Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 642
________________ १५०६ ] आउस्स बंध समए सिलो व्व सिलो व्व वेणु मूले य । किमिरायकसायाणं [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । उदयम्मि बंधेदि णिरयाऊ ॥२॥ २९३॥ [ ति. प. ] अर्थात् - पत्थर की रेखा के समान क्रोध, पत्थर के समान मान, बाँस की जड़ के समान माया और कृमिरंग के समान लोभ अर्थात् अतितीव्र कषायोदय होने पर नरकायु का बंध होता है । इन दोनों गाथाओं से यह सिद्ध हो जाता है कि 'कसाई के हिंसा करते समय तीव्रकषाय होती है जिससे उसके नरका का बंध होता है । मंदकषायरूप पुण्य नहीं होता, क्योंकि मंदकषायरूप पुण्यभाव के समय नरकआयु का बंध नहीं होता और न जीवघातरूप हिंसा होती है । यद्यपि हिंसा के समय कसाई के शरीर अगुरुलघु, निर्माण आदि ध्रुव बंधनेवाले ( निरंतर बंधनेवाली ) नामकर्म की कुछ पुण्यप्रकृतियों का भी बंध होता है; जैसा कि गोम्मटसार आदि ग्रंथों में कहा गया है, किन्तु यह पुण्यप्रकृतियों का बन्ध मंदकषाय के कारण नहीं होता है । ध्रुवबन्धप्रकृतियों के कारण उनका बन्ध होता है । तीव्र कषाय होने के कारण उन पुण्यप्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और अनुभागबन्ध अल्प होता है । सम्वद्विदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण । विवरीदेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणं तु ॥ १३४ ॥ गो. क. अर्थ - तिथंच मनुष्य और देव इन तीन प्रायुओं के सिवाय अन्य सब ११७ प्रकृतियों का उत्कृष्टस्थितिउत्कृष्ट क्लेश ( कषायसहित ) परिरणामों से होता है और जघन्यबन्ध विपरीत परिणामों से ( उत्कृष्टविशुद्ध अर्थात् मंदकषाय से ) होता है । Jain Education International सोनगढ़ के नेता हिंसा के समय भी मंदकषायरूप शुभभाव मानते हैं इसीलिये उन्होंने शास्त्रिपरिषद् के प्रस्ताव का उत्तर देते हुए जनवरी १९६६ के हिन्दी प्रात्मधर्म के पृ. ५६२ पर प्रश्नोत्तररूप में लिखा है कि हिंसा के समय अल्प- अल्प स्थिति - अनुभागसहित पुण्य प्रघातिकर्म बँधते हैं । उनकी ऐसी मान्यता गाथा १३४ गोम्मटसारकर्मकाण्ड के विरुद्ध है । जनवरी ६६ के हिन्दी आत्मधर्म पृ. ५६१ उत्तर पृ. २५ पर जो यह लिखा है " यदि कषायरूप पुण्य सर्वथा न हो ( एकांत पाप ही हो ) तो चैतन्य नहीं रह सकता ।" यह भी गलत है, क्योंकि चैतन्य जीव का लक्षण है, पारिणामिकभाव है उसका कभी भी प्रभाव नहीं हो सकता । तीव्रकषायरूप पाप होने पर भी चैतन्यगुण का नाश नहीं होता है। ज्ञान और दर्शन में हानि-वृद्धि ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मोदय से होती है । जिसने कषाय का नाश कर दिया है ऐसे जीव के मति और श्रुत दो ज्ञान संभव हैं और कृष्णलेश्यावाले नारकी के मति श्रत अवधि ये तीन ज्ञान होते हैं । किसी भी दिगम्बर जैनाचार्य ने यह नहीं लिखा है कि “हिंसा करते समय कसाई के मंदकषायरूप पुण्य भी होता है, अथवा अकेला पुण्य या अकेला पाप ( मंदकषाय या तीव्रकषाय ) किसी जीव को नहीं हो सकता, पुण्य, पाप दोनों ही होते हैं, यदि मात्र पुण्य ही हो जाय तो संसार ही नहीं हो सकता । और मात्र पाप ही हो जाय तो चैतन्य का ही सर्वथा लोप हो जाय अर्थात् आत्मा का ही विनाश हो जाय ।" इसके लिये जो आधार दिये गये हैं उनमें भी यह नहीं कहा गया कि अकेला पुण्यभाव या प्रकेला पापभाव नहीं हो सकता, किन्तु इसके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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