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त्रयोदशोऽध्यायः
देवतान् पूजयेत् वद्धान् लिगिनो ब्राह्मणान् गुरून् । परिहारेण नपती राज्यं मोदति सर्वतः ॥ 181॥
जो राजा देवता, वृद्ध, गुनि, ब्राह्मण, गुरु की पूजा करता है और समस्त बुराइयों को दूर करता है, वह सर्व प्रकार से आनन्दपूर्वक राज्य करता है । । 81 राजवंशं न वोच्छिद्यात् बालवृद्धांश्च पण्डितान् । श्रन्यायेनार्थान् समासाद्य सार्थो राजा विवद्ध ते 1182
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किसी राज्य पर अधिकार कर लेने पर भी उस राजवंश का उच्छेद---.. विनाश नहीं करना चाहिए तथा बाल वृद्ध और पंडितों का भी विनाश नहीं करना चाहिए। न्यायपूर्वक जो धनादि को प्राप्त करता है, वहीं राजा वृद्धिगत होता है | 1821
धर्मोत्सवान् विवाहांश्च सुतानां कारयेद् बुधः । न चिरं धारयेद् कन्यां तथा धर्मेण वर्द्धते ।।183॥ अधिकार किये गये राज्य में धर्मोत्सव करे, अधिकृत राजा की कन्याओं का विवाह कराये शोर उसकी कन्याओं को अधिक समय तक रखे, क्योंकि धर्मपूर्वक ही राज्य की वृद्धि होती है 1831
कार्याणि धर्मतः कुर्यात् पक्षपात विसर्जयेत् । व्यसनैविप्रयुक्तश्च "तस्य राज्यं विवर्द्धते ।।1841
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धर्मपूर्वक ही पक्षपात छोड़कर कार्य करे और सभी प्रकार के व्यसनजुआ खेलना, मांस खाना, चोरी करना, परस्त्रीसेवन करना, शिकार खेलना, वेश्यागमन करना और मद्यपान करना इन व्यसनों में अलग रहे, उसका राज्य बढ़ता है | 18411
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1. लिंगस्था
2 पहारं नृपनिदेद्यागजिनाम् दत्त राज्येन वर्धते । 4. सुखानां मु । चोरि-सुखप्रदः सु
शेंदते भू
यथोचितानि सर्वाणि यथा न्यायेन पश्यति । राजा कांति समाप्नोति परवेह च मोदते ॥185॥ यथोचित सभी को जो न्यायपूर्वक देखता है, वहीं राजकीति यश प्राप्त करता है और इह लोक और परलोक में आनन्द को प्राप्त होता है । 185
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। 3. न्यायेन स