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एकविंशतितमोऽध्यायः
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यदि केतु सप्त ऋषियों में से किसी एक को प्रभूमित करे तो ब्राह्मणों को सभी प्रकार का भय निस्सन्देह होता है 112811
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बृहस्पति यदा हन्याद् धूमकेतुरथाचिभिः । वेदविद्याविदो वृद्धान् नृपांस्तज्ज्ञांश्च हिंसति ॥ 291.
जब धूम्रकेतु अपनी तेजस्वी किरणों द्वारा बृहस्पति का घात करता है, तब वेदविद्या के पारंगत वृद्ध विद्वान् और राजाओं का विनाश होता है ||2911 एवं शेषान् ग्रहान् केतुर्यदा हन्यात् स्वरश्मिभिः । ग्रहयुद्धे यदा । प्रोक्तं फलं तत्तु समादिशेत् ॥30॥
इस प्रकार अन्य शेष ग्रहों को अपनी किरणों द्वारा केतु घातित करे तो जो फल गृहयुद्ध का बतलाया गया है, वहीं कहना चाहिए ||3011
नक्षत्रे पूर्वदिग्भागे यदा केतुः प्रदृश्यते ।
तदा देशान् दिशामुग्रां भजन्ते पापदा नृपाः ॥31॥
यदि पूर्व दिग्भागवाले नक्षत्र में केतु का उदय दिखलायी पड़े तो पानी राजा देश, दिशा और ग्राम का विनान करता है ॥31॥
बंगानंगान् कलिगांश्च मगधान् काशनन्दनात् । पट्टचावांश्च कौशाम्बी घेणसारं सदाहवम् ॥321 तोसलिंगान् सुलान् नेद्रान् माऋदामलवांस्तथा । कुनटान् सिथलान् महिषान् माहेन्द्र पूर्वदक्षिणः 113311 वंणान् विदर्भमालांश्च अश्मकांश्चैव छर्वणान् । द्रविडान् वैदिकान् दार्द्रा कलांश्च दक्षिणापथे ॥34॥ कोंकणान् दण्डकान् भोजान् गोमान् 'सूर्यारकाञ्चनम् । किष्किन्धान् वनवासांश्व लंका हन्यात् स नैरुतैः ॥35॥
वंग, अंग, कलिंग, गंगध, काश, नन्द, पट्ट, कौशाम्बी, धेनुसार, तोस, लिंग, सुल, नेद्र, माक्रन्द, मालत्र, कुनट, सिथल, महिप, माहेन्द्र, वेण, विदर्भ, मान और दक्षिणापथ के अश्मक छण, द्रविड़, वैदिक, दाद्र कल, कोकण, दंडक, भोज, गोमा, सूर्पर, कंचन, किष्किन्धा वनवास और लंका इन देशों का विनाश उपर्युक्त प्रकार का केतु करता है 1132-3511
1. तदा गु० । 2. निम्मु० ।