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त्रयोदशोऽध्यायः
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दक्षिन छीके धन ले दीजै, नैरित कोन सिहासन दीज।। पच्छिम छोंके मिठ भोजना, गेलो पलट वायब कोना ।। उत्तर छों के मान समान, सर्व सिद्ध ल कोन ईशान ।। पूरब छिवका मृत्यु हकार, अग्निकोन में दुःख के भार ।। सब के छिक्का कहिगेल 'डाक' अगने छिक्का नहिं करा काज ॥
आकाश छिक्के से नहाय, परम अन्द र नहि खाप ! अर्थात्--दक्षिण दिशा से होने वाली छींक धन हानि करती है, नैऋत्यकोण की छींक सिंहासन दिलाती है, पश्चिम दिशा की लीक मीठा भोजन और वायव्य
आठों दिशाओं में प्रहरानुसार छौंकफल बोधकचक्र
ईशान
आग्नेय
पूर्व | . लाभ
2. धनलाभ
1. हर्ष 2. नाश 3. व्याधि 4. मिश्रसंगम
I. लाभ | 2. पित्रदर्शन | 3. शुभवार्ता
4. अग्निभय
| 3. मित्रलाभ
! 4. अग्निभय
दक्षिण
1. लाभ
उत्तर 1. शत्रुभय 2. रिपुसंग 3. लाभ
यात्रा
2. मृत्यु भय 3. नाश
4. भोजन
4. बाल
नैऋत्य
वायव्यकोण 1. स्त्रीलाभ 2. लाभ
| पश्चिम ।।. दूरगमन
2. हर्ष ' 3. कलह
4. चौर
| 1. लाभ 2. मित्रभेट 3. शुभवात 4. लाभ
3. मित्रलाभ
4. दूरगमन