Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
११५८ ]
[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
गुणी व गुण में तादात्म्यता तथा कथंचित् भेदा भेद शंका-गुणी में गुण सर्वांग में व्यापकरूप से रहते हैं या एक देश में ? यदि गुणी में गुण सर्वांग में व्यापक हैं तो गुण में गुणी व्यापक मानना पड़ेगा, गुण और गुणी में भिन्नता किसप्रकार है ?
समाधान-गुण और गुणी का तादात्म्यसम्बन्ध है । अतः गुणी में गुण सर्वांग व्यापक है। कहा भी है'आरमा हि समगणपर्यायं द्रव्यम् इति वचनात ज्ञानेन सहहीनाधिकत्व-रहितत्वेन परिणतत्वात्तत्परिमाणः।'
प्रवचनसार गा. २३ टीका। द्रव्य गुण और पर्याय के बराबर है हीनाधिक नहीं है इस आर्षवचन के अनुसार प्रात्मा अपने ज्ञान गुण से हीन अधिकरूप न होकर परिणमित होता है, अत: प्रात्मा ज्ञानप्रमाण है। यदि ज्ञान को आत्मा के बराबर न माना जाय तो हीन होने पर आत्मा के अचेतनपना आजायेगा। यदि अधिक माना जाय तो ज्ञान के अचेतनपना आजायगा। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी इसी बात को कहा है
णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आवा। हीणो वा अहिओ वा गाणावो हववि धुवमेव ॥२४।। हीणो जवि सो आदा तण्णाणमवेदणं ण जाणादि।
अहिओ वा णाणावो गाणेण विणा कह जाणादि ॥२५॥ प्र० सा० इस जगत में जिसके मत में आत्मा ज्ञानप्रमाण नहीं है, उसके मत में वह आत्मा अवश्य ज्ञान से हीन हो अथवा अधिक होना चाहिये । यदि वह प्रात्मा ज्ञान से हीन हो तो वह ज्ञान अचेतन होने से नहीं जानेगा और यदि ज्ञान से अधिक हो तो ज्ञान के बिना अचेतन हो जाने से आत्मा कैसे जानेगा?
गुणी में अनन्त गुण हैं अतः गुणी किसी भी एक गुण के आश्रय होकर नहीं रहता है, किन्तु गुण-गुणी के आश्रय होकर रहता है।
द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः ॥ ॥४१॥ [ तत्त्वार्थसूत्र ] जो निरन्तर द्रव्य में रहते हैं और स्वयं अन्य गुणों से रहित हैं वे गुण हैं । "यद्यपि कथञ्चिद् व्यपदेशाविभेद-हेत्वपेक्षया द्रव्यावन्ये, तथापि तवव्यतिरेका तत्परिणामाच्च ।"
[स. सि. ५४२ ] यद्यपि संज्ञा, संख्या, लक्षण तथा प्रयोजन की अपेक्षा गुण-गुणी में कथंचित् भेद है तथापि द्रव्य के परिणाम की अपेक्षा गुण-गुणी में भेद नहीं है।
"गुण गुणीकोः प्रविभक्त प्रदेशत्वाभावात् ।" [ प्रवचनसार गा० १०६ टोका ] गुण और गुणी में भिन्न प्रदेशत्व का अभाव है अर्थात् जो गुणी के प्रदेश हैं वे ही गुण के प्रदेश हैं । "एवमपि तयोरन्यत्वमस्ति तल्लक्षण सद्भावात् ।" [ प्रवचनसार गा० १०६ ]
गुण-गुणी में प्रदेश भेद न होने पर भी गुण-गुणी में अन्यत्व है, क्योंकि अन्यत्व का लक्षण असद्भाव उनमें पाया जाता है।
-जं. ग. 6-11-69/VII/ रो. ला. जन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org