Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४७१
इस प्रकार निर्विकल्प समाधि में स्थित अन्तरात्मा ( पुण्यजीव ) को हेय बतलाया गया है। यदि कोई इस उपदेश को एकान्त से ग्रहण करले और पुण्यजीव अर्थात् अन्तरात्मा को हेय जान त्याग करदे तो उसका परिणाम यह होगा कि वह स्वयं तो बहिरात्मा अर्थात् मिथ्यादृष्टि अथवा पापात्मा हो जायगा और पुण्य को हेय बतलाकर दूसरों को भी मिथ्यादृष्टि बना देगा |
स्याद्वादी इस उपदेश को अनेकान्त दृष्टि से ग्रहण करके अन्तरात्मा अर्थात् पुण्यजीव को परमात्मा की पेक्षा हेय मानते हुए भी बहिरात्मा अर्थात् मिथ्यात्व अथवा पाप की अपेक्षा परमोपादेय मानता है । उसको प्राप्त करने अथवा उसमें स्थित रहने का निरन्तर वह प्रयत्न करता है । क्योंकि अन्तरात्मा ( पुण्य ) परमात्मा होने का साधन है ।
जितना मिथ्यात्व और सम्यक्त्व में अन्तर है उतना ही पाप और पुण्य में अन्तर है । पुण्य और पाप के लक्षण में भेद है इसलिये भी पुण्य और पाप में अन्तर है । जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे श्रात्मा पवित्र होती है वह पुण्य है । जो आत्मा को शुभ से बचाता है वह पाप है । ( सर्वार्थसिद्धि ६।३ )
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शंका- सम्यष्टि नारकी पापी है और मिथ्यादृष्टि देव पुण्यात्मा है । अतः सम्यग्दृष्टि को पुण्यजीव और मिथ्यादृष्टि को पाप जीव कहना उचित नहीं है ।
समाधान - सम्यग्दृष्टि नरक के दुख भोगता हुप्रा भी पुण्यात्मा है, क्योंकि उसको वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि स्वर्ग के सुख भोगता हुआ भी पापात्मा है, क्योंकि उसको वस्तुस्वरूप का यथार्थ श्रद्धान नहीं है ।
इसी बात को 'परमात्मप्रकाश' गाथा २२५८ की टीका में कहा है
'सम्यक्त्वरहिता जीवाः पुण्यसहिता अपि पापजीवा भव्यन्ते । सम्यक्त्वसहिताः पुनः पूर्वभवान्तरोपार्जित पापफलं भुञ्जाना अपि पुण्यजीवा भण्यन्ते ।'
श्रजीवपुण्य और अजीवपाप दोनों पुद्गल द्रव्यमय हैं और जीव के परिणामों से इनका बंध होता है, इसलिये प्रजीव - पुण्य और अजीव पाप दोनों समान हैं । किन्तु अजीव पुण्य मोक्षमार्ग में सहकारी कारण है, क्यों उच्चगोत्र के उदय के बिना सकलचारित्र धारण नहीं हो सकता और वज्रवृषभनाराच संहनन के बिना मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता, जबकि अजीवपाप मोक्षमार्ग में बाधक है, क्योंकि नीचगोत्र के उदय में सकलचारित्र नहीं हो सकता और हीन - संहननवाला कर्मों का क्षय नहीं कर सकता । मोक्षमार्ग में सहकारिता और बाधकता के कारण 'पुण्य' और 'पाप' कर्म प्रकृतियों में अन्तर है । यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि देव भी यह वांछा करता है कि कब उत्तम संहननवाला मनुष्य बनू और सकलचारित्र धारण कर मोक्ष प्राप्त करू ।
मवईए वि तओ, मनुवगईए महत्वदं सयलं ।
मवईए शाणं, मणुवगईए वि णिव्वाणं ॥ २९० ॥ ( स्वा० का० )
अर्थ - मनुष्यगति में ही तप होता है । मनुष्यगति में ही समस्त महाव्रत होते हैं। मनुष्यगति में ही ध्यान होता है । मनुष्यगति से ही मोक्ष होता है ।
इस प्रकार सम्यग्दृष्टि भी मोक्ष के साधनरूप मनुष्यगति आदि अजीवपुण्य की इच्छा करता है । वह इच्छा सांसारिक सुख की वांछा न होने से निदान नहीं है, किन्तु मोक्ष की कारण है। कहा भी है
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