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पविशतितमोऽध्यायः
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स्वप्नमाला दिवास्वप्नोऽनष्टचिन्ता मय:फलम् ।
प्रकृता-कृतस्वप्नश्च नेते ग्राह्या निमित्ततः ॥2॥ स्वप्नमाला, दिवास्वप्न, चिन्ताओं से उत्पन, लोग ग उत्पन्न और प्रवृति के विकार के उत्पन्न स्वप्न फल के लिए नहीं ग्रहण करना चाहिए ।।2।।
कर्मजा द्विविधा यत्र शुभाश्चानाशुभास्तथा।
विविधा: संग्रहा: स्वप्ना: कर्मजा: पूर्वसचिता: ।।3।। नामोदय से उत्पन्न स्वप्न दो प्रकार क होते हैं—म और आगन तथा पूर्व संचित करदिय से उत्पन्न स्वप्न तीन प्रकार में होत है ।।3।।
भवान्तरेषु चाभ्यस्ता भावा: सफल-निमला:।
तान् प्रवक्ष्यामि तत्त्वेन शुभाशुभफलानिमान् ॥वा। जो सफल या निष्पल भाब भवान्तों में अपना है, उगा मामा दायर भावों को यथार्थ रूप में निरूपण करता है ।।111
जलं जलरुहं धान्यं सदलाम्भोजभाजनम ।
मणि-मुक्ता-प्रवालांश्च स्वप्ने पश्यन्ति श्लेष्मिःTः ।।5।। जल, जल मे उत्पन्न पदार्थ, धान्य, गय सहित कपल, मणि, माती. श्वान आदि को स्वप्न में कफ प्रकृति वाला व्यक्ति देखता है ।। 511
रक्त-पीतानि द्रव्याणि यानि पुष्टान्यग्निसम्भवान् ।
तस्योपकरणं बिन्धात् स्वप्ने पश्यन्ति पत्तिकाः ।।6।। रक्त-पीत पदार्थ, अग्नि मंस्कार से उत्पन्न पदार्थ, वर्ण के आभूषण-उपमण आदि को पित्त प्रकृति वाला व्यक्ति स्वप्न में दिानता है ।।6।।
च्यवनं प्लवनं यानं पर्वताऽग्र द्रमं गहम् ।
आरोहन्ति नरा: स्वाने वातिका: पक्षगामिनः ॥7॥ वायु प्रकृति वाला व्यक्ति गिरना, तैरना, सबारी पर चढना, पवन में कार चढ़ना, वृक्ष और प्रासाद पर चढ़ना आदि वस्तुओं को स्वप्न में दग्वता है 11711
सिंह-व्याघ्र-राजयुक्तो गो-वृषाश्व रैथुत:।।
रथमारा यो याति पृथिव्यां स नशे भवेत् ॥8॥ जो सिंह, च्यान, गज, गाय, बैल, गोडा और मनाया में यक्स होकार रथ पर चढ़कर गमन करते हुए स्वप्न में देखता है वह राजा होता है 118।।