Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व र कृतित्व ]
सम्यक्त्वी व मिथ्यात्वो के परिणामों में श्रन्तर
शंका-नवरीवेयक में प्रयलिंगी और भावलिंगी दोनों प्रकार के मुनि जाते हैं। वहाँ पर उन दोनों के भावों में क्या अन्तर रहता है ?
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समाधान - नवग्रैवेयक तक सम्यग्दृष्टि व मिध्यादृष्टि दोनों प्रकार के देव होते हैं । मिथ्यादृष्टि देव के मिध्यात्वरूप भाव होते हैं अर्थात् अतत्त्व श्रद्धान होता है । सम्यग्वष्टि देव को तत्त्वों का यथार्थं श्रद्धान होता है ।
जिनको अनेकान्त का यथार्थ श्रद्धान नहीं है अर्थात् एक ही वस्तु में परस्पर दो विरोधी धर्मों को स्वीकार नहीं करते वे मिध्यादृष्टि हैं जो वस्तु को भेद - अभेदरूप, नित्य-अनित्यरूप इत्यादिक अनेकान्तरूप स्वीकार नहीं करते वे मिध्यादृष्टि हैं ।
इसी प्रकार जो " सव्वपयस्था सपडिवक्खा" अर्थात् सब पदार्थ प्रतिपक्षसहित हैं इस सिद्धान्त की श्रद्धा नहीं करता, वह मिथ्यादृष्टि है । जैसे यदि जीव पदार्थ है तो उसका प्रतिपक्षी अजीव पदार्थ भी अवश्य है । यदि भव्य - जीव है, तो अभव्यजीव भी होना चाहिये । यदि मुक्त जीव है तो संसारी जीव भी अवश्य होना चाहिये । एक के अभाव में दूसरे का अभाव अवश्यंभावी है । इसी प्रकार यदि नियतपर्याय है तो अनियतपर्याय अवश्य है । एक के प्रभाव में दूसरे का अभाव हो जायगा । ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।
'जिन्होंने अतीत काल में कदाचित् भी त्रस परिणाम नहीं प्राप्त किया है, वैसे अनन्त जीव नियम से हैं, अन्यथा संसार में भव्य जीवों का अभाव होता है । और अभव्यों का अभाव होने पर अभव्य जीवों का अभाव प्राप्त होता है । और वह भी है नहीं, क्योंकि उनका अभाव होने पर संसारी जीवों का भी अभाव प्राप्त होता है । और यह भी नहीं संसारी जीवों का प्रभाव होने पर असंसारी (मुक्त) जीवों के अभाव का प्रसंग आता है । संसारी जीवों का अभाव होने पर असंसारी जीव भी नहीं हो सकते, क्योंकि सब पदार्थों की उपलब्धि सप्रतिपक्ष होती है । इस सिद्धान्त की हानि हो जायगी' सव्वस्स सपप्पडिवक्खस्स उवलंमण्णहाणुववत्तीवो । ( धवल पु० १४ पृ० २३४ )
इस प्रकार मिध्यादृष्टि और सम्यग्दष्टि देवों के परिणामों में बहुत अन्तर होता है ।
--- जै. ग. 4-9-69 / VII / रोहतक समाज
व्यवहार क्रियाएं भेदविज्ञान की कथंचित् कारण हैं
शंका- क्या व्यवहारक्रिया भदविज्ञान का कारण है, यदि है तो कैसे ?
समाधान - मिथ्यात्व कर्मोदय के कारण जीव को भेदविज्ञान नहीं हो सकता है । व्यवहारक्रिया से मिथ्यात्व कर्म का क्षय होता है अतः जिनबिम्ब दर्शन आदि व्यवहारक्रिया भेदविज्ञान का कारण है । कहा भी है
"कधं जिबिबसणं पढमसम्मत्तप्पत्तीए कारणं ? जिर्णाबबबंसरगेण धित्तणिकाचिवत्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्तं खयर्व सणादो ।" धवल १० ६ पृ० ४२७
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जिनबिम्ब का दर्शन प्रथमसम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण किस प्रकार होता है ? जिनबिंब के दर्शन से निघत्त और निकाचितरूप भी मिध्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्ब का दर्शन प्रथमसम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण है ।
- जै. ग. 23-1-69 / VII / रोशनलाल
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