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, पंचदशोऽध्यायः
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शुक्र के सूर्य में विचरण करने पर रोग, अत्यधिक भय, शीघ्र ही अग्नि के द्वारा गोपत्रात आदि फल घटित होते हैं, शुक्र के गूर्य में प्रवेश करने पर व्याधि, भय, दारुण प्रकोग आदि फल होते हैं ।।75-7611
प्रथमे भण्डले शुक्रो विलम्बी डमरायते। -पूर्वापरा दिशो हन्यात् पृष्ठे तेन विलम्बिना ।177।। यदि प्रथम मण्डल में शुक्र लम्बायमान होकर अधिक समय तक रहे तो पूर्व और पश्चिम दिशा में बात करता है 1770
द्वितीयमण्डले शक्रश्चिरगो मण्डलेरितः।
हन्याद्देशान धनं तोयं सकलेन विलम्बिना 11781 यदि द्वितीय मण्डल में शुक्र गुर्य से प्रेरित होकर अधिक समय तक रहे तो देशा के धन, जल एवं धान्य ना विनाश करता है ।।7811
तृतीये चिरगो व्याधि मृत्यु सृजति भार्गवः ।
चलितेन विलम्ोन मण्डलोक्ताश्च या दिशः 1791 यदि तृतीय मण्डल में शुभ अधिक समय तक बिचरण कर तो व्याधि और मृत्यु मण्डल की दिशा होती हैं अर्थात् तृतीय मान्न की जिस दिशा में अधिक समय तक शुक्र गमन करता है उस दिशा में व्याधि और मृत्यु फल घटित होते हैं ।।7911
चतुर्थे विचरन् शुक्रो 'शयी हत्यात् सुयानकान् ।
शस्यशेषं च सृजते निन्दितेन विलम्बिना ॥४॥ चतुर्थ मण्डल में शयनावस्थामा शुक्र के रहने ग अच्छे वाहनों का विनाश होता है तथा निन्दित विलम्बी शुक्र धान्य का विनाश करता है ।। 800
पञ्चमे विचरन् शुक्रो दुभिक्ष जनयेत् तदा।
'हन्याच्च मण्डलं देशं क्षोणेनाथ विलम्बिना ॥8॥ क्षीण और विलम्बी शुक्र यदि पंचम मण्डल में विचरण करे तो दुभिक्ष उत्पन्न होता है तथा उस मण्डल और देश का विनाश होता है 18311
यदा तु मण्डले षष्ठे भार्गवश्चिरगो भवेत्।
तदा तं मण्डलं देशं हन्ति लम्बेन पाशिना ।।821 जब पष्ठ मगडल में शुक्र अधिक समय तक गमन करता है तो लम्बायमान
]. राय। मु । 2. हन्यात भु।