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भद्रवाहुसंहिता
उत्तगपाड़ा गे भरणी तवा- उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिपा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभा: पद, रेवती. अश्विनी भी रोग - पक्षों में गृहस्पति का दक्षिण मार्ग होता है । इस प्रकार बहस्पति के नो-नौ नक्षत्रों के तीन मार्ग बतलाये गय हैं ।।6।।
मूलमुत्तरतो याति स्वाति दक्षिणतो ब्रजेत् ।
नक्षत्राणि तु शेषाणि समन्तादक्षिणोत्तरे॥7॥ उत्तर में मूल को और दक्षिण में स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है तथा दक्षिणोत्तर रो शेष नक्षत्रों को प्राप्त करता है ।।7।
मूषके तु यदा ह्रस्वो मूल दक्षिणतो व्रजेत् ।
दक्षिणतस्तदा विन्द्यादनयोर्दक्षिणे पथि ॥४॥ जब फैन लब होकर दक्षिण से मुल नक्षत्र की ओर जाता है तो वृहस्पति और केतु दोनों ही दक्षिण मार्ग बाले कह जाते हैं ।।8।।
अनावृष्टिहता देशा 'बुमुक्षाज्वरनाशिताः ।
चक्रारूढा प्रजास्तत्र बध्यन्ते जात-तस्कराः ॥9॥ इन दोनों के दक्षिण मार्ग में रहने म अनावृष्टि-बी का अभाव होता है, जिसमे देश पीमित होते हैं । नेज ज्वर में अनेक व्यक्तियों की मृत्यु होती है प्रजा गासन में आरूढ रहती है और वर्णसंकरों का वध होता है ।।9।।
यदा चोत्तरतः स्वाति दीप्तो याति बृहस्पतिः।
उत्तरेण तदा विन्द्याद दारुणं भयमादिशेत् ।।10। जब बृहस्पति दीप्त होकर उत्तर की ओर गे स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है तो उस समय उनर देश में दारुण भय होता है ।1 1011
लुप्यन्ते च क्रिया: सर्वा नक्षत्रे गुरुपीडिते।
दस्यवः प्रबला जया न च बीजं प्ररोहति ।।1। गुरु के द्वारा नक्षत्र के पीड़ित होने पर सभी क्रियाओं का लोप होता है, चोरों को रमित यकृती है और बीज उत्पन्न नहीं होता है ।। ||
दक्षिणेन तु वक्रेण पञ्चमे पञ्च मुच्यते। उत्तरे पञ्चके पञ्च मागं चरति गौतमः ॥12॥
1. हायर विनाशिताः मुर। 2. भकाश: मु । 3. यायाद् मृ ।