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भद्रबाहुसंहिता
सिंह- व्याघ्र - वराहोष्ट्र श्वानद्वीपि - खरोपमाः । शूलपट्टिशसंस्थाना धनुर्वाणगदा पयाः ॥7॥ पाशवज्र । सिसदृशाः परश्वधंन्दुसन्निभाः । गोधा - सर्प- शृगालानां सदृशाः शल्यकस्य च ॥४॥ मेबाज महिषाकाराः काका कृतिवृकोपमाः । शश' मार्जार- सदृशाः पक्ष्यकोदग्रसन्निभाः ॥५॥ ऋक्ष-वानरसंस्थानाः कबन्धसदृशाश्च याः । अलातचक्रसदृशा "वक्राक्षप्रतिमाश्च' या: # uron शक्तिलाङ गुलसंस्थाना" यस्याश्चोभयतः शिरः । स्त्रास्तन्यमाना नागाभाः प्रपतन्ति" स्वभावतः ॥ ३॥
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सिंह, व्याघ्र, चीता, शुकर, ऊँट, कुला, तेंदुआ, गदहा, त्रिशूल, पट्टिण-एक प्रकार का आयुध, धनुष, बाण, गदा, फरसा, वज्र, तलवार, फरसा अन्द्राकार कुल्हाड़ी, गोह, सर्प, शृगाल, भाला, मेढ़ा, बकरा, भैसा, कौआ, भेड़िया, खरगोश, बिल्ली, अत्यन्त ऊँध उड़नेवाले पक्षी - गुद्ध आदि, रीछ बन्दर, सिर कटे हुए धड़, कुम्हार का चाक, टेढ़ी आंखवाला, शक्तिआयुध विशेष, हल इन सबके आकार वाली और दो सिरवाली तथा हाथी के आकारवाली उल्काएं स्वभाव से गिरती है ।। 7- 1 ।।।
उल्काऽशनिश्च विद्युच्च सम्पूर्ण कुरुते फलम्
पतन्ती जनपदान् त्रीणि उल्का तीव्र " प्रबाधते ||12||
उल्का, अर्थानि और विद्यत् ये तीनों पूर्ण फल देती हैं और इन तीनों के गिरने से देशवासियों को पूर्ण बाधा होती है ||2||
यथावदनुपूर्वेण तत् प्रवक्ष्यामि तत्त्वतः । अग्रतो देशमार्गेण मध्येनानन्तरं ततः ॥13॥ पुन पृष्ठतो देशं पतन्त्युल्का विनाशयेत् । मध्यमा न प्रशस्यन्ते नभस्युल्काः पतन्ति याः ॥14॥
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