Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 645
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १५०९ जिस प्रकार सिद्धों में पुण्य का अभाव है उसी प्रकार उनमें ध्यानका तथा भव्यत्व भावका भी प्रभाव है। . 'बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥ औपशमिकादिभव्यत्वानां च ॥३॥" पुण्य नाशवान है, इस अपेक्षा से यदि पुण्य को हेय कहा जाता है तो औपशमिकसम्यक्त्व प्रादि तथा कारणसमयसार को भी हेय कहना पड़ेगा क्योंकि ये भी विनश्वर हैं। यदि मोक्ष के कारण की अपेक्षा से औपशमिक सम्यक्त्व आदि भावों को तथा कारण समयसार को उपादेय माना जाता है तो पुण्य को भी मोक्ष मार्ग में सहकारी कारण की अपेक्षा से उपादेय मानना पड़ेगा। मोक्षमार्ग में पाप बाधक है, अतः वह उपादेय नहीं हो सकता है। पाप के समान पुण्य को भी सर्वथा अनुपादेय मानना उचित नहीं है। जिसप्रकार कारणसमयसार किसी अपेक्षा से उपादेय और किसी अपेक्षा से देय है. उसीप्रकार सातिशयपण्य भी मोक्षमार्ग में सहकारीकारण की अपेक्षा से उपादेय है। मोक्ष प्राप्त हो जाने पर कारणसमयसार का अभाव हो जाता है उसीप्रकार मोक्ष प्राप्त होने पर पुण्य का भी प्रभाव हो जाता है। अतः नाशवान की अपेक्षा से जिसप्रकार कारणसमयसार हेय है उसीप्रकार पुण्य भी हेय है। प्रभी पञ्चमकाल में पुण्य-पाप दोनों से रहित मोक्ष अवस्था तो प्राप्त हो नहीं सकती, क्योंकि शुक्लध्यान का अभाव है। अत्रेदानी निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः। धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ॥२ इससमय पञ्चमकाल में जिनेन्द्रदेव शुक्ल ध्यान का निषेध करते हैं किंतु श्रेणी से पूर्व में होने वाले धर्मध्यान का अस्तित्व बतलाया है। धर्मध्यान शुभोपयोग है और पुण्यरूप है। इसप्रकार जिनेन्द्रदेव ने पञ्चमकाल में पुण्य-पाप से रहितावस्था का निषेध करके पुण्य का अस्तित्व बतलाया है। अशुभकर्म दुःख उत्पन्न करता है और शुभकर्म सुख उत्पन्न करता है। जो इस अशुभ ( पाप ) को नाश करने के भाव से तप करते हैं संयम धारण करते हैं ऐसे योगी भी दुर्लभ हैं । जो पुण्य और पाप दोनों ही प्रकार के कर्मों का नाशकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं ऐसे योगियों की तो बात ही क्या करनी ? अर्थात् वे वर्तमानकाल व क्षेत्र में असम्भव हैं। किन्तु अशुभ में (पाप में) प्रवृत्ति करने वाले सुलभ हैं। प्राचीन दिगम्बर जैनाचार्यों का इतना स्पष्ट कयन होने पर भी जो सातिशयपुण्य को सर्वथा अनुपादेय बतलाकर जनता को धर्म से विमुख कर रहे हैं उनकी क्या गति होगी, इसको वे ही जाने ? निरतिशयपुण्य मुख्यता से संसार का कारण होने से यद्यपि हेय है तथापि दुर्गति से बचाता है, शुभगति में उत्पन्न कराता है जहाँ पर जैनधर्म के समागम का अवसर मिलता रहता है जिससे सम्यक्त्त्वोत्पत्ति सम्भव है, अतः इस अपेक्षा कथंचित् उपादेय भी है। शंका-पुण्य सोने की बेड़ी है और पाप लोहे की बेड़ी है, किन्तु पुण्य और पाप दोनों ही बेड़ी होने से संसार के ही कारण हैं। फिर पुण्य मोक्ष का कारण कैसे हो सकता है ? १ मोक्षशास्व अध्याय १०। २. तत्वानुसासन गा० ॥१॥ 3. सुह धामं निणवारदेहि ॥ ( भावपाहुड़ गा0 ७६ ) । ४. अमितगति सामायिक-पाठ लोक 10॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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