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भद्रबाहुसंहिता
प्रवासाः पञ्च शुक्रस्य पुरस्तात् पञ्च पृष्ठतः । मार्गे तु मार्गसन्ध्याश्च वर्क वीथीसु निर्दिशेत् ||156 ||
शुक्र के सम्मुख और पीछे पाँच-पाँच प्रकार के अस्त हैं । मार्गी होने परं सन्ध्या होती हैं तथा दकी का कथन भी वीथियों में अवगत करना चाहिए ।।15611 त्रैमासिक: प्रवासः स्यात् पुरस्तात् दक्षिणे पथि । पञ्चसप्ततिर्मध्ये स्यात् पञ्चाशीतिस्तथोत्तरे |11570 चतुविशत्यहानि स्युः पृष्ठतो दक्षिणे पथि । मध्ये पञ्चदशाहानि षडहान्युत्तरे पथि ॥158|
दक्षिण मार्ग में शुक्र का सम्मुख वैमासिक अस्त है, मध्य में 75 दिनों का और उनर में 85 दिनों का अस्त होता है। दक्षिण मार्ग में पीछे की ओर 24 दिनों का, मध्य में पन्द्रह दिनों का और उत्तर मार्ग में 6 दिनों का अस्त होता है 11157 1581
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ज्येष्ठानुराधयोश्चैव द्वौ मासौ पूर्वतो विदुः असते बुधैः ॥15911
ज्येष्ठा और अनुराधा में पूर्व की ओर से द्विमास - दो महीनों की ओर पश्चिम से आठ रात्रि की सन्ध्या विद्वानों द्वारा प्रतिपादित की गयी है ।। 59
मूलादिदक्षिणो मार्गः फाल्गुन्यादिषु मध्यमः ।
उत्तरश्च भरण्यादिर्जघन्यो मध्यमोऽन्तिमौ ॥16031
गुलादि नक्षत्र में दक्षिण मार्ग, पूर्वाफाल्गुनी आदि नक्षत्रों में मध्यम और भरणी आदि नक्षत्र में उत्तर मार्ग होता है । इनमें प्रथम मार्ग जघन्य है और अंतिम दोनों मध्यम हैं 111601
वामो वदेत यदा खारों विशकां त्रिशकामपि । करोति नागवीयस्थो भार्गवश्चारमार्गगः ।।1611
नागवीथि में विचरण करने वाला बागगत शुक्र दश, बीस और तीस खारी अन्न का भाव करता है ।11610
विशका त्रिशका खारी चत्वारिंशतिकाऽपि वा । वामे शुक्रे तु विज्ञेया गजवीथीमुपागते ।।162।।
1 द्विभाग 12 कामोऽथ दशा सुरु | 3. मागंतः मु० ।