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सप्तविंशतितमोऽध्यायः
धनिष्ठा नक्षत्र में नवीन वस्त्राभरण धारण वारने से अनलाभ, शतभिषा में धारण करने से विष का भय तथा पूर्वाभाद्रपद में और उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों में धारण करने से बहुत वस्त्रों की प्राप्ति होती है ||1|
रेवती लोहिताय स्याद् बहुवस्वा तथाविनी । भरणी यमलोकार्थमेवमेव तु कष्टदा ॥ u
रेवती नक्षत्र में नवीन वस्त्राभरण धारण करने मे सोहित-जंग लगना, अश्विनी गं धारण करने से बहुतों का होगा और रणी नक्षत्र में नवीन वस्त्राभरण धारण करने से मरण या तनुल्य कष्ट होता है ॥1
शुभग्रहाः फलं दधुः पञ्चाशद्दिवसेषु तु ।
षष्ठ्यःस्वथवा सर्व पापा नवदिनान्तरम् ।।12।।
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शुभग्रह पचास या साठ दिनों के उपरान्त नहीं दिनों के उपरान्त फल देते हैं ||| 2 |
शुभाशुभ वीक्ष्यतु यो ग्रहाणां गृहो सुवस्वव्यवहारकारी । समवाप्य समस्त भोगं निरस्तरोगो व्यसनैर्विमुक्तः ।।131
जो गृहस्थ ग्रहों के शुभाशुभ को देखकर यन्त्रों का व्यवहार करता है, वह समस्तों को प्राप्त कर आनन्दित होता है तथा रोग और व्यसनों से छुटकारा प्राप्त करता है 1113।।
इति श्रीभद्रवाहविरचिते महानिमित्तशास्त्र सप्तशतितमं । [रनिमित्तकोऽध्यायः ॥ 27 ॥
वस्त्रव्यवहारा
|| निमित्तं परिसमाप्तम् ॥
વિત ग्रह और नक्षत्र शुभाशुभ क्रूर गांम्य आदिजनक प्रकार के होन है शुभ ग्रह और शुभ नक्षत्रों का फल शुभ और यह नर अशुभ नक्ष काफल मिलता है। इस अध्याय में साधारणतया नवीन वस्त्राणादि धारण करने के लिए कान कान नाक से और अनि किया गया है | क्षत्रों में विशेष का कशा उनकी गजानन जायेगा