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भद्रबाहुसंहिता
व्याधय: प्रबला यत्र मात्यगन्धं न वायते।
आहूतिपूर्णकुम्भाश्च विनश्यन्ति भयं वदेत् ।।। 400 जहाँ व्याधियां प्रबन्न हों, माल्यगन्ध न मालूम पड़ती हो और आहूतिपूर्ण कलश-मंगल-कलश बिनाग को प्राप्त होत हों, वहीं भय होता है ।।140॥
नववस्त्र प्रसंगेन ज्वलते मधुरा गिरा।
अरुन्धती न पश्येत स्वदेहं यदि दर्पण ॥14॥ - यदि नबीन वस्त्र अकारण जन आध और मधुर वचन मुंह में निकले, अरुन्धती तारा दिखलाई नगड़े तो महान् भय अवगत करना चाहिए अर्थात् मृत्यु की सूचना गमलनी चाहिए ।। 14 ||
न पश्यति स्वकार्याणि परकार्यविशारदः । मैथुने यो निरक्तश्च न । सेवति मैथुनम् ।।1420 न मिचित्तो भूतेषु स्त्री वृद्धं हिसते शिशुम्।
विपरीतश्च सर्वत्र सर्वदा स भयावहः ।।। 43॥ जा परयं में तो ग्त हो, र स्व कार्य का मोबन न करता हो, मैथुन में संलग्न रहा पर भी भवन का गबन न करना हो, गित्र में जिगवा चिन आसक्त नहीं हो और जो ग्त्री, वृद्ध और गिःगुओं की हिमा करता हो तथा स्वभाव और प्रकृति में विपरीत जितन भी कार्य है, सब याद हैं ।।।42-14311
अभीक्ष्णं चापि सुप्तस्य निरुत्साहाविलम्बिनः ।
अलक्ष्मीपूर्णचित्तस्य प्राप्नोति स महद्भयम् ।।।4411 जो निरन्तर गोने वाला है निम्त्याही है और धा ग रहित है, उग महान् गय की प्राप्ति होती है । 14-1||
ऋज्यादा शकु। यत्र बहशो विकृतस्वनाः ।
तत्रंन्द्रियार्थविणा' श्रिया हीनाश्च मानवा: 11145।। नहीं मांगना १४ी अत्यधिवा दिन स्वर बाल हों वहां मना इन्द्रियों के अर्थो को ग्रहण करने काका में हान ना माग गति होत हैं। अर्थात् वहाँ अज्ञातना और निर्धनता नियम करती है ।। [4511
निपात द्रमश्छिन्नो 'स्वप्नेकामयलक्षणम् । रत्नानि यस्य नश्यन्ति बहश: प्रज्वन्ति वा ।।1461
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