Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
जहाँ पर अनुभूति को लब्धिउपयोग रूप कहा हो वहाँ पर अनुभूति का अर्थ 'ज्ञान' जानना चाहिए । क्योंकि प्रतीति अर्थात् श्रद्धा लब्धिउपयोग रूप नहीं होती ।
- बॅ. ग. 14-10-65/X/ ब्र. पन्नालाल श्रवस्थान काल व प्रवेशान्तर काल की सोदाहरण परिभाषाएँ
शंका- ध० पु० ७ पृ० ४६९ के 'जिस मार्गणा व जिस गुणस्थान का अवस्थान काल से प्रवेशान्तर काल दीर्घ होता है।' इस वाक्य का क्या अभिप्राय है ?
समाधान - लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य मार्गणा में एकजीव का अवस्थानकाल क्षुद्रभव है और प्रवेशान्तरकाल पल्योपम का श्रसंख्यातवभाग है जो अवस्थानकाल से अधिक है । यदि कोई भी जीव लब्ध्यपर्याप्तकमनुष्यों में उत्पन्न न हो ( प्रवेश न करे ) तो उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवेंभागकालतक उत्पन्न न हो श्रतः प्रवेशांतर काल पत्योपम का असंख्यातवाँभाग बतलाया है । ध. पु. ७ पृ. ४८१ सूत्र १० ।
इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी का एक जीव का अवस्थान काल अन्तर्मुहूर्त है और प्रवेशांतर काल उत्कृष्ट रूप से १२ मुहूर्त है- धवल पु. ७ पृ. ४८५ सूत्र २६ । इसीप्रकार आहारककाययोगी श्राहारकमिश्र काययोगी के विषय में पृ० ४८ सूत्र २९ से जान लेना चाहिये ।
दूसरे गुणस्थान में एक जीव का अवस्थानकाल छहश्रावली है और तीसरेगुणस्थान में श्रवस्थानकाल अन्तर्मुहूर्त है, किंतु प्रवेशांतरकाल दोनों का पल्य का असंख्यातवाँ भाग है । ध. पु. ७ पृ. ४९३ सूत्र ६२ ।
इसीप्रकार बारहवेंगुणस्थान व चौदहवेंगुणस्थान में एक जीवका अवस्थानकाल अन्तर्मुहूर्त है और प्रवेशांतरकाल छह माह है । ध. पु. ५ पृ. २१ सूत्र १७ ।
विवक्षितमार्गणा या गुणस्थान में एकजीव का उत्कृष्टकाल अवस्थानकाल है और नानाजीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल 'प्रवेशांतरकाल' है ।
- बॅ. ग. 20-4-72 / IX / यत्रपाल
वहारकाल एवं प्रतिभाग
शंका- अवहारकाल, प्रतिभाग का क्या अर्थ है ?
समाधान- 'अवहारकाल' जिससे भाग दिया जाय। जिस संख्या से गुणा या भाग दिया जाय उस संख्या का जो भाग होता है उसको प्रतिभाग कहते हैं । जैसे—ध. पु. ३ पृ. २९८ पर लिखा है - ' आवली के असंख्यातवेंभाग का संख्यातवां भाग गुणाकार है ।' यहां पर 'संख्यातवां भाग' प्रतिभाग है ।
-जै. ग. 7-12-67/ VII / र. ला. जैन
'इर्यात पर्यायान्' का अर्थ
शंका-स० सि० अ० १ सूत्र १७ की टीका के नवीनसंस्करण में
किन्तु पूर्वसंस्करण में ' पर्यायों को प्राप्त होता है' ऐसा लिखा है। इन दोनों में कौनसा अर्थ ठीक है ?
समाधान - सर्वार्थसिद्धि में मूलपाठ इसप्रकार है
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'इर्यात पर्यायांस्तवते इत्यर्थो द्रव्यम् '
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लिखा है 'पर्यायों से प्राप्त होता है',
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