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भद्रवाहसंहिता
पीतोत्तरा यदा कोटिर्दक्षिण: रुधिरप्रभः । कपोतग्रहणं विन्द्यात् पूर्व पश्चात् सितप्रभम् ॥34||
यदि अष्टमी तिथि को चन्द्रमा की उत्तर को कोटि- किनारा लाल हो और दक्षिण का किनारा रुधिर जैसा हो तो गोत रंग के ग्रहण की सूचना समझनी चाहिए तथा अन्त में श्वेत प्रभा समझनी चाहिए || 34 ||
पीतोत्तरा यदा कोटिर्दक्षिणा रुधिरप्रभा । कपोतग्रहणं विन्द्याद् ग्रहं पश्चात् सितप्रभम् ॥35॥
यदि चन्द्रमा का उपरी किनारा पीना और दक्षिणी रुधिर के समान कान्ति बाला होलो गोत रंग का ग्रहण पाना चाहिए तथा अन्तिम समय में श्वेत प्रभा समझनी चाहिए 1135॥
यतो भ्रस्तनितं विन्द्यात् मारुतं करकाशनी ।
रुतं वा श्रूयते किञ्चित् तदा विन्याद् ग्रहागभम् 113611 जब बादल गर्जना करे, वायु, जले और बिजली गिरे तथा किसी प्रकार का शब्द सुनाई पड़े तो ग्रहागम होता है 1136।।
मन्दक्षीरा यदा वृक्षाः सर्वदिक् कलुषायते' | कीडते च यदा बालस्ततो विन्द्याद् ग्रहागमम् ॥37॥
जब वृक्ष अल्प क्षीर वाले हों, सभी दिशाएँ कनुपित दिखलाई पड़े, और ऐसे समय में बालवा सेवते हो तो उस समय ग्रहागम जानना चाहिए । यहाँ सर्वत्र ग्रह से तात्पर्य 'ग्रहण' से है |13711
ऊर्ध्व प्रस्पन्दते चन्द्रश्चित्रः संपरिवेष्यते ।
कुरुते मण्डलं स्पष्टस्तदा विन्द्याद् ग्रहागमम् ॥38॥
यदि चन्द्रमा ऊपर की ओर स्पन्दित होता हो, विचित्र प्रकार के परिवेष से वेष्टित स्पष्ट मंडलाकार हो तो ग्रहण का आगमन समझना चाहिए ||3811 यतो विषयघातश्च यतश्च पशु-प -पक्षिणः । तिष्ठन्ति मण्डलायन्ते ततो विन्द्याद् ग्रहागमम् ॥39॥ यदि देश का आपात हो और पशु-पक्षी मण्डलाकार होकर स्थित हों तो ग्रहण का आगमन समझना चाहिए 1139 ॥
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