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भद्रबाहुसंहिता
भूतं भव्यं भवष्टिमवृष्टि भयमग्निजम् ।
जयाऽजयोरुजं चापि सर्वान् सृजति भार्गवः ।।2।। भूत-भविष्य फल, वृष्टि, अवृष्टि, भय, अग्निप्रकोप, जय, पराजय, रोग, धन-सम्पत्ति आदि समस्त फल का शुक्र निर्देशक है ।। 214
नियन्ते वा प्रजास्तत्र वसधा "वा प्रकम्पते।
दिवि मध्ये यदा गच्छेदर्धरात्रेण भार्गव: ॥3॥ जब अर्धरात्रि का समय शुक्र आकाश में गमन करता है, तब प्रजा की मृत्यु होती है और पृथ्वी कम्पित होती है |3||
दिवि मध्ये यदा दृश्येच्छुक्रः सूर्यपथास्थितः ।
सर्वभूतभयं कर्या हिशेषादर्णसंकरम् ॥4॥ सूर्य गथ में स्थिर होकर सूर्य के साथ रहकर शुक्र यदि आकाश के मध्य में दिखलाई पड़े तो समस्त प्राणियों की भय करता है तथा विशेष रूप से वर्णसंकारों के लिए भयप्रद है ।।411
अकाले उदित: शुक्र: "प्रस्थितो वा यदा भवेत् ।
तदा विसांवत्सरिक ग्रीडा वपेत्सरसु वा ॥5॥ यदि असगय में शुक्र उदित या अस्त हो तीन वर्षों तक ग्रीष्म और शरद् ऋतु में ईति – प्लेग या अन्य महामारी होती ।।।।
गुरुभार्गवचन्द्राणां रश्मयस्तु यदा हताः।
एकाहमपि दीप्यन्ते तदा विन्द्याद्भयं खल ॥6॥ यदि बृहस्पति. मुझ और नन्द्रमा किरणे वातित होत र एक दिन भी । दीप्त हों तो अत्यन्त भय समझना चाहिए 116।।
भरण्यादीनि चत्वारि चतुनक्षत्रकाणि हि।
षडेव मण्डलानि स्थुस्तेषां नामानि लक्षयेत् ॥7॥ भरणी नक्षत्र को आदि कर तार-चार नक्षत्रों के छः मण्डल होत हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार अवगत करना चाहिए ।। 711
सर्वभूतहितं रक्तं परुषं रोचनं तथा। ऊर्ध्व चण्डं च तीक्ष्णं च "निरुक्तानि निबोधत ॥8॥
भवता
1 अर्याय शु. 12 च । 3. निनादी !दा। विसांवत्सरिक ग्रीष्म शारद नियत ।। | 4. Inानि यत् म.. ॥