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भद्रबाहुसंहिता
यह
शोष
शुष्यन्ति वै तडागानि सरांसि सरितस्तथा । बीजं न रोहिते तत्र जलमध्येऽपि वापितम् ||16 जब मंगल दशवे, ग्यारहवें और बारहवें नक्षत्र से लोटता है तो मुख वक्र कहलाता है | इस प्रकार के चक्र में आकाश से जल की वर्षा रस दूषित हो जाते हैं तथा रसों के दूषित होने से प्राणियों को नाना प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती है । जल-वृष्टि भी उक्त प्रकार के वक्र में उत्तम नहीं होती है, जिससे तालाब सूख जाते हैं तथा जल में भी बोने पर बीज नहीं उगते हैं। अर्थात् फसल की कमी रहती है ।114 - 16||
होती है,
त्रयोदशेऽपि नक्षत्रे यदि वाऽपि चतुर्दशे ।
निवर्तेत यदा भीमस्तद् वक्रं व्यालमुच्यते ॥17॥
पतंगाः सविषाः कोटाः सर्पा जायन्ति तामसाः । फलं न बध्यते पुष्पे बीजमुप्तं न रोहति ॥18॥
यदि मंगल चौदहवें अथवा तरहवें नक्षत्र से लौट आये तो यह उसका व्यालवक्र कहलाता है | पतंग - टोड़ी, विषैले जन्तु, कीट, सर्प आदि तामस प्रकृति के जन्तु उत्पन्न होते हैं, पुष्प में फल नहीं लगता और बोया गया बीज अंकुरित नहीं होता है ।117-18।।
यदा पञ्चदशे ऋक्षं षोडशे वा निवर्तते । लोहितो लोहितं वक्रं कुरुते गुणजं तदा ॥19॥ देश - स्नेहाम्भसां लोपो राज्यभेदश्च जायते । संग्रामाचात्र वर्तन्ते मांस- शोणितकर्दमा: 2011
जब मंगल पन्द्रहवें या सोलहवें नक्षत्र से लौटता है, तब यह लोहित वक्र कहा जाता है । यह गुण उत्पन्न करने वाला है। इस वक्र के फलस्वरूप देश, स्नेह, जल का लोग हो जाता है, राज्य में मतभेद उत्पन्न हो जाता है तथा युद्ध होते हैं, जिससे रक्त और मांस की कीचड़ हो जाती है ।119-20 ।।
यदा सप्तदशे ऋक्षे पुनरष्टादशेऽपि वा । प्रजापतिनिवर्तत तद् वक्रं लोहमुद्गरम् ॥21 निर्दया निरनुक्रोशा लोहमुद्गरसन्निभाः । प्रणयन्ति नृपा दण्डं क्षीयन्ते येन तत्प्रजाः ॥22॥
जब मंगल सत्रहवें या अठारहवें नक्षत्र से लौटता है तो लोहमुद्गर क्र कहलाता है । इस प्रकार के वन में जीवधारियों की प्रवृत्ति निर्दय और निरंकुश