Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १०५६
मिथ्यात्वरूप परिणम जावे और न सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से दर्शनमोह का बन्ध होता है, क्योंकि सम्यक्त्वप्रकृति । और सम्यग्मिध्यात्वप्रकृति बंधयोग्य नहीं है, मात्र मिथ्यात्वप्रकृति ही बन्ध योग्य है। जिसका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थान में होता है। सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से सम्यग्दर्शन का घात भी नहीं होता, क्योंकि इसमें सर्वधाती स्पर्टकों का अभाव है। कहा भी है-"यदि यह कहा जावे कि सम्यक्त्वप्रकृति दर्शनमोह कर्म के तीन भेदों में से एक भेद है-कर्म विशेष है। यह सम्यग्दर्शनरूप कैसे हो सकता है, क्योंकि सम्यक्त्व तो भव्यजीव का परिणाम है और वह परिणाम विकाररहित सदा प्रानन्दमयी एक लक्षण को रखनेवाले परमात्मतत्त्व आदि के श्रद्धानस्वरूप है तथा मोक्ष का बीज है। ऐसा कहना ठीक नहीं है। यद्यपि सम्यक्त्वप्रकृति दर्शनमोहकर्म का ही भेद है, तथापि जैसे विष का विष मर जाने पर अर्थात् फूका हमा संखिया किसी के मरण का कारण नहीं हो सकता, तैसे ही मंत्र के समान शुद्धात्मभावनारूप परिणाम विशेष की शुद्धि से मिथ्यात्वकर्म में मिथ्याभाव करने की शक्ति को नष्ट कर देती है। तब उस कर्म समूह को, जिसमें मिथ्यात्वभाव नष्ट हो गया है, सम्यक्त्वप्रकृति कहते हैं । यह सम्यक्त्वकर्मप्रकृतिविशेष, क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण लब्धियों से उत्पन्न प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन के पश्चात् होने वाले वेदकसम्यग्दर्शन स्वभावरूप तत्त्वार्थश्रद्धानरूप, जीव के परिणाम को नहीं मार सकता है।" समयसार गाया ३२८ के पश्चात् तात्पर्यवृत्ति में दी हुई गाथा पर श्री जयसेनस्वामी की टोका।
कषायपाहुडसुत्त पृ० ६३४ पर गाथा १०२ में कहा है-"वेदकसम्यग्दृष्टि अर्थात् दर्शनमोह की सम्यक्त्वप्रकृति के उदय को वेदन करनेवाला जीव दर्शनमोह का प्रबन्धक है।" दर्शनमोह की सम्यक्त्वप्रकृतिरूप द्रव्यमोह के उदय होने पर भी जीव वेदकसम्यग्दृष्टि होता है; क्योंकि उसके भावमोह अर्थात् मिथ्यात्व नहीं होता और दर्शनमोह का बन्ध भी नहीं होता। इसप्रकार जयधवल और प्रवचनसार के कथन में कोई मतभेद नहीं है।
-जै. ग. 28-3-63/nX/प्यारेलालमी कर्मबन्ध कथंचित् अनादि, कथंचित् सादि/कर्मबन्ध अहेतुक नहीं शंका-कर्मबन्ध को यदि सादि माना जाय तो यह दोष आता है कि मारमा कर्मबन्ध से पूर्व शुद्ध थी और शुद्धात्मा के कर्मबन्ध होता नहीं है, अन्यथा सिद्ध भगवान के कर्मबन्ध का प्रसंग आजायगा। इससे सिद्ध होता है कि जीव के साथ कर्मबन्ध अनादि है और अनादि में हेतु अर्थात् कारण का प्रश्न नहीं होता है, क्योंकि जो सहेतु होता है वह अनादि नहीं हो सकता जैसे घट आदि । जो अनादि होते हैं वे निहेतु होते हैं जैसे मेरु आदि । अतः कर्मबंध अनादि व अहेतुक हैं । यही श्री पं० कैलाशचन्द्रजी ने 'जनसंदेश' में लिखा था। श्री पं० जीवन्धरजो ने इसका खण्डन क्यों किया है ?
समाधान-यह सत्य है कि कर्मबंध को सर्वथा सादि मानने से शुद्धास्मा अर्थात् सिद्ध भगवान के कर्मबंध का प्रसंग आता है अथवा रागद्वेष आदि को अकारणपने का तथा जीवस्वभाव का प्रसंग आजायगा। शुद्ध-प्रात्मा के कर्मबंध नहीं होता, क्योंकि सिद्धपर्याय सादि-अनन्त है। कहा भी है
'सादिनित्यपर्यायाथिको यथा सिद्धपर्यायो नित्यः।' आलापपद्धति
'त एव क्षायिक मावेन साद्यनिधनाः न च सावित्वात्सनिधनत्वं क्षायिकभावस्याशक्यम् । स खलपाधिनिवृत्ती प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव जीवस्य, सद्भावेन चानंता एव जीवाः प्रतिज्ञायते ।
पंचास्तिकाय गाथा ५३ टीका यहाँ यह बतलाया गया है कि सिद्धपर्याय के समान क्षायिक भाव का भी कभी नाश नहीं होता है, क्योंकि उपाधि की ( कर्मबंध की ) निवृत्ति होने पर क्षायिकभाव उत्पन्न होता है ।
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