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एकोनविंशतितमोऽध्यायः
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हो जाती है तथा राजा लोग प्रजा को दण्डित करते हैं, जिसमें प्रजा का क्षय होता है ॥2 1-221
धर्मार्थकामा हीयन्ते विलीयन्ते च दस्यवः ।
तोय-धान्यानि शुष्यन्ति रोगमारी बलीयसो॥3॥ उक्त प्रकार के बक में धर्म, अर्थ और काम नष्ट हो जाते हैं और वोरा का लोप हो जाता है। जल और धान्य मुख जात हैं तथा रोग और महामारी बढ़ती है ॥23॥
वक्रं कृत्वा यदा भौमो विलम्बन गति प्रति ।
वक्रानुवक्रयो?रं मरणाय समीहते' ।।240 यदि मंगल वक्र गति को प्राप्त कर दिलम्बित गति हो तो यह वक्रानुवक कहलाता है । वक्र और अनुवक का फल भरणप्रद होता है 1124।।
कृत्तिकादीनि सप्तेह वणांगाकश्चरेत् ।
हत्वा दा दक्षिणस्तिष्ठत् तत्र वक्ष्यामि यत् फलम् ॥25॥ यदि मंगल वक्र गति द्वारा कृत्तिकादि सात नक्षत्रों पर गमन करे अथवा घात कर दक्षिण की ओर स्थित रहे तो उसका फल निम्न प्रकार होता है 12511
साल्वांश्च सारदण्डांश्च विप्रान क्षत्रांश्च पीडयेत् ।
मेखलांश्चानयोरं मरणाय समीहते ॥26॥ मत प्रकार का मंगल सावदेश, मार दण्ड, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वणों को निस्सन्देह घार काट देता है ॥26॥
मघादीनि च सप्तव यदा वक्रेण लोहितः ।
चरेद् विवर्णस्तिष्ठेद् वा तदा विन्द्यान्महद्भयम् ॥27॥ यदि मयादि सात नक्षत्रों में वत्र गंगल विचरण करे अथवा विकृत वर्ण होकर निवास करे तो महान् च होना हे 1127॥
सौराष्ट्र-सिन्धु-सौवीरान् प्रासीलान् द्राविडांगनाम् । पाञ्चालान् सौरसेनान् वा बालीकान् नकुलान् वधेत् ॥28॥ मेखलान वाऽभ्यवन्त्यांश्च पार्वतांश्च नपैः सह । जिघांसति तदा भौमो ब्रह्म-क्षत्र विरोधयेत् ॥29॥
माह- म । 2. - पाना
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