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एकादशोऽध्यायः
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रहना, छोटे पेड़ों की कलियों का जल जाना, बड़े पेड़ों में कलियों का निकल आना, बड़ की शाखाओं में खोखलों का हो जाना, दाढ़ी-मूंछों का चिकना और नरम हो जाना, अत्यधिक गर्मी से प्राणियों का व्याकुल होना, मोर के पंखों में भन भन शब्द का होना, गिरगिट का लाल आभायुक्त हो जाना, चातक-मोरसियार आदि का रोना, आधी रात में मुगों का रोना, मक्खियों का अधिक घूमना, भ्रमरों का अधिक घूमना और उनका गोबर की गोलियों को ले जाना, कसि के बर्तन में जंग लग जाना, वृक्षतुल्य लता आदि का स्निग्ध, छिद्र रहित दिखलाई पड़ना, पित्त प्रकृति के व्यक्ति का गाढ निद्रा में शयन करना, कागज पर लिखने से स्याही का न सूखना, एवं वातप्रधान व्यक्ति के सिर का घूमना तत्काल वर्षा का सूचक है ।) ___ वर्षा ज्ञान के लिए अत्युपयोगी सप्तनाड़ी चक्र --शनि, बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्रमा इनकी क्रम से चण्डा, समीरा, दहना, सौम्या, नीरा, जला और अमृता-ये सात नाड़ियां होती हैं।
कृत्तिका से आरम्भ कर अभिजित् सहित 28 नक्षत्रों को उपयुक्त सात नाड़ियों में चार बार घुमाकर विभक्त कर देना चाहिए। इस चक्र में नक्षयों का क्रम इस प्रकार होगा कि मृत्तिका से अनुराधा तक सरल क्रम से और मधा से धनिष्ठा तक विपरीत क्रम से नक्षत्रों को लिखे । सात नाड़ियों के मध्य में सौम्य नाड़ी रहेगी और इसके आगे-पीछे तीन-तीन नाड़ियो । दक्षिण दिशा में गई हुई नाड़ियाँ क्रूर कहलायेगी और उत्तर दिशा में गई हुई नाड़ियां सौम्य कहलायेंगी। मध्य में रहनेवाली नाड़ी मध्यनाड़ी कही जायेगी । ये नाड़ियाँ ग्रहयोग के अनुसार फल देती हैं।
दिशा
दक्षिण में निजन नाड़ी
मध्य
उनर में मजल नाई
चण्डा
| समीग
सौभ्या
नाही के नाम
नीरा । जन्मा
अमृता
स्वामी
शनि
गुरु या सूर्य
मंगल
सूर्य या पुरु
चन्द्रमा
नक्षत्र
कृतिका विशाखा
शहिलो | भगशिर । आद्रा पुनर्वसु । पुष्य प्राशय स्वाना | चित्रा | न नाभाल्गुनी | कागुनी
या | मूल | पूर्शवादा । पाशा | अभिनित ! श्रवण अश्विनी | वनी उनयभाद्र] पूर्वाभाद्रप | शम | निष्टा
अनुगधा
मर
सप्तनाडी चक्र द्वारा वर्षाजान करने की विधि-.जिस ग्राम में वर्षा का ज्ञान करना हो, उस ग्राम के नामानुसार नक्षत्र का परिज्ञान कर लेना चाहिए। अब