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प्रस्तावना
कथन मिलता है । इसी प्रकार भद्रबाहुसंहिता स्वयं भद्रबाहु की न होकर, भद्रबाहु के वचनों का प्रतिनिधित्व करती है।
ग्रन्थ की उत्थानिका में आये हुए सिद्धान्तों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि उत्थानिका के कथन में ऐतिहासिक दृष्टि से विरोध आता है । भद्रबाहु स्वामी चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में हुए, जब कि मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में थी। सेनजित् या प्रसेनजित महाराज श्रेणिक या बिम्बसार के पिता थे । इनके समय में और चन्द्रगुप्त के समय में लगभग 140 वर्षों का अन्तराल है, अत. श्रुतकेवली भद्रबाहु तो इस ग्रन्थ के रचियता नहीं हो सकते हैं । हाँ, उनके वचनों के अनुसार किसी अन्य विद्वान् ने इस ग्रन्थ की रचना की होगी। ___'जन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' में देसाई ने इस ग्रन्थ का रचयिता वराहमिहिर के भाई भंद्रबाहु को माना है। जिस प्रकार वराहमिहिर ने बृहत्संहिता या वाराही संहिता की रचना की, उसी प्रकार भद्रबाहु ने भद्रबाहुसंहिता की रचना की होगी । वराहमिहिर और भद्रबाहु का सम्बन्ध राजशेखरकृत प्रबन्धकोष (चतुविशतिप्रबन्ध) से भी सिद्ध होता है । यह अनुमान स्वाभाविक रूप से संभव है कि प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु भी ज्योति नी रह होंगे । कहा जाता है कि वराहमिहिर के पिता भी अच्छे ज्योतिषी थे। बृहज्जातक में स्वयं वराहमिहिर ने बताया है कि कालपी नगर में सूर्य से वर प्राप्त कर अपने पिता
आदित्यदास से ज्योतिषशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। इससे सिद्ध है कि इनके वंश में ज्योतिषशास्त्र के पठन-पाठन का प्रचार था और यह इनकी विद्या वंशगत थी। अत: इनके भाई भद्रबाहु द्वारा रचित कोई ज्योतिष ग्रन्थ हो सकता है। पर यह सत्य है कि यह भद्रबाहु भुतकवली भद्रबाहु से भिन्न हैं। इनका समय भी श्रुतकोवली 'मद्रवाह से सैकड़ों वर्ष बाद का है।
श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने ग्रन्थपरीक्षा द्वितीय भाग में इस ग्रन्थ के अनेक उद्धरण देकार तथा जन उद्धरणों की पारम्परिव असम्बद्धता दिखलाकर यह सिद्ध किया है कि यह ग्रन्थ भद्रबाहु युतकेवली का बनाया हुआ न होकर इधरउधर के प्रकरणों का बेढंगा संग्रह है। इन्होंने अपने वक्तव्य का निष्कर्ष निकालत हुए लिखा है-..."यह खण्डत्रयात्मक ग्रन्थ (भद्रबाहुसहिता) भद्रबाहु श्रुत केवली का बनाया हुआ नहीं है, न उनके किसी शिष्य-प्रशिष्य का बनाया हुआ है और न विक्रम सं. 1657 के पहले का बनाया हुआ है, बल्कि उक्त संवत् के पोछ का बनाया हुआ है ।'' मुख्तार साहब का अनुमान है कि ग्वालियर के भट्टारक धर्मभूषणजी की कृपा था यह एकमात्र फल है । उनका अभिमत है. "वहीं उस समय इस ग्रन्थ फे सर्व सस्वाधिकारी थे। उन्होंन वामदेव सरोख अपन किसी कृपापात्र पा आत्मीयजन के द्वारा इसे तैयार कराया है अथवा उसकी सहायता से स्वयं तैयार किया है । तैयार हो जाने पर जब इसके छो-चार अध्याय किसी को पढ़ने