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प्रथमोऽध्याय:
आकृति भी अभ्र के अन्तर्गत आ जाती है।
सन्ध्या -दिवा और रात्रि का जो सन्धिवाल है उसी को सन्ध्या कहते हैं । अर्द्र अस्तमित और अर्द्ध उदित सूर्ग जिस समय होता है, वही प्रकृत सन्ध्याकाल है। यह काल प्रकृत सन्ध्या होने पर भी दिवा और रात्रि एक-एक दण्ड सन्ध्याकाल माना गया है। प्रातः और सायं को छोड़कर और भी एक सन्ध्या है, जिसे मध्याह्न कहते हैं। जिस समय गूर्य आकाश मण्डल के मध्य में पहुँचता है, उस समय मध्याह्न सन्ध्या होती है। यह सन्ध्याकाल सप्तम मुहूर्त ने बाद अष्टम मुहूर्त में होता है। प्रत्येक सन्ध्या का काल २४ मिनट या १ घटी प्रमाण है। संध्या के रूप-रंग, आकृति आदि के अनुसार शुभाशुभ फल का निरूपण इस ग्रंथ में किया जायगा ।
मेघ----मिह धातु मे अच् प्रत्यय कर देने ये मेघ शब्द बनता है। इसका अर्थ है बादल । आकाश में हमें ., श्वेत आदि वर्ण की वायवी जलराशि की रेखा वाषाकार में चलती हुई दिखलाई पड़ती है, इसी को मध (Clourd) कहते हैं । पर्वत के ऊपर कुहासे की तरह गहरा अन्धकार दिखाई देता है, वह मेघ का रूपान्तर मात्र है । वह आकाश में संचित धनीभूत जल-बाप से बहुत कुछ तरल होता है । यही तरल कुहरे की जैगी बाप्प राशि पीछे धनीभूत होकर स्थानीय शीतलता के कारण अपने गर्भस्थ उत्ताप को नष्ट कर शिशिर बिन्दु की तरह वर्षा करती है। मेध और कुहासे की उत्पति एक ही है, अन्तर इतना ही है कि मेघ आकाश में चलता है और कुहामा पृथ्वी पर। मेघ अनेक वर्ण और अनेक आकार के होते हैं । फलादेश इनके आकार और वर्ण के अनुसार वणित किया जाता है। मेघों के अनेक भेद हैं, इनमें चार प्रधान हैं आवतं, संवर्त, पुष्कर और द्रोण। आवर्त मघ निर्मल, संबर्न मेघ बहुजन विशिष्ट, पुष्कर दुरकर-जल और द्रोण शस्त्रपूरक होते हैं । ___ वात-बायु के गमन, दिशा और चत्र द्वारा शुभाशुभ फल बात अध्याय में । निरूपित किया गया है। वायु वा संभार अनेक प्रकार के निमित्तों को प्रकट करने वाला है।
प्रवर्षण • -वर्षा-विचार प्रकरण को प्रवर्पण में रखा गया है। ज्येष्ठ पूर्णिमा के बाद यदि पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में वृष्टि हो तो जल व परिमाण और शुभाशुभ सम्बन्ध में विद्वानों का मत है कि एक साथ गहरा, एक हाथ लम्बा और एक हाथ चौड़ा गड्ढा खोदकर रखे। यदि यह गड्ढा वर्ग के जल से भर जावे तो एक आढ़क जल होता है । वि.सी-किमी का मत है कि जहां तक दृष्टि जाय, वहाँ तक जस दिखलाई दे तो अतिवृष्टि संगझनी चाहिए । बर्षा का विचार ज्येष्ठ की