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भद्रबाहुसंहिता
कुटिल कड़वखिलंगः कुचित्रगोऽथ निश्चयो । नामानि लिखितानि च येषां नोक्तं तु लक्षणम् ॥52॥
शिखी, शिखण्डी, विमल, विनाशी, धूमशासन, विशिखान, शताचि, शालकेतु अलवतक, घृत, घृताचि, च्यवन, चित्रपुण, विदूषण, विलम्बी, विषम, अग्नि, वातकी हसन, शिखी, कुटिल, कवखिलंग, कुचित्र इत्यादि केतुओं के नाम लिखे गये हैं, जिनके लक्षण का निरूपण नहीं किया गया है 1150-520
येऽन्तरिक्षे जले भूमौ गोपुरेऽट्टालके गृहे । वस्त्राभरण-शतेषु ते उत्पाता न केलयः ||530
जो केतु आकाश, जल, भूमि, गोपुर, अट्टारी, घर, वस्त्र, आभरण और शस्त्र में दिखायी पड़ते हैं, वे उत्पात नहीं करते |53|
दीक्षितान 'अर्हदेवांश्च आचार्यांश्च तथा गुरून् । पूजयेच्छान्तिपुष्ट्यर्थं पापकेतुसमुत्थिते ॥54॥
गुरु,
पाकेकी शान्ति के लिए मुनि आचार्य, तीर्थन की पूजा करनी चाहिए ||54|1
दीक्षित साधु
पौरा जानपदा राजा श्रेणीनां प्रवरा: नराः । 'पूजयेत् सर्वदानेन पापकेतुः समुत्थिते ||55||
और
पुरवासी, नागरिक, राजा, ब्राह्मण श्रेष्ठ व्यापारी आदि व्यक्तियों को दानपूजा का कार्य अवश्य करना चाहिए। अशुभ केतु दान-पूजा द्वारा प्रीति को प्राप्त होता है |55
यथा हि बलवान् राजा सामन्तैः सारपूजितः । नात्यर्थ बाध्यते तत्तु तथा केतुः सुपूजितः 11561
जिस प्रकार बलवान् राजा सामन्तों के द्वारा नेत्रित होने पर शान्त रहता है किसी भी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचाता। उसी प्रकार दुष्ट केतु भी जिस पाप के उदय से कष्ट पहुँचाता है, उस पान की शान्ति भगवान् की पूजा से हो जाती है, वह पाप कष्ट नहीं पहुँचाता है |56||
सर्पदष्टो यथा मन्त्रैरगदैश्च चिकित्स्यते । केतुदष्टस्तथा लोकैर्दान " जापैश्चिकित्स्यते 11571
1. श्च । 2. पितृदेवांश्च विशत् भूतान् वनीपकान् मु । 3. चिप्राश्च वणिजां नराः । 4. दाग-पूजां ध्रुवं कुयु केनोः श्रीतिकारोऽन्वाः गुरु। 5 वर्षो दष्टो यदा मुर | 6. जी गु