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प्रस्तावना
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12. अन-सन कंकण पहने हुए बालिकाओं के ताल देकर नचाने पर भी
मन्दिर-मयूरों ने नाचना छोड़ दिया । 13. रात में कुते मुंह उठाकर रोने लगे। 14. रास्तों में कोटवी-मुक्तकेशी नग्न स्त्रियों घूमती हुई दिखलाई पड़ी। 15 महलों के फर्शों में घास निकल आयी। 16. योद्धाओं की स्त्रियों के मुख का जो प्रतिबिम्ब मधुपात्र में पड़ता था
उसमें विधवाओं जैसी एका वेणी दिखाई पड़ने लगी। 17. भूमि कांपने लगी। 18. शूरों के शरीर पर रक्त की बूंदें दिखाई पड़ी, जैसे बधदण्ड प्राप्त व्यक्ति
का शरीर लाल चन्दन से सजाया जाता है। 19. दिशाओं में चारों ओर उल्कापात होने लगा। 20. भयंकर झंझावात न प्रत्येक घर को झकझोर डाला।
बाण ने ! 6 महोतात, 3 निमित्त और 20 उपलिंगों का वर्णन किया है । यह वर्णन संहिता-शारत्र का विकसित विषय है।
उपर्यवत विवचन से यह स्पष्ट है कि संहिता शास्त्र के विषयों का विकास अथर्ववेद स प्रारम्भ होकर मूत्रकाल में विशए रूप स हुआ । ऐतिहासिक महाकाव्य-ग्रन्थों तथा अन्य संस्कृत साहित्य में भी इस विषय के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं । इस शास्त्र में सूर्यादि ग्रहों की चाल, उनका स्वभाव, विकार, प्रमाण, दणं, किरण, ज्योति, संस्थान, उदय, अस्त, मार्ग, वक्र, अतिव, अनवक, नक्षत्रविभाग और कूम का सब देशों में फल, अगस्त्य की चाल, मातपियों की चाल, नक्षत्रव्यूह, ग्रहण गाटक, ग्रहयुद्ध, ग्रहसमागम, पग्वेिष, परिच, उल्का, दिग्दाह, भकम्प, मन्धर्वनगर, इन्द्रधनुष, बास्तुविद्या, अंगविद्या, बायमविद्या, अन्त रचक्र, मृमचक्र, अवचक, प्रामादलक्षण, प्रतिभालक्षण, प्रतिमाप्रतिष्टा, घृतलक्षण, कम्बल-लक्षण, स्वंग लक्षण, सट्टलक्षण, कुक्कुट लक्षण; मलक्षण, गोलक्षण, अजालक्षण, अपवलक्षण, स्त्री-पुरुष लक्षण, यात्रा शकुन, रणयात्रा शकुन एवं साधारण, असाधारण सभी प्रकार के गुभाशुभा का त्रिन अन्तत होता था। स्वप्न और विभिन्न प्रकार के शकुनों को भी मंहिता-शास्त्र में स्थान दिया गया था । फलित ज्योनि का ग्रह अंग केबल पंचांग ज्ञान तक ही सीमित नहीं था, किन्तु समस्त गांस्कृतिक विषयों की आलोचना और निरूपण काल भी दम में शामिल हो गया था । संहिता-शास्त्र का मबसे पहला गन्थ सन् 505 ई. के वराहमिहिर का बृहत् संहितानामक ग्रन्ध मिलता है । इसके पश्चात् नारदसंहिता, रावण-संहिता, वसिष्ठ-संहिता, वमन्त राज-शाकुन, अद्भुतसागर आदि प्रन्थों की रचना हुई।