Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 632
________________ [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : पुण्यार्जने कुरुत, यत्नमतो बुधेन्द्राः ॥२७०॥ अर्थ-इसलिये हे पण्डित जनो ! पुण्य उपार्जन करने में प्रयत्न करो। श्री वीरसेन आचार्य के शिष्य श्री जिनसेन आचार्य ने तो 'महापुराण' में पुण्य-उपार्जन का उपदेश दिया है। प्राज जब कि पाप-प्रबृत्ति की बहुलता है, विद्वानों की सन्तान भी धर्म से विमुख है और नवयुवक विषयकषायों में लिप्त हैं; तब इस उपदेश से 'कि पुण्य विष्ठा है, त्याज्य है, अज्ञानी इस पुण्यरूपी विष्ठा को चाटता है' जीवों का अहित ही होगा। जैसा पात्र होता है, वैसा ही उपदेश दिया जाता है । भील को मांसत्याग का, चाण्डाल को हिंसात्याग का उपदेश दिया गया, शुद्ध निश्चयनय का उपदेश नहीं दिया गया। प्राज अभक्ष्य के भक्षण करने वाले तथा सप्त व्यसन के सेवन करनेवाले को मात्र शुद्ध निश्चयनय का उपदेश दिया जाता है, जिससे वह पाप को पाप नहीं समझता। जिनको अपना हित करना है उनको उपयुक्त प्राचार्य-वाक्यों पर श्रद्धा करके पुण्योपार्जन करना चाहिए किन्तु उस पुण्य से मोक्ष की साधन-भूत सामग्री की इच्छा रखनी चाहिये । इंद्रिय-सुखों के लिये उस पुण्य का उपार्जन नहीं करना चाहिए, वह तो उस पुण्य से स्वयमेव ही मिलेगा । वृक्ष के नीचे बैठने वाले को छाया स्वयमेव मिलती है, उसकी याचना करना वृथा है । निदानसहित पुण्य मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं, बाधक ही है। (१४) सम्यग्दृष्टि को भी पुण्य इष्ट है। सम्यग्दृष्टि भी रत्नत्रय की प्राप्ति के लिये बुद्धिपूर्वक पुण्योपार्जन करता है। इसको दृष्टांत सहित सिद्ध किया जाता है । दृष्टांत इस प्रकार है मनुष्य मुनिदीक्षा के समय सर्व-उपधि के त्याग की प्रतिज्ञा करता है, किन्तु संयम के साधन-भूत शरीर रूपी उपधि का वह त्याग नहीं कर सकता इसलिए संयम के साधनभूत शरीर की स्थिति के लिये मुनि को आहार आदि ग्रहण करने का निषेध नहीं है तथापि शरीर और विषय कषायको पुष्ट करने के लिये आहार प्रादि ग्रहण करने का निषेध है । इस सम्बन्ध में पार्ष वाक्य इस प्रकार है 'मोक्षसुखाभिलाषिणां निश्चयेन देहादिसर्वसगपरित्याग एवोचितः ।' प्रवचनसार गा० २२४ टीका अर्थात्-मोक्ष के इच्छुक मुनियों को शरीर आदि सर्व परिग्रह का त्याग करना उचित है। 'यो हि नामाप्रतिषिद्धोऽस्मिन्नुपधिरपवादः स खलु निखिलोऽपि धामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनोपकारकस्वाधुपकरणभूत एव न पुनरन्यः । तस्य तु विशेषाः सर्वाहार्यवजितसहजरूपापेक्षितयथाजातरूपत्वेन बहिरंगलिंगभूताः कायपुद्गलाः। (प्रवचनसार गाथा २२५ टीका) अर्थात्-जो अनिषिद्ध ( जिनका निषेध नहीं है ऐसी ) उपधि ( परिग्रह ) है, वह अपवाद है, वास्तव में वह सभी उपधि मनिअवस्था की सहकारीकारण-भूत उपकार करने वाली होने से उपकरण रूप है, वह उपधि पौद्गलिक शरीर है, क्योंकि वह शरीर यथाजातरूप बहिरंग लिंग का कारण है। एतद्रत्नत्रयीपात्रं नांगत्यंगं विनाशनम् । पुष्यत्तत्तन सिद्धयर्थ स्वार्थभ्र शो हि मूर्खता ॥५९६॥ (आचारसार) अर्थ-यह शरीर रत्नत्रय धारण करने का पात्र है और वह बिना भोजन के ठहर नहीं सकता प्रतएव रलत्रय को सिद्ध करने के लिये इस शरीर का पालन करना भी आवश्यक है। क्योंकि अपने स्वार्थ से भ्रष्ट होना भी तो मर्खता है। अर्थात इस शरीर के द्वारा संयम व तपश्चरण कर मोक्ष प्राप्त करना आवश्यक है, इसलिये इस शरीर की रक्षा करना भी आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664