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भद्रबाहुसंहिता
दिति तु यदा गत्वा पुनरेकोनविंशतिम् ।
आयात्यस्तमने काले वायव्यं बक्रमुच्यते ।।19411 जब शुक्र अस्तकाल में बीमवें नक्षत्र पर जाकर पुन: उन्नीसवें नक्षत्र पर लौट आता है तो उसे वायव्यवक्र कहते हैं ।। 19411
वायुवेगसमां विन्द्यान्महीं वातसमाकुलाम् ।
क्लिष्टामल्पेन जलेन अनेनान्येन सर्वशः ।।195॥ उक्त प्रकार के वायव्यवक्र में पृथ्वी वायु से परिपूर्ण हो जाती है तथा वायु का ओर अत्यधिक रहता है, अल्प वर्षा होने से पृथ्वी जल से परिपूर्ण हो जाती है तथा अन्य राष्ट्र के द्वारा प्रदेश आक्रान्त हो जाता है ।। 195।।
एकविति यदा गत्वा पुनरेकोनविंशतिम् ।
आयात्यस्तमने काले भस्म तद् वक्रमुच्यते ।।196।। अस्त काल में यदि शुक्र इक्कीसवें नक्षत्र पर जाकर पुन: उन्नीसवें नक्षत्र पर. लौट आता है तो उस भस्मवक्र कहते हैं ।। 196il
ग्रामाणां नगराणां च प्रजानां च दिशो दिशम्।
नरेन्द्राणां च चत्वारि भस्मभूतानि निदिशेत् 11197॥ इस प्रकार के बक्र में ग्राम, नगर, प्रजा और राजा ये चारों भस्मभूत हो जाते हैं अर्थात् बह वक्र अपने नामानुसार पल देता है ।। 1971
एतानि पंच वक्रानि कुरुते यानि भार्गवः ।
अतिचारं प्रवक्ष्यामि फलं यच्चास्य किचन ॥18॥ इस प्रकार शुक्र वा पाँच-पांच वनों का निरूपण किया गया है। अब अतिचार के किंचित् फलादेश के साथ वर्णन किया जाता है ।। 198।।
यदातिक्रमते चारमुशना दारुण फलम् ।
तदा सृजति लोकस्य दुःखरलेशभयावहम् ।।199।। यदि शुक्र अपनी गति बार अतिक्रमण को तो यह उसका अतिचार कहलाता है, इसका फल संसार को दुःख, कलश, भय आदि होता है । 1990
तदाऽन्योन्यं तु राजानो ग्रामांश्च नगराणि च । समयुक्तानि बाधन्ते नष्टयम-जयाथिनः ।।2001
1. जटा मालयन बानगुरू | 2, धावाना पु० । 3. नाष्टक म ।