Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 639
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १५०३ _अर्थात्--गृहस्थ अशुभकर्मों के आने के कारण ऐसे असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि छहों कर्मों में लगा रहता है तथापि कर्मबन्ध के भय से पुण्य के कारणों को करने की इच्छा नहीं करता, तो वह पुरुष भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए नौ पदार्थों के स्वरूप को भी नहीं मानता तथा वह पुरुष अपने को सज्जन पुरुषों के मध्य में हँसी का स्थान बनाता है। सम्माविट्ठी पुण्णं ण होइ संसार कारणं णियमा। मोक्खस्स होइ हेउ जइ वि णियाणं ण सो कुणई ॥४०४॥ भावसंग्रह अर्थ-सम्यग्दृष्टि के द्वारा किया हुआ पुण्य संसार का कारण कभी नहीं होता ऐसा नियम है। यदि सम्यग्दृष्टिपुरुष के द्वारा किये हुए पुण्य में निदान न किया जाय तो पुण्य नियम से मोक्ष का कारण होता है। अकइयणियणसम्मो पण्णं काऊण णाणचरणट्ठो। उप्पज्जइ दिवलोए सुहपरिणामो सुलेसो वि ॥४०५॥ भावसंग्रह अर्थ-जिस सम्यग्दृष्टि के शुभपरिणाम हैं, शुभलेश्या हैं तथा जो सम्यग्ज्ञान और चारित्र को धारण करता है ऐसा सम्यग्दृष्टिपुरुष यदि निदान नहीं करता तो वह पुरुष मरकर स्वर्ग लोक में उत्पन्न होता है। स्वर्गलोक में देवों का उत्तम, दिव्य, सुन्दर शरीर मिलता है। वहाँ पर उत्तम भोगोपभोग की सामग्री मिलती है। तब वह देव अपने अवधिज्ञान के द्वारा जान लेता है कि यह सब सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र का फल है [ ४०६-४१८ ] । पणरवि तमेव धम्म मणसा सद्दहइ सम्मदिट्ठी सो। वंदेइ जिणवराणं दिसर पहइ सव्वाइं॥४१९॥ अर्थ-तदनन्तर वह सम्यग्दृष्टिदेव फिर भी अपने मन में उसी धर्म का श्रद्धान करता है। पंचमेरु नंदीश्वरद्वीप आदि के अकृत्रिमचैत्यालयों की वंदना करता है और विदेहक्षेत्र में साक्षात् जिनेन्द्रदेव की वंदना करता है। इय बहुकालं सग्गे भोगं भुजंतु विविहरमणीयं । चइऊण आउसखए उप्पज्जइ मच्चलोयम्मि ॥४२०॥ अर्थ-इसप्रकार बहुत कालतक स्वर्ग के अनेकप्रकार के सुन्दर भोगों का अनुभव करता है, तदनन्तर प्राय पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत होकर इस मनुष्यलोक में उत्पन्न होता है । मनुष्यलोक में भी वह बहुत महत्वशाली उत्तमकुल में उत्पन्न होता है तथा नानाप्रकार के अनुपमभोगों का अनुभव करता है और संसार, शरीर, भोगों से विरक्त होकर संयम धारण करता है। [ ४२१-४२२ ] लद्धजइ चरमतणु चिरकय प रण सिज्मए णियमा। पाविय केवलणाणं जहखाइयसंजमं सद्ध ॥४२३॥ तम्हा सम्माविटि पुण्ण मोक्खस्स कारणं हवई । इय गाऊण गिहत्थो पुण्ण चायरउ जत्तेण ॥ ४२४ ॥ भावसंग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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