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नवमोऽध्यायः
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एवं विज्ञाय वातानां संयता भैक्षतिनः।
प्रशस्तं यत्र पश्यन्तिः' वसेयुस्तत्र निश्चिलम् । 36॥ इस प्रकार पवनों और उनका शुभाशुभ फल को जान कर भिक्षावृत्तिवाले साधुओं को चाहिए कि वे जहाँ बाधारहित प्रशस्त स्थान देखें वहीं निश्चित रूप से निवास करें ।।3611
आहारस्थितयः सर्वे जंगमस्थावरास्तथा।
जलसम्भवं च सर्वं तस्यापि जनकोऽनिलः ॥37॥ जंगम-चल और स्थावर समस्त जीवों की स्थिति आहार पर निर्भर हैसबका आधार आहार है और खाद्यपदार्य जल से उत्पन्न होते हैं तथा जल की उत्पत्ति वायु पर निर्भर है ।।37॥
सर्वकालं प्रवक्ष्यामि वातानां लक्षण' परम् ।
आषाढीवत् तत् साध्यं यत् पूर्व सम्प्रकीर्तितम् ।।38॥ अव पवनों का सार्यवालिया उक्त लक्ष कहूँगा, उसे पूर्व में काहे हा आपाही पूर्णिमा के समान सिद्ध करना चाहिए ।।38।।
पूर्ववातो यदा तूर्णं सप्ताहं वाति कर्कशः। स्वस्थाने नाभिवत् महदुत्पद्यते भयम् ।।39॥ प्राकारपरिखाणां च शस्त्राणां च समन्ततः ।
निवेदयति राष्ट्राणां विनाशं तादृशोऽनिलः 1801 पूर्व दिशा का पवन यदि ककंशरूप धारण करके अतिशीत्र गति से चले तो वह स्वस्थान में बर्मा व न होने की सूचना देता है और उसग अत्यन्त भय उत्पन्न होता है, उस प्रकार का पवन कोट, बाइयों, शस्त्रों और गप्ट्रों का सब ओर से विनाश सुचित करता है ।। 39.4011
सप्तरात्रं दिनार्ध' च यः कश्चिद् वाति मारुतः ।
महद्भयं च विज्ञेयं वर्ष बाध्य महद् भवेत् ॥4॥ किसी भी दिशा का वायु यदि साढ़े सात दिन तक लगातार चले तो उंग
1. यानस्तु • C 12 लावामिलाम् [C. 13. म. ('. । 4. fruirr: मु०ः । 5. जनमभ्रम म..B. 16. जलद गु० 1 7-8 नक्षणान्विय [.. A.B.D.। 9. शस्त्रकोपभयं नम. म. C. 10. दिवावधि म• A. वि. वा म.. 13. विश शर्य म. DI