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चतुर्थोऽध्यायः
उल्कापात व्यापी रोग और महामारियों का सूचक है ( स्निग्ध, श्वेत, प्रकाशमान और सीधे आकार का उल्कापात शान्ति, सुख और नीरोगता का सूचक है ) उल्कापात द्वार पर हो तो विशेष बीमारियां सामूहिक रूप से होती है ।
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चतुर्थोऽध्यायः
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अथातः सम्प्रवक्ष्यामि परिवेशान यथाक्रमम । प्रशस्तानप्रशस्तांश्च यावदनुपूर्वतः ॥ ॥
उल्काध्याय के पश्चात् जब परिवेषों का पूर्व परम्परानुसार यथाक्रम से कथन करता हूँ । पपि दो प्रकार के होते हैं प्रशस्त शुभ और अप्रशस्त-अशुभ ॥ ॥ पंच प्रकारा विज्ञेया: पंचवर्णाश्च भौतिकाः । ग्रहनक्षत्रयोः कालं परिवेषाः समुत्थिताः " 11211
पाँच वर्ण और पाँच भूतों- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश की अपेक्षा से परिवेष पनि प्रकार के जानने चाहिए। ये परिवेष ग्रह और नक्षत्रों के काल को पाकर होते हैं || 21
रूक्षाः खण्डाश्च वामाश्च क्रव्यादायुधसन्निभाः । अप्रशस्तः प्रकीर्त्यते "विपरीतगुणान्विता ॥3॥
जो चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह और नक्षत्रों के परिवेष - - मण्डल कुण्डल रुक्ष, खण्डित अपूर्ण, टेढ़े, क्रव्याद - मांसभक्षी जीव अथवा चिता की अग्नि और आयुध - तलवार, धनुष आदि अस्त्रों के समान होते हैं, वे अशुभ और इनसे विपरीत लक्षण वाले शुभ मान गये हैं ||3||
रात्रौ तु सम्प्रवक्ष्यामि प्रथमं तेषु लक्षणम् । ततः पश्चादिवा भूये तन्निबोध" यथाक्रमम् ' ॥4॥
1. अनुपूर्वशः गुo C. 5. विपरीत आ० । 6. तन्निबोधन
। 2 समुपस्थिताः आ । 3. प्रशस्त C. 14. न प्रशस्यते C. 17. गलत: मु० D. ।
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किसान चित