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प्रस्तावना
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पीछे की ओर जाता दिखाई पड़े तो यह शकुन अत्युत्तम है। बांझ स्त्री, चमड़ा, धान का भूसा, पुआल, सूखी लकड़ी, अंगार, हिजड़ा, विष्ठा के लिए पुरुष या स्त्री, तेल, पागल व्यक्ति, जटा वाला संन्यासी व्यक्ति, तृण, संन्यासी, तेल मालिश किये बिना स्नान के व्यक्ति, नाक या कान चाटा व्यक्ति, धिर, रजस्वला स्त्री, गिरगिट, बिल्ली का लड़ना या रास्ता काटकर निकल जाना, कीचड़, कोयला, राख, दुर्भग व्यक्ति आदि शकुन यात्रा वे, आरम्भ में अशुभ समझे जाते हैं । इन शकुनों से यात्रा में नाना प्रकार के कष्ट हो और कार्य भी सफल नहीं होता है । यात्रा के समय में दधि, मछली और जलपूर्ण कलश आना अत्यन्त शुभ माना गया है । इस अध्याय में यात्रा के विभिन्न शकुनों का विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । यात्रा करने के पूर्व शुभ शकुन और मुहुर्त का विचार अवश्य करना चाहिए। शुभ समय का प्रभाव यात्रा पर अवश्य पड़ता है। अतः दिशाशूल का ध्यान कर शुभ समय में यात्रा करनी चाहिए।
चौदहवें अध्याय में उत्पातों का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में 182 श्लोक हैं । आरम्भ में बताया गया है कि प्रत्येक जनपद को शुभा गुभ की सूचना उत्पातों से मिलती है। प्रकृति के विपर्यय कार्य होने को उत्पात कहते हैं। यदि शीत ऋतु में गर्मी पड़े और नीम ऋतु में कड़ाके की गर्दी पड़े तो उक्त घटना के नौ या दस महीने के उपरान्त महान भय होता है । 'शु, पक्षी और मनुष्यों का स्वभाव विपरीत आचरण दिखलाई गड़े अर्थात् पशुओं के पक्षी या मानब सन्तान हो और स्त्रियों के पशु-पक्षी सन्तान हो तो भय और विपत्ति की सूचना समझनी चाहिए । देव प्रतिमाओं द्वारा जिन उत्पातों की सूचना मिलती है वे दिव्य उत्पात, नक्षत्र, उल्का, निर्यात, पवन, विशुनपात, इन्द्र धनुष आदि के द्वारा जो उत्पात दिखलायी पड़ते हैं दे अन्तरिक्ष; पार्थिव विभाग द्वारा जो विशेषता दिखलाई पड़ती हैं वे भौमोत्पात कहलाते हैं । तीर्थ कर प्रतिमा से पसीना निकलना, प्रतिमा का हँसना, रोना, अपने स्थान से हटकर दूसरी जगह पहुँच जाना, छवभंग होना, छत्र का स्वयमेव हिलना, चलना, काँगना आदि उल्लातों को अत्यधिक अशुभ समझना चाहिए । ये उत्पात व्यक्ति, समाज और राष्ट्र इन तीनों के लिए अशुभ हैं । इन उत्पातों से राष्ट्र में अनेक प्रकार के उपद्रव होने हैं। परेल गंधर्ष भी न उत्पातों के कारण होते हैं । इस अध्याय में दिव्य , अन्तरिक्ष और गौम तीनों प्रकार के उत्पातों का विस्तृत वर्णन किया गया है ।
पन्द्रहवें अध्याय में शुक्राचार्य का वर्णन है। इसमें 2300 श्लोक हैं। इसमें शुक्र के समान, उदय, अस्त, वक्री, मार्गों आदि द्वारा 'भूत-विष्यत् का फल, वृष्टि, अवृष्टि, भय, अग्निप्रकोप, जय, पराजय, रोग, धन, सम्पत्ति आदि फलों का विवेचन किया गया है। शुत्र के छहों मनों में भ्रमण करंग के फल का कथन किया है। शुक्र का नागवीथि, गजबीथि, ऐरावतवीथि, बायोथि, गोवीथि,