Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 646
________________ १५१० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ! समाधान-श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तत्त्वार्थसार ग्रन्थ में कहा है कि पुण्य और पाप दोनों ही संसार के कारण हैं, किन्तु उन्हीं श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने प्रवचनसार गाथा ४५ की टीका में यह कहा है कि अरहंत पद पण्य रूप कल्प वृक्ष का फल है। यद्यपि एक ही आचार्य के इन दोनों कथनों में परस्पर विरोध दिखलाई देता है तथापि विवक्षा भेद से इन दोनों कथनों में भेद हो सकता है, क्योंकि वीतराग प्राचार्य के कथनों में परस्पर विरोध नहीं होता है। ___पुण्य दो प्रकार का है-एक सातिशयपुण्य और दूसरा निरतिशयपुण्य ।' इनमें से सातिशयपुण्य तो मोक्ष का कारण और निरतिशयपुण्य मुख्यता से संसार का कारण है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तत्त्वार्थसार में पुण्य को संसार का कारण कहा है, वह निरतिशयपुण्य की अपेक्षा कथन है । और प्रवचनसार में पुण्य का फल अरहंतपद बतलाया है वह सातिशयपुण्य की अपेक्षा कथन है। इसप्रकार निरतिशयपुण्य और सातिशयपुण्य की विवक्षा भेद होने से उनके फल के कथन में भेद हो गया है। जो निरतिशयपुण्य और सातिशयपुण्य की विवक्षा को नहीं जानते वे ही पुण्य को सर्वथा संसार का कारण कहते हैं। सातिशयपुण्य मोक्ष का कारण है इस सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रार्षग्रन्थों के कुछ प्रमाण उपस्थित किये जाते हैं "पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्, तत्सद्यादि ।" सर्वार्थ सिद्धि अर्थ-जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे प्रात्मा पवित्र होता है वह पुण्य है, जैसे सातावेदनीयादि अर्थात् पुण्यकर्मप्रकृतियाँ आत्मा की पवित्रता में कारण हैं । "पुण्यप्रकृत्यस्तीर्थपदादिसुखखानयः।" मूलाचार प्रदीप अर्थ-पुण्यकर्मप्रकृतियां तीर्थकर आदि पदों के सुख को देनेवाली हैं। श्री विद्यानन्द आचार्य ने भी अष्टसहस्री में कहा है "मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशय चारित्रविशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव संभवात् ।" [कारिका ८८ को टीका] अर्थ-परमपुण्य के अतिशय से तथा चारित्ररूप पुरुषार्थ से इन दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहाँ पर महान् ताकिकाचार्य श्री विद्यानन्द ने यह बतलाया है कि मोक्ष मात्र रत्नत्रय से ही नहीं प्राप्त होता है, किन्तु रत्नत्रयरूपी पुरुषार्थ को परम पुण्यकर्मोदय की सहकारता की भी आवश्यकता है । इसप्रकार पुण्यकर्म भी मोक्ष प्राप्ति में अत्यन्त उपयोगी है। इसी बात को पंचास्तिकाय गाथा ८५ की टीका में भी कहा गया है "रागादिदोषरहितः शुद्धात्मानुभूतिसहितो निश्चयधर्मो यद्यपि सिद्धगतेरुपादानकारणं भव्यानां भवति तथापि निदानरहितपरिणामोपाजित तीर्थकरप्रकृत्युत्तमसंहननादिविशिष्टपुण्यरूपकर्मापि सहकारीकारणं भवति ।" अर्थ-रागादिदोषरहित शुद्धात्मानुभूतिरूप निश्चयधर्म भव्यों को सिद्धगति के लिये यद्यपि उपादान कारण है तथापि निदानरहित परिणामों द्वारा उपाजित तीर्थकरप्रकृति उतमसंहनन आदि विशिष्ट पुण्य सिद्धगति के लिये सहकारी कारण है। १. "संसारकारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषतः । न नाम निश्वयेनास्ति विशेषः पुण्यपापयोः ॥१०४॥ २. "अर्हन्तः खलु सकलसम्यकपरिपक्यपुण्यकल्पपादपकला एव भवन्ति ।" (प्रयवनसार) 3. "पुण्ण पुवायरिया दुविह अक्खति सत्तउत्तीए । मिच्छ पउत्तेण कयं विवरीय सम्मजुत्तेण ||3EET' (भावसंग्रह) त: । न नाम नियोकावन्ति । सयममा nagar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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