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भद्रबाहुसंहिता
मन्दोदा: प्रथमे मासे पश्चिमे ये च कीर्तिताः ।
शेषा बहूदका ज्ञेया: प्रशस्तैर्लक्षणर्यवा ॥33॥ पहले दिन मेघगर्मों का निरूपण किया है, उनमें से उपर्युक्त मेघगर्भ पहले महोने में कम जल को वर्षा करते हैं, अवशेष प्रशस्त-शुभ लक्षणों के अनुसार अधिक जल की वर्षा करते हैं ।।3314
यानि रूपाणि दश्यन्ते गर्भाणां यत्र यत्र च ।
तानि सर्वानि जेयानि भिक्ष णां भैक्षतिनाम् ।।34॥ मेघगर्भो का जहाँ-जहाँ जो-जो रूप दिखाई देता हो, मधुकरीवृत्ति करने वाले साधु को वहां-वहाँ उसका निरीक्षण करना चाहिए ।। 3411
सन्ध्यायां यानि रूपाणि मेघेष्वभ्रषु यानि च ।
तानि गर्नेषु सर्वाणि यथावदुपलक्षयेत् ।।35॥ मेघों का जो रूप सन्ध्या समय में हो, उनका गर्भकाल में अवस्था के अनुसार निरीक्षण करना चाहिए ॥3541
ये केचिन् विपरीतानि पठ्यन्ते तानि सर्वशः।
लिंगानि तोयगर्भेषु भयदेषु भवेत् तदा ।।36॥ प्रतिपादित शुभ चिह्नों के विपरीत चिह्न यदि दिखलाई पड़ें तो उन चिह्नों वाला मेघगर्भ भय देने वाला होता है 136
गर्भा यत्र न दृश्यन्ते तत्र विन्द्यान्महद्भयम् ।
उत्पन्ना वा स्रवत्याशु भद्रबाहुवचो यथा 137॥ जहाँ मेघगर्भ दिखलाई नहीं पड़ें, यहाँ अत्यन्त भय समझना चाहिए । उत्पन्न हुई फसल शीघ्र नष्ट हो जाती है, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ॥37।।
निर्ग्रन्था यन गर्भाश्च न पश्येयुः कदाचन ।
तं च देशं परित्यज्य सगर्भ संश्रयेत् त्वरा ॥38॥ निम्रन्थ मुनि जिस देश में मेघमर्भ न देखें, उस देश को छोड़कर शीघ्र ही। उन्हें मेघगर्भ वाले अन्य देश का आश्रय लेना चाहिए ।। 38।।
इति श्रीभद्रबाहु के संहितायां सकलमुनिजनानन्द नद्रबाहुविरचिते महान मित
शास्त्रे गर्भवातलक्षणं द्वादशमं परिसमाप्तम् ।
1. यथावस्थ निक्षयेस भु० । 2. तपेशं प्रथम त्या त्या सगर्भ रित प्रयत् मु० ।