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भद्रबाहुसंहिता
अयणाणं संबंध रविसोमाणं तु वे हि य जुगम्मि | नं हवइ भागल वहस तत्तिया होन्ति ।। बाबतपरीयमाणं फलरासी इच्छिते जुगमें ए । इच्छिघवइवापि य इदं आऊण आणे हि ॥
इन गाथाओं की व्याख्या करते हुए मलयगिरि ने लिखा है - " इह सूर्य चन्द्रमी स्वकीयेऽयने वर्तमानी यत्र परस्परं व्यतिपततः स कालो व्यतिपातः, तत्र रविसमयोः युगे युगमध्ये यानि अयनानि तेयां परस्परं सम्बन्धे एकत्र मेलने कृते द्वाभ्यां भागो लिंग छूटे च भवति गगनब्धं तावन्तः तावत्प्रमाणाः युगे व्यतिपाता भवन्ति । "
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डब्ल्यू डब्ल्यू ० हण्टर ने लिखा है- "आठवीं शती में अरब विद्वानों ने भारत से ज्योतिषविद्या सीखी और भारतीय ज्योतिष सिद्धान्तों का 'सिद हिंद' के नाम से अरबी में अनुवाद किया ।"" अरबी भाषा में लिखी गयी "आइन - उल अंबा फितल कालुली जत्वा" नामक पुस्तक में लिखा है कि "भारतीय विद्वानों ने बरव के अन्तर्गत बगदाद की राजसभा में आकर ज्योतिष, चिकित्सा आदि शास्त्रों की शिक्षा दी थी। कके नाम के एक विद्वान् शक संवत् 694 में बादशाह अलमसूर के दरबार में ज्योतिष और चिकित्सा के ज्ञानदान के निमित्त गये थे ।
मैक्समूलर ने लिखा है कि "भारतीयों को आकाश का रहस्य जानने की भावना विदेशीय प्रगाववश उद्भूत नहीं हुई, बल्कि स्वतन्त्र रूप से उत्पन्न हुई है । अतएव स्पष्ट है कि अष्टांग निमित्त ज्ञान में फलित ज्योतिष की प्रायः सभी बातें परिगणित हैं । अष्टांग निर्मित ने फलित सिद्धान्तों को विकसित और पल्लवित किया है। भारत में इसका प्रसार ई० मन् से पूर्व की शताब्दियों में ही हो चुका था। सीसी पर्यटक फाक्वीस बनियर भी इस बात का समर्थन करता है कि भारत में इस विद्या का विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ है ।
यह सत्य है कि अष्टांगनिमित्त विद्या भारत में जन्मी विकसित हुई और समृद्धिशाली हुई पर ज्ञान की धारा सभी देशों में प्रवाहित होती है। अतः ईस्वी सन् की आरम्भिक शताब्दियों में ग्रीस और रोम में भी निमित्त का विचार क्रिया जाता था । यहाँ प्रोस और राम का निमित्त विचार तुलना के लिए उद्धृत किया
जायेगा ।
ग्रीस - इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें बताया गया है कि सुकंम्प और ग्रहण लोगोनेसियन लड़ाई के पहने हुए थे। इसके सिवा एक्स रसेस ग्रीस से
1. देखें -- ज्योनिकरण्डक पुरु 200-205 : 2 इण्टर इण्डिज टिपर इण्डिया 2173. ज्योतिष रत्नाकर, प्रथम भाव, भूमिका: 4 Vol. XIII Lecture in objections p. 130