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भद्रबाहुसंहिता कोण में, तृतीय अर्धमास में दक्षिण दिशा में, चतुर्थ अर्थमास में ईशानकोण में, पश्चम अर्धमास में पश्चिम दिशा में, 4.3 अर्धा में आग्नेय दिशा में, सपाम अर्धमास में उत्तर दिगा में और अरट म अर्धमास में नैऋत्यकोग में राहु का वास रहता है।
यात्रा के लिए राहु आदि का विचार जयाय दक्षिणो राहु योगिनी वामतः स्थिता।
पृष्ठतो द्वयमध्येतच्चन्द्रभा: सम्मुख: पुनः ।। अर्थ-दिशाल का बासी बोर रहना, राहु का दाहिनी ओर या पीछे की ओर रहना, योगिनी का बायीं ओर या पीछे की ओर रहना एवं चन्द्रमा का सम्मुख रहना यात्रा में गुभ होता है । द्वादश महीनों में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के कम से प्रतिपदा मे पूर्णिमा तक क्रम से सौख्य, क्लेश, भीति, अर्थागम, शून्य, निःस्त्रत्व, मित्रपात, द्रव्य-कलेण, दुःख, इटाप्ति, अर्थलाभ, लाभ, सोल्य. मंगन, विनलाभ, लाभ, द्रव्यप्राप्ति, धन, सौख्य, भीति, लाभ, मृत्यु, अर्थागाम, लाभ, कष्ट, द्रव्यलाभ, कष्ट, सौख्य, क्लेश, मुख, सौख्य, लाभ, कार्य सिद्धि, काट, क्लेश, प, धन-लाभ, मत्यु, लाभ, द्रव्य लाभ, शून्य, शून्य, मौम्य, मुत्यु, अत्यन्त कष्ट फल होता है। 13, 14 और 15 तिथि का फल 3.4 और 5 तिथि के फल समान जानना चाहिए।
तिथि चक्र प्रकार
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मो.सा.का.च. . ज्ये. 11 . पूर्व । दक्षिण । पश्रिम
sip सौल्यं । फ्लेश | भीतिः । अपांग 2j3: सम्पम म्वम निःस्व | मित्रया:
| दुःखम् । इहालिः | जय
सौख्यं मालम | विसला
| दयादि धनम् । सौर भीतिः लाभः । मायुः । अयोग
कष्टम दव्यला | सुखम् ।
सौनयम खेश । सुखम् । सौख्य लाभः कार्यसि कष्टम । क्लेशः कष्टम् ः धनम
ल
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नाग
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धनम
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चन्पम् | सौख्यं मायः I
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