति आदि का आतंक रहता है। कार्तिक तथा मार्गशीर्ष पी राक्रान्ति के दिन जलवृष्टि हो तो पोप में अनाज सस्ता होता
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है तथा फसल मध्यम होती है। कर्क अथवा मकर संक्रान्ति गनि, रवि या मंगल बार की हो तो भूकम्प का योग होता है । प्रथम संक्रान्ति प्रवेश के नक्षत्र में दूसरी संक्रान्ति प्रवेश का नक्षत्र दूसरा या तीसश हो तो अनाज सस्ता होता है। चौथे या पांचवें पर प्रवेश हो तो धान्य तेज एवं छठे नक्षत्र में प्रवेश हो तो दुष्काल होता है। ___ संक्रान्ति से गणित द्वारा तेजी-मन्दो का परिज्ञान-संक्रान्ति का जिस दिन प्रवेश हो उस दिन जो नक्षत्र हो उसकी संख्या में तिथि और बार यो संख्या जो उस दिन की हो, उसे मिला दना चाहिए। इसमें जिस अनाज की तजी-मन्दी जानना हो उसके नाम के अक्षरों की संख्या मिला दना । जो योगफल हो उसमें तीन का भाग देने स एक शेप बचे तो वह अनाज उस सक्रान्ति क मास में नन्दा विकगा, दो शेप बचे तो समान भाव रहेगा और शून्ध रोष बच तो वह अनाज महंगा हागा।
संक्रान्ति जिस प्रहर में जैसी हो, उसम अनुसार सुख-दुःण, लाभावाम आदि की जानकारी लिम्त चकनारा करनी चाथिए ।
वारानुसार संक्रान्ति फलावबोधक चक्र
-
बिउर जोश को मुस-1 पूर्वाड | विषको मुख
वैश्यों को सुख मध्या । क्षेत्रों को सम्म दक्षिण कोश मंगल चर] महोदरी चोको म अपरम्प शूद्रोको साप्त । पश्रिा जेण
राजाओंको सुम्प | दोर विज्ञानको मुख दक्षिण गुरु भुव | नन्दा | विजमणी! सुन्ध | भई मात्रि । हराधको मुसा | उत्तर कोण |
मिश्र मिश्रा | परभको पुस | आपराधि नाशिको सुख । पूर्व कोप । शनि | रामी । सामोको मुखमापकाल , पशुपालकोंको सुख | शरार
किसी
ध्र वन्द्रर-उग्र-मिश्र लघु-मदु-atण संशक नक्षत्र -उत्तरा फाल्गुनी, उत्तरापाहा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी ध्र व मनवास्वाति, पुनर्वसु, प्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा चर या चल संज्ञक; विशाखा और ऋत्तिका मिश्र मंत्रक, हस्त, अश्विनी, गुष्य और अभिजित् क्षिन या लन राजकः; ममगिर, रेवती, चित्रा और अनुराधा मद या मैत्र संज्ञक एवं मूल, येष्ठा, आर्द्रा और आशनेपा तीक्ष्ण या दारुण संज्ञक है।
अधोमुख संज्ञक-- मुल, आरपा, विशाखा, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वापाहा पूर्वाभाद्रपद, भरणी और मापा अधोमुग्ध संन्च क हैं। ____ऊर्ध्वमुस संशक-शार्दा, पृष्य, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा ऊर्च मुग्न संज्ञक हैं।
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भद्रबाहुसंहिता
तिर्यक मुख संज्ञक- अनुराधा, हस्त, स्वाति, पुनर्वनु, ज्येष्ठा और अश्विनी तिर्यङ्मुख संचक हैं।
दान ...-२५८ होगामी, सोमवार को चित्रा, मंगलवार को उत्तरापाड़ा, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पतिवार को उत्तफाल्गुनी, शुक्रवार को ज्येप्या और शनिवार को रेवती दग्धसंजक है।
भास शून्य नक्षत्र- चैत में रोहिणी और अश्विनी, वैशाश्व में चित्रा और स्वाति, ज्या 2 में उन्नापाटा और पुष्य, आपा में पूर्वाफाल्गनी और धनिष्ठा, श्रावण में उतरापादा और श्रवण, भाद्रपद में शतभिषा और ग्वती, आश्विन में पूर्वाभाद्र १६, कासित. मासिका और मया, मार्गशीर्ष में निना और विशाखा, पौष में आद्री, अश्विनी और हस्त, माघ में श्रवण और मूल एवं फाल्गुन में 'भरणी और ज्येष्ठा शन्य नक्षत्र है । ___ गंझान्ति प्रवेश के दिन नक्षत्र का स्वभाव और संज्ञा अवगत करको वस्तु की तेजी-मदी जाननी चाहिए। यदि संक्रान्ति या प्रवेश तीक्ष्ण, दग्ध या उन मानक नक्षत्र में होता है, तो सभी वस्तुओं की तजी रामझनी चाहिए। मृदु और भाव मंशक. नक्षयो म संक्रान्ति का प्रवेश होने से समान भाव रहता है। दारुण संज्ञक नक्षत्र में संक्रान्ति का प्रवेश होने से खाद्यान्नों का अभाव रहता है, सभी अन्य उपगोग की वस्तुएं भी उपलब्ध नहीं हो पाती।
संक्रान्ति जिभ वाहन पर रहती है, जो वस्तु धारण करती है, जिस वस्तु का भक्षण करती है, उस वरतु नी कमी होती है तथा वह वस्तु महंगी भी होती है । अत: संगाल के वाहनचक्र म भी वस्तुओं की नजी-मन्दी जाना जा सकेगी।
रवि नत्र पल-अम्बिनी में रायं के रहने से सभी अनाज, सभी रस, वस्त्र, अलसी, एरण्ड, तिल, मर्धा, लाल चन्दन, इलायची, लोग, भुपारी, नारियल, कपूर, हीग, हिंगलु आदि तेज होती है । गरणी में सूर्य के रहने ना चावल, जौ, चना, मोर, अरहर, अल्लगी, गुड़, बी, फीम, मंग आदि पदार्थ तेज होते है। कृत्तिका मे बत पुष्प, जी, चावल, गहुँ, मूंग, माट, राई और सरसो तेज होत है। रोहिणी में चावल आदि सभी धान्य, अलसी, सरस, राई, सैल, दाख, गुड़, सड़, सुगारी, रुई, वत-जूट आदि पदार्थ तज होत हूँ । मृगशिरा में सूर्य के रहने से जलात्पन्न पदार्थ नारियल, सवंफल, रुई, मूत, रशम, वस्त्र, कपूर, चन्दन, चना आदि पदार्थ तंज होना है। आर्द्रा में रवि का हन स घी, गुड़, चीनी, चावल, चन्दन, लाल नमक, कपास, सहदी, सार, लोहा, थांदी आदि पदार्थ तेज होत है ! गुनर्वसु नक्षत्र में रह से उड़द, मूंग, मार, त्रावल, मसूर, नमक, राज्जी, लाख, नील, सिल, ए२.ण्ड, मांजुफन, मशर, कर, देवदारु, लांग, नारिबल, पर्वत बस्तु आदि गदार्थ महँग होत है। पुष्य नक्षत्र में रबि व रहन स तिल, तेल, मद्य, गुह, ज्वार, गुग्गुल, मुाड़ी, गोट, मोम, हींग, हल्दी, जूट, ऊनी वस्त्र, शीशा, चांदी आदि वस्तुएं लग होती है।
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पंचविंशतितममोऽध्यायः
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संक्रान्तिवाहनफलबोधक चक्र
लागर वाणाचाee
करण यन्त्र गालव कौनव नतिल| गर वणिज विष्टि शनि चतः ना किस्तुर स्थति नही ही सही मोती बैठी वडी ही सोती बड़ा |सातो बड़ी फल मध्यम मध्यम महर्ष समर्ध मध्यम मह महर्घ मह समर्थ समर्थ महर्ष वाहन सिंह याघ्र राह गर्दभ हस्ती महिषा घोडा कुना काल कुक्कुट]
गज अश्व बल मेंढा गर्दभ ऊँट सिंह शार्दूल महिप व्याघ्र यानर
फल भय भय पास मुभित लवमी क्लेश स्त्र मुभिमनश स्थैर्य मृत्यु ।
समापनेत
लिएर मागाला निम्न कम्बल नग्न घनवणे,
आयुध भुशुढी गदा | ग्वन दण्ड धनुष नामार कन्न पाश | अंकुश
वाण
पात्र सुवर्ण रूपा नाम्र कस्थि लोह का पत्र वस्त्र कर भूमि काष्ठ गय अन्न पायस भचय पक्काम पय विधि चित्रामगड पर मन गाय लेपन कस्तुरी कुम चन्दन भाटी लाहरुदा मामा चन्द्र अगर कार | वर्ण दर भूल सर शु मृग नक्षत्री वश्य र मिन अन्यज पुष्प गुग आयो बकुल किनको बलमaai मलिका भूषण नपुर कंकण पोला मना मुकुटमणि गुजाकोसी कीलक पुमाग सुवर्ण कंचुकी विचित्र पूर्ण हरिन भुजपपा। वेतनाल रञ्जन |वश्कल पार वय वाला मागताना धौदा जावया
"बन्ध्या वती ।
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भद्रबाहुसंहिता शकान्द पर से चैत्रादि मासों में समस्त वस्तुओं को तेजी-मन्दी
अवगत करने के लिए ध्रुवांक
मास :२ पत्र का
नाम ना, प.
गा, ग. पो
माथ
गु.
य-जी चना
गे
।
क्षयल
तिल
पानी
नमक
-
-
चप
-
पाट
सुपारी त तेल फिटकिरी
हाँग
हसदी
जी
अजवाइन
धनिया | 1
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पंचविशतितमोऽध्यायः
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आपलेषा में रवि के रहने मे अलसी, तिल, तल, गुड़, शेमर, नील और अफीम महंगे होते हैं। मघा में रवि के रहने से ज्वार, एण्ड बीज, दाख, मिरच, तेल ओर अफीम महंगे होते हैं। पूर्वा फाल्गुनी में रहने में सोना, चांदी, लोहा, घृत, तेल, सरसों, एरण्ड, सुपाड़ी, नील, बांग, अहो, सूट शामिल होते हैं । यस फाल्गुनी में रवि के रहने से उबार, जो, गुड़, चीनी, जूट, कपास, हल्दी, हरड़, हींग, क्षार
और कस्था आदि रोज होते हैं । हस्त में रवि के रहने से कपड़ा, गेहूँ, सरसों आदि तेज होते हैं । चित्रा में रहने गे गेहूं, चना, कपाग, अरहर, सूत, केशर, लाल चपड़ा तेग होते हैं। स्वाति में रहने समानु, गुड़, स्वाँड, तल, हिंगुर, कपूर, लाख, हल्दी, रूई, जूट आदि तेज होन हैं । अनुराधा और विशाखा में रहने से चाँदी, चावल, सूत, अफीम आदि महंगे होते हैं । ज्येष्ठा और मूल में रहने से चाबल, सरसों, वस्त्र, अफीम आदि पदार्थ नज होता हैं । पूर्वापाड़ा में रहने से तिल, तैल, गुड़, गुग्गुल, हल्दी, कपूर, ऊनी वस्त्र, जूट, नाँदी आदि पदार्थ नेज होते है । उत्तगपाड़ा और श्रवण में रवि के होने से उड़द, मूंग, जूट, सूत, गुड़, यपास, चावल, चांदी, बाँस, रा रमों आदि पदार्थ तज होते हैं। धनिष्ठा में रहन से मूंग, गमूर और नील तेज होते हैं। शतभिषा में रवि के रहने से सरसों, चना, जूट, कपड़ा, तेल, नील, हींग, जायपी, दाख, छहारा, सोंठ आदि तेजा होत हैं । पूर्वा भाद्रपद में सूर्य के रहने से मोगा. नांदी, गेहूँ, चना, उड़द, श्री. कई, रेशम, गुग्गल, जीपग भूल आदि पदार्थ नेज होते हैं । तामाबाद में रवि न होने ने ममीस, धान्य और तल पूर्व रेवती में रहने ग मोती, स्न, फल-फल, नमक, गुगन्धित पदार्य, अरहर, मूंग, उद्दल, चावल, लहसुन, लान, ई, राजी आदि पदार्थ नेज होने हैं।
उक्त चक्र द्वारा तेजी-मन्दी निकालने की विधि
शाक. खमाधि भूपोन{ 1649) शालिवाहनभूपतः । अनेन युक्तो यांवरचैत्रादि प्रतिमास ॥ रुद्रनेत्र: हृते शंष फलं चन्द्रेण मध्यमम् ।
नेत्रण रसहानिश्च शून्यनार्ध स्नृतं बुधैः ।। अर्थात् शक वर्ष की संख्या में से 1649 घटा कर, शेप जिस भास में जिस पदार्थ का भाव जानना हो उसके ध्र वाक जोड़कर योगफल में 3 का नाग देने से एक शेष ममता. दो गेप भन्दा और सून्य शेय, में तेजी कहना चाहिए । विक्रम संवत् में से 1 3 5 घटाने पर शक संवत् हो जाता है। उदाहरण- विक्रम संवत् 2013 के ज्येष्ठ मास म चावल की तेजी-मन्दी जाननी है । अतः सर्वप्रथम विक्रम संवत् बनाया-2013-335=1878 शक संवत् । सूत्र-नियम के अनुसार 1818--1649 = 229 और ज्येष्ठ गारा में चावल का भ्र बांक 1 है, से जोड़ा
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भद्रबाहुसंहिता
तो=229-1 = 230; इसमें 3 से भाग दिया --230-3=76; शेष 2 रहा। अत: चावल का भात्र मन्दा आया । इसी प्रकार समझ लेना चाहिए।
दैनिक तेजी-मन्दी जानने का नियम--जिस देश में, जिस वस्तु की, जिस दिन तेजी-मन्दी जाननी हो उस देश, वस्तु, वार, नक्षत्र, मास, राशि इन सबके नवांकों को जोड़कर 9 का भाग देने से शेप के अनुसार तेजी-नन्दी का ज्ञान 'तेजी-मन्दी के चक्र' के अनुसार देखनी चाहिए ।
देश तथा नगरों को प्रवा-बिहार 166, बंगाल 247, आसाम 791, मध्यप्रदेश 108, उत्तर प्रदेश 890, बम्बई 198, पंजाब 419, रंगून 167, नेपाल 154, चीन 642, अजमेर 167, हरिद्वार 272, बीकानेर 213, सूरत 128, अमेरिका 322, योरोप 976 ।
मास चबा-चैत्र 61, वैशाख 63, ज्येष्ठ 65, आधाद 67, श्रावण 69, भाद्रपद 71, आश्विन 73, कार्तिक 51. मार्गशीर्ष 53, पोप 55, माघ 57, फाल्गुन 591
सूर्य राशि ध्र वा---मेए 520, वृष 752, मिथुन 510, कर्क 218, सिंह 830, मन्या 260, तुला 503, वृश्चिक 711, धनु 524, मकर 554, कुम्भ 270, मीन 5861
तिथि ध्रुवा -प्रतिपदा 1110, द्वितीया 710, तृतीया 481, चतुर्थी 357, पंचमी 634, पाठी 304, सप्तमी 812, अष्टमी 1।।, नवमी 565, दशमी 305, एकादशी 233, द्वादशी 201, त्रयोदगी 52-4, चतुर्दशी 552, पूणिमा 630, अमावस्या 1661
बार ध्र वा--- "विवार 137, सोमबार 94, मंगल 809, बुध 702, गुम 713, शक 808, शनि 851
संसार का कुल नवा-20551
नक्षत्र वा अश्विनी 176. सारणी 783, वृनिका 370, रोहिणी 775, मगशिरा 682, आर्द्रा । 40, पुलवंग 541) पु.य 634, शाश्लपा 170, मघा 73, दुर्वागताल्गुनी 8.5, उतराफाल्गुनी 148, हात $ 10, चित्रा 305, स्वाती 861, विशाचा 71.1, अनुराधा 712, ज्याठा 716, मूल 743, पूर्वाषाढ़ा 614, उन रागाहा (623, अभिजित 683, अगए 657, धनिष्ठा 500, शतभिषा 564, पूर्वाभाद्राद 3310, भासद 183, ग्वती 730।
पदार्थों को ध्रुवा - सोना 253. चांदी 70, नाना 56 3, गोतल 258, लोहा 9। 3. कांगा 2.19. पत्थर 163, मोती 142, मई 717, नाड़ा |27, पाट 476, मुर्ती 10.3, तम्बाक 240, गुपाड़ी 252, बह 88, मिरच 26, घी 16.4. 75, गुड़, 256, चीनी 328, ऊन 1 12, शाल 811, धान 712, महू 23:, तल 801, चावल 774, मूंग 801, तीगी 386, सरसो
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पंचविशतितमोऽध्यायः
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858, अरहर 333, नमक 317, जीरा, 156, अफीम 263, सोडा 156, गाय 132, बैल 162, भैंस 612, भेड़ 618, हाथी 830, घोड़ा 835
तेजी - मन्दी जानने का चक्र सूर्य तेज चन्द्र 2 अतिमन्द, भीम 3 तेज, राहु 4 अति तेज, बृहस्पति 5 मन्द, शनि 6 तेज, राहु 7 मम, वेतु 8 तेज, शुक्र 0 तेज 1
उदाहरण --- बम्बई में चैत्र सुदि सप्तमी रविवार को गेहूं का भाव जानना है । अतः सभी वाओं का जोड़ किया। बम्बई की वा 198, सूर्य मेष राशि का होते से 520, माम ध्रुवा 61, बारवा 137, तिथिबा 812, इस दिन कृति EU TOA ET 210, 12 wa 202 Kuwar du frat 1. 1984-520-|61.÷137 -812-1-370 - 232 - 2330। इसमें 9 का भाग दिया - 2330 : 9258 लब्धि 8 शेष 1 तेजी -मन्दी जानने के चक्र में देखने के में केतु तेज करने वाला हुआ अर्थात् तेजी होगी ।
r
दैनिक तेजी-मन्दी निकालने को अन्य रोति
वस्तुविशोक धातु सोना 96, चांदी 71, पीतल 59. मूंगा 51, लोहा 54, सीमा 90, काँमा 127, मोती 95, गंगा 67 लॉत्रा 10, कुकुम 25 ।
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अनाज और किराना - कर्पूर 102, हरें 73; जीरा 70, चीनी 102, मिश्री 103, ज्वार 100 घी 50, तेल 10, नमक 59, हींग 62, मुपारी 204, अरहर 72, मिर्च 83, सूत 94, सरसों 803, कपड़ा 100, चपड़ा 87 मूंग 15, सोंठ 100, गुड 40, विनोला 88. मंजीठ 144 नारियल 78, छुहारा 144, चावल 17, जौ 57 साठी 165, गेहूं 14, उड़ब 80, तिल 53, चना 56, कपास 127, अफीम 192, रुई 77 |
पशु - बोड़ा 770, हाथी 64 भैंस 92, गाय 77, बैन 87, बकरी 60, सांड 94, 851
नक्षत्र विशोधक - अश्विनी 10, भरणी 10 कृत्तिका 96, रोहिणी 20, मृगशिरा 56, आर्द्रा 86, पुनर्वगु 21, पुण्य 64, आपा 135, भवा 150, पूर्वाफाल्गुनी 220, उ० [फा० 72, हस्त 334, चित्रा 21, स्वाति 210, विकाखा 320, अनुराधा 493, ज्येप्या 559, मूल 552, पू० फा० 142, उ० फा 420. श्रवण 450, धनिष्ठा 736, शतभिया 576, पूर्वाभाद्रपद 775, उत्तरा भाद्रपद 126 रेवती 256 ।
संक्रान्ति राशि विशोषक- मेष 37, वृष 84, मिथुन 86 कथं 109, सिंह 125, कन्या 102, तुला 104, वृश्चिक 144, धनु 144, मकर 198, कुम्भ 190, मीन 180
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भद्रबाहुसंहिता
तिथि विशोपक-प्रतिपदा 18, द्वितीया 20, तृतीया 22, चतुर्थी 24, पंचमी 26, षष्ठी 25, सप्तमी 23, अष्टमी 21, नवी 19, दशमी । 7, एकादशी 15, द्वादशी 13, त्रयोदशी 11, चतुर्दशी 9, अमावस्या 9, पूर्णिमा । 6 । ___वार-रविवार 40, सोग 50, मंगल 50, बुध 72, गुरु 65, शुऋ 24, शनि 141
तेजी-मन्दी निकालने की तिथि- जिस मास की या जिस दिन की तेजी-मन्दी निकालनी हो, उस महीन पी संक्रान्ति का विशोपक ध्र वा, तिथि, वार और नक्षत्र के विशोषक ध्र वाओं को जोड़ 3 का भाग देने से एक शेष रहने से मन्दी, वो शेष में समान और शून्य शेष में तंजी होती है ।
तेजी-मन्दी निकालने का अन्य निधन - गहूँ की अधिकारिणी राशि कुम्भ, सोना की मप. मोती की मीन. चीनी को कुम्भ, चावल की भेष, ज्वार की वृश्चिक, मलाई को मिथन और चांदी की कर्क है। जिस वस्तु की अधिकारिणी राशि से चन्द्रमा नौथा, आटवाँ तथा बारहा हो तो वह वस्तु तेज होती है, अन्य राशि पड़ने से शस्ती होती है ।
मूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु ये क्रूर ग्रह हैं । ये ऋर ग्रह जिस वस्तु की अधिकारिणी राशि में पहले, दूसरे, चौथ पांचवें, सातवें, आर, नौ, और बारहवें जा रहे हों, वह वस्तु तेज होती है। जिनमें क्रूर ग्रह उपर्य क्त स्थानों में जाते हैं, उतनी ही वस्तु अधिक तेज होती है ।
षड्विंशतितमोऽध्यायः
नमस्कृत्य महावीरं मुरासुर जनैनंतम् ।
स्वप्नाध्यायं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभसमीरितम् ॥1॥ देव और दानवों के द्वारा नमार किये गये भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार नागभागभ म युक्त स्वप्नाध्याय का वर्णन करता हूँ ।"
1. माकम्
।
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पविशतितमोऽध्यायः
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स्वप्नमाला दिवास्वप्नोऽनष्टचिन्ता मय:फलम् ।
प्रकृता-कृतस्वप्नश्च नेते ग्राह्या निमित्ततः ॥2॥ स्वप्नमाला, दिवास्वप्न, चिन्ताओं से उत्पन, लोग ग उत्पन्न और प्रवृति के विकार के उत्पन्न स्वप्न फल के लिए नहीं ग्रहण करना चाहिए ।।2।।
कर्मजा द्विविधा यत्र शुभाश्चानाशुभास्तथा।
विविधा: संग्रहा: स्वप्ना: कर्मजा: पूर्वसचिता: ।।3।। नामोदय से उत्पन्न स्वप्न दो प्रकार क होते हैं—म और आगन तथा पूर्व संचित करदिय से उत्पन्न स्वप्न तीन प्रकार में होत है ।।3।।
भवान्तरेषु चाभ्यस्ता भावा: सफल-निमला:।
तान् प्रवक्ष्यामि तत्त्वेन शुभाशुभफलानिमान् ॥वा। जो सफल या निष्पल भाब भवान्तों में अपना है, उगा मामा दायर भावों को यथार्थ रूप में निरूपण करता है ।।111
जलं जलरुहं धान्यं सदलाम्भोजभाजनम ।
मणि-मुक्ता-प्रवालांश्च स्वप्ने पश्यन्ति श्लेष्मिःTः ।।5।। जल, जल मे उत्पन्न पदार्थ, धान्य, गय सहित कपल, मणि, माती. श्वान आदि को स्वप्न में कफ प्रकृति वाला व्यक्ति देखता है ।। 511
रक्त-पीतानि द्रव्याणि यानि पुष्टान्यग्निसम्भवान् ।
तस्योपकरणं बिन्धात् स्वप्ने पश्यन्ति पत्तिकाः ।।6।। रक्त-पीत पदार्थ, अग्नि मंस्कार से उत्पन्न पदार्थ, वर्ण के आभूषण-उपमण आदि को पित्त प्रकृति वाला व्यक्ति स्वप्न में दिानता है ।।6।।
च्यवनं प्लवनं यानं पर्वताऽग्र द्रमं गहम् ।
आरोहन्ति नरा: स्वाने वातिका: पक्षगामिनः ॥7॥ वायु प्रकृति वाला व्यक्ति गिरना, तैरना, सबारी पर चढना, पवन में कार चढ़ना, वृक्ष और प्रासाद पर चढ़ना आदि वस्तुओं को स्वप्न में दग्वता है 11711
सिंह-व्याघ्र-राजयुक्तो गो-वृषाश्व रैथुत:।।
रथमारा यो याति पृथिव्यां स नशे भवेत् ॥8॥ जो सिंह, च्यान, गज, गाय, बैल, गोडा और मनाया में यक्स होकार रथ पर चढ़कर गमन करते हुए स्वप्न में देखता है वह राजा होता है 118।।
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भद्रबाहुसंहिता
प्रासादं कुञ्जरवरानारुह्य सागरं विशेत् ।
तथैव च विकथ्येत तस्य नीचो नृपो भवेत् ॥9॥ श्रेष्ठ हाथी पर चढ़कर जो महल या समुद्र में प्रवेश करता है या स्वप्न में देखता है वह नीच नृप होता है ।।9।।
पुष्करिण्यां तु यस्तीरे भुञ्जीत शालिभोजनम् ।
श्वेतं गजं समारूढः स राजा अचिराद् भवेत् ॥1॥ जो स्वप्न में श्वेत हाथी पर चढ़कर नदी या नदी के तट पर भात का भोजन वारता हा देवता है, वह शीघ्र ही राजा होता है ।। 1 (01|
सुवर्ण-रूप्यभाण्डे वा यः पूर्वनवरा स्नुयात् ।
प्रासादे वाऽथ भूमौ वा याने वा राज्यमाप्नुयात् 11111 जो व्यगित स्वप्न में शसाद, भमि या सवारी पर आरूढ़ हो सोने या चाँदी के बर्तनों में स्नान, भोजन-पान आदि की क्रियाएँ करता हुआ देख उसे राज्य की प्राप्ति होती है । 111
"दलेष्ममूत्रपुरीषाणि यः स्वप्ने च विकृष्यति ।
राज्यं राज्यफलं वाऽपि सोऽचिरात् प्राप्नुयान्नरः ।।120 जो राजा म्यान में श्वेत वर्ण के मल, मूत्र आदि को इधर-उधर खींचता है, बह राज्य और राज्य फल को शीघ्र ही प्राप्त करता है ।।।2
यन्त्र वा तत्र वा स्थित्वा जिह्वायां लिखते नखः ।
दीर्घया रक्तया स्थित्वा स नीचोऽपि नपो भवेत् ।।3।। जो व्यथित स्वप्न में जहां-तहाँ स्थित होकर जिह्वा - जीभ को नख से खुरचता हा देख अथवा रक्त की लाल वर्ण की दीर्घा—झील में स्थित होता हुआ देखे तो वह व्यक्ति नीच होन पर भी राजा होता है ।।13।।
भूमि ससागरजला सशैल-वन-काननाम् ।
बाहुभ्यामुखरेद्यस्तु स राज्यं प्राप्नुयान्नरः ॥14॥ जो व्यक्ति म्बान में वन-पर्यन-अगम्य गक्त पृथ्वी सहित समुद्र के जल को भजाओं द्वारा पार करता हुआ देग्यता है, वह गज्य प्राप्त करता है IIT 4||
आदित्यं वाऽथ चन्द्र वा य: स्वप्ने स्पशते नरः । श्मशानभध्ये निभोक: परं हत्वा चमपतिम् ॥5॥
1 1 ...त | 2. प्रयत न
गय न ।
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एड्विंशतितमोऽध्यायः सौभाग्यमर्थ लभते लिंगच्छेदात् स्त्रियं नरः ।
भगच्छेदे तथा नारी पुरुषं प्राप्नुयात् फलम् ।।16।। जो व्यक्ति स्वप्न में गूर्य या चन्द्रमा का स्पर्श करता हुआ देखता है अथवा शत्रु सेनापति को मारकर मशान भूमि में निर्भीक घूमता हुआ देखता है वह व्यक्ति सांभाग्य और धन प्राप्त करता है। लिंगोद होना देखने से पुरुष को स्त्री की प्राप्ति तथा भगच्छेद होना देखने से स्त्री को पुरुष की प्राप्ति होती है ।। 1 5-16।।
शिरो वा छिद्यते यस्तु सोऽसिना छिद्यतेऽपि वा।
सहस्त्रलाभं जानीयाद् भोगांश्च विपुलान् नृपः ।।17।। जो राजा स्वप्न में शिर कटा हुआ देखता है अथवा तलवार के द्वारा छेदित होता हुआ देखता है, वह सहनों का लाभ तथा प्रच र भोग प्राप्त करता है । 1711
धनरारोहते यस्तु विस्फारण-ममार्जने।
लखामं विजानीयाः अयं सुधि रिसोर्दधम् ।।३।। जो राजा स्वप्न में धनग पर वाश वहना, धनार का रफालन करना, प्रत्यंचा का ममेटना आदि देवता है. य. अर्थलाभ ारता है, यद्ध में जय और जानु वा बध होता है 111 8।।
द्विगाढ़ हस्तिनारद: शुक्लो वाससलंकृतः ।
यः स्वप्ने जायते भीत: समृद्धि लभते सतीम् ॥19॥ जो स्वप्न में शुक्ल वस्य और श्रेष्ठ आभूषणों में अलंकृत होकर हाथी पर चढ़ा हुआ भीत-भयभीत देखता है, वह गमृद्धि को प्राप्त होता है ।। 1911
देवान् साधु-द्विजान् प्रेतान् स्वप्ने पश्यन्ति 'तुष्टिभिः ।
सर्वे ते सुखमिच्छन्ति विपरीते विपर्ययः ।।20। जो स्वप्न में सन्ताप के साथ देव, माध, ब्राह्मणों को और प्रेतों को देखते हैं. वे सब सुख चाहते हैं-सुख प्राप्त करते हैं और विपरीत देवनं पर विपरीत फल होता है अर्थात स्वप्न में उक्त देव-साध आदि वा क्रोधित होना देखने से उल्टा फल होता है ।।20।।
महद्वारं विवर्णमभिज्ञादा यो गहं नरः ।
व्यसनान्मुच्यते शीन्न स्वप्नं दृष्ट्वा हि तादृशम् ॥21|| जो व्यक्ति स्वप्न में गृहद्वार या गृह को विवर्ण देय या पहचाने वह शीघ्र - 1. गगन : १. १० 1 2. पुष्टवि. १० . Fif+17 भू. ।
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भद्रबाहुसंहिता
ही विपति से छुटकारा प्राप्त करता है 112 111
प्रपानं यः पिबेत् पानं बद्धो वा योऽभिमुच्यते ।
विप्रस्य सोमपानाय शिष्याणामर्थवृद्धये ।।22॥ यदि स्वप्न में गर्वत या जल को पीता हुआ देखे अथवा किसी बँधे हुए व्यक्ति को छोड़ता हुआ देश तो इस स्वप्न का फल ब्राह्मण के लिए सोमपान और शिष्यों के लिए धन वृद्धिक र होता है ।। 22॥
निम्नं कपजलं छिद्रान् यो भीतः स्थलमारुहेत।
स्वप्ने स वर्धते सस्य-धन-धान्येन मेधसा ॥23॥ जो व्यक्ति स्वप्न में नीचे कुएं को जल को छिद्र को और भयभीत होकर स्थान पर चढ़ता हा देगता है बरधन-धान्य और बुद्धि के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होता है ।1231
श्मशाने शुष्कदार वा वल्लि शुष्कद्रुमं तथा।
'यूपं च मारुहेश्वऽस्तु स्वप्ने व्यसनमाप्नुयात् ।।24।। जोति बसार को सभा, अहाही लकड़ी को देखता है अथवा यज्ञ jटे '[र जो जानो चरता हुआ देता है, वह विपत्ति को प्राप्त होता है ।10-11
तपु-सोसायसं रज्जु नाणक मक्षिका "मधुः ।
यस्मिन् स्वप्ने प्रयच्छन्ति मरणं तस्य ध्रुवं भवेत् ॥25॥ जो व्यक्ति स्वप्न में योगा, गंगा. जस्ता. पोनन्न, रज्ज, सियका तथा मधु का दान करता हुआ देखता है, उसका मरण निश्चय होता है ।।25।।
अकाल फलं पुष्पं काले वा पब्ज भितम् ।
यस्मै स्वप्ने प्रदीयते तादृशायासलक्षणम् ।।26॥ जिगरबान में समय के फल-फल या समय पर होने वाले निन्दित फलफलों को जिसको देने हार देखा जाय वह स्वप्न प्रायास नक्षण माना जाता है ॥26॥
अलक्तकं वाऽथ रोगो वा निवातं यस्य वेश्मनि । गहदाघमवाप्नोति चौरर्वा शस्त्रधातनम् ॥27॥
। । सः यो
1 4.15.
मु.। 2 गाम म् । 3. नागरक्षग॥ मा.
यासो नको म.
1
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पविशतितमोऽध्यायः
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स्वप्न में जिस घर में लाक्षारस । रोम अथव! वायु का अभाव देखा जाय उस घर में या तो आग लगती है या नोरों द्वारा शस्त्रघात होता है ।।27।।
अगम्यागमनं चैव सौभाग्यस्याभिवृद्धये ।
अलं कृत्वा 'रसं पीत्वा यस्य वस्त्रयाश्च यद्भवत ॥28॥ जो स्वप्न में अलंकार करके, रस पीकर अगम्या ममन . जोत्री पूज्य है उसके माथ रमण करना--देखता है, उसके सौभाग्य की वृद्धि होती है ।।28।।
"शून्यं चतुष्पथं स्वप्ने यो भयं विश्य बुध्यते।
पुत्रं न लभते भार्या सुरूपं सुपरिच्छदम् ॥29।। स्वप्न में जो व्यक्ति निर्जन चारा मार्ग में प्रविष्ट होना देये, पश्चान जानन हो जाय नो गकी स्त्री को गुन्दर, गणग्रस्त पुत्र की प्राप्ति नहीं होती है ।129।।
वीणां विषं च वल्ली स्वप्नं गृहा विबुध्यते ।
कन्यां तु लभते भार्या कुलरूपविभूषिताम् ।।30। मवान में वीणा, बाकी : वि को ग्रहण करे. पचात् जाग्रत हो जाय तो उसकी स्त्री को सुन्द: *. १ मा यका कन्या मनाती है 5000
विषेण म्रियते यस्तु विषं वापि पिचेन्नरः ।
'स युक्तो धन-धान्येन बध्यते न निरादि सः ॥31॥ जो व्यक्ति म्यान में विय भक्षणा द्वारा मृत्य को प्राप्त हो वा विष 'भक्षण करना देख वह धन-धान्य से पकन होना है नया चिमाल ना -धिन समय तक यह किसी प्रकार बन्धन में बंधा नहीं रहता है ।। 3 ।।।
"उपाचरन्नासवाज्ये मति गत्वाप्याकञ्चनः ।
व याद वै सद्वचः किञ्चिन्नासत्यं वृद्धये हितम् ॥32॥ यदि स्त्र में :-[ बायकोचत ।। पान र नाहा नप अथवा किचन निगहाग क
रना हुआ न नी म अशा स्व की गान्ति के लिए गाया। बोना चाहि कि शाहाजी अरामा भागण विताय के लिए हितकारी नहीं होता ।।32॥
'प्रतयुक्तं समारूढो दंष्ट्रियुक्तं च यो रथम् । दक्षिणाभिमुखो याति म्रियते सोचिरान्नर ॥33॥
। भय। .
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भद्रबाहुसंहिता
जो स्वप्न में तपन गर्दाशक्त रथ में आरूढ़ दक्षिण दिशा का ओर जाता हैया देखता है, वह मनध्य शीघ्र ही भरण वो प्राप्त हो जाता है ।।3311
वराहयक्ता या नारी ग्रीवाबद्ध प्रकर्षति ।
सा तरया: पश्चिमा रात्री मृत्युः भवति पर्वते ।।341 यदि गत्रि के उत्तरार्ध में रवान में कोई शूकर युक्त नारी किसी की बंधी हुई गर्दन तो बींचे तो उसकी किसी पहाड़ पर मृत्यु होती है ।।34॥
खर-शूकरयुक्तेन खरोष्ट्रण वृकेण वा।
रथेन दक्षिणा या विशं रियो गर । स्थान में कोई व्यक्ति खर-गर्दभ, शुक र ऊंट, मडिया सहित रथ में दक्षिण दिशा को जाय तो लोन उस गावित का परण होता है ।। 35।।
कृष्णवासा यदा भत्या प्रवास नावगच्छति।
मार्गे सभयमाप्नोति याति दक्षिणगो वधम् ।।3611 स्थान में यदि ष्णवारा होने पर भी प्रवास को प्राप्त न हो तो मार्ग में भय प्राप्त होता है तथा दक्षिा दिणा को ओर गमन दिखलाई पड़े तो मृत्य भी हो नाती है ॥36।।
युगमेकखरं शूलं यः स्वग्नेष्वभिरोहति ।
सा तम्य पश्चिमा रात्री यदि साधु न पश्यति ।।3711 जो व्यक्ति ।। . पिछले भाग में स्वप्न में यज्ञ स्तम्भ, गदंभ, गाल पर आगहिरा हानामा २६ पयाणा नहीं देख पाना है ।। 371
दुर्वासः कष्णभमश्च वापतैलविपक्षितम् ।
रस तस्य पश्चिमा रात्री यदि साधु न पश्यति ॥3॥ यदिई व्यक्ति रात्रि के पिछल प्रह' में प्रधान में दुर्वामा, कृष्ण भस्म, तेल न करना आदि देस को उमका कायाण नहीं होता है । 3811
अभक्ष्यभक्षणं चैव जितानां च दर्शनम् । कालपुरुपलं चैव लभ्यतेऽर्थस्य सिद्धये ॥39।। rit १ करला. पूज्य व्यक्तियों का दर्शन करना.मामयिक पुष्प । TE
पापित लिए होता है ।139।
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। 3 मार्ग
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पड्विंशतितमोऽध्याय: नागाने वेश्मनः सालो यः स्वप्ने चरते नरः।
सोऽचिराद् वमते लक्ष्मी क्लेशं चाप्नोति दारुणम् ।।4।। जो व्यक्ति श्रेष्ठ महल के परकोटे पर चढ़ता हुआ देखे वह श्रेष्ठ लक्ष्मी का त्याग करता है, भयंकर कष्ट उठाता है ।।4011
दर्शनं ग्रहणं भग्नं शयनासनमेव च ।
प्रशस्तमाममांसं च स्वप्ने वृद्धिकरं हितम् ॥4111 स्वप्न में कच्चा मांस का दर्शन, महण भारत नश्रा एन, मान करना हितकर और प्रशस्त माना गया है ।।41।।
'पक्वमांसस्य घासाय भक्षणं ग्रहणं तथा ।
स्वप्ने व्याधिभयं विधाद् भद्रबाहुबची यथा ॥2॥ बार में पतब मान का दर्शन, ग्रहण और 'नागम् व्याधि, गाय मार कष्टोत्पादक माना गया है, मा 'भद्रबाहु स्वामी का वचन है ।।1211
छदने मरणं विन्द्यादर्थनाशो विरेचने।
क्षत्रो यानाद्यधान्यानां ग्रहणे मागमादिशेत् ।।3।। स्वप्न में बमन करना देखने से मरणा, बिरेचर-दस्त लगना देखने में बम नाश, पान आदि के छात्र को ग्रहण करने से धन-धान्य का अभाव होता है ।।4311
मधुरे निवेशस्वप्ने दिवा च यस्य वेश्मनि ।
तस्यार्थनाशं नियतं मृति वाभिनिदिशेत् ।।4।। दिम स्वप्न में जिगक घर में प्रवेश करता हुआ देख, उमा धन नाल निश्चित होता है अथवा वह मृत्य का देश करता है !14411
य: स्वप्ने गायले हसते नत्यते पठते नरः।
गायने रोदन विन्यात् "नतेने वध-बन्धनम् ॥45। जो व्यक्ति स्वप्न में गाना, हंसना, नाचना और पड़ना देवता है उसे गाना देखने में गेना पड़ता है और नाचना देखन से बध-बन्धन होता है ।।45।।
हसने शोचनं ब्रूयात कलहं पठने तथा । बन्धने स्थानमेव स्यात् 'मुक्तो देशान्तरं बजत् ॥4॥
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भद्राहुसंहिता हंसना देखने में गोक. पढ़ना देखने हो कलह, बन्धन देखने में स्थान प्राप्ति और छूटना देखने से देशान्तर गरम होता है ।। 46॥
सरांसि सरितो वृक्षान् पर्वतान् कलशान ग्रहान् ।
शोकातः पश्यति स्वप्ने 'तस्य शोकोऽभिवर्धते ।।47।। जो व्यक्ति म्यान में तालाब. नदी, वृक्ष पर्वत, यानण और गृहों को शोकात देवता है उसका गोका बढ़ता है ।।47।।
मरुस्थलों तथा भ्रष्टं कान्तारं वृक्षवजितम् ।
सरितो नो होला, शोकस: बिहाः ।। शोकगना पति अदि म्वान में मरुस्थल, वृक्षरहित वन एवं जलरहित नदी को देखना है तो उसके नि" ये स्वप्न शुभ फलप्रद होते हैं 1.48।।
आरानं शयनं यानं गृहं वस्त्रं च भूषणम् । स्वप्ने कस्मै प्रदीयन्त सुखिनः श्रियमाप्नुयात् ।।4।। वप्न में जो कोई किसी को आमन, पिया. सदारी, घर, वस्त्र, आभूषण दान करता हुआ देखता है. यह मुन्द्री होता है तथा लक्ष्मी की प्राप्ति होती है ।129।।
अलंकृतानां द्रव्याणां वाजि-वारणयोस्तथा ।
वृषभस्य च शुक्लस्य दर्शने प्राप्नुयाद् यशः ।।5। अलंकृत पदार्थ, ज्वेत हाथी, घोडे. बैल आदि का स्वप्न में दर्शन करन ग यश की प्राप्ति होती है 115011
पताकामसिष्टि वा शुक्तिा मयतान् सकाञ्चनान ।
दीपिकर लभते स्वप्ने योऽपि स लभते धनम् ।।5।। पताका, तलवार, लाठी, अभया, मोप, मोती, नोना; दीपक आदि को जो मी स्वप्न में प्राप्त करना देवना है, वह धन प्राप्त करता है ।। 5 1||
मूतं वा कुरुते स्वप्ने पुरीषं वा सलोहितम् ।
प्रतिबुध्येत्तथा यश्च लभते सोऽर्थनाशनम् ॥2॥ जो स्वप्न में गाय गान महित दट्टी करना दंग्यता है, और स्वप्न देखने के बाद ही जग जाता, यह धन नास को प्राप्त होता है ।। 52।।
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षडविंशतितमोऽध्यायः
अहिर्वा वृश्चिक: कीटो यं स्वप्ने दशते नरम् ।
प्राप्नुयात् सोऽर्थवान् यः स यदि मोतो न शोचति ||53|| जो व्यक्ति स्वप्न में साँप, बिच्छू या अन्य कीड़ों द्वारा काटे जाने पर भयभीत नहीं होता और शोक नहीं करता हुआ देखता है, वह धन प्राप्त करता है |53|| पुरीषं 'छदनं यस्तु भक्षयेन्न च शंकयेत् । भूद्रं रेतश्च रक्तं च स शोकात् परिमुच्यते ||54||
जो व्यक्ति स्वप्न में विना घृणा के टट्टी, वमन, मूत्र, वीर्य, रक्त आदि का भक्षण करता हुआ देखता है. वह शोक से छूट जाता है |54||
कालेयं चन्दनं रोल घर्षणे च प्रशस्यते ।
अत्र लेपानि पिष्टानि तान्येव धनवृद्धये ॥ 55 ! |
जो व्यक्ति स्वप्न में कालागुरु, चन्दन, गेल-तग की विगत से सुगन्धि के पता है तथा उनका रवीना देता है, उसके धन
को वृद्धि होती है 11550
रक्तानां करवीराणामुत्पलानामुपानयेत् ।
लम्भो वा दर्शने स्वप्ने प्राणो वा विधीयते |56||
स्वप्न में रक्तकमल और नीलकमलों का दर्शन, ग्रह्ण और त्रोटन - तोड़ना देखने से प्रयाण होता है 1156
कृष्णं वासो हयं कृष्णं योऽभिरूढः प्रयाति च । दक्षिणां दिशमुद्विग्नः सोऽभिप्रेत यतस्ततः ॥ 57
439
जो व्यक्ति स्वप्न में काले वस्त्र धारण कर काले घोड़े पर सवार होकर किन्न हो दक्षिण दिशा की ओर गमन करता है वह विषय में मृत्यु को प्राप्त होता है |57
आसनं शाल्मलीं वापि कदलों "पालिभत्रिकाम । पुष्पितां यः समारूढः सवितमधि रोहति ॥8॥
लामो गं वंदना या ना देखता है उसे सम्पत्ति प्राप्त होती है 11581
जो
देवया नीम के वृक्ष पर
J
1. who go 12. g4 13 dage 14. si na segi apoi 5. fe भद्रकम् गु० ।
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भद्रबाहसंहिता
रुद्राक्षी विकृता कालो नारी स्वप्ने च कर्षति । उत्तरां दक्षिणां विशं मृत्युः शीघ्र समीहते ।।5।।
भयंकर, विकृत रूपवाली, काली स्त्री यदि स्वप्न में उत्तर या दक्षिण दिशा की ओर खींचे तो शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होता है ।।591
जटी मुण्डों विरूपाक्षां मलिना मलिनवाससाम् ।
स्वप्ने य: पश्यति ग्लानि समूहे भयमादिवोत् ।।601 जटाधारी, सिरमुण्डित, विरूपाकृति वाली, मलिन एवं मलिन बस्त्र वाली स्त्री को स्वप्न में म्लानिपूर्वक देखना सामूहिक भय का सूचक है 11601
'ताफ्सं पुण्डरीक वा भिक्षु विकलमेव च।
दृष्ट्वा स्वप्ने विबुध्येत म्लानि जस्य समाविकोत् ॥611 आगरवी पुण्डरीक तथा विकल भिक्षु को स्वप्न में देखकर जो जाग जाता है, उसे ग्लानि फल की प्राप्ति होती है ।।6।।।
स्थले वाऽपि विकायत जले वा नाशमानुयात् ।
यस्य स्वप्ने नरस्यास्य तस्य विद्यारमहद् भयम् ।।6211 जो व्यक्ति भमि पर विकीण-फल जाना और जल में नाश को प्राप्त हो जाना देखता है, उस व्यक्ति को महान् भय होता है 162॥
बल्ली-गुल्मसमो वृक्षो वल्मीको यस्य जायते।
शरीरे तस्य विज्ञेयं तदंगस्य विनाशनम् ।।6311 जो व्यक्ति स्वप्न में अपने शरीर पर लता, गुल्म, वृक्ष, बालगीत: बाँची आदि का होना देवता है उसके शरीर का विनाश होता है ।। 6 3।।
मालो वा वेणुगुल्मो वा खजूरो हरितो द्रुमः ।
मस्तके जायते स्वप्ने तस्य साप्ताहिकः स्मृतः ।।641 स्वप्न में जो व्यक्ति अपने मस्तक पर गाला, बाँस, गुल्म, खजूर अथवा हरे वश्नों को उपजन देखता है, उसको एक सप्ताह में मृत्यु होती है 116411
हृदये यस्य जायन्ते तद्रोगेण विनश्यति ।
अनंगजायमानेषु तदंगस्य विनिर्दिशेत् 165॥ यदि हृदय में उक्त वृक्षादिका सान्न होना पवन में बता दय रोग में I. ४. गा कपल मंत्र ५ म. , 3 न पग चिनम् ।
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पविशतितमोऽध्यायः
उसका विनाश होता है। जिस अंग में उक्त वृक्षादिकों का उत्पन्न होना स्वप्न मे दिखलाई पड़ता है, उसी अंग की बीमारी द्वारा विनष्टि होती है || 65 |
रक्तमाला तथा माला रक्तं या सूत्रमेव च । यस्मिन्नेवावबन्ध्येत् तदंगेन 'विक्लिश्यति 1166॥
स्वप्ना में बाल फला या लालसूत्र के द्वारा जो अंग बाँधा जाय, उसी अंग में क्लेश होता है 66
ग्राहो नरं नगं कञ्चित् यदा स्वप्ने च कर्षति । बद्धस्य मोक्षमाचष्टे मुक्ति बद्धस्य निर्दिशेत् ॥67॥
जय स्वप्न में कोई मकर या घड़ियान मनुष्य को खींचता हुआ-सा दिखलाई पड़े तो जो व्यक्ति वज्र है - कारागार आदि में बद्ध है या गुकदमे में फंसा है, उसकी मुक्ति होती है छूट जाता है || 671
पीतं पुष्पं फलं यस्मै रक्तं वा सम्प्रदीयते । कृताकृतसुवर्ण वा तस्य लाभो न संशय: ।168।।
441
स्वप्न में यदि किसी व्यक्ति को पीने या लाल फल-फूलों को बता दिखाई पड़े तो उसे सोना, चांदी का लाभ निःसन्देह होता है 168॥
श्वेतमांसासनं यानं सितमाल्यस्य धारणम् । श्वेतानां वाऽपि द्रव्याणां स्वप्ने दर्शनमुत्तमम् ॥1691 मांस, वेतु आम सवारी व माना का धारण करना तथा
अन्य श्वेत द्रव्यों का दर्शन स्वप्न में शुभ होता है 60
बलीवर्दतं यानं योऽभिः प्रयति । प्राचीं दिशमुदीची वा सोऽर्थलाभमवाप्नुयात् ॥1700
जो व्यक्ति स्वप्न में श्रेष्ठ बैंचों के रथ पर चकरा उत्तर की ओर गगन करता हुआ देखता है, यह धन प्राप्त करता है || 7011
नग - वेश्म पुराणं तु दीप्तानां तु शिरस्थितः । यः स्वप्ने मानवः सोऽपि महीं भोक्तु निरामयः ।।7।।
जो व्यक्ति स्वप्न में सिर पर पर्वत पर खण्ड तथा दीप्तिमान् पदार्थों का
2
दखता है, वह स्वस्थ होकर पृथ्वी का उपयोग करता है ||7111
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भद्रबाहु संहिता
मगमयं नागमारूढ: सागरे प्लवते हितः ।
तथैव च विबुध्येत सोचिराद् वसुधाधिपः ।।72।। जो स्वप्न में पतिका के हाथी पर सवार होकर सुम्य स समुद्र को पार करता हा दख तथा उसी स्थिति में जाग जाय तो वह शीघ्र ही पृथ्वी का स्वामी होता है 17211
पाण्डुराणि च वेश्मानि पुष्प-शाखा-फलाग्वितान् ।
यो वृक्षान् पश्यति स्वप्ने सफलं चेष्टते तदा ॥73॥ जो व्यक्ति स्थान में श्वत भवनों को तथा पुरप, फल और शाखाओं से युक्त वृक्षों को देखता है, तो उगनी चटमा गफल होती हैं ।। 73।
वासोभिरित: शुक्लर्वेष्टित; प्रतिबुध्यते ।
दह्यते योऽग्निना वापि बध्यमानो विमुच्यते ॥7411 जावान में शु और हर वृक्षों से वेष्टित होकर अपने को देखता है, तथा उसी समय जाग जाता है अथवा अग्नि द्वारा जालता हु।। अपने को देखता है, वह वध्यमान होत हुए भी छोड़ दिया जाता है ।। 74।।
दुग्ध-तेल-घृतानां वा क्षीरस्य च विशेषत: ।
प्रशस्तं दर्शनं स्वप्ने भोजनं न प्रशस्यते ।।751 ग्वान में दूध, लि. वा का दर्शन शुभ है, भोजन नहीं । विशेष रूप में दूध का दन भ माना गया है ।17514
अंग प्रत्यंगयुक्तस्य शरीरस्य विवर्धनम्।।
प्रशस्तं दर्शनं स्वप्ने नख-रोमविवर्धनम् ॥76॥ वाज में शरीर व अंग-प्रत्यंग का बढ़ना तथा नख और रोम का बढ़ना शुभ माना गया है ।।760
उत्संगः पूर्यते स्वप्ने यस्य धान्यैरनिन्दितः।
फल-पुष्पश्च सम्प्राप्तः प्राप्नोति महतीं श्रियम् ।।77॥ रवान मजिग व्यक्ति की गोद सुन्दर धान्य, फल, पुष्प में भर दी जाय, यह वहान प्रा करना 117711
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पविशतितमोऽध्याय: कन्या बाऽऽपि वा कन्या रूपमेव विभूषिता।
प्रकृष्टा दृश्यते स्वप्ने लभते योषित: श्रियम् ।।28। यदि स्वप्न में सुन्दर रूपगुस्त कन्या या आर्या दिखलाई पड़े तो गुन्दर स्त्री की प्राप्ति होती है 1178।।
प्रक्षिप्यति यः शस्त्र: पथिवीं पर्वतान प्रति ।
शुभमारोहते यस्य सोऽभिषेकमवाप्नुयात् ॥7॥ जो व्यक्ति स्वप्न में शम्त्रों द्वारा शुओं का परत कर पृथ्वी जयंती it अपने अधीन बार लेना देवता है अथवा जो मन गयंसा पर अपन गारोहण करता हुआ दग्नता है, वह राज्याभिषेक का प्रा होता है. 179।।
नारी परत्वं नर: स्त्रीत्वं लभते स्वप्नदर्शने ।
बध्येते तावुभी शोघ्र कुटुम्बपरिवृद्धम् ।।४।। यदि र म ग : पी अनि यो मार गुम्पनी होना i कुम्ब के बन्धन में बंधन में 18011
राजा राजसुतश्चौरी यो सााधन-धान्यतः । - स्वप्ने संजायते कश्चित् स राजामभिवृद्रिये ।।४।।
यदि स्वप्न में कोई धर्म-धान्य ग गुरत ही गाजा नजान या गाडीन। अपने को दग्पे बह राजा की अभिवद्धि का पता: 18! ।।
रुधिराभिषिक्तां कत्वा य: ग्ब ने परिणीयने।
धन्न-धान्य-श्रिया युक्तो न घिरात जावते नरः ॥82।। जो व्यक्ति में #f मा अमिमा हाम विवाद
l है, वह पतित चिरकाल नाग-II दान ।। ||S 21!
शस्त्रेण छिद्यते जिह्वा स्वाने यस्य कथञ्चन ।
क्षत्रियो राज्यमाप्नोति शेषा वृद्धिमवाप्नुयुः ।।8.31 गदि म्वप्न में जिह्वा या शास्त्र ग छान वरना आदि तात्रियो को राज्य की प्राप्ति और अन्य वणं बालों का जयदया होता है 183।।
देव-साधु-द्विजातीनां पूजनं शान्तय हितम् । पापरवप्ना कायस्य शोधनं चौपवासनम् ।।४।।
1. कुमाया म ।
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માનકુલહિતા
पाप-स्वप्नों को शान्ति के लिए देव, साधुजन बन्धु और द्विजातियों का पूजन और सत्कर्म तथा उपवास करना चाहिए ॥841
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एते स्वप्ना यथोद्दिष्टा: प्रायशः फलदा नृणाम् । प्रकृत्या कृपया चैव शेषाः साध्या निमित्ततः ॥851 उपयुक्त यथा अनुसार प्रतिपादित स्वप्न मनुष्यों को प्रायः फल देने वाले हैं, अवशेष स्वप्नों को निमित्त और स्वभावानुसार समझ लेना चाहिए ||85|| स्वप्वाध्याय ममुं मुख्यं योऽधीयेत शुचिः स्वयम् । स पूज्यो लभते राज्ञो नानापुण्यश्च साधवः ॥ 8 ॥
जी पवित्रामा स्वयं इरा स्वप्नाध्याय का अध्ययन करता है, वह राजाओं के द्वारा पूज्य होता है तथा पुण्य प्राप्त करता है ||8 ||
इति नै भद्रवाहुक निमित्ते स्वप्नाध्यायः षद्विशोऽध्यायः समाप्तः 261
विजनवशास्त्र में प्रधानतया निम्नलिखित सात प्रकार के स्वप्न बताये गये है
दुष्ट जो कुछ जागृत अवस्था में देखा हो उसी को स्वप्नावस्था में देखा
जाय ।
के पहले कभी किसी से सुना हो उसी को स्वप्नावस्था में देखे । अनुभूत – जो जागृत अवस्था में किमी भाँति अनुभव किया हो, उसी को स्वप्न में देखे ।
प्रार्थित जिनकी जागृतावस्था में प्रार्थना इच्छा की हो उसी को स्वप्न में दंग ।
कल्पित जिसकी जागृतावस्था में कभी भी कल्पना की गयी हो उसी को स्वप्न में देखे |
भाविक अभी तो देखा गया हो और न सुना गया हो, पर जो भविष्य में घटित होने वाला हो उसे स्वप्न में देखा जाय ।
दोषज वात, पित्त और कफ के विकृत हो जाने से जो स्वप्न देखा जाय । छन सात प्रकार के स्वप्न में से पहले पाँच प्रकार के स्वप्न प्रायः निष्फल होत है वस्तुतः भाविक स्वप्न का फल हो सत्य होता है।
रात्रि के शहर के अनुसार स्वप्न का फल- रात्रि के पहले प्रहर में दख गये एक से, दूगर प्रहर में देखे गये स्वप्न आठ महीने में (चन्द्रमन मुनि
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पविशतितमोऽध्यायः
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के मत से 7 महीने में), नीमरे प्रहर में देखे गये स्वप्न तीन महीने म, चीधे प्रहर में देखे गये स्वप्न एक महीने में (वराहमिहिर के गत ने 16 दिन में), ब्राह्म गृहर्त (उषाकाल) में देखे गये स्वप्न दस दिन में और प्रातःयाम सूर्योदय से कुछ पूर्व देग गये स्वप्न अतिशीघ्र फल देन हैं । अब नान ज्योतिषशास्त्र या आधार पर कुछ स्वप्नों का फल उद्धत किया जाता है
अगुरु-जैनाचार्य भद्रबाहु के मन में- काल रंग का अगुरुदखने गनिसन्देह अर्थ लाभ होता है। जैनाचार्य सेन मुनि के मत में, गुरुख मिलता है। वराहमिहिर के मत , धनलाभ के साथ स्त्रीलाभ भी होता है। बहस्पति के मत रा. -ट मित्रों के दर्शन और आचार्य मयुख एवं दैवज्ञचर्य माणापति रे मत अर्थला के लिए विदेश-गमन होता है। ____ अग्नि-जैनाचायं चन्द्रमेन मुनि के मत से धूम युक्त अभियान में उत्तम काति, वराहमिहिर और पाण्डेय ने मत प्रज्वलित का दाग कार्यामद्धि, दवज्ञ गणपति का गम गे अग्निभाण नादम्वन भनिना। य गाय स्त्री रन की प्राप्ति और वह पति के गत में जायल्या जननी । ...Anur होता है।
अग्निन्दग्ध-जो मनुष्य आमन, पाय्या, या रवान पर वयं धित हो कर अपने शरीर को अग्नि दग्ध होते हए दखनी, मतान्तर अन्य को जन्नता हा देखे और तत्क्षण जाग उठे, तो उसे धन-धान्य की प्राप्ति होती है। अनि में जन कर मत्यू देखने में रोगी पृरुप की मत्यु और स्वस्थ पुरुष बीमार पड़ता है । मह अथवा दूसरी वस्तु को जलने हुए देखना शुभ है । वराहमिहिर के मत से अग्निलाभ भी शुभ है।
अन्न- अन्न देखने में अर्थ-लाभ और सन्तान सी प्राप्ति होती है। आचार्य चन्द्रमेन के मन में प्रवेत अन्न देखने ग डाट मित्रों की प्राप्ति, लान अन्न देखने में रोग, पीला अनाज देखने में हर्ष और कृष्ण अन्न देखने में मृत्यु होती है ।
अलंकार--- अलंकार देग्वना गभ है, परन्तु पहनना कष्टप्रद होता है।
अस्त्र---अस्त्र देखना शुभ फलप्रद, अस्य द्वारा शरीर म साधारण चोट लगना तथा अस्त्र लेकर दूसरे का सामना करना विजयप्रद होता है।
अनुलेपर-श्वेत रंग की वस्तुओं का अनुलेपन शुभ फल देने वाला होता है। वराहमिहिर ने मत से लाल रंग के गन्ध, चन्दन तथा पृष्ठमाला आदि का द्वारा अपने को शोभायमान देदे तो शीत मृत्य होती है।
अन्धकार--अन्धकारमय स्थानों में अति रन, भूमि, गुफा, मुरंग आदि स्थानों में प्रवेश होते हुए देखना रोगमुचक है।
आकाश-भद्रबाहु के मत से निर्मल आकाश देखना शुभ पलप्रद, लाल वर्ण की आभा वाला आकाश देखना वाटप्रद और नील सणं का आकाश देखना
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मनोरथ सिद्ध करने वाला होता है ।
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आरोहण करने
आरोहण वृष, गाय, हाथी, मन्दिर, वृक्ष, प्रासाद और पर्वत पर स्वय हुए देखना या दूसरे को आरोहित देखना अर्थ-लाभ सूचक है। होना है और रोगी की मृत्यु
कपास काग देखने से स्वरूप व्यक्ति
होती है। दूसरे को देते हुए काम देखना
प्रद है ।
कवन्ध
नाचते हुए छीन कबन्ध देखने से आधि व्याधि और धरा का लाभ
होता है । वराहमिहिर के मत मृत्य होती है।
कलश – कलश देखने से धन, आरोग्य और पुत्र की प्राप्ति होती है। कन्दगी देखने से गृह में कन्या उत्पन्न होती है ।
भद्रबाहुसंहिता
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कलह कलह एवं लड़ाई-झगड़े देखने से स्वस्थ व्यक्ति रुग्ण होता है और रोगी की मृत्य हावी है।
काक स्वप्न में काक, सिद्ध, उत्तु और ተኾ जिसे चारों ओर से घेर कर त्रास उत्पन्न करें तो मृत्यु और अन्य को द्वारा उपन करते हुए देखे तो अन्य की मृत्यु होती है
I
कुमारी कुमारी कन्या को देखने से अर्थनाश एवं सन्तान की प्राप्ति होती है। परामिहिर के गत से कुमारी कन्या के साथ आलियन करता देखने क एवं धनक्षय होता है।
कूप --- मन्ये जल या पंकजाने कूप के अन्दर गिरना या डूबना देखने से स्वस्थ व्यक्ति रोगी और रोगी की मृत्यु होती है। तालाब या नदी में प्रवेश करना देखने गे रोगी को मरण तुपकट होता है।
-
वृहस्पति के मत से पुत्र
श्रौर- नाई के द्वारा स्वयं अपनी वा दूसरे की हजामत करना देखने में कष्ट के साथ-साथ धन और पुत्र का नाथ होता है। गणपति देव के मत से मातापिता की मुरमाडे मन से भार के साथ माता-पिता की मृत्यु और होता है। अत्यन्त आय के गाव मे मेलते हुए देखना दुस्वप्न है । फल बृहस्पति के मन से करना एवं करना ब्रह्मवैवर्त पुराण के मन में धन-नाथ, ज्येष्ठ पुत्र या धन्या का मरण और भार्या को कष्ट होता है | नारद के मन में सन्तान-नानी के गत से धन-क्षय के साथ
ल
इस का
-
अपीति होती है।
गमन दक्षिण दिशा की ओर मन करता देखने से धन नाश के साथ कष्ट, पश्चिम दिशा हो और मत करना देखने मे अपमान, उत्तर दिशा की जोर गमन करना देखने ने और पूर्व दिशा की ओर गमन करता देखने में
धन प्राप्ति होती है।
- उच्च स्थान से वार गर्त में गिर जाता देखने में रोगी की
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षड्विंशतितमोध्याय:
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मृत्यु और स्वस्थ पुरुष रुग्ण होता है । यदि रवान में गत में गिर जाय और उट का प्रयत्न करने पर भी बाहर न आ मके तो उसकी दस दिन के भीतर मत्यु होती
___ गाड़ी-- गाय या बैलों के द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी पर बैठे हुए देखने म पृथ्वी के नीचे रा चिर संचित धन की प्राप्ति होती है। वराहमिहिर के मत सेपीताम्बर धारण किय स्त्री को एक ही स्थान पर कई दिनों तक देखने ग उस स्थान पर धन मिलता है। बृहस्पति के मत से स्वप्न में दाहिने हाथ में सपा को काटता हुआ देखने से लक्ष रुपये की प्राप्ति अति पात्र होती है। ___ गाना -स्वयं को गाता हुवा देखने से याष्ट होता है । भद्रबाहू स्वामी के मत से स्वयं या दूसरे को मधुर गाना गाते हुए देखने में मृवादमा में विजय, व्यापार में लाभ और यण-प्राप्ति, बृहस्पति के मत से अर्थ-लाप गाथ भयानाः रोगों का शिकार और पारद के मत से सस्तान-कष्ट और अर्थ-लाभ एवं माकपडेय के मत मे अपार कष्ट होता है।
गाय---"दुहने वाले व गाथ गाय को भवन म कौति और भय लाभ होता है। गणगति देवज के मत में--जल पीली गाय देखन में नमी 4 तुल्य गुण बाली कन्या का जन्म और वराहमिहिर के मन में---स्वप्न में गाय का दर्शन मात्र हो सन्तानोत्पादक है ।
गिरना- स्वरम में लड़यड़ाते हुए गिरना दखने म दुख, चिन्ता एवं मृत्यु. होती है।
गृह--गृह में प्रवेश करना, ऊपर चढ़ना एवं किसी म प्राप्त करना देखने मे भूमि-लाभ और धन-धान्य की प्राप्ति एवं गृह का गिरना देखने में मृत्यु होती है।
घास-कच्चा घास, यस्य (धान), कच्चे गहें एवं चन के पौधे दखने में भाई को गर्भ रहता है । परन्तु इनवा काटने या जाने से गर्भपात होता है।
पत-~-घृत देखने से मन्दाग्नि, अन्य ग लेना दखन में यश-प्राप्ति, धृत-पान करना देखन म प्रमह और शरीर में लगाना देखने में मानसिक चिन्ताओं क साथ शारीरिक कष्ट होता है।
घोटक घोड़ा देखने से अर्थ-लाभ, घोड़ा पर चढमा देवा स टुम्ब-वृद्धि और घोड़ी का प्रसव करना देखने से सन्तान-लाभ होता है ।
चक्षु- स्वप्न में अकस्मात् चक्षुद्वय का नष्ट होना देखने से. मृत्यु और आँख का फूट जाना देखने से कुटुम्ब में किसी की मृत्यु होती है।।
घावर. स्वप्न में शरीर की चादर, चोगा या कमीज आदि यो अवत और लाल रंग को देखने में सन्तान-हानि होती है।
चिता --अपने को चिता पर आरूढ़ देवने ने बीमार व्यक्ति की मृत्य होती हैं और स्वस्थ व्यक्ति बीमार होता है ।
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भद्रबाहुसहिता
जल --रवप्न में विमान जान दम्यन गे कल्याण, जल द्वारा अभिषेक देखने से भूमि प्राप्ति, गल में पारा होना मृत्यु, जल को तैरकर पार करना देखने में सुग्न और जल पीना दमन गट होता है।
जना रबान में जता देखने में विदेश-यात्रा, जता प्राप्त कर उपभोग करना दमन मे उबर, एवं जना स मार-पीट करना देखने में छ महीने में मत्य होती है।
निल-तेल-तिल तेल और मुली की प्राप्ति होना देखन कट, पीना और भक्षण करना देखने म मत्प, मालिश करना देखन ग मत्य तुल्य कष्ट होता है।
दयि... स्वप्न में दही दखने म प्रीति, भक्षण वरना देखने से यश-प्राप्ति, भात के साथ भक्षण करना दमन में मन्ताम-लाभ और दूसरों को देना-लेना देखने से अर्थलाभ होना है।
न - दांत कामगार हो गये और गिरने के लिए तैयार हैं, या गिर रहे म देखने ग धन का नाश और शागरिक होता है 1 बमहमिहिर वे मत में ग्वा में नमा, दान और गो . गिरना नायना मायमचा है।
दीपक-- स्वप्न में दीपक जला हा देखने में अधनाप, स्मात् निर्वाण प्राप्तहान म मत्य और ऊध्वं लो दलने से यश-प्राप्ति होती है ।
देव प्रतिमा-स्ट देव या दोन पूजन और आह्वान करना देखने में निकाली प्रानि मा पर गोश मिलता है। स्वप्न में प्रतिमा कामिगत होना. गिरगा, हिलना, चलना, नाचना और गात हा देयने से आधिव्याधि और मत्यु होती है।
नग्न--- स्थान में नग्न होकर मस्तक पर लाल रंग की पुष्पमाला धारण करना म्वन ग मन्य होती है।
लत्य - स्वप्न में स्वयं का नत्य ना दमने से रोग और दूसरों की नृत्य यस्ता हुआ दमन में अपमान होता है। वहमिहिर के मन म-नत्य का किसी भी रूप में दाना गभमुचक है।
पक्वान्न म्हाना में पक्वान्न कहीं से प्राप्त कर भक्षण करता हुआ देखे तो रोगी की गन्य होती है। और ग्वस्थ बाक्ति बीमार होता है। स्वप्न में पूरी, कारी, मालपुआ और मिष्टान्न ताना देखने में गीध मृत्यु होती है।
फल .- वन में फल देखने से धन की प्राप्ति, फल खाना देखने से रोग एवं सन्तान-नाश, और फल का अपहरण करना देखने से चोरी एवं नृत्यु आदि अनिष्ट फलों की प्राप्ति होती है।
फूल - स्वप्न में श्वेत पुष्यों का प्राप्त होना देखने से धन-लाभ, रक्तवर्ण के पुरुषों का प्राप्त होना देने ग गंग. पीतवर्ण के गुप्पों का प्राप्त होना देखने से यश एवं धन-लाभ. हरितवर्ण के पुष्पों का प्राप्त होना देखने में इप्ट-मित्रों का मिलना और वृष्ण गण के पुष्प देखो गे मृत्यु होती है।
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भूकम्प - भूतःस्प होना देखने से रोगो की मृत्यु और स्वस्थ व्यक्ति रुग्ण होता है । चन्द्रसेन मुनि के मत से स्वप्न में भूकम्प देखने से राजा का भरण होता है । भद्रबाहु स्वामी के मत से स्वप्न में भूकम्प होना देखने से राज्य विनाश के साथ-साथ देश में बड़ा भारी उपद्रव होता है।
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मल-मूत्र -- स्वप्न में मल-मूत्र का शरीर में लग जाना देखने से धनप्राप्ति; भक्षण करना देखने से सुख और स्पर्श करना देखने से सम्मान मिलता है ।
मृत्यु - स्वप्न में किसी की मृत्यु देखने से शुभ होता है और जिसकी मृत्यु देखते हैं वह दीर्घजीवी होता है । परन्तु अन्य दुःखद घटनाएँ सुनने को मिलती हैं । यव - स्वप्न में जो देखने से घर में पूजा, होम और अन्य मांगलिक कार्य होते हैं ।
युद्ध - स्वप्न में युद्ध विजय देखने से शुभ, पराजय देखने मे अशुभ और युद्ध सम्वन्धी वस्तुओं को देखने से चिन्ता होती है ।
रुधिर- स्वप्न में अरीर में में रुधिर निकलता देखने से धन-धान्य की प्राप्ति; रुधिर से अभिषेक करता हुआ देखने से गुख; नान देखने से अर्थ-नाम और रुधिरपान करना देखने से विद्या लाभ एवं अर्थलाभ होता है ।
ला--स्वप्न में कण्टकवाली लता देखने मे गुल्न रोग; साधारण फल-फूल सहित लता देखने से नूपदर्शन और लता के कीड़ा करने से रोग होता है ।
लोहा - स्वप्न में लोहा देखने में अनिष्ट और लोहा या लोहे से निर्मित वस्तुओं के प्राप्त करने से आधिव्याधि और मृत्यु होती है ।
वमन --- स्वप्न में वमन और दस्त होना देखने से रोगी की मृत्युः मल-मूत्र और सोना-चाँदी का वमन करता देखने से निकट मृत्यु रुधिर वमन करना देखने
छः मास आयु शेष और दूध वमन करना देखने में पुत्र प्राप्ति होती है ।
विवाह स्वप्न में अन्य के विवाह या विवाहोत्सव में योग देना देखने से पीड़ा, दुःख या किसी आत्मीय जन की मृत्यु और अपना विवाह देखने से मृत्यु या मृत्यु-तुल्य पीड़ा होती है।
दीना - स्वप्न में अपने द्वारा वीणा बजाना देखने से पुत्र प्राप्ति; दूसरों के द्वारा वीणा बजाना देखने में मृत्यु या मृत्यु तुल्य पीड़ा होती है ।
शृंग- - स्वप्न में श्रृंग और नखवाले पशुओं को मारने के लिए दौड़ना देखने में राज्य भय और मारते हुए देखने से रोगी होता है ।
स्त्री - स्वप्न में श्वेत वस्त्र परिहिता, हाथों में श्वेत पुष्प या माला धारण करने वाली एवं सुन्दर आभूषणों सुशोभित स्त्री के देखने तथा आलिंगन करने धन प्राप्ति रोग मुक्ति होती है। परस्त्रियों का लाभ होना अथवा आलिंगन करना देखने से शुभ फल होता है। वस्त्र परिहिता पीत पुष्प या पीत माला
धारण करने वाली स्त्री की स्वप्न में देखने से कल्याण; समवस्त्र परिहिता, मुक्त
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सहिता
केशी और कृष्ण वर्ग के दीवाली स्त्री का दर्शन या आलिंगन करना देखने से छः माग के भीतर मृत्यु और कृष्ण वर्ण बाली पापिनी आचार्यवहीना लम्बकेशी लम्बे रतन वाली और मैंने वस्त्र परिहितास्त्र और आलिंगन करना
देखने में शीघ्र मृत्यु होती है।
तिथियों के अनुसार स्वप्न का फल -
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शुक्लपक्ष को प्रतिपदा
मिलता है ।
इस तिथि में स्वप्न देखने पर विलम्ब से फल
शुक्लपक्ष की द्वितीया- इस तिथि में स्वप्न देखने पर विपरीत फल होता है | अपने लिए देखने से दूरी को और दूसरों के लिए देखने में अपने को फल मिलता है।
-
शुक्लपक्ष की तीया उस तिथि में भी देखने में विपरीत फल मिलता है । पर फल की प्राप्ति है।
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी और पंचमी तिथियों में स्वप्न देखने दो महीने मेरी वर्ष तक के भीतर छवि है।
शुक्लपक्ष की षष्ठी, सनम अष्टमी, नवमी और दशमी इन तिथियों में स्वप्न देने से फल की प्राप्ति होती तथा स्वप्न सत्य निकलता है । शुक्लपक्ष की एकादशी और द्वादशी तिथियों में स्वप्न देखने से विलम्ब
से फल होता है।
——
शुक्लपक्ष की त्रयोदशी और चतुर्दशी - इन तिथियों में स्वप्न देखने मे स्वप्न का फल नहीं मिलता है तथा स्वप्न विया होते है।
पूर्णिमा- इस विधि के स्वप्न का फल अवश्य मिलता है । कृष्णपक्षको प्रतिपदा- इस तिथि के स्वप्न का फल नहीं होता है ।
कृष्णपक्ष की द्वितीया-इन तिथि के स्वप्न का फल विलम्ब से मिलता है। मतान्तर से इसका स्वप्न सार्थक होता है।
कृष्णपक्ष की तृतीया और चतुर्थी इन तिथियों के स्वप्न मिथ्या होते हैं । कृष्णपक्ष की पंचमी और वा इन तिथियों के स्वप्न दो महीने बाद और तीन वर्ष के भीतर फल देने वाले होते है। कृष्णपक्ष की सप्तमी इस तिथि का स्वप्न अवश्य मीत्र ही फल देता है। कृष्णपक्ष की अष्टमी और नवमी - इन तिथियों के स्वप्न विपरीत फल देने बाने होते हैं ।
-
कृष्णपक्षको दशमी, एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी का तिथियों के स्वप्न मिथ्या होते है।
कृष्णपक्षको चतुर्दशी तिथि का स्वराज्य होता है तथा नीघ्र हो फल देता है।
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अावस्या.. स तिथि का रवन मिया होता है ।
धनप्राप्ति सूचक फल - स्वप्न में हाथी, घोड़ा, बैल, सिंह के ऊपर बैठवार गमन करता हआ देखे तो शीत्र धन मिलता है। पहाड़, नमर, ग्राम, नदी और सगुद्र के देखने में भी अनुल लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। तलवार धनप और बन्दुक त्रादि मे शत्रुओं को ध्वंग करताहना देखने में अपार धन मिलता है। स्वप्न में हाथी, घोड़ा, बल, बहाद, वृक्ष और गृह इन पर आरोहण करना हा देखने से भमि के नीचे स धन मिलता है 1 स्वप्न नख और रोम से रहित शरीर वे देखने में लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। स्वप्न में दही, छत्र, फन, चमर, अन्न, वरव, दीपया, लाल, मुर्य, चन्द्रमा, पृाप, कागल, चन्दन, देव-पूजा, वीणा और अरत्र देखने में शीघ्र ही अर्थ-नाभ होता है। यदि स्वप्न में चिड़ियों के पर पकड कर उड़ता हुआ देखे तथा आकाशमागं में देवनाओं की अनुभि की आवाज सुने तो पृथ्वी के नीचे से शीना धन मिलता है।
सन्तानोत्पादक स्वप्नः-स्वप्न में वृषण, पानश, माला, गन्ध, चन्दन, श्वेत पुष्ध, आम, अमाद, केना, मन्नाग, नीबू और नायिल इनकी प्राप्ति होग से तथा देशमूर्ति, हाथी, गापुर, सिद्ध, गन्धर्थ, गृम, वणं, ग्ल, जी, गा, मरसों, कन्या, रक्तगान मारना, अपनी मृत्यु दाना, बना, गावक्ष, तीर्थ, तोरण, भएण, राज्यमार्ग, और मट्ठा दखन मनीष ही सन्तान की प्राप्ति होती है । किन्न फल और पृष्पों का भक्षण करना देखने से मन्जान मरण अथवा गर्भपात होता है।
मरण सूचक स्वप्न-स्वान में तैल मले हुए, नग्न होत र भैग, गधे, ऊंट, कृष्ण बल और काले घोडे पर चढ़कर दक्षिण दिशा की ओर गमन करना देखने में: रगोईगह में, लाल पुष्पों में परिपूर्ण वन में और गतिका गृह में अंगभग पुरुप का प्रवेश करना देखने में; सूलना, गाना, खलना, फोड़ना, हेगना, नदी के जल में नीचे चले जाना तथा मुर्य, चन्द्रमा, ध्वना और ताराओं का गिरना देखने से; भस्म, घी, लोह, लाग्य, गीदड़, मुर्गा, बिलाव, गोह, न्योला, विक, मकापी, सर्प और बिबाह आदि उत्सव देखने में एबं स्वप्न में दाढ़ी, मुंछ और सिर के बाल मड़वाना देखने में मृत्यु होती है।
पाश्चात्य विद्वानों के मतानसार स्वप्नों के फल-या तो पाश्चात्य विद्वानों ने अधिकांश रूप से स्वप्नों को निस्मार बताया है, पर कुछ एसे भी दार्शनिक हैं जो स्वप्नों को सार्थक बतलाते हैं। उनका मन है कि स्वप्न में हमारी कई अतप्त इच्छाएं भी चरितार्थ होती हैं। जैसे हमारे मन में कहीं भ्रमण करने की
क्या होने पर स्वप्न में यह देखना कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हार कहीं भ्रमण कर रहे हैं । सम्भव है कि जिम इसना ने हमें ब्रमण का स्वप दिखाया है वही नालान्तर में हमें भ्रमण कराये। इसलिए स्वप्न में भावी घटनाओं का आभास मिलना माधारण बात है। कुछ विद्वानों ने इस थ्योरी का नाम सम्भाव्य गणित रक्षा
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भद्रवाहुसंहिता
है। इस सिद्धान्त के अनुसार स्वप्न में देवी गई थुछ अतृप्त इच्छाएँ सत्य रूप में चरितार्थ होती है। क्योंकि बहुत समय में कई इच्छाएं अज्ञात होने के कारण स्वप्न में प्रकाशित रहती हैं और ये ही इच्छाएं किसी कारण से मन में उदित होकर हमारे तदनुरूप कार्य करा सकती हैं। मानब अपनी इच्छाओं के बल से ही सांसारिक क्षेत्र में उन्नति या अवनति करता है, उसके जीवन में उत्पन्न इच्छाओं में कुछ इच्छाएँ अप्रस्फुटित अवस्था में ही विलीन हो जाती हैं, लेकिन कुछ इच्छाएं परिपक्वावस्था तक चलती रहती हैं। इन इच्छाओं में इतनी विशेषता होती है कि ये विना तृप्त हुए लुप्त नहीं हो सकतीं । सम्भाव्य गणित के सिद्धान्तानगार जब स्वप्न में परिपक्वावस्था वाली अतप्त इच्छाएं प्रतीकाधार को लिये हुए देखी जाती हैं, उस समय स्वप्न का भात्री फल सत्य निकलता है । अवाधभावानुसंग में हमारे मन के अनेक गुप्त भाव प्रतीकों से ही प्रकट हो जाते हैं, मन की स्वाभाविक धारा स्वप्न में प्रवाहित होती है, जिसमा स्वप्न में मन की अनेका चिन्ताएं गंधी हुई प्रतीत होती हैं। स्वामी साथ सोफाष्ट मन की जिन चिन्ताओं और गुप्त भावों का प्रती गाभारा मिलता है, वही स्वप्न का अव्यक्त अंश भावी पाल के रूप में प्रगट होता है। अस्तु, उपलब्ध सामग्री के आधार पर कुछ स्वप्नों के फल नीचे दिये जाते हैं।
अस्वस्थ-- अपने सिवाय अन्य किसी को अस्वस्थ देखने मे कष्ट होता है और स्वयं अपने गो अस्वस्थ देखने में प्रसन्नता होती है। जी ० एच० मिलर के मत स, स्वप्न में स्वयं अपने को अस्वस्थ देखने से स्त्रियों के साथ मेलमिलाप बढ़ता है एवं एक पास के बाद स्वप्नद्रष्टा को कुछ शारीरिक कष्ट भी होता है तथा अन्य को अश्वस्थ देखने द्रष्टा शीत्र रोगी होता है। डॉक्टर सी० जे० बिटवे के मतानुगार, अपने को अवश्य देखने से सुख-शान्ति और दूसरे को अरबस्थ देखने में विपनि होती है। शुकगत के सिद्धान्तानुसार, अपन और दूसरे को अस्वम्श्य देखना रोगगुचक है। विवलोनियन और पृथगनोरिया के सिद्धान्तानुमार, अपने को अस्वस्थ दाना नीरोग गुचक और दूसरे को अस्वस्थ्य देखना पुल-मित्रादि के रोग को प्रकट करने वाला होता है। ___आवाज : स्वप्न में किसी विचित्र आवाज को स्वयं सुनने से अशुभ सन्देश सुनने को मिलता है। यदि स्याप्न की आवाज सुनकर निद्रा भंग हो जाती है तो मारे कार्यों में परिवर्तन होने की ग़म्भावना होती है । अन्य किसी की आबाज गुनत हा दराने में और स्त्री को कष्ट होता है तथा अपने अति निकट
टुम्बियों को वाअ गुनत हु। दयने में किसी आमीय की मृत्यु प्रकट होती है । टार जी. एच. मिलर मत मावाज सुनना भ्रम का द्योतक है।
र यदि स्वप्न में कोई चीज अपने ऊपर लटवाती हुई दिखाई पड़े और उस के मिरत का सन्देह हो तो शत्रुओं के द्वारा धोखा होता है। ऊपर गिर जाने
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से धन-नाश होता है, यदि ऊपर न गिरकर पास में गिरती है तो धन-हानि के साथ स्त्री-पुत्र एवं अन्य कुटुम्बियों को काट होता है। जी० एच० मिस र क मत से, किसी भी वस्तु का ऊपर गिरना धननाश कारक है। डॉ० सी० ज० हिटथे के मत में किसी वस्तु के ऊपर गिरने से तथा गिरकर चोट लगने से मृत्युमुल्य कष्ट होता है।
कटार.-स्वप्न में कटार के दखन से काट और नटार चलाते हए देखने से धनहानि तथा निकट युटुम्बी के वर्ष, म प्रोजन एवं पानी पेम होता है। किसी-किसी के मत ग अपने में स्वयं कटार मांकते हुए देखने : किसी ब रोगी होने के समाचार सुनाई पड़ते हैं।
कनेर -स्वप्न में कनेर के फूल वृक्ष का दर्शन करने से मान-प्रतिष्ठा मिलती है। कनेर ने वृक्ष से फूल और पत्तों को गिरना देने से किसी निकट आत्मीय की मृत्यु होती है । कनेर या फल भक्षण करना रोगसूचक है, तथा एक सप्ताह के भीतर अत्यन्त अशान्ति देने वाला होता है। मानेर में वृक्ष के नीचे बैठकर पुस्तक पढ़ता हुआ आन को देखने से दो वर्ष के बाद साहित्यिा क्षेत्र में यश की प्राप्ति होती है, एवं नय-नग प्रयोग का आविना होता है। ___किला--विल की रक्षा लिए लड़ाई को हुए देखने से मानहानि एवं चिन्ताएं; किले में नमण पारन स शारीरिक कष्टः किले के दरवाजे पर पहा लगाने में प्रेमिका से मिलन एवं मित्रों की प्राप्ति और गिन्ने के देखने मानस परदेशी वन्धु मिला होता है तथा गुन्दर स्वादिष्ट मांग भक्षण को मिलता है।
फला---स्वप्न में कला का दर्शन शुभफल दायक होता है और बल का भक्षण अनिाट पन देने वाला होता है। किसी का हाथ में जबरदस्ती वा कर खाने म मृत्यु और फेणे i र गोगा सयोग गाय कले थम्भ लगाने श घर में मांगलिक कार्य होने हैं।
केश .. Hi मुदरी नाश पावन में चम्बन क ग प्रेमि-मिलन और नाशक दान में गुकदमे में गजय पचं दैनिकः नार्यों में असफलता मिलती है। __खल–स्वप्न में किसी गुट के दर्शन करने में मित्रों से अनबन और लड़ाई करने से भिवा म प्रेम होता है। ग्ल माथ मित्रता नारने में नाना भय और चिन्ताएं उत्पन्न होती है । जल के साथ भोजन-पान करने से शारीरिता बाट, बातचीत करने से रोग और उसके हाथ ग दु लने से मनाड़ी गायों की प्राप्ति होती है। किसी-किगी के मन में या दर्शन शुग माना गया है।
खेल- -२ वप्न में वति भवने गरवारथ्य यदि पार गर्ग को न हुए देखने से याति-लान होना है। मन में अपने मात मगन में कार्य साफल्य और जय देखने स कार्य-हानि होती है। साल का प्रयान दधन ग युद्ध में भाग
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भद्रबाहुसंहिता
लेने का संकेत होता है । खिलाड़ियों का आपस में मल्ल युद्ध करते हुए देखना बड़े भारी रोग का सूचक है ।
गाय-यदि स्वप्न में कोई गाय दुहने की इन्तजारी में बैठी हुई दिखाई पड़े तो सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है। गाय का दर्शन, जी० एच० मिलर के मत से, प्रेमिका-मिलन सूचक बताया गया है । चारा खाते हुए गाय को देखने से अन्न प्राप्ति; बछड़े को पिलाते हुए देखने से पुत्रप्राप्ति, गोबर करते हुए गाय को देखने से धनप्राप्ति और पागुर करते हुए देखने से कार्य में सफलता मिलती है।
घड़ी-स्वप्न में बड़ी देखने से शत्रुभय होता है । घड़ी के घण्टों की आवाज सुनने से दुःखद संवाद सुनते हैं, या किसी मित्र की मृत्यु का समाचार सुनाई पड़ता है। किसी के हाथ से घड़ी गिरते हुए देखने से मृत्युतुल्य कष्ट होता है । अपने हाथ की घड़ी का गिरना देखने से छ: महीने के भीतर मृत्यु होती है।
चाय - स्वप्न में चाय का पीना देखने से शारीरिक वाष्ट; प्रेमिका वियोग एवं व्यापार में हानि होती है । मतान्तर से चाय पीना पाभकारक भी है ।
जन्म - यौद स्वप्न में कोई स्त्री वच्चे का जन्म देख तो उसकी किसी सखी, सहली को पुत्र प्राप्ति होती है तथा उसे उपहार मिलते हैं। यदि पुरुप यही स्वप्न देखे तो यश-प्राप्ति होती है ।
___ झाड़-यदि स्वप्न में नया झाड़ दिखाई पड़े तो शोध ही भाग्योदय होता है। पुराने झाडू का दर्शन करने से सट्टे में धन-हानि होती है। यदि स्त्री इसी स्वप्न को देख तो उसे भविष्य में नाना कष्टों का सामना करना पड़ता है। ___ मत्यु-- मृत्यु देखने से किसी आत्मीय की मृत्यु होती है; किन्तु जिस व्यक्ति की मृत्यु देखी गयी है, उसका कल्याण होता है । मृत्यु का दृश्य देयना, गरत हु। व्यक्ति की छटपटाहट देखना अशुभसूचक है। किमी सबारी से नीचे उतरत ही मत्य देखना राजनीति में पराजय का सूचक है। सवारीक ऊपर चढकर ऊंचा उटना तथा किसी पहाड़ पर ऊँचा चढ़ना शुभफल सूचक होता है।
पुद्ध-स्वप्न में युद्ध का दृश्य देखना, युद्ध में भयभीत होना, मारकाट में भाग लेना तथा अपने का युद्ध में मत देखया जीवन में पराजय का सूचक है ! इस प्रकार का स्वप्न देखन से सभी क्षेत्रों में असफलता मिलती है । जो व्यक्ति युद्ध में अपनी मृत्यु देखता है, उसे कष्ट सहन करने पड़ते है तथा वह प्रेम में असफल होता है । जिसस वह प्रेम करता है, उसकी और से ठुकराया जाता है। शुद्ध में विजय देखना सफल प्रेम का सूचक है । जिग प्रेमिका या प्रेमी को व्यमित चाहता है वह सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाता है । नहोकर युद्ध करत हा न ग नव में सफलता मिलती है तथा जनर याना पर मजिन :रने का ii मिलता है । यदि ना व्याक्त किसी सवारी पर कहोकर रणभूमि म जाता
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शास्तविंशतितमोऽध्यायः
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हुआ दृष्टिगोचर हो तो इस प्रकार के स्वप्न के देखन से जीवन में अनेक तरह की सफलता मिलती है।
सप्तविंशतितमोऽध्यायः
यदा स्थिती जोवबुधौ ससूर्या राशिस्थितानाञ्च तथानुवतिनौ । नृनागबहावरसंगरस्तदा भवन्ति वाता: समुपस्थितान्ताः ॥11॥
जन्न बृहस्पति और बुध गुर्य का साथ स्थित होकर स्वराशियों में स्थित ग्रहा के अनुवर्ती हो और मनुष्य, रापं तथा अन्य छोटे जन्तु युद्ध करने दिखलायी पड़े तब भयंकर तूफान आता है ।।1।।
न मित्रभावे सुहृदो समेता न चाल्पतरमम्बु ददाति वासवः। भिनत्ति वज्रेण तदा शिरांसि महीभतां चाप्यपवर्षणं च ।।2।।
यदि शुभ ग्रह मित्रभाव में स्थित न हो तो वर्षा का अभाव रहता है तथा इन्द्र पर्वतों के मस्तक को बन गनर करता है-पर्वतों पर विध पात होता है और अवर्षण रहता है 112॥
सोमग्रहे निवृत्तेषु पक्षान्त चेद् भवेद्ग्रहः । तत्रानयः प्रजानां च दम्पत्योवरमादिशेत् ॥३॥
चन्द्रमा की निवृत्ति होने पर पक्षान्त में यदि कोई अशुभ ग्रह हो तो प्रजा में अनीति-- अन्याय और दम्पति वैर होता है ।।3।।
कृत्तिकायां दहत्याती रोहिण्यामर्थसम्पदः । दंशन्ति मूषिका: सौम्ये चायां प्राणसंशय: ।।4।।
कृनिका नाम नहीन वस्त्र या नवीन धारण करने में अग्नि जलानी है, गहिणी में धन-सम्पनि को प्रातril है, मगर पं मूषण नाटते हैं और आर्द्रा में प्राणों का मगम उत्पन्न हो जाता है ।
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भद्रबाहुसंहिता
धान्यं पुनर्वसौ वस्त्रं पुष्यः सर्वार्थसाधकः । आश्लेषासु भवेद्रोगः श्मशानं स्यान्मधासु च ॥5॥
पुनर्वसु में नवीन वस्त्र या नवीन वस्तु धारण करने से धान्य की प्राप्ति होती है, पुष्य नक्षत्र में धारण करने से सभी अभिलाषाओं की पूर्ति होती है, आश्लेषा में रोग होता है और मघा नक्षत्र में श्मशान - मरण प्राप्त होता है ॥15॥
पूर्वाफाल्गुनी शुभदा राज्यदोत्तरफाल्गुनी ।
वस्त्रदा संस्मृता लोके तूत्तरभाद्रपदा शुभा ।।6।।
पूर्वा फाल्गुनी में नवीन वस्त्र धारण करने से शुभ होता है, उत्तरा फाल्गुनी में राज्य की प्राप्ति होती है, और उत्तराभाद्रपद शुभ और वस्त्र देने वाली कही गयी है ||6||
हस्ते च ध्रवकर्माणि चित्रास्वाभरणं शुभम् ।
मिष्टान्नं लभ्यतं स्वाती विशाखा प्रियदर्शिका ॥7॥
हस्त नक्षत्र में ध्रुव कार्य - स्थिर कार्य करना शुभ होता है, चित्रा नक्षत्र में आभरण धारण करना शुभ होता है, स्वाति नक्षत्र में वस्त्र, आभरण धारण करने से मिष्टान्न की प्राप्ति होती है और विशाखा नक्षत्र में धारण करने से प्रिय का दर्शन होता है || 7 ||
अनुराधा वस्त्रदात्री ज्येष्ठा वस्त्रविनाशिनी । मरणाय तर्थवोक्ता हानिकारणलक्षणा ॥8
नये वस्त्रावरण धारण करने वालों की अनुराधा नक्षत्र वस्त्र देने वाला, ज्येष्ठा वस्त्र का विनाश करने वाला, मरण देने वाला और हानि करने वाला होता है ॥४॥
मूलेन क्लिश्यते वस्त्रं पूषायां रोगसम्भवः । उत्तरा वस्त्रदा स्थाता श्रवणो नेत्ररोगदः ॥9॥
मूल नक्षत्र में वस्त्र धारण करने वाले को बन्लेश, पूर्वाषाढ़ा में रोग, उत्तरा भाद्रपद में वस्त्र प्राप्ति और श्रवण नक्षत्र में नवीन वस्त्राभरण धारण करने से नेत्र रोग होता है ॥9॥
धनिष्ठा धनलाभाय शतभिषा विषाद्भयम् । पूर्वभाद्रपदात्तोयमुत्तरा बहुवस्त्रदा ।।।।।
1. राज्ञश्त्रतिर 2 मायां ।
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सप्तविंशतितमोऽध्यायः
धनिष्ठा नक्षत्र में नवीन वस्त्राभरण धारण वारने से अनलाभ, शतभिषा में धारण करने से विष का भय तथा पूर्वाभाद्रपद में और उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों में धारण करने से बहुत वस्त्रों की प्राप्ति होती है ||1|
रेवती लोहिताय स्याद् बहुवस्वा तथाविनी । भरणी यमलोकार्थमेवमेव तु कष्टदा ॥ u
रेवती नक्षत्र में नवीन वस्त्राभरण धारण करने मे सोहित-जंग लगना, अश्विनी गं धारण करने से बहुतों का होगा और रणी नक्षत्र में नवीन वस्त्राभरण धारण करने से मरण या तनुल्य कष्ट होता है ॥1
शुभग्रहाः फलं दधुः पञ्चाशद्दिवसेषु तु ।
षष्ठ्यःस्वथवा सर्व पापा नवदिनान्तरम् ।।12।।
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शुभग्रह पचास या साठ दिनों के उपरान्त नहीं दिनों के उपरान्त फल देते हैं ||| 2 |
शुभाशुभ वीक्ष्यतु यो ग्रहाणां गृहो सुवस्वव्यवहारकारी । समवाप्य समस्त भोगं निरस्तरोगो व्यसनैर्विमुक्तः ।।131
जो गृहस्थ ग्रहों के शुभाशुभ को देखकर यन्त्रों का व्यवहार करता है, वह समस्तों को प्राप्त कर आनन्दित होता है तथा रोग और व्यसनों से छुटकारा प्राप्त करता है 1113।।
इति श्रीभद्रवाहविरचिते महानिमित्तशास्त्र सप्तशतितमं । [रनिमित्तकोऽध्यायः ॥ 27 ॥
वस्त्रव्यवहारा
|| निमित्तं परिसमाप्तम् ॥
વિત ग्रह और नक्षत्र शुभाशुभ क्रूर गांम्य आदिजनक प्रकार के होन है शुभ ग्रह और शुभ नक्षत्रों का फल शुभ और यह नर अशुभ नक्ष काफल मिलता है। इस अध्याय में साधारणतया नवीन वस्त्राणादि धारण करने के लिए कान कान नाक से और अनि किया गया है | क्षत्रों में विशेष का कशा उनकी गजानन जायेगा
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भद्रबाहुसंहिता
शान्ति, गृह, वाटिका विधायक नक्षत्र
उतरायरोहिण्यो भास्करश्च ध्रुवं स्थिरम् ।
तत्र स्थिर बीजगहशान्त्यारामादिसिद्धये ॥ उत्तराफाल्गुनी, उत्तरापाढा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी ये चार नक्षत्र और रविवार, इनकी ध्रुब और स्थिर संज्ञा है। इनमें स्थिर कार्य करना, बीज बोना, घर बनवाना, शान्ति कार्य करना, गाँव के समीप बगीचा लयाना आदि कार्यों के साथ मदु कार्य करना भी शभ होता है।
हाथी-घोड़े की सवारी विधायक नक्षत्र
स्वात्यादित्य श्रुतस्त्रीणि चन्द्रश्चापि पर चलम् ।
तस्मिन् गजादिमारोहो वाटिकागमनादिकम् ।। स्वाति. पुनर्वगु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा में पांच नक्षत्र और सोमबार इसकी चर और नल राज्ञा है । इनमें हाथी-घोड़े आदि पर चढ़ना, बगीचे आदि में जाना, यात्रा मारना आदि शुभ होता है। विषशस्त्रादि विधायक नक्षत्र
पूवं त्रयं याम्यमघे उग्रं ऋरं कुजस्तथा । तरिमन पातानिमात्यानि विगात्रादि सिद्ध्यति । विशाखाग्नयभे मोम्यो मिथं साधारणं स्मृतम् ।
त वाग्निकार्ग मिथं च वृपोन्सर्गादि सिध्यति ।। गिनी, पूर्वापाहा, भाद्रपद, भरणी. मघा ये पांच नक्षत्र और मंगल दिन की क्रूर बार इन राज्ञा है। इनमें मारण. अग्नि-कार्य, धूर्ततापूर्ण कार्य, बिपकाय, अस्त्र- णि एवं उमरावहार करने का कार्य सिद्ध होता है।
विशा', Riका ये दो नक्षत्र और बुध दिन इनकी मिथ और साधारण संज्ञा है। इसमें अग्निहोत्र, साधारण कार्य, पोत्सर्ग आदि कार्य सिद्ध होते हैं । आभूषणादि विधायक नक्षत्र
है प्याभिनितः क्षिला घुगु मस्तदा ।
यि तिज्ञानभूपाशिल्पकलादिकम् ।। हात. नी, 'प, अभिजित् ये चार नत्र और बृहस्पति दिन, इनकी
और आप और गा गंजा है। इनमें बाजार का कार्य. सजी-समाग, स्त्रादि का शान, मागणी का बनवाना और पहनना, जिसकाग, गाना-बजाना आदि कार्य सफ न हो। है।
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सप्तविशतितमोऽध्यायः
मित्रकार्यादि विधायक नक्षत्र
मृगान्त्यचित्रामित्रक्षं मृदुमैत्रं भृगुस्तथा । तत्र गीताम्बरकी डामित्रकार्य विभूषणम् ॥
मृगसिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा ये चार नक्षत्र और शुक्रवार इनकी मृदु और मैत्र संज्ञा है। इनमें गाना, वस्त्र पहनना, स्वी के साथ रति करना, मित्र का कार्य और आभूषण पहनना शुभ होता है ।
पशुओं को शिक्षित करना तथा दारु-तीक्ष्ण कार्य विधायक नक्षत्र भूमेन्द्राद्वहिर्भ सौरिस्तीक्ष्णं दासंज्ञकम् 1 तत्राविचारसातोग्रभेदाः पशुमादिकम् ।।
ग्रहों का स्वरूप
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मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा, आषा ये चार नक्षत्र और अनि तीक्ष्ण और दासंज्ञक । इन भयानक कार्य करना, मारना पीटना, दापोडे आदि को खिलाना ये कार्य सिद्ध होत हा
ग्रहों का स्वरूप जान लेना भी आवश्यक है ।
सूर्य- यह पूर्व दिशा का स्वामी, पुरुष ग्रह मम वर्ण, पित्त प्रकृति और पा ग्रह है। यह सिंह राशि का स्वामी है। सूर्य आत्मा स्वभाव आरोग्यता, राज्य और दबालय का सूचक है। पिता के सम्बन्ध में सूर्य से नेत्र, अनेजा, मरुदण्ड र वायु आदि अवों पर है । यह लग्न से सम्मान में बना गया विष्टबची है। इससे आरीरिक रोग, सिख, अब अय, महाज्वर, अतिसार, मन्दारिख, विकार, मानसिक रोग, उशया सेद, अपमान एवं फल आदि का विचार किया जाता है।
विचार किया जाता हूँ । मचा विशेष प्रभाव पड़ता मार से राशि पर्यन्त
चन्द्रमा पश्चिमांतर दिशा का स्वामी स्त्री स्वेतवर्ण और गलग्रह है । यह क्रकंदराशि का स्वामी है। बात इसकी धातु है। माता-पिता, निवृत्ति, शारीरिक पुष्टि, राजानुग्रह, सम्पनि र चतुर्थ स्थान का कारक है। चतुर्थ स्थान न चन्द्रमा बली और मरनियों में इनका वल है। कृष्णपक्षको पष्ठी म लुक्न पक्ष की दशमी क्षीण चन्द्रहने के कारण ग्रह और बुक्ल पक्ष dreamin an pour rear di mana a qui soita as a game fr मूत्रकृच्छ स्त्रीजन्य रोग, माना गया है। उराम पाण्डुसंग अन्नज तथा कफन रोग, भानाया. या उदर और भरत सम्बन्धी का विचार किया जाता हूँ। मंगल--दक्षिण दिशा का स्वामी, पुरुष जाति, पित्तप्रकृति, रक्तवर्ण ओर
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भद्रबाहुसंहिता
अग्नि तत्त्व है। यह स्वभावतः पाप ग्रह है, धैर्य तथा पराक्रम का स्वामी है । यह मेष और वृश्चिक राशियों का स्वामी है। यह तीसरे और छठे स्थान में बली और द्वितीय स्थान निमल हो है।
बुध .. उत्तर दिशा का स्वामी, नपुंसक, विदोष प्रकृति, पयामवर्ण और पृथ्वी तत्व है। यह पापग्रह मू०, म०, रा०, १०, रा. के साथ रहने से अशुभ और चन्द्रमा, गुरु और शुक्र के साथ रहने से शुभ फलदायक होता है । इससे वाणी का विचार किया जाता है । मिथुन और कन्या राशि का स्वामी है 1
गुग---पूर्वोत्तर दिशा का स्वामी, पुरुष जाति, पीतवर्ण और आकाश तत्त्व है। यह चर्वी और कफ की वृष्टि करने वाला है। यह धनु और मीन का स्वामी है ।
शुक्र----दक्षिण-पूर्व का स्वामी, स्त्री, श्याम-गौर वर्ण एवं कार्य कुशल है । छठे स्थान में यह निष्फल्द और सातवें में अनिष्टकर होता है। यह जलग्रह है, इसलिए कण, वीर्य आदि धातुओं का कारक माना गया है । वृष और तुला राशि का स्वामी है।
शनि... पश्चिम दिशा का स्वामी, नमक, वात मिसवाष्णवर्ण और वायुतत्त्व है । यह सलाम स्थान में वली, वजी या चन्द्रमा के साथ रहने त छष्टाबली होता है । यह मकर और कुम्भ राशियों का अधिपति है।
रस्तु । दक्षिण दिशा का स्वामी, वर्ण और क्रूर ग्रह है 1 जिस स्थान पर यह रहता है, उस स्थान की उन्नति को रोकता है:
केतु-कृष्ण वर्ण और क्रूर ग्रह है।
जिस देश या राजस में क्रूर-ग्रहों का प्रगाव रहता है या क्रूर ग्रह वक्री, मार्गी होती है, उस देश या राज्य में दुष्काल, अब दया नाना प्रकार के अन्य उपद्रव होते है। शुभग्रहों जयप और प्रभाव में राज्य या देश में शान्ति महती है । नवीन वस्त्रो का बुध, गुऔर शुक्र को, द्वितीया, पंचमी, रातमी, एकादशी, त्रयोदशी और पूणिमा तिथि को तथा अश्विनी, रोहिणी, नम शिर, आद्री, पुनर्वगृ, पुष्य, उत्तरा सीना, स्वाति, अनुराधा, यवन, अनिष्टा और रेवती नक्षत्र में व्यवहार करना चाहिए । नवीन वस्त्र शर्वदा पूर्वाहन में धारण करना चाहिए।
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परिशिष्टाध्यायः अथ वक्ष्यामि केषाञ्चिन्निमित्तानां प्ररूपणम् ।
कालज्ञानादिभेदेन यदुक्तं पूर्वमूरिभिः ॥1॥ अब मैं कतिपय निमिनों का स्वा कथन करता है। इन निगिना । प्रतिपादन पूर्वाचार्यों ने कालज्ञान आदि के निमिता द्वारा किया है ।। 111
श्रीमद्वीर जिनं नत्वा भारतीञ्च पुलिन्दिनीम् ।
स्मृत्वा निमित्तानि वक्ष्ये स्वात्मन: कार्यसिद्धये ॥2॥ भगवान महाबीर और जिनवाणी को नमस्कार र प्रथा मिपिनों ना धिकारिणी पुलिन्दिनी देवी का स्परण कर स्वामा कमाया गिदिश लिए .समाधिमरण प्राप्ति के लिए मैं निमिनों का वर्णन करता है 111
भीमान्तरिक्षादिभदा अष्टौ सस्य बुधर्मता ।
ते सर्वेऽप्यन विज्ञेया: प्रज्ञाभिविशेषत: ।।3।। भोग, अनारिक्ष आदि के पद से आठ प्रकार: निमित विद्वानों ने अलगाने हैं । इन सभी प्रकार ने निमितों का उपयोग आसान . ..ना चाEिT 11311
व्याधे: कोट्यः पञ्च भवन्त्यायाधिकाटि लक्षाणि ।
नवनवति-सहस्राणि पञ्चशती चतुरशीत्यधिका: ॥ रोगों की संख्या पनि करोड़ अइसठ ला निन्यानवे हजार पांच सौ चौरासी बताई गई है 11411
एतत्संख्यान महारोगान् पश्यन्नपि न पश्यति ।
इन्द्रियोहितो मह: परलोकपराङ मुखः ॥5॥ इन्द्रियासक्त, परलोक की चिन्ता से रहित व्यक्ति उपर्युक्त संख्यक रोगों को देखते हुए भी नहीं देखता है अर्थात् विपयासक्त प्राणी संसार के विषयों में रवाना रत रहता है जिससे वह उपयुक्त रोगों की परवाह नहीं करता ।। 511
नरत्वे दुर्लमें प्राप्ते जिनधर्मे महोन्नते ।
द्विधा सल्लेखनां कर्तु कोऽपि भव्यः प्रवर्तते ॥6॥ दुर्ल। मनुष्य पर्याय के प्राप्त होने पर भी प्रात्मा या उन्नतिकारक जाधम बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है । इस महान धर्म में प्राप्त होने पर भी कोई साथ भव्य ही दोनों प्रकार यी सल्लेखनाएं करने के लिए प्रवृत्त हान है ।।७।।
कृशत्वं नीयते कायः कषायोग्यतिसूक्ष्मताम् । उपवासादिभि: पूर्वी ज्ञानध्यानादिभिः परः ।।7।।
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भद्रबाहुसंहिता उपवास इत्यादि को द्वारा शरीर और कपायों को कृश कर आत्मशोधन में लगना सल्लम्बना है, इग क्रिया को करने वाला प्रक्ति ज्ञान, ध्यान में संलग्न
रहता है ।।7।1 .
शास्त्राभ्यासं सदा कृत्वा सङग्रामे यस्तु मुह्यति ।
दिपोस्तारण करनानो माण तथा व्रतम् ।।8।। शास्त्र-स्वाध्याय करने पर भी गिराको वृद्धि इन्द्रियों में आसक्त रहती है उस मुनि के त हाथी : स्नान की तरह व्यर्थ हैं अर्थात् जिस प्रकार हाथी स्नान करने के अनन्त र पुनः धलि अपने शरीर पर बिखेर लेता है, उसी प्रकार जो मुनि वा मालागाधक मात्राभ्याग करने पर भी सल्लेखना नहीं धारण करता है और इन्द्रियों में आगवन रहता है इसके अत व्यर्थ है। अतः जीवन का वास्तविक उद्देश्य मल्लेखना धारण करना है ।।8।।
विरतः कोऽपि संसारी संसारभयभीरुकः ।
विन्यादिमान्यरिष्टानि भाव्यभावान्यनुक्रमात् ॥9॥ जो कोई संसार मे विस्त तथा संगार भया मे युक्त व्यक्ति आत्म-कल्याण करना चाहता है उसके लिए परीर में उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के अरिष्टों का मैं निरूपण करता हूँ 1911
पूर्वाचार्यैस्तथा प्रोक्तं दुर्गालादिभिः यथा ।
गृहीत्वा तदभिप्राय तथारिष्टं वदाम्यहम् ॥10॥ दुर्गाचार्य, पलाचार्य आदि पूर्वाचार्यो के कथन अभिप्राय को लेकर ही में अरिष्टी मा कथन करता हूँ ।।10।।
पिण्डस्थञ्च पदस्थञ्च रूपस्थञ्च त्रिभेदतः ।
आसन्नमरणे प्राप्ते जायतेऽरिष्ट सन्ततिः ।।।। जिस व्यक्ति का शीघ्र ही मरण होने वाला है उसके शरीर में निद्रस्थ, पदस्थ और Eथ ये तीन प्रकार के अरिष्ट उत्पन्न होते हैं |1||
विकृति श्यते कारिष्ट पिण्डस्थमुच्यते ।
अनेकधा तत्पिण्डस्थं ज्ञातव्यं शास्त्रवेदिभिः ॥12॥ शरीर में अप्राकृतिक रूप ग अनेक प्रकार की विकृति होने को शास्त्र के जानने वालों ने पिण्डस्थ अरिष्ट कहा है ।।। 2||
सुकुमारं करयुगलं कृष्णं कठिनमवेद्यदायस्य । न स्फुटन्ति वाङ गुलयस्तस्यारिष्टं विजानीहि11311
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परिणिष्टाध्यायः
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यदि किसी के दानों सुकुमार हाथ अकारण ही कटोर और कृपा हो जायं तथा अंगुलियाँ नीधी न हो तो उन अपिट गमझना चाहिए अर्थात् उक्न लक्षण वाले व्यक्ति का पण सात दिन में ही होता है ।।3।।
स्तब्ध लोचनयोर्युग्म विवर्णा काष्ठवतनः ।
प्रस्वेदो यस्य भालस्थः विकृतं वदनं तया ॥14॥ जिसमें दोनों नेत्र स्तब्ध अर्थात् निवृत्त हो जागं तथा शरीर विकृत वर्ण और काठ के समान बाठोर हो जाय और मस्तक पर अधिक पगीना आये तथा पुरा विवृत हो जाय तो अगिट समझना चाहिए अर्थात् मात दिनों में मधु हाती 111411
निनिमित्तो मखे हासश्चक्षुभ्यां जलबिन्दवः ।
अहोरात्रं सवन्त्येव नखरोमाणि यालि च ॥15॥ बिना किसी कारण के अधिक हंसी भागे, आँवों में व्याप्त हैं और नख तथा रोम रिन्द्रों में पसीना निकालना हो नो मात दिन में प्रत्य ममशनी चाहिए ।।। 511
सकष्णा दशना यस्य न घोषाकर्षनं पनः ।
एतैश्चिह्नस्तु प्रत्येकं तस्यायुर्दिनसप्तकम् ।।।6।। जिसके दाँत काले हो जाये तथा बाछिद्रों को बन्द करने पर भीतर में होन वाली आवाज सुनाई न पड़े तो सात दिन की आयु समझनी चाहिए ॥16॥
निर्मच्छस्तुट्यते वायुस्तस्य पक्षकजीवनम् ।
नेत्रयोर्मीलनाज्ज्योतिरदृष्टौ दिनसप्तकम् ॥17॥ यदि शरीर से निकलती हुई वात्रु बीच में ट-सी जाय तो पन्द्रह दिन की आगु शेष समझनी चाहिए अथवा बाहर निकलने में श्याम तेज हो तो पन्द्रह दिन की आयु समझनी चाहिए। दोनों नेत्रा को अग्रभाग को थोड़ा-सा बन्द करने पर उनमें से जो ज्योति निकलती है यदि वह ज्योति निगलती हुई दिखाई न पड़े तो सात दिन की आयु समझनी चाहिए ।।। 7॥
भ्रमध्ये नासिका जिह्वादर्शने च यथाक्रमम्।
नवत्र्येकदिनान्येव सरोगी जीवति ध्रुवम् ॥18॥ यदि भौंह के मध्य भाग को न देख मार तो नौ दिन, नासिका न दिखलाई पड़े तो तीन दिन और जिह्वा न दिखलाई पड़े तो एक दिन की प्रायु होती है, अर्थात् उस रोगी की पूर्वोक्त दिनों में मृत्यु हो जाती है ।।। 81।
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भद्रबाहुसंहिता
पाणिपादोपरि क्षिप्तं तोयं शीघ्र विशुष्यति । दिनत्रयं च तस्यायुः कथितं पूर्वसूरिभिः ॥19
हाथ-पैरों पर दाना गया न दिर की आयु नाहिए, ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है || 19 निर्विश्रामो मुखाच्छ्वासो मुखाद्रक्तं पतेद्यदा । यद्दृष्टि स्तब्धा निष्यन्दा वर्ण चैतन्यहीनता ॥201
ही सूत्र आय तो उसकी तीन दिन
जिसके
सुख से अधिक स्वागत हो, मुख से रक्त गिरता हो, दृष्टि स्तब्ध और निरपन्न हो नया सुखविव और चैतन्यहीन दिखलाई पड़े तो उसकी निकट मृत्यु रामझनी चाहिए || 2011
free ग्रीवा न यस्यास्ति सोच्छ्वासो हृदि रुध्यते । नासावदन गुह्यभ्यः शीतलः पवनो महेत् ॥21॥
जिसकी गर्दन स्थिर न रहे, ही हो जाय या वास हृदय में रुक जाय तथा सुखाक और वेन्दिय में शीतल वा निकलने लगे तो शीघ्र मरण होना
है 2 ||
न जानाति निजं कार्यं पाणिपादौ च पीडितौ । प्रत्येकमेभिस्त्वरिष्टस्तस्य मृत्युर्भवेल्लघुः || 20
हाथ, पैर आदि के पीड़ित करने पर भी जिसे पीड़ा का अनुभव न हो उसको शीघ्र मृत्यु होती है 1122
स्थलो याति कृशत्वं कुशोऽप्यकस्माच्च जायते स्थूलः । स्थगस्यगतिर्यस्य कायः कृतशीर्षहस्तो निरन्तरं शेते 112341
अकस्मात् स्थूल शरीर का कृश हो जाना तथा कृष्ण शरीर का स्थूल हो जाना और शारीर का काँपने लगता एवं अपने सिर पर हाथ रखकर निरन्तर सोना एक गाय की आयु का द्योतक है || 2311
ग्रीवोपरि करबन्ध्यां गच्छत्यङ्गुलीभिद् दबन्धं च । क्रमेणोद्यमहीनस्तस्याथुर्मासपर्यन्तम् ||24||
गाढ़ बन्धन करने के लिए जिसको अंगुलियां गले में डाली जाये पर अंगुलियों रेट दुइ बन्धन न हो सके तथा धीरे-धीरे जिसकी कार्य-क्षमता घटती जाये तो ऐसे व्यक्ति की आयु एक महीना अवशेष रहती है ।12411
अधरनखदशनरसनाः कृष्णा भवन्ति विना निमित्तेन । षड्रसभेदमवेताः तस्यायुर्मासपरिमाणम् ॥25॥
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परिशिष्टाध्याय:
465
बिना किसी निमित्त वे मोठ, नख, दन्त और जिह्वा यदि काली हो जाय तथा षड् रस का अनुभव न हो तो उसकी आयु एवः महीना शेष होती है 112 511
ललाटे तिलकं यस्य विद्यमानं न दृश्यते।
जिह्वा यस्यातिकृष्णत्वं मासमेकं स जीवति ॥26॥ जिसके मस्तक पर लगा हुआ तिलक किसी को दिखलाई न पड़े तथा जिह्वा अत्यन्त काली हो जाय तो उसकी आयु एक महीने की होती है ॥26॥
धतिमदनविनाशो निद्रानाशोऽपि यस्य जायत ।
भवति निरन्तरं निद्रा मासचतुष्कन्तु तस्याय: ।127॥ धैर्य, कामशक्ति और निद्रा के नाश होने के चार महीने की आयु शेष समझनी चाहिए । अधिक निद्रा का आना, दिन-रात सोते रहना भी चार मास की आयु का मुचा है ॥27॥
इत्यवोचरिष्टानि पिण्डस्थानि समासतः ।
इतः परं प्रवक्ष्यामि पदार्थस्थान्यनक्रमात् ।।28।। इस प्रकार विगडस्थ अरिष्टों का वर्णन किया । अब पदार्थ अरिष्टों का वर्णन करता हूँ।1280
चन्द्रसूर्यप्रदीपादीन् विपरीतेन पश्यति ।
पदार्थस्थरिष्टं तत्कथयन्ति मनीषिणः ॥29॥ चन्द्रमा, सूर्य, दीपक या अन्य किसी वस्तु का विपरीत रूप से देखना पदस्थ या पदार्थ स्थित अरिष्ट विद्वानों ने कहा है ।।29॥
स्नात्वा देहमलंकृत्य गन्धमाल्यादिभूषणः ।
शुभ्र स्ततो जिनं पूज्य चेदं मन्वं पठेत् सुधी: 1300 ॐ ह्रीं णमो अरहताणं कमले-काले-विमल बिमले उदरदवदेवी इटि मिटि पुलिन्दिनी स्वाहा ।
एकविंशतिबेलाभिः पठित्वा मन्त्रमुत्तमम् ।
गुरूपदेशमाश्रित्य ततोऽरिष्टं निरीक्षयेत् ।।3।।। पदस्थ अरिष्ट यो जानने की विधि का निरूपण करते हुए बताया गया है कि स्नान कर, श्वेत वस्त्र धारण कर, सुगन्धित द्रव्य तथा आभूषणों में अपने को सजाकर एवं जिनेन्द्र भगवान की पूजा बार "ॐहीं णमो अरिहंताणं कमल-कमले विमले-बिमले उदरदव देवि इदि भिटि पुलिन्दिनी स्वाहा" इस मंत्र का इक्कीस बार उच्चारण कर गुरु-उपदेश के अनुसार अरिष्टों का निरीक्षण करें ॥30-3 ।।।
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भद्रबाहुसंहिता
चन्द्रभास्करयो बिम्ब नानारूपेण पश्यति ।
सच्छिद्र यदि वा खण्ड तस्यायुर्वर्षमात्रतः ॥32॥ जो कोई गंगार में चन्द्रमा और सूर्य को माना रूपों में तथा छिद्रों से परिपूर्ण दखता है उसकी आप वर्ष की होती है ।।3 2।।
दीपशिखां बहुरूपां हिमदवदग्धां यथा दिशा सर्वागम् ।
यः पश्यति रोगस्थो लघुमरणं तस्य निर्दिष्टम् ॥33॥ जो रोगी व्यक्ति दीपक के प्रकाश को लौ को अनेक रूप में देखता है तथा दिशाओं को अगिग या शीत रे जलने हुए देखा तो उसकी मृत्यु निकट समय में होती है ।। 3311
बहुच्छिद्रान्वितं बिम्ब सूर्यचन्द्रमसोभुवि ।
पनिरीक्ष्यते यस्तु तस्यायुर्दशवासरम् ।।3411 जाजी गृथ्वी पर सूर्य और नन्द्रमा ने बिम्ब को अनेक छिद्रों से युक्त भूमि !ि देखता है, उसकी आयु दम दिन की होती है 1134।।
चतुर्दिक्षु रवीन्दूनां पश्येद् बिम्ब चतुष्टयम् ।
छिद्र वा तदिनान्येव चत्वारश्च मुहूर्त्तका: ॥35॥ जी मुलं या नन्द्रा में चारों बिम्बों को चारों दिशाओं में देखें वह चार टिका अर्थात् एक घण्टा छनीस मिनट जीवित रहता है ।।351
तयोबिम्बं यदा नीलं पश्येदायुश्चदिनम् ।
तयोश्छिद्र विशन्तं भ्रमरोच्चयं ...... ... 136॥ यदि गी गु और चन्द्रमा क बिम्ब को नील वर्षी या देवता है तो उसकी आ. नार दिन की होती है । गलिद गूर्यविम्ब और चन्द्रबिम्ब में भौंरों के समूह को प्रवेश करत हा कान भी चार दिन की आयु होती है ।136॥
प्रज्वलदासधूमं वा मुञ्चहा रुधिरं जलम् ।
यः पश्येद् बिम्बमाकाशे तस्यायुः स्यादिनानि षट् ॥37॥ जो गोई रोगी मा और चा बिम्ब में ग धुआं निकलता हुआ देख, सूर्य और चन्द्रविम्य गमन हुए बम अथवा गुवं चन्द्र बिन्न में से रुधिर निकलते हुए देखे ना बहह दिन जीविन रहता है ।। 370
वाभिन्नमिवालीढं बिम्बं कज्जलरेखया। यो वा पश्यति खण्डानि षण्मासं तस्य जीवितम् ॥38॥
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परिशिष्टाध्यायः
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जो रोगी सूर्य और चन्द्र-बिम्ब को वाणो गे छिन्न-भिन्न या दोनी के बिम्ब के मध्य काली रेखा देग्नता है अयया दोन विम्ब के टुकड़े होते हुए नग्नता है, उसकी आयु छह महीने की होती है ।।3।।
रात्रो दिन दिने रात्रि य: पश्येदातुरस्तथा ।
शीतला वा शिखां दीपे शीघ्र मृत्यं समादिशेत् ।।39।। जो गेगी रात्रि में दिन का अनुभव नारता है और दिन में नाविना तथा दीपक गोली को शीतल अनुभव करता है, उस रोगी को शीन मृत्यु होती है ।139।।
तन्दुम्रियते यस्यालिस्तेषां भक्तं च पच्यते ।
जहीत्यधिकं तदा चूर्ण भवतं स्याल्लघुमृत्यवः ॥७॥ एक अनलि चाबल लेकर भात बनाया जाय,दि 'If जाने तर भान 3ग प्रगति प|माण ग अशा या I.तो उसी निकट पत्यु समानी चाहिए।-
10
अभिमन्यस्तत्र तनुः तच्चरणपियेच्च सन्ध्यायाम् ।
अपि ते पुन: प्रभाते सूत्रे न्यूने हि मासमायुष्कम् ।।41॥ "ॐही गमो रिहत्ताणं कमल कपने विमने-बिमा उदरदवाव इटि मिटि पुलिन्दिनी म्वाहा" इग मन्त्र न भूत को मन्त्रित कर चमगे मायंकान गगी व गिर गलकर परत नापा जाग और प्रातःयान पुनः उगी मुरा में गिर स पर तक ना जाग यदि पान हाल नागने पर मुला छोटा होगा वह व्यक्ति अधिक में अधिमा माग जीवित 114 111
नेता: कृष्णा: पीताः रक्ताश्च येन दृश्यन्ते दन्ताः।
स्वस्य परप्य ३ मुकुरे लघुमृत्युस्तस्य निर्दिष्टः ।।2।। यदि कोई का दगा में नया अन्य कामिन न दाँता यो माना, गाद, नाल या पीला रंग ! देवो तो गमिट मागमा पनी नाहि ।।4211
द्वितीयाया: शशिबिम्वं पश्येन विशृंगपरिहानम्।
उपरि सधूमन्छायं खण्ड वा तस्य गतमायुः ।।3।। मन काकी लीया को यदि नोमा Hai नाव नाण क या बिना बाणि कदम बानि भ! म यो ताग व्यायाम गरण होगा है।।4311
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468
भद्रबाहुसंहिता
अथवा मृगांकहीन मलिनं चन्द्रञ्च पुरुषसादृश्यम् ।
प्राणी पश्यति नूनं मासादूर्ध्वं भवान्तरं याति ।।4411 यदि कोई चन्द्रमा को मगचिह्न से रहित धमिल, और गुरुषाकार में देखें तो वह एक माग जीवित रहता है ।14411
इति प्रोक्तं पदार्थस्थमारिष्टं शास्त्रदष्टितः ।
इत: परं प्रवक्ष्यामि रूपस्थञ्च यथागमम् ।।45॥ इस प्रकार पदार्थ अरिष्टों का शास्त्रानुसार निरूपण किया, अब रूपस्थ अरिष्टों का आगगानमार निरूपण करता है 1145।।
स्वरूपं दृश्यते यत्र रूपस्थं तन्निरूप्यते।
बहुभेदं भवेत्तत्र क्रमेणव निमद्यते ॥46।। नहाँ मग दिखलाया जाय वहाँ रूपम्प अरिप्ट कहा जाता है। यह रू५५५ अगिह अने प्रकार का होता है । इसका बन्न कमाणः भवन किया जायेगा।146
लायापुरुष स्वप्न प्रत्यक्षतया च लिङ्गनिर्दिष्टम् ।
प्रश्नगतं प्रभणन्ति तपस्थं निमित्तज्ञाः ॥47।। वायाम्प, स्वप्नपर्गन, प्रत्यक्ष, अनुमानजन्य और प्रश्न द्वार निरूपित को अरिष्टयेत्ताओं का अरिष्ट कहा है ।147।।
प्रक्षालितनिजदेहः सितवस्त्रायविभूषितः ।
सम्यक् स्वछायामेकान्ते पश्यतु मन्त्रेण मन्त्रित्वा ॥4811 ॐ हीं बन रवन रवतप्रिय सिंहमर तकरामार कामाविडनी देखि ! मम शरीरे अवतर अवतर छाया नयां कु.म. कुरु ह्रीं स्वाहा।
इति मन्त्रितसर्वांगो मन्त्री पश्येन्नरस्य बरछायाम् । शुभदिवसे परिहोने जलधरपवनेन परिहीने ।।49॥ समशुभतलेऽस्मिन् तोयतुषांगारचर्मपरिहीने।
इतरच्छायारहिते त्रिकरणशुद्धया प्रपश्यन्तु ।।50॥ रनान भार, श्वेत और स्वच्छ वस्त्रों में मुसज्जित हो एकान्त में "ॐ की रक्त खाते का प्रिय मिहमस्तस मामले काभाण्डिनी देदि ! मम शरीरे अबतर अवतर छायां सत्यां नाम कुछ ही स्वाहा।' इस मन्त्र में शरीर को मन्वित कर शुभ वारों में -- मो.न, बुध, गुरु और शुत्रवार के पूर्वाह्न में वायु और मेघरहित आकाश के होन पग-चन और कार्य की शुद्धता के साथ समतल और जल, भूसा,
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परिशिष्टाऽध्यायः
4.9
कोयला, चमड़ा या अन्य किसी प्रकार की छाया से रहित -पृष्ठ पर छाया वा दर्शन करें ।।48-501
न पश्यसि आतुरश्छायां निजां तत्रैव संस्थितः ।
दशदिनान्तरं याति धर्मराजस्य मन्दिरम् ॥51। जो रोगी उक्त प्रकार के भू-पृष्ठ पर स्थित हो आनो या ना न देने निश्चय से वह दश दिन में मरण को प्राप्त हो जाता है।1511
अधोमुखी निजच्छायां छायायम्मञ्च पश्यति ।
दिनवयञ्च तस्यायुर्भाषितं मुनिपुंगवः ।।5211 जो रोगी व्यक्ति अपनी छाया को अधोमुन्डी कप में दाणे तथा छाया को दो हिस्सों में विभक्त देखे उसकी दो दिन में मत्यु हो जाती है, सा श्रेष्ठ भनियो ने कहा है 1132
मन्त्री न पश्यति छाधामातुरस्य निमित्तिकाम् ।
सम्यक निरीक्ष्यमाणोऽपि दिनमेकं स जीवति ॥5॥ यदि रोगी व्यक्ति उपयुक्त मन्त्र का जापकर छाया पर दृष्टि रखते हुए भी उस न देख सके, उसका जीवन एवः दिन का समझाना चाहिए ।।53।।
वृषभरिमहिषरासभमेषाश्वादिकविविधरूपाकारः ।
पश्येत् स्वच्छायां लघु चेत् मरणं तस्य सम्भवति ।।540 यदि कोई व्यक्ति अपनी छाया तो बैल, हाथी, महिप, गधा, ममा और बोला इत्यादि अनेक रूपों में देखता है तो उसका तत्काल जानना चाहिए ।।540
छायाबिम्ब ज्वलत्प्रान्तं समं वीक्ष्यते निजम् ।
नीयमानं नरैः कृष्णस्तस्य मृत्युलघु मत: 155। यदि कोई व्यक्ति अपनी छाया को अग्नि ग प्रज्वलित, धूम से आयादित और कृष्ण वर्ण के व्यक्तियों के हारा ले जाते हुए देखता है उसकी शीघ्र मृत्यु होती है ।।551
नीला पीतां तथा कृष्णां छाया रक्तां च पश्यति ।
विचतुःपञ्चषडानं क्रमेणैव स जीति ॥5॥ यदि कोई व्यक्ति अपनी छाया को नीली, पानी, नाली जोर जाता है वह क्रमश: तीन, चार, पांच और कह दिन रात तपी जीवित रहना ।। 5011
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भद्रबाहुसंहिता
मुद्गरसबलछुरिकानाराचखड्गादिशस्त्रघातेन ।
चूर्णीकृतनिबिम्ब पश्यति दिनसप्तकं चायुः ।।57॥ जो व्यक्ति पानी छाया को मुदगर, छुरी, वझे, भानः, वाण आदि से टुकड़े किये जाते हुए देखता है उसकी आय शात दिन की होती है ।15711
निजच्छाया तथा प्रोक्ता परच्छायापि तादृशी।
विश्वोत्पते कविन्द्रो दृष्ट मात्रवेदिभिः ॥४॥ इस प्रकार निजमाया दर्शन और उसके फलाफल का वर्णन किया है। परच्छाया दर्गा या फल भी निजच्छा गा दर्शन या समान ही रामझना चाहिए। किन्तु शास्त्रों के ममता ने जो प्रधान विशेषताएँ बतलायी है उनका वर्णन किया जाता है 11550
ररूपी तरुण; पुरुषो न्यूनाधिकमानजितो नूनम् ।
प्रक्षालितसर्वागी विलिप्यते स्वेन गन्धेन ॥5॥ एक अत्यन्त सुन्दर युवा को जो न नाटा हो न लम्बा हो, स्नान कराके वन गुगन्धित गन्ध लपन से युक्त करें ।। 59।।
अभिमन्य तस्य कायं पश्चादुक्ते महीतले विमले।
छायां पश्यतु स नरो धृत्वा तं रोगिणं हृदये ।।6।। उग ३६म 'पृरुप नगरीर को पूर्वोक्त--'केही रकने रक्त प्रिय सिंहमस्तकगमामले का मागिनीदवि अस्य गगरे अवत: अवतर छायामन्यां तुम युम हो स्वाहा' मग मन्धित कर रखा भमि पर स्थित हो उग व्यक्ति में लेगी न ध्यान कम हुए छाया का दर्शन करे 1।10।।
या वका प्राङ्मुखोच्छाधार्दा वाधोमुखवतिनी ।
दृश्यतं रोगिणो यस्य स जीवति दिनद्वयम् ।।6।। भिग रोगी का ध्यान तार जाया का दर्शन किया जाय, यदि छाया टेढ़ी, अधोगुग्गी, पात्र पुग्यो दिखाई पड़े तो वह गंगी दो दिन जीवित रहता है !16 1 ।।
हसन्तो कथयेन्मार्स रुदन्ती च दिनद्वयम्।
धावन्ती विदिन छाया पादैका च चतुर्दिनम् ॥26॥ गती हुई छाया नमः महीने की आयु, गोती दुई छाया देखने से दो दिन की आप, दो नाराया दम्यने में तीन दिन की आप और एक पर की छाया देवा में चार दिन को मानी चाहिए ।। 6211
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परिशिष्टाऽध्यायः
वर्षयं तु हस्तका कर्ण होने कवत्सरम् । केशहीनं कषण्मासं जानुहोना दिनककम् ॥1631
एक हाथ से हीन छाया दिखलायी पडने पर दो वर्ष की आयु. एक कान से रहित छाया दिखलायी पड़ने पर एक वर्ष की आयु केल से रहित छाया दिखलायी पड़ने पर छह महीना और जानु से रहित दिखायी पड़ने पर एक दिन की आयु होती है |163
बाहुसितासमायुक्तं कटिहोना दिनद्वयम् । दिनार्थं शिरसा होना सा षण्मासमनासिका ॥164
बाहु से युक्त तथा कमर से रहित छाया दिखाई पड़े तो दो दिन से आयु होती है। सिर से रहित छाया दिखलाई पड़े तो आधे दिन की आयु एवं नासिका रहित छाय | दिखलाई पड़े तो छह महीने की आय होती है || ।।
471
हस्तपादाग्रहीना वा त्रिपक्षं सार्द्धमासकम् ।
अग्निस्फुलिंगान् मुञ्चन्ती लघुमृत्युं समादिशेत् ॥65॥
की
हाथ और पाँव से रहित छाया विश्वलाई पड़े तो तीन पक्ष या डेढ़ महीने आयु समझनी चाहिए। यदि छाया अग्नि स्फुलिंगों को उगलती हुई दिखलाई पड़े तो शीघ्र मृत्यू गमझनी चाहिए 165 ||
रक्तं मज्जाच मुञ्चन्ती पूतितेल तथा जलम् । एकद्वित्रिदिनान्येव दिना दिनपञ्चकम् 1166 ।।
रक्त चर्बी, पोप जल और मेल को उगलती हुई छाया दिखाई पड़े तो कमणः
'
एक, दो, तीन दिन और पाँच दिन की आयु समझनी चाहिए
परछाया विशेषोऽयं निर्दिष्ट: पूर्वसूरिभिः । निजच्छायाफलं चोक्तं सर्वं बोद्धव्यमत्र च ॥67॥
उक्ता निजपरच्छाया शास्त्रदृष्ट्या समासतः । इतः परं ब्रवे छायापुरुषं लोकसम्मतम् ॥168 ।।
पुत्रायों ने परछाया के सम्बन्ध में से विशेष बाते बतलायी है। अवशेष अन्य बातो को निजच्छाया के समान गमझ लेना चाहिए। राक्षेप में स्वानुगार निज-पर छाया का यह वर्णन किया गया है। इसके अनन्तर लोकसम्मत छायापुरुप का वर्णन करते है |167-6811
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भद्रबाहुसंहिता
मदमदनविकृतिहीनः पूर्व विधानेन वीक्ष्यते ।
सम्यक् मन्त्री स्वपरच्छायां छायापुरुषः कथ्यते सद्भिः ॥6॥ वह मन्त्रित व्यक्ति निश्चय से छायापुरुष है जो अभिमान, विषय-वासना और छल-कपट से रहित होकर पूर्वोक्त कूष्माण्डिनी देवी के मन्त्र के जाप द्वारा पवित्र होकर अपनी छाया को देखता है ।।69॥
समभूमितले स्थित्वा समचरणयुगप्रलम्बभुजयुमल: ।
बाधारहिते धर्मे विवजिते क्षुद्रजन्तुगणैः ।।7011 जो रामसल -बराबर चौरस भूमि में खड़ा होकर पैरों को समानान्तर करके हाथों को लटकाकर, बाधा रहित और छोटे जीवों से रहित (सूर्य को धूप में छाया का दर्शन करता है। वह छायाका महिलाता है ।।7014
नाशाग्रं स्तनमध्ये गुहा चरणान्तदेशे।
गगनतलेऽपि छायापुरुषो दृश्यते निमित्तः ॥7॥ निमित्तनों ने उमे छायापुरुप कहा है जिसका सम्बन्ध नाक के अग्रभाग से, दोनों स्तनों को मध्य भाग से, गुप्तांगों स, पैर के कोने से, आकाश से अथवा ललाट से हो ।।7111
विशेष-या पुरुादी व्यत्पत्ति कोष में 'छायायां पुरुष: दुष्ट: पमपाकृतिविशेषः'बी गयी है अर्थात आकाग में अपनी छाया की भाँति दिखाई देने वाला पुरुष छायापुमा कहलाता है। तन्त्र में बताया गया है---पार्वती जी ने शिवजी से भावी घटनाओं को अवगत पायो लिग उपाय पूछा, उसी के उत्तर में शिव ने छायापरुपये स्वरूप का वर्णन किया है। बताया गया है कि मनुष्य शुद्धचित्त होकर अपनी छाया आकाश में देख सकता है । उमा दर्शन भी पापों का नाश और छह मास के भीतर होने वाली घटनाओं का ज्ञान किया जा सकता है। पर्वती ने पुन: पूछा-मनुष्य कैग अपनी भूमि की छाया को आकाश में देख सकता है ? और कैसे छह माह आग की बात मालूम हो सकती है ? महादेवजी ने बताया कि आकाश मेघशून्य और निमंन होने पर निचला चित्त से अपनी छाया की ओर मुंह कर खड़ा हो गुरु के उपदेशानुसार अपनी छाया मे बह देखकर निनिमेप नयनों से सम्मुखस्य गगनतल को दखन पर स्फटिका मणिरत् स्वच्छ पुन खड़ा दिखलाई दता है। ग छायापुरुष के दर्शन विशुद्ध चरित्र वाले व्यक्तियों को पुण्योदय के होने पर ही होने हैं। अत. गुरु के वचनी का विश्वास कर उनकी सवा-शुश्रूपा द्वारा छावापुरुष सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त कर उसका दर्शन करना चाहिए । छाया
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परिशिष्टाऽध्यायः
पुरुष
'के देखने से छह मास तक मृत्यु नहीं होती, लेकिन छायापुरुष के मस्तक शून्य देखने से छह मास के भीतर ही मृत्यु अवश्यम्भावी है || 7 ||
छायाबिम्बं स्फुटं पश्येद्यावत्तावत स जीवति । व्याधिविघ्नादिभिस्त्यक्तः सर्वसोख्याद्यधिष्ठितः 117211
छायापुरुष को स्पष्ट रूप से देखने पर व्यक्ति दीर्घजीवी होता है तथा व्याधि विघ्न इत्यादि से रहित हो चुलीला में करता है || 72।।
आकाशे विमले छायापुरुषं हीनमस्तकम् । यथार्थं वीक्ष्यते मन्त्री बण्मासं सोऽपि जीवति 117311
मन्त्रित व्यक्ति यदि निर्मल आकाश में लाया को बिना मस्तक के देखे तो जिस रोगों के लिए छायापुरुष का दर्शन किया जा रहा है वह छह मारा जीवित रहता है ||73||
पादहीने नरे दृष्टे जीवितं वत्सरत्रयम् । जंघाहीने समायुक्तं जानुहीने च वत्सरम् 11740 मन्त्रित पुरुष को छायापुरुष बिना पैर के दिखलाई पड़े तो जिसके लिए
देखा जा रहा है वह व्यक्ति तीन वर्ष तक जीवित रहता है, जंघाहीन और घुटन हीन छायापुरुष दिखलाई पड़े तो एक वर्ष तक जीवित रहता है || 7411 उरोहोने तथाष्टादशमासा अपि जीवति ।
पञ्चदश कटिहोनेट मासान् हृदयं बिना 1750
यदि छायापुरुष हृदय रहित दिखलाई पड़े तो आठ महीने की वायु बक्ष स्थल रहित दिखलाई पडे तो अठारह महीने की बाबु और कटिहीन दिखाई पड़े तो पन्द्रह महीने की आयु सनी चाहिए 1750
दिनं गुह्यहोनेsपि करहोने चतुर्दिनम् ।
बाहुहीने त्वर्युग्मां स्कन्धहोने दिनेककम् 1176
यदि छाया पुरुष गुप्तांगों से रहित दिखलाई पड़े वो छह दिन को आयु, हाथ से रहित दिखलाई पड़े तो चार दिन की आयु बहीन दिखलाई पड़े समझनी तो दो दिन की आयु और कन्धहीन दिखलाई पड़े तो एक दिन की आयु चाहिए 1760
यो नरोऽत्रैव सम्पूर्णै: सांगोपांगविलोक्य
स जीवति चिरं कालं न कर्तव्योऽत्र संशयः 1177||
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भद्रबाहुसंहिता
जो मनुष्य सम्पूर्ण अंगोपांगों में सहित छाया पुरुष का दर्शन करता है वह चिरकाल तक जीवित रहता है, इसमें सन्देह नहीं है ||77||
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आस्तां तु जीवितं मरणं लाभालाभं शुभाशुभम् । यच्चिन्तितमनेकार्थ छायामात्रेण दीक्ष्यते ॥78 ||
जीवनमरण, लाभ, अलाभ, शुभ, अशुभ इत्यादि अनेक बातें छाया पुरुष के दर्शन से जानी जा सकती है ||78॥
स्वप्नफलं पूर्वगतं त्वध्याये चाधुना परः ।
निमित्तं शेषमपि तत्र प्रकथ्यते सूत्रतः क्रमशः 1791
श्रद्या। कनकन पूर्व में हो चुका है फिर भी सूत्र कमातुगार फल आत करने के लिए स्वप्न का निरूपण किया जा रहा है 117911 दशपञ्चवर्षस्तथा पञ्चदशदिनः क्रमशः ।
रजनीनां प्रतियामं स्वप्नः फलत्येवायुषः प्रश्ने ||80|1
-
आयु. विनायकम में रात्रि के विभिन्न प्रहरी में देखे गये स्वप्नों का फल मदम व पांच वर्ष पाँच दिन तथा दस दिन में प्राप्त होता है |801 शेषप्रश्न विशेष द्वादश पद्येकमासकैरेव ।
स्वप्नः क्रमेण फलति प्रतियामं शर्वरी दृष्टः ॥ 8111
आयु के अतिरिक
अनुसार कमशावाद
केन का फल रात्रि के विभिन्न प्रहरों के और एक महीने में प्राप्त होता है ॥8॥
करचरणजानु मस्तकजंघांसोदरविर्भागते दृष्टे ।
जिनबिम्बम् च स्वप्ने तस्य फलं कथ्यते क्रमशः 118217
हाथ पैर घुटने गर, जंघा, कन्धा तथा उदर के स्वप्न में भंगित होने का वन में जिन वि के दर्शन का फल कमल वर्णन करेंगे ॥82॥
करभंगे चतुर्मास: त्रिमास: पदभंगतः ।
जानमने तु वर्षेण मस्तके दिनपञ्चभिः 1183॥
"
स्वप्न में करणय (हाय का टूटना ) देखने से चार महीने में मृत्यु, नदभंग देखने तीन महीने में, जानुभग दखन से एक वर्ष में और मस्तक भंग देखने से पाँच दिन में मृत्योती
वयुग्मेन जंघायामसहोंने द्विपक्षत.
न यात् प्रातः फलं मन्नो पक्षेणोदरभंगतः ।।६।।
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परिशिष्टाध्याय:
स्वप्न में समस्त जंघा का टूटना देखने से दो वर्ष में मृत्यु, और कन्धे का भंग होना देखने स दो पक्ष में मृत्यु एवं उदर भंग दबने से एक पक्ष में मृत्यु होती है। स्वप्नदर्शक मन्त्र का प्रयोग कर तथा स्वच्छ और शुद्धतापूर्वक जब रात्रि में शयन कारता है तभी स्वप्न का उक्त फल घटित होता है ।। 8411
छत्रस्य परिवारस्य भी दृष्टे निमितवित् ।
नृपस्य परिवारस्य ध्र वं मृत्यु समादिशेत् ॥85।। स्वप्न में राजा के छत्र का नंग देखने में मजा व परिवार के. मि.मी व्यक्ति को मृत्यु होती है 118541
विलयं याति य: स्वप्ने भक्ष्यते ग्रहवायसै ।
अथ करोति यदि मासयुग्मं स जीवति ॥86। जो व्यक्ति स्वप्न में अपना विनयन तथा गर्मी का आभाग अपना मांस भक्षगा देखता है एवं चीं का वमन करते हुए देवताह उगकी दो महीन की आयु होती है 118611
महिषोष्ट खरारूढो नीयत दक्षिणं दिशम् ।
घृततैलादिभिलिप्ता मासमेकं स जीवति ।।87|| स्वप्न में घृत और नल में स्नान व्ययिता महिए (भसा), ऊंट और गधे के पर सवार हो दक्षिण दिशा की ओर जाता हआ दिवमा गडेना गहीन यो प्रायु समझनी नाहि! 118711
ग्रहणं रविचन्द्राणां नाशं वा पतनं भुवि ।
रात्री पश्यति य: स्वप्ने विपक्षं तस्य जीवनम् ॥88।। यदि रानि में गाय बन में , चन्द्र आदि ना . विनाण अथवा पृथ्व। पर पलन दिखलाई पई, तो तीन पक्ष की आयु समाना चाहिए ||SHI
गृहादाकृष्य नोयेत कृष्णमत्यर्भवप्रदैः।
काष्ठायां यमराजस्य शीनं तस्य भवान्तरम् ।।४।। यदि र वन में कृष्ण वणं भय व्यक्ति पर सभी नकार दक्षिण दिला की ओर ले जाते हुए दिखलाई पड़े तो शीनही मरण होता ।।5911
भिद्यते यस्तु शस्त्रेण स्वयं बुद्ध्यति कोपतः ।
अथवा हन्ति तान् वपने तम्घायुदिनविशतिः ॥७॥ जो म्वान में अपने को किगी अम्बाका नाता है अथवा अभाग
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भद्रबाहुसंहिता
अपनी मृत्यु के दर्शन करता है अथवा अस्त्रों को ही तोड़ देता है उसकी मृत्यु बीस दिन में ही हो जाती हैं 119010
यो नृत्यन् नीयते बद्ध्वा रक्तपुष्पैरलतः।
सन्निवेशं कृतान्तस्य मासादूवं स नश्यति ॥1॥ जो स्वप्न में मृतक के समान लाल फूलों से सजाया हुआ नृत्य करते हुए दक्षिण दिशा की ओर अगने को बांधकर ले जाते हुए देखता है वह एक मास से कुछ अधिनः जीवित रहता है 119।
लैलपरितगर्तायां रक्तकीकसपरिभिः।
स्वं मग्नं वीक्ष्यते स्वप्ने मासार्द्ध म्रियते स वै ।।92॥ जी त्या- म रुधिर, चीं, पीर (पीब), चमड़ा, घी और तेल स भरे गड्वे में गिरवार डूबता हुआ देवता है उसकी निश्चित 15 दिनों में मृत्यु हो जाती है, 119211
बन्धनेऽथ वरस्थाने मोक्षे प्रयाणके ध्र वम् ।
सौरभेये सिते दष्ट यशोलाभं निरन्तरम् ॥93॥ वन में श्वेत गाय बंधी हुई, तथा खुटे स चुनी हुई एवं चलती हुई दिखलाई पड़े तो हमेणा यश प्राप्ति होती है 1193।।
नदीवक्षसरोभभत् गृहकुम्भान मनोहरान् ।
स्वप्ने पश्यति शोकातः सोऽपि शोकेन मुच्यते ॥941 स्वप्न में नदी, वृक्षा, तालाब, गवत, पर नया गुन्दर मनोहर कलश दिखलाई पतो दुःयी व्यक्ति भी य म मुक्त हो जाता है ।1941
शयनाशनज पानं गृहं वस्त्रं सभूषणम् ।
सालंकारं द्विपं वाहं पश्यन शर्मकदम्बभाक् ॥95।। जो स्वप्न में सोना, भोजन-पान, घर, वस्त्रा-भगण, अलंकार, हाथी तथा अन्य वाहन आदि या दर्शन करता है उस सभी प्रकार के सुख उपलब्ध होते है 1195।।
पनाकामसियष्टि च पुष्पमाला सशक्तिकाम् ।
काञ्चनं दीपसंयक्तं लात्वा बुद्धो धनं भजेत् ।।96॥ गगन में मनाया गया, मास, PTETTI आदि को स्वर्णदीपक के द्वारा देखना झुश दियाई पड़े नो धन की प्राप्ति होती है 11961
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परिशिष्टाऽध्यायः
वृश्चिकं दन्दशूकं वा कीटक वा भयप्रदम् । निर्भयं लभते यस्तु धनलाभो भविष्यति ॥97॥
जो स्वप्न में बिच्छू, साँप तथा अन्य भयकारक जन्तुओं से निर्भय अवस्था को प्राप्त होते हुए देखे उसे धनलाभ होता है 11971
पुरीषं छदितं मूत्रं रक्तं रेतो वसान्वितम् । भक्षयेत् घृणया हीनस्तस्य शोकविमोचनम् ॥19॥
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जो स्वप्न में टट्टी, वमन, मुत्र, रक्त, वीर्य, चर्बी इत्यादिक घृणित वस्तुओं को घृणा रहित भक्षण करते हुए देखें उसका शोक नष्ट होता है 11981
वृषकुञ्जरप्रासादक्षीरवृक्ष शिलोच्चये ।
अश्वारोहणं शुभस्थाने दृष्टमुन्नतिकारणम् ||991
जो स्वप्न में बैल, हाथी, महल, पीपल, बड़ एवं घोड़े के ऊपर चढ़ता हुआ देखे उसकी उन्नति होती है || 99 ||
भूपकुञ्जरगोवाधनलक्ष्मीमनोभुवः ।
भूषितानामलंकारदर्शनं विधिकारणम् 100
जो स्वप्न में राजा हाथी, गाय, सवारी, धन, लक्ष्मी, कामदेव तथा अलंकार और आभूषणों से युक्त पुरुष का दर्शन करता है उसको भाग्य की वृद्धि होती है 1000
पयोधि तरति स्वप्ने भुङ्क्ते प्रासादमस्तके | देवतः लभते मन्त्रं तस्य वैश्वर्यमद्भुतम् ॥101
जो स्वप्न में अपने को समुद्र पार करते हुए, महल के ऊपर भोजन करते हुए तथा किसी अभीष्ट देवता से मन्त्र प्राप्त करते हुए देखता है, उसे अद्भुत ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ॥10॥
शुभ्रालंकारवस्त्राढ्या प्रमदा च प्रियदर्शना ।
लिष्यति यं नरं स्वप्ने तस्य सम्पत्समागमः ॥12॥
जिसे स्वप्न में स्वच्छ वस्त्रों ओर अलंकारों से युक्त सुन्दर स्त्री आलिंगन करती हुई दिखलाई पड़े, उसे सम्पत्ति प्राप्ति होती है 111028
सूर्यचन्द्रमसौ पश्येदुदयाचल मस्तके !
स लात्यभ्युदयं मत्र्यो दुःखं तस्य च नश्यति ॥1031
जो स्वप्न में उदयाचल पर सूर्य और चन्द्रमा को उदित होते हुए देखे उस
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भद्रबाहुसंहिता
मनग्य यो धान की प्राप्ति होती है तथा जमका दुव नष्ट हो जाता है ।10311
बन्धनं बाहुपाशन निगडैः पादबन्धनम् ।
स्वस्य पश्यति य: स्वप्ने लाति मान्यं सुपुत्रकम् ।।1040 जो म्यान म अान हाथ और पाय को बँधा हुआ देखता है उसे पुत्र की प्राप्ति होता है ।।1041
दृश्यते श्वेतसर्पण दक्षिणांगं पुमान् भुवि ।
महान् लाभो भवेत्तस्य बुध्यते यदि शीघ्रत: 105। जो ब्यक्ति स्वप्न में अपनी दाहिनी ओर हवेत गांप को देवता है और स्वप्न दर्शन नात् तत्काल 35 है. जो अत्यन्त लाम होता है |
अगम्यागमनं पश्येदपेयं पानकं नरः।
विद्यार्थकामलाभस्तु जायते तस्य निश्चितम् ॥106 जो व्यक्ति बन में आगगा बी के साथ म मगम वारी हा देशाता है तथा र सम्भा को गाना देवता है, उस विद्या, विषयमच और अर्थ लाभ होता है।।100
सफन पिति क्षीर रोप्यभाजनसंस्थितम् ।।
धनधान्यादिसम्पतिविद्यालाभस्तु तस्य वै।।110711 जो व्यक्ति स्वग्न गं चांदी के बर्तन में स्थित फेन महित दूध को पीते हुए देवता है, गनिन्चयग धन-धान्य आदि सम्पत्नि की प्राप्ति तथा विद्या का लाभ होता है 111400
घटिताटितं हम पीतं पुष्पं फलं तथा ।
तस्मै दत्ते जनः कोऽपि लाभस्तस्य सुवर्णज: ।।।०४। जो व्यक्ति वा न म वर्ण जयना स्वर्ण व आभूषण तथा पीत पुष या फल को अन्य किगी व्यक्ति द्वारा ग्रहण करते हुए दखता है, उसे स्वर्ण की, स्वर्णाभूषणों की प्राप्ति होती है ।। 108||
शुभं वृषभवाहानां कृष्णानामपि दर्शनम्।
पाणां कष्णद्रव्यागामालोको निन्दितो बुधः ।।10911 PAT में कृष्ण वर्ग बन, हाश्री आदि वाहनों का दर्शन शुभकारक होता है तशा अन्य [ अर्थ की वस्तुओं का दन बिहानी द्वारा निन्दित कहा गया है ।।109।।
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परिशिष्टाऽध्यायः
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दम्नेष्टसज्जनश्रम गोधर्म. सौख्यामः ।
जिनपूजा यवैदृष्ट: सिद्धार्थलभते शुभम् ।।1101 स्वप्न में दही के दर्शन से सज्जन-प्रेम की प्राप्ति, गेहूँ के दर्शन में मुम्न की शाप्ति, जी के दर्शन से जिन-पूजा की प्राप्ति एवं पीली सरसों के देखने ग शुभ फल की प्राप्ति होती है ||! 104
शयनासनयानानां स्वांगवाहन वेश्मनाम ।
दाहं दृष्ट्वा ततो बुद्धो लभते कामितां श्रियम् ॥1101 स्वप्न में शयन, आसन, सवारी स्वांगवाहम और मकान या जलना देग्नन के उपरान्त शीत्र ही जाग जाने से अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है 11} ! ||
निजांबर्वेष्टयेद् ग्राम स भवेन मण्डलाधिपः।
नगरं वेष्टयेद्यस्तु स पुनः पृथिवीपतिः ।। 12॥ जो स्वप्न में अपने शरीर की नमों में गांव को पति की हा दो बार मण्डलाधिप तथा जो नगर को वेष्टित करते हा दग्ध वह पृथ्वीपति- 11 होता है ॥11211
सरोमध्ये स्थितः पात्रे पायसं यो हि भक्ष्यति ।
आसनस्थस्तु निश्चिन्तः स महाभूमिपो भवेत् ।।1130 जो स्वप्न में तालाब में स्थित हो, बर्तन में रखी हुई पीर यो निश्चिन्त होकर खाते हुए देखता है, वह चक्रवर्ती गजा होता है ।। 1 : 311
देवेष्टा पितरो गात्रो लिगिनो मुखस्थस्त्रियः ।
वरं ददति में स्वप्ने स तथैव भविष्यति ।।।। स्वप्न में देवपूजिका, पितर. -- व्यन्त र आदि वी भक्ता, या देव का आलिगन करने वाली नारियां जिम प्रकार का वरदान देती हुई दिखलाई गई, उसी प्रकार का फल समझना चाहिए ।।।14।।
सितं छनं सितं वस्त्रं सितं कपुरचन्दनम्।
लभते पश्यति स्वप्ने तस्य श्रीः सर्वतोमुखी ।।1।5।। जो स्वप्न में प्रवेत त्र, श्वेत वस्त्र प्रवत चन्दा एवं पुर आदि सम्मान प्राप्त करते हुए देखता है, उभे सभी प्रकार का युदय प्राप्त होत है ।।।15।
पतन्ति दशना यस्य निजकेशाश्वमस्तकात । स्वधनमित्रयोन शो बाधा भवति शरीरके 11111
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भद्रबाहुसंहिता
जो स्वप्न में अपने दांतो को गिरते हए तथा अपने सिर से बालों को गिरते या जगड़ते हुए देखता है, उनके धना और बान्धव नाश को प्राप्त होते हैं और शारीरिक काट भी उग होता है ।।।।6।।
दंष्ट्री शृंगी वराहो वा बानरो मगनायकः।
अभिद्रवन्ति यं स्वप्ने भवेत्तस्य महद्भयम् ॥117 जा स्वप्न में अपने पीछे दाँत वाले और सींग वाले शूकर, बन्दर एवं सिंह आदि प्राणियों को दौड़त हुए देवता है, उसे महान् भय प्राप्त होता है ।।117|
पतनलादिभिः स्वांगे वाभ्यंग निशि पश्यति ।
मस्ततो बुद्ध्यते स्वप्ने व्याधिस्तस्य प्रजायते !!!8॥ जो गप्न में अपने शरीर में घी या तेल की मालिश करते हुए देखता है तथा म्बाज दर्शन . पञ्चात उनको निद्रा नल पाती है, उग रोगोत्पत्ति होती है ||1| |
रक्तवस्त्रालंकारर्भषिता प्रमदा. निशि।
यमालिगति सस्नेहा विषत्तस्य महत्यपि ॥19॥ जो स्वप्न में गम के समय लाल वर्ण के वस्यालंकारों से युक्त नारीमा सस्नेह आलिंगन करते हुए देखता है, उसे महती विपत्ति का सामना करना पड़ता है ।।119॥
पीतवर्णप्रसूनैर्वालङ्कृता पीतवाससा।
स्वप्ने गृति यं नारी रोगस्तस्य भविष्यति ॥1200 जो स्वप्न में पीत वर्ण के पुषों द्वारा अलंकृत तथा पीत वर्ण के वस्त्रों से गज्जित नारी द्वारा अपने को छिपाया हुआ देख वह शीघ्न हो रोगी होता है ।।12011
पुरीष लोहितं स्वप्ने मूत्रं वा कुरुते तथा ।
तदा जागति यो मयों द्रव्यं तस्य विनश्यति ।।121॥ जोवा में लाल वर्ण यो टट्टी करते हुए या लाल वर्ण का मूत्र करते हुए देने तथा स्थान वर्गन के पश्चात् जाग जाय तो उसका धन नाश होता है ।।।21।।
विष्टां लोमानि रौद्र वा ककुमं रक्तचन्दनम् ।
दृष्ट्वा यो बुद्ध्यते सुप्तो यस्तस्यार्थी विलीयते ॥1221 जिग ब" में विटा.-टट्टी, रोम, अग्नि, ककुम -- रोरी एवं लालचन्दन
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परिशिष्ट
दिखलाई पड़े और स्वप्न दर्शन के अनन्त र निद्रा टूट जाय, उसके धन का विनाश होता है ।।। 221
रक्तानां करवीराणामुत्पन्नानामुपानहम्।
लाभे वा दर्शनं स्वप्ने प्रयातस्य विनिदिशेत् ॥1231 यदि स्वप्न में लाल-लाल तलवार धारण किये हुए वीरपुरुषों के जून का दर्शन या लाभ हो तो यात्रा की सफलता समझनी चाहिए 1 1 2 3॥
कृष्णवाहाधिरूढो य: कणवासो विभूषितः ।
उद्विग्नश्च दिशो याति दक्षिणां गत एव स: ॥1240 स्वप्न में कृष्ण सवारी पर आरूद, कृष्ण बस्त्रों में विभूषित एवं उद्विग्न होता हुआ दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए देखे तो मृत्य समझनी चाहिए ।। | 24॥
कृष्णा च विकृता नारी रौद्राक्षो च भयप्रदा ।
कर्षति दक्षिणाशायां यं ज्ञेयो मत एव सः ।। 125॥ स्वप्न में जिस व्यक्ति को काली कालूटी विकृत वर्ण की भयानक नारी दक्षिण दिशा की ओर लींचनी हुई दिखलायी पड़े उमकी निश्चित रूप से मृत्य समझनी चाहिए 11250
मुण्डितं जटिलं रूक्षं मलिनं नीलबाससम्।
रुष्टं पश्यति य: स्वप्ने भयं तस्य प्रजायते ॥1261 जो स्वप्न में मुगिरत, जटिल, रूक्ष, मलिन और नील वस्त्र धारण किये हुए हाट रूा में आने को देखता है उसे भय की प्राप्ति होती है ।। 1 2611
दुर्गन्धं पाण्डुरं भीमं तापसं व्याधिविकृतिम् ।
पश्यति स्वप्ने (...) ग्लानि तस्य निरूपयेत ॥1271 रवाल में जो दुर्गन्ध एक्त, नोने एवं भयंकर व्याधिकयुक्न तापवी को देखता है उमे ग्नानि होती है ।।12711
वक्षं वल्ली छपगुल्मं वल्मीकि निजांकगाम ।
दष्टवा जागति य: स्वप्ने ज्ञेयस्तस्य धनक्षय: ॥12॥ जो बन में 7. लता, लोटे-छोटे गुलम या कमीकि-बाँबी को अपनी गांदी में देता है और म्वन दर्शन के पश्चात भाग जाता है उगा धन का विनाश होता है ।।।2811
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भन्याहुसंहिता
खजूरोऽप्यनलो वेणुगुल्मो वाप्यहितो द्रुमः ।
सस्तके तस्य जायेत गत एक स निश्चितम् ।।129१६ स्वप्न में जिगत मरतः पर मुजर, अग्नि संयुक्त यांग लता एवं वृक्ष पदा हुए दिखलायी पड़े इसकी गीघ्र पत्य होती है ।। 12911
हृदये वा समुत्पन्नात् हृद्रोगेण स नश्यति ।
शेषांगेषु प्ररूढास्ते तत्तदंगविनाशकाः ।।: 301 जो न बक्षस्थल पर अपयन खजूर, वांग आदि को उत्पन्न हुआ देना * उसकी हदरा गेम गमग होती है तथा गैर के गांगों में से जिस अंग पर उन पदाथों को जपन्न हो । हुए देगता है उग सा अंग का विनाण होता है ।।1301
रक्तसूवरसूत्रैर्वा रक्तपुष्प विशेषतः।
यदंग बेष्ट्यते स्वप्ने तदेवांग विनश्यति ।।131॥ जाग्यान ग अपने बिग अंग हो मालगुन, मानाप, या कालता-जन्तुओं में वरिटा देना है | उस अंग का विनाश होता है ।।13।।।
द्विपो ग्रहो मनुष्यों का स्वग्ने कर्षति व नरम।
मोक्षं बदस्य बन्धे वा मुक्ति च समादिशेत् ।।।32॥ म्वप्न में जिस मनुष्य हो जो हाथी, मगर या मनुष्य द्वारा खींचते हुए देखता है उसकी कारागार ग मुक्ति होती है ।। 32॥
मा छनं विशा स्वप्ने दिवा बा यस्य वेश्मनि !
अर्थाशो भवत्तस्य भरणं वा चिनिदिशेत् ।।133।। म. यानमा जित ! दिन में भध-मपन्थी या ना प्रवेश होते हुए दिग्बनाई पड़े, उमा-माम अथवा पण सा है ।।! 33।।
विरेनेऽर्थनाशः स्यात् छर्दने मरणं अवम् ।
बा) पादपछत्राणां गृहाणां ध्वंसमादिशेत् ॥11411 जो म्यान विन्या अर्थात सन्तनाने हुए देखता है उसके धन का नाश होता है। यमग ना देखने में मरण होता है। वृक्ष वी नोटी गर न हए देने में घर का नाश होता है ।। 1 3 4।।
स्वगाने रोदनं विद्यात नर्तने बधबन्धनम् । हमने शोकसन्तापं गमने कलहं तथा ।। 1351
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परिशिष्टाऽध्यायः
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स्वप्न में को गाना गाने हा देखन स नोना, नाचना देखने से बघबन्धन, हंसना देखने में शोज-सन्ताप एवं गमन देखने में कलह आदि फल प्राप्त होते .:.1351
सबंधां शुभ्रवस्त्राणां स्वप्ने दर्शनमुत्तमम्।
भस्मास्थितक्रकासदर्शनं न शुभप्रदम् ॥1361 स्वप्न में जन- वत्र मा देखना उत्तम फलदायक है किन्तु भरम. हड्डी, पटठा और बना देना न होता है ।1। 36।।
शुक्लमाल्यां शुक्लालङ्कारादीनां धारणं शुभम् ।
रक्तानिवस्त्राणं धारणं न शुभं मतम् ।।।37॥ या मगन माय और कार आदि या धारण करना शुभ है । रक्तगीत एवं नीला II : य करना ना नहीं है. ।।। 37॥
सन्नः पादररथो वातादिदोषजस्तथा। दृष्ट; श्रुतोऽनुभूतश्च चिन्तीत्पन्न: स्वभावज. 11381 पुण्यं पयं भवेवं मन्त्रज्ञो वरदो मतः ।
तस्मात्तो सत्यभूती च होयाः घनिष्फला: स्मृताः ।।139॥ ग्वप्न आर प्रकाश में पाप रहित मंत्र-साधना द्वारा सम्पन्न मंत्रज्ञ म्वन, बानादि दागा ग गन्न दोपज, दाट, अत, अनुभूत, चिसोत्पन्न, स्वभावज, पृश्य-
पके नापा देव । इन बाट प्रकार का स्वप्नों में मंत्रन और देव स्वप्न सत्य होते हैं । या प्रकार के स्वप्न प्राय: निष्फल होना हैं 1: 1 38-139॥
मलमुत्रादिकायोत्थ आधि-व्याधिसमुदभवः ।
मालावभावदिवास्वप्नः पूर्वदृष्टश्च निष्फलः ।।140।। पा-मन आतिको मायाग हाना होने वाले स्वप्न, आधि-व्याधि अर्थात् गेगादि में उगन ग्वाल, आलम्य इत्यादि ग पान “वप्न, दिया एवं स्वप्न जानन अनाया मग गम पदार्थों के गंगकार गमन स्वाज प्राय: निफल होत है।।1400
शुभ: प्रामाभ पटवादशुभ: प्राक् शुभस्ततः ।
गाश्चरायः फलदः स्वप्न पूर्वदृष्टश्च निरफल: ।।14। यदि वन पूर्व में या चान् शुभ होते है, अथवा पूर्व में अणुभ और बाद गंभ हान हैं तो वाद गवाद अवस्था में देखा गया स्वप्न फलदायमा तथा पूर्ववर्ती
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भद्रबाहुसंहिता अवस्था का स्वप्न निपल होता है ।।। 4110
प्रस्वपेदशुभे स्वप्ने पूर्वदष्टश्च निष्फलः ।
शुभे जाते पुन: स्वप्ने सफल: स तु तुष्टि कृत् ।।1421 अमम स्वान के आने पर व्यक्ति स्वप्न के पश्चात् जगकर पुनः सो जाय तो अणभस्वा फन नाट हो जाता है । यदि अशाभ स्वान के अनन्तर पून: शभ म्बन दिखलायी पड़े न: अगभ फल नष्ट होकर गा फल की प्राप्ति होती है 111421
प्रस्वपेदशुभे स्वप्ने जप्त्वा पञ्चनमस्क्रियाम्।
दृष्टे स्वप्ने शुभेनैव दुःस्वप्ने शान्तिमाचरेत् ।।। 43॥ अशुभ रवान ः दिनायी पड़ने पर जगण.. णमोकार मंत्र का पाठ करना चाहिए। यदि अगभ म्बान के पश्चात् शुभ स्वप्न आगेनो दुष्ट स्वप्न की शान्ति का उपाय करने ही आवश्यकता नहीं ॥1 431
स्वं प्रकाश्य गुरोरगे सुधी: स्वप्नं शुभाशुभम् ।
परेषामशुभं स्वप्नं पुरो नैव प्रकाशयेत् ।।।44 बुद्धिमान व्यक्ति को अपने गुरु के समक्ष गुभ और अश भ रवप्नों का कथन करना चाहिए, किन्तु अशुभ स्वप्न को ग के अतिरिवत अन्य व्यक्ति के समक्ष कभी भी नहीं प्रकाशित करना चाहिए441
निमित्तं स्वप्न चोक्त्वा पूर्वशास्त्रानुसारतः ।
लिङ्गन तं वे इष्टं निर्दिष्टं च यथागमम् ।। 45।। पूर्व शारयों के अनुसार स्वप्न निमिन ा वर्णन लिया गया है अब लिंग ये अनुसार इसके इण्टानिष्ट आगमानन वर्णन करते हैं 1145t|
शरीरं प्रथम लिङ्ग द्वितीयं जलमध्यगम।
यथोक्तं गौतमेनैव तथैवं प्रोच्यते मया ।।146।। प्रथम लिग मा गैर है और द्वितीय लिंग जलमध्या है. इनका जिग प्रकार से पहले गौतम स्वामी न वर्णन लिया है वैमा हो मैं वर्णन करता हूं ।। 146॥
स्नातं लिप्तं सुगन्धन वरमन्त्रेण मन्त्रितम् । अष्टोत्तरशतेनापि यन्त्री पश्येत्तदङ्गकम् ।। 147।।
ऊं ह्रीं नाः हः प; लक्ष्मी भवी कुरु कुरु स्वाहा । ग्नान कर सुगन्धित लगाव र 108 बार इस मंत्र से मंत्रित होकर स्वप्न
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परिशिष्टाध्यायः
का दर्शन करें। इस प्रकार स्वप्न का देखना ही मंत्र कहलाता है। "ॐ ह्रीं नाः छः पः लक्ष्मी नवीं कुरु कुरु स्वाहा " इम मंत्र का 108 बार जाप करना चाहिए ।।। 47 ||
सर्वागेषु यदा तस्य लीयते मक्षिकागणः । षण्मासं जीवितं तस्य कथितं ज्ञानदृष्टिभिः ॥1480
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जिस व्यक्ति के समस्त शरीर पर अकारण ही अधिक विषय दमनी हों आयु ज्ञानियों ने छह महीने बतलायी है। यहां से प्रत्यक्ष का वर्णन
उसको
आचार्य करते हैं । 148
दिग्भागं हरितं पश्येत् पीतरूपेण शुभ्रकम् । गन्धं किञ्चिन्न यो वेत्ति मृत्युस्तस्य विनिश्चितम् ||| 49 || जिसको अकारण ही दही में दिलासी महें
तथा गन्ध का ज्ञान भी जिसे न ही उसकी मृत्यु निश्चित है ।।। 49 ||
।
शशिसूय गतौ यस्य सुखरात्यो
मरणं तस्य निर्दिष्टं शीघ्रतोऽरिष्टनेदिभिः 111500
जिसे सूर्य और चन्द्रमा दिखलायी न पड़े तथा जिसके मुख से व्यास अधिक और तेजी से निकलता हो उसका शीघ्र मरण विद्वानों ने कहा है ।1501
जिह्वा मलं न मुञ्चति न वेत्ति रसना रसम् ।
निरीक्षते न रूपञ्च सप्तदिनं स जीवति ॥15॥॥
जिसकी जिल्ला पर सर्वदा अधिक रहता हो तथा जिसे किसी भी सका स्वाद न आता हो और न वस्तुओं के रूप को देख पाता ही उसकी बावु यात दिन की होती है । 151
वह्निचन्द्र न पश्येच्च शुभ्रं वदति कृष्णकम् । तुङ्गच्छायां न जानाति मृत्युस्तस्य समागतः 1115211 वस्तु प्रवेत जिरो अग्नि और चन्द्रमा दिखलायी पड़ने हों और कामी पड़ती हो. उन्नत छाया परिज्ञात न हो उसको आगल रहती है ।। 52 मन्त्रित्वा स्वमुखं रोगी जानुदध्ने जते स्थितः ।
मालूम
न पश्येत् स्वमुखच्छायां षण्मासं तस्य जीवितम् ॥15॥
जो रोगी मंत्रित होकर बुटने गयंत जल में खड़ा हो अपने मुख की छाया-प्रतिविम्ब न देख सके उसकी आय छह महीने की होती है 11 1 5311
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भद्रबाहुसंहिता ॐ ह्रौं ला: ह्वः प: लक्ष्मी गावों कुरु कुरु स्वाहा । भतं मन्त्रिततैलेन माजितं ता भाजनम् । पिहितं शुक्लवस्त्रेण सन्ध्यायां स्थापयेत् सुधीः ।।15411 तस्योपरि पुनदत्वा नूतनां कुण्डिका तत: । जातिपुर्जयेदेवं स्वष्टाधिकशतं तत:115511 क्षीरान्न भोजनं कृत्वा भूमौ सुप्येत मन्त्रिणा। प्रात: पश्येत्स तत्रैव तैलमध्ये निजं मखम् ।।15611 निजास्यं चेन्न पश्येच्च षण्मासं च जीवति ।
इत्येवं च समासेन द्विधा लिग प्रभाषितम् ।।15711 अब आचार्य तल में मुखदर्शन की विधि द्वारा आय का निश्चय व ने बी गरिमा बताना : :: : मोवीं बुझ र स्याहा" इस मंत्र द्वारा मंत्रित तेल से भरे हाए । सुन्दर माफ या स्वछ नांव व वर्तन को सन्ध्या समय गुवा बस्त्र ढककर रखे, पुनः उभ पर एक नवीन कुड़िया स्थापित कर उपर्युक्त मंत्र का जुही के पुणों से 108 बार जाप कारे, चात् खीर का भोजन क । मंत्रित व्यक्ति भूमि पर अयन ग.रे और प्रातःकाल उ' उस नेल में अपने मातु म. देखे । यदि अपना मन दम तेल में न दिलाई गई तो छह मास की आय समझनी चाहिए । इस प्रकार संक्षेग ग आचाय न दोनों का के लिंगों का वर्णन किया है ।।। 54-15711
शब्दनिमितं पूर्व स्नात्वा निमित्तत: सुदिवासा विशुद्ध धीः । अम्बिकाप्रतिमां शुद्धां स्नापयित्वा रसादिक: 1580 अचित्ता चन्दनः पुष्पैः श्वेतवस्त्रसुवेष्टिताम् ।
प्रक्षिप्य वामकक्षायां गृहीत्वा पुरुषस्ततः ।।1591 शब्द निमित्त का वर्णन मारते हुए आचार्यो में बतलाया है कि माद दो प्रकार के होते है देवी और प्राकृतिक । यहाँ देवी शब्द का कथन दिया जा रहा है। स्नान कर स्वच्छ और न वस्त्र धारण करे । अनन्तर अम्बिका की मूर्ति का जल, दुग्धादि से अभिपक र श्वेत वस्त्रो से आच्छादित करे । पश्चात् वन्दन, पुष्प, नैवेद्य आदि में उनकी पूजा करे । इनान्तर बामें हाथ के नीचे १७ । र गन्द्र गुनने के लिए निम्न विधि का प्रयोग र) 158-15911
निशायाः प्रथमे यामे प्रभाते यदि वा धजत । इमं मन्त्रं पठन् व्यक्तं श्रोतुं शब्द शुभाशुभम् ।।1601
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परिशिष्टाध्यायः
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ॐ ह्रीं अम्छे कुष्माण्डिनी निवारण बाद मम वागी परी रियामा
पुरवीथ्यां वजन शब्दमाद्यं श्रुत्वा शुभाशुभम् ।
स्मरन् व्यावर्तते तस्मादागत्य प्रविधारयेत् ।।।6।। रात्रि में प्रथम प्रहर में या प्रात:काल में ही आ यामिनि बाहाणि देबि वद बद बागोश्वरि म्बाहा" दम मंत्र का जाप शमा शब्द मुनने के निमित्त नगर में भ्रमण करे । इरा प्रकार नगर की गयी और गलियों में प्रमण करते समय जो भी शुभ या अशभ शक हल सुनाई पड़े, उग गुगवार वापरा लौट आब और उसी गन्द ने अनुगार गभागभ फल अवगत करे। अर्थात् अशुभ शब्द सुनने में मृत्य . बेदना, पीडामादि फा तथा सुभ शब्द गुनने से नीरोगता, स्वास्थ्य लाभ एवं कार्य सिद्धि आदि म भ पन प्राप्त होते है || 160- 16||
अदादिस्तवो राजा सिद्धिबुद्धिस्तु मंगलम् । वृद्धिश्री जयऋद्धिश्च धनधान्यादिसम्पद: ।।1621 जन्मोत्सवप्रतिष्ठाद्या: देवष्ट्यादिशुभकियाः ।
द्रव्यादिनामश्रवणाः शुभा: शब्दा: प्रकीर्तिताः॥163|| नगर में भ्रमण के समय प्रथम गा महन्त भगवान का नाम, उनका स्तवन, राजा, गिद्धि, बुद्धि, वृद्धि, जय, पंद्रमा, श्री ऋद्धि, धन-धान्य, गम्पत्ति, जन्मोताव, प्रतिष्ठोमव, देवपूजन, इत्यादिका नाम आदि शब्दों का सुनना ण बतलाया गया है। 62-1630
अम्बिकाशब्दनिमित्तं छत्रसालान्यजागन्धपूर्णकुम्भाक्षिसंयुतः ।
वृषाश्च गृहिणः पुंसः सपुन: भूमितास्त्रियः ।। 164।। अम्बिका दी, शत्र, माला, ध्वज, गन्ध युक्त , सेल, गृहस्थ, पुत्र गहित अलंकृत स्त्री आदि या वर्णन सभी कायाँ गंभ होता है। जब्द प्रकरण होने स उक्त वस्तुओं के नाम का यवण भी शुभ माना जाता है ।।। 63-164||
इत्यादिदर्शनं श्रेष्ठं सर्वकार्येषु सिद्धिदम् ।
छत्रादिषातभंगादि दर्शनं शोभनं न हि ।।165।। किसी भी कार्य के प्रारम्भ में लवभग, चपात आदि का दर्शन और शब्दश्रवण अशभ समझा जाता है। अर्थात् उक्त वस्तुओं दर्शन या उगत वस्तुओं के नामों को सुनने से कार्यसिद्धि म नाना प्रकार की बाधाएं आती हैं ।।165||
विशेष - वमन्तराज शबून में शुभ शकुना का वर्णन करते हुए बताया है कि दधि, घृत, दुर्वा, तण्डल-चावल, जल पूर्ण कुम्भ, बात गर्षा, चन्दन, शंण, शस्य,
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भद्रबाहुसंहिता
मत्स्य, मृत्तिका, गोरोचन, गोधूलि, देवमुर्ति, फल, पुष्प, अंजन, अलंकार, ताम्बूल, भात, आसन, मद्य, ध्वज, छत्र, माला, व्यंजन, बस्न, पदम .. वमल, भूगार, प्रज्वलित अग्नि, हाथी, बकरी, कुश, चामर, रत्न, गवर्ण, काय, ताम्र, औषधि, पल्लब, एवं हरित वृक्ष का दर्शन किसी भी कार्य के आरम्भ में सिद्धिदायक बताया मया है।
अंगार, भस्म, काष्ठ, रज्जु–रस्सी, कीचड़. काम-कपास, दाल या फलों के छिलके, अस्थि, मूत्र, मल, मलिन ब्यक्ति, अपांग या विकृत व्यक्ति, लोहा, काले वर्ण का अनाज, पत्थर, केश, साप, नल, नड़, चमड़ा, स्वाली घड़ा, लवण, तऋ, श्रृंखला, रजस्वला स्त्री, विधवा स्त्री एवं दीना, मलिन-वदन, मुक्तकशा स्त्री का दर्शन किसी भी कार्य में अशुभ होता है ।
नष्टो भग्नश्च शोकस्थ: पतितो लुञ्चितो गतः । शान्तित: पातितो बद्धो भीतो दष्टश्च चूर्णितः ।।166।। चोरो बद्धो हतः काल: प्रदग्ध: खण्डितो मृत: ।
उद्वासित: पुनम इत्याद्या: दु:खदाः स्मृताः ।।16711 नष्ट, भग्न, दुःली, मुण्डित शिर, गिरता-पड़ता, बद्ध, भयभीत, काटा हुआ, चोर, रस्मी या शृखला ग जाड़ा, वेदनाग्रस्त, जला हुआ, इण्डित, मुर्दा, गाँव से निष्काशित होने के पश्चात् पुनः गाँव में निवास करने बाला इत्यादि प्रकार के व्यक्तियों का दर्शन दधप्रद होता है ।।।66-1671
इत्येवं निमित्त सर्व कार्य निवेदनमा ।
मन्त्रोऽयं जपितः सिद्ध्येद्वारस्य प्रतिमाग्रतः ॥1680 इस प्रकार कार्यसिद्धि लिए निमित्तों का परिन्नान करना चाहिए। निम्न मन्त्र की भगवान महावीर की प्रतिमा के सम्मुख माधना करनी चाहिए । मन्त्रजाप करने में ही सिद्ध हो जाता है ।। 168||
अष्टोत्तरशतपुष्प: मालतीनां मनोहरैः । ऊली णमो अरिहन्ताणं ह्रीं अबतर अवतर स्वाहा। मन्त्रेणानेन हस्तस्य दक्षिणस्य च तर्जनो।
अष्टाधिकशतं वारमभिमन्त्र्य मषीकृतम् ।।। 691 भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा के समक्ष उत्तम मालती : पुष्पों से ॐ हो अहं णमो अरिहन्ताणं ह्रीं अवतर अवतर स्वाहा' इस मन्त्र का 108 बार जाप करने से मन्त्र सिद्ध हो जायमा। पश्चात् मन्त्रसाधक अपने दाहिने हाथ की तर्जनी
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परिशिष्टाऽध्यायः
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को एक सौ आठ बार मन्त्रित कर गेगी की आंग्डों पर रग्य ।।169॥
तर्जन्यां स्थापये मो रविविध्वं सुबर्तुलम् ।
रोगी पश्यति चेद्विम्बमायुःणमासमध्यमम् ।।70 उपर्युक्त क्रिया के अनन्तर रोगी को भूमि की ओर देखने को कह। यदि शमी भूमि पर मुर्घ के मोना र विम्ब का दर्शन करे तो छ: महीने की आयु समझनी चाहिए ॥ 17011
इत्यंगलिप्रश्ननिमित्तं शतबार सधीमन्त्र्यपावनम् । कांस्यपालने तेन प्रक्षाल्य हरतयुगलं रोगिणः पुन: ॥17॥ एकवर्णाजहिक्षीराष्टाधिकैः शतविन्दुभिः । प्रक्षाल्य दोयले लेपो गोमूत्रक्षीरयोः क्रमात् ।।172॥ प्रक्षालितकरयुगलश्चिन्तय दिनमासक्रमशः ।
पञ्चदशवाणहस्ते पञ्चदशतिथिश्च दक्षिण पाण! ।।।7310 इस प्रकार अंगुली प्रश्न का वर्णन किया। अब अलस्त पीर गोरोच। प्रश्नविधि का निरूपण करत है। बिहान यति श्री ई गमी रिसन्तानी अवतर अवतरवाहा मात्र का जाप कर मिमी बामि के तन में लक्त --लाक्षा को भरकर भत्रित करे । अनावर रोगी . हाथ, पैर आदि अंगो को धाकर शुद्ध करे । पश्चात् भो मत्र और सुगन्धित जल ग रोगी का हाथान प्रक्षालन करे । जानन्तर दिन, महीना और परी का निकट । मिह गाया हाथ में और पन्द्रह भी गंगया की दानिहार में यरूपना गरे।।। 71-1 2 3 ||
शावलं पक्षं धामे दक्षिणहस्ते च विप्रेत पापणम् ।
प्रतिपत्प्रमुखातिथय उभक रयोः पवरेखास ।। 17410 बायें हाथ में शुक्लपक्ष की और दाहिने हाथ में कृष्णपाली कामाना गरे । प्रतिपदादि तिथियां की दोनों हाथ की परेला औ- -गांठ थानों पर कल्पना करे ।। 17411
एकद्वित्रि चतु:संत्यमरिष्टं तत्र चिन्तयत् । यदि उक्त क्रिया जनान्तर सम्बामा 11', दो, गान ना नारया में करणालाएं नामी शिट गाना चाहिए।
हस्तयुगल तथोद्वय प्रातः गोरोचनरसैः ।।1751 अभिमन्त्रितशतबारं पश्यंच करयुगलम् । करे करपर्वणि यावन्मात्राश्च विन्दवः कृष्णा: ।1761
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भद्रबाहुसहिता दिनानि तावन्मात्राणि मासान् वा वत्सराणि वा!
स्वस्थितो जीवति प्राणी वीक्षितं ज्ञानदृष्टिभिः .1177॥ प्रात:काल लाक्षा प्रश्न के समान स्नानादि क्रियानो मा निवृत्त होकर उपर्युक्त मन्य से मन्त्रित हो सो बार मन्त्रित गोरोचन से हाथों का प्रश्नालन कर दोनों हाथों का दर्शन करे। उक्त क्रिया करने वाला रोगी व्यक्ति उतने ही दिन, मास और वर्ष तक जीवित रहता है, जितने ऋणविन्दु उसके हाथ के पवों में लगे रहते हैं, इस प्रकार का कथन ज्ञानियों का है ।।174 1/2-177॥
विशेष अलक्त प्रश्न की विधि यह है कि किसी चौरस भूमि को एक वर्ष की गाय के गोबर से लीपवार उस स्थान पर 'ॐ हीं अई णमो अरिहन्ताण ह्रीं अवतर अवत र स्वाहा' इम मन्त्र को 108 बार जाना चाहिए। फिर काँस के वर्तन में अलस्त को भरकर मी बार मन्त्र में मन्धित कर उका भूमि पर उप बर्तन को र देना चाहिए, पश्चात् गेगी के हाथों को गोभून और दूध से धोत्र र दोनों हाथों गर भन्न पहल हु, दिन, मारा और वर्ष की कल्पना नारनी चाहिए । अनन्तर पुनः सी बार उक्त मन्त्र को "डकर या अलपत में होगी के हाथ धोने चाहिए । इरा क्रिया के पश्चात् रोगी का हाथ धोना चाहिए। समयः हाथों के सन्ध्रि स्थानों में जितने बिन्दु काले रंग के दिधलायी पड़ें, उतने ही दिन, मास और वर्ष की आयु समझनी चाहिए ।
मोगेनन प्रश्न की विधि यह है कि जना प्रश्न गाममा एक वर्ण की गाय के गोबर में भूमि तो लीपकर उपयुक्त मन्त्र से 108 यार मन्त्रित कर कांग के बर्तन में गोरोचन को गोबार मन्त्र से मनात बारना चाहिए । पश्चात् रोगी के हाथ गोमूत्र और दुध धोकर मा पाईने हुए हाथी पर वर्ष, मास और दिन की कल्पना करनी चाहिए । पुनः मी बार मन्त्रित गांगेनन ने रोमी के हाथ ध्रुला र उन हाथों में रोगी या मरण-समय की परीक्षा करनी चाहिए । रोगी के सन्धि स्थानों में गितने काले रंग के बिन्दु दिनलायी गई, उतने ही संख्यक दिन, भास और वाई में उराशी मृत्यु समानी चाहिए।
रोचनाकुंकुमक्षिानामिकारक्तसंयुता। षोडशाक्षर लियेत्पद्म तबहिश्चैव तत्समम् ।। 1787t षोडशाक्षरतो बाह्य मुलबीजं दले दले। प्रथमे च दले वर्षान्मासांश्चैव बहिदले ।।17911 दिवसान षोडशीरेव साध्यनामसुकणिक । सप्ताहं पूजयेच्चकं तदा तं च निरीक्षयेत् ।। 80॥
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परिशिष्टाध्याय.
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लाक्षा; कुंकुम, गोरोचना इत्यादि विधियों से आयु की परीक्षा करने के उपरान्न चक्र द्वारा आयु परीक्षा की विधि का निरूपाश बरत हैं।
सोलह दल का एक कमल तर या इन कमक बाहर भी सोलह दल का एक दूसरा कमल बनाना चाहिए । बाह्म कमल के पत्तों पर अ आ आदि मूल स्वरों की स्थापना करनी चाहिए । 'भीतर बाल कमल के पत्तों पर वर्षों की तथा वाहर वाले कपल के पत्तो पर महीनों की स्थापना करनी चाहिए। मणियाओं में 10 दिवसों की स्थापना करनी चाहिए । इरर प्रकार निर्मित चक्र की एक सप्ताह तक पूजा करनी चाहिए, पश्चात उस निरीक्षण कर शुभाशुभ फन्न की जानकारी प्राप्त करने की चेप्टा करनी चाहिए ।।।78-1500
यहले चाक्षर लुप्तं ताहने नियते ध्रुवम् ।
वर्ष भासं दिन पश्येत स्वस्थ नाम परस्य वा11811 निरीक्षण करने पर जिम तिथि, मास या अपंको स्थापना वाल दल काम्बर लुग्न हो, उसी तिथि, नाम और वर्ष में अपनी या अन्य व्यक्ति की जिम लिए परीक्षा की जा रही है. मृत्यु गमलनी चाहिए ॥४॥
यदा वर्ण न लुप्तं स्यात्तदा मृत्युन विद्यते।
वर्ष द्वादशपर्यन्तं कालज्ञानं विनोदितम 1821 यदि यो भी घर लुप्त न हो तो जिमाया सायन्ध में विचार किया जा रहा है. जगणी मृत ही होती । दम द्वारा भारत वर्ष आयु का ही नान किया जाता है।।18211
प्रभनवम्प्रदाश्विनी भरण्यापहारिणी।
प्रदाग्निदेवते प्रतश्वरे सादये।।।। अश्विनी नमन ग नवीन वरना बहुन बम्ब मिनते हैं, भरगी में गयीन चत्र धारण नागने अर्थ की हानि होती है, बलिया में नवीन वस्त्र धारण
नंग वस्त्र दयता, गरिणी में नवीन वस्त्र धारण करने में धन प्राप्ति होती है ।।।8311
मृगे तु मश्काभयं व्यसत्वमेव करे।
पुनर्वसी शुभागमन्तदनों धर्यु ति: ।। 18431 मग नवी व धा! 1.73 में नया कर चूहा के पाटन या गय, आनधीन यम्भ धारण गु, '
JI मयान धारण करन स शुभ को प्राप्ति और यम बरा करने से लाभ होता . 111 .॥
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भंद्रबाहुसंहिता भुजंगमे विलुप्यते मघासु मत्यमादिशेत ! भगाह्वये नृपाद्भयं धनागमाय चोत्तरा ॥185॥
आपलेपा में पहनने से वस्त्र का नष्ट हो जाना, मया नक्षत्र में मृत्यु, पूर्वाफाल्गुनी में राजा से भय एवं उत्तराफाल्गुनी में वस्त्र धारण करने से धन की प्राप्ति होती है ।।। 851
करेण धर्मसिद्धय: शुभागमस्तु चित्रया। शुभं च भोज्यमानिले द्विदैवते जनप्रिय: ।।186।।
हस्त नक्षत्र में वस्त्र धारण करने से कार्यसिद्धि होती है, चित्रा में शुभ की प्राप्ति, स्वाति में उत्तम भोजन का मिलना एव विशाखा में जनप्रिय होता है ।।। 861
सुहृद्युतिश्च मित्रभे पुरन्दरेम्बरक्षयः । जलाप्लुतिश्च नैऋते रुजो जलाधिदैवते ।।87॥
अनुराधा में वस्त्र धारण करने से भिन्न गमागम, ज्येष्ठा में वस्त्र का क्षय, मूल में नवीन वस्त्र धार."य बारने में जल में डूबना और पूर्वाषाढा में रोग होता है ।।187॥
मिष्टमन्नमथ विश्वदेवते
वैष्णवे भवति नेत्ररोगता। धान्यलब्धिमपि वासवे विद
रणे विपकृतं महद्भयम् ।।8।। उन रापाड़ा में मिष्ठान्न की प्राप्नि, श्रवण में गबीन वस्त्र धारण करने से नेत्ररोग, निष्टा में नवीन वस्त्र धारण करने में अन्ननाभ एवं शतभिषा में विय का बहुत भय होता है ।।।88||
भद्रपदासु भयं सलिलोत्थं
तत्परतश्च भवेत्सुतलन्धिः । रत्नति कथयन्ति च पोष्णे
योऽभि नवाम्बमिच्छति भोक्तुम् ।। 189।। गुर्वाभाद्रपदा में जानभय, उत्तराभाद्रपदा में पुत्रलाभ और रेवती नक्षत्र में नवीन वस्त्र धारण करने से रन लाभ होता है । 1891
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परिणाम:
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वस्त्रस्य कोणे निवसन्ति देवा
नराश्च पाशान्तशान्तमध्ये। शेषास्त्रयश्चात्र निशाचरांशा
स्तथैव शयनासनपादुकास ॥19॥ नवीन वस्त्र धारण करते समय उसके शुभाशुभत्व का विचार निम्न प्रकार से करना चाहिए । नये वस्त्र के नौ भाग कर के विचार करना चाहिए। वस्त्र के कोणों के चार भागों में देवता, पाशान्त के दो भागों में मनुष्य और मध्य को तीन भागों में राक्षस निवास करते हैं । इमी प्रकार शय्या, आसन और ड़ाऊँ के नौ भाम करके फल का विचार करना चाहिए 11930
लिप्ते मषी कर्दमगोमया
श्छिन्ने प्रदग्ध स्फुटिते च विन्द्यात् । पुष्टे नवेऽल्पाल्पतरं च भुक्ते
पापे शुभं बाधिकमत्तरीये ॥19॥ यदि धारण करते ही नये बस्त्र में ग्याही. गोबर, कीचड़ आदि लग जाय, फट जाय, जल जाय तो अशाभ फन्न होता है। यह फन्न उत्तीय वस्त्र में विशेष रूप से घटित होता है ।1910
रुग्राक्षसांशध्वथ वापि मृत्युः
__ जन्मतेजश्च मनुष्यभागे । भागेऽमराणामथभोगवृद्धिः
प्रान्तेषु सर्वत्र वदन्त्यनिष्टम् ।।2।। राक्षसों के भागों में बस्त्र पद हो तो वस्त्र के स्वामी को रोग या मृत्यु हो, मनुष्य भागों में छेद हो तोन्म और नास्ति-लाभ, देवताओं के भागों में छंद आदि हों तो भोगों में वृद्धि एवं मभी भागों में छेद हो तो अनिष्ट फल होता है । समस्त नवीन बस्त्र में छिद्र होना अशभ है ।1 192||
कंकल्लवोलूककपोतकाक
क्रव्यादगोमायुखरोष्ट्रसः । छेदाकृतिर्दैवतभागगापि,
___ पुंसां भय मृत्युसमं करोति ।।193।। कंक्र पक्षी, मेढ़क, उल्लू, कपोत, मांसभक्षी गृध्रादि, जम्बुक, गधा, ऊंट और सर्प के आकार का छेद देवताओं के भाग में भी हो तो भी मृत्यु के समान व्यक्तियो
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भद्रबाहुसंहिता को पीड़ा कारक एवं भयप्रद होता है। बस्त्र के छिद्र के आकार पर ही फल निर्भर करता है ।।193।।
छत्रध्वजस्वस्तिकवर्धमान___ श्रीवृक्षकुम्भाम्बुजतोरणाद्याः । छेदाकृतिर्नेऋतभागगापि,
पुंसां विधत्ते न चिरेण लक्ष्मीम् ।।194॥ छत्र, ध्वज, स्वस्तिक, बधंपान-मिट्टी का सोरा, बेल, कलश, कमल, तोरणादि के आकार का लिद्र राक्षस भाग में हो तो मनुष्यों को लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। अन्य भागों में होने पर तो अत्यन्त शभफल प्राप्त होता है ।।194||
भोक्तं नवाम्बरं शस्तमृक्षेऽपि गुणजिते।
विवाहे राजसम्माने प्रतिष्ठा- मुनिदर्शने ॥1951 विवाह में, रायोत्सव में या ग़जसम्मान के समय, प्रतिष्ठोत्सव में, मनियों दे दर्शन के मामय निदानाव में भी स्त्र धारण करना शुभ है ।।)5॥
इति वस्त्र विच्छेदननिमित्तम् ।
इति श्रीभद्रबाहुसंहितायां निमित्तनामाभ्यायो त्रिशत्तमोऽयम् 30 सम्पूर्णः ।।
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श्लोकानामकाराद्यनक्रम:
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24
अंग-प्रत्यंगयुक्तस्य अंगानां च कुरूणां च अंगान सौराष्ट्रान् अंगारकान नवान् अंगारकोऽग्निमगाशो अकालजलं फलंग अकाले उदितः शुक्र अगम्यागमन सत्र अगम्यागमनं पश्येत् अग्निमग्निप्रमा अवतस्तु सामाणं अग्नतो या पदुल्का अचिरेणैव कालेन अजवीथीभ प्राप्त: अजबीथीमागने चन्द्र अजवीथी विगाखा च अत ऊर्य प्रवक्ष्यामि अतः परं नरभ्यामि अतीतं वर्तमानं च अतोऽस्य येऽन्यथाभावा अत्यम्वु न विशाबायां अथ गोमत्रपति मान् अथ चन्द्राद विविष्कम्य अथ यद्य भयां सेना
अश्च वक्ष्यामि के पांचिन् 442 अथवा मृगांकहीन 310 अथ शिमगतोऽस्निग्धा 64 370 अथ गुर्याद विनिमय 164 अथाला: गंप्रवदया1ि , 63, 84, 366 94, 14, 121, 141, 162, 434 175.272,263, 399 264 अनार द्वारकरण
243 435 अधरनखदशनरसना
464 478 अघोमाबी निजताया।
469 23 अनन्तगं दिशं दीप्ता 137 अनार्याः कच्छ-यौधेया: 269 30 अनावृभियं घोर
192 अनाव प्टिभय रोग 296, 297 अनावृष्टिहता देशा
318 39। अनुगच्छन्ति याश्नोल्या
24 271 अनुराधा वक्त्रदात्री
456 292 अनुगधास्थितो शुको 94 अनुलोमो यदाऽनीक
113 181 अनुलोमो यदा निग्धः 113 299 अनुलोमो बिजयं न ते 321 अनाज: परूप: श्यामो
340 265 अन गवर्णनक्षत्र
21 66 अनेकवर्णसंस्थान
145 29 अन्तःपुरविनाशाग
200
91
88
283
290
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भद्रवाहुसंहिता
203
146 487 227
146
486
49 199 395
236
487 279 438
434
356 179
अन्तःपुरेषु द्वारेषु अन्तवण्चादवन्तश्च अन्धकारमरपन्ना अन्यस्मिन् केतुभवने अपग्रहं विजानीयात् अपरस्तु तथा : अपगं चन्द्र सूयौं तु अपरेण च कवन्धस्तु अपरेण तु या विद्यत् अपगेतरा तु या विद्यन अपसव्यं नक्षत्रस्य अपि नक्षणवान् मुख्यः अपोन्तरिक्षात् पतितं अप्रशस्तो यदा बायुअराराणां चमत्त्वाना अमगणां तु मदशाः अ'मध्यभक्षणं व अभिजिन्नानुगधा च अभिजिवणं चापि अभिजिरस्थः कुरूप अभिजिन्द द्वे तथापाढे अभिवन्ति घोपेण अभिद्रवन्ति यां मेनां अभिमन्त्रितशतवार अभिमन्थ्य तस्य कायं अभिमन्यस्तत्र तनुः अभीक्ष्णं चापि सुप्तस्य | अभ्युस्थितायां च सेनाया अभ्युन्नतो यदा येतो अध्रवक्षं गमच्छाब अनगक्तितो गत अम्राणां यानि रूपाणि अघ्राणां लक्षणं कृत्स्नं अप च विवणे
277
242 अमनोजः फलः पुषः 268 अम्बरेषदकं विन्द्यात् 167 अम्बिकाशब्दनिमित्तं 365 अमला सलवणा: स्निग्छ। 128 अरण्यानि तु सर्वाणि ! अनि की . . 403 अर्द्धचन्द्र निधागस्त 382 अद्धंयत्ता प्रशान्ति 64 अर्धमागं यदा चन्द्रे 64हत्य वरुणे रुद्रे 308 अहंदादिस्तवो गजा 179 अलबागपघाताय 340 अलतानां देव्याण 114 अग्नयतकं बाथ रोगो वा 74 अल्पचन्द्रं च द्वीपाश्च 166 अल्पेनापि त जानन 436 अवृष्टिश्च भयं घोरं 322 अशनिश्चक्रसंस्थाना 273 अश्मकान् भरतानान् 284 अश्रुपूर्णमवादीनां । 270 अबएण्योपजीविनो
77 अटभ्यां तु यदा चन्द्रो 289 अष्ट या तु यदा सोनं 489 अष्टादश मासेषु 470 अप्टोन रसत. पुप्पः 457 अपमव्यं विगीण तु 246 असारक्षभूयिष्ठे 198 अपिशक्ति तोमराणां 46 अस्तंगत यदा सूर्ये 76 अस्तं यातमधादित्य
78 अस्तमायाति दीप्ता 86,98 अस्तिकाय विनीताय
73 अस्थिभांस गनां न 194 अहं कृत नृपं कुरं
387 197 287 352
353
223 488 144 203 76 383 28 142 175 241 175
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197
श्लोकानामका राद्यनुक्रमः
474
137
111
229
468 468 489 465 487
17
488
234 413
235
अहश्च पूर्वसन्ध्या च 403 आस्तां तु जीवितं मरणं अहिच्छत्रं च कच्छंच 266 आस्तिकाय विनीताय अहिर्वा वृश्चिक: कीटो 439 आहारस्थितयः सर्वे अंशुमाली यदा तु
48 आ
इतरेतरयोगास्तु आकाशे विमले छाया
473 इतरेतरयोगन आग्नेयी अग्निमासपाति 86 इति प्रोक्त पदार्थस्तम्आज्यविकं गुडं तल 410 इति भत्यितसर्वागो आतकानि तु द्वात्रिंशद 126 इत्यंगुलिप्रश्ननिमितं आदकानि धनिष्ठायां 123 इत्यवोचमरिष्टानि आढकान्येक नवति
125 इत्यादिदर्शन श्रेष्ठं आढकान्येकपंचाशत्
125 इत्येतावत्समामेन आढकान्येकविंशच्च
125 इत्येनं निमित्तकं सर्व आदानाच्चैव पाताच्च 105 इन्द्रस्य प्रतिमायां तु आदित्य परिवेपस्तु
46 इन्द्राणि देवसंयुक्ता आदित्यं बाथ चन्द्रं वा
432 इन्द्राण्या समुत्पात: आदित्ये विचरेद रोग 274 इन्द्रायुधं निशिश्वेतं आनन्न् मलकीरांश्च 387 इन्द्रायुधसवर्ण च आना शौरसेनापन्द 308 इन्द्रायुधसवर्णस्तु आपो होतुः पतेद
185 इमं यात्राविधं कृत्स्नां आप्यं ब्राह्म च श्वं च 320 इमानि पानि बीजानि आरण्या ग्राममायान्ति
223 आरहेद वा लिने द्वागि 411 ईतयाच महाधान्य। आरोग्यं जीवितं लाभ
ईति व्याधिभयं चौरान आदी हत्वा निवर्तेत 279 ईशाने वर्षणं ज्ञेयं आश्लेषासु ज्याठासु
165 आर्यस्तमादितं पुप्यो
405 उच्छ्रितं चापि वैशाखात् आपाढा श्रवण चैव
277 उत्तर भजते मार्ग आषाढी पूणिमायां तु 105, 106 उत्तरतो दिशः श्वेत: ___107, 108, 109
उत्तगंतु यदा सेवेत आपादे तोयसंकीर्ण
32? उत्तराणि च पूर्वाणि आषाढ़े शुक्लपूर्बासु ____122 इत्तगयामापादाभ्याम आमनं शयनं यानं
438 उत्तरायां तु फाल्गुन्यां आसनं शाल्मलीं वापि 439 उत्तरे उदयोऽर्कस्य
232 143 112 206 321
321,
274
181
115
165 415 352
286
335 122 127 38.2
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________________
498
उत्तरेण तु पुष्पस्य उत्तरेण तु रोहिण्यां उत्तरेणोत्तरं विद्यात्
उत्तरे त्वनयोः सौम्यो
उत्पद्यन्ते च राजानः
उत्पाता विकृताश्चागि
उत्पाता विविधा ये तु
उत्पाताश्च निमितानि
उत्पाताश्चापि जायन्ते
उत्संग: पूने स्वप्ने
उदकस्य प्रभुः शुक्रः उदयात् सप्तमे ऋक्षे
उदयास्तमने भूयो
उदयास्तमने ध्वस्ते
उदयास्मनेऽर्कस्य
उदये च प्रवागे च
उदये भारकरस्योल्का
उदीच्यां ब्राह्मणान् हन्ति
उदीच्यग्यथ पूर्वाणि
उद्गच्छ मोमम
उद्गच्छमानः सत्रिता
उद्गमानेनादित्यै
उद्गच्छेत मोममर्क
उद्भिजानां न जन्तूनां
उद्विजन्ति च राजानो
उपधानेन चक्रेण
उपसर्पति मित्रादि
उपाचरत्वासवाज्ये
उरोहीने तथाष्टादश
उलूका वा विडाला वा
उल्का तारापनिश्र्नय
उल्कादयो हृतान् हन्यु
उल्कानां पुलिन्दानां
उल्कानां प्रभवं रूपं
भद्रबाहुसंहिता
41[ उल्का नीचैः समा स्निग्धा 411 उल्कापात सनिर्घात्
274
उल्कापातोऽथ निर्धाताः
335
उल्का रूक्षेण वर्णेन
124
उल्कात् साधनं चात्रे
194
उल्कावत साधनं ज्ञेयं
240
357
उल्कावत् साधनं दिक्षु
उल्कावत् साधनं सर्वं
195 उत्काव्यूहष्वनीकेषु
442
404
311
351
383
86
287
28
24
73
27
उल्काऽशनिश्च धिष्ण्यं
उल्काऽशनिश्च विद्यच्च
उल्का समाना हेषन्ते
उल्का समासतो व्यासात्
उल्काता न प्रशस्यन्ते
उल्कास्तु बहवः पीता:
उल्कास्तु लोहिताः सूक्ष्मा
ऊ
ऊर्ध्वं प्रस्पन्दन्ते चन्द्र
ऊर्ध्व बृपो यदा न
स्थितं नृणां पाप
237
85
28
409
107
324
317
एकवर्णाजहि क्षीर
435 एकविंशं यदा गत्वा
ऋ
ऋक्षवानरसंस्थाना:
ए
एक द्वित्रिचतुः संख्य
एकपादस्त्रिपादो
473
एकविंशति यदा गत्वा
196 एकविशति वेलाभिः
399
400
310
16
एकादिशु शतान्तेषु एकोनविंशकं पर्व
एकादशी भयं कुर्यात्
एकादशे यदा भौमो
23
251
184
29
130
51,67,99
146
89
29
21
22
250
25
29
29
354
245
245
22
489
197
489
292
294
465
388
341
364
351
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________________
एकोनविंशतिविन्द्यात् एकोनि
एकोनानि तु पंचाशत् एतत्संख्यान् महारोगान्
एतद् व्यासेन कथितं एतानि श्रीणि वाणि एतानि पंच चक्राणि
एतान्येव तु लिगानि 350,357,383 ऐरावणे चतुष्प्रस्थो
एतावदुक्त गुरुकानां
एताषां नामभिवर्ष
276
पामेव यदा शुको एतं संवत्सराचोक्ता:
एवं स्वप्न ययोद्दिष्टाः
एवं जायते सर्व
एवं दक्षिणतो विन्द्यात्
श्लोकानामका राखनुक्रमः
एवं देशे च जाती च
एवं नक्षत्र शेपेपु
एवं लक्षणसंयुक्ता एवं विज्ञाय वातानां
एवं शिष्टेषु वर्णेषु
एवं शेषान् ग्रहान्
एवं शेपेषु वर्णेषु
एवं सम्पत्कारा एवं नृपाश्चापि
समस्तमने का
एवमेतत्फलं कुर्यात्
एवमेवं विजानीयात्
एवमेव यदा शुक्रो
124 एषां यदा दक्षिणतो
22
341
461
130
293
294
एते चतवः सर्व
एते प्रयामा दृष्यन्ते
एने प्रवासाः शुक्रस्थ
एतां तु यदा शुको
271
कनकामा शिखा ग्रस्य
गाव मध्येन 271, 272, 273, कनकामी यदाऽष्टभ्यां
कन्यार्याणि या कन्या
पामन्यतरं हित्वा एवास्तगत उल्का
ऐ
33
क
63 केकल्लवोलूक कपोत कंगुदारहिलामुद्गा
367
371
298
272
322
444
395
365
237
ऐरावण पयं प्राप्तः
ऐरावणपथं विन्द्यात्
251
25, 97
11
कटुकण्टकिनो क्ष
वानकगणो रत्नं
कपिलं सस्य श्राताय
कपिले रक्त पीते वा
कबन्धमुद्रये भानो
कबन्धा गरिया गंधा
कन्नावृतः सूर्यः कबन्धो वामपोतो बा
करकगोणितं मांस
करचरणजानुमस्तक भंगे चतुर्मासः
करेण धर्मसिद्धयः
कर्मजा द्विविधा
402
369
239 कषायमधुरास्तिक्ता
86
183
8.
287
299
274
काका गुनाः शृगायत
काञ्ची किसतान् प्रमिलान्
कामजस्य यदा गाय
काम्बोजान् रामगान्धारान
कार्तिकं चाऽथ पोषं कार्पासास्तिलमापाश्च
499
273
251
28
296, 298
270, 234,
235, 289
391
493
413
227
394
366
353
443
143
196
482
351
481
481
240
474
474
492
431
277
196
388
231
370
165
412
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________________
500
भद्रबाहुसंहिता
310 399 402
166
184
367
382 369 364 272 203 409 267 189 246 201 344
कार्याणि भ्रमंत; कुर्यात 205 कृष्णे शुष्यन्ति सरितो कालेयं चन्दनं रोन
439 कृष्णो नीलश्च श्यामश्च कामांश्च रेवतीहस्ते
28! कृष्णी नीलस्तया श्याम: कामीशन् दरदाश्च
382 कृष्णो नीलाच रक्ताश्च काश्मीरा वर्वरा कोड़ा 270 कृष्णो वा विकृतो रूक्षों किष्किधाश्च नाटाश्च 384 केतो: समुस्थित: ऋतुकोटदष्टस्य वृक्ष
228 कोंकणानपरास्तांश्च कोटा: पत गा गलमा- 309 कोंकणान् दण्ड कान मोजान् कुञ्ज रस्तु तदा गर्देत
123 कोणजान पारसम्भूतान कुटिन: व ड्यग्निलग 370 नोवाणां वीजानां कृत्तिका रोहिणी चित्रां 276, 414 कोविदार ममाती कृत्तिकादि भगान्तश्च 317 कोमधाम्यं सर्षगाश्च कृत्तिकादीनि सतह
343 कौगरजा पुपादाश्च कृत्तिकानां मवानां च 415 अपादाः पक्षिणी यत्र कृत्तिकायां गतो नित्यं 322 ऋज्यादा शयन। यत्र कृत्तिकायां दहत्यग्नी
455 करं नदन्ति विषम कृत्तिकायां गदा शुक्रः 278 करःकद्धपच ब्रह्मघ्नकृत्तिका रोहिणी चा- 272 कर ग्रहयुतच चन्द्रो कृत्तिकारोहिणीयुक्ता 410 क्रौंचवरेण स्निग्धेन कृत्ति का च वद्याकि
309 क्वचिन्निष्पद्यते मस्यं कृत्ति कास्तु यदो पातो 250 क्षत्रस्य परिवारस्य कृत्तिकास्वग्निदो रक्तो 134 क्षत्रियाणां विपादश्त्र कृशत्वं नीयते कायः 461 क्षत्रियान् यवनान वाहीन् कृष्ण दासो हयं कृष्ण
.३39 क्षत्रियाः पुष्पितऽश्वत्थे कृष्ण: कृष्णं गना हन्यात 40। क्षत्रियाश्च भुविख्यात: कृष्णवागा यदा भन्या 436 क्षार वा कटक बाऽय कृष्णपीता यदा कोटि- 353 क्षिप्रगानि विजोमानि कृष्णप्रभो यदा सोमो 353 क्षिप्रमोद च वस्त्रं च कृष्णवाहाधिरूढो यः 48| श्रीयते वा म्रियन वा कृष्णा च विकृता नारी 48। क्षीर शंखनिभश्चन्द्र कृष्णानि पीत-ताप्राणि 74 क्षीरान्न भोजनं कृत्वा कृष्णाजीला च रूक्षाश्च
24 क्षीरो क्षौद्र यवा कंशुवृष्णा रूक्षा मुखाड़ा- 167 क्षुधामरणरोगेभ्यकृष्णे नीले ध्रुव वर्ष 45 क्षेपाम्यत्र प्ररोहन्ति
238 198
108 475 340
387
232 393 98
78
293 247
45
486 408 269 123
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________________
श्लोकानामकारानुक्रमः
क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं 107, 123 124 गृहणीयादे मागेन
गोनागवाजिनां
ख
खण्डं विशीर्ण सछिद्र'
खरवद्भीमनादेन स्वर - शुकश्युक्तेन खजूरोऽनलो वेणुखारी द्वात्रिंशिका जेया खारीस्तु वारिणो विन्द्यात्
ग
गजवीधीमनुप्राप्त गजवीभ्यां नागवीथ्यां
गति प्रवास मुदयं गतिमार्गाकृतिवणं
गन्धर्वनगरं क्षिप्रं
गन्धर्वनगरं गर्भान्
गन्धर्वनगर योनि
गन्धर्वनगरं स्निग्ध
गर्भाधानादयों मासा
गर्भा यत्र न दृज्यन्ते मस्तु विविधा ज्ञेया
गवास्त्रेण हिरण्यंन गिरि निम्ने निम्नेषु
गुरुणा प्रहतं मार्ग
गुरुभार्गव चन्द्राणां
गुरुः शुक्रश्च भीमश्न
सौरच ना
गुरुः
गुरोः शुक्रस्य भीमस्य गुहद्वारे विवर्ण
गृहयुद्धमिदं सर्व
गृहाणां चरितं चत्र
गृहादाकृष्य नीयत्
गृहांश्च वनखण्डाश्म गृहीतो विप्यत चन्द्रो
143
278
436
482
271
123
ग्रहनक्षचन्द्र
ग्रह्नक्षवतियो
297 298 ग्रहानादित्यचन्द्री
390
यहा परस्परं यत्र
331
ग्रहो यह महान
395 ही गुरुबुधो बिन्यात्
144
ग्रामाणां नगराणां च
3
ग्राम्य वा यदि वाऽरण्या
143 ग्राहो नरं नगं कचित्
143
ग्रीवोपकरवन्ध्यो
164
168
164
412
410
242
264
415
399
333
43)
405
गोपालं वर्जयेत् सत्र
मोवीजदोषों वा
गोवीश्री रेवती चैव
गोवीधी समनुप्राप्तः गोत्रीयां नागवीथ्यां
ग्रहणं रविचन्द्राणां
164
415
293
355
घ
घटितावदितं मय
घनादिभिस्वांग
घृती वृताचिश्च्यवन
चतुरंगवलोपत
चतुरंगविती युद्ध
चतुरस्रो यदा चापि
च
चतुर्थ चैन पष्ठं च
चतुर्थी पंच पि
चतुर्थ मण्डने शुक
चतुर्थी विवम् शुक
चतुर्दशानां मान
चतुर्दिक्षु मंदा पृतना
चतुर्दिक्षु रवीन्दूनां
चतुर्भागफला तारा
501
356
201
308
390
270
296, 297
391
475
48
175
25
339
403
403
294
197
441
464
478
480
381
180
180
49
265
387
268
275
349
30
466
17
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________________
502
भद्रबाहुसंहिता
277 413 412 229 230
193
225
4४४
356 431
चतुविशत्यहानि
288 चित्रामेव विशाखा च चतुविधोऽयं विष्कम्भः 177 चित्रायां तु यदा शुक्रचतुष्कं च चतुक च
65 चित्रायां दक्षिणे पाश्र्वे चतुष्पदानां पक्षिणा
75 चित्राश्चर्य मुनि गानि चतुष्पदानां मनुजा- 197 चिरस्थायी नि तोयानि चतुष्पदानां सर्वेषां
231 चिह्न कुर्यात क्वचित् चतुष्पष्टिमाढकानि 122, 124, 126 चैत्यवक्षा रसान् यत् चत्वारिशच्च है बाकि 126 जोगे बद्धो हतः कालः चत्वारिंशत् पंचाशत् । 289 चौराश्च यायिनो म्लेच्छा: चत्वारिका यदा गन्द्रत 307 च्यवनलबर्न पानं चत्वारि पट तथाष्ट्री
332 चन्द्रभानरयोविम्वं 466 छत्रध्वजम्वस्तिकचन्द्रमा पीडितो हन्ति 357 छर्दन मरणं विन्द्यात् चन्द्रमा सर्वधालन
292 छादयेन्चन्द्रसुयों चन्द्रः शनैश्चर प्राप्नो 30४ छायापुरुषं स्वप्न चन्द्र: शूको गुरु भीमो 411 लामाविम्बं ज्वलद् प्रान्तं चन्द्रसूर्य प्रदीगादीन्
465 छायाविम्ब स्फुटं पश्येत् चन्द्रसूर्यो विशृ यो तु 392 छायालक्षणमुष्टश्च चन्द्रः सौरि यदा प्राप्तः 308 छिया भिन्ना प्रदृश्येत् चन्द्रस्य चारं च रतो
395 चन्द्रस्य चोन रा बोटी 35] जी मण्हीं विरूपाक्षं चन्द्रस्य दक्षिणे पापा 412 जन्मनक्षत्रघातेऽत्र चन्द्रस्य परिवेशस्त
46 जन्मोलाव प्रतिळाचा: चन्द्रस्य वरुणस्यापि
237 जरगवपथंशाप्तः चन्द्र प्रतिपदि योन्यो 389 जरगयपथ प्राप्तः चर्मागुवर्णकालि गान्
370 जलं जलरुहं धान्य चान्द्रस्य दक्षिणो वीथीं 333 जलजानि तु मवन्त चारं गतो या भयः
306 जलदो जलकनुश्च चारं प्रवास वर्ण च
339 जानीपादनुराधा यां चिकित्सानिपुणः नावं 177 जामदग्ने यदा राम चिक्षिणो ह्यगणो गुल्मः 371 जावत चक्षागा व्याधि: चिमूतिग्न निश्चि
333
जिह्वामलं न मुञ्चन्ति चित्रमूलाश्च त्रिपुरा 282 जुह्नतो दक्षिणं देशं चित्रम्यः पीउधन गर्व 282 जुद्धत्यनुभग़र्पण स्थानं
493 437 350 468 469 473 177 186
440
393 487 297 296
431
273 371 129 236
193
485 !86
186
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________________
ज्ञानविज्ञानयुक्तोऽपि ज्येष्ठानु राधयोश्चैव
ज्येष्ठामूलं च सौम्यं च ज्येष्ठामूलममावस्यां
ज्येष्ठामूली यदा चन्द्रो ज्येष्ठायामनुपूर्वेण
ज्येष्ठायामाढकानि
ज्येष्ठास्थः पीडयेत्
ज्येष्ठे मूलमतिक्रम्य ज्योतिषं केवलं कालं
ज्वलन्ति यस्य शस्त्राणि
ड
डिम्भरूपा नृपतये
ल
तज्जातप्रतिरूपण ततः पंचदशक्षण
ततः प्रबाध्यते वेश
ततः प्रोवाच भगवान्
ततः श्मशान भूतास्थि तत्र ताथ तथा धिष्ण्यं तत्रासीनं महात्मानं तत्रास्ति सेर्माजद् राजा तथा मूलाभिघातेन तबोध्यमधी वाप वदा गच्छन् गृहीतोऽपि
तदा ग्रामं नगरं धान्यं
तदा निम्नानि वातानि
तदाऽन्योन्य तु राजानो
तनुः समार्गो यदि
तन्दुर्लमि
यस्यां
तयोविभ्यं यदा नीलं
राजन्यां स्थापयेद् भू
तस्मात् स्वर्गास्पदं तस्माद् देशे च काले
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
179
तस्माद्राजा निमित्तज्ञ
288
तस्य व्याधिमयं चागि
320
तस्यैव तु यदा घु
163 तस्योपरि पुनर्दत्या
414
335
129
283
122
4
30
तिथीनां करणाटा च
तिथी महत्करणे
195 तिर्यक्षु यानि गच्छन्ति
तासं पुण्डरीकं वा
ताम्रो दक्षिणकालम्ब
323
65
352
293
122
294
तागणां च प्रमाणं च
तिथिश्व करणं चैव
तीक्ष्णायां दशरात्रेण
270
तृतीयायां यदा सोमो
291
तृतीये चिरो व्याधि
355
तृतीये मण्डले को
16 तेन जनितं गर्भ
295 तैलपूरितगर्तायां
336
467
466
489
1 -2
17 तैलिका सारिकाश्चान्तं
2 तोषावहानि सर्वाणि
I
181
तिला कुलस्था मापा तिष्यो ज्येष्ठा तथापा
तोसलिंगान् मुनान्
सीगायत जं
त्रयोदशी - चतुर्दश्यो
त्रयोदशोऽवि नक्षत्रे
श्रासयन्तो विन्ती
त्रिकोटि यदि दृश्येत्
त्रिमण्डल परिक्षिप्तो
त्रिवर्णश्चन्द्रवत् वृत्तः
त्रित्रिशति यदा गत्वा
त्रिशिरस्के द्विजयं
त्रीणि यावाचयन्त त्रैमासिक प्रवासः स्यात्
503
180
192
200
486
440
340
16
32
115
97
76
394
271
331
352
275
267
105
476
279
229
369
434
388
342
248
49
87
366
293
365
50
2.88
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
504
भद्रबाहुसंहिता
दंष्ट्रीगी बराहो वा दक्षिण चन्द्रग च दक्षिणं मार्गमाथित्य दक्षिणः क्षेगज्ज्ञेयो दक्षिणस्तु मृगान् हन्ति दक्षिणः स्थगिन् हम्ति | दक्षिणस्यां दिशि यदा दक्षिणातारतो दृष्टः दक्षिणा भने गर्भ दक्षिणा मेचमामा तु दक्षिण चन्द्र गे च दक्षिणेत यदा माग दक्षिण निनो हन्ति दक्षिणेन तु पाण दक्षिणेन नु चक्रेण दक्षिणेन यदा गछत दक्षिणेन यदा शुक्रो दक्षिणेनानुराधायां दक्षिणे नीच कमाणि दक्षिणे राजपीडा स्यात दक्षिणे श्रवणं गच्छन् दक्षिणे स्थविरान् हन्ति दधि सोनं घृतं तोयं दध्नेष्टसज्जनप्रेम दर्शनं ग्रहणं भग्न दशपञ्चवर्गस्तथा दशाहं द्वादशाह बा दिग्भाग हरितं पश्यत् दिनानि तावन्मावाणि दिवसान पौडगाव दिवसाधं यदा वाति दिवाकरं बहुविध: दिवा समुस्थितो गों
दिवा हस्ते तु रेवत्यां 191 479 दिवि मध्ये यदा दृश्येत् 264 415 दीक्षितानह देवांगच
372 392 दीपशिखां वहरूपां
466 283 दीप्यनं यत्र गस्त्राणि 225 282 दुग्धतलतानां च
442 286 दुर्गन्ध पाण्डुर भीम
481 105 दुर्गे भवति संबासो
306 245 दुभिक्षं चाध्यवष्टि च 110 357 दुर्वांश्च दुर्गन्धा
204 353 दुर्वासा कृष्णभस्मश्च
436 238 दुतोपजीवनो वैद्यान् 286 307 दूरं प्रवासिका यान्ति 129 285 दृश्वत पर्वतसर्पण
478 336 देवतं तु यदा वाह्य
188 3 १४ देवताऽतिथिभृत्येभ्यो 195 279 देवतान् दीक्षितान वृद्धान् 194 272 देवतान पूजयत वृद्धान् ।
205 113 देव-साधु-द्विजातीनां 443 285 देवान प्रजितान
252 247 देवान सा-द्विजान प्रेतान् 433 285 देवेष्टा पितगे गात्रो 479 284 देबो वा यत्र नो वत् 194 225 देशस्नेहाम्भमां लोगो
342 479 देशा नहान्तो पोधाश्च 309 437 दैवज्ञा भिक्षय: प्राज्ञा
243 474 द्योतयन्ती दिशा सर्या113 द्वाधिशदाढ कानि स्यु- 128, 130 485 द्वादशांगस्य वेत्तारं 490 द्वादशाहं च विशाह
292 490 द्वादर्शकोनविगहा
291 106 द्वारं शम्नग्रहं वेश्म ___47 द्वाविंशति यदा गत्वा 293 163 द्वाशीति चतुरासीति 291
241
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________________
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
505
164
185
50
द्विमाद हस्तिनारूढ: द्विगुणं धान्यमर्पण द्वितीयमण्डले शुक्रो द्वितीयायां तृतीयायां द्वितीयायां यदा चन्द्रद्वितीयाया: शिबिम्ब द्विनक्षत्रस्य पारस्य द्विपदश्चतुष्पदो द्विपदाचतुष्पदाः द्विपो ग्रहो मनुष्यो वा द्विमासिकास्तदा हे नक्षत्रे यदा सौरि:
242 241 371 365 88
465
75
370 408 368
21
331
382
433 धम रजः पिशाचाच
269 धूमः गिपगन्धो 266, 275 धूमकेतुं च सोमं च
389 धूमकेतुहतं मार्ग 352 धूमज्वाला रजो भस्म 467 धूमध्वजो धूमपाखो 320 धनाद्रश्च यो ज्ञेयः
193 धसबर्गा बहच्छिमा ४४, 195 अतिमदनविनाको
482वजाना न पताकानां 125 306 न काल नियता बंतुः
नक्षत्रं ग्रहसम्पन्या 106
नधानं यदि वा केतु 344 नक्षत्रं यम्य पत्पुंसः 344 नक्षत्र शाक-वाहेन 436 नक्षत्रमादित्यवर्गों 3.36 नक्षत्रस्य चिह्नानि 285 नक्षत्रस्य यदा यच्छत 433 नक्षत्राणि चरेत्पंच 76 नक्षत्राणि महावन 236 नक्षत्राणि विमुञ्चन्त्यः 391 नक्षत्रे पूर्व दिग्भागे
122 नक्षत्रे मार्गवः सोमः 277, 295 नक्षत्रेषु तिथौ चापि
343 नगरेधूपसृष्टेषु 205 नगवेगमपुराण तु 344 नग्न प्रजितं दृष्ट्वा 456 न चरन्ति यदा ग्रासं 411 न जानाति निज नाय +15 नदीबक्षमा रामभन् 404 न पश्यति स्व कार्याणि 105 न पश्यन्ति आतुरच्छायां 266 नभस्तृतीयभाग च
332
411
332
163
धनधान्यं न विक्रेयं धनिनो जल-विप्रांश्च धनिष्ठादीनि प्राप्तव धनिष्ठाधनलाभाय धनिष्ठायां जलं हन्ति धनिष्ठास्था धनं हन्ति धनुरारोहते यस्तु धनुषां कबचाना च धन्वन्तरे समुत्पातो धनुषा यदि तुल्यः धर्मकार्यार्थ वर्तन्ते धर्मार्थकामा लुप्यन्ते धर्मार्थकामा हीयन्ते धर्मोत्सवान् विवाहांगन धान्यं तदा न विग्रेयं धान्यं पुनवंसी बस्ने धान्यं यत्र प्रियं विन्द्यान धान्यं चम्बनिति ज्ञेय धान्यस्यार्था नभन धारित याचित गर्ने धामिका: शुरगनाश्च
26 369
410 167
27
441 188
464
476 246 469
291
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________________
506
भद्रबाहुसंहिता
434 128 225 463 168 231
342
464
243
18[
194
392
नमस्कृत्य जिन वीरं नमस्कृत्य महावीर न मिवितो भूतेषु न मियभावे मृहदो नगवे दुर्लभ प्राप्त नरा यस्य विपद्यन्ते नवतिराहकानि स्युनवमी मन्त्रिणचीरान् नवम्यां तु यदा चन्द्रः नव बस्त्रं प्रसंगन न वेदा नापि नांगानि नष्टो भग्न: गोकम्थः -नगरस्यापि यः प्रीत्रनागराणां तदा भेदी नागर नु हो विन्द्यात नागवीथिमनुप्राप्त नागवीथीति विज्ञेया नागाने शान. सालो नानारूपप्रहरण: नानारूपो यदा नाना वस्त्र गमानना नानावक्षरामाणी नारी पुंस्त्वं नर' स्त्रीत्वं नाशाय स्तनमध्ये निनयान वियन्ति निजछाया तथा प्रोक्ता निजांवोटयद ग्राम निहाय भन्न पश्येच्च नित्योद्रिग्नो नाहित निनिति पन्निी नितन्यग्रलो यद्वै निमितं स्वग्नज चोजत्वा निमिनादनुपूर्वाञ्च निमिने लक्ष्येदे.
1 निम्न पूपजलं छिद्रान् 430 निम्नेषु वापयेद् बीज 246 निरिन्धनो यदा चाग्नि455 निर्गच्छंस्तुट्यते वायु461 निग्रन्था यत्र गर्भापन 2102 निर्यात कम्पने भमो 124 निर्दया निरनकोशा388 निनिमित्तोमुखे हास 352
निविधानो मुखात् श्वासो 246 निवर्तने यदि छाया
निविष्टो यदि सनाग्निः 488
निवृत्ति चापि कुर्वन्ति 399 निशाया: प्रथम यामे
निश्चयापतदा विपद्यन्ते 400
निश्चल: गुप्रभः कान्तो 297,298
निष्कुट्यन्ति पादी 270
निष्पत्तिः सर्वधान्यानां
निप्पद्यते च शस्यानि __76
नीचावलम्बी सोमस्तु
नीचेनि विष्टभूपस्य 226
भीलवात्रैस्तथाथैणीन् नीलां गीतां तथा कृष्णा
नीला ताम्रा च गोग 472
नौलाद्यास्तु यंदा वर्णा 274
नृपा भृत्य विरुद्ध्यन्ते 470
नृपाश्च विममच्छाया 479
नैमित्तः सामानो 486 178 रन मांसस्य घासाय 246 पाक्षिणः पशवो मा 201 पक्षिणश्च यदा मत्ता' 48 पक्षिणश्चापि व्यादा_32 पक्षिणा द्विपदानां व 177 पक्षमश्व युज चापि
412 486 273 357 197 273 272 356 204 226 469
437
403 389 320 177
437 224 223 97
126
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________________
247
22 462 233
404 240 188 394 266 267 400
पलोकानामकाराद्यनुक्रमः पञ्चप्रकारा बिज्ञेयाः
44 पापमुत्पातिकं दृष्ट्वा पञ्चमे विचरन् शुको 275 पापाः घोरफलं दद्य : पञ्चम्यां ब्राह्मणान् सिद्धान् 389 पापामूलकास यवस्तु पञ्चयोज निका सन्ध्या 89 पार्थिवानां हितार्थाय पञ्चवकाणि भीमस्य 341 पार्वे तदा 'मयं व यात् पञ्चविंशति रात्रण
236 पाशवनामिसदृशाः पञ्चसंवत्सरं घोरं
349 पिण्डम् च पदस्थं च पञ्चाशिति विजानीयात 127 गितागहर्षयः मर्चे पतंगाः सविपा: कोटा: 342 पित देव ताराग पतन्ति दशना यम्य 479 पित्तश्लेष्मान्तिकः मूर्यो पताकामसियष्टि
438 पिशाचा यत्र दृश्यन्ते पनिम्ने यथाप्य भो 183 पीडितोष चयं कृत्ि पयोधि तरति स्थान 477 पीड्यन्त कतुवातन परचक्र नपभयं
228 पीड्यन्ने पूर्ववत् सर्वे परछायाविशेषोऽयं
471 पौड्यन्ते भयनाथ परस्य विषयं नव्या 204 पीड्यन्त सोमघातन परिधाऽगंला कपाट
242 गीतं गन्धर्वनगर परिवर्तद् यया बात. 190 पीतं पुष्पं फलं यस्मै परिवेपोदयोऽष्टम्यां 353 पीत: पीतं यदा हयात् परिवेपी विरुद्धेषु
48 पीत पुणनिभो यम्नु पशव पक्षिणो वैधाः 393 पीतवर्णप्रसूना पशुव्यापिशाचानां 350 पीतोत्तम अदा कोटिपांसुवान र जो धूपं 292 गीतो यदोन बीथीं पांशुवृष्टिस्ताका
244 पीनो लोहित मिश्र पाञ्चाला कुरवचन 2117 एक्छन प्ठतो देशं पाणिपादी हक्षिात 464 या प म दैत्र । पाण्डुराणि कमानि 442 गुण्य नीला जबो सजा पाण्डर्या द्रावगीलो वा 355 गुलबंम अन्दा रोहत् पाण्डयन लिनोलारन 27 गुनगुमागानां पाड्या: केरलानाला 394 पुग्वीच्या प्रजन (दगादंदा गुरुमा
199 तान् । गुण पादहीले गरे दाट
173 पुगेप गर्दन यम् पादः पादान् विपति
202 पूरी दिन मुझं पापघात तु पातानां
।10 गप हिनं स्वप्न
142
441
401
94
480 354
334 481
22 483 268
279
276 487
336
439
477
480
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________________
508
भद्रबाहुसंहिता
222 489 468 443
414 271
466
319 ।।3
पुलिंद्रा कोंकणा भोजाः पुष्करिण्या तु पस्तीरे पुष्पं पुष्पे निवध्येत् पुष्पाणि पीत रक्तानि पुष्यं प्राप्तो द्विजान् पुष्येण मंत्रयोगम पुष्ये हते हत पुष्पं पुष्यो यदि द्विनक्षत्रे पूजितः सानुगंगण पूर्व दिशि तु यदा हत्वा पूर्वत: भीर मलिंगान् पूर्वत: समचारेण पूर्वरायपरिवषापूलिगानि वेतना पूर्ववातं यदा हत्यात् पूर्ववातो या पूर्वमन्ध्यां नागराणां पूर्वसन्ध्या यदा वायु पूर्वसन्ध्यारामुरातः पूर्वसरे यदा घोर पूर्वाचार्यैस्तथा पोस्त पूर्वाफाल्गनी गवना पुर्वा फाल्गुनी गुभदा पूर्वाभाद्रपदायांतु पूर्वामुदीचीमंशानी पूर्वार्धदिवस ज्ञेयो पूर्वण विंगक्षामि पूर्वोदय फलं यत पूर्वोवाल: समतः पृष्ठतः पग्लम्माय पृप्टतो वपनः धार पौग नानदा TIT पौरेया अग्गनाथ प्रर्यायवाभावी
393 प्रकृतेर्यो विपर्यासः 432 प्रक्षालितकरयुगल2:0 प्रक्षालितनिजदेहः 202 प्रक्षिप्यति य शस्त्र: 286 प्रजानामनयोोर191 प्रजापत्यमाषाहां 321 प्रज्वलद्वासधूम वा 320 प्रतिलोमोऽनुलोमो188 प्रतिलोमो यदानीके 357 प्रतिसूर्यागमस्तत्र 266 प्रत्युद्गच्छति आदित्य 291 प्रत्युपे पूर्वतः शुनः
87 प्रथम च द्वितीयं च 363 प्रथांग पहले शुत्रो 119 प्रदक्षिणं नु क्षस्य 111 पशि कुर्बीन
50 प्रदक्षिण तु नक्षत्र 1. प्रदक्षिणं प्रयातस्य 163 प्रदक्षिणं यदा याति 142 प्रदक्षिण यदा बान्ति 462 प्रदक्षिणे प्रयाणे तु 28 प्रद्य म्ने वाऽथ उत्पाती 456 प्रपानं य गिवत् पानं 123 प्रभूनवरत्रदाशियनी 165 प्रयाण निमनल्का 106 प्रयाणे ममा बापि 292 प्रयातं पाथिवं पत्र 299 प्रयातास्त गनाया13) प्रयाता यदि वा राजा 332 प्रवरं पातयंदात्यय
१६ पवाग्नि सवंतो वाता372 प्रवा दक्षिण मार्ग 394 प्रत्रामामृदय व 16 प्रवाशाः पंचशुक्रस्य
355 277
265 216, 275
308 324 324 287 278
JH0
280
234
434
49
।86
190
189 ]
190
111 3011 31140 218
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________________
श्लोकानामकाराअनुक्रमः
509
404 296,297
369 324 309
प्रशस्तु यदा वात प्रसन्नाः साधुकान्तश्च प्रसारयित्वा गोवा प्रस्वपेदशुभे स्वप्ने प्रहेषन्ते प्रयातेषु प्राकारपरिखाणां च प्राकाराट्टालिका प्रायेण हिंसने देशान प्रासादं कुंजरवरान प्रेतयुक्तं समारूढो
247 189
233
फलं वा यदि वा पुष्पं फले फलं यदा किचित् फल्गुन्यथ भरण्यां च फाल्गुनीषु च पूर्वामु
।14 बुधस्तु बलविताना 358 वृषवीथि मनु प्राप्त : 256 बहरपति दाइ 484 बृहस्पतयंदा चन्द्रो 198 नाही साम्या प्रतीची च
भ 49 भक्षितं मंचित्तं यच्च 388 भग्नं दग्ध त यार 432 भज्यते नण्यते तत्त 435 भद्रकाली विपूर्वन्ति
भद्गदाम भगं मलिल 192 गान्तिक नागरराणां 240 भयादीनि चत्वारि 2:7 भवदिन यंदहं गृष्ठो 127 भवने वदि श्रयन्ते
भवान्ना चरिता 369 भवेनामभये माये 478 भस्माशर जस्की 476 भम्मायो नि:प्रभो रक्ष 40। भार्गवः गुरवः प्राप्तो 290 भार्गवन्योलगं बीथीं ___ मारकरंतु यदा क्ष: 441 मिन्वा यदोत्तरां बीथों 466 भियत यस्तु शस्त्रेण 183 भिननि सोमं मध्येन 127 'नीमारिमादिभदा 392 भुजंग मे बिलुभ्यते 321 मतं द्रव्यं भवद् बुष्टि
9 भूतेषु यः म मृत्पातः 76 भूपकुंजरगोबाह471 भगि ससागरजनां 371) ममियंत्र नभो वाति 332 भूम्यां सिन्या ग्राम 335 भूतं मन्त्रिततैलन
235 492 286 264
16 230 431 124 108
387
393
बंगानंगान कलिंगांश्च बन्धनं बाहुपाशेन वन्धनेऽय वरस्थान बर्बराश्च किरातापत्र बलक्षोभो भवेच्छ्यामे बलावलं च सर्वेषां बलीवर्दयुतं यानं बहुच्छिदान्वितं बिम्ब वहिरंगागच जायन्ते बहुजा दीना शीलाच बह वोदयको वाऽथ बहूदकानि जानीयात बहूदका सस्यवती बालाऽनवृक्षम रणं बाहुसितासमायुक्त बाह्नीकान् वीनविषयान् बुशे यदोत्तरे मार्ग बुधो विवर्णो मध्येन
333
46 334 475 238 461 492
264
236 477
432
241
249
486
Page #597
--------------------------------------------------------------------------
________________
510
मुख्यकरान् यवनांश्च
मुस्यामात्या स्त्रियः
भेरीशंखमृदांगाश्च
भेषाज महिषाकाराः
भोक्तुं नवाम्बरं शस्त
भोजने भयं विन्द्यात्
भोजन कलिंगानुप भौतिकानां शरीराणां
भोमान्तिरिक्षादिभेदा
भीमेनापि हतं मार्ग
भोमो वक्रेण युद्धे श्रमयेाकादिहा
म
मक्षिका वा पलंगी वा
मघां विशाखां च ज्येष्ठा
मधादीनि च सप्तैव
मघानां दक्षिणं पापव
मघानामुत्तरं पार्श्व
मधायां च विशाखायां
मधासु खारी विज्ञेया
मता यत्र विपद्यन्तं
मत्स्यभागीरथीनां
मदमदन विकृतिहीनः
मद्यानि रुधिराऽस्थीनि
विशेत् स्वप्ने
मधुराः क्षीरवृक्षाश्च
मधुरे निवेशस्वप्ने
मधुसपिस्तिवानां च
मध्यदेशे तु दुर्भिक्षं
मध्यमं ववचिदुत्कृष्टं
मध्यमं राजाध्यक्ष
-
मध्यमे तु यदा मार्गे
मध्यमे मध्यमं वर्ष
मध्याह्न तु यदा चन्द्र
भद्रबाहुसंहिता
287 मध्याहने बार्धरात्रे मध्येन प्रज्वलन् गच्छन्
181
194
मन्त्रज्ञः पादूरस्थो
22
मंन्त्रित्वा स्वमुखं रोगी
मन्त्री न पश्यति छायाम्
493
233
266
16
309
242
मन्त्रेणानेन हस्तस्य
मन्दक्षीरा यदा वृक्षाः
मन्ददीप्तश्च दृश्येत्
185
414
343
मन्दवृष्टिमनावृष्टि
मन्दोदा प्रथमे मासे
344
मरुस्थलों तथा भ्रष्ट
463 गर्दन रोहन्ति मलमुत्रादिवधोत्थ मलिनानि वर्णानि
मल्लजा मालवे देश
महतोऽपि समुद्भूतान
महाकेतुश्च श्वेतश्च
महाजनाश्च पीड्यन्ते
महात्मानश्च ये सन्तो
280
281
276
127
203
280 महान्तश्चतुरसाश्च 472 महापिपीलिकाराशि:
224 महापलिकावृन्द
482
227
437
महाधान्यस्य महतां
महाधान्यानि पुष्पाणि
महामात्याश्च पीड्यन्ते
महावृक्षो यदा शाखां
महिपोष्ट्रख राख्दो
मागधान् कटकालांच
409
283 मागधेषु पुरं ख्यातं
108
247
307
मानुष, पशुपक्षीणां
67 मानोरमानप्रभा युक्तो
355
मारुत तत्प्रभवा गर्भा
मावशात् श्रवणे विन्द्यात् माघमोदकं विन्द्यात्
112
283
483
485
469
488
354
340
167
168
438
286
483
77
410
115
371
390
309
409
412
227
232
231
125
244
475
481
I
167
321
366
177
166
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोकानामका सका.
SU
317
217
22 344
197
373
243
47
30
356
354
356
3.58
354
मारुतो दक्षिणे दापि मार्गमेकं समाश्रित्य मार्गवान् महिलाकारः मार्गशीर्षे तु गर्भा मालदा मालं वैदेहा मालो वा वेणुगुल्मो वा मासे मासे समुत्थान मासोदितोऽनुराधायो मित्राणि स्वजनाः पूत्रा मिष्टमन्यमय विश्व मुण्डितं जटिलं रूक्षं मुक्तामणिजलेशानां मुद्गर-सवल-छुरिका मुहूर्त शकुने वापि मुहर्मुहुयंदा राजा मूत्र पुरीषं बहुषो मूलं मन्देव सेवन्ते मूलं वा कुरुते स्वप्ने मूलमुत्तरतो याति मूलादिदक्षिणो मार्गः मूलेन क्लिश्यते वक्त्रं मूलेन खारी विज्ञेया मूपको नकुलस्थान मूषके तु यदा लस्वो मृगवीथिं पुन: प्राप्त: मृगवीथिमनुप्राप्तः मृण्मयं नागमारूढः मगे तु मूपकात्भयं मेखलान वायवन्याश्च मेघशंखस्व रामाम्नु मेघशब्देन महता मेघा ययाभिवर्षन्ति मेघा पदाऽभिवन्ति मेषा सविध तश्चैव
187 मेचक, कपिल: शयाम: 170 मेचकचेनमृतं सावं 351 मेषाज महिपाकास: 167 मंगादीनि च सप्तब 411 मैथुनेन विपर्यासं 440 387 य: केतुचारमखिलं 335 यजनोच्छेदनं यस्य 295 यतः खण्डस्तु दृश्येत् 492 यतः सेनाभिपतेत् तस्य 48। यतोत्साहं तु हत्वा 409 यतोऽनस्तनितं विन्द्यान् 470 यतो गहुग्रं सच्चन्द्र
77 यतो राहुग्रामथने 189 यतो विषयवातश्च 249 यत्किचित परिहीन 414 यत्र देश समुत्पाता 438 यत्रातात: म दृश्यन्ते 318 यत्रोदित च विने रन् 288 यत्र वा तत्र वा स्थित्वा 456 यथान्तरिक्षात पतितं 129 यथा गृहं तथा ऋक्षं 185 यथाज्ञानप्ररूपेण 318 यथान्ध्र: पथिको भ्रष्टः 296 यथाऽभिवृष्याः स्निग्धा. 297 यथा मार्ग यथा वृद्धि 442 यथा वको रथों गस्ता 491 यथावदनु पूर्वेण 343 यथा वृद्धो नरो कश्चित् 176 यथास्थितं शुभं मेधं । 96 यथा हि बलवान् राजा 96 यथोचितानि सर्वाणि 96 यदा गन्धर्वनगर 98 यदा गृहमवच्छाद्य
204 252 25] 274 532
182
27
204 180
31
31
180
22
228
95 372
215 143, 141
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--------------------------------------------------------------------------
________________
512
भद्रबाहुसंहिता
113
48
75
267 284
याग्निवर्णी रवि299 यदा भाद्रपदा सेवेत
286 यदा चन्द्र वरुणे 323 यदा भूधगगाणि
231 यदा च पृष्ठत शुक्रः 278 यदाऽभ्रजितो वाति यदा चान्ये ग्रहा यान्ति 268 यदाऽनश वितर्दू श्येत् यदा चान्ये तिरोहन्ति 266 यदा मधुरशब्देन
198 यदा चान्येऽभिगच्छन्ति 269, 270 यदा मय्य निशायां तु
355 यदाजननिमो मेध. 94 यदा मुंबन्ति शुण्डाभि
202 यदा चा धनभित्रं 145 यदा राजा निवेशेत
203 घदा सोत्तरतः स्वाति
3!पृटा राज' प्रयाणे यदा तमसि समान
180 यदा राज. प्रयातस्य ।।2, 190,199 यदा तु ग्रनक्षत्रे 50 यदा वर्ण न लुप्तं स्यात्
491 यदा तु तत्परांगना 187 यदा बाऽन्येति रोहन्ति यदा तु त्रीणि चत्वारि 307 यदाऽऽरहेत प्रमदेत यदा दु धान्यरा बाना 7४ यदायप्रतिमायां तु
235 यदा तु पंचमे शुकः 268 यदा वान्ये तिरोहन्ति
267 यदा तु मण्डले पप्ठे 269,275 यदा वा युगपद् युक्तः
309
249 यदा तु वाताश्चत्वारो 11पदा विरुद्ध हेमन्त
250 यदा तु सोम मुदितं
46 यदा शैवा-नजले वापि यदाऽति क्रमते चारम् 294 बदा श्वेताऽनवृक्षस्य
66 यदाऽति मुच्यते शीन 47 याऽष्टौ सप्तमासान्
340 यदायुष्णं भवेच्छोले 223 यदा सपरिधा सन्ध्या यदा विवर्गफ्यंत 47 यदा सप्तदश ऋक्षे
342 यदा द्वारेण नगरं 242 यदा स्थिती जीवबुधौ
455 यदा धुनन्ति सीदन्ति 202 यदि धूमाभिभूता स्यात्
184
50 यदानुराधायां प्रविशत् 345 यदि राहुमपि प्राप्त यदान्नं पादवारि वा
201 यदि वैश्रवणे कश्चित यदा पंचदेश बहले
342 यदि होता तु मनाया: 185 यदा प्रतिपदि चन्द्रः 349 यदि होनुः पथे शीन
184
233 यदायुक्तो मात्र
191 यदोत्पातोऽयमेकयदा बालाः प्ररक्षन्त 249 यदैवानक्षत्रगतो कुर्यात्
491 यदा बुधोऽरुणाभ: 333 यद्दल चाक्षरं लुप्त
179 यदा बृहस्पति: शुक्र 239 यद्देवाऽगु र युद्धे यदा प्रदक्षिणं मच्छेत् 284 यद्यग्रतस्तु प्रयातेन यदा भंगो भवत्यषां 247 यद्याज्यभाजने केशा
185
114
233
392
195
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________________
यद्यत्तरासु तिष्ठेत यद्यत्पातः श्रिया कश्चित् यद्यत्पाताः प्रदृश्यन्ते
यतो बलदेव
य. प्रकृतेविपर्यासः यययोधूमहापा
यस्तु लक्षणम्पन्
यस्गाद्देवासुरे युद्धे यस्मिन यरिमम् यस्य देशस्य ननं
यस्य यस्य नक्षत्रं
वा सम्यगस्य पण जन्मनक्षत्रं यस्याः प्रमाणे सेनाया
यः स्वप्ने गायते हसते
यां दिशं केतयोनिभि
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
युगान्त इति विख्यातः
युद्धप्रियेषु हृप्टेप,
युद्धानि कलहा बाधा
यूपमेकखरं शूलं ॥ ये विि
ये तु पुष्येण दृश्यन्ते येन्तरिक्षे जले भूसी ये त्रिदिक्षु विचि
या चादित्यात् पदका यातु पूर्वोत्तर विद्यत
यात्रानुपस्थितोपकरणं यानानि वृक्ष-वेश्मानि
यानि रूपाणि दृश्यन्ते
यायिनः ख्यायाः सस्यः
यायिनो वामतो मृत्युयायिनी चन्द्र-ती या चक्रा प्राङ मुखो छाया यावच्छायाकृति वै
284
235
235
234
16
409
179
176
तं गन्धर्वनगर
31.0
रक्तपीतानि द्रव्याणि 290. 415 वनं गच मुंनन्ती
293
माना तथा माना
Ind
वणवा मेध
वस्त्रालंकारैः
शकतः शास्त्रप्रपन
31
187
437
368
24
15
192
230
168
येषां निदर्शने विचित् वर्णेन संयुक्ता
पां सेना निगलते
यो नरोऽद सम्पूर्ण
यो नृत्यनुमीयते बद्ध्वा
401
400
413
470
रथायुधानामश्वानां
176 रश्मिवतो मेदिनी भाति
25
196
244
436
ر
सुवर स्वतानां करबीणाां
स्वता गीता नभस्
रता रक्तेषु चाषु
रक्तः पांशुः सधूमं
रक्ते पुत्रभयं विन्द्यात्
रक्तो वा यथाभ्यु
रक्तो वा यदि वा नीलो
372
228
राः पांचालवालीका:
साच विरगायत्र
रागद्वेषीच मोहंच
marit faqa
राजवंशं न श्रोत्रियात्
165 राजा चावनिया गर्भा
रक्तो यह शशि सूर्यो
रतिप्रधाना गोदन्ति
राजानश्च विरुध्यन्तं
राजा तत्प्रतिरूपैस्तु
513
192
21
29
473
476
142, 146
431
471
441
95
480
381
482
439, 481
25
66
96
226
47
402
357
307
75
64
269
244
182
243
205
394
344
97
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________________
514
2
भद्रबागुसंहिता 184
ल ललाटे तिलकं यस्य 443 लिलत् सोम: गेग्य
विवाद रश्मिभिभूयो 333 लिप्त मपी कर्दम गो
लुग्यन्ते च क्रिया मर्दा 195
लोहितो लोहितं हन्यात
232
465 239 350 493
175
318
401
280
343 29! 295
279
241 436 317
राजा परिजनो वापि राजाभिः पूजिताः सर्व राजा राजसुतश्चौरी राजोपकारणे भग्ने राज्ञा चक्रधरणांच राजा बहुश्रुतेनापि राजो यदि प्रयातस्य राज्ञो रातुः लासे रात्री तु सम्प्रवक्ष्यामि रात्रौ दिनं दिन रात्रि राहु केतु-शशी शुको राहुचारं प्रवक्ष्यामि राहुणा गृह्यते चन्द्रो राहुणा संवृतं चन्द्रराहुश्त्र चन्द्रश्च तथैव रुग्राक्षसांशेष्वय रुद्राक्षी विकृता कानी रुद्रे च वरुणे कश्चिद मधिराभिविषतां त्वा रुधिरोदकवर्णानि रक्षाः खण्डाश्च बामाश्च रूक्षा वाताश्च प्रकुर्वन्ति
লা লিগা বিল। रूपी तरुणः पुरुषों रूप्यपागवताभश्च रेवती-पुष्ययोः सोमः रेवती लोहताय स्याद् रोग शस्य विनाशं न रोगार्ता इव हेपन्ने रोचनामाक्षारोहिणीं च ग्रहो हन्यात रोहिणी शटं शुक्रो रोहिणी स्यात् परिक्रम्य रोहिण्यां तु यदा घोपो
404
26
77
44 467 वंगा उत्कल-चाण्डाला: 412 बजे कृत्वा सदा भौगो 349 चबाते हादशाह । 238 धावतानि माणि 97 बरसा विदेड-जिह्याच 358 वध. सनापतश्नागि 493 वराहयुक्त' या नारी 440 वर्ण गति च संस्थान 23.1 वर्णानां संकरी विन्यात 43 बदमानध्वनाकारा:
वर्धन्त चापि जीर्यन्ते 44 बर्ष भयं तथा क्षेम 97 वर्पदयं तु हस्तका 233 वर्षयरमैन जंघायां 471) बालपीकस्याशु जनने
45 बल्लीगुमममा वृक्षों 390 बीकृतषु मध्ये 457 नमु कुदितिस्थूलो 366 बाधा वारि बा यस्य 248 दस्वस्य कोणे निवरान्ति 490 चाहिगान जायन्ते 403 सहिचानी न पश्यच्च 276 बाजिवारणयानां 340 बारधाना: कुनाटाश्च 251 वाणभिन्नमिवालीढं
230 104 471
474
231
440
204
332
192 492
183
485 232 2.67 466
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________________
श्लोकानामकाराद्यनयमः
515
289 145
67 108 190 244 334 462
7४
482
281
475 196 295 245 390
410
वाणिजश्चैव कालज्ञः वातः श्लेष्मा गुरज्ञेय वाताक्षिरोगो-माजिठे वातिक चाथ स्वप्नांश्च वातेऽग्नी वासुभद्रे च वादित्रशब्दा:श्रूयन्ते कापि-कंग-तजागाश्च वाप्यानि सर्वबीजानि वाम न करोति नक्षत्र वामभूमिजले चारं वामगं यदा वा स्यात् वामार्धशायिनश्चैत्र वामो बदेद् यदा खारी वायमानेऽनिले पूर्वे वायव्यं वैष्णवं पुष्यं वायव्यामथ वारुण्यां वायव्ये वायदो दृष्टा वायुनेगसमा विन्द्यात् वारुणे जलज तोयं बासुदेव यद्य पातं वाशोभिरितः शुक्लै. वाहकस्य वधं विन्द्यात् वाहनं महिनीपुत्रं विशका त्रिंशका खारी विशतियोजनानि स्यु: विशयनीतियां खारी विशति तु यदा गत्वा विकीर्यमाणा कपिना विकृताकृति संस्थाना विकृतिश्यते काये विकृत विकृतं सर्व विकृतः पाणिपादावा: विश्रान्तस्य शिक्ष दीप्त
267 बिच्छिन्नविषमृणालं 404 विदिक्षु चापि सर्वासु 290 विद्यु तं तु यदा विद्युत्
3 विद्भवन्ति च राष्ट्राणि 236 विपरीतं यदा कुर्यात् 229 विपरीता पदा छाया 166 विभ्राजमानो रक्तो वा 105 विरतः कोऽपि संसारी 323 बिरागान्यनुलोनानि 284 विरेचने अर्थलाभ 245 विलम्बन पदा तिष्ठेत् 201 बिलयं याति य: स्वप्ने 288 बिलोमेषु च वातपु 15 विलीयन्ते च राष्ट्रा27 विवदत्सु च लिंगपु 166 विवर्णपरूपन्द्रः 323 विवर्णा यदि सेबन्ते 294 विशाखा कृत्तिका व
विशाखा मध्यगः शुक्र
विशाखायां समारूढो 442
विशाखा रोहिणी भानु200
विशाखा विजानीयात्
विणेतामपसव्यं 289
विश्वादिसमयान्तश्च
विपेण म्रियते यस्तु 88
विष्टा लोभानि रोद्रं वा 289
विस्तीर्ण द्वादशांगं तु 294 विश्वरं रबमाणापच __21 विश्वरं रखमानस्तु 24| विहारानायांच।नि 462 वीणां विपं च वान्तकी 365 वीभ्यन्तरेषु या विशुन 224 बीररथाने स्मगाने च 367 बीराश्चोग्राश्च भोजाश्च
320
413
323 234
282
251
191 128 144 317 435 480
3
77
226
191
435
67
255 401
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________________
516
भद्रबाहुसंहिता
280 476 479 248
181
243
484
285 485 245 230
323
443
248
65
462
वृक्षं वल्ली च्छुपगुल्म 48| शम्बरान पुलिंदकांश्च वृद्धा द्रुमा सवन्ति
228 शयनासनज पानं वृद्धान् साधून् समागम्य 175 शयनाशनयानानां वृश्चिकं दन्दशूक वा 477 शयनासने परीक्षा वृषकुंजरप्रासाद
477 शय्यासनं यानयुग्म वृषभ-करि-महिप
46 पारी कसरपुच्छ धूपवीथिमनुप्राप्त: 296, 297 शरीरं प्रथमं लिंग वेणान् विदर्भमालांश्च 369 शालाकिनः जिलाकृतान वैजयन्तो विवर्णास्तु
ISS जिसूयाँ गती यस्य वैवस्वतो धममाली
369. शास्त्रं रक्त भयं पीते वैश्यश्च शिलिगनश्चापि 334 यास्त्रकोपात प्रधावन्त वैश्वानरपथं प्राप्तः 296, 297 शस्त्रधातास्तयाद्रीयां वैश्वानरपथं प्राप्ते
391 पास्त्रेण छिधने जिहा वैश्वानरपणे विद्युत्
66 शान्तानहाटा धर्माता वैश्वानरपथेऽष्टम्या
392 गारद्यो नाभिवर्षन्ति वैश्वानरपथो नामा
271 पायाभ्यासं सदा वृत्वा व्याधयः प्रबला यत्र
246 शिशुगारो यदा बेतु व्याधयश्च प्रयातामा
193 शिखामण्डलयत यस्य । व्याधिश्चेतिश्च मुबगिट 276 शिबी शिवण्डी विगलो व्याधेः कोटय: पंच
461 शिरस्यास्ये च दृश्यन्ते व्याला सरीसृपायचंय 125 शिरो वा धिने यस्तु
शिख विपागवद् यस्य शकुन: कारणश्चापि
74 शिलिपना दार जीवानी शक्तिलामूल संस्थाना- 22 शिशिरे चापि वन्ति शतानि चैव केतना
365 गिष्टं सुभिशं विज्ञ शनैश्चरं चारमिदं
310 शीतवातश्च विद्य च शनैश्चरगता एवं
176 कानां शकुनानां च शनैश्चरो यदा मौम्य- 238 शुक्र दीप्त्या यदि हन्यान् शनैश्चरश्च नीलामः ___4104 शऋः जम्ब निकासः म्याद शवराम दण्डकानुड़ान
387 शक: मोपच स्त्रीसंन्न: शशावरान प्रतिलिमानि
या दक्षिणा बाथी शब्द निमिन पूर्व
48h कोदो ग्रहो यान्ति शब्दान् गुचन्ति दीप्ताम् 25 नात कष्ण शब्देन महता भूमि 2.10 शुक्ल पक्ष बाम दक्षिण
308 307 371
لاوة
433 367 334
160
368 368 403 405 333
281
290
298 189
Page #604
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________________
शुक्लं प्रतिपदि चन्द्रे शुक्लपक्षे द्वितीयायां
शुक्लमाल्यां शुक्लालंकार
शुक्लवर्णो यदा मेघः
शुक्लवस्त्रो द्विजान् शुक्ला रक्ता च पीता शुभं वृपेभबाहानां
शुभग्रहाः फलं दद्य:
शुभः पागशुभा पश्चाद्
शुभाशुभं विजानीयात्
शुभाशुभं समुद्भूतं
शुभाशुभं वीक्ष्यतु यो
शु'ब्रालंकारवस्त्राढ्या
शुष्कं काष्ठं तृणं बावि
शुष्कं प्रदतं यदा
शुष्यन्ति वै तडागानि शुष्यन्तं तोयवान्यानि
शुन्यं चतुष्पथं स्वप्ने
शृंगी राज्ञां विजयदः
शेरते दक्षिणे पार्श्व
प्रश्न विशेषेद्वा
मौदिक प्रोक्तं
शौर्य शस्त्रोतः
श्मशानास्थिर रज:
श्मशाने शुष्कं दा श्यामश्च पक्षादी श्यामलोहितवर्णा
श्लोकानामका राहानुक्रमः
श्रमणा ब्रह्मणा वृद्धाः श्रवणेन वारि विज्ञेयं श्रवणे राज्यविभ्रंशो आपकाः स्थिस्यकला श्रावणं प्रथमे गाने
श्रीमद्वीरजिनं नत्वा
244 श्रेष्ठे चतुर्थ-पष्ठे च पिपीलिकावृन्द
351
483
95
225
श्लेषमूत्रपुरीषाणि
श्वेतं गन्धर्वनगर
श्वेतकेशरसंकाशे
श्वेतः पाण्डुश्च पीतश्च
श्वेतः पीतश्च रक्तश्च
तासनं यानं
483
श्वेतः श्वेतं ग्रहं पत्र
146 श्वेतः सुभिक्षदो ज्ञेयः
:
2
श्वेतस्य कृष्णं दृश्येत्
श्वेताः कृष्णाः पीताः
23
478
457
457
477
प्रसुनि जानीयात्
250
श्वेतां ग्रहो यदा पोतो
185 प्रवेतो नीलश्च पीतश्च
342
श्वेतो वाय यदा पाण्डु
श्वेतो रक्तश्च पीतश्च
271
435 प्रवेतो रसो द्विजान्
383
200
474
384
177
ब
पद्विशत् तस्य वर्षाणि
पदिनं गुह्यहोनेऽपि
पमा द्विगुणं चापि
पम्मासा प्रकृतिर्ज्ञेया
203
पष्टिकानां विरागाणां
434 पोडाक्षरतो वाये
391
पोडी गाना
स
323
250 संख्यानमुपसेवानो
आणि नक्षत्रे
123
335 संग्रामा रोरवास्तत्र
2 संग्रामाचाणि जायन्ते
126 संग्रामाण्यानुर्धन् 461 संग्रा च तदक्ष धाच्यं
517
285
232
432
142
351
399
389
441
401
367
200
467
309
239
402
402
349
228
370
473
224
349
409
490
349
278
77
319
145
128
413
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--------------------------------------------------------------------------
________________
272 111 380
98 ]13 341
123 390 264
115 268 485
182 188
518
भद्रबाहुसंहिता संघशास्त्रानुपात
29 सर्व निष्पद्यते धान्य संवत्समुपरथाप्य
309 सर्वकालं प्रवक्ष्यामि संवत्सरे भाद्रपदे
322 सर्वग्रहश्वरः सूर्यः सचित्ते शुभिक्षे देशे
252 सत्रैव प्रयाणेन सदृशाः कतत्रो हन्यु
370 सर्वथा बलवान् वायु सधूना या सनिर्याता
25 सईद्वाराणि दृष्ट्वासी सध्वजं सपता वा 144, !45 सर्वधान्यानि जायन्त सन्ध्यानां रोहिणी गोप्य 27 सर्वभूतभयं विन्द्यात् सध्यायां कृत्तिका ज्येष्ठां 390 सर्वभूतहितं रक्तं सन्ध्यायां तु यदा शीते 350 सर्वलक्षणसम्पन्ना सन्ध्यायामेव रश्मिस्तु
37 सत्र श्वेतं तदा धान्यं रान्ध्यायां यानि रूपाणि 168 सांगेषु तदा तस्य मनयां सुदीरयां 218 निमित्तानि सन्ध्योत्तरा जयं राज्ञः 85 साथ प्रमनश्च सन्नाहिगो यदा युक्ता 198 सबनितान् यथोदिष्टान् सफेनं पिवति क्षीरं 478 सर्वास्चापि यदा दिनु समन्ततो यदा वान्ति ||0 सर्व बदुसरे कान्छे समन्ताद् नभ्यते यस्तु 49 गर्वेषामेव सत्त्वानां समभूमितले स्थित्वा
472 सबंधां शनानांच समभूमिसलेऽस्मिन्
408 सपा शुभ्रवस्त्राणा सप्ततिं चाय वाऽभीति 289 समचारं यो वेनि सप्तग सप्तम भास
163 सविता जो वायु राप्तरानं दिनाच 11 सस्य घात विजानीयात् सप्तर्षीणामन्यतम
368 गस्यनाशोऽनावृष्टिः सप्ता, यदि बाप्टाई 319 सस्यानि फलवन्ति सप्ताहमष्टरात्र या
223 गाल्यांचच मारदण्जाश्च समाभ्यां यदि माभ्यां 244 सिंह मेप्रोष्ट्रसं का गः गरस्तडागप्रतिमा
88 सिहलानां निरालानां मरासि सरितो वक्षन् 438 मिहया नगजंयुक्तो सरीरापा जलचा
225 सिंहव्या नवराहोन्ड सरोमध्य स्थित, गाने 479 सिंहा माल-माजरामापदामोना मन्त्र
370 गिहासन रथाका गणे हराने चामि
224 तिनं शिव वश्त्रं सपिस्त कागर
34 सितमुनिमस्तु
143 408
२
192 483
299
113
127 319
J27
343
351
310
431 22
97
26
479
292
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________________
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
519
175 463
249
268 440 109 382 394 78
368
सुकुमारं करयुगलं सुकृष्णा दशना यस्य सुखग्राहं लघुग्रन्धं सुगन्धगन्धा ये मेघा. सुगन्धेषु प्रशान्तेषु मुनिमित्तेन संयुक्तसुभिक्षेममारोग्यं सुरश्मी रजतप्रख्यः सुनसायां यदोत्पातः सुवर्णरूप्य भाण्डे सुवर्णवर्णो वर्ष वा सुवृष्टिः प्रबला ज्ञेया सुसंस्थाना: सुवर्णाश्च सुहृद्य तिश्च मित्रों सूर्यकापच सुराऽक्षुद्राः सूर्यचन्द्रमसो पश्येद सेनां यान्ति प्रयाता सेनाग्रे हूयमानस्य सेनापतिवधं बिन्यात सेनामभिमुखी भूत्वा सेनायास्तु प्रयाताया सेनायास्तु समुद्योगे सोमगृहे निवृत्तेपु सोमो राहुश्च शुक्रश्च सौदामिनी च पूर्वा च सौभाग्यमर्थ लभते सौम्यं बाह्यं नरेन्द्रस्य सौम्यजातं तथा विप्राः सौम्यां गति समुत्थाय सौम्या विमिथा संक्षिप्ता सोरसेनाश्च मत्स्यांग्त्र सौराष्ट्र-सिन्धु-सौवीरान् सौरेण तु हतं मार्ग सौसुप्यते यदा नाग:
462 स्कन्धावारनिवेशेषु ___463 स्तब्ध लोचनयोर्य गम
3 स्तम्भयन्तोऽथ लांगूलं 95 स्त्री राज्यं ताम्रकश्चि 115 स्थल बापि विकीर्यत् 183 स्थलेवनि च यद्वीज 125 स्थालीगिटग्मस्थाने 381 स्थाव रस्य वनीका 236 स्थावगणां जयं विन्द्यात 432 म्थावरे धपिन तज्जा 383 स्थिरा ग्रीवा न यस्य 341 स्थिराणां कम्पारणे 167 स्थूलमुवी तिमांच 492 स्थूलः स्निग्: सुवर्णश्च 401 स्थलो याति कृशित्वं 477 नातं लिप्तं सुगन्धेन 186 नाल्या देहमलंकृत्य । 184 स्निग्धः प्रसन्नी विमले 200 स्निग्ध्रवर्ण मती सन्ध्या
28 सिमाधवर्णाश्च ने मेवा193 स्निग्ध. श्वतो विशालपच 27 स्निग्धान्यप्राणि यान्ति 455 स्निग्धाः सर्वेषु वर्णेषु 26 स्निग्धास्निधेषु चानेषु 63 स्निग्धे याम्योनरे मार्ग 433 स्निग्धोऽल्पोपो धूमो 198 स्नेहवत्योऽन्यगामिन्यो 401 स्मोरिल वेत् प्रनर्देद 33। स्फीताश्च रामदेशाच 331 ग्वं प्रकाश्य गुरोग्ने 285 ग्वगाने रोदनं विद्यात् 343 स्वतो गृहमन्यं श्वेतं 242 स्वप्नफलं पूर्वगतं 201 स्वप्नमाला दिवास्वप्नो
464 224 345 400 464 404 465 324 87 95 387
13 95
410 184
23 341
268
484 482 239 474 431
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--------------------------------------------------------------------------
________________ 520 भद्रबाहुसंहिता 175 178 स्वर्गप्रीतिफलं प्राहुः स्वप्नाध्यायममुं मुन्थ्यस्वर्गेण तादृशा प्रीतिः स्वरूपं दृश्यते यत्र स्वातौ च दशार्णाश्चति स्वातौ च मैत्रदेवे च 106 323 187 182 हस्त्यश्वरयादात 444 हिंस्रो विवर्ण: दिगो 182 हित्वा पूर्व तु दिवसं 468 हिनस्ति वीज तोयं च 282 हीनांगा जटिगा बद्धा 165 हीन चारे जनपदान हीने मुहूर्त नक्षत्रे 283 हीयमानं यदा चन्द्र 287 हृदये यस्य जायन्त 26 हृदये वाममुत्पन्नात् 2.18 हेन्द्रस्व हेन्द्रकेतु: 199 हेमन्त निगरे मानतः 65 हेप्रवर्णः सुतोयाय 46 हेपन्ते तु यदा राज्ञ 47 हेपत्यभीक्षामश्वा 229 हेपमानस्य दीप्तासू 437 स्वाश्च तरवो येऽन्ये 470 लव भवति दुभिक्ष 243 स्वो रूक्षश्च चन्द्रश्च 471 दरवो विवर्ण रुक्षश्च 456 276 191 395 440 482 371 236. 298 हन्ति मूलफलं मूले हन्यादश्विनीप्राप्तः हन्युमध्येन या उल्का ह्या तत्र तदोत्पात हयानां ज्वलिते चामिः हरिता मधव्रणांश्च हरित सवंसगस्यानां हरितो नीलपर्यन्तः हसने रोदने नुत्ये हराने शोचनं व यात् हमान्ति वाथयेन्मार्ग हसन्ति यत्र निर्जीवाः हस्तपादाग्रहींना बा हस्ते च ध्रुवकर्माणि 249 202 199 227 319 389 400