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चतुर्थोऽध्याय:
मास में भय उत्पन्न होता है ।। 38।।
उल्कावत् साधनं ज्ञेयं परिवेषेषु तत्त्वतः ।
लक्षणं सम्प्रवक्ष्यामि विद्युतां तन्निबोधत ॥39॥ परिवेषों का फल उल्का के फल के समान ही अवगत करना चाहिए । अब आगे विद्युत् के लक्षणादि का निरूपण करते हैं ।।3911
इति नन्थे भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र परियेषवर्णनो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।
विवेचन–परिवेषों के द्वारा शुभाशुभ अवगत करने की परम्परा निमित्त शास्त्र के अन्तर्गत है। परिवेषों का विचार अग्वेद में आया है। सूर्ग अथवा चन्द्रमा की किरणें पर्वत के ऊपर प्रतिबिम्बित और पवन के द्वारा मंडलाकार होकर थोड़े से मेघ वाले आकाश में अनेक रंग और आकार जी दिखलाई पड़ती हैं, इन्हीं को परिवेष करते हैं। वर्षा ऋतु में सूर्य या चन्द्रमा के चारों ओर एक गोलाकार अथवा अन्य नि.मी आकार में एक महलमा बनता है, कमी को परिचय कहा जाता है।
परिवेषों का साधारण फलादेश- जो परिवेष नीलकंट, मोर, चांदी, तेल, दूध और जल को समान आभा वाला हो, स्वशाल सम्भूत हो, जिम का वृत्त पण्डित न हो और स्निग्ध हो, वह भिक्ष और मंगल करने वाला होता है। जो परिवेश समस्त आकाश में गमन करे, अनेक प्रकार की आभा वाला हो, मरि कभमान' हो, रूखा हो, खण्डित हो सश्रा धना और शृगाटिक यो मामान को वह पापकारी, भयप्रद और रोगसूचक होता है। मोर की गर्दन वे सामान परिवा हो तो अत्यन्त वर्षा, वहृत रंगों वाला हो तो राजा का वध, धूमवर्ण या होने में गाय और इन्द्रधनुष के समान या अशोक के फल के समान कान्ति बाला हो तो यूद होता है। किसी भी ऋतु में यदि परिवेप एक ही वर्ण का हो, स्निग्ध हो सथा छोट-छोटे मेघों में व्याप्त हो और सूर्य की किरण पीत वर्ण की हों तो प्रकार का रिवा शीघ्र ही वर्षा का सूचक है। यदि तीनों कानों की सन्ध्या में परिवग दिखलाई पड़े तथा परिबेप की ओर मुख करक मग या पक्षी गब्द करने हों तो इस प्रकार का परिवेष अत्यन्त अनिष्टकारक होता है। यदि परिवेग का भेदन मा या विद्युत् द्वारा हो तो इस प्रकार के परिवेग द्वारा किसी बो ता की मृत्य की सूचना समझनी चाहिए । रमतवर्ण का पग्विप भी किगी नेता की मृत्यु ना गुच है । उदयकाल, अस्तकाल और मध्याह्न या मध्य रात्रि कान में लगातार परिमाण दिखलाई पड़े तो किसी नेता की मृत्यु ममानी चाहिए । दो मण्डल का परिचय
I.मग्निवोधन म.