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प्रस्तावना
सिद्धि होती है।
पृच्छक से किसी फूल का नाम पूछकर उसकी स्वर संख्या को व्यंजन संख्या से गुणा कर दें; गुणनफल में पृच्छक के नाम के अक्षरों की संख्या जोड़कर योगफल में 9 का भाग दें। एक शेष में शीन कार्यासद्धि; 21510 में बिलम्ब से कार्यसिद्धि और 41618 शेष में कार्य नाश तथा अवशिष्ट शेष में कायं मन्द गति से होता है । पृच्छक के नाम के अक्षरों को दो से गणा कर गुणनफाल में 7 जोड़ दे । उस योग में 3 का भाग देने पर सम शेष में कार्य नाश और विषम शेष में कार्य सिद्धि फल कहना चाहिए।
पृच्छक के तिथि, वार, नक्षत्र संख्या में गभिणी के नाम अक्षरों को जोड़कर सात का भाग देने में एकाधिक शेष में रविवार आदि होते हैं। रवि, भौष और गुरुवार में पुत्र तथा सोम, बुध और शुक्रदार में कन्या उत्पन्न होती है। शनिवार उपद्रव कारवा है ।
इस प्रकार अष्टांग निमित्त का विचार हमारे देश में प्राचीन काल से होता आ रहा है। इस निमित्त ज्ञान द्वारा वर्षण-अवर्षण, सुभिक्ष-दुभिक्ष, मुग्नु दुःशु, लाभ, अलाभ, जय, पराजय आदि बातों का पहले से ही पता लगाकर व्यक्ति अपने लौकिक और पारलौकिक जीवन में सफलता प्राप्त कर लेता है।
अष्टांग निमित्त और ग्रीस तथा रोम के सिद्धान्त
जैनाचार्यों ने अष्टांग निमित्त का विकास स्वतन्त्र रूप से किया है। इनकी विचारधारा पर ग्रीस या रोम का प्रभाव नहीं है। ज्योतिषक रण्डक (ई०पू० 300-350) में लग्न का जो निरूपण किया गया है, उससे इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि जैनाचायों के ग्रीक सम्पर्क के पहले ही अष्टांप निमित्त का प्रतिपादन हुआ था । बताया गया है
सग्मं च दक्षिणाविस वेस वि अस्स उत्तरं अघणे । लग साई विसवेस पंचसू वि दक्षिणे अयणे ।।
इस पद्य में अस्म यानी अश्विनी और साई अर्थात् स्वाति ये विषुव के लग्न बताये गये हैं। ज्योतिषकर में विशेष अवस्था के नक्षत्रों को भी लग्न कहा है। यवनों के आगमन का पूर्व भारत में यही जैन लग्न प्रणाली प्रचलित थी। प्राचीन भारत में विशिष्ट अवरथा की राशि के समान विशिष्ट अवस्था के नक्षत्रों को भी लग्न कहा जाता था । ज्योतिषक रण्डक में व्यतीपात आनयन की जिस प्रक्रिया का वर्णन है वह इस बात की साक्षी है कि ग्रीक सम्पर्क से पूर्व ज्योतिष का प्रचार राशि प्रह, लग्न आदि के रूप में भारत में वर्तमान था । वहा गया है--