Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१४७२ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अशुभाच्छुभमायातः शुद्धः स्यादयमागमात् । रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुदगमः॥१२२॥
ननु ज्ञानाराधनापरिणतस्य तपः श्रुत-विषयरागेन रागित्वात्कथं मुक्तत्वं स्यात् इत्याशंक्याह
विधूततमसो रागस्तपः श्रुतनिबन्धनः ।
सध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय सः ॥१२३॥ ( आत्मानुशासन ) श्लोकार्थ-यह भव्य आगम ज्ञान के प्रभाव से अशुभ से शुभ को प्राप्त होता हुआ समस्त कर्म-मल से रहित होकर शुद्ध हो जाता है। जैसे सूर्य जब तक प्रभात काल की लालिमा को नहीं प्राप्त होता है तब तक वह अन्धकार को नष्ट नहीं करता।
यहाँ प्रश्न होता है कि ज्ञान-आराधना-परिणत जीव के तप और श्रुत सम्बन्धी राग होने से, उसको मुक्ति कैसे हो सकती है, क्योंकि वह रागी है ? इस शंका का प्राचार्य उत्तर देते हैं
श्लोकार्थ-मिथ्याज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट कर देनेवाले प्राणी के अर्थात् सम्यग्दृष्टि के जो तप और शास्त्र-विषयक अनुराग होता है, वह राग उस सम्यग्दृष्टि के स्वर्ग व मोक्ष के लिये होता है अर्थात् स्वर्गमोक्ष का कारण है। जिस प्रकार सूर्य की प्रभातकालीन लालिमा उस सूर्य की अभिवृद्धि का कारण होती है ॥१२३।।
श्री वीरसेन आचार्य ने भी 'जयधवल' ग्रन्थ में यही बात कही है
'लोहो सिया पेज्जं, तिरयण साहणविसयलोहादो सग्गापवग्गाणमुप्पत्ति-दसणादो अवसेसवत्थु-विसयलोहो णो पेज्जं, तत्तो पावुप्पत्तिदंसणादो ॥ (ज० ध०१पृ० ३६९)
श्री ५० कैलाशचन्द्रजी तथा श्री पं० फूलचन्द्रजी कृत अर्थ-लोभ कथंचित् पेज्ज ( राग ) है, क्योंकि रत्नत्रय के साधक-विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है तथा शेष पदार्थ-विषयक लोभ पेज्ज नहीं है, क्योंकि उससे पाप की उत्पत्ति देखी जाती है ।
इन प्रार्ष प्रमाणों से सिद्ध है कि सम्यग्दृष्टि भी मोक्ष के साधनभूत पुण्य की इच्छा करता है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य स्वयं पुण्य-पाप का अन्तर बतलाते हुए कहते हैं
वरं वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरई इयरेहिं ।
छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ॥ २५ ॥ ( मोक्ष-पाहुड़) अर्थ-व्रत और तप रूप शुभ भावों से [ पृण्य भावों से ] स्वर्ग प्राप्त होना उत्तम है तथा प्रव्रत और प्रतप [ अशुभ भाव, पाप भाव ] से नरक में दुख प्राप्त होना ठीक नहीं है। जैसे छाया और धूप में बैठने वालों में महान् अन्तर है, वैसे ही व्रत [शुभ] और अव्रत [अशुभ] पालने वालों में महान् अन्तर है ।
__ यद्यपि जीवत्व भाव की अपेक्षा से संसारी और मुक्त जीव समान हैं तथापि कर्म-बंध और प्रबन्ध की प्रपेक्षा से संसारी जीव और मक्त जीव में महान् अन्तर है। उसी प्रकार यद्यपि परसमय की अपेक्षा बहिरात्मा अर्थात मिथ्याष्टि अथवा पापी जीव और अन्तरात्मा अर्थात सम्यग्दृष्टि अथवा पुण्यात्मा समान हैं तथापि मिथ्यात्वभाव-अयथार्थश्रद्धान और सम्यक्त्व-भाव यथार्थ-श्रद्धान की अपेक्षा बहिरात्मा और अन्तरात्मा में महान् अंतर है।
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