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भद्रबाहुसंहिता
पुष्यो 'यदि द्विनक्षत्रे सप्रभश्चरते समः । षड् भयानि तदा हत्वा विपरीतं सुखं सृजेत् ॥18॥ नृपाश्च विषमच्छायाश्चतुर्ष वर्तते हितम् ।
सुखं प्रजा: प्रमोदन्ते स्वर्गवत् साधुवत्सला: ॥19॥ जब वृहस्पति पुप्यादि दो नक्षत्रों में गमन करता है, तब छ: प्रकार के भयों का विनाश कर सुख उत्पन्न करता है। राजा भी आपस में प्रेम-भाव से निवास करते हैं. प्रजा मुख और आनन्द प्राप्त करती है तथा पृथ्वी स्वर्ग के समान साधुवत्मान्य हो जाती है ।। 1 8-1911
विशाखा कृत्तिका चैव मघा रेवतिरेव च । अश्विनी श्रवणश्चैव तथा भाद्रपदा भवेत् ॥20॥ बदकानि जानीयात् तिष्ययोगसमप्रभ ।
फाल्गुन्येव च चित्रा च वैश्वदेवश्च मध्यमः ॥21॥ जय बृहस्पति विशाखा, कृत्ति वा, मश, रेवती, अश्विनी, श्रवण, पूबांभाद्रपद इन नक्षत्रों में गमन करता है तो गुरु-पुष्य योग के समान ही अत्यधिक जल की वर्मा समझनी चाहिए । पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा और उत्तर पाढा इन नक्षत्रों में बृहस्पति के गगन करने पर मध्यम फल जानना चाहिए ।।20-21।।
ज्येष्ठा मूलं च सौम्यं च जघन्या सोमसम्पदा। कृत्तिका रोहिणी मूत्तिराश्लेषा हृदयं गुरुः ।।22।। आप्यं ब्राह्य च वैश्वं च नाभि: पुष्य-मघा स्मृताः।
एतेषु च विरुद्धषु ध्रुवस्य फलमादिशेत् ॥23॥ ज्याठा, मूल ओर पूर्वापाढ़ा नक्षत्रों में बृहस्पति गमन करे तो जघन्य गुखसम्पनि की प्राप्ति होती है । कृत्तिका तथा रोहिणी, मूत्ति और आश्लेषा, बृहस्पति का हृदय है। पूर्वगाढ़ा, अभिजित, उत्तरागाढा, पुष्य और मघा उसकी नाभि मानी गयी है। इन नक्षत्रों में तथा इनसे विपरीत नक्षत्रों में फल का निरूपण करना चाहिए ॥22-23।।
द्विनक्षत्रस्य चारस्य यत् पूर्व परिकीर्तितम् । एवमेवं तु जानीयात् षड् भयानि समादिशेत् ॥24॥
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