Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ-यदि वह जीव अपने चिरकाल के संचित किये हुए पुण्यकर्म के उदय से चरमशरीरी हुआ तो वह जीव यथाख्यातनामा शुद्धचारित्र को धारण कर तथा केवलज्ञान को पाकर नियम से सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है। ऊपर लिखे इस कथन से यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि का पुण्य मोक्ष का कारण होता है। यही समझकर गृहस्थ को यत्नपूर्वक पुण्य का उपार्जन करते रहना चाहिये।
इसप्रकार प्राचार्यों ने सम्यग्दृष्टि को पुण्य उपार्जन का उपदेश दिया है, क्योंकि-पुण्य मोक्ष का कारण है।
जो अभव्य हैं उनको भी पुण्य उपार्जन करना चाहिये, क्योंकि उनको नरकगति के दुःख नहीं होंगे। जैसे प्रातप में खड़ा हया मनष्य दःख पावे है वैसे ही हिंसा आदि पाप करनेवाला जीव नरक के दुःख पाता है। जैसे छाया में खड़ा हया मनष्य सुख पाता है वैसे ही पुण्य करनेवाला जीव स्वर्गादि के सुख पाता है। इसलिये भी पाप से पुण्य श्रेष्ठ ही है । मोक्षपाहुड़ गाथा २५ ।
इसप्रकार पुण्य भव्य के लिये मोक्ष का कारण है और अभव्य के लिये संसारसुख का कारण है। किसी भी प्राचार्य ने पुण्य को विष्ठा नहीं कहा है।
प्रस्ताव के उत्तर में जो आधार दिये गये हैं उनमें कोई भी आधार ऐसा नहीं है जिसमें पुण्य को विष्ठा कहा गया हो।
शुभभाव मात्र प्रास्रव है ऐसा भी किसी प्राचार्य ने नहीं कहा है। भावपाहुड़ गाथा ७६ में धर्मध्यान को शुभभाव कहा है। श्री उमास्वामी आचार्य ने मो. शा. अ. ९ सूत्र २९ में धर्मध्यान को मोक्ष का कारण कहा है।
श्री वीरसेनाचार्य ने ध. पु. १३ पृ. ८१ पर 'मोहणीयविणासो पुण धम्मज्माणफलं' शब्दों द्वारा 'मोहनीय' का विनाश करना धर्मध्यान का फल है । ज. प. पु. १ पृ. ६ पर शुभ भाव से संवर, निर्जरा कही है। इन पार्षग्रन्थों के विपरीत सोनगढ़वाले शुभभाव को मात्र प्रास्रव मानते हैं।
उत्तर के आधार नं०३ में समयसार गा. १ श्री जयसेनाचार्य की टीका, अध्यात्मतरंगिणी चतुविशतिस्तव के अाधार पर द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म को मल सिद्ध किया गया है यहाँ पर मल का अर्थ विष्ठा नहीं है। दुसरे पुण्यभाव न द्रव्यकर्म है, न नोकर्म है और न भावकर्म है। चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से होनेवाले भावों की भावकर्म संज्ञा है चारित्रमोहनीय के उदय से होने वाले भाव सब पापरूप हैं; क्योंकि वे मिथ्यात्व, कषायरूप होते हैं। घातियाकर्म भी सब पापरूप हैं ।
समयसार गाथा ७२ में आस्रव से अभिप्राय क्रोधादि कषायों से है, जैसा कि श्री अमृतचन्द्राचार्य की टीका के "क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो" इन शब्दों से स्पष्ट है। क्रोधादिकषाय तो पापरूप हैं उन्हीं को गाथा ७२ में प्रशचि कहा है । पुण्य को अशुचि नहीं कहा है । पुण्यास्रव तो तेरहवेंगुणस्थान में भी श्री अरहंत भगवान के होता है।
समयसार गाथा ३०६ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने "प्रतिक्रमणादिः स सर्वापराधविषदोषाकर्षणसमर्थत्वेनामृतकुभोऽपि ।" अर्थात् "प्रतिक्रमणादि सब अपराधरूपपने से विषदोष के क्रम को मेटने में समर्थ होने
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